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आत्म-साक्षात्कारी महापुरुषों का प्रसाद

[दस बातें]

अनुक्रम

पहली बात.. 3

दूसरी बात.. 3

तीसरी बात.. 5

चौथी बात.. 6

पाँचवीं बात.. 6

छठी बात.. 7

सातवीं बात.. 8

आठवीं बात.. 9

नौवीं बात.. 9

दसवीं बात.. 10

अच्छी दिवाली हमारी.. 12

 

 

मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि वह परमानन्दस्वरूप आत्मा-परमात्मा की शान्ति, भगवत प्रेम, शाश्वत सुख, निजानन्दरूप महान् लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर करे। भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेम-प्राप्ति को ही जीवन का एकमात्र महान् लक्ष्य समझे। अपनी निर्मल बुद्धि को भगवत्प्राप्ति के साधनों के अनुष्ठान में सदा संलग्न करे। इन्द्रियों को सदा भगवत्संबंधी विषयों में ही साधन-बुद्धि से नियुक्त करे।

जिसकी बुद्धि अनिश्चयात्मिका, अविवेकवती, मन को अपने अधीन रखने में असमर्थ, इन्द्रियों को भगवत्प्राप्ति के राह पर चलाने में असमर्थ और बहुशाखावाली होती है उसका मन इन्द्रियों के वश में हो जाता है। वे इन्द्रियाँ सदा दुराचार व दुष्कर्म में लगी रहती हैं। मन और बुद्धि कुविचार तथा अविचार से युक्त हो जाती है। इससे वह पुरुष बुद्धिनाश के कारण मानव जीवन के चरम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति से वंचित रहता है और सदा संसार चक्र में भटकता रहता है। फलतः उसे आसुरी योनियों और नरकों की यातनाएँ ही मिलती हैं।

अतः इस निरंकुश पतन से बचकर अपने मन को भगवदाभिमुख बनाओ। भगवान की रसमयी, लीलामयी, अनुग्रहिनी शक्ति के आस्वाद को बुद्धि में स्थिर करो। इन्द्रियों को विफलता के मार्ग से मोड़कर निरंतर भगवद प्रेमोदधि में निमग्न करो।

जीवन में आप जो कुछ करते हो उसका प्रभाव आपके अंतःकरण पर पड़ता है। कोई भी कर्म करते समय उसके प्रभाव को, अपने जीवन पर होने वाले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से निहारना चाहिए । ऐसी सावधानी से हम अपने मन की कुचाल को नियंत्रित कर सकेंगे, इन्द्रियों के स्वछन्द आवेगों को निरुद्ध कर सकेंगे, बुद्धि को सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर सकेंगे

आत्मनिरीक्षण के लिए कसौटी रूप दस बातें यहाँ बताते हैं जिनके द्वारा अपने जीवन को परिशुद्ध करके महान बनाया जा सकता है।

अनुक्रम

 

पहली बात

आप क्या पढ़ते हैं? आप शारीरिक सुख संबंधी ज्ञान देने वाला साहित्य पढ़ते हैं या चोरी, डकैती, आदि के उपन्यास, विकारोत्तेजक काम-कहानियाँ पढ़कर अपनी कमनसीबी बढ़ाते हैं? अपनी मनोवृत्तियों को विकृत करने वाली अश्लील पुस्तकें पढ़ते हैं कि जीवन में उदारता, सहिष्णुता, सर्वात्मभाव, प्राणीमात्र के प्रति सदभाव, विश्वबंधुत्व, ब्रह्मचर्य, निर्लोभ, अपरिग्रह आदि दैवी सदगुण-प्रेरक साहित्य पढ़ते हैं..... वेद-वेदान्त के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं.... भगवान के नाम, धाम, रूप, गुण स्वभाव, लीला, रहस्य आदि का निरूपण करने वाले शास्त्र पढ़ते हैं....... भगवान, भक्त और संतों की साधना-कहानियाँ पढ़कर अपना जीवन भगवन्मय बनाते हैं

आप तमोगुणी शास्त्र पढ़ेंगे तो जीवन में तमोगुण आयेगा, रजोगुणी शास्त्र पढ़ेंगे तो रजोगुण और सत्त्वगुणी शास्त्र पढ़ेंगे, विचारेंगे तो जीवन में सत्त्वगुण आयेगा भगवत्सम्बन्धी शास्त्र पढ़ेंगे तो आपके जीवन में भगवान आयेंगे तत्त्वबोध के शास्त्र पढ़ेंगे तो वे नाम रूप को बाधित करके सत्यस्वरूप को जगा देंगे । कंगन, हार, अंगूठी आदि को बाधित करके जो शुद्ध सुवर्ण है उसको दिखा देंगे

अतः आपको ऐसा ही पठन करना चाहिए जिससे आप में सदाचार, स्नेह, पवित्रता, सर्वात्मभाव, निर्भयता, निरभिमानता आदि दैवी गुणों का विकास हो, संत और भगवान के प्रति आदर-मान की भावना जगे, उनसे निर्दोष अपनापन बुद्धि में दृढ़ हो।

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दूसरी बात

आप क्या खाते पीते हो? आप ऐसी चीज खाते-पीते हो जिससे बुद्धि विनष्ट हो जाय और आपको उन्माद-प्रमाद में घसीट ले जाय? आप अपेय चीजों का पान करेंगे तो आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी । भगवान का चरणोदक या शुद्ध गंगाजल पियेंगे तो आपके जीवन में पवित्रता आयेगी । इस बात पर भी ध्यान रखना जरूरी है कि जिस जल से स्नान करते हो वह पवित्र तो है न?

आप जो पदार्थ भोजन में लेते हो वे पूरे शुद्ध होने चाहिए। पाँच कारणों से भोजन अशुद्ध होता हैः

1.      अर्थदोषः जिस धन से, जिस कमाई से अन्न खरीदा गया हो वह धन, वह कमाई ईमानदारी की हो । असत्य आचरण द्वारा की गई कमाई से, किसी निरपराध को कष्ट देकर, पीड़ा देकर की गई कमाई से तथा राजा, वेश्या, कसाई, चोर के धन से प्राप्त अन्न दूषित है । इससे मन शुद्ध नहीं रहता

 

2.      निमित्त दोषः आपके लिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति कैसा है? भोजन बनाने वाले व्यक्ति के संस्कार और स्वभाव भोजन में भी उतर आते हैं । इसलिए भोजन बनाने वाला व्यक्ति पवित्र, सदाचारी, सुहृद, सेवाभावी, सत्यनिष्ठ हो यह जरूरी है

पवित्र व्यक्ति के हाथों से बना हुआ भोजन भी कुत्ता, कौवा, चींटी आदि के द्वारा छुआ हुआ हो तो वह भोजन अपवित्र है।

 

3.      स्थान दोषः भोजन जहाँ बनाया जाय वह स्थान भी शांत, स्वच्छ और पवित्र परमाणुओं से युक्त होना चाहिए । जहाँ बार-बार कलह होता हो वह स्थान अपवित्र है स्मशान, मल-मूत्रत्याग का स्थान, कोई कचहरी, अस्पताल आदि स्थानों के बिल्कुल निकट बनाया हुआ भोजन अपवित्र है। वहाँ बैठकर भोजन करना भी ग्लानिप्रद है

4.      जाति दोषः भोजन उन्ही पदार्थों से बनना चाहिए जो सात्त्विक हों । दूध, घी, चावल, आटा, मूँग, लौकी, परवल, करेला, भाजी आदि सात्त्विक पदार्थ हैं । इनसे निर्मित भोजन सात्त्विक बनेगा । इससे विपरीत, तीखे, खट्टे, चटपटे, अधिक नमकीन, मिठाईयाँ आदि पदार्थों से निर्मित भोजन रजोगुण बढ़ाता है । लहसुन, प्याज, मांस-मछली, अंडे आदि जाति से ही अपवित्र हैं । उनसे परहेज करना चाहिए नहीं तो अशांति, रोग और चिन्ताएँ बढ़ेंगी

 

5.      संस्कार दोषः भोजन बनाने के लिए अच्छे, शुद्ध, पवित्र पदार्थों को लिया जाये किन्तु यदि उनके ऊपर विपरीत संस्कार किया जाये – जैसे पदार्थों को तला जाये, आथा दिया जाये, भोजन तैयार करके तीन घंटे से ज्यादा समय रखकर खाया जाये तो ऐसा भोजन रजो-तमोगुण पैदा करनेवाला हो जाता है।

 

विरुद्ध पदार्थों को एक साथ लेना भी हानिकारक है जैसे कि दूध पीकर ऊपर से चटपटे आदि पदार्थ खाना । दूध के आगे पीछे प्याज, दही आदि लेना अशुद्ध भी माना जाता है और उससे चमड़ी के रोग, कोढ़ आदि भी होते हैं । ऐसा विरुद्ध आहार स्वास्थय के लिए हानिकारक है

 

खाने पीने के बारे में एक सीधी-सादी समझ यह भी है कि जो चीज आप भगवान को भोग लगा सकते हो, सदगुरु को अर्पण कर सकते हो वह चीज खाने योग्य है और जो चीज भगवान, सदगुरु को अर्पण करने में संकोच महसूस करते हो वह चीज खानापीना नहीं चाहिए । एक बार भोजन करने के बाद तीन घण्टे से पहले फल को छोड़ कर और कोई अन्नादि खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

 

खान-पान का अच्छा ध्यान रखने से आपमें स्वाभाविक ही सत्त्वगुण का उदय हो जायेगा। जैसा अन्न वैसा मन इस लोकोक्ति के अनुसार सात्त्विक पदार्थ भोजन में लोगे तो सात्त्विकता स्वतः बढ़ेगी। दुर्गुण एवं दुराचारों से मुक्त होकर सरलता और शीघ्रता से दैवी सम्पदा कि वृद्धि कर पाओगे।

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तीसरी बात

आपका संग कैसा है? आप कैसे लोगों में रहते हैं? जीवन के निर्माण में संग का बड़ा महत्व है। मनुष्य जैसे लोगों के बीच में उठता-बैठता है, जैसे लोगों की सेवा करता है, सेवा लेता है, अपने मन में जैसा बनने की इच्छा रखता है, उसी के अनुरूप उसके जीवन का निर्माण होता है

 

आप जिन लोगों के बीच रहते हैं उनके स्वभाव, आचार, विचार का प्रभाव आप पर अवश्य पड़ेगा इस बात का भली प्रकार ध्यान में रखकर अपना संग बनाओ । आप जैसा बनना चाहते हो वैसे लोगों के संग में रहो। जिसे भगवत्तत्त्व का साक्षात्कार करना हो, अपने आपका दीदार पाना हो उसे भगवत्सवी संत, महात्मा और तत्त्वज्ञानी महापुरुषों का संग करना चाहिए

 

आप बारह-बारह वर्ष तक जप, तप, स्वाध्याय आदि से जो योग्यता पाओगे वह संतों के सान्निध्य में कुछ ही दिन रहने से संप्राप्त कर लोगे । अपने जीवन का अपने आप निर्माण करने की शक्ति कारक पुरुषों में होती है, शेष सबको अपने अंतःकरण और जीवन का निर्माण करने के लिए संत-महात्मा, सदगुरु का सत्संग अनिवार्य है सत्संग मनुष्य को सबसे महान् और शुद्ध बनाने वाला, ज्ञानरूपी प्रकाश देने वाला, जीवन की तमाम उपाधियों का एकमात्र रामबाण इलाज है। सत्संग जैसा उन्नतिकारक और प्रेरक दूसरा कोई साधन नहीं है सत्संग जीवन का अमृत है, आत्मा का आनन्द है, दिव्य जीवन के लिए अनिवार्य है

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चौथी बात

आप कैसे स्थान में रहते हो? शराबी-कबाबी-जुआरी के अड्डे पर रहते हो कि क्लब में या नाचघर में रहते हो? आप जहाँ भी रहोगे, आप पर उस स्थान का प्रभाव अवश्य पड़ेगा । आप स्वच्छ, पवित्र, उन्नत स्थान में रहोगे तो आपके आचार-विचार शुद्ध और उन्नत बनेंगे । आप मलिन, आसुरी स्थानों में रहोगे तो आसुरी विचार और विकार आपको पकड़े रहेंगे । जैसे कूड़े-कचरे के स्थान पर बैठोगे तो लोग और कूड़ा-कचरा आपके ऊपर डालेंगे । फूलों के ढेर के पास बैठोगे तो सुगन्ध पाओगे । ऐसे ही देहाध्यास, अहंकार के कूड़े कचरे पर बैठोगे तो मान-अपमान, निन्दा स्तुति, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व आप पर प्रभाव डालते रहेंगे और भगवच्चिन्तन, भगवत्स्मरण, ब्रह्मभाव के विचारों में रहोगे तो शांति, अनुपम लाभ और दिव्य आनन्द पाओगे

 

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पाँचवीं बात

आप अपना समय कैसे व्यतीत करते हो? जुआ खेलने में, शराबघर में, सिनेमा-टी.वी. देखने में या औरों की बहू-बेटियों की चर्चा करने में? विशेष रूप से आप धन का चिन्तन करते हो या राजकारण का चिन्तन करते हो? 'इंग्लैन्ड ने यह गलत किया, फ्रांस ने यह ठीक किया, रशिया ने यह उल्टा किया, ईराक ने ऐसा किया, पाकिस्तान ने वैसा किया....' इन बातों से यदि आप अपने दिल-दिमाग को भर लोगे तो किसी के प्रति राग और किसी के प्रति द्वेष दिल में भर बैठोगे । आपका हृदय खराब हो जायेगा

 

बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता । जीवन का एक एक क्षण आत्मोपलब्धि, भगवत्प्राप्ति, मुक्ति के साधनों में लगाओ । हमें जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि प्राप्त है, जो सुविधा, अनुकूलता प्राप्त है उसका उपयोग वासना-विलास का परित्याग कर भगवान से प्रेम करने में करो । एक क्षण का भी इसमें प्रमाद मत करो । पूरे मन से, सम्पूर्ण बुद्धि से भगवान से जुड़ जाओ इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवान में ही लग जाय । एकमात्र भगवान ही रह जायें, अन्य सब गुम हो जाय । ऐसा कर सको तो जीवन सार्थक है । ऐसा नहीं होगा तो मानव जीवन केवल व्यर्थ ही नहीं गया अपित अनर्थ हो गया । अतः जब तक श्वास चल रहा है, शरीर स्वस्थ है तब तक सुगमता से इस साधन में लग जाओ

 

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छठी बात

आपने किसी ब्रह्मनिष्ठ तत्त्ववेत्ता महापुरुष की शरण ग्रहण की या नहीं? अनुभवनिष्ठ आचार्य का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन को सार्थक बनाने का अंतःकरण का निर्माण करने का, जीवन का सूर्य अस्त होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात करने का प्रयत्न किया है कि नहीं? जिसे अपने जीवन में सच्चे संत, महापुरुष का संग प्राप्त हो चुका हो उसके समान सौभाग्यवान पृथ्वी पर और कोई नहीं है ऋषभदेव जी ने कहा हैः 'महापुरुषों की सेवा और संगति मुक्ति का द्वार है और विषय-सेवन, कामिनियों का संग नरक का द्वार है '

जिसे सदगुरु नहीं मिले, जिसने उनकी शरण ग्रहण नहीं की वह दुर्भागी है। विश्व में वह बड़ा कमनसीब है जिसको कोई ऊँचे पुरुषों की छाया नहीं है, श्रेष्ठ सदगुरुओं का मार्गदर्शन नहीं है

कबीरजी ने कहा हैः

निगुरा होता हिय का अन्धा।

खूब करे संसार का धन्धा।

जम का बने मेहमान।।

निगुरे नहीं रहना.....

 

श्रीमद् भागवत में जड़भरत जी कहते हैं किः

"जब तक महापुरुषों की चरणधूलि जीवन अभिषिक्त नहीं होता तब तक केवल तप, यज्ञ, दान, अतिथि सेवा, वेदाध्ययन, योग, देवोपासना आदि किसी भी साधन से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त नहीं होता "

महापुरुषों की, सदगुरुओं की शरण मिलना दुर्लभ है महापुरुष एवं सदगुरु मिलने पर उन्हें पहचानना कठिन है । हमारी तुच्छ बुद्धि उन्हे पहचान न भी पाये तो भी उनकी निन्दा, अपमान आदि भूलकर भी करो शुकदेव जी राजा परीक्षित को बताया था कि जो लोग महापुरुषों का अनादर, अपमान, निन्दा करते हैं उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, यश, धर्म, लोक-परलोक, विषय-भोग और कल्याण के तमाम साधनों को नष्ट कर देता है । निन्दा तो किसी की भी न करो और महापुरुषों की निन्दा, अपमान तो हरगिज नहीं करो

 

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सातवीं बात

आप अपने चित्त में चिन्तन-ध्यान किसका करते हैं? आपके मन में किसका ध्यान आता है? रात्रि में जब नींद टूटती है तो एकाएक आपके मन में क्या बात आती है? जो जैसा ध्यान-चिन्तन करता है वह वैसा ही बन जाता है । आपके चित्त में जैसा संकल्प उठता है, जैसा ध्यान चिन्तन होता है तदनुसार आपका जीवन ढलता है, वैसा ही बन जाता है । पुराना बुरा अभ्यास पड़ जाने के कारण शुद्ध संकल्प करने पर भी अशुभ व अशुभ विचार मन में आयेंगे । उनके आते ही उन्हें सावधानी के साथ निकाल कर उनकी जगह पर शुभ और शुद्ध विचारों को भरो । इस कार्य में आलस्य, प्रमाद नहीं करना चाहिए । छोटी सी चिंगारी भी पूरे महल को भस्म कर सकती है । छोटा सा भी अशुभ विचार पुष्टि पा लेगा तो हमारे जीवन के सारे शुभ को नष्ट कर देगा

यदि काम का चिन्तन करोगे तो दूसरे जन्म में वेश्या के घर पहुँच जाओगे, मांसाहार का चिन्तर करोगे तो गीध या शेर के घर पहुँच जाओगे, किसी से बदला लेने का चिन्तन करोगे तो साँप के घर पहुँच जाओगे । अतः सावधान होकर अपने चिन्तन ध्यान को भगवन्मय बनाओ

सावधानी ही साधना है । दिन भर कार्य करते समय सावधानी से देखते रहो कि किसी भी हेतु से, किसी भी निमित्त से मन में अशुभ विचार या अशुभ संकल्प न आ जाये । अपने दोषों और दुर्गुणों पर, अपने मन में चलने वाली पाप-चिन्तन की धारा पर कभी दया नहीं करनी चाहिए । अपने दोषों को क्षमा न करके प्रायश्चित के रूप में अपने आपको कुछ दण्ड अवश्य देना चाहिए

याद रखो कि मनुष्य जीवन का असली धन सदगुण, सदाचार और दैवी सम्पत्ति है । उसे बढ़ाने में और सुरक्षित रखने में जो नित्य सावधान और तत्पर नहीं है वह सबसे बड़ा मूर्ख है । वह अपने आपकी बड़ी हानि कर रहा है । प्रतिदिन रात्रि को सोने से पहले यह हिसाब लगाना चाहिए कि अशुभ चिन्तन कितना कम हुआ और शुभ चिन्तन कितना बढ़ा

शुभ व शुद्ध चिन्तन बढ़ रहा है कि नहीं इसका पता लगता है अपनी क्रियाओं से । हमारे आचरण में, क्रियाओं में सात्त्विकता आ रही है तो हमारा जीवन सच्चे सुख की ओर जा रहा है

सुबह उठते ही परमात्मा या सदगुरुदेव का चिन्तन करके दिनभर के लिए शुद्ध संकल्प करना चाहिए । मन में दृढ़ता के साथ निश्चय करना चाहिए कि आज नम्रता, अहिंसा, प्रेम, दया, परगुणदर्शन, दूसरों की उन्नति में प्रसन्नता आदि दैवी गुणों के विकास के साथ प्रभु के नाम-गुण का ही चिन्तन करूँगा, अशुभ व अशुद्ध विचारों को मन में तथा क्रिया में कभी आने न दूँगा

अपने मन में जैसा चिन्तन आता है वैसा ही जीवन बन जाता है सोचिये, आपको अपना जीवन कैसा बनाना है? आप श्रीराम या श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं?

भगवान राम में कितनी पितृभक्ति थी ! कितनी मातृभक्ति थी ! कितना भ्रातृस्नेह था ! कैसी कर्तव्य परायणता थी ! कैसा पत्नी प्रेम था ! वे कैसे दृढ़व्रती थे ! प्रजा के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए कैसे तत्पर रहते थे ! कैसा मधुर, समयोचित और सारगर्भित, अनिन्दनीय भाषण करते थे ! सदा सत्संग और साधुसमागम में कितनी तत्परता रखते थे !

भगवान श्रीकृष्ण भी साधुसेवा में बड़ा उत्साह रखते थे ब्रह्ममुहूर्त में उठते, ध्यान करते, दान करते, शरणागत का रक्षण करते, सभा में शास्त्र की चर्चा भी करते । भगवान के इन गुणों का, लीलाओं का स्मरण करके, अपने जीवन का निर्माण करने का प्रयास करो

 

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आठवीं बात

आपका अभ्यास क्या है? अभ्यास का अर्थ है दुहराना । बचपन से जो अभ्यास डाल दिया जाता है वह सदा के लिए रह जाता है । अभी भी अपने दैनिक जीवन में, व्यवहार में शास्त्रों के अध्ययन का, दीन-दुःखी की सहाय करने का, संत-महात्मा-सदगुरु की सेवा करने का, स्वधर्म-पालन एवं सत्-सिद्धान्तों के आचरण का, सत्कार्य करने का, जीवन-निर्माण में उपयोगी सत्साहित्य के प्रचार-प्रसार का अभ्यास डालो । इससे मन कुचिन्तन से बचकर सच्चिन्तन में लगेगा

ध्यान, जप, कीर्तन और शास्त्राध्ययन का तो नियम ही बना लो । इससे अपने दुर्गुणदुर्विचारों को कुचलकर साधन-सम्पन्न होने में बहुत अच्छी सहाय मिलती है । प्रतिदिन योगासन, प्राणायाम आदि भी नियम से करो जिससे रजो-तमोगुण कम होकर शरीर स्वस्थ रहेगा । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है । जिसका शरीर बीमार रहता है उसके चित्त में अच्छे विचार जल्दी उभरते नहीं । अतः तन-मन स्वस्थ रहे, हृदय में दैवी सदगुणों का प्रकाश रहे ऐसा अभ्यास डालना चाहिए

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नौवीं बात

आपके संस्कार कैसे हैं? हमारे आचार्यों ने, ऋषि-महर्षियों ने, मननशील, महात्माओं ने, सत्पुरुषों ने बताया कि संस्कारों से हमारे जीवन का निर्माण होता है । शास्त्रों में तो सबके लिये गर्भाधान संस्कार, सीमन्तोनयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार आदि करने का विधान था । अभी तो ये संस्कार आचार-विचार में से लुप्त हो गये हैं । इन संस्कारों के पालन से शुद्धि, सात्त्विकता और जीवन में सत्त्वशीलता रह सकती है

प्रत्येक वर्ण और आश्रम के भी अपने-अपने संस्कार हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अपने अलग-अलग संस्कार है । हरेक को अपने-अपने संस्कार दृढ़ता से आचरण में लाने चाहिए । ब्राह्मण को अपने उच्च संस्कारों से भ्रष्ट होकर क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के संस्कारों से प्रभावित होकर अपना जीवन निम्न नहीं बनाना चाहिए शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय को भी अपने से उत्तरोत्तर बढ़े-चढ़े संस्कारवालों का अनुसरण करके अपना जीवन उन्नत बनाना चाहिए

सबके लिए दैवी सम्पदा तो उपार्जनीय उच्च संस्कार है ही । सबको दैवी सम्पदा के गुणों से सम्पन्न होना चाहिए । अपने जीवन को विषय विकारों के गहन गर्त में गिरने से बचाकर परमोच्च आत्मा-परमात्मा के दिव्य आनन्द की ओर ऊपर उठाना चाहिए, असीम शांति का उपभोग करना चाहिए

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दसवीं बात

आप गुरु प्रसाद की सुरक्षा करते हैं? यह बात है इष्ट मन्त्र विषयक, इष्ट मंत्र के जप और प्रभाव विषयक । इष्ट मंत्र सदा गोपनीय है । इसे गुप्त रखना चाहिए । इष्ट मंत्र के रहस्य का पता इष्ट के सिवाय और किसी को नहीं होना चाहिए

एक दंतकथा हैः

एक बार एक व्यक्ति भगवान के पास गया । भगवान का द्वार बन्द था । खटखटाने पर भगवान ने कहाः "प्रिय ! तुम आये हो, लेकिन मेरे लिए कोई ऐसी चीज लाये हो जो किसी की जूठी न हो?"

उसने कहाः 'मेरे पास एक मंत्र था लेकिन मैं उसे गुप्त नहीं रख पाया हूँ । मैंने उसे अखबारों में छपवा दिया है '

भगवान ने कहाः "तो अभी लौट जाओ । दुबारा जब आना हो तो मेरे लिए कोई भी ऐसी चीज ले आना जिस पर किसी की दृष्टि न पड़ी हो और किसी की जूठी न हो "

इस दंतकथा से समझना है कि अपना इष्ट मंत्र बिल्कुल गुप्त, दूसरों से नितान्त गोपनीय रखना चाहिए । मंत्र गुप्त होगा तभी वह अपना भाव, प्रभाव, मूल्य प्रकाशित करेगा संतों ने कहा है कि मंत्र अंतर्मुख होता है। 'जो अंतर में रहे सो मंतर' तथा 'जिससे मन तर जाय सो मंतर'

 

जप तीन प्रकार से होता हैः

  1. वाचिकः मुँह से बोलकर, आवाज करके किया जाता है
  2. उपांशुः जिसमें आवाज नहीं आती, सिर्फ ओंठ फड़कते-से दिखते हैं। वाचिक जप से उपांशु जप का फल सौगुना विशेष है
  3. मानसिकः इसमें न आवाज होती है न ओंठ फड़कते हैं। जप मन ही मन होता है। मानसिक जप का फल सहस्र गुना अधिक है

 

अनुक्रम

 

मंत्रजप के स्थान-भेद से भी फल-भेद होता है। अपने घर में जप करने की अपेक्षा गौशाला में (जिसमें बैल न हों), तुलसी, पीपल(अश्वत्थ) के वृक्ष के नीचे सौ गुना, नदी, सागर, संगम में सहस्र गुना, देवालय, शिवालय, मठ, आश्रम में जहाँ शास्त्रोक्त क्रिया, साधना, अध्ययन आदि होता हो वहाँ लाख गुना और संत-महात्मा-सत्पुरुष के समक्ष जप करना अनंतगुना फलदायी होता है । ये संत-महात्मा-सत्पुरुष यदि अपने सदगुरुदेव हों तो सोने में सुहागा है

जप करने का मतलब केवल माला के मनके घुमाना ही नहीं है । जप करते समय मंत्र के अर्थ में, मंत्र के अर्थ में, मंत्र के भाव में डूबा रहने का अभ्यास करना चाहिए

विशेष ध्यान रहे कि जप करते समय मेरूदण्ड को सीधा रखें झुककर मत बैठो । जिह्वा को तालू में लगाकर मानसिक जप करने से अनुपम लाभ होता है

 

जप करने वाले जापक के तीन प्रकार हैं-

  1. कनिष्ठ जापक वे हैं जो नियम से एक बार जप कर लेते हैं
  2. मध्यम जापक वे हैं जो बार-बार अपने इष्ट की स्मृति रखते हुए जप करते हैं
  3. उत्तम जापक वे हैं जिनके पास जाने से ही सामान्य व्यक्ति के जप भी चालू हो जाये

 

साधक को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ अवस्था की सम्प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए

 

इन दस बातों का विशेष ध्यानपूर्वक अध्ययन करो । उन्हें अपने जीवन में, दैनिक व्यवहार में उतारने का, चरितार्थ करने का पुरुषार्थ करो । उनके द्वारा अपने अंतःकरण की, अपने स्वभाव की कसौटी करके दिव्य गुणों की वृद्धि करो । अपने मन को मनमुखी चाल से ही बचाओ । बुद्धि को शुद्ध बनाओ । जीवन में आध्यात्मिक ओज को जगाओ ऋतंभरा प्रज्ञा को विकसित करो । आसुरी दुर्गुणों को हटाकर हृदय में दैवी गुणों को स्थायी रूप से प्रवेश कराओ । परमात्मा के नित्य-नवलीला भास्कर का, नित्य आनन्दमयस्वरूप का साक्षात्कार करके जीवन का सूर्य ढलने से पहले ही जीवन के परम लक्ष्य को पा लो । इसमें अपना, जगत का एवं प्रभु का भी उपकार निहित है । अपने आत्मा का साक्षात्कार करना अपना उपकार तो है ही

आत्मज्ञानी पुरुष जगत में दिव्य विचार, सर्वहित की भावना, दैवी सम्पदा के गुणों को प्रवाहित करेंगे, इससे जगत का उपकार होगा

जीव परमात्माभिमुख बनेंगे, भक्त बनेंगे । परमात्मा को उनके प्यारे भक्त से मिला देना उस परमेश्वर परमात्मा की भी सेवा है । अरे ! वे मौन भी रहें फिर भी उनको छूकर बहने वाली हवा भी जगत का उपकार करेगी । ऐसे आत्मज्ञानी तत्त्ववेत्ता महापुरुष परमात्मा के विशेष प्यारे होते हैं

अनुक्रम

ॐॐॐॐॐॐ

अच्छी दिवाली हमारी

सभी इन्द्रियों में हुई रोशनी है

यथा वस्तु है सो तथा भासती है ।।

विकारी जगत् ब्रह्म है निर्विकारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।1।।

दिया दर्शे ब्रह्मा जगत् सृष्टि करता

भवानी सदा शंभु ओ विघ्न हर्ता ।।

महा विष्णु चिन्मूर्ति लक्ष्मी पधारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।2।।

दिवाला सदा ही निकाला किया मैं

जहाँ पे गया हारता ही रहा मैं ।।

गये हार हैं आज शब्दादि ज्वारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।3।।

लगा दाँव पे नारी शब्दादि देते

कमाया हुआ द्रव्य थे जीत लेते ।।

मुझे जीत के वे बनाते भिखारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।4।।

गुरु का दिया मंत्र मैं आज पाया |

उसी मंत्र से ज्वारियों को हराया ।।

लगा दाँव वैराग्य ली जीत नारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।5।।

सलोनी, सुहानी, रसीली मिठाई

वशिष्ठादि हलवाइयों की है बनाई ।।

उसे खाय तृष्णा दुराशा निवारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।6।।

हुई तृप्ति, संतुष्टता, पुष्टता भी

मिटी तुच्छता, दुःखिता, दीनता भी ।।

मिटे ताप तीनों हुआ मैं सुखारी

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।7।।

करे वास भोला ! जहाँ ब्रह्म विद्या

वहाँ आ सके न अंधेरी अविद्या

मनी आज अच्छी दिवाली हमारी ।।8।।

अनुक्रम

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ