प्रातः
स्मरणीय परम
पूज्य संत
श्री आसारामजी
बापू के
सत्संग
प्रवचन
भगवन्नाम
जप-महिमा
भगवान
का नाम क्या
नहीं कर सकता?
भगवान का
मंगलकारी नाम
दुःखियों का
दुःख मिटा
सकता है,
रोगियों के
रोग मिटा सकता
है, पापियों
के पाप हर
लेता, अभक्त
को भक्त बना
सकता है,
मुर्दे में
प्राणों का
संचार कर सकता
है।
भगवन्नाम-जप
से क्या फायदा
होता है? कितना
फायदा होता है? इसका
पूरा बयान
करने वाला कोई
वक्ता पैदा ही
नहीं हुआ और न
होगा।
नारदजी
पिछले जन्म
में
विद्याहीन,
जातिहीन, बलहीन
दासीपुत्र
थे। साधुसंग
और
भगवन्नाम-जप के
प्रभाव से वे
आगे चलकर
देवर्षि नारद
बन गये।
साधुसंग और
भगवन्नाम-जप
के प्रभाव से
ही कीड़े में
से मैत्रेय
ऋषि बन गये।
परंतु
भगवन्नाम की
इतनी ही महिमा
नहीं है। जीव
से ब्रह्म बन
जाय इतनी भी
नहीं,
भगवन्नाम व
मंत्रजाप की
महिमा तो लाबयान
है।
ऐसे
लाबयान
भगवन्नाम व
मंत्रजप की
महिमा
सर्वसाधारण
लोगों तक
पहुँचाने के लिए
पूज्यश्री की
अमृतवाणी से
संकलित
प्रवचनों का
यह संग्रह
लोकार्पण
करते हुए हमें
हार्दिक
प्रसन्नता हो
रही है।
यदि
इसमें कहीं
कोई त्रुटि रह
गयी हो तो
सुविज्ञ पाठक
हमें सूचित
करने की कृपा
करें। आपके नेक
सुझाव के लिए भी
हम आभारी
रहेंगे।
श्री
योग वेदान्ती
सेवा समिति
अमदावाद
आश्रम।
सत्वशुद्धिकरं
नाम नाम
ज्ञानप्रदं
स्मृतम्।
मुमुक्षाणां
मुक्तिप्रदं
कामिनां
सर्वकामदम्।।
सचमुच, हरि का नाम
मनुष्यों की
शुद्धि करने
वाला, ज्ञान
प्रदान करने
वाला, मुमुक्षुओं
को मुक्ति
देने वाला और
इच्छुकों की
सर्व
मनोकामना
पूर्ण करने
वाला है।
एकाग्रतापूर्वक
मंत्रजाप से
योग-सामर्थ्य
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरुमंत्रो
मुखे यस्य
तस्य
सिद्धयन्ति
नान्यथा।
दीक्षया
सर्वकर्माणि
सिद्धयन्ति
गुरुपुत्रके।।
जिसके
मुख में
गुरुमंत्र है
उसके सब कर्म
सिद्ध होते
हैं, दूसरे के
नहीं। दीक्षा
के कारण शिष्य
के सर्व कार्य
सिद्ध हो जाते
हैं।
श्रद्धा
बहुत ऊँची चीज
है। विश्वास
और श्रद्धा का
मूल्यांकन
करना संभव ही
नहीं है। जैसे
अप्रिय
शब्दों से
अशांति और
दुःख पैदा
होता है ऐसे
ही श्रद्धा और
विश्वास से
अशांति शांति
में बदल जाती
है, निराशा
आशा में बदल
जाती है, क्रोध
क्षमा में बदल
जाता है, मोह
समता में बदल
जाता है, लोभ
संतोष में बदल
जाता और काम
राम में बदल
जाता है।
श्रद्धा और विश्वास
के बल से और भी
कई रासायनिक
परिवर्तन होते
हैं। श्रद्धा
के बल से शरीर
का तनाव शांत हो
जाता है, मन
संदेह रहित हो
जाता है,
बुद्धि में
दुगनी-तिगुनी
योग्यता आती
है और अज्ञान
की परतें हट
जाती हैं।
श्रद्धापूर्वाः
सर्वधर्मा.... सभी
धर्मों में –
चाहे वह
हिन्दू धर्म
हो चाहे इसलाम
धर्म, या अन्य
कोई भी धर्म
हो, उसमें
श्रद्धा की
आवश्यकता है।
ईश्वर, औषधि,
मूर्ति, तीर्थ
एवं मंत्र में
श्रद्धा होगी
तो फल मिलेगा।
यदि
कोई कहे कि 'मेरा
मंत्र छोटा
है...' तो यह सही
नहीं है बल्कि
उसकी श्रद्धा
ही छोटी है।
वह भूल जाता
है कि छोटा सा
मच्छर, एक
छोटी सी चींटी
हाथी को मार
सकती है।
श्रद्धा की
छोटी-सी
चिंगारी
जन्म-जन्मांतर
के पाप-ताप को,
अज्ञान को
हटाकर हमारे
हृदय में
ज्ञान, आनंद,
शांति देकर, ईश्वर
का नूर चमका
कर ईश्वर के
साथ एकाकार
करा देती
है।यह
श्रद्धा देवी
का ही तो
चमत्कार है !
अष्टावक्र
मुनि राजा जनक
से कहते हैं- श्रद्धस्व
तात
श्रद्धस्व ... 'श्रद्धा
कर, तात !
श्रद्धा कर।'
श्रीकृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं- श्रद्धावाँल्लभते
ज्ञानं
तत्परः
संयतेन्द्रियः
(गीताः 4.39) 'जितेन्द्रिय,
साधनापरायण
और
श्रद्धावान
मनुष्य ज्ञान
को प्राप्त
होता है।'
श्रद्धावान
उस
आत्मा-परमात्मा
को पा लेता है।
एक
पायलट पर भी
हम जैसों को
श्रद्धा रखनी
पड़ती है।
संसार का कुछ
लेना-देना
नहीं था, फिर
भी अमेरिका,
युरोप,
अफ्रीका,
जर्मनी,
हाँगकाँग,
दुबई – जहाँ भी
गये हमको
पायलट पर
श्रद्धा करनी
पड़ी। हमारी
सब चीजें और
हमारी जान, सब
पायलट के हवाले.......
तब हम यहाँ से
उठाकर दुबई
पहुँचाये गये,
दुबई से उठाकर
लंदन, लंदन से
उठाकर
अमेरिका
पहुँचाये गये....
यहाँ
से अमेरिका
पहुँचाने
वाले पर भी
श्रद्धा रखनी
पड़ती है तो
जो 84 लाख
जन्मों से
उठाकर ईश्वर
के साथ एकाकार
करने वाले
शास्त्र, संत
और मंत्र है
उन पर श्रद्धा
नहीं करेंगे
तो किस पर
करेंगे भाई
साहब? इसलिए
मंत्र पर अडिग
श्रद्धा होनी
चाहिए।
मकरन्द
पांडे के घर
किसी संत की
दुआ से एक बालक
का जन्म हुआ। 13-14
वर्ष की उम्र
में वह बालक
ग्वालियर के
पास किसी गाँव
में आम के एक
बगीचे की
रखवाली करने
के लिए गया।
उसका नाम
तन्ना था। वह
कुछ पशुओं की आवाज
निकालना
जानता था।
हरिदास
महाराज अपने
भक्तों को
लेकर हरिद्वार
से लौट रहे
थे। वे उसी
बगीचे में
आराम करने के
लिए रुके।
इतने में
अचानक शेर की
गर्जना सुनाई
दी। शेर की
गर्जना सुनकर
सारे यात्री
भाग खड़े हुए।
हरिदास
महाराज ने
सोचा कि 'गाँव
के बगीचे में
शेर कहाँ से आ
सकता है?'
इधर-उधर
झौंककर देखा
तो एक लड़का
छुपकर हँस रहा
था। महाराज ने
पूछाः "शेर
की आवाज तूने
की न?"
तन्ना
ने कहाः "हाँ।"
महाराज के
कहने पर उसने
दूसरे
जानवरों की भी
आवाज निकालकर
दिखायी।
हरिदास
महाराज ने उसके
पिता को
बुलाकर कहाः "इस
बेटे को मेरे
साथ भेज दो।"
पिता ने
सम्मति दे दी।
हरिदास
महाराज ने
शेर, भालू या
घोड़े-गधे की
आवाजें जहाँ
से पैदा होती
हैं उधर
(आत्मस्वरूप)
की ओर ले जाने वाला गुरुमंत्र
दे दिया और
थोड़ी
संगीत-साधना
करवायी।
तन्ना साल में
10-15 दिन अपने
गाँव आता और
शेष समय
वृंदावन में
हरिदासजी
महाराज के पास
रहता। बड़ा
होने पर उसकी
शादी हुई।
एक
बार ग्वालियर
में अकाल पड़
गया। उस समय
के राजा
रामचंद्र ने
सेठों को बुलाकर
कहाः "गरीबों
के आँसू
पोंछने के लिए
चंदा इकट्ठा
करना है।"
किसी
ने कुछ दिया,
किसी ने कुछ...
हरिदास के
शिष्य तन्ना
ने अपनी पत्नी
के जेवर देते
हुए कहाः "राजा
साहब ! गरीबों
की सेवा में
इतना ही दे
सकता हूँ।"
राजा उसकी
प्रतिभा को
जानता था।
राजा ने कहाः "तुम
साधारण आदमी
नहीं हो,
तुम्हारे पास
गुरुदेव का
दिया हुआ
मंत्र हैं और
तुम गुरु के
आश्रम में रह
चुके हो।
तुम्हारे
गुरु समर्थ
हैं। तुमने
गुरुआज्ञा का
पालन किया है।
तुम्हारे पास गुरुकृपारूपी धन
है। हम तुमसे
ये
गहने-गाँठेरूपी
धन नहीं लेंगे
बल्कि
गुरुकृपा का
धन चाहेंगे।"
"महाराज
!
मैं समझा
नहीं।"
"तुम अगर
गुरु के साथ
तादात्म्य
करके मेघ राग
गाओगे तो यह
अकाल सुकाल
में बदल सकता
है। सूखा हरियाली
में बदल सकता
है। भूख
तृप्ति में
बदल सकती है
और मौतें जीवन
में बदल सकती
हैं। श्रद्धा
और विश्वास से
गुरुमंत्र
जपने वाले की
कविताओं में
भी बल आ जाता
है। तुम केवल
सहमति दे दो
और कोई दिन
निश्चित कर
लो। उस दिन हमसब इस
राजदरबार में
ईश्वर को
प्रार्थना
करते हुए
बैठेंगे और
तुम मेघ राग
गाना।"
राग-रगिनियों
में बड़ी ताकत
होती है। जब
झूठे शब्द भी
कलह और झगड़े
पैदा कर सक
देते हैं तो
सच्चे शब्द,
ईश्वरीय यकीन
क्या नहीं कर
सकता? तारीख
तय हो गयी।
राज्य में
ढिंढोरा पीट
दिया गया।
उन
दिनों दिल्ली
के बादशाह
अकबर का
सिपहसालार
ग्वालियर आया
हुआ था।
ढिंढोरा
सुनकर उसने दिल्ली
जाने का
कार्यक्रम
स्थगित कर
दिया। उसने
सोचा कि 'तन्ना
के मेघ राग
गाने से क्या
सचमुच बरसात
हो सकती है? यह
मुझे अपनी
आँखों से
देखना है।'
कार्यक्रम
की तैयारी
हुई। तन्ना
थोड़ा जप-ध्यान
करके आया था।
उसका हाथ वीणा
की तारों पर घूमने
लगा। सबने
अपने दिल के
यकीन की तारों
पर भी श्रद्धा
के सुमन
चढ़ायेः
'हे
सर्वसमर्थ,
करूणा-वरूणा
के धनी, मेघों
के मालिक वरूण
देव, आत्मदेव,
कर्ता-भोक्ता
महेश्वर ! परमेश्वर
!
तेरी
करूणा-कृपा इन
भूखे जानवरों
पर और गलतियों
के घर –
इन्सानों पर
बरसे...
हम
अपने कर्मों
को तोलें तो
दिल धड़कता
है। किंतु
तेरी करूणा
पर, तेरी कृपा
पर हमें विश्वास
है। हम अपने
कर्मों के बल
से नहीं किंतु
तेरी करूणा के
भरोसे, तेरे
औदार्य के
भरोसे तुझसे
प्रार्थना
करते हैं.....
हे
गोबिन्द ! हे
गोपाल ! हे
वरूण देव ! इस
मेघ राग से
प्रसन्न होकर
तू अपने मेघों
को आज्ञा कर
सकता है और
अभी-अभी तेरे
मेघ इस इलाके
की अनावृष्टि
को सुवृष्टि
में बदल सकते
हैं।
इधर तन्ना
ने मेघ बरसाने
के लिए मेघ
राग गाना शुरु
किया और
देखते-ही-देखते
आकाश में बादल
मँडराने लगे....
ग्वालियर की
राजधानी और
राजदरबार
मेघों की
घटाओं से
आच्छादित
होने लगा। राग
पूरा हो उसके पूर्व
ही सृष्टिकर्ता
ने पूरी कृपा
बरसायी और जोरदार
बरसात होने
लगी !
अकबर का
सिपहसालार देखकर दंग
रहा गया कि
कवि के गान
में इतनी
क्षमता कि बरसात
ला दे।
सिपहसालार ने
दिल्ली जाकर
अकबर को यह
घटना सुनायी।
अकबर ने
ग्वालियर
नरेश को
समझा-बुझाकर तन्ना
को माँग लिया।
अब तन्ना 'कवि
तन्ना' नहीं
रहे बल्कि
अकबर के नवरत्नों
में एक रत्न 'तानसेन' के
नाम से
सम्मानित
हुए।
शब्दों
में अदभुत
शक्ति होती।
शब्द अगर भगवान
के हों तो
भगवदीय शक्ति
भी काम करती
है। शब्द अगर
मंत्र हों तो
मांत्रिक
शक्ति भी काम
करती है।
मंत्र अगर
सदगुरु के
द्वारा मिला
हो तो उसमें
गुरुत्व भी आ
जाता है।
भगवान
अवतार लेकर
आते हैं तब भी
गुरु के द्वार
जाते हैं। जब
सीताजी को
लौटाने के
विषय में कई
संदेश भेजने
पर भी रावण
नहीं माना,
युद्ध निश्चित
हो गया और
लंका पर चढ़ाई
करनी थी, तब
अगस्त्य ऋषि
ने भगवान
श्रीरामचंद्रजी
से कहाः
"राम
!
रावण मायावी
दैत्य है। तुम
सर्वसमर्थ हो
फिर भी मैं
तुम्हें
आदित्य-हृदय
मंत्र की
साधना-विधि
बताता हूँ।
उसका प्रयोग
करोगे तुम तो विजयी
हो जाओगे।"
अगस्त्य
ऋषि से
श्रीरामजी ने
आदित्य-हृदय
मंत्र तथा
उसकी
साधना-विधि
जानी और
मायावी रावण के
साथ युद्ध में
विजयी हुए।
मंत्र में ऐसी
अथाह शक्ति
होती है।
मंत्रों
के अर्थ कोई
विशेष
विस्तारवाले
नहीं होते और
कई मंत्रों के
अर्थ समझना
कोई जरूरी भी
नहीं होता।
उनकी ध्वनि से
ही वातावरण
में बहुत
प्रभाव पड़
जाता है।
जैसे
– आपको जोड़ों
का दर्द है,
वायु की तकलीफ
है तो शिवरात्री
की रात में 'बं-बं'
मंत्र का सवा
लाख जप करें।
आपके घुटनों
का दर्द, आपकी
वायु-सम्बन्धी
तकलीफें दूर
हो जायेंगी।
ऐसे ही
अलग-अलग
मंत्रों की
ध्वनि का
अलग-अलग प्रभाव
पड़ता है।
जैसे कोई थके
हारे हैं,
भयभीत हैं
अथवा आशंकित
है कि पता
नहीं कब क्या
हो जाये?
उनको नृसिंह
मंत्र जपना
चाहिए ताकि उन
पर मुसीबतें
कभी न मँडरायें।
फिर उन पर
मुसीबत आती
हुई दिखेगी
परंतु
मंत्रजाप के
प्रभाव से वह यों
ही चली
जायेगी, जापक
का कुछ भी न
बिगाड़ पायेगी।
अगर
जान-माल को
हानि पहुँचने
का भय या
आशंका है तो
डरने की कोई
जरूरत नहीं
है। नृसिंह
मंत्र का जप
करें। इस
मंत्र की रोज
एक माला कर
लें। नृसिंह
मंत्र इस
प्रकार हैः
ॐ
उग्र वीरं महा
विष्णुं
ज्वलन्तं
सर्वतोमुखम्।
नृसिंह
भीषणं भद्रं
मृत्यु
मृत्युं
नमाम्यहम्।।
तुम्हारे
आगे इतनी बड़ी
मुसीबत नहीं
है जितनी
प्रहलाद के
आगे थी।
प्रह्लाद
इकलौता बेटा था
हिरण्यकशिपु
का।
हिरण्यकशिपु
और उसके सारे
सैनिक एक तरफ
और प्रह्लाद
एक तरफ। किंतु
भगवन्नाम जप
के प्रभाव से
प्रह्लाद
विजयी हुआ,
होलिका जल गयी
– यह इतिहास
सभी जानते
हैं।
भगवान
के नाम में,
मंत्र में
अदभुत
समर्थ्य होता
है किंतु उसका
लाभ तभी मिल
पाता है जब
उसका जप
श्रद्धा-विश्वासपूर्वक
किया जाय.....
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
मेरे
मित्र संत हैं
लालजी
महाराज। पहले
वे अमदावाद से
55-60 किलोमीटर
दूर वरसोड़ा
गाँव मे रहते
थे। वे किसान
थे। उनकी माँ
भगवन्नाम-जप
कर रही थी।
शाम का समय
था। माँ ने
बेटे से कहाः
"जरा
गाय-भैंस को
चारा डाल
देना।"
बारिश
के दिन थे। वे
चारा उठाकर ला
रहे थे तो उसके
अंदर बैठे
भयंकर साँप पर
दबाव पड़ा और
उसने काट
लिया। वे
चिल्लाकर गिर
पड़े। साँप के
जहर ने उन्हें
भगवान की गोद
में सुला
दिया।
गाँव के
लोग दौड़े आये
और उनकी माँ
से बोलेः "माई
!
तेरा इकलौता
बेटा चला गया।"
माँ- "अरे,
क्या चला गया?
भगवान की जो
मर्जी होती है
वही होता है।"
माई
ने बेटे को
लिटा दिया, घी
का दिया जलाया
और माला
घुमाना शुरु
कर दिया। वह
रातभर जप करती
रही। सुबह
बेटे के शरीर
पर पानी
छिड़ककर
बोलीः "लालू
! उठ | सुबह हो
गयी है।"
बेटे का
सूक्ष्म शरीर
वापस आया और
बेटा उठकर बैठ
गया। वे
(लालजी
महाराज) अभी
भी हैं। 80 वर्ष
से ऊपर उनकी
उम्र है।
मृतक
में भी प्राण
फूँक सकता है
उत्तम जापक द्वारा
श्रद्धा से
क्रिया गया
मंत्रजाप !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
24 घंटों
में 1440 मिनट
होते हैं। इन 1440
मिनटों में से
कम-से-कम 440 मिनट
ही परमात्मा
के लिए लगाओ।
यदि 440 मिनट
नहीं लगा सकते
तो 240 मिनट ही
लगाओ। अगर उतने
भी लगा सकते
तो 140 मिनट ही
लगाओ। अगर उतने
भी नहीं तो 100
मिनट अर्थात्
करीब पौने दो
घंटे ही उस
परमात्मा के
लिए लगाओ तो
वह दिन दूर नहीं
कि जिसकी
सत्ता से
तुम्हारा
शरीर पैदा हुआ
है, जिसकी
सत्ता से
तुम्हारे दिल
की धड़कनें चल
रहीं है, वह
परमात्मा
तुम्हारे
हृदय में प्रकट
हो जाय.....
24 घंटे
हैं आपके पास....
उसमें से 6
घंटे सोने में
और 8 घंटे
कमाने में लगा
दो तो 14 घंटे हो
गये। फिर भी 10
घंटे बचते हैं।
उसमें से अगर 5
घंटे भी आप
इधर-उधर, गपशप
में लगा देते
हैं तब भी 5
घंटे भजन कर
सकते हैं.... 5 घंटे
नहीं तो 4, 4 नहीं
तो 3, 3 नहीं तो 2, 2
नहीं तो कम-से-कम
1.5 घंटा तो रोज
अभ्यास करो और
यह 1.5 घंटे का
अभ्यास आपका
कायाकल्प कर
देगा।
आप
श्रद्धापूर्वक
गुरुमंत्र का
जप करेंगे तो
आपके हृदय में
विरहाग्नि
पैदा होगी,
परमात्म-प्राप्ति
की भूख पैदा
होगी। जैसे, उपवास
के दौरान सहन
की गयी भूख
आपके शरीर की
बीमारियों को
हर लेती है,
वैसे ही भगवान
को पाने की
भूख आपके मन व
बुद्धि के
दोषों को, शोक
व पापों को हर
लेगी।
कभी
भगवान के लिए
विरह पैदा
होगा तो कभी
प्रेम..... प्रेम
से रस पैदा
होगा और विरह
से प्यास पैदा
होगी।
भगवन्नाम-जप
आपके जीवन में
चमत्कार पैदा
कर देगा....
परमेश्वर
का नाम
प्रतिदिन
कम-से-कम 1000 बार
तो लेना ही
चाहिए। अर्थात्
भगवन्नाम की 10
मालाएँ तो
फेरनी ही चाहिए
ताकि उन्नति
तो हो ही,
किंतु पतन न
हो। अपने मंत्र
का अर्थ समझकर
प्रीतिपूर्वक
जप करें। इससे
बहुत लाभ होगा
|
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भगवन्नाम
अनंत माधुर्य,
ऐश्वर्य और
सुख की खान
है। नाम और
नामी में
अभिन्नता
होती है। नाम-जप
करने से जापक
में नामी के
स्वभाव का
प्रत्यारोपण
होने लगता है
और जापक के
दुर्गुण, दोष,
दुराचार
मिटकर दैवी
संपत्ति के
गुणों का आधान
(स्थापना) और
नामी के लिए
उत्कट
प्रेम-लालसा
का विकास होता
है। भगवन्नाम,
इष्टदेव के
नाम व गुरुनाम
के जप और कीर्तन
से अनुपम
पुण्य
प्राप्त होता
है। तुकारामजी
कहते हैं- "नाम
लेने से कण्ठ
आर्द्र और
शीतल होता है।
इन्द्रियाँ
अपना व्यापार
भूल जाती हैं।
यह मधुर सुंदर
नाम अमृत को
भी मात करता
है। इसने मेरे
चित्त पर
अधिकार कर लिया
है। प्रेमरस
से प्रसन्नता
और पुष्टि
मिलती है।
भगवन्नाम ऐसा
है कि इससे
क्षणमात्र
में त्रिविध
ताप नष्ट हो
जाते हैं।
हरि-कीर्तन में
प्रेम-ही-प्रेम
भरा है। इससे
दुष्ट बुद्धि
सब नष्ट हो
जाती हैं और
हरि-कीर्तन
में समाधि लग
जाती है।"
तुलसीदासजी
कहते हैं-
नाम
जपत मंगल दिसि
दसहूँ।
तथा
नामु
लेत भवसिंधु
सुखाहीं।
करहु बिचारू
सुजन मन
माहीं।।
बेद
पुरान संत मत
एहू। सकल
सुकृत फल राम
सनेहू।।
'बृहन्नारदीय
पुराण' में
कहा हैः
संकीर्तनध्वनिं
श्रुत्वा ये च
नृत्यन्तिमानवाः।
तेषां
पादरजस्पर्शान्सद्यः
पूता
वसुन्धरा।।
'जो
भगवन्नाम की
ध्वनि को
सुनकर प्रेम
में तन्मय
होकर नृत्य
करते हैं,
उनकी चरणरज से
पृथ्वी शीघ्र
ही पवित्र हो
जाती है।'
'श्रीमद्
भागवत' के
अन्तिम श्लोक
में भगवान
वेदव्यास जी
कहते हैं-
नामसंकीर्तन
यस्य
सर्वपापप्रणाशनम्।
प्रणामो
दुःखशमनस्तं
नमामि हरिं
परम्।।
'जिन
भगवान के
नामों का
संकीर्तन
सारे पापों को
सर्वथा नष्ट
कर देता है और
जिन भगवान के
चरणों में
आत्मसमर्पण,
उनके चरणों
प्रणाम सर्वदा
के लिए सब
प्रकार के
दुःखों को
शांत कर देता है,
उन्हीं
परमतत्त्वस्वरूप
श्रीहरि को
मैं नमस्कार करता
हूँ।'
एक बार
नारदजी ने
भगवान
ब्रह्माजी से
कहाः "ऐसा
कोई उपाय
बतलाइये
जिससे मैं
विकराल कलिकाल
के जाल में न
आऊँ।"
इसके उत्तर
में
ब्रह्माजी ने
कहाः
आदिपुरुषस्य
नारायणस्य
नामोच्चारणमात्रेण
निर्धूत
कलिर्भवति।
'आदिपुरुष
भगवान नारायण
के नामोच्चार
करने मात्र से
ही मनुष्य कलि
से तर जाता
है।'
(कलिसंतरणोपनिषद्)
'पद्म
पुराण में आया
हैः
ये
वदन्ति नरा
नित्यं
हरिरित्यक्षरद्वयम्।
तस्योच्चारणमात्रेण
विमुक्तास्ते
न संशयः।
'जो
मनुष्य
परमात्मा के
दो अक्षरवाले
नाम 'हरि' का
उच्चारण करते
हैं, वे उसके
उच्चारणमात्र
से मुक्त हो
जाते हैं, इसमें
शंका नहीं है।'
भगवान
के कीर्तन की
प्रणाली अति
प्राचीन है। चैतन्य
महाप्रभु ने
सामूहिक
उपासना,
सामूहिक
संकीर्तन
प्रणाली
चलायी। इनके
कीर्तन में जो
भी सम्मिलति
होते वे
आत्मविस्मृत
हो जाते, आनंदावेश
की गहरी अनुभूतियों
में डूब जाते
और
आध्यात्मिक
रूप से परिपूर्ण
व असीम कल्याण
तथा आनंद के
क्षेत्र में पहुँच
जाते थे। श्री
गौरांग
द्वारा
प्रवर्तित
नामसंकीर्तन
ईश्वरीय
ध्वनि का एक
बड़ा ही महत्वपूर्ण
आध्यात्मिक
रूप है। इसका
प्रभाव
क्षणभंगुर
नहीं है। यह न
केवल
इन्द्रियों को
ही सुख देता
है, वरन्
अंतःकरण पर
सीधा, प्रबल और
शक्तियुक्त
प्रभाव डालता
है। नर-नारी
ही नहीं, मृग,
हाथी व हिंसक
पशु व्याघ्र
आदि भी चैतन्य
महाप्रभु के
कीर्तन में
तन्मय हो जाते
थे।
वेदों
के गान में
पवित्रता तथा
वर्णोच्चार छन्द
और व्याकरण के
नियमों का
कड़ा ख्याल
रखना पड़ता है
अन्यथा
उद्देश्य भंग
होकर उलटा
परिणाम ला
सकता है।
परंतु
नाम-संकीर्तन
में उपरोक्त
विविध प्रकार
की
सावधानियों
की आवश्यकता
नहीं है।
शुद्ध या
अशुद्ध,
सावधानी या असावधानी
से किसी भी
प्रकार
भगवन्नाम
लिया जाय,
उससे
चित्तशुद्धि,
पापनाश तथा
परमात्म-प्रेम
की वर्षा होगी
ही।
कीर्तन
तीन प्रकार से
होता हैः
व्यास पद्धति,
नारदीय
पद्धति और
हनुमान
पद्धति।
व्यास पद्धति
में वक्ता
व्यासपीठ पर
बैठकर
श्रोताओं को
अपने साथ
कीर्तन कराते
हैं। नारदीय
पद्धति में
चलते-फिरते
हरिगुण गाये
जाते हैं और
साथ में अन्य
भक्तलोग भी शामिल
हो जाते हैं।
हनुमत्
पद्धति में
भक्त भगवदावेश
में नाम गान
करते हुए,
उछल-कूद मचाते
हुए नामी में
तन्मय हो जाता
है। श्री
चैतन्य महाप्रभु
की कीर्तन
प्रणाली
नारदीय और
व्यास पद्धति
के
सम्मिश्रणरूप
थी। चैतन्य के
सुस्वर
कीर्तन पर
भक्तगण नाचते,
गाते, स्वर
झेलते हुए हरि
कीर्तन करते
थे। परंतु यह
कीर्तन-प्रणाली
चैतन्य के
पहले भी थी और
अनादि काल से
चली आ रही है।
परमात्मा के
श्रेष्ठ भक्त
सदैव कीर्तनानंद
का रसास्वादन
करते रहते
हैं। 'पद्म
पुराण' के
भागवत
माहात्म्य (6.87)
में आता हैः
प्रहलादस्तालधारी
तरलगतितया
चोद्धवः कांस्यधारी।
वीणाधारी
सुरर्षिः
स्वरकुशलतया
रागकर्तार्जुनोऽभूत्।।
इन्द्रोवादीन्मृदंगः
जयजयसुकराः
कीर्तने ते
कुमारा।
यत्राग्रे
भाववक्ता, सरसरचनया
व्यासपुत्रो
बभूव।।
'ताल
देने वाले
प्रह्लाद थे,
उद्धव
झाँझ-मँजीरा
बजाते थे,
नारदजी वीणा
लिये हुए थे,
अच्छा स्वर होने
के कारण
अर्जुन गाते
थे, इन्द्र
मृदंग बजाते
थे,
सनक-सनन्दन
आदि कुमार
जय-जय ध्वनि
करते थे और
शुकदेवजी
अपनी रसीली
रचना से रस और
भावों की
व्याख्या
करते थे।'
उक्त सब
मिलकर एक भजन
मंडली बनाकर
हरि-गुणगान करते
थे।
यह
भगवन्नाम-कीर्तन
ध्यान,
तपस्या, यज्ञ
या सेवा से
किंचित् भी
निम्नमूल्य
नहीं है।
कृते
यद् ध्यायतो
विष्णुं
त्रेतायां
यजतो मखैः।
द्वापरे
परिचर्यायां
कलौ
तद्धरिकीर्तनात्।।
'सत्ययुग
में भगवान
विष्णु के
ध्यान से,
त्रेता में
यज्ञ से और
द्वापर में
भगवान की पूजा
से जो फल
मिलता था, वह
सब कलियुग में
भगवान के नाम-कीर्तन
मात्र से ही
प्राप्त हो
जाता है।'
(श्रीमद्
भागवतः 12.3.52)
भगवान
श्रीकृष्ण
उद्धव से कहते
हैं कि बुद्धिमान
लोग
कीर्तन-प्रधान
यज्ञों के
द्वारा भगवान
का भजन करते
हैं।
यज्ञैः
संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति
हि सुमेधसः।
(श्रीमद्
भागवतः 11.5.32)
'गरूड़
पुराण' में उपदिष्ट
हैः
यदीच्छसि
परं ज्ञानं
ज्ञानाच्च
परमं पदम्।
तदा
यत्नेन महता
कुरु
श्रीहरिकीर्तनम्।।
'यदि परम
ज्ञान
अर्थात्
आत्मज्ञान की
इच्छा है और
आत्मज्ञान से
परम पद पाने
की इच्छा है
तो खूब
यत्नपूर्वक
श्रीहरि के
नाम का कीर्तन
करो।'
हरे
राम हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्णेति
मंगलम्।
एवं
वदन्ति ये
नित्यं न हि
तान् बाधते
कलिः।।
'हरे राम
!
हरे कृष्ण !
कृष्ण ! कृष्ण !
कृष्ण ! ऐसा जो
सदा कहते हैं
उन्हें
कलियुग हानि
नहीं पहुँचा
सकता।'
(पद्म
पुराणः 4.80.2.3)
यन्नामकीर्तनं
भक्त्या
विलापनमनुत्तमम्।
मैत्रेयाशेषपापानां
धातूमिव
पावकः।।
'जैसे
अग्नि सुवर्ण
आदि धातुओं के
मल को नष्ट कर
देती है, ऐसे
ही भक्ति से
किया गया
भगवान का कीर्तन
सब पापों के
नाश का
अत्युत्तम
साधन है।'
पाश्चात्य
वैज्ञानिक डॉ.
डायमंड अपने
प्रयोगों के
पश्चात जाहिर
करता है कि
पाश्चात्य रॉक
संगीत, पॉप
संगीत सुनने
वाले और
डिस्को डास
में सम्मिलित
होने वाले,
दोनों की
जीवनशक्ति
क्षीण होती
है, जबकि
भारतीय
शास्त्रीय
संगीत और हरि-कीर्तन
से
जीवनशक्ति का
शीघ्र व
महत्तर विकास
होता है। हरि-कीर्तन हमारे
ऋषि-मुनियों
एवं संतों ने
हमें आनुवंशिक
परंपराओं के
रूप में
प्रदान किया
है और यह
भोग-मोक्ष
दोनों का देने
वाला है।
जापान
में
एक्यप्रेशर
चिकित्सा
हुआ। उसके अनुसार
हाथ की हथेली
व पाँव के
तलवों में
शरीर के
प्रत्येक अंग
के लिए एक
निश्चित
बिंदु है, जिसे
दबाने से
उस-उस अंग का
आरोग्य-लाभ
होता है।
हमारे गाँवों
के नर-नारी,
बालक-वृद्ध यह
कहाँ से सीखते? आज
वैज्ञानिकों
ने जो खोजबीन
करके बताया वह
हजारों-लाखों
साल पहले
हमारे
ऋषि-मुनियों,
महर्षियों ने
सामान्य
परंपरा के रूप
में पढ़ा दिया
कि हरि-कीर्तन
करने से तन-मन
स्वस्थ और पापनाश
होता है।
हमारे
शास्त्रों की
पुकार हरि-कीर्तन
के बारे में
इसीलिए है
ताकि
सामान्य-से-सामान्य
नर-नारी,
आबालवृद्ध, सब
ताली बजाते
हुए कीर्तन
करें, भगवदभाव
में नृत्य
करें, उन्हें
एक्यूप्रेशर
चिकित्सा का
अनायास ही फल
मिले, उनके
प्राण
तालबद्ध बनें
(प्राण
तालबद्ध बनने
से, प्राणायाम
से आयुष्य
बढ़ता है), मन
के विकार,
दुःख, शोक आदि
का नाश हो और
हरिरसरूपी अमृत
पियें।
इसीलिए
तुलसीदासजी
ने कहा हैः
रामनाम
की औषधि खरी
नियत से खाय।
अंगरोग
व्यापे नहीं
महारोग मिट
जाय।।
'श्रीमद्
भागवत' में
भगवान
श्रीकृष्ण ने
कहा हैः
वाग्
गद् गदा
द्रवते यस्य
चित्तं।
रुदत्यभीक्ष्णं
हसति क्वचिच्च।
विलज्ज
उद् गायति
नृत्यते च।
मद्
भक्तियुक्तो
भुवनं
पुनाति।।
'जिसके
वाणी गदगद हो
जाती है,
जिसका चित्त
द्रवित हो
जाता है, जो
बार-बार रोने
लगता है, कभी
हँसने लगता
है, कभी लज्जा
छोड़कर उच्च
स्वर से गाने
लगता है, कभी
नाचने लगता है
ऐसा मेरा भक्त
समग्र संसार
को पवित्र
करता है।'
इसलिए
रसना को सरस
भगवत्प्रेम
में तन्मय करते
हुए जैसे आये
वैसे ही
भगवन्नाम के
कीर्तन में
संलग्न होना
चाहिए।
तुलसी
अपने राम को
रीझ भजो या
खीज।
भूमि
फेंके उगेंगे
उलटे सीधे
बीज।।
गुरु
नानक जी कहते
हैं कि हरिनाम
का आहलाद अलौकिक
है।
भाँग
तमाखू छूतरा
उतर जात
परभात।
नाम
खमीरी नानका
चढ़ी रहे दिन
रात।।
नामजप-कीर्तन
की इतनी भारी
महिमा है कि
वेद-वेदांग,
पुराण,
संस्कृत,
प्राकृत – सभी
ग्रंथों में
भगवन्नाम-कीर्तन
की महिमा गायी
गयी है। भगवान के
जिस विशेष
विग्रह को
लक्ष्य करके
भगवन्नाम
लिया जाता है
वह तो कब का
पंचभूतों में
विलीन हो
चुका, फिर भी भक्त
की भावना और
शास्त्रों की
प्रतिज्ञा है
कि राम, कृष्ण,
हरि आदि नामों
का कीर्तन
करने से अनंत
फल मिलता है।
....तो जो सदगुरु, 'लीला-विग्रह
रूप,
हाजरा-हजूर,
जागदि ज्योत
हैं, उनके नाम
का कीर्तन,
उनके नाम का
उच्चारण करने
से पाप नाश और
असीम
पुण्यपुंज की
प्राप्त हो,
इसमें क्या
आश्चर्य है?
कबीर जी
ने इस युक्ति
से निश्चय ही
अपना कल्याण
किया था। कबीर
जी ने
गुरुमंत्र
कैसे प्राप्त
किया और शीघ्र
सिद्धि लाभ
कैसे किया। इस
संदर्भ में
रोचक कथा हैः
कबीरजी
की मंत्र
दीक्षा
उस समय
काशी में
रामानंद
स्वामी बड़े
उच्च कोटि के
महापुरुष
माने जाते थे।
कबीर जी उनके
आश्रम के मुख्य
द्वार पर आकर
द्वारपाल से
विनती कीः "मुझे
गुरुजी के
दर्शन करा दो।"
उस समय
जात-पाँत का
बड़ा बोलबाला
था। और फिर काशी
!
पंडितों और
पंडे लोगों का
अधिक प्रभाव
था। कबीरजी किसके
घर पैदा हुए
थे – हिंदू के
या मुसलिम के?
कुछ पता नहीं
था। एक जुलाहे
को तालाब के
किनारे मिले
थे। उसने कबीर
जी का
पालन-पोषण
करके उन्हें
बड़ा किया था।
जुलाहे के घर
बड़े हुए तो
जुलाहे का
धंधा करने
लगे। लोग
मानते थे कि
वे मुसलमान की
संतान हैं।
द्वारपालों
ने कबीरजी को
आश्रम में
नहीं जाने
दिया। कबीर जी
ने सोचा कि 'अगर
पहुँचे हुए
महात्मा से
गुरुमंत्र
नहीं मिला तो
मनमानी साधना
से 'हरिदास' बन
सकते हैं 'हरिमय'
नहीं बन सकते।
कैसे भी करके
रामानंद जी
महाराज से ही
मंत्रदीक्षा
लेनी है।'
कबीरजी
ने देखा कि
हररोज सुबह 3-4
बजे स्वामी
रामानंदजी
खड़ाऊँ पहन कर
टप...टप आवाज
करते हुए गंगा
में स्नान
करने जाते
हैं। कबीर जी
ने गंगा के
घाट पर उनके
जाने के
रास्ते में सब
जगह बाड़ कर
दी और एक ही
मार्ग रखा। उस
मार्ग में
सुबह के
अँधेरे में
कबीर जी सो
गये। गुरु
महाराज आये तो
अँधेरे के कारण
कबीरजी पर पैर
पड़ गया। उनके
मुख से उदगार निकल
पड़ेः 'राम.....
राम...!'
कबीरजी
का तो काम बन
गया। गुरुजी
के दर्शन भी हो
गये, उनकी
पादुकाओं का
स्पर्श तथा
मुख से 'राम'
मंत्र भी मिल
गया। अब
दीक्षा में
बाकी ही क्या
रहा? कबीर जी
नाचते,
गुनगुनाते घर
वापस आये। राम
नाम की और
गुरुदेव के
नाम की रट लगा
दी। अत्यंत
स्नेहपूर्ण
हृदय से
गुरुमंत्र का
जप करते,
गुरुनाम का
कीर्तन करते
हुए साधना
करने लगे।
दिनोंदिन
उनकी मस्ती
बढ़ने लगी।
महापुरुष
जहाँ पहुँचे
हैं वहाँ की
अनुभूति उनका
भावपूर्ण
हृदय से चिंतन
करने वाले को
भी होने लगती
है।
काशी के
पंडितों ने
देखा कि यवन
का पुत्र कबीर
रामनाम जपता
है, रामानंद
के नाम का
कीर्तन करता है।
उस यवन को
रामनाम की
दीक्षा किसने
दी? क्यों दी?
मंत्र को
भ्रष्ट कर
दिया !
पंडितों ने
कबीर जी से
पूछाः "तुमको
रामनाम की
दीक्षा किसने
दी?"
"स्वामी
रामानंदजी
महाराज के
श्रीमुख से
मिली।"
"कहाँ
दी?"
"गंगा
के घाट पर।"
पंडित
पहुँचे
रामानंदजी के
पासः "आपने
यवन को
राममंत्र की
दीक्षा देकर
मंत्र को
भ्रष्ट कर
दिया,
सम्प्रदाय को
भ्रष्ट कर दिया।
गुरु महाराज ! यह
आपने क्या
किया?"
गुरु
महाराज ने
कहाः "मैंने
तो किसी को
दीक्षा नहीं
दी।"
"वह
यवन जुलाहा तो
रामानंद.....
रामानंद.....
मेरे गुरुदेव
रामानंद...' की
रट लगाकर
नाचता है,
आपका नाम
बदनाम करता है।"
"भाई
!
मैंने तो उसको
कुछ नहीं कहा।
उसको बुला कर
पूछा जाय। पता
चल जायगा।"
काशी के
पंडित इकट्ठे
हो गये।
जुलाहा सच्चा
कि रामानंदजी
सच्चे – यह
देखने के लिए
भीड़ हो गयी।
कबीर जी को
बुलाया गया।
गुरु महाराज
मंच पर
विराजमान
हैं। सामने
विद्वान
पंडितों की
सभा है।
रामानंदजी
ने कबीर से
पूछाः "मैंने
तुम्हें कब
दीक्षा दी?
मैं कब तेरा
गुरु बना?"
कबीरजी
बोलेः महाराज ! उस
दिन प्रभात को
आपने मुझे
पादुका-स्पर्श
कराया और
राममंत्र भी
दिया, वहाँ
गंगा के घाट
पर।"
रामानंद
स्वामी ने
कबीरजी के सिर
पर धीरे-से खड़ाऊँ
मारते हुए
कहाः "राम...
राम.. राम.... मुझे
झूठा बनाता है?
गंगा के घाट
पर मैंने तुझे
कब दीक्षा दी थी ?
कबीरजी
बोल उठेः "गुरु
महाराज ! तब
की दीक्षा
झूठी तो अब की
तो सच्ची....!
मुख से राम
नाम का मंत्र
भी मिल गया और
सिर पर आपकी
पावन पादुका
का स्पर्श भी
हो गया।"
स्वामी
रामानंदजी
उच्च कोटि के
संत महात्मा थे।
उन्होंने
पंडितों से
कहाः "चलो,
यवन हो या कुछ
भी हो, मेरा
पहले नंबर का
शिष्य यही है।"
ब्रह्मनिष्ठ
सत्पुरुषों
की विद्या हो
या दीक्षा,
प्रसाद खाकर
मिले तो भी
बेड़ा पार
करती है और
मार खाकर मिले
तो भी बेड़ा
पार कर देती है।
इस
प्रकार कबीर
जी ने गुरुनाम
कीर्तन से
अपनी सुषुप्त
शक्तियाँ
जगायीं और
शीघ्र
आत्मकल्याण
कर लिया।
धनभागी हैं
ऐसे गुरुभक्त
जो दृढ़ता और
तत्परता से कीर्तन-ध्यान-भजन
करके अपना
जीवन धन्य
करते हैं,
कीर्तन से
समाज में
सात्त्विकता
फैलाते हैं, वातावरण
और अपने तन-मन
की शुद्धि
करने वाला हरिनाम
का कीर्तन
सड़कों पर
खुलेआम
नाचते-गाते हुए
करते हैं।
दुनिया
का धन, यश आदि
सब कुछ कमा
लिया या
प्रतिष्ठा के
सुमेरु पर
स्थित हुए,
वेद-वेदांग
शास्त्रों के
रहस्य भी जान लिए
जायें, उन सब
श्रेष्ठ
उपलब्धियों
से भी गुरुशरणागति
और गुरुचरणों
की भक्ति अधिक
मूल्यवान है।
इसके
विषय में आद्य
शंकराचार्यजी
कहते हैं-
शरीरं
सुरुपं तथा वा
कलत्रं
यशश्चारु
चित्रं धनं
मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न
लग्नं
गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततं
किं ततः किं
ततः किम्।।
षडंगादिवेदो
मुखे
शास्त्रविद्या
कवित्वादि
गद्यं
सुपद्यं
करोति।
मनश्चेन्न....
अगर
गुरु के
श्रीचरणों
में मन न लगा,
तो फिर क्या? इन
सबसे क्या?
कौन-सा
परमार्थ
सिद्ध हुआ?
कलियुग
केवल नाम
आधारा।
इस
कलिकाल-चिंतामणि
हरि-गुरुनाम-कीर्तन
कल्पतरु का
विशेष फायदा
क्यों न उठाया
जाय?
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
शास्त्र
में आता हैः
देवाधीनं
जगत्सर्वं
मंत्राधीनाश्च
देवताः।
'सारा
जगत भगवान के
अधीन है और
भगवान मंत्र
के अधीन हैं।"
संत
चरनदासजी
महाराज ने
बहुत ऊँची बात
कही हैः
श्वास
श्वास सुमिरन
करो यह उपाय
अति नेक।
संत
तुलसीदास जी
ने कहा हैः
बिबसहुँ
जासु नाम नर
कहहीं। जनम
अनेक रचित अध दहहीं।।
(श्रीरामचरित.
बा.का. 118.2)
'जो विवश
होकर भी
नाम-जप करते
हैं उनके अनेक
जन्मों के
पापों का दहन
हो जाता है।'
कोई
डंडा मारकर,
विवश करके भी
भगवन्नाम-जप
कराये तो भी
अनेक जन्मों
के पापों का
दहन होता है तो
जो
प्रीतिपूर्वक
हरि का नाम
जपते-जपते हरि
का ध्यान करते
हैं उनके
सौभाग्य का
क्या कहना !
जबहिं
नाम हृदय धरयो, भयो
पाप को नास।
जैसे
चिंनगी आग की, पड़ी
पुराने घास।।
भगवन्नाम
की बड़ी भारी
महिमा है।
यदि
हमने अमदावाद
कहा तो
उसमें केवल
अमदावाद ही
आया। सूरत,
गाँधीनगर रह
गये। अगर हमने
गुजरात कहा
तो सूरत,
गाँधीनगर,
राजकोट आदि सब
उसमें आ गये
परंतु
मध्यप्रदेश,
उत्तरप्रदेश,
बिहार आदि रह
गये.... किंतु
तीन अक्षर का
नाम भारत
कहने से देश
के
सारे-के-सारे
राज्य और नगर
उसमें आ गये।
ऐसे ही केवल
पृथ्वीलोक ही
नहीं, वरन् 14
लोक और अनंत
ब्रह्मांड
जिस सत्ता से
व्याप्त हैं
उसमें
अर्थात् गुरुमंत्र
में पूरी दैवी
शक्तियों तथा
भगवदीय
शक्तियों का
समावेश हो
जाता है।
मंत्र
भी तीन प्रकार
के होते हैं,
सात्त्विक, राजसिक
और तामसिक।
सात्त्विक
मंत्र
आध्यात्मिक
उद्देश्य की पूर्ति
के लिए होते
हैं। दिव्य
उद्देश्यों
की पूर्णता
में
सात्त्विक
मंत्र काम
करते हैं।
भौतिक
उपलब्धि के
लिए राजसिक
मंत्र की साधना
होती है और
भूत-प्रेत आदि
को सिद्ध करने
वाले मंत्र
तामसिक होते
हैं।
देह के
स्वास्थ्य के
लिए मंत्र और
तंत्र को मिलाकर
यंत्र बनाया
जाता है।
मंत्र की मदद
से बनाये गये
वे यंत्र भी
चमत्कारिक
लाभ करते हैं।
तांत्रिक
साधना के बल
से लोग कई
उपलब्धियाँ
भी बता सकते
हैं।
परंतु
सारी
उपलब्धियाँ
जिससे दिखती
हैं और जिससे
होती हैं – वे
हैं भगवान।
जैसे, भारत
में देश का
सब कुछ आ जाता
है ऐसे ही
भगवान शब्द
में, ॐ शब्द
में सारे
ब्रह्मांड
सूत्रमणियों
के समान
ओतप्रोत हैं।
जैसे, मोती सूत
के धागे में
पिरोये हुए
हों ऐसे ही
ॐसहित अथवा
बीजमंत्रसहित
जो गुरुमंत्र
है उसमें 'सर्वव्यापिनी
शक्ति' होती
है।
इस
शक्ति का पूरा
फायदा उठाने
के इच्छुक
साधक को दृढ़
इच्छाशक्ति
से जप करना
चाहिए। मंत्र में
अडिग आस्था
रखनी चाहिए।
एकांतवास का
अभ्यास करना
चाहिए।
व्यर्थ का
विलास, व्यर्थ
की चेष्टा और
व्यर्थ का
चटोरापन छोड़
देना चाहिए।
व्यर्थ का जनसंपर्क
कम कर देना
चाहिए।
जो अपना
कल्याण इसी
जन्म में करना
चाहता हो, अपने
पिया
परमात्मा से
इसी जन्म में
मिलना चाहता
हो उसे
संयम-नियम और
शरीर के
सामर्थ्य के अनुरूप
15 दिन में एक
बार एकादशी का
व्रत करना
चाहिए।
सात्त्विक
भोजन करना
चाहिए।
श्रृंगार और
विलासिता को
दूर से ही
त्याग देना
चाहिए। हो सके
तो भूमि पर
शयन करना
चाहिए, नहीं
तो पलंग पर भी
गद्दे आदि कम
हों – ऐसे
विलासितारहित
बिस्तर पर शयन
करना चाहिए।
साधक को
कटु भाषण नहीं
करना चाहिए।
वाणी मधुमय
हो, शत्रु के
प्रति भी गाली-गलौच
नहीं करे तो
अच्छा है।
दूसरों को
टोटे चबवाने
की अपेक्षा
खीर-खाँड
खिलाने की
भावना रखनी
चाहिए। किसी
वस्तु-व्यक्ति
के प्रति राग-द्वेष
को गहरा नहीं
उतरने देना
चाहिए। कोई व्यक्ति
भले थोड़ा
ऐसा-वैसा है
तो उससे सावधान
होकर व्यवहार
कर ले परंतु
गहराई में द्वेषबुद्धि
न रखे।
साधक को
चाहिए कि
निरंतर जप
करे। सतत
भगवन्नाम-जप
और
भगवच्चिंतन
विशेष
हितकारी है।
मनोविकारों
का दमन करने
में, विघ्नों
का शमन करने में
और दिव्य 15
शक्तियाँ
जगाने में
मंत्र भगवान
गजब की सहायता
करते हैं।
बार-बार
भगवन्नाम-जप
करने से एक
प्रकार का भगवदीय
रस, भगवदीय
आनंद और
भगवदीय अमृत
प्रकट होने
लगता है। जप
से उत्पन्न
भगवदीय आभा
आपके पाँचों
शरीरों
(अन्नमय,
प्राणमय,
मनोमय,
विज्ञानमय और
आनंदमय) को तो
शुद्ध रखती ही
है, साथ ही आपकी
अंतरात्मा को
भी तृप्त करती
है।
बारं
बार बार प्रभु
जपीऐ।
पी
अंम्रितु इहु
मनु तनु
ध्रपीऐ।।
नाम
रतनु जिनि
गुरमुखि
पाइआ।
तिसु
किछु अवरु
नाही
द्रिसटाइआ।।
जिन
गुरुमुखों ने,
भाग्यशालियों
ने, पुण्यात्माओं
ने सदगुरु के
द्वारा
भगवन्नाम
पाया है। उनका
चित्त देर-सवेर
परमात्मसुख
से तृप्त होने
लगता है। फिर
उनको दुनिया
की कोई
चीज-वस्तु
आकर्षित करके
अंधा नहीं कर
सकती। फिर वे
किसी भी
चीज-वस्तु से
प्रभावित
होकर अपना
हौसला नहीं
खोयेंगे।
उनका हौंसला
बुलंद होता
जायेगा। वे
ज्यों-ज्यों जप
करते जायेंगे,
सदगुरु की
आज्ञाओं का
पालन करते
जायेंगे
त्यों-त्यों
उनके हृदय में
आत्म-अमृत
उभरता
जायेगा.....
शरीर
छूटने के बाद
भी जीवात्मा
के साथ नाम का संग
रहता ही है।
नामजप करने
वाले का देवता
लोग भी स्वागत
करते हैं।
इतनी महिमा है
भगवन्नाम जप
की !
मंत्र
के पाँच अंग
होते हैं- ऋषि,
देवता, छंद, बीज,
कीलक।
हरेक
मंत्र के ऋषि
होते हैं। वे
मंत्र के द्रष्टा
होते हैं,
कर्ता नहीं। ऋषयो
मंत्रदृष्टारः
न तु कर्तारः।
गायत्री
मंत्र के ऋषि
विश्वामित्र
हैं।
प्रत्येक
मंत्र के
देवता होते
हैं। जैसे, गायत्री
मंत्र के
देवता भगवान
सूर्य हैं। ॐ नमः
शिवाय मंत्र
के देवता भगवान
शिव हैं। हरि
ॐ मंत्र के
देवता हरि
हैं। गणपत्य
मंत्र के देवता
भगवान गणपति
हैं। ओंकार
मंत्र के
देवता व्यापक
परमात्मा
हैं।
प्रत्येक
मंत्र का छंद
होता है जिससे
उच्चारण-विधि
का अनुशासन
होता है।
गायत्री
मंत्र का छंद
गायत्री है।
ओंकार मंत्र
का छंद भी
गायत्री ही
है।
प्रत्येक
मंत्र का बीज
होता है। यह
मंत्र को शक्ति
प्रदान करता
है।
प्रत्येक
मंत्र का कीलक
अर्थात्
मंत्र की अपनी
शक्ति होती
है। मंत्र की
अपनी शक्ति
में चार
शक्तियाँ और
जुड़ जाती हैं
तब वह मंत्र
सामर्थ्य
उत्पन्न करता
है।
मान लो,
आपको
नेत्रज्योति
बढ़ानी है तो ॐ गायत्री
मंत्र
गायत्री छंद
विश्वामित्र
ऋषिः
सूर्यनारायण
देवता अथः
नेत्रज्योतिवृद्धि
अर्थे जपे
विनियोगः। ऐसा
कहकर जप आरम्भ
करें। अगर
बुद्धि
बढ़ानी है तो बुद्धि
प्रकाश अर्थे
जपे
विनियोगः। ईश्वर
प्राप्ति
करनी है तो ईश्वरप्राप्ति
अर्थे जपे
विनियोगः। ऐसा
कहकर जप आरम्भ
करें।
कोई भी
वैदिक मंत्र
ईश्वरप्राप्ति
के काम आ सकता
है, कष्ट
मिटाने या
पापनाश के काम
भी आ सकता है।
वही मंत्र
सफलता के
रास्ते ले
जाने में मदद
कर सकता है और
आत्म
विश्रांति
पाने के काम
भी आ सकता है।
जैसे – आप हरि
ॐ तेजी से
अर्थात्
ह्रस्व जपते
हैं तो आपके
पाप नष्ट होते
हैं,
सात्त्विक
परमाणु पैदा
होते हैं,
दीर्घ जपते
हैं तो कार्य
साफल्य की
शक्ति बढ़ती
है, प्लुत
जपते हैं तो
मन परमात्मा
में शांत होने
लगता है।
थोड़ा
कम खाओ और
चबा-चबाकर
खाओ। प्रातः
कालीन सूर्य
की किरणों में
बैठकर लम्बा
श्वास लो,
धीरे-धीरे
श्वास छोड़ो,
फिर रं-रं
का जप करो।
यह प्रयोग
आपका
अग्नितत्त्व
बढ़ायेगा।
आपका
पाचनतंत्र
ठीक हो
जायेगा। अम्ल
पित्त गायब हो
जायेगा। इससे
केवल
अम्लपित्त ही
मिटेगा या भूख
ही बढ़ेगी ऐसी
बात नहीं है।
इससे आपके
पाप-ताप भी
मिटेंगे और
भगवान आप पर
प्रसन्न
होंगे।
आप अपने
कमरे में
बैठकर फोन
द्वारा भारत
से अमेरिका
बात कर सकते
हो। जब आप
सेल्युलर फोन
के बटन दबाते
हो तो वह
कृत्रिम
उपग्रह से
जुड़कर
अमेरिका में
घंटी बजा देता
है। यंत्र में
इतनी शक्ति है
तो मंत्र में
तो इससे कई
गुना ज्यादा शक्ति
है। क्योंकि
यंत्र तो मानव
के मन
ने बनाया है
जबकि मंत्र की
रचना किसी ऋषि
ने भी नहीं की
है। मंत्र तो
ऋषियों से भी
पहले के हैं।
उन्होंने
मंत्र की
अनुभूतियाँ
की हैं।
बाह्यरूप
से तो मंत्र
के केवल अक्षर
दिखते हैं
किंतु वे
स्थूल दुनिया
से परे, सूर्य
और चंद्रलोक
से भी परे
लोक-लोकांतर
को चीरकर
ब्रह्म-परमात्मा
से एकाकार
कराने का
सामर्थ्य
रखते हैं।
मंत्रविज्ञान
में थोड़ा सा
ही प्रवेश
पाकर विदेशी
लोग दंग रह
गये हैं।
मंत्रों में
गुप्त अर्थ और
उनकी शक्ति
होती है, जो
अभ्यासकर्ता
को दिव्य
शक्तियों के
पुंज के साथ
एकाकार करा
देती है।
साधक
बतायी गयी
विधि के
अनुसार जप
करता है तो थोड़े
ही दिनों में
उसकी सुषुप्त
शक्ति जाग्रत
होने लगती है।
फिर शरीर में
कभी-कभी कंपन
होने लगता है,
कभी हास्य
उभरने लगता
है, कभी रूदन
होने लगता है,
किंतु वह रुदन
दुःख का नहीं
होता, विरह का
होता है। वह
हास्य संसारी
नहीं होता,
आत्मसुख का
होता है।
कभी-कभी
ऐसे नृत्य
होने लगेंगे
जो आपने कभी
देखे-सुने ही
न हों, कभी ऐसे
गीत उभरेंगे
कि आप दंग रह
जायेंगे।
कभी-कभी ऐसे
श्लोक और ऐसे
शास्त्रों की
बात आपके हृदय
से निकलेगी कि
आप ताज्जुब
करेंगे !
यह
अनुभव
मंत्रदीक्षा
लेते समय भी
हो सकता है,
दूसरे दिन भी
हो सकता है, एक
सप्ताह में भी
हो सकता है।
अगर नहीं होता
है तो फिर रोओ
कि क्यों नहीं
होता? दूसरे
सप्ताह में तो
होना ही
चाहिए।
मंत्रदीक्षा
कोई साधारण
चीज नहीं है।
जिसने मंत्र
लिया है और जो
नियमित जप
करता है उसकी
अकाल मृत्यु
नहीं हो सकती।
उस पर
भूत-प्रेत,
डाकिनी-शाकिनी
का प्रभाव
नहीं पड़
सकता। सदगुरु
से गुरुमंत्र
मिल जाय और
उसका पालन
करने वाला सत्
शिष्य मिल जाय
तो काम बन जाय....
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
उड़िया
बाबा, हरि बाबा,
हाथी बाबा और
आनंदमयी माँ
परस्पर मित्र
संत थे। एक
बार कोई आदमी
उनके पास आया
और बोलाः
"बाबाजी
!
भगवान के नाम
लेने से क्या
फायदा होता है?"
तब हाथी
बाबा ने
उड़िया बाबा
से कहाः
"यह
तो कोई वैश्य
लगता है, बड़ा
स्वार्थी
आदमी है।
भगवान का नाम
लेने से क्या
फायदा है? बस,
फायदा-ही-फायदा
सोचते हो !
भगवन्नाम जब
स्नेह से लिया
जाता है तब 'क्या
फायदा होता है?
कितना फायदा
होता है?'
इसका बयान
करने वाला कोई
वक्ता पैदा ही
नहीं हुआ।
भगवन्नाम से
क्या लाभ होता
है, इसका बयान
कोई कर ही
नहीं सकता। सब
बयान
करते-करते
छोड़ गये
परंतु बयान
पूरा नहीं
हुआ।"
भगवन्नाम-महिमा
का बयान नहीं
किया जा सकता।
तभी तो कहते
हैं-
रामु
न सकहिं नाम
गुन गाईं।
नाम की
महिमा क्या है?
मंत्रजाप की
महिमा क्या है?
भगवान जब खुद
ही इसकी महिमा
नहीं गा सकते
तो दूसरों की
तो बात ही
क्या?
मंत्र
जाप मम दृढ़
बिस्वासा।
पंचम भजन सो
बेद
प्रकासा।।
ऐसा तो
कह दिया, फिर
भी मंत्रजाप
की महिमा का वर्णन
पूरा नहीं हो
सकता।
कबीर-पुत्र
कमाल की एक
कथा हैः
एक बार
राम नाम के
प्रभाव से
कमाल द्वारा
एक कोढ़ी का
कोढ़ दूर हो
गया। कमाल
समझते हैं कि
रामनाम की
महिमा मैं जान
गया हूँ,
किंतु कबीर जी
प्रसन्न नहीं
हुए।
उन्होंने
कमाल को
तुलसीदास जी
के पास भेजा।
तुलसीदासजी
ने तुलसी के
पत्र पर
रामनाम लिखकर
वह पत्र जल
में डाला और
उस जल से 500
कोढ़ियों को ठीक
कर दिया। कमान
ले समझा कि
तुलसीपत्र पर
एक बार रामनाम
लिखकर उसके जल
से 500 कोढ़ियों
को ठीक किया
जा सकता है,
रामनाम की
इतनी महिमा
है। किंतु
कबीर जी इससे
भी संतुष्ट नहीं
हुए और
उन्होंने
कमाल को भेजा
सूरदास जी के
पास।
सूरदास
जी ने गंगा
में बहते हुए
एक शव के कान में
'राम'
शब्द का केवल 'र' कार
कहा और शव
जीवित हो गया।
तब कमाल ने
सोचा कि 'राम'
शब्द के 'र'
कार से मुर्दा
जीवित हो सकता
है – यह 'राम'
शब्द की महिमा
है।
तब कबीर
जी ने कहाः
'यह भी
नहीं। इतनी सी
महिमा नहीं है
'राम'
शब्द की।
भृकुटि
विलास सृष्टि
लय होई।
जिसके
भृकुटि विलास
मात्र से
प्रलय हो सकता
है, उसके नाम
की महिमा का
वर्णन तुम
क्या कर सकोगे?
अजब
राज है
मुहब्बत के
फसाने का।
जिसको
जितना आता है, गाये
चला जाता है।।
पूरा
बयान कोई नहीं
कर सकता।
भगवन्नाम की
महिमा का बयान
नहीं किया जा
सकता। जितना
करते हैं उतना
थोड़ा ही
पड़ता है।
नारद जी
दासी पुत्र थे
– विद्याहीन,
जातिहीन और
बलहीन। दासी
भी ऐसी साधारण
कि चाहे कहीं
भी काम पर लगा
दो, किसी के भी
घर में काम पर
रख दो।
एक बार
उस दासी को
साधुओं की
सेवा में लगा
दिया गया।
वहाँ वह अपने
पुत्र को साथ
ले जाती थी और
वही पुत्र
साधुसंग व
भगवन्नाम के
जप के प्रभाव
से आगे चलकर
देवर्षि नारद
बन गये। यह
सत्संग की
महिमा है,
भगवन्नाम की
महिमा है।
परंतु इतनी ही
महिमा नहीं
है।
सत्संग
की महिमा,
दासीपुत्र
देवर्षि नारद
बने इतनी ही
नहीं, कीड़े
में से
मैत्रेय ऋषि
बन गये इतनी
ही नहीं, अरे
जीव से ब्रह्म
बन जाय इतनी
भी नहीं,
सत्संग की
महिमा तो
लाबयान है।
जीव में से
ब्रह्म बन
गये, फिर क्या?
फिर भी सनकादि
ऋषि सत्संग
करते हैं। एक
वक्ता बनते और
बाकी के तीन
श्रोता बनते।
शिवजी पार्वती
जी को सत्संग
सुनाते हैं और
स्वयं अगस्त्य
ऋषि के आश्रम
में सत्संग
सुनने के लिए
जाते हैं।
सत्संग
पापी को
पुण्यात्मा
बना देता है,
पुण्यात्मा
को धर्मात्मा
बना देता है,
धर्मात्मा को
महात्मा बना देता
है, महात्मा
को परमात्मा
बना देता है
और परमात्मा
को.... आगे वाणी
जा नहीं सकती
।
मैं
संतन के पीछे
जाऊँ, जहाँ
जहाँ संत
सिधारे।
हरि को
क्या कंस को
मारने के लिए
अवतार लेना पड़ा
था? वह तो 'हृदयाघात' से
भी मर सकता था।
क्या रावण को
मारने के लिए
अवतार लिया
होगा
रामचंद्रजी
ने? राक्षस तो
अंदर-ही-अंदर
लड़कर मर सकते
थे। परंतु इस
बहाने सत्संग
का
प्रचार-प्रसार
होगा, ऋषि-सान्निध्य
मिलेगा,
सत्संग का
प्रसाद प्यारे
भक्त-समाज तक
पहुँचेगा।
परब्रह्म
परमात्मा का
पूरा बयान कोई
भी नहीं कर
सकता क्योंकि
बयान बुद्धि
से किया जाता है।
बुद्धि
प्रकृति की है
और प्रकृति तो
परमात्मा के
एक अंश में है,
प्रकृति में
तमाम जीव और
जीवों में जरा
सी बुद्धि, वह
बुद्धि क्या
वर्णन करेगी
परमात्मा का?
सच्चिदानंद
परमात्मा का
पूरा बयान
नहीं किया जा
सकता। वेद
कहते हैं 'नेति
नेति नेति....'
पृथ्वी नहीं,
जल नहीं, तेज
नहीं, नेति....
नेति...., वायु
नहीं, आकाश भी
नहीं, इससे भी
परे। जो कुछ
भी हम बने हैं,
शरीर से ही
बने हैं और
शरीर तो इन
पाँच भूतों का
है। पृथ्वी,
जल, तेज, वायु
और आकाश इन पाँच
भूतों से ही
तो इस सचराचर
सृष्टि का
निर्माण हुआ
है। मनुष्य,
प्राणी,
भूत-जात सब
इसी में तो
हैं। वह सत्य
तो इन सबसे
परे है अतः
उसका बयान
कैसे हो?
उसका
पूरा बयान
नहीं होता और
बयान करने जब
जाती हैं
बुद्धियाँ तो
जितनी-जितनी
बयान करने जाती
हैं उतनी-उतनी
'उस' मय
हो जाती हैं।
अगर पूरा बयान
किया तो फिर
वह बुद्धि,
प्रकृति की
बुद्धि नहीं
बचती, परमात्मरूप
हो जाती हैं।
जैसे, लोहा
अग्नि के
निकट जाय, कोयले
उठाये तब तक
तो ठीक है
परंतु अग्नि में
रख दो उसको, तो
लोहा अग्निमय
हो जायेगा। ऐसे
ही परमात्मा
का बयान
करते-करते बयान
करने वाला
स्वयं
परमात्मामय
हो जाता है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
नारायणो नाम
नरो नराणां प्रसिद्धचौरः
कथितः
पृथिव्याम्।
अनेकजन्मार्जितपापसंचयं
हरत्यशेषं
श्रुतमात्र
एव।।
'इस
पृथ्वी पर 'नारायण'
नामक एक नर
(व्यक्ति)
प्रसिद्ध चोर
बताया गया है,
जिसका नाम और
यश कानों में
प्रवेश करते
ही मनुष्यों
की अनेक
जन्मों की
कमाई हुई
समस्त पाप
राशि को हर
लेता है।'
(वामन
पुराण)
न
नामसदृशं
ज्ञानं न
नामसदृशं
व्रतम्।
न
नामसदृशं
ध्यानं न
नामसदृशं
फलम्।।
न
नामसदृशस्त्यागो
न नामसदृशः
शमः।
न
नामसदृशं
पुण्यं न
नामसदृशी
गतिः।।
नामैव
परमा
मुक्तिर्नामैव
परमा गतिः।
नामैव
परमा
शान्तिर्नामैव
परमा
स्थितिः।।
नामैव
परमा
भक्तिर्नामैव
परमा मतिः।
नामैव
परमा
प्रीतिर्नामैव
परमा
स्मृतिः।।
'नाम के
समान न ज्ञान
है, न व्रत है, न
ध्यान है, न फल
है, न दान है, न
शम है, न पुण्य
है और न कोई
आश्रय है। नाम
ही परम मुक्ति
है, नाम ही परम
गति है, नाम ही
परम शांति है, नाम
ही परम निष्ठा
है, नाम ही परम
भक्ति है, नाम ही
परम बुद्धि
है, नाम ही परम
प्रीति है,
नाम ही परम
स्मृति है।'
(आदि
पुराण)
नामप्रमियों
का संग,
प्रतिदिन
नाम-जप का कुछ
नियम, भोगों
के प्रति
वैराग्य की
भावना और संतो
के
जीवन-चरित्र
का अध्ययन – ये
नाम-साधना मे
बड़े सहायक
होते हैं। इन
चारों की
सहायता से
नाम-साधना में
बड़े सहायक
होते हैं। इन
चारों की
सहायता से नाम
साधना में सभी
को लगना
चाहिए।
भगवन्नाम से
लौकिक और
पारलौकिक
दोनों प्रकार
की सिद्धियाँ
प्राप्त हो
सकती हैं। नाम
से असम्भव भी
सम्भव हो सकता
है और इसकी
साधना में
किसी के लिए
कोई रूकावट
नहीं है। उच्च
वर्ण का हो या
नीच का, पंडित
हो या मूर्ख,
सभी इसके
अधिकारी हैं।
ऊँचा वही है,
बड़ा वही है
जो
भगवन्नामपरायण
है, जिसके मुख
और मन से
निरन्तर
विशुद्ध
प्रेमपूर्वक
श्री
भगवन्नाम की
ध्वनि निकलती
है। संत तुलसीदास
जी कहते हैं-
धन्य
धन्य माता
पिता, धन्य
पुत्रवर सोइ।
तुलसी
जो रामहि भजें, जैसेहु
कैसेहु होइ।।
तुलसी
जाके बदन ते, धोखेहु
निकसत राम।
ताके
पग की पगतरी, मोरे
तनु को चाम।।
तुलसी
भक्त श्वपच
भलौ, भजै
रैन दिन राम।
ऊँचो
कुल केहि काम
को, जहाँ
न हरि को
नाम।।
अति
ऊँचे भूधरन पर, भजगन
के अस्थान।
तुलसी
अति नीचे सुखद, ऊख
अन्न अरु
पान।।
जिस
प्रकार अग्नि
में
दाहकशक्ति
स्वाभाविक है,
उसी प्रकार
भगवन्नाम में
पाप को,
विषय-प्रपंचमय
जगत के मोह को
जला डालने की
शक्ति
स्वाभाविक
है।
भगवन्नाम-जप
में भाव हो तो
बहुत अच्छा
परंतु हमें
भाव की ओर
दृष्टि नहीं
डालनी है। भाव
न हों, तब भी
नाम-जप तो
करना ही है।
नाम
भगवत्स्वरूप
ही है। नाम
अपनी शक्ति
से, अपने गुण से
सारा काम कर
देगा।
विशेषकर
कलियुग में को
भगवन्नाम
जैसा और कोई
साधन ही नहीं
है। वैसे तो मनोनिग्रह
बड़ा कठिन है,
चित्त की
शांति के लिए
प्रयास करना
बड़ा ही कठिन
है, पर
भगवन्नाम तो
इसके लिए भी
सहज साधन है।
आलस्य
और तर्क – ये
दोनों नाम-जप
में बाधक हैं।
प्राय: आलस्य
के कारण ही कह बैठते हो कि
नाम-जप नहीं
होता।
नाम
लेने का
अभ्यास बना
लो, आदत डालो।
'रोटी-रोटी
करने से ही
पेट थोड़े ही
भरता है?' इस
प्रकार के
तर्क भ्रांति
लाते हैं, पर
विश्वास करो,
भगवन्नाम 'रोटी' की
तरह जड़ शब्द
नहीं है। यह
शब्द ही
ब्रह्म है। 'नाम' और
नामी में कोई
अन्तर ही नहीं
है।
'नाम
लेत भव सिंधु
सुखाहीं' इस
पर श्रद्धा
करो। इस
विश्वास को
दृढ़ करो। कंजूस
की भाँति
नाम-धन को
सँभालो।
नाम के
बल से बिना
परिश्रम ही
भवसागर से तर
जाओगे और
भगवान के
प्रेम को भी
प्राप्त कर
लोगे। इसलिए
निरन्तर
भगवान का नाम लो,
कीर्तन करो।
कलेर्दोषनिधे
राजन्नस्ति
ह्येको महान्
गुणः।
कीर्तनादेव
कृष्णस्य
मुक्तसंगः
परं व्रजेत्।।
'राजन् !
दोषों के
भंडार –
कलियुग में
यही एक महान
गुण है कि इस
समय श्रीकृष्ण
का
कीर्तनमात्र
करने से
मनुष्य की सारी
आसक्तियाँ
छूट जाती हैं
और वह परम पद
को प्राप्त हो
जाता है।'
(श्रीमद्
भागवत)
यदभ्यर्च्य
हरिं भक्त्या
कृते
क्रतुशतैरपि।
फलं
प्राप्नोत्यविकलं
कलौ
गोविन्दकीर्तनात्।।
'भक्तिभाव
से सैंकड़ों
यज्ञों
द्वारा भी श्रीहरि
की आराधना
करके मनुष्य
जिस फल को
पाता है, वह
सारा-का-सारा
कलियुग में
भगवान
गोविन्द का
कीर्तनमात्र करके
प्राप्त कर
लेता है।'
(श्रीविष्णुरहस्य)
ध्यायन्
कृते यजन्
यज्ञैस्त्रेतायां
द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति
तदाप्नोति
कलौ
संकीर्त्य
केशवम्।।
'सत्ययुग
में भगवान का
ध्यान, त्रेता
में यज्ञों
द्वारा यजन और
द्वापर में
उनका पूजन
करके मनुष्य
जिस फल को
पाता है, उसे
वह कलियुग में
केशव का
कीर्तनमात्र
करके प्राप्त
कर लेता है।
(विष्णु
पुराण)
संत
कबीरदास जी ने
कहा हैः
सुमिरन
की सुधि यों
करो, जैसे
कामी काम।
एक पलक न बीसरै, निस दिन
आठों याम।।
सुमिरन
की सुधि यों
करो, ज्यों
सुरभी सुत
माँहि।
कह
कबीर चारो चरत, बिसरत
कबहूँ
नाँहि।।
सुमिरन
की सुधि यों
करो, जैसे
दाम कंगाल।
कह
कबीर बिसरे
नहीं, पल-पल
लेत सम्हाल।।
सुमिरनसों
मन लाइये, जैसे
नाद कुरंग।
कह
कबीर बिसरे
नहीं, प्रान तजै
तेहि संग।।
सुमिरनसों
मन लाइये, जैसे
दीप पतंग।
प्रान तजै छिन
एक में, जरत न
मोड़े अंग।।
सुमिरनसों
मन लाइये, जैसे
कीट भिरंग।
कबीर
बिसारे आपको, होय
जाये तेहि
रंग।।
सुमिरनसों
मन लाइये, जैसे
पानी मीन।
प्रान
तजै पल बीछड़े, संत
कबीर कह दीन।।
'सुमिरन
इस तरह करो
जैसे कामी आठ
पहर में एक क्षण
के लिए भी
स्त्री को
नहीं भूलता,
जैसे गौ वन में
घास चरती हुई
भी बछड़े को
सदा याद रखती
है, जैसे
कंगाल अपने
पैसे का पल-पल
में सम्हाल
करता है, जैसे
हरिण प्राण दे
देता है,
परंतु वीणा के
स्वर को नहीं
भूलना चाहता,
जैसे बिना
संकोच के पतंग
दीपशिखा में
जल मरता है,
परंतु उसके
रूप को भूलता
नहीं, जैसे कीड़ा
अपने-आपको
भुलाकर भ्रमर
के स्मरण में
उसी के रंग का
बन जाता है और
जैसे मछली जल
से बिछुड़ने
पर
प्राणत्याग
कर देती है,
परंतु उसे भूलती
नहीं।'
स्मरण
का यह स्वरूप
है। इस प्रकार
जिनका मन उस
परमात्मा के
नाम-चिन्तन
में रम जाता
है, वे तृप्त
और पूर्णकाम
हो जाते हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
समुद्रतट
पर एक व्यक्ति
चिंतातुर
बैठा था, इतने
में उधर से
विभीषण
निकले।
उन्होंने उस
चिंतातुर
व्यक्ति से
पूछाः "क्यों
भाई ! किस बात की
चिंता में
पड़े हो?"
"मुझे
समुद्र के उस
पार जाना है
परंतु कोई
साधन नहीं है।
अब क्या करूँ
इस बात की
चिंता है।"
"अरे...
इसमें इतने
अधिक उदास
क्यों होते हो?"
ऐसा कहकर
विभीषण ने एक
पत्ते पर एक
नाम लिखा तथा
उसकी धोती के पल्लू
से बाँधते हुए
कहाः "इसमें
तारक मंत्र
बाँधा है। तू
श्रद्धा रखकर तनिक
भी घबराये
बिना पानी पर
चलते जाना।
अवश्य पार लग
जायेगा।"
विभीषण
के वचनों पर
विश्वास रखकर
वह भाई समुद्र
की ओर आगे
बढ़ा तथा सागर
की छाती पर
नाचता-नाचता
पानी पर चलने
लगा। जब बीच
समुद्र में
आया तब उसके
मन में संदेह
हुआ कि विभीषण
ने ऐसा कौन-सा
तारक मंत्र
लिखकर मेरे
पल्लू से बाँधा
है कि मैं
समुद्र पर चल
सकता हूँ। जरा
देखना चाहिए।
श्रद्धा
और विश्वास के
मार्ग में
संदेह ऐसी विकट
परिस्थितियाँ
निर्मित कर
देता है कि
काफी ऊँचाई तक
पहुँचा हुआ
साधक भी विवेक
के अभाव में
संदेहरूपी
षड्यंत्र का शिकार
होकर अपना पतन
कर बैठता है
तो फिर साधारण
मनुष्य को तो
संदेह की आँच
ही गिराने के
लिए पर्याप्त
है।
हजारों-हजारों
जन्मों की
साधना अपने
सदगुरु पर
संदेह करने
मात्र से खतरे
में पड़ जाती
है। अतः साधक
को सदगुरु के
दिए हुए अनमोल
रत्न-समान बोध
पर कभी संदेह
नहीं करना
चाहिए।
उस
व्यक्ति ने
अपने पल्लू
में बँधा हुआ
पन्ना खोला और
पढ़ा तो उस पर 'दो
अक्षर का 'राम'
नाम लिखा हुआ
था। उसकी
श्रद्धा
तुरंत ही अश्रद्धा
में बदल गयीः "अरे
!
यह तारक मंत्र
है ! यह तो सबसे
सीधा सादा राम
नाम है !" मन
में इस प्रकार
की अश्रद्धा
उपजते ही वह
डूब मरा।
हृदय
में भरपूर
श्रद्धा हो तो
मानव महेश्वर
बन सकता है।
अतः अपने हृदय
को अश्रद्धा
से बचाना
चाहिए। इस
प्रकार के संग
व
परिस्थितियों
से सदैव बचना
चाहिए जो
ईश्वर तथा
संतों के
प्रति बनी
हमारी आस्था,
श्रद्धा व
भक्ति को
डगमगाते हों।
त्यजेदेकं
कुलस्यार्थे
ग्रामस्यार्थे
कुलं त्यजेत।
ग्रामं
जनपदस्यार्थे
आत्मार्थे
पृथिवीं त्यजेत्।।
'कुल
के हित के लिए
एक व्यक्ति को
त्याग दो। गाँव
के हित के लिए
कुल को त्याग
दो। देश के
हित के लिए
गाँव का
परित्याग कर
दो और आत्मा
के कल्याण के
लिए सारे
भूमंडल को
त्याग दो।'
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
जपात्
सिद्धिः
जपात्
सिद्धिः
जपात् सिद्धिर्न
संशयः।
जप में
चार बातें
आवश्यक हैं-
श्रद्धा व
तत्परता।
संयम।
एकाग्रता।
शब्दों का
गुंथन।
एक है
शब्द की
व्यवस्था।
जैसे- ॐ....
ह्रीं... क्लीं...
हुँ.... फट्... ऐं आदि
मंत्र हैं।
इनका कोई
विशेष मतलब
नहीं दिखता
परंतु वे
हमारी
सुषुप्त
शक्ति को
जगाने व हमारे
संकल्प को
वातावरण में
फैलाने में
बड़ी मदद करते
हैं। जैसे – आप
फोन करते हैं
तो कृत्रिम
उपग्रह
प्रणाली में
गति होने से
अमेरिका में
आपके मित्र के
घर फोन की
घंटी बजती है।
इससे भी
ज्यादा
प्रभाव
सूक्ष्म मंत्र
का होता है।
किंतु
मंत्रविज्ञान
को जानने वाले
गुरु व मंत्र
का फायदा
उठाने वाला
साधक मिले तभी
उसकी महिमा का
पता लगता है।
एक बार
रावण दशरथ के
पास गया। उस
समय दशरथ अयोध्या
में न होकर
गंगा के
किनारे गये
हुए थे। रावण के
पास उड़ने की
सिद्धि थी अतः
वह तुरंत दशरथ
के पास पहुँच
गया और जाकर
देखता है कि
दशरथ किनारे
पर बैठकर चावल
के दानों को
एक-एक करके गंगाजी
में जोर-से
मार रहे हैं।
आश्चर्यचकित
हो रावण ने
पूछाः "हे
अयोध्यानरेश ! आप यह
क्या कर रहे
हैं?"
दशरथः
"जंगल
में शेर बहुत
ज्यादा हो गये
हैं। उन्हें मारने
के लिए एक-एक
शेर के पीछे
क्या
घूमूँ?
यहाँ से ही
उनको यमपुरी
पहुँचा रहा
हूँ।"
रावण का
आश्चर्य और
अधिक बढ़ गया।
अतः वह जंगल
की ओर गया
देखा कि किसी
कोने से तीर
आते हैं, जो फालतू
शेर हैं
उन्हें लगते
हैं और वे मर
जाते हैं।
'श्रीमद्
भागवत' कथा
आती है कि
परीक्षित को
तक्षक ने
काटा। यह जानकर
जन्मेजय को
बड़ा क्रोध
आया और वह
सोचने लगाः 'मेरे
पिता को
मारनेवाले उस
अधम सर्प से
जब तक मैं वैर
न लूँ तब तक
मैं पुत्र
कैसा।?'
यह
सोचकर उसने
मंत्रविज्ञान
के जानने
वालों को
एकत्रित करके
विचार विमर्श
किया और यज्ञ
का आयोजन
किया।
सर्प-सत्र में
मंत्रों के
प्रभाव से
साँप
खिंच-खिंचकर
आने लगे और उस
यज्ञकुण्ड
में गिरकर
मरने लगे। ऐसा
करते-करते
बहुत सारे
सर्प अग्नि
में स्वाहा हो
गये किंतु
तक्षक नहीं
आया। यह देखकर
जन्मेजय ने
कहाः
"हे
ब्राह्मणो !
जिस अधम तक्षक
ने मेरे पिता
को मार डाला,
वह अभी तक
क्यों नहीं
आया?"
तब
ब्राह्मणों
ने कहाः "हे
राजन् ! तक्षक
रूप बदलना
जानता है और
इन्द्र से
उसकी मित्रता
है। जब मंत्र
के प्रभाव से
सब सर्प खिंच-खिंचकर
आने लगे तो इस
बात का पता लगते
ही वह सावधान
होकर इन्द्र
की शरण में
पहुँच गया है
और इन्द्र के
आसन से लिपटकर
बैठ गया है।"
जन्मेजयः
"हे
भूदेव !
इन्द्रासन
समेत वह तक्षक
हवनकुण्ड में
आ गिरे ऐसा
मंत्र क्यों
नहीं पढ़ते?"
ब्राह्मणों
ने जब जन्मेजय
कहने पर
तदनुसार मंत्र
पढ़ा तो
इन्द्रासन
डोलने लगा।
कैसा
अदभुत
सामर्थ्य है
मंत्रों में !
इन्द्रासन
के डोलने पर
इन्द्र को
घबराहट हुई कि
अब क्या होगा?
वे गये
देवगुरु
बृहस्पति के
पास और उनसे
प्रार्थना
की। इन्द्र की
प्रार्थना
सुन कर जन्मेजय
के पास
बृहस्पति
प्रकट हुए और
जन्मेजय को समझाकर
यज्ञ बंद करवा
दिया।
मंत्रोच्चारण,
मंत्रो के
शब्दों का
गुंथन, जापक
की श्रद्धा,
सदाचार और
एकाग्रता... ये
सब मंत्र के
प्रभाव पर असर
करते हैं। यदि
जापक की श्रद्धा
नहीं है तो
मंत्र का
प्रभाव इतना
नहीं होगा
जितना होना
चाहिए।
श्रद्धा है
परंतु मंत्र
का गुंथन
विपरीत है तो
भी विपरीत असर
होता है। जैसे
– यज्ञ किया कि 'इन्द्र
को मारनेवाला
पुत्र पैदा हो'
परंतु
संस्कृत में
ह्रस्व और
दीर्घ की गलती
से 'इन्द्र से
मरने वाला
पुत्र पैदा हो'
ऐसा बोल दिया
गया तो
वृत्रासुर
पैदा हुआ जो इन्द्र
को मार नहीं
पाया किंतु
स्वयं इन्द्र
के हाथों मारा
गया। अतः
शब्दों का
गुंथन सही
होना चाहिए।
जैसे, फोन पर
यदि 011 डायल
करना है तो 011 ही
डायल करना
पड़ेगा। ऐसा
नहीं कि 101 कर
दिया और यदि
ऐसा किया तो
गलत हो
जायेगा। जैसे,
अंक को
आगे-पीछे करने
से फोन नंबर
गलत हो जाता
है ऐसे ही
मंत्र के
गुंथन में
शब्दों के
आगे-पीछे होने
से मंत्र का
प्रभाव बदल
जाता है।
जापक की
श्रद्धा,
एकाग्रता और
संयम के
साथ-साथ मंत्र
देने वाले की
महत्ता का भी
मंत्र पर गहरा
प्रभाव पड़ता
है। जैसे,
किसी बात को
चपरासी कहे तो
उतना असर नहीं
होता किंतु
वही बात यदि
राष्ट्रपति कह
दे तो उसका
असर होता है।
जैसे,
राष्ट्रपति पद
का व्यक्ति
यदि
हस्ताक्षर
करता है तो
उसका राष्ट्रव्यापी
असर होता है,
ऐसे ही जिसने
आनंदमय कोष से
पार
आनंदस्वरूप
ईश्वर की
यात्रा कर ली
है ऐसे
ब्रह्मज्ञानी
सदगुरु
द्वारा प्रदत्त
मंत्र
ब्रह्माण्डव्यापी
प्रभाव रखता है।
निगुरा आदमी
मरने के बाद
प्रेतयोनि से
सहज में
छुटकारा नहीं
पाता परंतु
जिन्होंने
ब्रह्मज्ञानी
गुरुओं से
मंत्र ले रखा
है उन्हें
प्रेतयोनि
में भटकना
नहीं पड़ता।
जैसे, पुण्य
और पाप मरने
के बाद भी
पीछा नहीं
छोड़ते, ऐसे
ही
ब्रह्मवेत्ता
द्वारा
प्रदत्त गुरुमंत्र
भी साधक का
पीछा नहीं
छोड़ता। जैसे –
कबीर जी को
उनके गुरु से 'राम-राम'
मंत्र मिला। 'राम-राम'
मंत्र तो
रास्ते जाते
लोग भी दे
सकते हैं किंतु
उसका इतना असर
नहीं होता
परंतु
पूज्यपाद रामानंद
स्वामी ने जब
कबीर जी को 'राम-राम'
मंत्र दिया तो
कबीर जी कितनी
ऊँचाई पर
पहुँच गये,
दुनिया जानती
है। तुलसीदास
जी ने कहा हैः
मंत्रजाप
मम दृढ़
बिस्वासा।
पंचम भजन सो
वेद प्रकासा।।
(श्रीरामचरित.
अर. कां. 35.1)
अभी डॉ.
लिवर
लिजेरिया व
दूसरे
चिकित्सक
कहते हैं कि ह्रीं, हरि, ॐ
आदि
मंत्रों के
उच्चारण से
शरीर के
विभिन्न भागों
पर भिन्न-भिन्न
असर पड़ता है।
डॉ. लिवर
लिजेरिया ने
तो 17 वर्षों के
अनुभव के
पश्चात् यह
खोजा कि 'हरि' के
साथ अगर 'ॐ' शब्द
को मिलाकर
उच्चारण किया
जाये तो
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों
पर उसका अच्छा
प्रभाव पड़ता
है वह
निःसंतान
व्यक्ति को
मंत्र के बल
से संतान
प्राप्त हो
सकती है जबकि
हमारे भारत के
ऋषि-मुनियों
ने इससे भी अधिक
जानकारी
हजारों-लाखों
वर्ष पहले
शास्त्रों
में वर्णित कर
दी थी। हजारों
वर्ष पूर्व हमारे
साधु-संत जो
आसानी से कर
सकते थे उस
बात पर
विज्ञान अभी
कुछ-कुछ खोज
रहा है।
आकृति
के साथ शब्द
का प्राकृतिक
व मनोवैज्ञानिक
सम्बन्ध है।
मैं कह दूँ 'रावण' तो
आपके चित्त व
मन में रावण
की आकृति और
संस्कार उभर
आयेंगे और मैं
कह दूँ 'लाल
बहादुर
शास्त्री' तो
नाटा सा कद व
ईमानदारी मे
दृढ़ ऐसे नेता
की आकृति और
भाव आ
जायेंगे।
डॉ.
लिवर
लिजेरिया ने
मंत्र के
प्रभाव की खोज
केवल भौतिक या
स्थूल शरीर तक
ही की है जबकि
आज से हजारों
वर्ष पूर्व
हमारे ऋषियों
ने मंत्र के
प्रभाव को
केवल स्थूल
शरीर तक ही
नहीं वरन्
इससे भी आगे
कहा है। यह
भौतिक शरीर
अन्नमय है।
इसके अन्दर
चार शरीर और
भी हैं- प्राणमय।
मनोमय।
विज्ञानमय।
आनंदमय। इन
सबको चेतना
देनेवाले
चैतन्यस्वरूप
की भी खोज कर
ली है। अगर
प्राणमय शरीर
निकल जाता है
तो अन्नमय शरीर
मुर्दा हो
जाता है।
प्राणमय शरीर
का भी संचालन
करने वाला
मनोमय शरीर
है। मन के
संकल्प-विकल्प
के आधार पर ही
प्राणमय शरीर
क्रिया करता
है। मनोमय
शरीर के भीतर
विज्ञानमय
शरीर है। पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ
और बुद्धि –
इसको 'विज्ञानमय
शरीर' बोलते
हैं। मनोमय
शरीर को सत्ता
यही विज्ञानमय
शरीर देता है।
बुद्धि ने
निर्णय किया
कि मुझे
चिकित्सक
बनना है। मन
उसी विषय में
चला, हाथ-पैर
उसी विषय में
चले और आप बन
गये
चिकित्सक।
परंतु इस
विज्ञानमय कोष
से भी गहराई
में 'आनंदमय
कोष' है। कोई भी
कार्य हम
क्यों करते
हैं? इसलिए कि
हमें और हमारे
मित्रों को
आनंद मिले।
दाता दान करता
है तो भी आनंद
के लिए करता
है। भगवान के
आगे हम रोते
हैं तो भी
आनंद के लिए
और हँसते हैं तो
भी आनंद के
लिए। जो भी
चेष्टा करते
हैं आनंद के
लिए करते हैं
क्योंकि
परमात्मा
आनंदस्वरूप
है और उसके
निकट का जो
कोष है उसे 'आनंदमय
कोष' कहते हैं।
अतः जो भी
आनंद आता है
वह परमात्मा का
आनंद है।
परमात्मा
आनंदस्वरूप
है और मंत्र
उस परमात्मा
तक के इन
पाँचों कोषों
पर प्रभाव
डालता है।
भगवन्नाम के
जप से पाँचों
कोषों में,
समस्त
नाड़ियों में
व सातों केन्द्रों
में बड़ा
सात्त्विक
असर पड़ता है।
मंत्रजाप की
महत्ता जानकर
ही 500 वर्ष पहले
नानकजी ने
कहाः
भयनाशन
दुर्मति हरण
कलि में हरि
को नाम।
निशदिन
नानक जो जपे
सफल होवहिं सब
काम।।
तुलसीदासजी
ने तो यहाँ तक
कह दिया हैः
कृतजुग
त्रेताँ
द्वापर पूजा
मख अरु जोग।
जो
गति होइ सो
कलि हरि नाम
ते पावहिं
लोग।।
'सतयुग,
त्रेता और
द्वापर में जो
गति पूजा, यज्ञ
और योग से
प्राप्त होती
है, वही गति
कलियुग में
लोग केवल
भगवन्नाम के
गुणगान से पा
जाते हैं।'
(श्रीरामचरित.
उ. का. 102 ख)
कलिजुग
केवल हरि गुन
गाहा।
गावत
नर पावहिं भव
थाहा।।
'कलियुग
में तो केवल
श्रीहरि के
गुणगाथाओं का गान
करने से ही
मनुष्य
भवसागर की थाह
पा जाते हैं।'
(श्रीरामचरित.
उ. का. 102.2)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्वामी
अखंडानंद जी
सरस्वती संत 'जानकी'
घाटवाले बाबा
के दर्शन करने
के लिए जाते
थे। उन्होंने
अखंडानंदजी
(ये अपने
आश्रम में भी
आये थे) को यह
घटना बतायी थी
कि
रामवल्लभशरण
इतने महान
पंडित कैसे
हुए?
रामवल्लभशरण
किन्हीं संत
के पास गये।
संत ने
पूछाः "क्या
चाहिए?"
रामवल्लभशरणः
"महाराज
!
भगवान
श्रीराम की
भक्ति और
शास्त्रों का
ज्ञान चाहिए।"
ईमानदारी
की माँग थी।
सच्चाई का
जीवन था। कम बोलने
वाले थे।
भगवान के लिए
तड़प थी।
संत ने
पूछाः "ठीक
है। बस न?"
"जी,
महाराज।"
संत ने
हनुमानजी का
मंत्र दिया।
वे
एकाग्रचित्त
होकर तत्परता
से मंत्र जपते
रहे।
हनुमानजी
प्रकट हो गये।
हनुमान
जी ने कहाः "क्या
चाहिए?"
"भगवत्स्वरूप
आपके दर्शन तो
हो गये।
शास्त्रों का
ज्ञान चाहिए।"
हनुमानजीः
"बस,
इतनी सी बात?
जाओ, तीन दिन
के अंदर जितने
भी ग्रन्थ
देखोगे उन
सबका
अर्थसहित अभिप्राय
तुम्हारे
हृदय में
प्रकट हो
जायेगा।"
वे
काशी चले गये
और काशी के
विश्वविद्यालय
आदि के ग्रंथ
देखे। वे बड़े
भारी
विद्वान हो
गये। यह तो वे
ही लोग जानते
हैं जिन्होंने
उनके साथ
वार्तालाप
किया और शास्त्र-विषयक
प्रश्नोत्तर
किये हैं।
दुनिया के अच्छे-अच्छे
विद्वान उनका
लोहा मानते
हैं।
केवल
मंत्रजाप
करते-करते
अनुष्ठान में
सफल हुए।
हनुमानजी
प्रकट हो गये
और तीन दिन के
अंदर जितने
शास्त्र देखे
उन शास्त्रों
का अभिप्राय
उनके हृदय में
प्रकट हो गया।
कैसी
दिव्य महिमा
है मंत्र की !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यज्ञ
क्या है?
भगवान
श्रीकृष्ण
कहते हैं-
यज्ञानां
जपयज्ञोऽस्मि।
'सब प्रकार
के यज्ञों में
जप यज्ञ मैं
हूँ।'
भागवत
में कहा गया
हैः
अश्वमेधसहस्राणि
वाजपेयशतानि
च।
शुकशास्त्रकथायाश्च
कलां
नार्हन्ति
षोडशीम्।।
'चाहे
हजारों
अश्वमेध यज्ञ
कर लो और चाहे
सैंकड़ों
वाजपेय यज्ञ
कर लो परंतु
भगवत्कथा
पुण्य के आगे
उनका सोलहवाँ
भाग भी नहीं।'
फिर भी
ये यज्ञ अच्छे
हैं, भले हैं।
फ्रांस के वैज्ञानिकों
ने भारत की
यज्ञ-विधि पर
थोड़ा अनुसंधान
किया।
उन्होंने
देखा कि यज्ञ
में जो मधुर
पदार्थ डालते
हैं उससे
निकलने वाले
धुएँ से चेचक
के कीटाणु नष्ट
हो जाते हैं।
यज्ञ में घी
डालने पर
निकलनेवाले
धुएँ से क्षय
रोग (टी.बी.) और
दमे के कीटाणु
नष्ट होते हैं
परंतु हमारे
ऋषियों ने केवल
चेचक, क्षय
रोग या दमे के
कीटाणु ही
नष्ट हों इतना
ही नहीं सोचा
वरन् यज्ञ के
समय शरीर का
ऊपरी हिस्सा
खुला रखने का
भी विधान
बताया ताकि
यज्ञ करते समय
रोमकूप खुले
हुए हों और यज्ञ
का धुआँ
श्वासोच्छ्वास
व रोमकूप के
द्वारा शरीर
के अंदर
प्रवेश करे।
इससे अन्य
अनेक लाभ होते
हैं। किंतु
केवल शरीर को
ही लाभ नहीं होता
वरन् यज्ञ
करते समय
मंत्र
बोलते-बोलते
जब कहा जाता
हैः
इन्द्राय
स्वाहा। इदं
इन्द्राय न
मम।
वरूणाय
स्वाहा। इदं
वरुणाय न मम।।
'यह
इन्द्र का है,
यह वरुण का
है। मेरा नहीं
है।' इस प्रकार
ममता छुड़ाकर
निर्भय करने
की व्यवस्था
भी हमारी
यज्ञ-विधि में
है।
यज्ञ
करते समय कुछ
बातें ध्यान
में रखना आवश्यक
है। जैसे,
यज्ञ में जो
वस्तुएँ डाली
जाती हैं उनके
रासायनिक
प्रभाव को
उत्पन्न करने
में जो लकड़ी
मदद करती है
ऐसी ही लकड़ी
होनी चाहिए।
इसलिए कहा गया
हैः 'अमुक यज्ञ
में पीपल की
लकड़ी हो...
अमुक यज्ञ में
आम की लकड़ी
हो...' ताकि
लकड़ियों का
भी रासायनिक
प्रभाव व यज्ञ
की वस्तुओं का
भी रासायनिक
प्रभाव वातावरण
पर पड़े।
....किंतु
आज ऐसे यज्ञ
आप कहाँ
ढूँढते
फिरेंगे? उसका
भी एक विकल्प
हैः आज
भी गाय के
गोबर के कंडे
व कोयले मिल सकते
हैं। अतः कभी
कभार उन्हें
जलाकर उसमें
जौ, तिल, घी,
नारियल के
टुकड़े व गूगल
आदि मिलाकर तैयार
किया गया धूप
डालें। इस
प्रकार का धूप
बहुत से
विषैले
जीवाणुओं को
नष्ट करता है।
जब आप जप-ध्यान
करना चाहें तो
उससे थोड़ी
देर पहले यह धूप
करके फिर उस
धूप से शुद्ध
बने हुए
वातावरण में
जप-ध्यान करने
बैठें तो बहुत
लाभ होगा। धूप
भी अति न करें
अन्यथा गले
में तकलीफ
होने लगेगी।
आजकल
परफ्यूम से जो
अगरबत्तियाँ
बनती हैं वे खुशबू
तो देती हैं
परंतु
रसायनों का
हमारे स्वास्थ्य
पर विपरीत
प्रभाव पड़ता
है। एक तो मोटर-गाड़ियों
के धुएँ का,
दूसरा
अगरबत्तियों
के रसायनों का
कुप्रभाव
शरीर पर पड़ता
है। इसकी
अपेक्षा तो
सात्त्विक
अगरबत्ती या
धूपबत्ती मिल
जाय तो ठीक है
नहीं तो कम-से-कम
घी का थोड़ा
धूप कर लिया
करो। इसी प्रकार
अपने
साधना-कक्ष
में दीपक
जलायें,
मोमबत्ती
नहीं। कभी
कभार
साधना-कक्ष
में सुगंधित
फूल रख दें।
एक बात का और
भी ध्यान रखें
कि जप करते समय
ऐसा आसन
बिछाना चाहिए
जो विद्युत का
कुचालक हो
यानी आपको
पृथ्वी से
अर्थिंग न
मिले।
जप
ध्यान करने से
एक
आध्यात्मिक
विद्युत तैयार
होती है जो
वात-पित्त-कफ
के दोषों को
निवृत्त करके
स्वास्थ्य-लाभ
तो कराती ही
है, साथ-ही-साथ
मन और प्राण
को भी ऊपर ले
आती है। अगर
आप असावधान
रहे और साधना
के समय सूती
कपड़े पर या
साधारण जगह पर
बैठ गये तो
शरीर में
जप-ध्यान से
जो ऊर्जा
उत्पन्न होती
है, उसे
अर्थिंग मिल
जाती है और वह
पृथ्वी में
चली जाती है।
आप ठनठनपाल रह
जाते हैं। मन
में होता है
कि थोड़ा भजन
हुआ किंतु भजन
में जो बरकत
आनी चाहिए वह
नहीं आती। अतः
साधना के समय
ये
सावधानियाँ
जरूरी हैं।
ये नियम
तपस्वियों के
लागू नहीं
पड़ते। तपस्वियों
को तो शरीर को
कष्ट देना है।
तपस्वी का नंगे
पैर चलना उसकी
दुनिया है
किंतु यह
जमाना नंगे
पैर चलकर तप
करने का नहीं,
यह तो फास्ट
युग है।
आचार्य
विनोबा भावे
ने कहीं पढ़ा
था कि
ब्रह्मचारी
को नंगे पैर
चलना चाहिए,
तपस्वी जीवन
जीना चाहिए।
उन्होंने यह
पढ़कर नंगे
पैर यात्रा
करनी शुरू की।
परिणाम यह हुआ
कि शरीर को
अर्थिंग खूब
मिली और
डामर की
सड़कों पर
गर्मी में
नंगे पैर चलने
से आँखों से
पर बुरा असर
पड़ा। बाद में
उन्हें विचार
आया कि जिस
समय यह बात
कही गयी थी तब
डामर की
सड़कें नहीं
थी, ऋषि-आश्रम
थे, हरियाली
थी। बाद में
उन्होंने
नंगे पैर चलना
बंद कर दिया
किंतु आँखों
पर असर काफी
समय तक बना रहा।
विनोबा
भावे किसी
साधारण माँ के
बालक नहीं थे।
उनकी माँ यज्ञ
करना जानती थी
और केवल अग्नि
में
आहुतिवाला
यज्ञ नहीं
वरन् गरीब-गुरबे
को भोजन कराने
का यज्ञ करना
जानती थी। विनोबा
भावे के पिता
नरहरि भावे
शिक्षक थे।
उन्हें नपा
तुला वेतन
मिलता था फिर
भी सोचते थे
कि जीवन में
कुछ-न-कुछ
सत्कर्म होना चाहिए।
किसी गरीब
सदाचारी
विद्यार्थी
को ले आते और
अपने घर में
रखते। माता
रखुनाई अपने
बेटों को भी
भोजन कराती और
उस अनाथ बालक
को भी भोजन
कराती किंतु
खिलाने में
पक्षपात
करती। एक दिन
बालक विनोबा
ने माँ से
कहाः
''माँ !
तुम कहती हो
कि सबमें
भगवान है,
किसी से पक्षपात
नहीं करना
चाहिए। परंतु
तुम खुद ही
पक्षपात
क्यों करती हो? जब
बासी रोटी
बचती है तो
उसे गर्म करके
तुम मुझे
खिलाती हो,
खुद खाती हो
किंतु उस अनाथ
विद्यार्थी
के लिए
गर्म-गर्म
रोटी बनाती
हो। ऐसा
पक्षपात
क्यों, माँ?"
वह
बोलीः "मेरे
लाल ! मुझे तू
अपना बेटा
लगता है परंतु
वह बालक अतिथिदेव
है, भगवान का
स्वरूप है।
उसमें मुझे
भगवान दिखते
हैं। जिस दिन
तुझमें भी
मुझे भगवान
दिखेंगे उस
दिन तुझे भी
ताजी-ताजी
रोटी
खिलाऊँगी।"
भारत की
उस देवी ने
क्या गजब का
उत्तर दिया है
!
यह धर्म,
संस्कृति
नहीं तो और
क्या है?
वास्तव में
यही धर्म है
और यही यज्ञ
है। अग्नि में
घी की आहुतियाँ
ही केवल यज्ञ
है और
दीन-दुःखी-गरीब
को मदद करना,
उनके आँसू
पोंछना भी
यज्ञ है और
दीन-दुःखियों
की सेवा ही
वास्तव में
परमात्मा की सेवा
है, यह युग के
अनुरूप यज्ञ
है। यह इस युग
की माँग है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
'स्कन्द
पुराण' के
ब्रह्मोत्तर
खण्ड में कथा
आती हैः काशी
नरेश की कन्या
कलावती के साथ
मथुरा के
दाशार्ह नामक
राजा का विवाह
हुआ। विवाह के
बाद राजा ने अपनी
पत्नी को अपने
पलंग पर
बुलाया परंतु
पत्नी ने
इन्कार कर
दिया। तब राजा
ने बल-प्रयोग
की धमकी दी।
पत्नी
ने कहाः "स्त्री
के साथ
संसार-व्यवहार
करना हो तो
बल-प्रयोग
नहीं,
स्नेह-प्रयोग
करना चाहिए।
नाथ ! मैं आपकी
पत्नी हूँ,
फिर भी आप
मेरे साथ
बल-प्रयोग
करके
संसार-व्यवहार
न करें।"
आखिर वह
राजा था।
पत्नी की बात
सुनी-अनसुनी
करके नजदीक
गया। ज्यों ही
उसने पत्नी का
स्पर्श किया
त्यों ही उसके
शरीर में
विद्युत जैसा
करंट लगा।
उसका स्पर्श
करते ही राजा
का अंग-अंग
जलने लगा। वह
दूर हटा और
बोलाः "क्या
बात है? तुम
इतनी सुन्दर
और कोमल हो
फिर भी
तुम्हारे शरीर
के स्पर्श से
मुझे जलन होने
लगी?"
पत्नीः "नाथ
!
मैंने
बाल्यकाल में
दुर्वासा ऋषि
से शिवमंत्र
लिया था। वह
जपने से मेरी
सात्त्विक
ऊर्जा का
विकास हुआ है।
जैसे, अँधेरी
रात और दोपहर
एक साथ नहीं
रहते वैसे ही
आपने शराब
पीने वाली
वेश्याओं के
साथ और कुलटाओं
के साथ जो
संसार-भोग
भोगे हैं,
उससे आपके पाप
के कण आपके
शरीर में, मन
में, बुद्धि
में अधिक है
और मैंने जो
जप किया है
उसके कारण मेरे
शरीर में ओज,
तेज,
आध्यात्मिक
कण अधिक हैं।
इसलिए मैं
आपके नजदीक
नहीं आती थी
बल्कि आपसे
थोड़ी दूर
रहकर आपसे
प्रार्थना
करती थी। आप
बुद्धिमान
हैं बलवान
हैं, यशस्वी
हैं धर्म की
बात भी आपने
सुन रखी है।
फिर भी आपने
शराब
पीनेवाली
वेश्याओं के
साथ और कुलटाओं
के साथ भोग
भोगे हैं।"
राजाः "तुम्हें
इस बात का पता
कैसे चल गया?"
रानीः "नाथ
!
हृदय शुद्ध
होता है तो यह
ख्याल आ जाता
है।"
राजा
प्रभावित हुआ
और रानी से
बोलाः "तुम
मुझे भी भगवान
शिव का वह
मंत्र दे दो।"
रानीः "आप
मेरे पति हैं।
मैं आपकी गुरु
नहीं बन सकती।
हम दोनों
गर्गाचार्य
महाराज के पास
चलते हैं।"
दोनों
गर्गाचार्यजी
के पास गये और
उनसे प्रार्थना
की। उन्होंने
स्नानादि से
पवित्र हो, यमुना
तट पर अपने
शिवस्वरूप के
ध्यान में
बैठकर
राजा-रानी को
निगाह से पावन
किया। फिर
शिवमंत्र
देकर अपनी
शांभवी
दीक्षा से
राजा पर शक्तिपात
किया।
कथा
कहती है कि
देखते-ही-देखते
कोटि-कोटि कौए
राजा के शरीर
से
निकल-निकलकर
पलायन कर गये।
काले कौए
अर्थात्
तुच्छ
परमाणु। काले
कर्मों के
तुच्छ परमाणु
करोड़ों की
संख्या में
सूक्ष्म
दृष्टि के
द्रष्टाओं
द्वारा देखे
गये हैं।
सच्चे संतों
के चरणों में
बैठकर दीक्षा
लेने वाले सभी
साधकों को इस
प्रकार के लाभ
होते ही हैं।
मन, बुद्धि
में पड़े हुए
तुच्छ
कुसंस्कार भी
मिटते हैं।
आत्म-परमात्माप्राप्ति
की योग्यता भी
निखरती है।
व्यक्तिगत
जीवन में
सुख-शांति,
सामाजिक जीवन
में सम्मान
मिलता है तथा
मन-बुद्धि में
सुहावने संस्कार
भी पड़ते हैं।
और भी अनगिनत
लाभ होते हैं
जो निगुरे,
मनमुख लोगों
की कल्पना में
भी नहीं आ
सकते।
मंत्रदीक्षा
के प्रभाव से
हमारे पाँचों
शरीरों के
कुसंस्कार व
काले कर्मों
के परमाणु
क्षीण होते
जाते हैं।
थोड़ी-ही देर
में राजा
निर्भार हो
गया और भीतर
के सुख से भर गया।
शुभ-अशुभ,
हानिकारक व
सहायक जीवाणु
हमारे शरीर
में ही रहते
हैं। पानी का
गिलास होंठ पर
रखकर वापस
लायें तो उस
पर लाखों
जीवाणु पाये
जाते हैं यह
वैज्ञानिक
अभी बोलते
हैं, परंतु
शास्त्रों ने
तो लाखों वर्ष
पहले ही कह
दिया।
सुमति-कुमति
सबके उर
रहहिं।
जब आपके
अंदर अच्छे
विचार रहते
हैं तब आप
अच्छे काम
करते हैं और
जब भी हलके
विचार आ जाते
हैं तो आप न
चाहते हुए भी
कुछ गलत कर
बैठते हैं। गलत
करने वाला कई
बार अच्छा भी
करता है। तो
मानना पड़ेगा
कि मनुष्य
शरीर पुण्य और
पाप का मिश्रण
है। आपका
अंतःकरण शुभ
और अशुभ का
मिश्रण है। जब
आप लापरवाह
होते हैं तो
अशुभ बढ़ जाता
है। अतः
पुरुषार्थ यह
करना है कि
अशुभ क्षीण
होता जाय और
शुभ
पराकाष्ठा तक,
परमात्म-प्राप्ति
तक पहुँच जाय।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भगवन्नाम
में 15 विशेष
शक्तियाँ हैं-
संपदा
शक्तिः भगवन्नाम-जप
में एक है
संपदा शक्ति।
लौकिक संपदा
में, धन में भी
कितनी शक्ति
है – इससे
मिठाइयाँ
खरीद लो, मकान
खरीद लो,
दुकान खरीद
लो। वस्त्र,
हवाई जहाज आदि
दुनिया की हर
चीज धन से
खरीदी जा सकती
है। इस प्रकार
भगवन्नाम जप
में
दारिद्रयनाशिनी
शक्ति
अर्थात्
लक्ष्मीप्राप्ति
शक्ति है।
भुवनपावनी
शक्तिः भगवन्नाम-जप
करोगे तो आप
जहाँ रहोगे उस
वातावरण में
पवित्रता छा
जायेगी। ऐसे
संत वातावरण
में (समाज) में आते
हैं तो
पवित्रता के
प्रभाव से
हजारों लोग खिंचकर
उनके पास आ
जाते हैं।
भुवनपावनी
शक्ति विकसित
होती है
नाम-कमाई से।
नाम कमाई वाले
ऐसे संत जहाँ
जाते हैं,
जहाँ रहते
हैं, यह
भुवनपावनी
शक्ति उस जगह
को तीर्थ बना
देती है, फिर
चाहे कैसी भी
जगह हो। यहाँ
(मोटेरा में)
तो पहले शराब
की 40 भट्ठियाँ
चलती थीं, अब
वहीं आश्रम
है। यह
भगवन्नाम की
भुवनपावनी
शक्ति का प्रभाव
है।
सर्वव्याधिविनाशिनी
शक्तिः भगवन्नाम
में
रोगनाशिनी
शक्ति है। आप
कोई औषधि लेते
हैं। उसको अगर
दाहिने हाथ पर
रखकर 'ॐ नमो
नारायणाय' का 21
बार जप करके
फिर लें तो
उसमें
रोगनाशिनी शक्ति
का संचार
होगा।
एक बार
गाँधीजी
बीमार पड़े।
लोगों ने
चिकित्सक को
बुलाया।
गाँधी जी ने
कहा कि "मैं
चलते-चलते गिर
पड़ा। तुमने
चिकित्सक को बुलाया
इसकी अपेक्षा
मेरे
इर्द-गिर्द
बैठकर भगवन्नाम-जपते
तो मुझे विशेष
फायदा होता और
विशेष
प्रसन्नता
होती।'
मेरी
माँ को यकृत
(लीवर), गुर्दे
(किडनी), जठरा,
प्लीहा आदि की
तथा और
भी कई जानलेवा
बीमारियों ने
घेर लिया था।
उसको 86 साल की
उम्र में
चिकित्सकों
ने कह दिया था
कि 'अब एक दिन
से ज्यादा
नहीं निकाल
सकती हैं।'
23
घंटे हो गये।
मैंने अपने 7
दवाखाने
सँभालने वाले
वैद्य को कहाः
"महिला
आश्रम में
माता जी हैं।
तू कुछ तो कर,
भाई ! " थोड़ी देर
बात मुँह लटकाये आया
और बोलाः अब
माता जी एक
घंटे से
ज्यादा समय
नहीं निकाल
सकती हैं।
नाड़ी विपरीत
चल रही है।"
मैं
माता जी के
पास गया।
हालाँकि मेरी
माँ मेरी गुरु
थीं, मुझे
बचपन में
भगवत्कथा
सुनाती थीं।
परंतु जब मैं
गुरुकृपा
पाकर 7 वर्ष की
साधना के बाद
गुरुआज्ञा के
घर गया, तबसे
माँ को मेरे
प्रति आदर भाव
हो गया। वे
मुझे पुत्र के
रूप में नहीं
देखती थीं
वरन् जैसे कपिल
मुनि की माँ
उनको भगवान के
रूप में, गुरु
के रूप में
मानती थीं,
वैसे ही मेरी
माँ मुझे मानती
थीं। मेरी माँ
ने कहाः "प्रभु
!
अब मुझे जाने
दो।"
मैंने कहाः
"मैं
नहीं जाने
दूँगा।"
उनकी
श्रद्धा का
मैंने
सात्त्विक
फायदा उठाया।
माः "मैं
क्या करूँ?"
मैंने
कहाः "मैं
मंत्र देता
हूँ आरोग्यता
का।"
उनकी
श्रद्धा और
मंत्र भगवान
का प्रभाव...
माँ ने मंत्र
जपना चालू
किया। मैं
आपको सत्य
बोलता हूँ कि
एक घंटे के
बाद
स्वास्थ्य
में सुधार होने
लगा। फिर तो
एक दिन, दो दिन...
एक सप्ताह... एक
महीना... ऐसा
करते-करते 72
महीने तक उनका
स्वास्थ्य बढ़िया
रहा। कुछ
खान-पान की
सावधानी बरती
गयी, कुछ औषध
का भी उपयोग
किया गया।
अमेरिका
का चिकित्सक
पी.सी.पटेल
(एम.डी.) भी
आश्चर्यचकित
हो गया कि 86
वर्ष की उम्र
में माँ के
यकृत, गुर्दे
फिर से कैसे
ठीक हो गये? तो
मानना पड़ेगा
कि
सर्वव्याधिविनाशिनी
शक्ति,
रोगहारिणी
शक्ति
मंत्रजाप में
छुपी हुई है।
बंकिम
बाबू (वंदे
मातरम्
राष्ट्रगान
के रचयिता) की
दाढ़ दुखती
थी।
ऐलौपैथीवाले
थक गये।
आयुर्वेदवाले
भी तौबा पुकार
गये... आखिर बंकिम
बाबू ने कहाः 'छोड़ो।'
और वे
भगवन्नाम-जप
में लग गये।
सर्वव्याधिविनाशिनी
शक्ति का क्या
अदभुत प्रभाव !
दाढ़ का दर्द
कहाँ छू हो
गया पता तक न
चला !
सर्वदुःखहारिणी
शक्तिः किसी
भी प्रकार का
दुःख हो
भगवन्नाम जप
चालू कर दो,
सर्वदुःखहारिणी
शक्ति उभरेगी
और आपके दुःख
का प्रभाव
क्षीण होने
लगेगा।
कलिकाल
भुजंगभयनाशिनी
शक्तिः कलियुग
के दोषों को
हरने की शक्ति
भी भगवन्नाम
में छुपी हुई
है।
तुलसीदास
जी ने कहाः
कलिजुग
केवल हरि गुन
गाहा।
गावत
नर पावहिं भव
थाहा।
कलजुग
केवल नाम
आधारा।
जपत
नर उतरहिं
सिंधु पारा।।
कलिजुग
का यह दोष है
कि आप अच्छाई
की तरफ चलें तो
कुछ-न-कुछ
बुरे संस्कार
डालकर,
कुछ-न-कुछ बुराई
करवाकर आपका
पुण्यप्रभाव
क्षीण कर देता
है। यह उन्हीं
को सताता है
जो
भगवन्नाम-जप
में मन नहीं
लगाते। केवल
ऊपर-ऊपर से
थोड़ी माला कर
लेते हैं।
परंतु जो
मंत्र
द्रष्टा
आत्मज्ञानी
गुरु से
अपनी-अपनी
पात्रता व
उद्देश्य के
अनुरूप ॐसहित
वैदिक मंत्र
लेकर जपते
हैं, उनके
अंदर कलिकाल
भुजंगभयनाशिनी
शक्ति प्रकट
हो जाती है।
नरकोद्धारिणी
शक्तिः व्यक्ति
ने कैसा भी
नारकीय कर्म
कर लिया हो
परंतु
भगवन्नाम की
शरण आ जाता है और
अब बुरे कर्म
नहीं करूँगा –
ऐसा ठान लेता
है तो
भगवन्नाम की
कमाई उसके नारकीय
दुःखों का
अथवा नारकीय
योनियों का
अंत कर देती
है। अजामिल की
रक्षा इसी
शक्ति ने की थी।
अजामिल
मृत्यु की
आखिरी श्वास
गिन रहा था, उसे
यमपाश से
भगवन्नाम की
शक्ति ने
बचाया। अकाल
मृत्यु टल गयी
तथा
महादुराचारी
से
महासदाचारी
बन गये और
भगवत्प्राप्ति
की। 'श्रीमद्
भागवत' की यह
कथा जग जाहिर
है।
दुःखद
प्रारब्ध-विनाशिनी
शक्तिः मेटत
कठिन कुअंक
भाल के.... भाग्य
के कुअंकों को
मिटाने की
शक्ति है मंत्रजाप
में। जो आदमी
संसार से
गिराया, हटाया
और धिक्कारा
गया है, जिसका
कोई सहारा
नहीं है वह भी
यदि भगवन्नाम
का सहारा ले
तो तीन महीने
के अंदर अदभुत
चमत्कार
होगा। जो
दुत्कारने
वाले और ठुकरानेवाले
थे, आपके
सामने देखने
की भी जिनकी
इच्छा नहीं
थी, वे आपसे
स्नेह करेंगे
और आपसे ऊँचे
अधिकारी भी
आपसे सलाह
लेकर कभी-कभी
अपना काम बना
लेंगे।
ध्यानयोग
शिविर में लोग
ऐसे कई अनुभव
सुनाते हैं।
गीता
में
श्रीकृष्ण
कहते हैं-
अपि
चेदसि
पापेभ्यः
सर्वेभ्यः
पापकृत्तमः।
सर्व
ज्ञानप्लवेनैव
वृजिनं
संतरिष्यसि।।
कर्म
संपूर्तिकारिणी
शक्तिः कर्मों
को सम्पन्न
करने की शक्ति
है मंत्रजाप
में। आने वाले
विघ्न को
हटाने का
मंत्र जपकर
कोई कर्म करें
तो कर्म
सफलतापूर्वक
सम्पन्न हो
जाता है।
कई
रामायण की कथा
करने वाले,
भागवत की कथा
करने वाले
प्रसिद्ध
वक्ता तथा
कथाकार जब कथा
का समय देते
हैं तो पंचांग
देखते हैं कि
यह समय कथा के
लिए उपयुक्त
है, यह मंडप का
मुहूर्त है,
यह कथा की
पूर्णाहूति
का समय है...
मेरे जीवन
में, मैं आपको
क्या बताऊँ?
मैं 30 वर्ष से
सत्संग कर रहा
हूँ, मैंने आज
तक कोई पंचांग
नहीं देखा।
भगवन्नाम-जप
कर गोता मारता
हूँ और तारीख
देता हूँ तो
सत्संग उत्तम होता
है। कभी कोई
विघ्न नहीं
हुआ। केवल एक
बार अचानक
किसी निमित्त
के कारण
कार्यक्रम
स्थगित करना
पड़ा। बाद में
दूसरी तिथि
में वहाँ सत्संग
दिया। वह भी 30
वर्ष में
एक-दो बार।
सर्ववेदतीर्थादिक
फलदायिनी
शक्तिः जो
एक वेद पढ़ता
है वह पुण्यात्मा
माना जाता है
परंतु उसके
सामने यदि
द्विवेदी या
त्रिवेदी आ
जाता है तो वह
उठकर खड़ा हो
जाता है और
यदि
चतुर्वेदी आ
जाये तो त्रिवेदी
भी उसके आगे
नतमस्तक हो
जाता है, क्योंकि
वह चार वेद का
ज्ञाता है।
परंतु जो
गुरुमंत्र
जपता है उसे
चार वेद पढ़ने
का और सर्व
तीर्थों का फल
मिल जाता है।
सभी वेदों का पाठ
करो, तीर्थों
की यात्रा करो
तो जो फल होता है,
उसकी अपेक्षा
गुरुमंत्र
जपें तो उससे
भी अधिक फल
देने की शक्ति
मंत्र भगवान
में है।
सर्व
अर्थदायिनी
शक्तिः जिस-जिस
विषय में आपको
लगना हो
भगवन्नाम-जप
करके उस-उस
विषय में लगो
तो उस-उस विषय
में आपकी
गति-मति को
अंतरात्मा
प्रेरणा
प्रदान करेगा
और आपको उसके
रहस्य एवं
सफलता
मिलेगी।
हम किसी
विद्यालय-महाविद्यालय
अथवा संत या कथाकार
के पास सत्संग
करना सीखने
नहीं गये। बस,
गुरुजी ने
कहाः 'सत्संग
किया करो।'
हालाँकि
गुरुजी के पास
बैठकर भी हम
सत्संग करना
नहीं सीखे। हम
तो डीसा में
रहते थे और
गुरुजी
नैनीताल में
रहते थे। फिर
गुरुआज्ञा
में बोलने लगे
तो आज करोड़ों
लोग रोज सुनते
हैं। कितने
करोड़ सुनते
हैं, वह हमें
भी पता नहीं
है।
जगत
आनंददायिनी
शक्तिः जप
करोगे तो
वैखरी से
मध्यमा,
मध्यमा से पश्यंति
और पश्यंति से
परा में जाओगे
तो आपके हृदय
में जो आनंद
होगा, आप उस
आनंद में गोता
मारकर देखोगे
तो जगत में
आनंद छाने
लगेगा। उसे
गोता मारकर
बोलोगे तो लोग
आनंदित होने
लगेंगे और आपके
शरीर से भी
आनंद के
परमाणु
निकलेंगे।
जगदानदायिनी
शक्तिः कोई
गरीब-से-गरीब
है,
कंगाल-से-कंगाल
है, फिर भी
मंत्रजाप करे
तो जगदान करने
के फल को पाता
है। उसकी
जगदानदायिनी शक्ति
प्रकट होती
है।
अमित
गदिदायिनी
शक्तिः उस
गति की हम
कल्पना नहीं
कर सकते कि हम
इतने ऊँचे हो
सकते हैं।
हमने घर छोड़ा
और गुरु की शरण
में गये तो हम
कल्पना नहीं
कर सकते थे कि
ऐसा अनुभव
होता होगा !
हमने सोचा था
कि 'हमारे
इष्टदेव हैं
शिवजी। गुरु
की शरण जायें तो
वे शिवजी के
दर्शन करा
दें, शिवजी से
बात करा दें।
ऐसा करके हमने
40 दिना का
अनुष्ठान
किया और कुछ
चमत्कार होने
लगे। हम
विधिपूर्वक
मंत्र जपते
थे। फिर अंदर
से आवाज आतीः 'तुम
लीलाशाह जी
बापू के पास
जाओ। मैं वहाँ
सब रूपों में
तुम्हें
मिलूँगा।'
हम
पूछतेः "कौन
बोल रहा है?"
तो
उत्तर आताः "जिसका
तुम जप कर रहे
हो, वही बोल
रहा है।"
मंदिर
में जाते तो
माँ पार्वती
के सिर पर से फूर
गिर पड़ता,
शिवजी की
मूर्ति पर से
फूल गिर पड़ता।
यह शुभ माना
जाता है।
कुबेरेश्वर
महादेव था नर्मदा
किनारे।
अनुष्ठान के
दिनों में कुछ
ऐसे चमत्कार
होने लगते थे
और अंदर से
प्रेरणा होती थी
कि 'जाओ, जाओ
लीलाशाह बापू
के पास जाओ।'
हम
पहुँचे तो
गुरु की
कैसी-कैसी
कृपा हुई... हम तो
मानते थे कि
इतना लाभ
होगा... जैसे,
कोई आदमी 10
हजार का लाभ
चाहे और उसे
करोड़ों-अरबों
रूपये की
संपत्ति मिल
जाय ! ऐसे ही
हमने तो शिवजी
का साकार
दर्शन चाहा परंतु
जप ने और
गुरुकृपा ने
ऐसा दे दिया
कि शिवजी
जिससे शिवजी
हैं वह
परब्रह्म-परमात्मा
हमसे तनिक भी
दूर नहीं है
और हम उससे
दूर नहीं। हम
तो कल्पना भी
नहीं कर सकते
थे कि इतना
लाभ होगा।
जैसे,
कोई व्यक्ति
जाय क्लर्क की
नौकरी के लिए
और उसे
राष्ट्रपति
बना दिया जाये
तो....? चक्रवर्ती
सम्राट बना
दिया जाय तो.....?
कितना
बड़ा आश्चर्य
हो, उससे भी
बड़ा आश्चर्य है
यह। उससे भी
बड़ी ऊँचाई है
अनुभव की।
मंत्रजाप
में अगतिगतिदायिनी
शक्ति भी
है। कोई मर
गया और उसकी
अवगति हो रही
है और उसके
कुटंबी
भजनानंदी हैं
अथवा उसके जो
गुरु हैं, वे
चाहें तो उसकी
सदगति कर सकते
हैं। नामजपवाले
में इतनी ताकत
होती है कि
नरक में जानेवाले
जीव को नरक से
बचाकर स्वर्ग
में भेज सकते
हैं !
मुक्ति
प्रदायिनी
शक्तिः सामीप्य
मुक्ति,
सारूप्य
मुक्ति,
सायुज्य मुक्ति,
सालोक्य
मुक्ति – इन
चारों
मुक्तियों
में से जितनी
तुम्हारी यात्रा
है वह मुक्ति
आपके लिए खास
आरक्षित हो जायेगी।
ऐसी शक्ति है
मंत्रजाप
में।
भगवत्प्रीतिदायिनी
शक्तिः आप
जप करते जाओ,
भगवान के
प्रति प्रीति
बनेगी, बनेगी
और बनेगी। और
जहाँ प्रीति
बनेगी, वहाँ मन
लगेगा और जहाँ
मन लगेगा वहाँ
आसानी से साधन
होने लगेगा।
कई लोग
कहते हैं कि
ध्यान में मन
नहीं लगता। मन
नहीं लगता है
क्योंकि
भगवान में
प्रीति नहीं
है। फिर भी जप
करते जाओ तो
पाप कटते
जायेंगे और
प्रीति बढ़ती जायेगी।
हम ये
इसलिए बता रहे
हैं कि आप भी
इसका लाभ उठाओ।
जप को बढ़ाओ
तथा जप
गंभीरता,
प्रेम तथा गहराई
से करो।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सारे
शास्त्र-स्मृतियों
का मूल है
वेद। वेदों का
मूल गायत्री
है और गायत्री
का मूल है
ओंकार। ओंकार
से गायत्री,
गायत्री से
वैदिक ज्ञान, और
उससे शास्त्र
और सामाजिक
प्रवृत्तियों
की खोज हुई।
पतंजलि
महाराज ने कहा
हैः
तस्य
वाचकः
प्रणवः। परमात्मा
का वाचक ओंकार
है।
सब
मंत्रों में ॐ
राजा है।
ओंकार अनहद
नाद है। यह
सहज में
स्फुरित हो
जाता है।
अकार, उकार, मकार
और
अर्धतन्मात्रायुक्त
ॐ एक ऐसा
अदभुत भगवन्नाम
मंत्र है कि
इस पर कई
व्याखयाएँ
हुई। कई ग्रंथ
लिखे गये। फिर
भी इसकी महिमा
हमने लिखी ऐसा
दावा किसी ने
किया। इस
ओंकार के विषय
में
ज्ञानेश्वरी
गीता में
ज्ञानेश्वर महाराज
ने कहा हैः
ॐ
नमो जी आद्या
वेदप्रतिपाद्या
जय जय स्वसंवेद्या
आत्मरूपा।
परमात्मा
का
ओंकारस्वरूप
से अभिवादन
करके ज्ञानेश्वर
महाराज ने
ज्ञानेश्वरी
गीता का प्रारम्भ
किया।
धन्वंतरी
महाराज लिखते
हैं कि ॐ सबसे
उत्कृष्ट
मंत्र है।
वेदव्यासजी
महाराज कहते
हैं कि प्रणवः
मंत्राणां
सेतुः। यह
प्रणव मंत्र
सारे मंत्रों
का सेतु है।
कोई
मनुष्य
दिशाशून्य हो
गया हो,
लाचारी की हालत
में फेंका गया
हो,
कुटुंबियों
ने मुख मोड़ लिया
हो, किस्मत
रूठ गयी हो,
साथियों ने
सताना शुरू कर
दिया हो,
पड़ोसियों ने
पुचकार के
बदले
दुत्कारना
शुरू कर दिया
हो... चारों तरफ
से व्यक्ति
दिशाशून्य,
सहयोगशून्य,
धनशून्य,
सत्ताशून्य
हो गया हो फिर
भी हताश न हो
वरन् सुबह-शाम
3 घंटे ओंकार
सहित
भगवन्नाम का
जप करे तो
वर्ष के अंदर
वह व्यक्ति
भगवत्शक्ति
से सबके
द्वारा सम्मानित,
सब दिशाओं में
सफल और सब
गुणों से सम्पन्न
होने लगेगा।
इसलिए मनुष्य
को कभी भी
लाचार,
दीन-हीन और
असहाय मानकर
अपने को कोसना
चाहिए। भगवान
तुम्हारे
आत्मा बनकर
बैठे हैं और
भगवान का नाम
तुम्हें सहज
में प्राप्त
हो सकता है
फिर क्यों
दुःखी होना?
रोज
रात्रि में
तुम 10 मिनट
ओंकार का जप
करके सो जाओ।
फिर देखो, इस
मंत्र भगवान
की क्या-क्या
करामात होती
है? और दिनों
की अपेक्षा वह
रात कैसी जाती
है और सुबह
कैसी जाती है?
पहले ही दिन
फर्क पड़ने लग
जायेगा।
मंत्र
के ऋषि, देवता,
छंद, बीज और
कीलक होते हैं।
इस विधि को
जानकर गुरुमंत्र
देने वाले
सदगुरु मिल
जायें और उसका
पालन करने
वाला सतशिष्य
मिल जाये तो
काम बन जाता
है। ओंकार
मंत्र का छंद
गायत्री है,
इसके देवता
परमात्मा
स्वयं
है और मंत्र
के ऋषि भी
ईश्वर ही हैं।
भगवान
की रक्षण
शक्ति, गति
शक्ति, कांति
शक्ति, प्रीति
शक्ति, अवगम
शक्ति, प्रवेश
अवति शक्ति
आदि 19
शक्तियाँ
ओंकार में
हैं। इसका आदर
से श्रवण करने
से मंत्रजापक
को बहुत लाभ
होता है ऐसा
संस्कृत के
जानकार पाणिनी
मुनि ने बताया
है।
वे पहले
महाबुद्धु थे,
महामूर्खों
में उनकी गिनती
होती थी। 14 साल
तक वे पहली
कक्षा से
दूसरी में
नहीं जा पाये
थे। फिर
उन्होंने
शिवजी की
उपासना की, उनका
ध्यान किया
तथा शिवमंत्र
जपा। शिवजी के
दर्शन किये व
उनकी कृपा से
संस्कृत
व्याकरण की रचना
की और अभी
पाणिनी मुनी
का संस्कृत
व्याकरण
पढ़ाया जाता
है।
मंत्र
में 19
शक्तियाँ हैं-
रक्षण
शक्तिः ॐ
सहित मंत्र का
जप करते हैं
तो वह हमारे
जप तथा पुण्य
की रक्षा करता
है। किसी
नामदान के लिए
हुए साधक पर
यदि कोई आपदा
आनेवाली है,
कोई दुर्घटना
घटने वाली है
तो मंत्र
भगवान उस आपदा
को शूली में
से काँटा कर
देते हैं।
साधक का बचाव कर
देते हैं। ऐसा
बचाव तो एक
नहीं, मेरे
हजारों
साधकों के
जीवन में चमत्कारिक
ढंग से महसूस
होता है। अरे,
गाड़ी उलट गयी,
तीन गुलाटी खा
गयी किंतु
बापू जी !
हमको खरोंच तक
नहीं आयी....
बापू जी !
हमारी नौकरी
छूट गयी थी,
ऐसा हो गया था,
वैसा हो गया
था किंतु बाद
में उसी साहब
ने हमको
बुलाकर हमसे
माफी माँगी और
हमारी
पुनर्नियुक्ति
कर दी।
पदोन्नति भी
कर दी... इस
प्रकार की न
जाने कैसी-कैसी
अनुभूतियाँ
लोगों को होती
हैं। ये अनुभूतियाँ
समर्थ भगवान
की
सामर्थ्यता
प्रकट करती
हैं।
गति
शक्तिः जिस
योग में,
ज्ञान में,
ध्यान में आप
फिसल गये थे,
उदासीन हो गये
थे,
किंकर्तव्यविमूढ़
हो गये थे
उसमें मंत्रदीक्षा
लेने के बाद
गति आने लगती
है। मंत्रदीक्षा
के बाद आपके
अंदर गति
शक्ति कार्य
में आपको मदद
करने लगती है।
कांति
शक्तिः मंत्रजाप
से जापक के
कुकर्मों के
संस्कार नष्ट
होने लगते हैं
और उसका चित्त
उज्जवल होने लगता
है। उसकी आभा
उज्जवल होने
लगती है, उसकी
मति-गति उज्जवल
होने लगती है
और उसके
व्यवहार में
उज्जवलता आने
लगती है।
इसका
मतलब ऐसा नहीं
है कि आज
मंत्र लिया और
कल सब छूमंतर
हो जायेगा...
धीरे-धीरे
होगा। एक दिन में
कोई स्नातक
नहीं होता, एक दिन
में कोई एम.ए.
नहीं पढ़ लेता,
ऐसे ही एक दिन
में सब छूमंतर
नहीं हो जाता।
मंत्र लेकर
ज्यों-ज्यों
आप श्रद्धा
से, एकाग्रता
से और
पवित्रता से
जप करते
जायेंगे त्यों-त्यों
विशेष लाभ
होता जायेगा।
प्रीति
शक्तिः ज्यों-ज्यों
आप मंत्र जपते
जायेंगे
त्यों-त्यों
मंत्र के
देवता के
प्रति, मंत्र
के ऋषि, मंत्र
के सामर्थ्य
के प्रति आपकी
प्रीति बढ़ती
जायेगी।
तृप्ति
शक्तिः ज्यों-ज्यों
आप मंत्र जपते
जायेंगे
त्यों-त्यों
आपकी
अंतरात्मा
में तृप्ति
बढ़ती जायेगी,
संतोष बढ़ता
जायेगा।
जिन्होंने
नियम लिया है
और जिस दिन वे
मंत्र नहीं
जपते, उनका वह
दिन कुछ ऐसा
ही जाता है।
जिस दिन वे
मंत्र जपते
हैं, उस दिन उन्हें
अच्छी तृप्ति
और संतोष होता
है।
जिनको
गुरुमंत्र
सिद्ध हो गया
है उनकी वाणी
में सामर्थ्य
आ जाता है।
नेता भाषण
करता है त लोग
इतने तृप्त
नहीं होते,
किंतु जिनका
गुरुमंत्र
सिद्ध हो गया
है ऐसे
महापुरुष
बोलते हैं तो
लोग बड़े
तृप्त हो जाते
हैं और
महापुरुष के शिष्य
बन जाते हैं।
अवगम
शक्तिः मंत्रजाप
से दूसरों के
मनोभावों को
जानने की शक्ति
विकसित हो
जाती है।
दूसरे के
मनोभावों को
आप अंतर्यामी
बनकर जान सकते
हो। कोई व्यक्ति
कौन सा भाव
लेकर आया है? दो
साल पहले उसका
क्या हुआ था
या अभी उसका
क्या हुआ है?
उसकी तबीयत
कैसी है?
लोगों को
आश्चर्य होगा
किंतु आप
तुरंत बोल दोगे
कि 'आपको छाती
में जरा दर्द
है... आपको
रात्रि में ऐसा
स्वप्न आता
है....' कोई कहे कि 'महाराज
!
आप तो
अंतर्यामी
हैं।' वास्तव
में यह भगवत्शक्ति
के विकास की
बात है।
प्रवेश
अवति शक्तिः अर्थात्
सबके अंतरतम
की चेतना के
साथ एकाकार होने
की शक्ति।
अंतःकरण के
सर्व भावों को
तथा पूर्वजीवन
के भावों को
और भविष्य की
यात्रा के
भावों को
जानने की
शक्ति कई
योगियों में
होती है। वे
कभी-कभार मौज
में आ जायें तो
बता सकते हैं
कि आपकी यह
गति थी, आप
यहाँ थे, फलाने
जन्म में ऐसे
थे, अभी ऐसे
हैं। जैसे
दीर्घतपा के
पुत्र पावन को
माता-पिता की
मृत्यु पर
उनके लिए शोक
करते देखकर
उसके बड़े भाई
पुण्यक ने उसे
उसके
पूर्वजन्मों
के बारे में
बताया था। यह
कथा
योगवाशिष्ठ
महारामायण में
आती है।
श्रवण
शक्तिः मंत्रजाप
के प्रभाव से
जापक
सूक्ष्मतम,
गुप्ततम
शब्दों का
श्रोता बन
जाता है।
जैसे, शुकदेवजी
महाराज ने जब
परीक्षित के
लिए सत्संग
शुरु किया तो
देवता आये।
शुकदेवजी ने
उन देवताओं से
बात की। माँ
आनंदमयी का भी
देवलोक के साथ
सीधा सम्बन्ध
था। और भी कई
संतो का होता
है। दूर देश
से भक्त पुकारता
है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा
करो... तो
गुरुदेव तक
उसकी पुकार पहुँच
जाती है !
स्वाम्यर्थ
शक्तिः अर्थात्
नियामक और
शासन का
सामर्थ्य।
नियामक और
शासक शक्ति का
सामर्थ्य
विकसित करता
है प्रणव का
जाप।
याचन
शक्तिः अर्थात्
याचना की
लक्ष्यपूर्ति
का सामर्थ्य देनेवाला
मंत्र।
क्रिया
शक्तिः अर्थात्
निरन्तर
क्रियारत
रहने की
क्षमता, क्रियारत
रहनेवाली
चेतना का
विकास।
इच्छित
अवति शक्तिः अर्थात्
वह ॐ स्वरूप
परब्रह्म
परमात्मा स्वयं
तो निष्काम है
किंतु उसका जप
करने वाले में
सामने वाले
व्यक्ति का
मनोरथ पूरा
करने का
सामर्थ्य आ
जाता है।
इसीलिए संतों
के चरणों में
लोग मत्था
टेकते हैं,
कतार लगाते
हैं, प्रसाद
धरते हैं,
आशीर्वाद
माँगते हैं
आदि आदि।
इच्छित
अवन्ति शक्ति
अर्थात्
निष्काम
परमात्मा
स्वयं
शुभेच्छा का
प्रकाशक बन
जाता है।
दीप्ति
शक्तिः अर्थात्
ओंकार जपने
वाले के हृदय
में ज्ञान का
प्रकाश बढ़
जायेगा। उसकी
दीप्ति शक्ति
विकसित हो
जायेगी।
वाप्ति
शक्तिः अणु-अणु
में जो चेतना
व्याप रही है
उस चैतन्यस्वरूप
ब्रह्म के साथ
आपकी
एकाकारता हो
जायेगी।
आलिंगन
शक्तिः अर्थात्
अपनापन
विकसित करने
की शक्ति।
ओंकार के जप
से पराये भी
अपने होने
लगेंगे तो
अपनों की तो
बात ही क्या?
जिनके पास
जप-तप की कमाई
नहीं है उनको
तो घरवाले भी
अपना नहीं
मानते, किंतु
जिनके पास
ओंकार के जप
की कमाई है
उनको घरवाले,
समाजवाले,
गाँववाले,
नगरवाले,
राज्य वाले,
राष्ट्रवाले
तो क्या विश्ववाले
भी अपना मानकर
आनंद लेने से
इनकार नहीं करते।
हिंसा
शक्तिः ओंकार
का जप करने
वाला हिंसक बन
जायेगा?
हाँ, हिँसक बन
जायेगा किंतु
कैसा हिंसक
बनेगा? दुष्ट
विचारों का
दमन करने वाला
बन जायेगा और
दुष्टवृत्ति
के लोगों के
दबाव में नहीं
आयेगा।
अर्थात् उसके
अन्दर अज्ञान
को और दुष्ट
सरकारों को
मार भगाने का
प्रभाव विकसित
हो जायेगा।
दान
शक्तिः अर्थात्
वह पुष्टि और
वृद्धि का
दाता बन जायेगा।
फिर वह
माँगनेवाला
नहीं रहेगा,
देने की शक्तिवाला
बन जायेगा।
फिर वह माँगने
वाला नहीं रहेगा,
देने की शक्तिवाला
बन जायेगा। वह
देवी-देवता
से, भगवान से
माँगेगा नहीं,
स्वयं देने
लगेगा।
निर्बंधदास
नामक एक संत
थे। वे ओंकार
का जप करते-करते
ध्यान करते
थे, अकेले
रहते थे। वे
सुबह बाहर
निकलते लेकिन
चुप रहते।
उनके पास लोग
अपना मनोरथ
पूर्ण कराने
के लिए याचक
बनकर आते और हाथ
जोड़कर कतार
में बैठ जाते।
चक्कर मारते-मारते
वे संत किसी
को थप्पड़
मारे देते। वह
खुश हो जाता,
उसका काम बन
जाता।
बेरोजगार को
नौकरी मिल
जाती,
निःसंतान को
संतान मिल
जाती, बीमार
की बीमारी चली
जाती। लोग गाल
तैयार रखते
थे। परंतु ऐसा
भाग्य कहाँ कि
सबके गाल पर थप्पड़
पड़े? मैंने
उन महाराज के
दर्शन तो नहीं
किये हैं किंतु
जो लोग उनके
दर्शन करके
आये और उनसे
लाभान्वित
होकर आये उन
लोगों की
बातें मैंने
सुनीं।
भोग
शक्तिः प्रलयकाल
स्थूल जगत को
अपने में लीन
करता है, ऐसे
ही तमाम
दुःखों को,
चिंताओं को,
भयों को अपने
में लीन करने
का सामर्थ्य
होता है प्रणव
का जप करने वालों
में। जैसे
दरिया में सब
लीन हो जाता
है, ऐसे ही
उसके चित्त
में सब लीन हो
जायेगा और वह
अपनी ही लहरों
में फहराता
रहेगा, मस्त
रहेगा... नहीं
तो एक-दो
दुकान, एक-दो
कारखाने वाले
को भी कभी-कभी
चिंता में चूर
होना पड़ता
है। किंतु इस
प्रकार की
साधना जिसने
की है उसकी एक
दुकान या
कारखाना तो
क्या, एक
आश्रम या समिति
तो क्या, 1100, 1200 या 1500
ही क्यों न
हों, सब उत्तम
प्रकार से
चलती हैं !
उसके लिए तो
नित्य नवीन
रस, नित्य
नवीन आनंद, नित्य
नवीन मौज रहती
है।
हर
रात नई इक
शादी है, हर रोज
मुबारकबादी
है।
जब
आशिक मस्त
फकीर हुआ, तो
क्या दिलगिरी
बाबा?
शादी
अर्थात् खुशी ! वह
ऐसा मस्त फकीर
बन जायेगा।
वृद्धि
शक्तिः अर्थात्
प्रकृतिवर्धक,
संरक्षक
शक्ति। ओंकार
का जप करने
वाले में
प्रकृतिवर्धक
और सरंक्षक
सामर्थ्य आ
जाता है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
रात्रि
का समय था।
महात्मा
श्यामदास 'श्रीराम'
नाम का
अजपाजाप करते
हुए अपनी
मस्ती में चले
जा रहे थे। इस
समय वे एक गहन
जंगल से गुजर
रहे थे।
विरक्त होने
के कारण वे
महात्मा
देशाटन करते
रहते थे। वे
किसी एक स्थान
में नहीं रहते
थे। वे
नामप्रेमी
थे। रात दिन
उनके मुख से
नाम जप
चलता रहता था।
स्वयं
अजपाजाप करते
तथा औरों को
भी उसी मार्ग
पर चलाते। वे
मार्ग भूल गये
थे पर चले जा
रहे थे कि
जहाँ राम ले
चले वहाँ....।
दूर अँधेरे
में बहुत सी
दीपमालाएँ
प्रकाशित
थीं। महात्मा
जी उसी दिशा
की ओर चलने
लगे।
निकट
पहुँचते ही
देखा कि
वटवृक्ष के
पास अनेक प्रकार
के वाद्य बज
रहे हैं, नाच
गान और शराब की
महफिल जमी है।
कई
स्त्री पुरुष
साथ में
नाचते-कूदते-हँसते
तथा औरों को
हँसा रहे हैं।
उनको महसूस
हुआ कि वे
मनुष्य नहीं
प्रेतात्मा
हैं।
श्यामदासजी
को देखकर एक
प्रेत ने उनका
हाथ पकड़कर
कहाः "ओ
मनुष्य !
हमारे राजा
तुझे बुलाते
हैं, चल। " वे
मस्तभाव से
राजा के पास
गये जो
सिंहासन पर बैठा
था। वहाँ राजा
के इर्द-गिर्द
कुछ प्रेत खड़े
थे। प्रेतराज
ने कहाः "इस
ओर क्यों आये?
हमारी मंडली
आज मदमस्त हुई
है, इस बात का
विचार नहीं
किया?
तुम्हें मौत
का डर नहीं है?"
अट्टहास
करते हुए
महात्मा
श्यामदास
बोलेः "मौत
का डर? और
मुझे? राजन् !
जिसे जीने का
मोह हो उसे
मौत का डर
होता है। हम साधु
लोग तो मौत को
आनंद का विषय
मानते हैं। यह
तो
देहपरिवर्तन
है जो
प्रारब्धकर्म
के बिना किसी
से हो नहीं
सकता।"
प्रेतराजः
"तुम
जानते हो हम
कौन हैं?"
महात्माजीः
"मैं
अनुमान करता
हूँ कि आप
प्रेतात्मा
हो।"
प्रेतराजः
"तुम
जानते हो,
मानव समाज
हमारे नाम से
काँपता है।"
महात्माजीः
"प्रेतराज
!
मुझे मनुष्य
में गिनने की
गलती मत करना।
हम जिंदा दिखते
हुए बई
जिजीविषा
(जीने की
इच्छा) से
रहित, मृततुल्य
हैं। यदि
जिंदा मानों
तो भी आप हमें
मार नहीं
सकते।
जीवन-मरण
कर्माधीन है।
एक प्रश्न पूछ
सकता हूँ?"
महात्मा
की निर्भयता
देखकर
प्रेतों के
राजा को
आश्चर्य हुआ
कि प्रेत का
नाम सुनते ही
मर जाने वाले
मनुष्यों में
एक इतनी
निर्भयता से
बात कर रहा
है। सचमुच, ऐसे
मनुष्य से बात
करने में कोई
हरकत नहीं। वह
बोलाः "पूछो,
क्या प्रश्न
है?"
महात्माजीः
"प्रेतराज
!
आज यहाँ
आनंदोत्सव
क्यों मनाया
जा रहा है?
प्रेतराजः
"मेरी
इकलौती कन्या,
योग्य पति न
मिलने के कारण
अब तक कुआँरी
है। लेकिन अब
योग्य जमाई
मिलने की
संभावना है।
कल उसकी शादी
है इसलिए यह
उत्सव मनाया
जा रहा है।"
महात्मा
ने हँसते हुए
कहाः "तुम्हारा
जमाई कहाँ है?
मैं उसे देखना
चाहता हूँ।"
प्रेतराजः
"जिजीविषा
के मोह के
त्याग करने
वाले महात्मा !
अभी तो वह
हमारे पद
(प्रेतयोनी)
को प्राप्त
नहीं हुआ है।
वह इस जंगल के
किनारे एक
गाँव के श्रीमंत
(धनवान) का
पुत्र है।
महादुराचारी
होने के कारण
वह भयानक रोग
से पीड़ित है।
कल संध्या के
पहले उसकी मौत
होगी। फिर
उसकी शादी
मेरी कन्या से
होगी। रात भर
गीत-नृत्य और
मद्यपान करके
हम आनंदोत्सव
मनायेंगे।"
'श्रीराम'
नाम का
अजपाजाप करते
हुए महात्मा
जंगल के किनारे
के गाँव में
पहुँचे। सुबह
हो चुकी थी।
एक
ग्रामीण से
उन्होंने
पूछाः "इस
गाँव में कोई
श्रीमान् का
बेटा बीमार है?"
ग्रामीणः
"हाँ,
महाराज !
नवलशा सेठ का
बेटा
सांकलचंद एक
वर्ष से
रोगग्रस्त
है। बहुत
उपचार किये पर
ठीक नहीं
होता।"
महात्माः
"क्या
वे जैन धर्म
पालते हैं?"
ग्रामीणः
"उनके
पूर्वज जैन थे
किंतु भाटिया
के साथ व्यापार
करते हुए अब
वे वैष्णव हुए
हैं।"
सांकलचंद
की हालत गंभीर
थी। अन्तिम
घड़ियाँ थीं
फिर भी
महात्मा को
देखकर माता-पिता
को आशा की
किरण दिखी।
उन्होंने
महात्मा का
स्वागत किया।
सेठपुत्र के
पलंग के निकट
आकर महात्मा
रामनाम की
माला जपने
लगे। दोपहर होते-होते
लोगों का
आना-जाना
बढ़ने लगा।
महात्मा ने
पूछाः "क्यों,
सांकलचंद ! अब
तो ठीक हो?"
उसने
आँखें खोलते
ही अपने सामने
एक प्रतापी
संत को देखा
तो रो पड़ा।
बोलाः "बापजी
!
आप मेरा अंत
सुधारने के
लिए पधारे हो।
मैंने बहुत
पाप किये हैं।
भगवान के
दरबार में
क्या मुँह
दिखाऊँगा?
फिर भी आप
जैसे संत के
दर्शन हुए
हैं, यह मेरे लिए
शुभ संकेत
हैं।"
इतना बोलते ही
उसकी साँस
फूलने लगी, वह
खाँसने लगा।
"बेटा
!
निराश न हो भगवान राम
पतित पावन है।
तेरी यह
अन्तिम घड़ी है।
अब काल से
डरने का कोई
कारण नहीं।
खूब शांति से
चित्तवृत्ति
के तमाम वेग
को रोककर 'श्रीराम'
नाम के जप में
मन को लगा दे।
अजपाजाप में
लग जा।
शास्त्र कहते
हैं-
चरितं
रघुनाथस्य
शतकोटिं
प्रविस्तरम्।
एकैकं
अक्षरं
पूण्या
महापातक
नाशनम्।।
"सौ
करोड़ शब्दों
में भगवान राम
के गुण गाये
गये हैं। उसका
एक-एक अक्षर
ब्रह्महत्या
आदि महापापों
का नाश करने
में समर्थ है।''
दिन
ढलते ही
सांकलचंद की
बीमारी बढ़ने
लगी। वैद्य-हकीम
बुलाये गये।
हीरा भस्म आदि
कीमती औषधियाँ
दी गयीं।
किंतु अंतिम
समय आ गया यह
जानकर महात्माजी
ने थोड़ा नीचे
झुककर उसके
कान में रामनाम
लेने की याद
दिलायी। 'राम'
बोलते ही उसके
प्राण पखेरू
उड़ गये।
लोगों ने रोना
शुरु कर दिया।
श्मशान
यात्रा की
तैयारियाँ
होने लगीं।
मौका पाकर महात्माजी
वहाँ से चल
दिये। नदी तट
पर आकर स्नान
करके
नामस्मरण
करते हुए वहाँ
से रवाना हुए।
शाम ढल चुकी
थी। फिर वे
मध्यरात्रि
के समय जंगल
में उसी
वटवृक्ष के
पास पहुँचे।
प्रेत समाज
उपस्थित था।
प्रेतराज सिंहासन
पर हताश होकर
बैठे थे। आज
गीत, नृत्य, हास्य
कुछ न था।
चारों ओर करुण
आक्रंद हो रहा
था, सब प्रेत
रो रहे थे।
हास्य कुछ न
था। चारों ओर
करुण आक्रंद
हो रहा था, सब
प्रेत रो रहे थे।
महात्मा
ने पूछाः "प्रेतराज
!
कल तो यहाँ
आनंदोत्सव था,
आज शोक-समुद्र
लहरा रहा है।
क्या कुछ अहित
हुआ है?"
प्रेतराजः
"हाँ
भाई ! इसीलिए रो
रहे
हैं। हमारा
सत्यानाश हो
गया। मेरी
बेटी की आज
शादी होने
वाली थी। अब
वह कुँआरी रह
जायेगी।"
महात्मा
ने पूछाः "प्रेतराज
!
तुम्हारा
जमाई तो आज मर
गया है। फिर
तुम्हारी
बेटी कुँआरी
क्यों रही?"
प्रेतराज
ने चिढ़कर
कहाः "तेरे
पाप से। मैं
ही मूर्ख हूँ
कि मैंने कल
तुझे सब बता
दिया। तूने हमारा
सत्यानाश कर
दिया।"
महात्मा
ने नम्रभाव से
कहाः "मैंने
आपका अहित
किया यह मुझे
समझ में नहीं
आता। क्षमा
करना, मुझे
मेरी भूल
बताओगे तो मैं
दुबारा नहीं
करूँगा।"
प्रेतराज
ने जलते हृदय
से कहाः "यहाँ
से जाकर तूने
मरने वाले को
नाम स्मरण का मार्ग
बताया और अंत
समय भी नाम
कहलवाया।
इससे उसका
उद्धार हो गया
और मेरी बेटी
कुँआरी रह
गयी।"
महात्माजीः
"क्या?
सिर्फ एक बार
नाम जप लेने
से वह
प्रेतयोनि से छूट
गया? आप सच कहते
हो?"
प्रेतराजः
"हाँ
भाई ! जो मनुष्य
नामजप करता है
वह नामजप के
प्रताप से कभी
हमारी योनि को
प्राप्त नहीं होता।"
प्रसिद्ध
ही है कि
भगवन्नाम जप
में 'नरकोद्धारिणी
शक्ति' है।
प्रेत
के द्वारा
रामनाम का यह
प्रताप सुनकर
महात्माजी
प्रेमाश्रु
बहाते हुए भाव
समाधि में लीन
हो गये। उनकी
आँखे खुलीं तब
वहाँ प्रेत-समाज
नहीं था, बाल
सूर्य की
सुनहरी
किरणें वटवृक्ष
को शोभायमान कर
रही थीं।
धनभागी
हैं वे लोग जो 'गोरख
! जागता नर
सेवीए।' इस
उक्ति के
अनुसार किसी
आत्मवेत्ता
संत को खोज
लेते हैं!
गुरुसेवा व
गुरुमंत्र का
धन इकट्ठा
करते हैं,
जिसको सरकार व
मौत का बाप भी
नहीं छीन सकता।
आप भी वहीं धन
पायें। आपको
कथा मिली या
रास्ता?' हम
तो चाहते हैं
कि आपको दोनों
मिलें। कथा तो
मिल गयी
रास्ता भी
मिले। कई
पुण्यात्माओं
को मिला है।
लक्ष्य
न ओझल होने
पाये, कदम
मिलाकर चल।
सफलता
तेरे चरण
चूमेगी, आज नहीं
तो कल।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
परमात्मा
अचल,
निर्विकार,
अपरिवर्तनशील
और एकरस हैं।
प्रकृति में
गति, विकार,
निरंतर परिवर्तन
है। मानव उस
परमात्मा से
अपनी एकता
जानकर
प्रकृति से
पार हो जाये
इसलिए
परमात्म-स्वरूप
के अनुरूप
अपने जीवन में
दृष्टि व
स्थिति लाने
का प्रयास
करना होगा। प्रकृति
के विकारों से
अप्रभावित
रहने की स्थिति
उपलब्ध करनी
होगी। इस मूल
सिद्धान्त को
दृष्टि में
रखकर एक
प्रभावी
प्रयोग बता
रहे हैं जिसे 'बाह्य
धारणा' कहा
जाता है।
इसमें किसी
बाहरी लक्ष्य
पर अपनी
दृष्टि को
एकाग्र किया
जाता है। इस
साधना के लिए
भगवान की
मूर्ति,
गुरुमूर्ति, ॐ
या स्वास्तिक
आदि उपयोगी
हैं। शरीर व
नेत्र को
स्थिर और मन
को निःसंकल्प
रखने का
प्रयास करना
चाहिए।
इससे
स्थिरता,
एकाग्रता व
स्मरणशक्ति
का विकास होता
है। लौकिक
कार्यों में
सफलता प्राप्त
होती है,
दृष्टि
प्रभावशाली
बनती है,
सत्यसुख की
भावना, शोध
तथा सजगता
सुलभ हो जाती
है। आँखों में
पानी आना,
अनेकानेक
दृश्य दिखना
ये इसके
प्रारंभिक लक्षण
है। उनकी ओर
ध्यान न देकर
लक्ष्य की ओर एकटक
देखते रहना
चाहिए। आँख
बन्द करने पर
भी लक्ष्य
स्पष्ट दिखने
लगे और खुले
नेत्रों से भी
उसको जहाँ
देखना चाहे,
तुरंत देख सके
– यही त्राटक
की सम्यकता का
संकेत है।
नोटः कृपया
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आश्रम से
प्रकाशित
पुस्तक
पंचामृत
(पृष्ठ 345), शीघ्र
ईश्वर
प्राप्ति, परम
तप।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
कौंडिण्यपुर
में शशांगर
नाम के राजा
राज्य करते थे।
वे प्रजापालक
थे। उनकी रानी
मंदाकिनी भी
पतिव्रता,
धर्मपरायण
थी। किंतु
संतान न होने
के कारण दोनों
दुःखी रहते
थे। उन्होंने
सेतुबंध
रामेश्वर
जाकर संतान
प्राप्ति के
लिए शिवजी की
पूजा, तपस्या
करने का विचार
किया। पत्नी
को लेकर राजा
रामेश्वर की
ओर चल पड़े।
मार्ग में
कृष्णा-तुंगभद्रा
नदी के
संगम-स्थल पर
दोनों ने
स्नान किया और
वहीं निवास
करते हुए वे शिवजी
की आराधना
करने लगे। एक
दिन स्नान
करके दोनों
लौट रहे थे कि
अचानक करने
लगे। एक दिन स्नान
करके दोनों
लौट रहे थे कि
अचानक राजा को
मित्रि सरोवर
में एक
शिवलिंग
दिखाई पड़ा।
उन्होंने वह
शिवलिंग उठा
लिया और
अत्यंत श्रद्धा
से उसकी
प्राण-प्रतिष्ठा
की। राजा रानी
शिवजी की
पूजा-अर्चना
करने लगे।
संगम में स्नान
करके इस 'संगमेश्वर
महादेव' की
पूजा करना
उनका
नित्यक्रम बन
गया।
एक दिन
कृष्णा नदी
में स्नान
करके राजा
शशांगर सूर्य
को अर्घ्य
देने के लिए
अंजलि में जल
ले रहे थे, तभी
उन्हें एक
शिशु मिला।
राजा ने सोचा
कि 'जरूर मेरे
शिवजी की कृपा
से ही मुझे इस
शिशु की
प्राप्ति हुई
है !' वे अत्यंत
हर्षित हुए और
अपनी पत्नी
मंदाकिनी के
पास जाकर उसको
सब वृत्तांत
सुनाया।
वह बालक
गोद में रखते
ही मंदाकिनी
के स्तनों से
दूध की धारा
बहने लगी।
रानी
मंदाकिनी
बालक को
स्तनपान
कराने लगी।
धीरे-धीरे
बालक बड़ा होने
लगा। वह बालक
कृष्णा नदी के
संगम-स्थान पर
प्राप्त होने
के कारण उसका
नाम 'कृष्णागर'
रखा गया।
राजा-रानी
कृष्णागर को
लेकर अपनी
राजधानी
कौंडिण्युपर
में लौट आये।
ऐसे दैवी बालक
को देखने के
लिए सभी राज्य-निवासी
राजभवन में
आये। बड़े
उत्साह के साथ
समारोहपूर्वक
उत्सव मनाया
गया।
जब
कृष्णागर 17
वर्ष का युवक
हुआ तब राजा
ने अपने
मंत्रियों को
कृष्णागर के
लिए उत्तम वधू
ढूँढने की
आज्ञा दी।
परंतु
कृष्णागर के
योग्य वधू
उन्हें कहीं
भी न मिली।
उसके बाद कुछ
ही दिनों में रानी
मंदाकिनी की
मृत्यु हो
गयी। अपनी
प्रिय रानी के
मर जाने का
राजा को बहुत
दुःख हुआ। उन्होंने
वर्षभर
श्राद्धादि
सभी
उत्तर-कार्य पूरे
किये और अपनी
मदन-पीड़ा के
कारण चित्रकूट
के राजा
भुजध्वज की
नवयौवना
कन्या भुजावंती
के साथ दूसरा
विवाह किया।
उस समय भुजावंती
की उम्र 13 वर्ष
की थी और
कृष्णागर
(राजा शशांगर
का पुत्र) की
उम्र 17 वर्ष।
एक दिन
राजा शिकार
खेलने
राजधानी से
बाहर गये हुए
थे। कृष्णागर
महल के
प्रांगण में
खड़े होकर पतंग
उड़ा रहा था।
उसका शरीर
अत्यंत सुंदर
व आकर्षक होने
के कारण
भुजावंती उस
पर आसक्त हो
गयी। उसने एक
दासी के
द्वारा
कृष्णागर को
अपने पास
बुलवाया और
उसका हाथ
पकड़कर
कामेच्छापूर्ति
की माँग की।
तब कृष्णागर न
कहाः "हे
माते ! मैं तो
आपका पुत्र
हूँ और आप
मेरी माता हैं।
अतः आपको यह
शोभा नहीं
देता। माता
होकर भी पुत्र
से ऐसा
पापकर्म
करवाना चाहती
हो !'
ऐसा
कहकर गुस्से
से कृष्णागर
वहाँ से चला
गया।
भुजावंती को
अपने पापकर्म
पर पश्चाताप
होने लगा।
राजा को इस
बात का पता चल
जायेगा, इस भय
के कारण वह
आत्महत्या
करने के लिए
प्रेरित हुई।
परंतु उसकी
दासी ने उसे
समझायाः 'राजा
के आने के बाद
तुम ही
कृष्णागर के
खिलाफ बोलना
शुरु कर दो कि
उसने मेरा
सतीत्व लूटने
की कोशिश की।
यहाँ मेरे
सतीत्व की
रक्षा नहीं हो
सकती।
कृष्णागर
बुरी नियत का
है, ऐसा.... वैसा..... अब
आपको जो करना
है सो करो,
मेरी तो जीने
की इच्छा
नहीं।'
राजा के
आने के बाद
रानी ने सब
वृत्तान्त
इसी प्रकार
राजा को
बताया। राजा
ने कृष्णागर
की ऐसी हरकत
सुनकर क्रोध
के आवेश में
अपने मंत्रियों
को उसके
हाथ-पैर
तोड़ने की
आज्ञा दे दी।
आज्ञानुसार
वे कृष्णागर
को श्मशान में
ले गये। परंतु
राजसेवकों को
लगा कि राजा
ने आवेश में
आकर आज्ञा दी
है। कहीं
अनर्थ न हो
जाय ! इसलिए कुछ
सेवक पुनः
राजा के पास
आये। राजा का
मन परिवर्तन
करने की
अभिलाषा से
वापस आये हुए
कुछ राजसेवक
और अन्य नगर
निवासी अपनी
आज्ञा वापस
लेने के राजा
से अनुनय-विनय
करने लगे।
परंतु राजा का
आवेश शांत
नहीं हुआ और
फिर से वही
आज्ञा दी।
फिर
राजसेवक
कृष्णागर को
श्मशान में
चौराहे पर ले
आये। सोने के
चौरंग (चौकी)
पर बिठाया और
उसके हाथ पैर
बाँध दिये। यह
दृश्य देखकर
नगरवासियों
की आँखों मे
दयावश आँसू बह
रहे थे। आखिर
सेवकों ने
आज्ञाधीन
होकर
कृष्णागर के
हाथ-पैर तोड़
दिये।
कृष्णागर
वहीं चौराहे
पर पड़ा रहा।
कुछ समय बाद
दैवयोग से नाथ
पंथ के योगी
मछेंद्रनाथ अपने
शिष्य
गोरखनाथ के
साथ उसी राज्य
में आये। वहाँ
लोगों के
द्वारा
कृष्णागर के
विषय में चर्चा
सुनी। परंतु
ध्यान करके
उन्होंने वास्तविक
रहस्य का पता
लगाया। दोनों
ने कृष्णागर
को चौरंग पर
देखा, इसलिए
उसका नाम 'चौरंगीनाथ'
रखा। फिर राजा
से स्वीकृति
लेकर
चौरंगीनाथ को
गोद में उठा
लिया और
बदरिकाश्रम
गये। मछेन्द्रनाथ
ने गोरखनाथ से
कहाः "तुम
चौरंगी को नाथ
पंथ की दीक्षा
दो और सर्व विद्याओं
में इसे
पारंगत करके
इसके द्वारा
राजा को योग
सामर्थ्य
दिखाकर रानी
को दंड
दिलवाओ।"
गोरखनाथ
ने कहाः "पहले
मैं चौरंगी का
तप सामर्थ्य
देखूँगा।"
गोरखनाथ के इस
विचार को
मछेंद्रनाथ
ने स्वीकृति
दी।
चौरंगीनाथ
को पर्वत की
गुफा में
बिठाकर गोरखनाथ
ने कहाः 'तुम्हारे
मस्तक के ऊपर
जो शिला है, उस
पर दृष्टि
टिकाये रखना और
मैं जो मंत्र
देता हूँ उसी
का जप चालू
रखना। अगर
दृष्टि वहाँ
से हटी तो
शिला तुम पर
गिर जायेगी और
तुम्हारी
मृत्यु हो
जायेगी।
इसलिए शिला पर
ही दृष्टि
रखो।' ऐसा
कहकर गोरखनाथ
ने उसे
मंत्रोपदेश
दिया और गुफा
का द्वार इस
तरह से बंद
किया कि अंदर
कोई वन्य पशु
प्रवेश न करे।
फिर अपने
योगबल से
चामुण्डा
देवी को प्रकट
करके आज्ञा दी
कि इसके लिए
रोज फल लाकर रखना
ताकि यह
उन्हें खाकर
जीवित रहे।
उसके
बाद दोनों
तीर्थयात्रा
के लिए चले
गये। चौरंगीनाथ
शिला गिरने के
भय से उसी पर
दृष्टि जमाये
बैठे थे। फल
की ओर तो कभी
देखा ही नहीं
वायु भक्षण
करके बैठे
रहते। इस
प्रकार की
योगसाधना से
उनका शरीर कृश
हो गया।
मछेंद्रनाथ
और गोरखनाथ
तीर्थाटन
करते हुए जब
प्रयाग
पहुँचे तो
वहाँ उन्हें
एक शिवमंदिर के
पास राजा
त्रिविक्रम
का अंतिम
संस्कार होते
हुए दिखाई
पड़ा। नगरवासियों
को अत्यंत
दुःखी देखकर
गोरखनाथ को अत्यंत
दयाभाव उमड़
आया और
उन्होंने
मछेन्द्रनाथ
से प्रार्थना
की कि राजा को
पुनः जीवित करें।
परंतु राजा
ब्रह्मस्वरूप
में लीन हुए
थे इसलिए
मछेन्द्रनाथ
ने राजा को
जीवित करने की
स्वीकृति
नहीं दी।
परंतु
गोरखनाथ ने
कहाः "मैं
राजा को जीवित
करके प्रजा को
सुखी करूँगा।
अगर मैं ऐसा
नहीं कर पाया
तो स्वयं देह
त्याग दूँगा।"
प्रथम
गोरखनाथ ने
ध्यान के
द्वारा राजा
का जीवनकाल
देखा तो सचमुच
वह ब्रह्म में
लीन हो चुका
था। फिर
गुरुदेव को
दिए हुए वचन
की पूर्ति के
लिए गोरखनाथ
प्राणत्याग
करने के लिए
तैयार हुए। तब
गुरु
मछेंद्रनाथ
ने कहाः ''राजा
की आत्मा
ब्रह्म में
लीन हुई है तो
मैं इसके शरीर
में प्रवेश
करके 12 वर्ष तक
रहूँगा। बाद
में मैं लोक
कल्याण के लिए
मैं मेरे शरीर
में पुनः
प्रवेश
करूँगा। तब तक
तू मेरा यह
शरीर सँभाल कर
रखना।"
मछेंद्रनाथ
ने तुरंत
देहत्याग
करके राजा के मृत
शरीर में
प्रवेश किया।
राजा उठकर बैठ
गया। यह
आश्चर्य
देखकर सभी
जनता हर्षित
हुई। फिर प्रजा
ने अग्नि को
शांत करने के
लिए राजा का सोने
का पुतला
बनाकर
अंत्यसंस्कार-विधि
की।
गोरखनाथ
की भेंट
शिवमंदिर की
पुजारिन से
हुई।
उन्होंने उसे सब
वृत्तान्त
सुनाया और
गुरुदेव का शरीर
12 वर्ष तक
सुरक्षित रहने
योग्य स्थान
पूछा। तब
पुजारिन ने
शिवमंदिर की
गुफा दिखायी।
गोरखनाथ ने
गुरुवर के
शरीर को गुफा
में रखा। फिर
वे राजा से
आज्ञा लेकर
आगे तीर्थयात्रा
के लिए निकल
पड़े।
12 वर्ष
बाद गोरखनाथ
पुनः
बदरिकाश्रम
पहुँचे। वहाँ
चौरंगीनाथ की
गुफा में
प्रवेश किया।
देखा कि
एकाग्रता,
गुरुमंत्र का
जप तथा तपस्या
के प्रभाव से
चौरंगीनाथ के
कटे हाथ-पैर
पुनः निकल आये
हैं। यह देखकर
गोरखनाथ
अत्यंत
प्रसन्न हुए।
फिर
चौरंगीनाथ को
सभी विद्याएँ
सिखाकर
तीर्थयात्रा
करने साथ में
ले गये।
चलते-चलते वे
कौंडिण्यपुर
पहुँचे। वहाँ
राजा शशांगर
के बाग में
रुक गये।
गोरखनाथ ने
चौरंगीनाथ तो
आज्ञा दी कि
राजा के सामने
अपनी शक्ति
प्रदर्शित
करे।
चौरंगीनाथ
ने वातास्त्र
मंत्र से
अभिमंत्रित
भस्म का
प्रयोग करके
राजा के बाग
में जोरों की
आँधी चला दी।
वृक्षादि
टूट-टूटकर
गिरने लगे,
माली लोग ऊपर
उठकर धरती पर
गिरने लगे। इस
आँधी का
प्रभाव केवल
बाग में ही
दिखायी दे रहा
था इसलिए
लोगों ने राजा
के पास समाचार
पहुँचाया।
राजा
हाथी-घोड़े,
लशकर आदि के
साथ बाग में
पहुँचे।
चौरंगीनाथ ने
वातास्त्र के
द्वारा राजा
का सम्पूर्ण
लशकर आदि आकाश
में उठाकर फिर
नीचे पटकना
शुरु किया।
कुछ
नगरवासियों
ने चौरंगीनाथ
को अनुनय-विनय
किया तब उसने
पर्वतास्त्र
का प्रयोग
करके राजा को
उसके लशकर
सहित पर्वत पर
पहुँचा दिया और
पर्वत को आकाश
में उठाकर
धरती पर पटक
दिया।
फिर
गोरखनाथ ने
चौरंगीनाथ को
आज्ञा दी कि
वह अपने पिता
का चरणस्पर्श
करे।
चौरंगीनाथ
राजा का
चरणस्पर्श
करने लगे
किंतु राजा ने
उन्हें नहीं
पहचाना। तब
गोरखनाथ ने
बतायाः "तुमने
जिसके हाथ-पैर
कटवाकर
चौराहे पर
डलवा दिया था,
यह वही
तुम्हारा
पुत्र
कृष्णागर अब
योगी
चौरंगीनाथ
बना है।"
गोरखनाथ
ने रानी
भुजावंती का
संपूर्ण
वृत्तान्त
राजा को
सुनाया। राजा
को अपने कृत्य
पर पश्चाताप
हुआ।
उन्होंने
रानी को राज्य
से बाहर निकाल
दिया।
गोरखनाथ ने
राजा से कहाः "अब
तुम तीसरा
विवाह करो।
तीसरी रानी के
द्वारा
तुम्हें एक
अत्यंत
गुणवान, बुद्धिशाली
और दीर्घजीवी
पुत्र की
प्राप्ति होगी।
वही राज्य का
उत्तराधिकारी
बनेगा और तुम्हारा
नाम रोशन
करेगा।"
राजा ने
तीसरा विवाह
किया। उससे जो
पुत्र प्राप्त
हुआ, समय पाकर
उस पर राज्य
का भार सौंपकर
राजा वन में
चले गये और
ईश्वरप्राप्ति
के साधन में
लग गये।
गोरखनाथ
के साथ
तीर्थों की
यात्रा करके
चौरंगीनाथ
बदरिकाश्रम
में रहने लगे।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जिसने
गाय के शुद्ध
दूध की खीर
खाकर तृप्ति
पायी है उसके
लिए नाली का
पानी तुच्छ
है। ऐसे ही
जिसने आत्मरस
का पान किया है,
उसके लिए
नाकरूपी नाली
से लिया गया
इत्र का सुख,
कान की नाली
से लिया गया
वाहवाही का
सुख या
इन्द्रिय की
नाली से लिया
गया कामविकार
का सुख क्या
मायना रखता है? ये
तो नालियों के
सुख हैं।
नाम
रतनु जिनि
गुरमुखि
पाइआ।। तिसु
किछु अवरु
नाही
द्रिसटाइआ।।
नाम
धनु नामो रूपु
रंगु।। नामो
सुखु हरि नाम
का संगु।।
जिस
साधक ने गुरु
के द्वारा
मंत्र पाया
है, उस
गुरुमुख के
लिए नाम ही धन,
नाम ही रूप
है। जिस इष्ट
का मंत्र है,
उसी के गुण और
स्वभाव को वह अपने
चित्त में सहज
में भरता जाता
है। उसका मन
नाम के रंग से
रँगा होता है।
नाम
रसि जो जन
त्रिपताने।।
मन तन नामहि
नामि समाने।।
ऊठत
बैठत सोवत
नाम।। कहु
नानक जन के सद
काम।।
जिसको
उस नाम के रस
में प्रवेश
पाना आ गया है,
उसका
उठना-बैठना,
चलना-फिरना सब
सत्कार्य हैं।
भगवन्नाम
से सराबोर हुए
ऐसे ही एक
महात्मा का नाम
था हरिदास। वे
प्रतिदिन
वैखरी वाणी से
एक लाख
भगवन्नाम-जप
करते थे। वे
कभी-कभी
सप्तग्राम
में आकर पंडित
बलराम आचार्य
के यहाँ रहते
थे, जो वहाँ के
दो धनिक
जमींदार
भाइयों-हिरण्य
और गोवर्धन
मजूमदार के
कुलपुरोहित थे।
एक दिन आचार्य
हरिदासजी को
मजूमदार की सभा
में ले आये।
वहाँ बहुत-से
पंडित बैठे
हुए थे।
जमींदार ने उन
दोनों का
स्वागत-सत्कार
किया।
भगवन्नाम-जप
के फल के बारे
में पंडितों
द्वारा पूछे
जाने पर
हरिदासजी ने
कहाः "इसके
जप से हृदय में
एक प्रकार की
अपूर्व
प्रसन्नता
प्रकट होती
है। इस
प्रसन्नताजन्य
सुख का
आस्वादन करते रहना
ही भगवन्नाम
का
सर्वश्रेष्ठ
और सर्वोत्तम
फल है।
भगवन्नाम भोग
देता है, दोष
निवृत्त करता
है, इतना ही
नहीं, वह
मुक्तिप्रदायक
भी है। किंतु
सच्चा साधक
उससे किसी फल
की इच्छा नहीं
रखता।"
बिल्कुल
सच्ची बात है।
और कुछ आये या
न आये केवल
भगवन्नाम
अर्थसहित
जपता जाय तो
नाम ही जापक
को तार देता
है।
हरिदास
महाराज के
सत्संग को
सुनकर हिरण्य
मजूमदार के एक
कर्मचारी
गोपालचंद
चक्रवर्ती ने
कहाः "महाराज
! ये
सब बातें
श्रद्धालुओं
को फुसलाने के
लिए हैं। जो
पढ़-लिख नहीं
सकते, वे ही इस
प्रकार जोरों
से नाम लेते
फिरते हैं।
यथार्थ ज्ञान तो
शास्त्रों के
अध्ययन से ही
होता है। ऐसा
थोड़े ही है
कि भगवान के
नाम से दुःखों
का नाश हो जाय।
शास्त्रों
में जो
कहीं-कहीं
भगवन्नाम की
इतनी प्रशंसा
मिलती है, वह
केवल अर्थवाद
है।"
हरिदास
जी ने कुछ जोर
देते हुए कहाः
"भगवन्नाम
में जो
अर्थवाद का
अध्यारोप
करते हैं, वे
शुष्क
तार्किक हैं।
वे भगवन्नाम
के माहात्म्य
को समझ ही
नहीं सकते।
भगवन्नाम में
अर्थवाद हो ही
नहीं सकता।
इसे अर्थवाद
कहने वाले
स्वयं
अनर्थवादी
हैं, उनसे मैं
कुछ नहीं कह
सकता।"
जोश
में आकर
गोपालचंद
चक्रवर्ती ने
कहाः "यदि
भगवन्नाम-स्मरण
से मनुष्य की
नीचता नष्ट होती
हो तो मैं
अपनी नाक कटवा
लूँगा।"
महात्मा
हरिदास ने
कहाः "भैया
!
अगर भगवान के
नाम से
नीचताओं का
जड़-मूल से नाश
न हो जाये तो
मैं अपने
नाक-कान,
दोनों कटाने के
लिए तैयार
हूँ। अब
तुम्हारा-हमारा
फैसला भगवान
ही करेंगे।"
बाद
में
गोपालचंद्र
चक्रवर्ती की
नाक कट गयी।
कुछ समय
पश्चात दूसरे
एक
नामनिन्दक-हरिनदी
ग्राम के
अहंकारी
ब्राह्मण का
हरिदासजी के साथ
शास्त्रार्थ
हुआ। समय पाकर
उसकी नाक में
रोग लग गया और
जैसे
कोढ़ियों की
उँगलियाँ
गलती हैं,
वैसे देखते ही
देखते उसकी
नाक गल गयी।
उसके
बाद हरिदास के
इलाके में
किसी ने
भगवन्नाम की
निन्दा नहीं
की, फिर भले
कोई यवन ही
क्यों न हो।
कैसी महिमा है
भगवन्नाम की !
भगवज्जनों
के भावों की
भगवान कैसे
पुष्टि कर देते
हैं !
भगवान ही
जानते हैं भगवन्नाम
की महिमा। "हे
भगवान !
तुम्हारी जय
हो.... हे
कृपानिधे ! हे
दयानिधे ! हे
हरि !.........
ॐ..... ॐ.......'
ऐसा करके जो
भगवद् भाव में
डूबते हैं वे
धनभागी हैं।
भगवन्नाम
में ऐसी शक्ति
है कि उससे
शांति मिलती
है, पाप-ताप
नष्ट होते
हैं, रक्त के
कण पवित्र होते
हैं, विकारों
पर विजय पाने
की कला विकसित
होती है,
व्यक्तिगत
जीवन का विकास
होता है, सामाजिक
जीवन में
सम्मान मिलता
है, इतना ही
नहीं, मुक्ति
भी मिल जाती
है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भगवन्नाम जप-संकीर्तन से अनगिनत जीवों का उद्धार हुआ है एवं अनेक प्राणी दुःख से मुक्त होकर शाश्वत सुख को उपलब्ध हुए हैं।
भगवन्नाम-जापक, भगवान के शरणागत भक्तजन प्रारब्ध के वश नहीं रहते। कोई भी दीन, दुःखी, अपाहिज, दरिद्र अथवा मूर्ख पुरुष भगवन्नाम का जप करके, भगवान की भक्ति का अनुष्ठान करके इसी जन्म में कृतकृत्य हो सकता है।
भगवन्नाम की डोरी में प्रभु स्वयँ बँध जाते हैं और जिनके बंदी स्वयं भगवान हों, उन्हें फिर दुर्लभ ही क्या है?
इस असार संसार से पार होने के लिए भगवन्नाम-स्मरण एक सरल साधन है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ