युगप्रवर्तक

संत श्री आशारामजी बापू

आत्मारामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, योगिराज प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू ने आज भारत ही नहीं वरन् समस्त विश्व को अपनी अमृतवाणी से परितृप्त कर दिया है।

जन्म व बाल्यकालः बालक आसुमल का जन्म अखण्ड भारत के सिंध प्रान्त के बेराणी गाँव में 17 अप्रैल 1941 को हुआ था। आपके पिता थाऊमल जी सिरूमलानी नगरसेठ थे तथा माता महँगीबा धर्मपरायण और सरल स्वभाव की थीं। बाल्यकाल में ही आपक्षी के मुखमंडल पर झलकते ब्रह्मतेज को देखकर आपके कुलगुरु ने भविष्यवाणी की थी कि ʹआगे चलकर यह बालक एक महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा।ʹ इस भविष्यवाणी की सत्यता आज किसी से छिपी नहीं है।

युवावस्था (विवेक वैराग्य)

आप श्री का बाल्यकाल एवं युवावस्था विवेक-वैराग्य की पराकाष्ठा से संपन्न थे, जिससे आप अल्पायु में ही गृह-त्याग कर प्रभुमिलन की प्यास में जंगलों-बीहड़ों में घूमते तड़पते रहे। नैनीताल के जंगल में स्वामी श्रीलीलाशाहजी आपको सदगुरुरूप में प्राप्त हुए। मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में अपने पूर्णत्व का साक्षात्कार कर लिया। सदगुरु ने कहाः ʹआज से लोग तुम्हें ʹसंत आशाराम जीʹ के रूप में जानेंगे। जो आत्मिक दिव्यता तुमने पायी है उसे जन-जन में वितरित करो।ʹ

ये ही आसुमल ब्रह्मनिष्ठा को प्राप्त कर आज बड़े बड़े दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, नेताओं तथा अफसरों से लेकर अनेक शिक्षित-अशिक्षित साधक-साधिकाओं तक सभी को अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं, भटके हुए मानव-समुदाय को सही दिशा प्रदान कर रहे हैं।

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प्रातः स्मरणीय संत श्री आशारामजी बापू

के सत्संग प्रवचन एवं सत्साहित्य से संकलित

प्रेरणा ज्योत

महिला उत्थान ट्रस्ट

संत श्री आशारामजी आश्रम

संत श्री आशारामजी बापू आश्रम मार्ग, अहमदाबाद-380005

फोनः 079-27505010-11

आश्रम रोड, जहाँगीर पुरा, सूरत 395005

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वन्दे मातरम् रोड, रवीन्द्र रंगशाला के सामने,

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हे प्रभु! आनन्ददाता!!

हे प्रभु! आनन्ददाता !! ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।

हे प्रभु......

लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।

हे प्रभु......

निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी न करें।

ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी न करें।।

हे प्रभु...

सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।

दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।

हे प्रभु....

जाय हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।

हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।

हे प्रभु....

कीजिये हम पर कृपा अब ऐसी हे परमात्मा!

मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।

हे प्रभु....

प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।

प्रेम से हम संस्कृति ही नित्य ही सेवा करें।।

हे प्रभु...

योगविद्या ब्रह्मविद्या हो अधिक प्यारी हमें।

ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करके सर्वहितकारी बनें।।

हे प्रभु....

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विषय-सूची

हे प्रभु आनन्ददाता

सफलता के सूत्र

स्मरणशक्ति और उसका विकास....

ऐसे करिये स्मरणशक्ति का पोषण

सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ

संयम की शक्ति

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी बापू का संदेश

क्या है ब्रह्मचर्य ?

संयम की आवश्यकता

संयम की महिमा

जीवन को महान बनाना है तो...

गलत अभ्यास का दुष्परिणाम

विद्वानों, चिंतकों और चिकत्सकों की.....

निरोगता का साधन

स्त्री-जाति के प्रति मातृभाव प्रबल करो

महत्त्वपूर्ण बातें

जीवन जीने की कला

सादा रहन-सहन बनायें

सत्संग करो

शुभ संकल्प करो

सत्साहित्य पढ़ो

मन को सीख

व्यसनों से सावधान

दीक्षा से बदलती है जीवन दिशा

सदगुरु महिमा

पावन उदगार

आप कहते हैं.....

मंत्रदीक्षा क्यों ?, मंत्रदीक्षा से दिव्य लाभ

गुरुमंत्र के जप से उत्पन्न 15 शक्तियाँ

आश्रम के सेवाकार्यों की झलक.....

ऋषि ज्ञान को स्वीकारता आधुनिक विज्ञान

के जप के चमत्कार

क्या आपको पता है ?

वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य बनी...

14 फरवरीः मातृ-पितृ पूजन दिवस

युवानो ! सावधान....

पूज्य श्री बापू जी का परम हितकारी संदेश

स्वर्णिम इतिहास रचा छत्तीसगढ़ सरकार ने

प्रेरक प्रसंग

सफलता का रहस्य

नीम का पेड़ चला

आजादी की दुनिया

वास्तविक सौंदर्य

कोई देख रहा है....!

कंजूसी नहीं, करकसर

जाग मुसाफिर

विवेक कीजिये

प्राणिमात्र का आशाओं के राम

स्वास्थ्य संजीवनी

आहार-विज्ञान

चाय-कॉफी ने फैलाया सर्वनाश....

कोल्ड-ड्रिंक्स पी रहे हैं या जंतुनाशक दवा

छोटी सी है अर्जी...

काव्यगुंजन

संयम की शक्ति से.....

सादा जीवन सच्चा जीवन....

भारत के नौजवानो !.....

ʹलहर नहीं जहर हूँ मैं.....ʹ

विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

सूर्य को अर्घ्य क्यों ?

ध्यान करने से क्या-क्या लाभ होते हैं ?

रॉक और पॉप म्यूज़िक सुनने से क्या हानि होती है ?

ब्राह्ममुहूर्त में क्यों जागना चाहिए ?

तुलसी के पत्ते क्यों खाने चाहिए ?

स्वस्तिक चिन्ह शुभ क्यों ?

सूर्यनमस्कार क्यों करें ?

सावधानी बरतते हुए भी वीर्यपात हो तो ?

योगामृत

भ्रामरी प्राणायाम

सूर्योपासना

सर्वांगासन

पादपश्चिमोत्तानासन

ब्रह्मचर्यासन,

प्राणमुद्रा

वीर्यस्तम्भासन,

मयूरासन

अनुलोम-विलोम प्राणायाम

ज्ञान मुद्रा

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स्मरणशक्ति और उसका विकास.....

परब्रह्म परमात्मा में सोलह कलाएँ होती हैं। सृष्टि में प्रत्येक वस्तु तथा जीव में उन सोलह कलाओं में से कुछ कलाएँ होती ही हैं। अलग-अलग वस्तुओं तथा जीवों में ईश्वर की अलग-अलग कलाएँ विकसित होती हैं। उन कलाओं में एक विशेष कला है ʹस्मृतिकलाʹ.....

(परम पूज्य बापू जी की परम हितकर वाणी)

स्मृतिकला तीन प्रकार की होती हैः

तात्कालिक स्मृति, अल्पकालिक स्मृति, दीर्घकालिक स्मृति

कई जीवों में अल्पकालिक अथवा तात्कालिक स्मृतिकला ही विकसित होती है। परंतु मनुष्य में स्मृतिकला के तीनों प्रकार विकसित होते हैं। अतः मनुष्य को प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा जाता है।

एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार ʹकुछ याद रखनाʹ यह एक प्रकार  की जटिल मानसिक प्रक्रिया है। स्मरणशक्ति अर्थात सुनी, देखी तथा अनुभव की हुई बातों का वर्गीकरण करके मस्तिष्क में उनका संग्रह करना तथा भविष्य में जब भी उनकी आवश्यकता पड़े उन्हें फिर से जान लेना।

स्मृति के लिए दिमाग का जो हिस्सा कार्य करता है, उसमें एसीटाइलकोलीन, डोपामीन तथा प्रोटीन्स के माध्यम से एक रासायनिक क्रिया होती है। एक प्रयोग के द्वारा यह भी सिद्ध हुआ कि ʹमानव-मस्तिष्क की कोशिकाएँ आपस में जितनी सघनता से गुंथित होती हैं, उतना ही उसकी स्मृति का विकास होता है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रायः सभी प्रकार के मानसिक रोग स्मृति से जुड़े होते हैं, जैसे कि चिंता, मानसिक अशांति आदि। इस प्रकार के रोग से ग्रस्त व्यक्तियों में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व घबराहट इतनी बढ़ जाती है कि वे समय पर जरूरत की चीजों को अच्छी तरह से याद नहीं रख पाते।

विद्यार्थियों में यह समस्या अधिक पायी जाती है। परीक्षाकाल निकट आने पर अथवा प्रश्नपत्र को देखकर घबरा जाने से अनेक विद्यार्थी याद किये हुए पाठ भी भूल जाते हैं। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि स्मरणशक्ति पर मानसिक रोगों का सीधा प्रभाव पड़ता है।

हमारे ऋषियों ने स्मरणशक्ति को बढ़ाने के लिए जप-ध्यान, प्राणायाम आदि अनेक यौगिक प्रयोगों का आविष्कार किया है। उन्होंने तो ध्यान के द्वारा एक ही स्थान पर बैठे-बैठे अनेक ग्रहों तथा लोकों की खोज कर डाली थी।

महर्षि वाल्मीकि ने जप-ध्यान के द्वारा अपनी बौद्धिक शक्तियों का इतना विकास किया कि श्रीरामावतार से पूर्व ही उन्होंने श्रीराम की जीवनी को ʹरामायणʹ के रूप में लिपिबद्ध कर दिया। इसी प्रकार महर्षि वेदव्यासजी ने ʹश्रीमद् भागवत महापुराणʹ में आज से हजारों वर्ष पूर्व ही कलियुगी मनुष्यों के लक्षण बता दिये थे। हमें मानना पड़ेगा कि हमारा प्राचीन ऋषि-विज्ञान इतना विकसित था की उसके सामने आज के विज्ञान की कोई गणना ही नहीं की जा सकती।

महर्षि वाल्मीकि तथा वेदव्यासजी द्वारा रचित ये दो ग्रंथ - ʹरामायण तथा महाभारतʹ, उनकी चमत्कारिक तथा विकसित स्मरणशक्ति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

स्मरणशक्ति को बढ़ाने वाला भ्रामरी प्राणायाम हमारे ऋषियों की एक विलक्षण खोज है। भ्रामरी प्राणायाम द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं में स्पंदन होता है, जो एसीटाइलकोलीन, डोपामीन तथा प्रोटीन के बीच होने वाली रासायनिक क्रिया में उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) का कार्य करता है, जिससे स्मरणशक्ति का चमत्कारिक विकास होता है। विषय-सूची

भ्रामरी प्राणायाम कैसे करें ?

विधिः प्रातःकाल शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर कम्बल अथवा ऊऩ से बने हुए किसी स्वच्छ आसन पर पद्मासन या सिद्धासन में बैठ सकें तो ठीक है नहीं तो सुखासन में (पलथी मार के) बैठ जायें और आँखें बन्द कर लें। ध्यान रहे कि कमर व गर्दन एक सीध में रहें। अब दोनों हाथों की तर्जनी (अँगूठे के पास वाली) उँगली से अपने दोनों कानों के छिद्रों को बंद कर लें। इसके बाद खूब गहरा श्वास लेकर कुछ समय तक रोके रखें, तत्पश्चात मुख बंद कर के श्वास छोड़ते हुए भौंरे के गुंजन की तरह ʹ......ʹ का लम्बा गुंजन करें। इस प्रक्रिया में इसका अवश्य ध्यान रखें कि श्वास लेने तथा छोड़ने की क्रिया नथुनों के द्वारा ही होनी चाहिए। मुख के द्वारा श्वास लेना अथवा छोड़ना निषिद्ध है। श्वास छोड़ते समय होंठ बंद रखें तथा ऊपर व नीचे के दाँतों के बीच कुछ फासला रखें। श्वास अंदर भरने तथा रोकने की क्रिया में ज्यादा जबरदस्ती न करें। यथासम्भव श्वास अंदर खींचे तथा रोकें। अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे आपकी श्वास लेने तथा रोकने की क्षमता स्वतः ही बढ़ती जायेगी।

हर बार श्वास छोड़ते समय ʹʹ का गुंजन करें। इस गुंजन द्वारा मस्तिष्क की कोशिकाओं में हो रहे स्पंदन (कम्पन) पर अपने मन को एकाग्र रखें।

प्रारम्भ में सुबह, दोपहर अथवा शाम जिस संध्या में समय मिलता हो, इस प्राणायाम का नियमित रूप से दस-दस मिनट अभ्यास करें। विषय-सूची

दिव्य बनना चाहते हो तो देर मत करो !

हे विद्यार्थियो ! यदि तुम भी मेधावी और महान बनना चाहते हो तो देर मत करो, पूज्य बापू जी के पावन सान्निध्य में पहुँचकर दिव्य ʹसारस्वत्य मंत्रʹ की दीक्षा लेकर व यौगिक प्रयोग सीखकर सफलता के शिखरों पर चढ़ने के लिए कदम आगे बढ़ाओ। दिव्य बनने के लिए ʹदिव्य प्रेरणा-प्रकाशʹ पुस्तक पढ़ना चालू करो और आध्यात्मिक विकास का अलभ्य लाभ लो।

त्राटक से एकाग्रता के विकास में बड़ी मदद मिलती है। एकाग्र मन से पढ़ा हुआ याद भी शीघ्र हो जाता है। त्राटक का अर्थ है – किसी निश्चित आसन पर बैठकर किसी निश्चित वस्तु, बिन्दु, मूर्ति, दीपक, चाँद, तारे आदि को बिना पलक झपकाये एकटक देखना। त्राटक व ध्यान-भजन के समय देशी गाय के घी का दीया जलाना लाभदायक होता है, जबकि मोमबत्ती से कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है जो हानिकारक है।

प्रारम्भ में एकटक देखने पर आँखों की पलकें गिरेंगी किंतु फिर भी दृढ़ होकर अभ्यास करते रहें। जब तक आँखों से पानी न टपके, तब तक बिंदु को बिना पलक झपकाये एकटक निहारते रहें। इस प्रकार प्रत्येक तीसरे-चौथे दिन त्राटक का समय बढ़ाते रहें। जितना समय बढ़ेगा उतना ही आप सभी विषयों में सक्षम होते जायेंगे। त्राटक से एकाग्रता व बुद्धिशक्ति का विकास होता है। एकाग्र मन प्रसन्न रहता है तथा मनुष्य भीतर से निर्भीक हो जाता है।

व्यक्ति का मन जितना एकाग्र होता है, समाज पर उसकी वाणी का, उसके स्वभाव का तथा उसके क्रिया-कलापों का उतना ही गहरा प्रभाव पड़ता है।

भाँग, शराब, चाय, बीड़ी, कॉफी आदि पदार्थों के सेवन से स्मरणशक्ति क्षीण हो जाती है। गाय का दूध, गेहूँ, चावल, ताजा मक्खन, अखरोट तथा तुलसी के पत्ते इत्यादि के सेवन से जीवनशक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है।

सूर्योपासना

प्रतिदिन सुबह आँखें बंद करके सूर्यनारायण के सामने खड़े होकर नाभि से आधा सें.मी. ऊपर के भाग में भावना करोः ʹसूर्य के नीलवर्ण का तेज मेरे मणिपुर केन्द्र को विकसित कर रहा है।ʹ ऐसी भावना करके श्वास भीतर खींचो।

सूर्यनमस्कार एवं प्राणायाम करो। पाँच से सात मिनट तक सामने से और 8-10 मिनट कत पीठ की ओर से सूर्यस्नान करो।

इससे आपका स्वास्थ्य सुदृढ़ होगा ही, साथ ही साथ स्मृतिशक्ति भी गजब की बढ़ने लगेगी। विषय-सूची

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः सूर्य को मंत्रसहित अर्घ्य देने से क्या लाभ होते हैं ?

उत्तरः सूर्य बुद्धिशक्ति के स्वामी हैं, अतः सूर्योदय के समय मंत्रोच्चार करते हुए उन्हें अर्घ्य देने से बुद्धि तीव्र बनती है तथा परावर्तित सूर्यकिरणें, हमारी श्रद्धा, मंत्र का सामर्थ्य और सूर्यदेव की कृपा-इन सबका लाभ हमें मिल जाता है। इस क्रिया से हमें स्वतः ही सूर्यकिरणयुक्त जल-चिकित्सा का फायदा मिलता है। बौद्धिक शक्ति में चमत्कारिक लाभ होता है, ओज, तेज में वृद्धि होती है। सभी प्रकार से मनुष्य के लिए कल्याणकारी, प्राचीन भारतीयों की यह खोज एक वैज्ञानिक उपचार भी सिद्ध हुई है।

प्रश्नः ध्यान करने से क्या-क्या लाभ होते हैं?

उत्तरः ध्यान करने से हमारी आंतरिक शक्तियाँ जागृत होती हैं। ध्यान से मन शांत, बुद्धि, सूक्ष्म, एकाग्रता व स्मरणशक्ति का विकास तथा परम शांति का अनुभव होता है। परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करने का सुगम साधन है ध्यान। विषय-सूची

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के जप से चमत्कार

प्रो. मॉर्गन का सुझाव था कि स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन का जप करके उम्र भर बीमारियों को दूर रख सकता है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति क समय पैदा हुई सबसे पहली ध्वनि थी ʹʹ, जिसने आकाश, धरती, पाताल समेत समस्त जगत को गुंजायमान कर दिया था। इस पवित्र ध्वनि की महिमा और प्रभाव का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में के माध्यम से न सिर्फ शारीरिक विकार दूर किये जा रहे हैं बल्कि नशे के गर्त में डूब रहे युवाओं को सही राह पर लाने में भी इस पवित्र ध्वनि का प्रयोग किया जा रहा है। हाल ही में ब्रिटेन के एक साइंस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से की महत्ता स्वीकार की गयी है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि कुछ आँतरिक बीमारियाँ जिनका इलाज आज तक मैडीकल साइंस में उपलब्ध नहीं है, उनमें केवल के नियमित जप से आश्चर्यजनक रूप से कमी देखी गयी है। खासकर पेट, मस्तिष्क और हृदय सम्बन्धी बीमारियों में का जप रामबाण औषधि की तरह काम करता है।

ʹरिसर्च एंड एक्सपेरिमेंट इंस्टीच्यूट ऑफ न्यूरोसाइंसʹ के प्रमुख प्रो. जे. मार्गन और उनके सहयोगियों द्वारा सात साल से हिन्दू धर्म के प्रतीक चिह्न के प्रभावों का अध्ययन किया जा रहा था। इस दौरान उन्होंने मस्तिष्क और हृदय की विभिन्न बीमारियों से पीड़ित 2500 पुरुषों तथा 2000 महिलाओं को परीक्षण के दायरे में लिया। इन सारे मरीजों को केवल वे ही दवाइयाँ दी गयीं, जो उनके जीवन को बचाने के लिए जरूरी थीं, बाकी सारी  दवाइयाँ बन्द कर दी गयीं। प्रतिदिन सुबह 6 बजे से 7 बजे तक एक घंटा इन लोगों को साफ-स्वच्छ खुले वातावरण में योग्य प्रशिक्षकों द्वारा ʹʹ मंत्र का जप करवाया गया।

इस दौरान उन्हें विभिन्न ध्वनियों और आवृत्तियों में का जप करने को कहा गया। हर तीन महीने बाद मस्तिष्क, हृदय के अलावा पूरे शरीर का स्कैनिंग किया गया। चार साल तक लगातार ऐसा करने के बाद जो रिपोर्ट आयी वह चौंकाने वाली थी।

लगभग 70 फीसदी पुरुष और 82 फीसदी महिलाओं में का जप शुरु करने से पहले बीमारियों की जो स्थिति थी, उसमें 90 प्रतिशत तक कमी दर्ज की गयी। इसके अलावा एक और महत्त्वपूर्ण प्रभाव सामने आया, वह है नशे से मुक्ति का। नशे के आदी हो चुके लोगों ने भी के जप से नशे की लत को दूर किया। प्रो. मार्गन का सुझाव था कि स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन का जप करके उम्र भर बीमारियों को दूर रख सकता है। प्रो. मार्गन कहते हैं कि विभिन्न आवृत्तियों और ध्वनियों के उतार-चढ़ाव से पैदा करने वाले कम्पन मृत कोशिकाओं को पुनर्जीवित करते हैं और नयी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। के जप से मस्तिष्क से लेकर नाक, गला, हृदय और पेट में तीव्र तरंगों का संचार होता है। इस कारण पूरे शरीर में रक्त का संचरण भी सुव्यवस्थित होता है। अधिकांश बीमारियाँ रक्तदोष से पैदा होती है, इसलिए का जप रक्तविकार दूर करके शरीर में स्फूर्ति बनाये रखता है। प्रो. जे. मार्गन और उनके सहयोगियों द्वारा किये गये इस अनुसंधान से विश्व के लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट हो रहा है। हजारों वर्ष पूर्व से हमारे शास्त्रों में के विषय में विलक्षण जानकारियाँ उपलब्ध हैं।

ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमं गतिम्।।

ʹजो पुरुष ʹʹ इस एक अक्षररूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।ʹ (8.13)

महर्षि पतंजलि प्रणीत ʹयोगदर्शनʹ में कहा गया है।

तस्य वाचक प्रणवः। तज्जपस्तदर्धभावनम्। (समाधिपाद, सूत्रः27-28)

ʹईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव (कार) है। उस करा का जप, उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का पुनःपुनः स्मरण-चिंतन करना चाहिए।ʹ

महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं-

मन्त्राणां प्रणवः सेतुः.... मंत्रों को पार करने के लिए अर्थात् सिद्धि के लिए पुल के सदृश है।

गुरु नानकदेव जी ने भी कहा हैः

शब्द जप रे, कार गुरमुख तेरे।

अस्वर सुनहु विचार, अस्वर त्रिभुवन सार। प्रणवों आदि एक ओंकारा, जल, थल महियल कियो पसारा।।

इक कार सतिनामु।

बौद्ध धर्म का परम पवित्र मंत्र हैः ओं मणि पदमे हुँ।

ʹप्रश्नोपनिषद्ʹ में महर्षि पिप्पलाद कहते हैं-

ʹहे सत्यकाम ! निश्चय ही यह जो कार है वही परब्रह्म और अपर ब्रह्म भी है।ʹ (प्रश्नोपनिषद् 5.2) विषय-सूची

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कार का अलख

यह स्मरण रखें, रोग, बीमारी, अशांति स्थूल, सूक्ष्म शरीर तक हैं। आप तक उनकी दाल नहीं गलती। आप परमात्मा के अमृत पुत्र हैं। आनंद..... अमर आत्मा... चैतन्य ... ये नश्वर, आप शाश्वत, ये अनित्य, आने जाने वाले हैं, आप नित्य हैं।

.......... आनंद.... आनन्द..... आरोग्य.... आरोग्य.... ....

पूज्य बापूजी का 1 दिन भी बिना कार उच्चारण के नहीं जाता। रोज उनके द्वारा स्वाभाविक ही दिन में कई बार का उच्चारण होता है। 25-30 वर्षों से पूज्य बापू जी कार का अलख जगा रहे हैं। विषय-सूची

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सफलता का रहस्य

ब्रह्मचर्य का पालन एवं भगवान का ध्यान, इन दोनों ने गामा पहलवान को विश्वविजयी बना दिया ! जिसके जीवन में संयम हैं, सदाचार है एवं ईश्वरप्रीति है वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल होता ही है, इसमें सन्देह नहीं है।

पूज्य बापू जी की प्रेरणादायी वाणी

प्रसिद्ध गामा पहलवान, जिसका मूल नाम गुलाम हुसैन था, से पत्रकार जैका फ्रेड ने पूछाः "आप एक हजार से भी ज्यादा कुश्तियाँ लड़ चुके हैं। कसम खाने के लिए भी लोग दो पाँच कुशतियाँ हार जाते हैं। आपने हजारों कुश्तियों में विजय पायी है और आज तक हारे नहीं हैं। आपकी इस विजय का क्या रहस्य है ?

गुलाम हुसैन (गामा पहलवान) ने कहाः "मैं किसी महिला की तरफ बुरी नजर से नहीं देखता हूँ। मैं जब कुश्ती में उतरता हूँ तो गीतानायक श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ और बल के लिए प्रार्थना करता हूँ। इसीलिए हजारों कुश्तियों में मैं एक भी कुश्ती हारा नहीं हूँ। यह संयम और श्रीकृष्ण के ध्यान की महिमा है।"

युवानों को चाहिए कि गामा पहलवान के जीवन से प्रेरणा लें एवं किसी भी स्त्री के प्रति कुदृष्टि न रखें। इसी प्रकार युवतियाँ भी किसी पुरुष के प्रति कुदृष्टि न रखें। यदि युवक-युवतियों ने इतना भी कर लिया तो पतन की खाई में गिरने से बच जायेंगे क्योंकि विकार पहले नेत्रों से ही घुसता है, बाद में मन पर उसका प्रभाव पड़ता है। फिल्म के अश्लील दृश्य या उपन्यासों के अश्लील वाक्य मनुष्य के मन को विचलित कर देते हैं और वह भोगों में जा गिरता है। अतः सावधान ! विषय-सूची

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ब्रह्मचारी ही श्रेष्ठ है

"राजन् (युधिष्ठिर) ! जो मनुष्य आजन्म पूर्ण ब्रह्मचारी रहता है, उसके लिए इस संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जो वह प्राप्त न कर सके। एक मनुष्य चारों वेदों को जानने वाला हो और दूसरा पूर्ण ब्रह्मचारी हो तो इन दोनों में ब्रह्मचारी ही श्रेष्ठ है" (भीष्म पितामह)

विषय-सूची

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ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसाराम जी बापू का संदेश

हमारे देश का भविष्य हमारी युवा पीढ़ी पर निर्भर है किन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में वह आज गुमराह हो रही है। पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता के दुष्प्रभाव से उसके यौवन का ह्रास होता जा रहा है। दूरदर्शन, विदेशी चैनल, चलचित्र, अश्लील साहित्य आदि प्रचार माध्यमों के द्वारा युवक-युवतियों को गुमराह किया जा रहा है। विभिन्न सामयिकों और समाचार पत्रों में भी तथाकथित पाश्चात्य मनोविज्ञान से प्रभावित मनोचिकित्सक और सेक्सोलॉजिस्ट युवा छात्र-छात्राओं को चरित्र, संयम और नैतिकता से भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं।

ब्रितानी औपनिवेशक संस्कृति की देन वर्त्तमान शिक्षा-प्रणाली में जीवना के नैतिक मूल्यों के प्रति उदासीनता बरती गयी है। फलतः आज के विद्यार्थी का जीवन कौमार्यावस्था से ही विलासी और असंयमी हो जाता है।

पाश्चात्य आचार-व्यवहार के अंधानुकरण से युवानों में जो फैशनपरस्ती, अशुद्ध आहार विहार के सेवन की प्रवृत्ति, कुसंग, अभद्रता, चलचित्र-प्रेम आदि बढ़ रहे हैं उससे दिनों दिन उनका पतन होता जा रहा है। वे निर्बल और कामी बनते जा रहे हैं। उनकी इस अवदशा को देखकर ऐसा लगता है कि वे ब्रह्मचर्य की महिमा से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। लाखों नहीं, करोड़ों-करोड़ों छात्र-छात्राएँ अज्ञानतावश अपने तन मन के मूल ऊर्जा-स्रोत का व्यर्थ में अपक्षय कर पूरा जीवन दीनता-हीनता-दुर्बलता में तबाह कर देते हैं और सामाजिक अपयश के भय से मन ही मन कष्ट झेलते रहते हैं। इससे उनका शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, सामान्य शारीरिक-मानसिक विकास भी नहीं हो पाता। ऐसे युवान रक्ताल्पता, विस्मरण तथा दुर्बलता से पीड़ित होते हैं।

यही वजह है कि हमारे देश में औषधालयों, चिकत्सालयों, हजारों प्रकार की एलोपैथिक दवाइयों, इंजैक्शनों आदि की लगातार वृद्धि होती जा रही है। असंख्य डॉक्टरों ने अपनी-अपनी दुकानें खोल रखी हैं, फिर भी रोग एवं रोगियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसका मूल कारण क्या है? दुर्व्यसन तथा अनैतिक, अप्राकृतिक एवं अमर्यादित मैथुन द्वारा वीर्य की क्षति ही इसका मूल कारण है। इसकी कमी से रोग-प्रतिकारक शक्ति घटती है, जीवन शक्ति का ह्रास होता है।

इस देश को यदि जगदगुरू के पद आसीन होना है, विश्व-सभ्यता एवं विश्व-संस्कृति का सिरमौर बनना है, उन्नत स्थान फिर से प्राप्त करना है तो यहाँ की सन्तानों को चाहिए कि वे ब्रह्मचर्य के महत्त्व को समझें और सतत् सावधान रहकर सख्ती से इसका पालन करें।

ब्रह्मचर्य के द्वारा ही हमारी युवा पीढ़ी अपने व्यक्तित्व का संतुलित एवं श्रेष्ठतर विकास कर सकती है। ब्रह्मचर्य के पालन से बुद्धि कुशाग्र बनती है, रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है तथा महान-से-महान लक्ष्य निर्धारित करने एवं उसे सम्पादित करने का उत्साह उभरता है, संकल्प में दृढ़ता आती है, मनोबल पुष्ट होता है।

आध्यात्मिक विकास का मूल भी ब्रह्मचर्य ही है। हमारा देश औद्योगिक, तकनीकी और आर्थिक क्षेत्र में चाहे कितना भी विकास कर ले, समृद्धि प्राप्त कर ले फिर भी यदि युवाधन की सुरक्षा न हो पायी तो यह भी भौतिक विकास अंत में महाविनाश की ओर ही ले जाएगा। क्योंकि संयम, सदाचार आदि के परिपालन से ही कोई भी सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चल सकती है। अतः भारत का सर्वांगीण विकास सच्चरित्र एवं संयमी युवाधन पर ही आधारित है।

अतः हमारे युवाधन छात्र-छात्राओं को ब्रह्मचर्य में प्रशिक्षित करने के लिए उन्हें यौन-स्वास्थ्य, आरोग्यशास्त्र, दीर्घायु-प्राप्ति के उपाय तथा कामवासना नियंत्रित करने की विधि का स्पष्ट ज्ञान प्रदान करना हम सबका अनिवार्य कर्त्तव्य है। इसकी अवहेलना हमारे देश व समाज के हित में नहीं है। यौवन सुरक्षा से ही सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। विषय-सूची

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राजा जनक शुकदेव जी से बोलेः

तपसा गुरुवत्त्या च ब्रह्मचर्पेण वा विभो।

ʹबाल्यावस्था में विद्यार्थी को तपस्या, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य का पालन एवं वेदाध्ययन करना चाहिए।ʹ (महाभारत, मोक्षधर्म पर्वः 326.15)

ʹजो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य के द्वारा भगवान के लोक को प्राप्त कर लेते हैं, फिर उनके लिए ही वह स्वर्ग है। वे किसी भी लोक में क्यों न हों, मुक्त हैं।ʹ छान्दोग्य उपनिषद

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क्या है ब्रह्मचर्य ?

कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।

सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते।।

ʹसर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं।ʹ (याज्ञवल्क्य संहिता)

 

भगवान वेदव्यासजी ने कहा है :

ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रिस्योपस्थस्य संयमः |

विषय-इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले सुख का संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है |

 

भगवान शंकर कहते हैं :

सिद्धे बिन्दौ महादेवि किं न सिद्धयति भूतले |

हे पार्वत! बिन्दु अर्थात वीर्यरक्षण सिद्ध होने के बाद कौन-सी सिद्धि है, जो साधक को प्राप्त नहीं हो सकती ?

 

साधना द्वारा जो साधक अपने वीर्य को ऊर्ध्वगामी बनाकर योगमार्ग में आगे बढ़ते हैं, वे कई प्रकार की सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं | ऊर्ध्वरेता योगी पुरुष के चरणों में समस्त सिद्धियाँ दासी बनकर रहती हैं | ऐसा ऊर्ध्वरेता पुरुष परमानन्द को जल्दी पा सकता है अर्थात् आत्म-साक्षात्कार जल्दी कर सकता है |

देवताओं को देवत्व भी इसी ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त हुआ है:

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत |

इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत ||

ब्रह्मचर्यरूपी तप से देवों ने मृत्यु को जीत लिया है | देवराज इन्द्र ने भी ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही देवताओं से अधिक सुख व उच्च पद को प्राप्त किया है |

(अथर्ववेद 1.5.19)

ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है | वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है |

ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तप है

 ऐसे तो तपस्वी लोग कई प्रकार के तप करते हैं, परन्तु ब्रह्मचर्य के बारे में भगवान शंकर कहते हैं:

न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्यं तपोत्तमम् |

ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः ||

ब्रह्मचर्य ही उत्कृष्ट तप है | इससे बढ़कर तपश्चर्या तीनों लोकों में दूसरी नहीं हो सकती | ऊर्ध्वरेता पुरुष इस लोक में मनुष्यरूप में प्रत्यक्ष देवता ही है |

जैन शास्त्रों में भी इसे उत्कृष्ट तप बताया गया है |

तवेसु वा उत्त्मं बंभचेरम् |

ब्रह्मचर्य सब तपों में उत्तम तप है |

ब्रह्मचर्य परम बल है

 वीर्य इस शरीररूपी नगर का एक तरह से राजा ही है | यह वीर्यरूपी राजा यदि पुष्ट है, बलवान् है तो रोगरूपी शत्रु कभी शरीररूपी नगर पर आक्रमण नही करते | जिसका वीर्यरूपी राजा निर्बल है, उस शरीररूपी नगर को कई रोगरूपी शत्रु आकर घेर लेते हैं | इसीलिए कहा गया है :

मरणं बिन्दोपातेन जीवनं बिन्दुधारणात् |

बिन्दुनाश (वीर्यनाश) ही मृत्यु है और बिन्दुरक्षण ही जीवन है |

जैन ग्रंथों में अब्रह्मचर्य को पाप बताया गया है :

अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिठ्ठियम् |

 

अब्रह्मचर्य घोर प्रमादरूप पाप है | (दश वैकालिक सूत्र: 6.17)

अथर्वेद में इसे उत्कृष्ट व्रत की संज्ञा दी गई है:

व्रतेषु वै वै ब्रह्मचर्यम् |

वैद्यकशास्त्र में इसको परम बल कहा गया है :

ब्रह्मचर्यं परं बलम् | ब्रह्मचर्य परम बल है |

वीर्यरक्षण की महिमा सभी ने गायी है | योगीराज गोरखनाथ ने कहा है :

कंत गया कूँ कामिनी झूरै | बिन्दु गया कूँ जोगी ||

पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन से योगी पश्चाताप करता है |

भगवान शंकर ने तो यहाँ तक कह दिया कि इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान् महिमा हुई है :

यस्य प्रसादान्महिमा ममाप्येतादृशो भवेत् |विषय-सूची

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आकर्षक व्यक्तित्व का कारण

इस वीर्य के संयम से शरीर में एक अदभुत आकर्षक शक्ति उत्पन्न होती है जिसे प्राचीन वैद्य धन्वंतरि ने ओज नाम दिया है | यही ओज मनुष्य को अपने परम-लाभ आत्मदर्शन कराने में सहायक बनता है | आप जहाँ-जहाँ भी किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ विशेषता, चेहरे पर तेज, वाणी में बल, कार्य में उत्साह पायेंगे, वहाँ समझो इस वीर्य रक्षण का ही चमत्कार है |

वीर्य कैसे बनता है

वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान् धातु है | भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है | श्री सुश्रुताचार्य ने लिखा है :

 

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते |

मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जाया: शुक्रसंभवः ||

 जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है | पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है | पाँच दिन बाद रक्त में से मांस, उसमें  से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है | स्त्री में जो यह धातु बनती है उसे रज कहते हैं |

वीर्य किस प्रकार छः-सात मंजिलों से गुजरकर अपना यह अंतिम रूप धारण करता है, यह सुश्रुत के इस कथन से ज्ञात हो जाता है | कहते हैं कि इस प्रकार वीर्य बनने में करीब 30 दिन व 4 घण्टे लग जाते हैं | वैज्ञनिक लोग कहते हैं कि 32 किलोग्राम भोजन से 700 ग्राम रक्त बनता है और 700 ग्राम रक्त से लगभग 20 ग्राम वीर्य बनता है | यदि एक साधारण स्वस्थ मनुष्य एक दिन में 700 ग्राम भोजन के हिसाब से चालीस दिन में 32 किलो भोजन करे, तो समझो उसकी 40 दिन की कमाई लगभग 20 ग्राम वीर्य होगी | 30 दिन अर्थात महीने की करीब 15 ग्राम हुई और 15 ग्राम या इससे  कुछ अधिक वीर्य एक बार के मैथुन में पुरुष द्वारा खर्च होता हैविषय-सूची

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माली की कहानी

एक था माली | उसने अपना तन, मन, धन लगाकर कई दिनों तक परिश्रम करके एक सुन्दर बगीचा तैयार किया | उस बगीचे में भाँति-भाँति के मधुर सुगंध युक्त पुष्प खिले | उन पुष्पों को चुनकर उसने इकठ्ठा किया और उनका बढ़िया इत्र तैयार किया | फिर उसने क्या किया समझे आप …? उस इत्र को एक गंदी नाली ( मोरी ) में बहा दिया |

अरे ! इतने दिनों के परिश्रम से तैयार किये गये इत्र को, जिसकी सुगन्ध से सारा घर महकने वाला था, उसे नाली में बहा दिया ! आप कहेंगे कि वह माली बड़ा मूर्ख था, पागल था …’ मगर अपने आपमें ही झाँककर देखें | वह माली कहीं और ढूँढ़ने की जरूरत नहीं है | हममें से कई  लोग ऐसे ही माली हैं |

वीर्य बचपन से लेकर आज तक यानी 15-20 वर्षों में तैयार होकर ओजरूप में शरीर में विद्यमान रहकर तेज, बल और स्फूर्ति देता रहा | अभी भी जो करीब 30 दिन के परिश्रम की कमाई थी, उसे यूँ ही सामान्य आवेग में आकर अविवेकपूर्वक खर्च कर देना कहाँ की बुद्धिमानी है ?

क्या यह उस माली जैसा ही कर्म नहीं है ? वह माली तो दो-चार बार यह भूल करने के बाद किसी के समझाने पर सँभल भी गया होगा, फिर वही-की-वही भूल नही दोहराई होगी, परन्तु आज तो कई लोग वही भूल दोहराते रहते हैं | अंत में पश्चाताप ही हाथ लगता है |

क्षणिक सुख के लिये व्यक्ति कामान्ध होकर बड़े उत्साह से इस मैथुनरूपी कृत्य में पड़ता है परन्तु कृत्य पूरा होते ही वह मुर्दे जैसा हो जाता है | होगा ही | उसे पता  ही नहीं कि सुख तो नहीं मिला, केवल सुखाभास हुआ, परन्तु उसमें  उसने 30-40 दिन की अपनी कमाई खो दी |

युवावस्था आने तक वीर्यसंचय होता है वह शरीर में ओज के रूप में स्थित रहता है | वह तो वीर्यक्षय से नष्ट होता ही है, अति मैथुन से तो हड्डियों में से भी कुछ सफेद अंश निकलने लगता है, जिससे अत्यधिक कमजोर होकर लोग नपुंसक भी बन जाते हैं | फिर वे किसी के सम्मुख आँख उठाकर भी नहीं देख पाते | उनका जीवन नारकीय बन जाता है | विषय-सूची

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भृगुवंशी ऋषि जनकवंश के राजकुमार से कहते हैं-

मनसोप्रतिकूलानि प्रेत्य चेह च वांछसि।

भूतानां प्रतिकूलेभ्यो निवर्तस्व यतेन्द्रियः।।

ʹयदि तुम इस लोक और परलोक में अपने मन के अनुकूल वस्तुएँ पाना चाहते हो तो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखकर समस्त प्राणियों के प्रतिकूल आचरणों से दूर हट जाओ।ʹ (महाभारत, मोक्षधर्म पर्वः 309,5)

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः पाश्चात्य संगीत (रॉक म्यूजिक और पॉप म्यूजिक) सुनने से तथा उनके कार्यक्रम (पॉप एलबम आदि) देखने से क्या हानि होती है ?

उत्तरः ये हृदय के शुद्ध भावों को कुंठित करके मन, बुद्धि को विकार तथा बुरे विचारों से भर देते हैं। डॉ. डायमंड ने प्रयोग द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि ऐसे संगीत से जीवनशक्ति का अत्यधिक ह्रास होता है।

प्रयोगः सामान्यतया स्वस्थ व्यक्ति के हाथ का एक स्नायु (डेल्टोइडः 40 से 45 कि.ग्रा. वजन उठा सकता है। जब मनुष्य रॉक म्यूजिक सुनता है तब उसकी क्षमता घटकर केवल 10 से 15 कि.ग्रा. वजन उठाने की रह जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य संगीत से जीवनशक्ति का ह्रास होता है। विषय-सूची

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संयम की आवश्यकता

"सदाचारी एवं संयमी व्यक्ति ही जीवन के प्रत्येक

क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।"

जब स्वामी विवेकानंद जी विदेश में थे, तब ब्रह्मचर्य की चर्चा छिड़ने पर उन्होंने कहाः "कुछ दिन पहले एक भारतीय युवक मुझसे मिलने आया था। वह करीब दो वर्ष से अमेरिका में ही रहता है। वह युवक संयम का पालन बड़ी दृढ़ता पूर्वक करता है। एक बार वह बीमार हो गया तो उसने डॉक्टर को बताया। तुम जानते हो डॉक्टर ने उस युवक को क्या सलाह दी ? कहाः "ब्रह्मचर्य प्रकृति के नियम के विरूद्ध है। अतः ब्रह्मचर्य का पालन करना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।ʹ

उस युवक को बचपन से ही ब्रह्मचर्य-पालन के संस्कार मिले थे। डॉक्टर की ऐसी सलाह से वह उलझन में पड़ गया। वह मुझसे मिलने आया एवं सारी बातें बतायीं। मैंने उसे समझायाः तुम जिस देश के वासी हो वह भारत आज भी अध्यात्म के क्षेत्र में विश्वगुरु के पद पर आसीन है। अपने देश के ऋषि-मुनियों के उपदेश पर तुम्हें ज्यादा विश्वास है कि ब्रह्मचर्य को जरा भी न समझने वाले पाश्चात्य जगत के असंयमी डॉक्टर पर ? ब्रह्मचर्य को प्रकृति के नियम के विरूद्ध कहने वालों को ब्रह्मचर्य शब्द के अर्थ का भी पता नहीं है। ब्रह्मचर्य के विषय़ में ऐसे गलत ख्याल रखने वालों से एक ही प्रश्न है कि आपमें और पशुओं में क्या अन्तर है ?"

ब्रह्मचर्य सभी अवस्थाओं में विद्यार्थी, गृहस्थी, साधु-सन्यासी, सभी के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

सदाचारी एवं संयमी व्यक्ति ही  जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। चाहे बड़ा वैज्ञानिक हो या दार्शनिक, विद्वान हो या बड़ा उपदेशक, सभी को संयम की जरूरत है। स्वस्थ रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है, सुखी रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है और सम्मानित रहना हो तब भी ब्रह्मचर्य की जरूरत है।

स्वामी विवेकानन्द के जीवन में संयम था तभी तो उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय अध्यात्म-ज्ञान का ध्वज फहरा दिया। हे भारत के युवक व युवतियो ! यदि जीवन  संयम, सदाचार को अपना लो तो तुम भी महान से महान कार्य करने में सफल हो सकते हो।

विषय-सूची

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संयम की महिमा

आजकल के युवक-युवतियों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है। उन पर चारों ओर से विकारों को भड़काने वाले आक्रमण होते रहे हैं। एक तो वैसे ही अपनी पाशवी वृत्तियाँ यौन उच्छृंखलता की ओर प्रोत्साहित करती हैं और दूसरा, सामाजिक परिस्थितियाँ भी उसी ओर का आकर्षण बढ़ाती हैं। इस पर उन प्रवृत्तियों को वैज्ञानिक समर्थन मिलने लगे और संयम को हानिकारक बताया जाने लगे..... कुछ तथाकथित आचार्य भी फ्रायड जैसे नास्तिक व अधूरे मनोवैज्ञानिक के व्यभिचारशास्त्र को आधार बनाकर (सम्भोग से समाधि) का उपदेश देने लगें, तब तो ईश्वर ही ब्रह्मचर्य व दाम्पत्य जीवन की पवित्रता के रक्षक हैं।

16 सितम्बर 1977 के ʹन्यूयार्क टाइम्स में छपा थाः ʹअमेरिकन पेनल कहती है कि अमेरिका में दो करोड़ से अधिक लोगों को मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता है।ʹ इन परिणामों को देखते हुए अमेरिका के एक महान लेखक, सम्पादक व शिक्षा विशारद मार्टिन ग्रोस अपनी पुस्तक ʹThe Psychological Societyʹ में लिखते हैं- ʹहम जितना समझते हैं उससे कहीं ज्यादा फ्रायड के मानसिक रोगों ने हमारे मानस व समाज में गहरा प्रवेश पा लिया है। यदि हम इतना जान लें कि उसकी बातें प्रायः उसके विकृत मानस का ही प्रतिबिम्ब हैं और उसके मानसिक विकृतियों वाले व्यक्तित्व को पहचान लें तो उसके विकृत प्रभाव से बचने में सहायता मिल सकती है। अब हमें फ्रायड की छाया में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए।ʹ

आधुनिक मनोविज्ञान का मानसिक विश्लेषण, मनोरोग शास्त्र और मानसिक रोग की चिकित्सा – ये फ्रायड के रुग्ण मन के प्रतिबिम्ब हैं। फ्रायड स्वयं स्पास्टिक कोलोन (प्रायः सदा रहने वाला मानसिक अवसाद), स्नायविक रोग, सजातीय संबंध, विकृत स्वभाव, माइग्रेन, कब्ज, प्रवास, मृत्यु व धननाश का भय, साइनोसाइटिस, घृणा और खूनी विचारों के दौरे आदि रोगों से पीड़ित था। स्वयं के जीवन में संयम का नाश कर दूसरों को भी घृणित सीख देने वाला फ्रायड इतना रोगी और अशांत होकर मरा। क्या आप भी ऐसा बनना चाहते हैं ? आत्महत्या के शिकार बनना चाहते हैं ? उसके मनोविज्ञान ने विदेशी युवक युवतियों को रोगी बनाकर उनके जीवन का सत्यानाश कर दिया। ʹसम्भोग से समाधिʹ का प्रचार फ्रायड की रूग्ण मनोदशा का ही प्रचार है। प्रो. एडलर और प्रो. सी.जी. जुंग जैसे मूर्धन्य मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के सिद्धान्तों का खंडन कर दिया है, फिर भी यह खेद की बात है कि भारत में अभी भी कई मानसिक रोग विशेषज्ञ और सैक्सोलॉजिस्ट फ्रायड जैसे पागल व्यक्ति के सिद्धान्तों का आधार लेकर इस देश के युवक-युवतियों को अनैतिक और अप्राकृतिक मैथुन का, सम्भोग का संदेश व इसका समर्थन समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के द्वारा देते रहते हैं। फ्रायड ने तो मृत्यु से पहले अपने पागलपन को स्वीकार किया था लेकिन उसके अनुयायी स्वयं स्वीकार न करें तो भी अनुयायी तो पागल के ही माने जायेंगे। अब वे इस देश के लोगों को चरित्रभ्रष्ट और गुमराह करने का पागलपन छोड़ दें, ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। ʹदिव्य प्रेरणा-प्रकाशʹ पुस्तक पाँच बार पढ़ें, पढ़ायें, इसी में सबका कल्याण है।

विषय-सूची

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सफलता का द्वार खुल गया....

जब में मैंने पूज्य बापूजी का मार्गदर्शन व आशीर्वाद पाया है, तब से मेरे जीवन में सफलता का द्वार खुल गया है। ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ ग्रंथ देश के हर युवक-युवती को पढ़ना चाहिए।" ईशांत शर्मा (भारतीय क्रिकेटर)

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जीवन को महान बनाना है तो.....

भारतीय मनोवैज्ञानिक महर्षि पतंजलि के सिद्धान्तों पर चलने वाले हजारों योगसिद्ध महापुरुष इस देश में हुए हैं, अभी भी हैं और आगे भी होते रहेंगे। बापूजी ने स्वयं ऐसे अदृश्य होने वाले कई सिद्धियों के धनी योगियों से भेंट की हुई है। जैसे-बापूजी के मित्र संत नारायण बापू, जिनके आशीर्वाद ले के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह धन्य हुए, आनंदमयी माँ, जिनके चरणों में जा के इंदिरा गाँधी धन्य होती थीं, ऐसे ही हिमालय में वर्षों की समाधि से सम्पन्न लम्बी आयुवाले महापुरुष मिले हैं, मिलते हैं।

महर्षि योगानंद, स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज और पूज्य बापूजी भी ऐसे कई महापुरुषों से मिले हैं। योगी चांगदेव और ज्ञानेश्वर महाराज तो लोकप्रसिद्ध हैं ही। महर्षि पतंजलि के सिद्धान्तों पर चलकर ऊँचाई को प्राप्त हुए और भी कई महापुरुष तथा राजा अश्वपति, राजा जनक और समर्थ रामदासजी, शिवाजी जैसे प्रसिद्ध और कई अप्रसिद्ध अनकों उदाहरण इतिहास में देखने को मिलते हैं। जबकि सम्भोग के मार्ग पर चलकर कोई योगसिद्ध महापुरुष हुआ हो ऐसा हमने तो नहीं सुना, बल्कि दुर्बल हुए, रोगी हुए, एड्स के शिकार हुए, अकाल मृत्यु के शिकार हुए, खिन्नमना हुए, अशांत हुए, पागल हुए, ऐसे कई नमूने हमने देखे हैं।

जो लोग मानव-समाज को पशुता में गिरने से बचाना चाहते हैं, भावी पीढ़ी का जीवन पैशाचिक होने से बचाना चाहते हैं, युवानों का शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता और बौद्धिक सामर्थ्य बनाये रखना चाहते हैं, इस देश के नागरिकों को एड्स जैसी घातक बीमारियों से ग्रस्त होने से बचाना चाहते हैं, स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते हैं उन सबका यह नैतिक कर्तव्य है कि वे गुमराह युवा पीढ़ी को ʹदिव्य प्रेरणा-प्रकाशʹ जैसी पुस्तक पढ़ायें।

विषय-सूची

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संयम की शक्ति से

ब्रह्मचर्य के पालन से स्वास्थ्य का संचार करें।

शक्ति का विकास करें चरित्र का निर्माण करें।।टेक।।-1

यौवन की सुरक्षा से जीवन का उद्धार करें।

संयम की शक्ति से सर्वांगीण विकास करें।।

यौवन धन बरबाद हुआ है स्वच्छन्दी उच्छृंखल जीवन से,

सीरियल-चलचित्रों से, अश्लील वेब-साइट, साहित्यों से।

इन सबको अब छोड़ के अपने यौवन को महकायें,

संतों के सत्संग में जाकर जीवन धन्य बनायें।।

ब्रह्मचर्य के पालन से...।।टेक।।

संयमहीन देशों में हुई है यौवन धन की तबाही,

तन-मन के कई रोग बढ़े हैं दुष्ट चरित्र अपराधी।

छोड़ के उनका अंध अनुकरण अपना देश बचायें,

ध्यान योग सेवा भक्ति से संस्कृति को अपनायें।।

ब्रह्मचर्य के पालन से...।।टेक।।

संयम से ही शक्ति मिलेगी तन-मन स्वस्थ रहेंगे,

बुद्धि खूब कुशाग्र बनेगी नित्य प्रसन्न रहेंगे।

जीवन के हर किसी क्षेत्र में उन्नति हो के रहेगी,

लौकिक और पारलौकिक जग में प्रगति हो के रहेगी।।

ब्रह्मचर्य के पालन से....।।टेक।।

देख लो अपनी संस्कृति में संयमी वीर हुए हैं,

महावीर और भीष्मपितामह जैसे वीर हुए हैं।

संयम की सीख उनसे ले के हम भी वीर बनेंगे,

विश्वगुरु के पद पर स्थापित अपना देश करेंगे।।

ब्रह्मचर्य के पालन से.....।।टेक।।

यौवन की सुरक्षा से.....

विषय-सूची

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गलत अभ्यास का दुष्परिणाम

आज संसार में कितने ही ऐसे  अभागे लोग हैं, जो शृंगार रस की पुस्तकें पढ़कर, सिनेमाओं के कुप्रभाव के शिकार होकर स्वप्नावस्था या जाग्रतावस्था में अथवा तो हस्तमैथुन द्वारा सप्ताह में कितनी बार वीर्यनाश कर लेते हैं | शरीर और मन को ऐसी आदत डालने से वीर्याशय बार-बार खाली होता रहता है | उस वीर्याशय को भरने में ही शारीरिक शक्ति का अधिकतर भाग व्यय होने लगता है, जिससे शरीर को कांतिमान् बनाने वाला ओज संचित ही नहीं हो पाता और व्यक्ति शक्तिहीन, ओजहीन और उत्साहशून्य बन जाता है | ऐसे व्यक्ति  का  वीर्य  पतला  पड़ता  जाता है | यदि वह समय पर अपने को सँभाल नहीं सके तो शीघ्र  ही वह स्थिति आ जाती है कि उसके अण्डकोश वीर्य बनाने में असमर्थ हो जाते हैं | फिर भी यदि थोड़ा बहुत वीर्य बनता है तो वह भी पानी जैसा ही बनता है जिसमें सन्तानोत्पत्ति की ताकत नहीं होती | उसका जीवन जीवन नहीं रहता | ऐसे व्यक्ति की हालत मृतक पुरुष जैसी हो जाती है | सब प्रकार के रोग उसे घेर लेते हैं | कोई दवा उस पर असर नहीं कर पाती | वह व्यक्ति जीते जी नर्क का दुःख भोगता रहता है | शास्त्रकारों ने लिखा है :

आयुस्तेजोबलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महदयशः |

पुण्यं च प्रीतिमत्वं च हन्यतेऽब्रह्मचर्या ||

आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, यश तथा पुण्य और प्रीति ये सब ब्रह्मचर्य का पालन न करने से नष्ट हो जाते हैं |

इसीलिए वीर्यरक्षा स्तुत्य है | अथर्ववेद में कहा गया है :

अति सृष्टो अपा वृषभोऽतिसृष्टा अग्नयो दिव्या ||1||

इदं तमति सृजामि तं माऽभ्यवनिक्षि ||2||

अर्थात् शरीर में व्याप्त वीर्य रूपी जल को बाहर ले जाने वाले, शरीर से अलग कर देने वाले काम को मैंने परे हटा दिया है | अब मैं इस काम को अपने से सर्वथा दूर फेंकता हूँ | मैं इस आरोग्यता, बल-बुद्धिनाशक काम का कभी शिकार नहीं होऊँगा |

और इस प्रकार के संकल्प से अपने जीवन का निर्माण न करके जो व्यक्ति वीर्यनाश करता रहता  है, उसकी क्या गति होगी, इसका भी अथर्ववेद में उल्लेख आता है :

रुजन् परिरुजन् मृणन् परिमृणन् |

म्रोको मनोहा खनो निर्दाह आत्मदूषिस्तनूदूषिः ||

यह काम रोगी बनाने वाला है, बहुत बुरी तरह रोगी करने वाला है | मृणन् यानी मार देने वाला है | परिमृणन् यानी बहुत बुरी तरह मारने वाला है |यह टेढ़ी चाल चलता है, मानसिक शक्तियों को नष्ट कर देता है | शरीर में से स्वास्थ्य, बल, आरोग्यता आदि को खोद-खोदकर बाहर फेंक देता है | शरीर की सब धातुओं को जला देता है | आत्मा को मलिन कर देता है | शरीर के वात, पित्त, कफ को दूषित करके उसे तेजोहीन बना देता है |

विषय-सूची

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विद्वानों, चिंतकों और चिकित्सकों की दृष्टि में ब्रह्मचर्य

ब्रह्म के लिए चर्या (आचरण) ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य अर्थात् सभी इन्द्रियों पर संयम, सभी इन्द्रियों का उचित उपयोग। (संत विनोबा भावे)

दुःख के मूल को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। (महात्मा बुद्ध)

नवयुवकों के लिए ब्रह्मचर्य शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक – तीनों दृष्टियों से उनकी रक्षा करता है। (डॉ. पेरियर)

ब्रह्मचर्य जीवन-वृक्ष का पुष्प है और प्रतिभा, पवित्रता, वीरता आदि गुण उसके कतिपय फल हैं। (महात्मा थोरो)

समाज में सुख-शांति की वृद्धि के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिए। इससे मानव जीवन का विकास होता है और समाज की भित्ति बलवान होती है। (महात्मा टॉलस्टॉय)

ब्रह्मचारी अपना प्रत्येक कार्य निरंतर करता रहता है। उसे प्रायः थकान नहीं लगती। वह कभी चिंतातुर नहीं होता। उसका शरीर सुदृढ़ होता है। उसका मुख तेजस्वी होता है। उसका स्वभाव आनंदी और उत्साही होता है। (डॉ. एक्सन)

वीर्य को पानी की भाँति बहाने वाले आजकल के अविवेकी युवाओं के शरीर को भयंकर रोग इस प्रकार घेर लेते हैं कि डॉक्टर की शरण में जाने पर भी उनका उद्धार नहीं होता। अंत में बड़ी कठिन विपत्तियों का सामना करने के बाद असमय ही उन अभागों का महाविनाश हो जाता है। (डॉ. निकोलस)

वीर्ययुक्तता ही साधुता है और निर्वीर्यता ही पाप है, अतः बलवान और वीर्यवान बनने की चेष्टा करनी चाहिए। (स्वामी विवेकानन्दजी)

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सादा रहन सहन बनायें

काफी लोगों को यह भ्रम है कि जीवन तड़क-भड़कवाला बनाने से वे समाज में विशेष माने जाते हैं | वस्तुतः ऐसी बात नहीं है | इससे तो केवल अपने अहंकार का ही प्रदर्शन होता है | लाल रंग के भड़कीले एवं रेशमी कपड़े नहीं पहनो | तेल-फुलेल और भाँति-भाँति के इत्रों का प्रयोग करने से बचो | जीवन में जितनी तड़क-भड़क बढ़ेगी, इन्द्रियाँ उतनी चंचल हो उठेंगी, फिर वीर्यरक्षा तो दूर की बात है |

       इतिहास पर भी हम दृष्टि डालें तो महापुरुष हमें ऐसे ही मिलेंगे, जिनका जीवन  प्रारंभ से ही सादगीपूर्ण था | सादा रहन-सहन तो बडप्पन का द्योतक है | दूसरों को देख कर उनकी अप्राकृतिक व अधिक आवश्यकताओंवाली जीवन-शैली का अनुसरण नहीं करो |

सादा जीवन सच्चा जीवन-2, जग में सबसे अच्छा जीवन।

आडम्बर और दम्भरहित मन-2, सच्ची सम्पत्ति सच्चा है धन।।

सादा जीवन सच्चा जीवन, सादा जीवन।

शुद्ध पवित्र विचार रखो और करो सदा ही अच्छे काम-2

ऐसा काम कभी मत करना, छीने जो मन का विश्राम।

कभी बुरा कोई रूप दिखाकर-2, तुम्हें डरा न पाये दर्पण।।

सादा जीवन सच्चा जीवन, सादा जीवन।

लोभ, मोह, दुर्व्यसन त्याग और वैर बुराई को तज दे।-2

मेहनत की, ईमान की रोटी खाकर ईश्वर को भज ले।

पाप, ताप से मुक्ति पा ले-2, स्वयं सँवार ले अपना जीवन।।

सादा जीवन सच्चा जीवन, सादा जीवन।

परम पिता की परम दया से, मानव जीवन हमें मिला।-2

परम पूज्य गुरुकृपा से इसमें ज्ञान, भक्ति का कमल खिला।

बापू के सत्संग में जैसे-2, पाया हमने प्रकाश महान।।

सादा जीवन सच्चा जीवन...

आडम्बर और दम्भरहित मन....

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आहार विज्ञान

      ईरान के बादशाह वहमन ने एक श्रेष्ठ वैद्य से पूछा :

      दिन में मनुष्य को कितना खाना चाहिए?

      सौ दिराम (अर्थात् 31 तोला) | वैद्य बोला |

      इतने से क्या होगा? बादशाह ने फिर पूछा |

      वैद्य ने कहा : शरीर के पोषण के लिये इससे अधिक नहीं चाहिए | इससे अधिक जो कुछ खाया जाता है, वह केवल बोझा ढोना है और आयुष्य खोना है |

       लोग स्वाद के लिये अपने पेट के साथ बहुत अन्याय करते हैं, ठूँस-ठूँसकर खाते हैं | यूरोप का एक बादशाह स्वादिष्ट पदार्थ खूब खाता था | बाद में औषधियों द्वारा उलटी करके फिर से स्वाद लेने के लिये भोजन करता  रहता था | वह जल्दी मर गया |

       आप स्वादलोलुप नहीं बनो | जिह्वा को नियंत्रण में रखो | क्या खायें, कब खायें, कैसे खायें  और  कितना खायें इसका विवेक नहीं रखा तो पेट खराब होगा, शरीर को रोग घेर लेंगे, वीर्यनाश को प्रोत्साहन मिलेगा और अपने को पतन के रास्ते जाने से नहीं रोक सकोगे |

       प्रेमपूर्वक, शांत मन से, पवित्र स्थान पर बैठ कर भोजन करो | जिस समय नासिका का दाहिना स्वर (सूर्य नाड़ी) चालू हो उस समय किया भोजन शीघ्र पच जाता है, क्योंकि उस समय जठराग्नि बड़ी प्रबल होती है | भोजन के समय यदि दाहिना स्वर चालू नहीं हो तो उसको चालू कर दो | उसकी विधि यह है : वाम कुक्षि में अपने दाहिने हाथ की मुठ्ठी रखकर कुक्षि को जोर से दबाओ या बाँयी (वाम) करवट लेट जाओ | थोड़ी ही देर में दाहिना याने सूर्य स्वर चालू हो जायेगा |

       रात्रि को बाँयी करवट लेटकर ही सोना चाहिए | दिन में सोना उचित नहीं किन्तु यदि सोना आवश्यक हो तो दाहिनी करवट ही लेटना चाहिए |

       एक बात का खूब ख्याल रखो | यदि पेय पदार्थ लेना हो तो जब चन्द्र (बाँया) स्वर चालू हो तभी लो | यदि सूर्य (दाहिना) स्वर चालू हो और आपने दूध, काफी, चाय, पानी या कोई भी पेय पदार्थ लिया तो वीर्यनाश होकर रहेगा | खबरदार ! सूर्य स्वर चल रहा हो तब कोई भी पेय पदार्थ न पियो | उस समय यदि पेय पदार्थ पीना पड़े तो दाहिना नथुना बन्द करके बाँये नथुने से श्वास लेते हुए ही पियो |

      रात्रि को भोजन कम करो | भोजन हल्का-सुपाच्य हो | बहुत गर्म-गर्म और देर से पचने वाला गरिष्ठ भोजन रोग पैदा करता है | अधिक पकाया हुआ, तेल में तला हुआ, मिर्च-मसालेयुक्त, तीखा, खट्टा, चटपटेदार भोजन वीर्यनाड़ियों को क्षुब्ध करता है | अधिक गर्म भोजन और गर्म चाय से दाँत कमजोर होते हैं | वीर्य भी पतला पड़ता है |

       भोजन खूब चबा-चबाकर करो | थके हुए हो तो तत्काल भोजन न करो | भोजन के तुरंत बाद परिश्रम न करो |

       भोजन के पहले पानी न पियो | भोजन के बीच में तथा भोजन के एकाध घंटे के बाद पानी पीना हितकर होता  है |

       रात्रि को संभव हो तो फलाहार लो | अगर भोजन लेना पड़े तो अल्पाहार ही करो | बहुत रात गये भोजन या फलाहार करना हितावह नहीं है | कब्ज की शिकायत हो तो 50 ग्राम लाल फिटकरी तवे पर फुलाकर, कूटकर, कपड़े से छानकर बोतल में भर लो | रात्रि में 15 ग्राम  सौंफ एक गिलास पानी में भिगो दो | सुबह उसे उबाल कर छान लो और ड़ेढ़ ग्राम फिटकरी का पाउडर मिलाकर पी लो | इससे कब्ज व बुखार भी दूर होता है | कब्ज तमाम बिमारियों की जड़ है | इसे दूर करना आवश्यक है |

       भोजन में पालक, परवल, मेथी, बथुआ आदि हरी तरकारियाँ, दूध, घी, छाछ, मक्खन, पके हुए फल आदि विशेष रूप से लो | इससे जीवन में सात्त्विकता बढ़ेगी | काम, क्रोध, मोह आदि विकार घटेंगे | हर कार्य में प्रसन्नता और उत्साह बना रहेगा |

       रात्रि में सोने से पूर्व गर्म-गर्म दूध नहीं पीना चाहिए | इससे रात को स्वप्नदोष हो जाता है |

       कभी भी मल-मूत्र की शिकायत हो तो उसे रोको नहीं | रोके हुए मल से भीतर की नाड़ियाँ क्षुब्ध होकर वीर्यनाश कराती हैं |

       पेट में कब्ज होने से ही  अधिकांशतः रात्रि को वीर्यपात हुआ करता है | पेट में रुका हुआ मल वीर्यनाड़ियों पर दबाव डालता है तथा कब्ज की गर्मी से ही नाड़ियाँ क्षुभित होकर वीर्य को बाहर धकेलती हैं | इसलिये पेट को साफ रखो | इसके लिये कभी-कभी त्रिफला चूर्ण या संतकृपा चूर्ण या इसबगुल पानी के साथ लिया करो | अधिक तिक्त, खट्टी, चरपरी और बाजारू औषधियाँ उत्तेजक होती हैं, उनसे बचो | कभी-कभी उपवास करो | पेट को आराम देने के लिये कभी-कभी निराहार भी रह सकते हो तो अच्छा है |

आहारं पचति शिखी दोषान् आहारवर्जितः |

 अर्थात पेट की अग्नि आहार को पचाती है और उपवास दोषों को पचाता है | उपवास से पाचनशक्ति बढ़ती है |

 

      उपवास अपनी शक्ति के अनुसार ही करो | ऐसा न हो कि एक दिन तो उपवास किया और दूसरे दिन मिष्ठान्न-लड्डू आदि पेट में ठूँस-ठूँस कर उपवास की सारी कसर निकाल दी | बहुत अधिक भूखा रहना भी ठीक नहीं |

       वैसे उपवास का सही अर्थ तो होता है ब्रह्म के, परमात्मा के निकट रहना | उप यानी समीप और वास यानी रहना | निराहार रहने से भगवद्भजन और आत्मचिंतन में मदद मिलती है | वृत्ति अन्तर्मुख होने से काम-विकार को पनपने का मौका ही नहीं मिल पाता |

 मद्यपान, प्याज, लहसुन और मांसाहार ये वीर्यक्षय में मदद करते हैं, अतः इनसे अवश्य बचो |

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः सूर्य नमस्कार क्यों करने चाहिए ?

उत्तरः प्राचीनकाल में हमारे ऋषि मुनियों ने मंत्र और व्यायामसहित एक ऐसी आसन-प्रणाली विकसित की, जिसमें सूर्योपासना का भी समावेश है। इसे सूर्यनमस्कार कहते हैं। इसके नियमित अभ्यास से शारीरिक और मानसिक स्फूर्ति की वृद्धि के साथ विचारशक्ति और स्मरणशक्ति भी तीव्र होती है। पश्चिमी वैज्ञानिक गार्डनर रोनी ने कहा हैः ʹसूर्य श्रेष्ठ औषधि है। सूर्य की किरणों के प्रभाव से सर्दी, खाँसी, न्यूमोनिया और कोढ़ जैसे रोग भी दूर हो जाते हैं। डॉ. सोले कहते हैं- ʹसूर्य में जितनी रोगनाशक शक्ति है, उतनी संसार की किसी अन्य चीज में नहीं है।ʹ विषय-सूची

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सत्संग करो

आप सत्संग नहीं करोगे तो कुसंग अवश्य होगा | इसलिये मन, वचन, कर्म से सदैव सत्संग का ही सेवन करो | जब-जब चित्त में पतित विचार डेरा जमाने लगें तब-तब तुरंत सचेत हो जाओ और वह स्थान छोड़कर पहुँच जाओ किसी सत्संग के वातावरण में, किसी सन्मित्र या सत्पुरुष के सान्निध्य में | वहाँ वे कामी विचार बिखर जायेंगे और आपका तन-मन पवित्र हो जायेगा | यदि ऐसा नहीं किया तो वे पतित विचार आपका पतन किये बिना नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि जो मन में होता है, देर-सबेर उसीके अनुसार बाहर की क्रिया होती है | फिर तुम पछताओगे कि हाय ! यह मुझसे क्या हो गया ?

पानी का स्वभाव है नीचे की ओर बहना | वैसे ही मन का स्वभाव है पतन की ओर सुगमता से बढ़ना | मन हमेशा धोखा देता है | वह विषयों की ओर खींचता है, कुसंगति में सार दिखता है, लेकिन वह पतन का रास्ता है | कुसंगति में कितना ही आकर्षण हो, मगर

जिसके पीछे हो गम की कतारें, भूलकर उस खुशी से न खेलो |

अभी तक गत जीवन में आपका कितना भी पतन हो चुका हो, फिर भी सत्संगति करो | आपके उत्थान की अभी भी गुंजाइश है | बड़े-बड़े दुर्जन भी सत्संग से सज्जन बन गये हैं |

शठ सुधरहिं सत्संगति पाई |

सत्संग से वंचित रहना अपने पतन को आमंत्रित करना है | इसलिये अपने नेत्र, कर्ण, त्वचा आदि सभी को सत्संगरूपी गंगा में स्नान कराते रहो, जिससे कामविकार आप पर हावी न हो सके | विषय-सूची

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हमारे महान वैज्ञानिक

आर्य़भट्टः इन्होंने पाई π का मान बताया और ʹपृथ्वी गोल, अपनी धुरी पर घूमती हैʹ - इसका ज्ञान विश्व को दिया।

आचार्य सुश्रुतः विश्व के सर्वप्रथम शल्य चिकित्सक

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नीम का पेड़ चला

हमारे सदगुरुदेव परम पूज्य लीलाशाहजी महाराज के जीवन की एक घटना बताता हूँ:

सिंध में उन दिनों किसी जमीन की बात में हिन्दू और मुसलमानों का झगड़ा चल रहा था उस जमीन पर नीम का एक पेड़ खड़ा था, जिससे उस जमीन की सीमा-निर्धारण के बारे में कुछ विवाद था | हिन्दू और मुसलमान कोर्ट-कचहरी के धक्के खा-खाकर थके | आखिर दोनों पक्षों ने यह तय किया कि यह धार्मिक स्थान है | दोनों पक्षों में से जिस पक्ष का कोई पीर-फकीर उस स्थान पर अपना कोई विशेष तेज, बल या  चमत्कार दिखा दे, वह जमीन उसी पक्ष की हो जायेगी |

 पूज्य लीलाशाहजी बापू का नाम पहले लीलाराम था | लोग पूज्य लीलारामजी के पास पहुँचे और बोले: हमारे तो आप ही एकमात्र संत हैं | हमसे जो हो सकता था वह हमने किया, परन्तु असफल रहे | अब समग्र हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा आपश्री के चरणों में है |

इंसाँ की अज्म से जब दूर किनारा होता है |

तूफाँ में टूटी किश्ती का एक भगवान किनारा होता है ||

अब संत कहो या भगवान कहो, आप ही हमारा सहारा हैं | आप ही कुछ करेंगे तो यह धर्मस्थान हिन्दुओं का हो सकेगा |

संत तो मौजी होते हैं | जो अहंकार लेकर किसी संत के पास जाता है, वह खाली हाथ लौटता है और जो विनम्र होकर शरणागति के भाव से उनके सम्मुख जाता  है, वह सब कुछ पा लेता है | विनम्र और श्रद्धायुक्त लोगों पर संत की करुणा कुछ देने को जल्दी उमड़ पड़ती है |

पूज्य लीलारामजी उनकी बात मानकर उस स्थान पर जाकर भूमि पर दोनों घुटनों के बीच सिर नीचा किये हुए शांत भाव से बैठ गये |

विपक्ष के लोगों ने उन्हें ऐसी सरल और सहज अवस्था में बैठे हुए देखा तो समझ लिया कि ये लोग इस साधु को व्यर्थ में ही लाये हैं | यह साधु क्या करेगा …? जीत हमारी होगी |

पहले मुस्लिम लोगों द्वारा आमंत्रित पीर-फकीरों ने जादू-मंत्र, टोने-टोटके आदि किये | अला बाँधूँ बला बाँधूँपृथ्वी बाँधूँतेज बाँधूँ वायू बाँधूँआकाश बाँधूँफूऽऽऽ आदि-आदि किया | फिर पूज्य लीलाराम जी की बारी आई |

पूज्य लीलारामजी भले ही साधारण से लग रहे थे, परन्तु उनके भीतर आत्मानन्द हिलोरे ले रहा था | पृथ्वी, आकाश क्या समग्र ब्रह्माण्ड में मेरा ही पसारा हैमेरी सत्ता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकताये चाँद-सितारे मेरी आज्ञा में ही चल रहे हैंसर्वत्र मैं ही इन सब विभिन्न रूपों में विलास कर रहा हूँ ऐसे ब्रह्मानन्द में डूबे हुए वे बैठे थे |

ऐसी आत्ममस्ती में बैठा हुआ किन्तु बाहर से कंगाल जैसा दिखने वाला संत जो बोल दे, उसे घटित होने से कौन रोक सकता है ?

वशिष्ठ जी कहते हैं : हे रामजी ! त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो संत की आज्ञा का उल्लंघन करके सुखी रह सके ?

जब लोगों ने पूज्य लीलारामजी से आग्रह किया तो उन्होंने धीरे से अपना सिर ऊपर की ओर उठाया | सामने ही नीम का पेड़ खड़ा था | उस पर दृष्टि डालकर गर्जना करते हुए आदेशात्मक भाव से बोल उठे :

ऐ नीम ! इधर क्या खड़ा है ? जा उधर हटकर खड़ा रह |

बस उनका कहना ही था कि नीम का पेड सर्रर्रसर्रर्र करता हुआ दूर जाकर पूर्ववत् खड़ा हो गया |

लोग तो यह देखकर आवाक रह गये ! आज तक किसी ने ऐसा चमत्कार नहीं देखा था | अब विपक्षी लोग भी उनके पैरों पड़ने लगे | वे भी समझ गये कि ये कोई सिद्ध महापुरुष हैं |

वे हिन्दुओं से बोले : ये आपके  ही पीर नहीं हैं बल्कि आपके और हमारे सबके पीर हैं | अब से ये लीलाराम नहीं किंतु लीलाशाह हैं |

तब से लोग उनका लीलाराम नाम भूल ही गये और उन्हें लीलाशाह नाम से ही पुकारने लगे | लोगों ने उनके जीवन में ऐसे-ऐसे और भी कई चमत्कार देखे |

वे 13 वर्ष की उम्र पार करके ब्रह्मलीन हुए | इतने वृद्ध होने पर भी उनके सारे दाँत सुरक्षित थे, वाणी में तेज और बल था | वे नियमित रूप से आसन एवं प्राणायाम करते थे | मीलों पैदल यात्रा करते थे | वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे | उनके कृपा-प्रसाद द्वारा कई पुत्रहीनों को पुत्र मिले, गरीबों को धन मिला, निरुत्साहियों को उत्साह मिला और जिज्ञासुओं का साधना-मार्ग प्रशस्त हुआ | और भी क्या-क्या हुआ यह बताने जाऊँगा तो विषयान्तर होगा और  समय भी अधिक नहीं है | मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके द्वारा इतने चमत्कार होते हुए भी उनकी महानता चमत्कारों में निहित नहीं है | उनकी महानता तो उनकी ब्रह्मनिष्ठता में निहित थी |

छोटे-मोटे चमत्कार तो थोड़े बहुत अभ्यास के द्वारा हर कोई कर लेता है, मगर ब्रह्मनिष्ठा तो चीज ही कुछ और है | वह तो सभी साधनाओं की अंतिम निष्पति है | ऐसा ब्रह्मनिष्ठ होना ही तो वास्तविक ब्रह्मचारी होना है | मैंने पहले भी कहा है कि केवल वीर्यरक्षा ब्रह्मचर्य नहीं है | यह तो ब्रह्मचर्य की साधना है | यदि शरीर द्वारा वीर्यरक्षा हो और मन-बुद्धि में विषयों का चिंतन चलता रहे, तो ब्रह्मनिष्ठा कहाँ हुई ? फिर भी वीर्यरक्षा द्वारा ही उस ब्रह्मानन्द का द्वार खोलना शीघ्र संभव होता है | वीर्यरक्षण हो और कोई समर्थ ब्रह्मनिष्ठ गुरु मिल जायें तो बस, फिर और कुछ करना शेष नहीं रहता | फिर वीर्यरक्षण करने में परिश्रम नहीं करना पड़ता, वह सहज होता है | साधक सिद्ध बन जाता है | फिर तो उसकी दृष्टि मात्र से कामुक भी संयमी बन जाता है |

संत ज्ञानेश्वर महाराज जिस चबूतरे पर बैठे थे, उसीको कहा: चल तो  वह चलने लगा | ऐसे ही पूज्यपाद लीलाशाहजी बापू ने नीम के पेड़ को कहा : चल तो वह चलने लगा और जाकर दूसरी जगह खड़ा हो गया | यह सब संकल्प बल का चमत्कार है | ऐसा संकल्प बल आप भी बढ़ा सकते हैं |

विवेकानन्द कहा करते थे कि भारतीय लोग अपने संकल्प बल को भूल गये हैं, इसीलिये गुलामी का दुःख भोग रहे हैं | हम क्या कर सकते हैं ऐसे नकारात्मक चिंतन द्वारा वे संकल्पहीन हो गये हैं जबकि अंग्रेज का बच्चा भी अपने को बड़ा उत्साही समझता है और कार्य में सफल हो जाता है, क्योंकि वे ऐसा विचार करता है : मैं अंग्रेज हूँ | दुनिया के बड़े भाग पर हमारी जाति का शासन रहा है | ऐसी गौरवपूर्ण जाति का अंग होते हुए मुझे कौन रोक सकता है सफल होने से ? मैं क्या नहीं कर सकता ? बस, ऐसा विचार ही उसे सफलता दे देता है |

जब अंग्रेज का बच्चा भी अपनी जाति के गौरव का स्मरण कर दृढ़ संकल्पवान् बन सकता है, तो आप क्यों नहीं बन सकते ?

मैं ॠषि-मुनियों की संतान हूँ | भीष्म जैसे दृढ़प्रतिज्ञ पुरुषों की परम्परा में मेरा जन्म हुआ है | गंगा को पृथ्वी पर उतारनेवाले राजा भगीरथ जैसे दृढ़निश्चयी महापुरुष का रक्त मुझमें बह रहा है | समुद्र को भी पी जानेवाले अगस्त्य ॠषि का मैं वंशज हूँ | श्री राम और श्रीकृष्ण की अवतार-भूमि भारत में, जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं वहाँ मेरा जन्म हुआ है, फिर मैं ऐसा दीन-हीन क्यों? मैं जो चाहूँ सो कर सकता हूँ | आत्मा की अमरता का, दिव्य ज्ञान का, परम निर्भयता का संदेश सारे संसार को जिन ॠषियों ने दिया, उनका वंशज होकर मैं दीन-हीन नहीं रह सकता | मैं अपने रक्त के निर्भयता के संस्कारों को जगाकर रहूँगा | मैं वीर्यवान् बनकर रहूँगा | ऐसा दृढ़ संकल्प हरेक भारतीय बालक को करना चाहिए |

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निरोगता का साधन

संयम अर्थात् वीर्य की रक्षा। वीर्य की रक्षा को संयम कहते हैं। संयम ही मनुष्य की तंदुरुस्ती व शक्ति की सच्ची नींव है। इससे शरीर सब प्रकार की बीमारियों से बच सकता है। संयम-पालन से आँखों की रोशनी वृद्धावस्था में भी रहती है। इससे पाचनक्रिया एवं यादशक्ति बढ़ती है। ब्रह्मचर्य-संयम मनुष्य के चेहरे को सुन्दर व शरीर को सुदृढ़ बनाने में चमत्कारिक काम करता है। ब्रह्मचर्य-संयम के पालन से दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहते हैं।

संक्षेप में, वीर्य की रक्षा से मनुष्य का आरोग्य व शक्ति सदा के लिए टिके रहते हैं। मैं मानता हूँ की केवल वीर्य ही शरीर का अनमोल आभूषण है, वीर्य ही शक्ति है, वीर्य ही ताकत है, वीर्य ही सुन्दरता है। शरीर में वीर्य ही प्रधान वस्तु है। वीर्य ही आँखों का तेज है, वीर्य ही ज्ञान, वीर्य ही प्रकाश है। अर्थात् मनुष्य में जो कुछ दिखायी देता है, वह सब वीर्य से ही पैदा होता है। अतः वह प्रधान वस्तु है। वीर्य ही एक ऐसा तत्त्व है, जो शरीर के प्रत्येक अंग का पोषण करके शरीर को सुन्दर व सुदृढ़ बनाता है। वीर्य से ही नेत्रों में तेज उत्पन्न होता है। इससे मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित जगत की प्रत्येक वस्तु देख सकता है।

वीर्य ही आनन्द-प्रमोद का सागर है। जिस मनुष्य में वीर्य का खजाना है वह दुनिया के सारे आनंद-प्रमोद मना सकता है और सौ वर्ष तक जी सकता है। इसके विपरीत, जो मनुष्य आवश्यकता से अधिक वीर्य खर्च करता है वह अपना ही नाश करता है और जीवन बरबाद करता है। जो लोग इसकी रक्षा करते हैं वे समस्त शारीरिक दुःखों से बच जाते हैं, समस्त बीमारियों से दूर रहते हैं।

जब तक शरीर में वीर्य होता है तब तक शत्रु की ताकत नहीं है कि वह भिड़ सके, रोग दबा नहीं सकता। चोर-डाकू भी ऐसे वीर्यवान से डरते हैं। प्राणी एवं पक्षी उससे दूर भागते हैं। शेर में भी इतनी हिम्मत नहीं कि वीर्यवान व्यक्ति का सामना कर सके।

ब्रह्मचारी सिंह समान हिंसक प्राणी को कान से पकड़ सकते हैं। वीर्य की रक्षा से ही परशुरामजी ने क्षत्रियों का कई बार संहार किया था।

ब्रह्मचर्य-पालन के प्रताप से ही हनुमानजी समुद्र पार करके लंका जा सके और सीता जी का समाचार ला सके। ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भीष्म पितामह अपने अंतिम समय में कई महीनों तक बाणों की शय्या पर सो सके एवं अर्जुन से बाणों के तकिये की माँग कर सके। वीर्य की रक्षा से ही लक्ष्मणजी ने मेघनाद को हराया और ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही भारत के मुकुटमणि महर्षि दयानंद सरस्वती ने दुनिया पर विजय प्राप्त की।

इस विषय में कितना लिखें, दुनिया में जितने भी सुधारक, ऋषि-मुनि, महात्मा, योगी व संत हो गये हैं, उन सभी ने ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही लोगों के दिल जीत लिये हैं। अतः वीर्य की रक्षा ही जीवन है वीर्य को गँवाना ही मौत है।

परंतु आजकल के नवयुवकों व युवतियों की हालत देखकर अफसोस होता है कि भाग्य से ही कोई विरला युवान ऐसा होगा जो वीर्य रक्षा को ध्यान में रखकर केवल प्रजोत्पत्ति के लिए अपनी पत्नी के साथ समागम करता होगा। इसके विपरीत, आजकल के युवान जवानी के जोश में बल और आरोग्य की परवाह किये बिना विषय-भोगों में बहादुरी मानते हैं। उन्हें मैं नामर्द ही कहूँगा।

जो युवान अपनी वासना के वश में हो जाते हैं, ऐसे युवान दुनिया में जीने के लायक ही नहीं हैं। वे केवल कुछ दिन के मेहमान हैं। ऐसे युवानों के आहार की ओर नजर डालोगे तो पायेंगे कि केक, बिस्कुट, अंडे, आइस्क्रीम, शराब आदि उनके प्रिय व्यंजन होंगे, जो वीर्य को पतला (क्षीण) करके शरीर को मृतक बनानेवाली वस्तुएँ हैं। ऐसी चीजों का उपयोग वे खुशी से करते हैं और अपनी तन्दुरुस्ती की जड़ काटते हैं।

आज से 20-25 वर्ष पहले छोटे-बड़े, युवान-वृद्ध, पुरुष-स्त्रियाँ सभी दूध, दही, मक्खन तथा घी खाना पसंद करते थे परंतु आजकल के युवान एवं युवतियाँ दूध के प्रति अरुचि व्यक्त करते हैं। साथ ही केक, बिस्कुट, चाय-कॉफी या जो तन्दुरुस्ती को बरबाद करने वाली चीजें हैं, उनका ही सेवन करते हैं। यह देखकर विचार आता है कि ऐसे स्त्री-पुरुष समाज की श्रेष्ठ संतान कैसे दे सकेंगे? निरोगी माता-पिता की संतान ही निरोगी पैदा होती है।

मित्रो ! जरा रुको और समझदारीपूर्वक विचार करो कि हमारे स्वास्थ्य तथा बल की रक्षा कैसे होगी? इस दुनिया में जन्म लेकर जिसने ऐश-आराम की जिंदगी गुजारी उसका तो दुनिया में आना ही व्यर्थ है।

मेरा नम्र मत है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है दुनिया में आकर दीर्घायु भोगने के लिए अपने स्वास्थ्य व बल की सुरक्षा का प्रयास करे तथा शरीर को सुदृढ़ व मजबूत रखने के लिए दूध, घी, मक्खन और मलाई युक्त सात्त्विक आहार के सेवन का आग्रह रखे।

शास्त्रों ने शरीर को परमात्मा का घर बताया है। अतः उसे पवित्र रखना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का पवित्र कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य का पालन वही कर सकता है, जिसका मन इन्द्र्रियों पर नियंत्रण होता है। फिर चाहे वह गृहस्थी हो या त्यागी।

 

स्वास्थ्य की सँभाल व ब्रह्मचर्य के पालन हेतु आँवले का चूर्ण व मिश्री के मिश्रण को पानी में मिलाकर पीने से बहुत लाभ होगा। इस मिश्रण व दूध के सेवन के बीच दो घण्टे का अंतर रखें।

आध्यात्मिक व भौतिक विकास की नींव ब्रह्मचर्य है। अतः परमात्मा को प्रार्थना करें कि वे सदबुद्धि दें व सन्मार्ग की ओर मोड़ें। वीर्य शरीर में फौज के सेनानायक की नाईं कार्य करता है, जबकि दूसरे अवयव सैनिकों की नाईं फर्ज निभाते हैं। जैसे सेनानायक की मृत्यु होने पर सैनिकों की दुर्दशा हो जाती है, वैसे ही वीर्य का नाश होने से शरीर निस्तेज हो जाता है।

यदि आप दुनिया में सुख-शांति चाहते हो तो अंतःकरण को पवित्र व शुद्ध रखें। जो मनुष्य वीर्य की रक्षा कर सकेंगे वे ही सुख व आराम का जीवन बिता सकेंग और दुनिया में उन्हीं लोगों का नाम सूर्य के प्रकाश की नाईं चमकेगा।

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शुभ संकल्प करो

हम ब्रह्मचर्य का पालन कैसे कर सकते हैं ? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी इस रास्ते पर फिसल पड़ते हैं इस प्रकार के हीन विचारों को तिलांजलि दे दो और अपने संकल्पबल को बढ़ाओ | शुभ संकल्प करो | जैसा आप सोचते हो, वैसे ही आप हो जाते हो | यह सारी सृष्टि ही संकल्पमय है |

दृढ़ संकल्प करने से वीर्यरक्षण में मदद होती है और वीर्यरक्षण से संकल्पबल बढ़ता है |

विश्वासो फलदायकः | जैसा विश्वास और जैसी श्रद्धा होगी वैसा ही फल प्राप्त होगा | ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों में यह संकल्पबल असीम होता है | वस्तुतः ब्रह्मचर्य की तो वे जीती-जागती मुर्ति ही होते हैं |

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आजादी की बुनियाद

महान देशभक्त, क्रान्तिकारी वीर चन्द्रशेखर आजाद बड़े ही दृढ़प्रतिज्ञ थे। हर समय उनके गले में यज्ञोपवीत, जेब में गीता और साथ में पिस्तौल रहा करती थी। वे ईश्वरपरायण, बहादुर, संयमी और सदाचारी थे। एक बार वे अपने एक मित्र के घर ठहरे हुए थे। उनकी नवयुवती कन्या ने कामजाल में फँसाना चाहा। आजाद ने तुरंत डाँटकर कहाः "इस बार तुम्हें क्षमा करता हूँ, भविष्य में ऐसा हुआ तो गोली से उड़ा दूँगा।" यह बात उन्होंने उसके पिता को भी बता दी और उनके यहाँ ठहरना बंद कर दिया।

सन् 1925 में काकोरी कांड की असफलता के बाद आजाद ने काकोरी छोड़ा एवं ब्रिटिश गुप्तचरों से बचते हुए झाँसी के पास एक छोटे से गाँव ठिमरपुरा पहुँच गये। कोई नहीं जानता था कि धोती एवं जनेऊ में सुसज्ज ये ब्राह्मण ʹआजादʹ हैं। गाँव के बाहर मिट्टी की दीवारों के भीतर आजाद रहने लगे। वे दिन भर गीता महाभारत, और रामायण कथा के प्रवचन से ग्रामवासियों का दिल जीत लेते थे। धीरे-धीरे लोग उन्हें ʹब्रह्मचारीʹ जी के नाम से सम्बोधित करने लगे। किंतु एक दिन आजाद अकेले बैठे थे कि इतने में एक रूप यौवनसम्पन्न नारी आ पहुँची। आश्चर्यचकित होकर आजाद ने पूछाः "बहन ! क्या बात है ? क्या किसी शास्त्र का शंका-समाधान करना है ?" वह स्त्री हँस पड़ी और बोलीः "समाधान.... ब्रह्मचारी जी ! छोड़ो ये रामायण-महाभारत की बातें, मैं तो आपसे कुछ माँगने आयी हूँ।"

जिंदगी भर हिमालय की तरह अडिग रहने वाले आजाद गम्भीरतापूर्वक कड़क आवाज में बोलेः "तू घर भूली है बहन ! जा, वापस लौट जा।"

वह बोलीः "बस, ब्रह्मचारी जी ! मैं आपके सामने स्वेच्छा से खड़ी हूँ, मैं दूसरा कुछ नहीं माँगती, केवल आपको ही माँगती हूँ।

आजाद उठकर दरवाजे की और जाने लगे तो वह स्त्री बोलीः "मुझे अस्वीकार करके कहाँ जाओगे ? मैं चिल्लाकर पूरे गाँव को इकट्ठा करूँगी और इल्जाम लगाकर बेइज्जती कर दूँगी।"

आजाद को धाक-धमकी और बेइज्जती के भय से अपना संयम-सत्त्व नाश कर देना किसी भी कीमत पर स्वीकार न था। वे बहादुर, संयमी और सदाचारी थे। वे दौड़कर दरवाजे के पास पहुँचे, दरवाजा पर धक्का मारा किंतु दरवाजा बाहर से बंद था। अब क्या करें ? आजाद क्षण भर स्तब्ध रह गये। दूसरे ही क्षण उनके मन में बिजली कौंधी। उन्होंने एक ऊँची नजर की। चारों तरफ 12 फुट की दीवारें थीं। उनका पौरूष जाग उठा। वे कूदकर दीवार पर चढ़ गये और कूदकर तेज रफ्तार से बाहर दौड़ गये।

यह उनके ब्रह्मचर्य का बल नहीं तो और क्या था ! रूप-यौवनसम्पन्न नारी सामने स्वेच्छा से आयी, फिर भी देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले ʹआजादʹ को वह बाँध न सकी। ऐसे-ऐसे संयमी, सदाचारी देशभक्तों के पवित्र बलिदान से भारत आजाद हो पाया है।

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भारत के नौजवानो !......

भारत के नौजवानो ! भारत को दिव्य बनाना।

तुम्हें प्यार करे जग सारा, तुम ऐसा बन दिखलाना।।

भारत के नौजवानो !.....

केवल इच्छा न बढ़ाना, संयम जीवन में लाना।

सादा जीवन तम जीना, पर ताने रहना सीना।।

भारत के नौजवानो !....

जो लिखा है सदग्रंथों में, जो कुछ भी कहा संतों ने।

उसको जीवन में लाना, वैसा ही बन दिखलाना।।

भारत के नौजवानो !.....

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।-2

हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा-2।।

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।

तुम पुरुषार्थ तो करना, पर नेक राह पर चलना।

सज्जन का संग ही करना, दुर्जन से बच के रहना।।

भारत के नौजवानो !....

जीवन अनमोल मिला है, तुम मौके को मत खोना।

यदि भटक गये इस जग में, जन्मों तक पड़ेगा रोना।।

भारत के नौजवानो ! भारत को दिव्य बनाना।-3

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स्त्री-जाति के प्रति मातृभाव प्रबल करो

      श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे : किसी सुंदर स्त्री पर नजर पड़ जाए तो उसमें माँ जगदम्बा के दर्शन करो | ऐसा विचार करो कि यह अवश्य देवी का अवतार है, तभी तो इसमें इतना सौंदर्य है | माँ प्रसन्न होकर इस रूप में दर्शन दे रही है, ऐसा समझकर सामने खड़ी स्त्री को मन-ही-मन प्रणाम करो | इससे तुम्हारे भीतर काम विकार नहीं उठ सकेगा |

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् |

 

      पराई स्त्री को माता के समान और पराए धन को मिट्टी के ढेले के समान समझो |

 

शिवाजी का प्रसंग

      शिवाजी के पास कल्याण के सूबेदार की स्त्रियों को लाया गया था तो उस समय उन्होंने यही आदर्श उपस्थित किया था | उन्होंने उन स्त्रियों को माँ कहकर पुकारा तथा उन्हें कई उपहार देकर सम्मान सहित उनके घर वापस भेज दिया | शिवाजी परम गुरु समर्थ रामदास के शिष्य थे |

 

भारतीय सभ्यता और संस्कृति में 'माता' को इतना पवित्र स्थान दिया गया है कि यह मातृभाव मनुष्य को पतित होते-होते बचा लेता है | श्री रामकृष्ण एवं अन्य पवित्र संतों के समक्ष जब कोई स्त्री कुचेष्टा करना चाहती तब वे सज्जन, साधक, संत यह पवित्र मातृभाव मन में लाकर विकार के फंदे से बच जाते | यह मातृभाव मन को विकारी होने से बहुत हद तक रोके रखता है | जब भी किसी स्त्री को देखने पर मन में विकार उठने लगे, उस समय सचेत रहकर इस मातृभाव का प्रयोग कर ही लेना चाहिए |  

अर्जुन और उर्वशी

अर्जुन सशरीर इन्द्र सभा में गया तो उसके स्वागत में उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराओं ने नृत्य किये | अर्जुन के रूप सौन्दर्य पर मोहित हो उर्वशी रात्रि के समय उसके निवास स्थान पर गई और प्रणय-निवेदन किया  तथा साथ ही 'इसमें कोई दोष नहीं लगता' इसके पक्ष में अनेक दलीलें भी कीं | किन्तु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रियसंयम का परिचय देते हुए कह :

गच्छ मूर्ध्ना प्रपन्नोऽस्मि पादौ ते वरवर्णिनी | त्वं हि में मातृवत् पूज्या रक्ष्योऽहं पुत्रवत् त्वया ||

( महाभारत : वनपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्व : ४६.४७)

  "मेरी दृष्टि में कुन्ती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है | तुम मेरे लिए माता के समान पूज्या हो | मैं तुम्हारे चरणों में प्रणाम करता हूँ | तुम अपना दुराग्रह छोड़कर लौट जाओ |" इस पर उर्वशी ने क्रोधित होकर उसे नपुंसक होने का शाप दे दिया | अर्जुन ने उर्वशी से शापित होना स्वीकार किया, परन्तु संयम नहीं तोड़ा | जो अपने आदर्श से नहीं हटता, धैर्य और सहनशीलता को अपने चरित्र का भूषण बनाता है, उसके लिये शाप भी वरदान बन जाता है | अर्जुन के लिये भी ऐसा ही हुआ | जब इन्द्र तक यह बात पहुँची तो उन्होंने  अर्जुन को कहा : "तुमने इन्द्रिय संयम के द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया | तुम जैसे पुत्र को पाकर कुन्ती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्रवाली है | उर्वशी का शाप तुम्हें वरदान सिद्ध होगा | भूतल पर वनवास के १३वें वर्ष में अज्ञातवास करना पड़ेगा उस समय यह सहायक होगा | उसके बाद तुम अपना पुरुषत्व फिर से प्राप्त कर लोगे |" इन्द्र के कथनानुसार अज्ञातवास के समय अर्जुन ने विराट के महल में नर्तक वेश में रहकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य विद्या सिखाई थी और इस प्रकार वह शाप से मुक्त हुआ था | परस्त्री के प्रति मातृभाव रखने का यह एक सुंदर उदाहरण है | ऐसा ही एक उदाहरण वाल्मीकिकृत रामायण में भी आता है | भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण को जब सीताजी के गहने पहचानने को कहा गया तो लक्ष्मण जी बोले : हे तात ! मैं तो सीता माता के पैरों के गहने और नूपुर ही पहचानता हूँ, जो मुझे उनकी चरणवन्दना के समय दृष्टिगोचर होते रहते थे | केयूर-कुण्डल आदि दूसरे गहनों को मैं नहीं जानता |" यह मातृभाववाली दृष्टि ही इस बात का एक बहुत बड़ा कारण था कि लक्ष्मणजी इतने काल तक ब्रह्मचर्य का पालन किये रह सके | तभी रावणपुत्र मेघनाद को, जिसे इन्द्र भी नहीं हरा सका था, लक्ष्मणजी हरा पाये | पवित्र मातृभाव द्वारा वीर्यरक्षण का यह अनुपम उदाहरण है जो ब्रह्मचर्य की महत्ता भी प्रकट करता है |

 

 

सत्साहित्य पढ़ो 

जैसा साहित्य हम पढ़ते हैं, वैसे ही विचार मन के भीतर चलते रहते हैं और उन्हींसे हमारा सारा व्यवहार प्रभावित होता है | जो लोग कुत्सित, विकारी और कामोत्तेजक साहित्य पढ़ते हैं, वे कभी ऊपर नही उठ सकते | उनका मन सदैव काम-विषय के चिंतन में ही उलझा रहता है और इससे वे अपनी वीर्यरक्षा करने में असमर्थ रहते हैं | गन्दे साहित्य कामुकता का भाव पैदा करते हैं | सुना गया है कि पाश्चात्य जगत से प्रभावित कुछ  नराधम चोरी-छिपे गन्दी फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं जो अपना और अपने संपर्क में आनेवालों का विनाश करते हैं | ऐसे लोग महिलाओं, कोमल वय की कन्याओं तथा किशोर एवं युवावस्था में पहुँचे हुए बच्चों के साथ बड़ा अन्याय करते हैं | 'ब्ल्यू फिल्म' देखने-दिखानेवाले महा अधम कामान्ध लोग मरने के बाद शूकर, कूकर आदि योनियों में जन्म लेकर अथवा गन्दी नालियों के कीड़े बनकर छटपटाते हुए दु:ख भोगेंगे ही | निर्दोष कोमलवय के नवयुवक उन दुष्टों के शिकार न बनें, इसके लिए सरकार और समाज को सावधान रहना चाहिए

बालक देश की संपत्ति हैं | ब्रह्मचर्य के नाश से उनका विनाश हो जाता है | अतः नवयुवकों को मादक द्रव्यों, गन्दे साहित्यों व गन्दी फिल्मों के द्वारा बर्बाद होने से बचाया जाये | वे ही तो राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं | युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, ब्रह्मचर्य की महिमा समझें इसके लिए हम सब लोगों का कर्त्तवय है कि स्कूलों-कालेजों में विद्यार्थियों तक ब्रह्मचर्य पर लिखा गया साहित्य पहुँचायें | सरकार का यह नैतिक  कर्त्तव्य है कि वह शिक्षा प्रदान कर ब्रह्मचर्य विशय पर विद्यार्थियों को सावधान करे ताकि वे तेजस्वी बनें | जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके जीवन पर दृष्टिपात करो तो उन पर किसी-न-किसी सत्साहित्य की छाप मिलेगी | अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक इमर्सन के गुरु थोरो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे | उन्हों ने लिखा है : "मैं प्रतिदिन गीता के पवित्र जल से स्नान करता हूँ | यद्यपि इस पुस्तक को लिखनेवाले देवताओं को अनेक वर्ष व्यतीत हो गये, लेकिन इसके बराबर की कोई पुस्तक अभी तक नहीं निकली है |"  

योगेश्वरी माता गीता के लिए दूसरे एक विदेशी विद्वान्, इंग्लैण्ड के एफ. एच. मोलेम कहते हैं : "बाइबिल का मैंने यथार्थ अभ्यास किया है | जो ज्ञान गीता में है, वह ईसाई या यदूही बाइबिलों में नहीं है | मुझे यही आश्चर्य होता है कि भारतीय नवयुवक यहाँ इंग्लैण्ड तक पदार्थ विज्ञान सीखने क्यों आते हैं ? नि:संदेह पाश्चात्यों के प्रति उनका मोह ही इसका कारण है | उनके भोलेभाले हृदयों ने निर्दय और अविनम्र पश्चिमवासियों के दिल अभी पहचाने नहीं हैं | इसीलिए उनकी शिक्षा से मिलनेवाले पदों की लालच से वे उन स्वार्थियों के इन्द्रजाल में फंसते हैं | अन्यथा तो जिस देश या समाज को गुलामी से छुटना हो उसके लिए तो यह अधोगति का ही मार्ग है |

 

मैं ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतना आदर-मान इसलिए रखता हूँ कि जिन गूढ़ प्रश्नों का हल पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक नहीं कर पाये, उनका हल इस गीता ग्रंथ ने शुद्ध और सरल रीति से दे दिया है | गीता में कितने ही सूत्र आलौकिक उपदेशों से भरपूर देखे, इसी कारण गीताजी मेरे लिए साक्षात योगेश्वरी माता बन गई हैं | विश्व भर में सारे धन से भी न मिल सके, भारतवर्ष का यह ऐसा अमूल्य खजाना है | 

सुप्रसिद्ध पत्रकार पॉल ब्रिन्टिन सनातन धर्म की ऐसी धार्मिक पुस्तकें पढ़कर जब प्रभावित हुआ तभी वह हिन्दुस्तान आया था और यहाँ के रमण महर्षि जैसे महात्माओं के दर्शन करके धन्य हुआ था | देशभक्तिपूर्ण साहित्य पढ़कर ही चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, वीर सावरकर जैसे रत्न अपने जीवन को देशाहित में लगा पाये | 

इसलिये सत्साहित्य की तो जितनी महिमा गाई जाये, उतनी कम है | श्रीयोगवशिष्ठ महारामायण, उपनिषद, दासबोध, सुखमनि, विवेकचूड़ामणि, श्री रामकृष्ण साहित्य, स्वामी रामतीर्थ के प्रवचन आदि भारतीय संस्कृति की ऐसी कई पुस्तकें हैं जिन्हें पढ़ो और उन्हें अपने दैनिक जीवन का अंग बना लो | ऐसी-वैसी विकारी और कुत्सित पुस्तक-पुस्तिकाएँ हों तो उन्हें उठाकर कचरे ले ढ़ेर पर फेंक दो या चूल्हे में डालकर आग तापो, मगर न तो स्वयं पढ़ो और न दूसरे के हाथ लगने दो | 

इस प्रकार के आध्यात्मिक सहित्य-सेवन में ब्रह्मचर्य मजबूत करने की अथाह शक्ति होती है | प्रातःकाल स्नानादि के पश्चात दिन के व्यवसाय में लगने से पूर्व एवं रात्रि को सोने से पूर्व कोई-न-कोई आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ना चाहिए | इससे वे ही सतोगुणी विचार मन में घूमते रहेंगे जो पुस्तक में होंगे और हमारा मन विकारग्रस्त होने से बचा रहेगा | 

कौपीन (लंगोटी) पहनने का भी आग्रह रखो | इससे अण्डकोष स्वस्थ रहेंगे और वीर्यरक्षण में मदद मिलेगी | वासना को भड़काने वाले नग्न व अश्लील पोस्टरों एवं चित्रों को देखने का आकर्षण छोड़ो | अश्लील शायरी और गाने भी जहाँ गाये जाते हों, वहाँ न रुको

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बालक देश की सम्पत्ति हैं। ब्रह्मचर्य के नाश से उनका विनाश हो जाता है। अतः नवयुवकों को मादक द्रव्यों, गंदे साहित्य व गंदी फिल्मों के द्वारा बरबाद होने से बचाया जाय। वे ही तो राष्ट्र के भावी कर्णधार हैं। युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, ब्रह्मचर्य की महिमा समझें, इसके लिए हम सब लोगों का कर्तव्य है कि स्कूलों कालेजों में विद्यार्थियों तक संयम पर लिखा गया साहित्य पहुँचायें। सरकार का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह संयम विषय पर शिक्षा प्रदान कर विद्यार्थियों को सावधान करें ताकि वे तेजस्वी बनें।

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"जब कभी भी आपके मन में अशुद्ध विचारों के साथ किसी स्त्री के स्वरूप की कल्पना उठे तो आप ʹ दुर्गादेव्यै नमः।ʹ मंत्र का बार-बार उच्चारण करें और मानसिक प्रणाम करें।" (स्वामी शिवानंदजी)

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महत्त्वपूर्ण बातें

मैं युवक वर्ग से विशेषरूप से दो बातें कहना चाहता हूं क्योंकि यही वह वर्ग है जो अपने देश के सुदृढ़ भविष्य का आधार है | भारत का यही युवक वर्ग जो पहले देशोत्थान एवं  आध्यात्मिक रहस्यों की खोज में लगा रहता था, वही अब कामिनियों के रंग-रूप के पीछे पागल होकर अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ में खोता जा रहा है | यह कामशक्ति मनुष्य के लिए अभिशाप नहीं, बल्कि वरदान स्वरूप है | यह जब युवक में खिलने लगती है तो उसे उस समय इतने उत्साह से भर देती है कि वह संसार में सब कुछ कर सकने की स्थिति में अपने को समर्थ अनुभव करने लगता है, लेकिन आज के अधिकांश युवक दुर्व्यसनों में फँसकर हस्तमैथुन एवं स्वप्नदोष के शिकार बन जाते हैं |  

गंदी आदतों के दुष्परिणाम

इन दुर्व्यस्नों से युवक अपनी वीर्यधारण की शक्ति खो बैठता है और वह तीव्रता से नपुसंकता की ओर अग्रसर होने लगता है | उसकी आँखें और चेहरा निस्तेज और कमजोर हो जाता है | थोड़े परिश्रम से ही वह हाँफने लगता है, उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता है | अधिक कमजोरी से मूर्च्छा भी आ जाती है | उसकी संकल्पशक्ति कमजोर हो जाती  है |

इनसे कैसे बचें

यदि कोई हस्त मैथुन या स्वप्नदोष की समस्या से ग्रस्त है और वह इस रोग से छुटकारा पाने को वस्तुतः इच्छुक है, तो सबसे पहले तो मैं यह कहूँगा कि अब वह यह  चिंता छोड़ दे कि 'मुझे यह रोग है और अब मेरा क्या होगा ? क्या मैं फिर से स्वास्थ्य लाभ कर सकूँगा ?' इस प्रकार के निराशावादी विचारों को वह जड़मूल से उखाड़ फेंके |

सदैव प्रसन्न रहो 

जो हो चुका वह बीत गया | बीती सो बीती, बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय | एक तो रोग, फिर उसका चिंतन और भी रुग्ण बना देता है | इसलिये पहला काम तो यह करो कि दीनता के विचारों को तिलांजलि देकर प्रसन्न और प्रफुल्लित रहना प्रारंभ कर दो |  

पीछे कितना वीर्यनाश हो चुका है, उसकी चिंता छोड़कर अब कैसे वीर्यरक्षण हो सके, उसके लिये उपाय करने हेतु कमर कस लो |

ध्यान रहे: वीर्यशक्ति का दमन नहीं करना है, उसे ऊर्ध्वगामी बनाना है | वीर्यशक्ति का उपयोग हम ठीक ढ़ंग से नहीं कर पाते | इसलिये इस शक्ति के ऊर्ध्वगमन के कुछ प्रयोग हम समझ लें |

वीर्य का ऊर्ध्वगमन क्या है ? 

वीर्य के ऊर्ध्वगमन का अर्थ यह नहीं है कि वीर्य स्थूल रूप से ऊपर सहस्रार की ओर जाता है | इस विषय में कई लोग भ्रमित हैं | वीर्य तो वहीं रहता है, मगर उसे संचालित करनेवाली जो कामशक्ति है, उसका ऊर्ध्वगमन होता है | वीर्य को ऊपर चढ़ाने की नाड़ी शरीर के भीतर नहीं है | इसलिये शुक्राणु ऊपर नहीं जाते बल्कि हमारे भीतर एक वैद्युतिक चुम्बकीय शक्ति होती है जो नीचे की ओर बहती है, तब शुक्राणु सक्रिय होते हैं | 

      इसलिये जब पुरुष की दृश्टि भड़कीले वस्त्रों पर पड़ती है या उसका मन स्त्री का चिंतन करता है, तब यही शक्ति उसके चिंतनमात्र से नीचे मूलाधार केन्द्र के नीचे जो कामकेन्द्र है, उसको सक्रिय कर, वीर्य को बाहर धकेलती है | वीर्य स्खलित होते ही उसके जीवन की उतनी कामशक्ति व्यर्थ में खर्च हो जाती है | योगी और तांत्रिक लोग इस सूक्ष्म बात से परिचित थे | स्थूल विज्ञानवाले जीवशास्त्री और डॉक्टर लोग इस बात को ठीक से समझ नहीं पाये इसलिये आधुनिकतम औजार होते हुए भी कई गंभीर रोगों को वे ठीक नहीं कर पाते जबकि योगी के दृष्टिपात मात्र या आशीर्वाद से ही रोग ठीक होने के चमत्कार हम प्रायः देखा-सुना करते हैं | 

      आप बहुत योगसाधना करके ऊर्ध्वरेता योगी न भी बनो फिर भी वीर्यरक्षण के लिये इतना छोटा-सा प्रयोग तो कर ही सकते हो :

एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग 

      अपना जो काम-संस्थान है, वह जब सक्रिय होता है तभी वीर्य को बाहर धकेलता है | किन्तु निम्न प्रयोग द्वारा उसको सक्रिय होने से बचाना है | 

      ज्यों ही किसी स्त्री के दर्शन से या कामुक विचार से आपका ध्यान अपनी जननेन्द्रिय की तरफ खिंचने लगे, तभी आप सतर्क हो जाओ | आप तुरन्त जननेन्द्रिय को भीतर पेट की तरफ़ खींचो | जैसे पंप का पिस्टन खींचते हैं उस प्रकार की क्रिया मन को जननेन्द्रिय में केन्द्रित करके करनी है | योग की भाषा में इसे योनिमुद्रा कहते हैं | 

      अब आँखें बन्द करो | फिर ऐसी भावना करो कि मैं अपने जननेन्द्रिय-संस्थान से ऊपर सिर में स्थित सहस्रार चक्र की तरफ देख रहा हूँ | जिधर हमारा मन लगता है, उधर ही यह शक्ति बहने लगती है | सहस्रार की ओर वृत्ति लगाने से जो शक्ति मूलाधार में सक्रिय होकर वीर्य को स्खलित करनेवाली थी, वही शक्ति ऊर्ध्वगामी बनकर आपको वीर्यपतन से बचा लेगी | लेकिन ध्यान रहे : यदि आपका मन काम-विकार का मजा लेने में अटक गया तो आप सफल नहीं हो पायेंगे | थोड़े संकल्प और विवेक का सहारा लिया तो कुछ ही दिनों के प्रयोग से महत्त्वपूर्ण फायदा होने लगेगा | आप स्पष्ट महसूस करेंगे कि एक आँधी की तरह काम का आवेग आया और इस प्रयोग से वह कुछ ही क्षणों में शांत हो गया |

दूसरा प्रयोग 

      जब भी काम का वेग उठे, फेफड़ों में भरी वायु को जोर से बाहर फेंको | जितना अधिक बाहर फेंक सको, उतना उत्तम | फिर नाभि और पेट को भीतर की ओर खींचो | दो-तीन बार के प्रयोग से ही काम-विकार शांत हो जायेगा और आप वीर्यपतन से बच जाओगे | 

      यह प्रयोग दिखता छोटा-सा है, मगर बड़ा महत्त्वपूर्ण यौगिक प्रयोग है | भीतर का श्वास कामशक्ति को नीचे की ओर धकेलता है | उसे जोर से और अधिक मात्रा में बाहर फेंकने से वह मूलाधार चक्र में कामकेन्द्र को सक्रिय नहीं कर पायेगा | फिर पेट व नाभि को भीतर संकोचने से वहाँ खाली जगह बन जाती है | उस खाली जगह को भरने के लिये कामकेन्द्र के आसपास की सारी शक्ति, जो वीर्यपतन में सहयोगी बनती है, खिंचकर नाभि की तरफ चली जाती है और इस प्रकार आप वीर्यपतन से बच जायेंगे | 

      इस प्रयोग को करने में न कोई खर्च है, न कोई विशेष स्थान ढ़ूँढ़ने की जरूरत है | कहीं भी बैठकर कर सकते हैं | काम-विकार न भी उठे, तब भी यह प्रयोग करके आप अनुपम लाभ उठा सकते हैं | इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, पेट की  बीमारियाँ मिटती हैं, जीवन तेजस्वी बनता है और वीर्यरक्षण सहज में होने लगता है |

ब्राह्ममुहूर्त में उठो

स्वप्नदोष अधिकांशः रात्रि के अंतिम प्रहर में हुआ करता है, इसलिए प्रातः साढ़े चार बजे यानी ब्राह्ममुहूर्त में ही शय्या का त्याग कर दो। जो लोग प्रातःकाल देर तक सोते रहते हैं, उनका जीवन निस्तेज हो जाता है।

तुलसी: एक अदभुत औषधि

      प्रेन्च डॉक्टर विक्टर रेसीन ने कहा है : तुलसी एक अदभुत औषधि है | तुलसी पर किये गये प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में तुलसी अत्यंत लाभकारी है | इससे रक्तकणों की वृद्धि होती है | मलेरिया तथा अन्य प्रकार के बुखारों में तुलसी अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई है | 

      तुलसी रोगों को तो दूर करती ही है, इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की रक्षा करने एवं यादशक्ति बढ़ाने में भी अनुपम सहायता करती है | तुलसीदल एक उत्कृष्ट रसायन है | यह त्रिदोषनाशक है | रक्तविकार, वायु, खाँसी, कृमि आदि की निवारक है तथा हृदय के लिये बहुत हितकारी है | अतः त्रिदोषजनित तथा कैंसर आदि बीमारियाँ आपके पास नहीं फटकेंगीं। इस प्रयोग से भूख अच्छी लगेगी और इस प्रयोग से वीर्यरक्षा का भी सीधा सम्बन्ध है।

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः ब्राह्ममुहूर्त में (सुबह 4-4.30 बजे) क्यों जागना चाहिए ?

उत्तरः इस समय शांत वातावरण, शुद्ध और शीतल वायु रहने के कारण मन में सात्त्विक विचार, उत्साह तथा शरीर में स्फूर्ति रहती है। विद्यार्थियों के लिये अध्ययन का यह सबसे अच्छा समय है। जो जागत है सो पावत है। जो सोवत है सो खोवत है।।

प्रश्नः सूर्योदय के बाद भी सोते रहने से क्या हानि होती है ?

उत्तरः ʹअथर्ववेदʹ में बताया गया है कि जो व्यक्ति सूर्योदय के बाद भी सोता रहता है उसके ओज-तेज को सूर्य की किरणें पी जाती हैं।

प्रश्नः सुबह स्नान के बाद तुलसी के पत्ते क्यों खाने चाहिए ?

उत्तरः तुलसी को घर का वैद्य कहा गया है। वैज्ञानिकों ने प्रयोग करके जाना कि अन्य पौधों के मुकाबले तुलसी में ऑक्सीजन की मात्रा तिगुनी होती है। तुलसी के पत्तों के सेवन से बल, तेज और यादशक्ति बढ़ती है। इसमें कैंसर-विरोधी तत्त्व भी पाये जाते हैं। फ्रैंच डॉक्टर विक्टर रेसिन ने कहा हैः "तुलसी एक अदभुत औषधि है।" अतः सुबह स्नान के बाद खाली पेट तुलसी के 5-7 पत्ते खाकर थोड़ा पानी पीना चाहिए।

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वास्तविक सौंदर्य

दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर


आप इतने फिदा हो रहे हो तो....
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जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हो चुके हैं। उनमें एक राजकन्या भी तीर्थंकर हो गयी, जिसका नाम था मल्लियनाथ। राजकुमारी मल्लिका इतनी खूबसूरत थी कि कई राजकुमार व राजा उसके साथ विवाह करना चाहते थे लेकिन वह किसी को पसंद नहीं करती थी। आखिरकार उन राजकुमारों व राजाओं ने आपस में एक जुट होकर मल्लिका के पिता को किसी युद्ध में हराकर उसका अपहरण करने की योजना बनायी।

मल्लिका को इस बात का पता चल गया। उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया कि "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं भी आप पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित करिये। आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप सबको अपना सौंदर्य दे दूँगी।"

इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक सुंदर मूर्ति बनवायी एवं निश्चित की गयी तिथि से दो चार दिन पहले से वह अपना भोजन उसमें डाल देती थी। जिस महल में राजकुमारों व राजाओं को मुलाकात देनी थी, उसी में एक ओर वह मूर्ति रखवा दी गयी। निश्चित तिथि पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हूबहू थी कि उसकी ओर देखकर राजकुमार विचार कर ही रहे थे कि ʹअब बोलेगी.... अब बोलेगी...ʹ इतने में मल्लिका स्वयं आयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह गये कि ʹवास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है ?ʹ

मल्लिका बोलीः "यह प्रतिमा है। मुझे यही विश्वास था कि आप सब इसको ही सच्ची मानेंगे और सचमुच में मैंने इसमें सच्चाई छुपाकर रखी है। आपको जो सौंदर्य चाहिए वह मैंने इसमें छुपाकर रखा है।" यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया, त्यों ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। पिछले चार पाँच दिनों से जो भोजन उसमें डाला गया था, उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर बदबू निकल रही थी कि सब छिः छिः कर उठे।

तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी राजाओं व राजकुमारों को सम्बोधित करते हुए कहाः "भाइयो ! जिस अन्न, जल, दूध, फल, सब्जी इत्यादि को खाकर यह शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने वे ही खाद्य सामग्रियाँ चार पाँच दिनों से इसमें डाल रखी थीं। अब ये सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो इस अन्न को रक्त बनाकर सौंदर्य देने वाला वह आत्मा कितना सुंदर होगा !"

मल्लिका की इन सारगर्भित बातों का राजा एवं राजकुमारों पर गहरा असर हुआ और उन्होंने कामविकार से अपना पिंड छुड़ाने का संकल्प किया। उधर मल्लिका संत-शरण में पहुँच गयी और उनके मार्गदर्शन से अपने आत्मा को पाकर मल्लियनाथ तीर्थंकर बन गयी। आज भी मल्लियनाथ जैन धर्म के प्रसिद्ध उन्नीसवें तीर्थंकर के रूप में सम्मानित होकर पूजी जा रही हैं।

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स्वामी रामतीर्थ का अनुभव

स्वामी रामतीर्थ जब प्रोफेसर थे तब उन्होंने एक प्रयोग किया और बाद में निष्कर्षरूप में बताया कि जो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में या परीक्षा से कुछ दिन पहले विषयों में फँस जाते हैं, वे परीक्षा में प्रायः असफल हो जाते हैं, चाहे वर्ष भर उन्होंने अपनी कक्षा में अच्छे अंक क्यों न पाये हों। जिन विद्यार्थियों का चित्त परीक्षा के दिनों में एकाग्र और शुद्ध रहा करता है, वे ही सफल होते हैं।

ऐसे ही ब्रिटेन की विश्वविख्यात ʹकेम्ब्रिज यूनिवर्सिटीʹ के कॉलेजों में किये गये सर्वेक्षण के निष्कर्ष असंयमी विद्यार्थियों को सावधानी का इशारा देने वाले हैं। इनके अनुसार जिन कॉलेजों के विद्यार्थी अत्यधिक कुदृष्टि के शिकार होकर असंयमी जीवन जीते थे, उनके परीक्षा परिणाम खराब पाये गये तथा जिन कॉलेजों में विद्यार्थी तुलनात्मक दृष्टि से संयमी थे, उनके परीक्षा-परिणाम बेहतर स्तर के पाये गये।

कामविकार को रोकना वस्तुतः बड़ा दुसाध्य है। यही कारण है कि मनु महाराज ने यहाँ तक कह दिया हैः "माँ, बहन और पुत्री के साथ भी व्यक्ति को एकांत में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि मनुष्य की इन्द्रियाँ बहुत बलवान होती हैं। वे विद्वानों के मन को भी समान रुप से अपने वेग में खींच ले जाती हैं।

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कोई देख रहा है.....!

(ब्रह्मलीन स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के अमृतवचन)

एक मुसाफिर ने रोम देश में एक मुसलमान लुहार को देखा। वह लोहे को तपाकर, लाल करके उसे हाथ में पकड़कर वस्तुएँ बना रहा था, फिर भी  उसका हाथ जल नहीं रहा था। यह देखकर मुसाफिर ने पूछाः "भैया ! यह कैसा चमत्कार है कि तुम्हारा हाथ जल नहीं रहा !"

लुहारः "इस फानी (नश्वर) दुनिया में मैं एक स्त्री पर मोहित हो गया था और उसे पाने के लिए सालों तक कोशिश करता रहा परंतु उसमें मुझे असफलता ही मिलती रही। एक दिन ऐसा हुआ कि जिस स्त्री पर मैं मोहित था, उसके पति पर कोई मुसीबत आ गयी।

उसने अपनी पत्नी से कहाः "मुझे धन की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि उसका बंदोबस्त न हो पाया तो मुझे मौत को गले लगाना पड़ेगा। अतः तुम कुछ भी करके, तुम्हारी पवित्रता बेचकर भी मुझे कुछ धन ला दो।ʹ ऐसी स्थिति में वह स्त्री जिसको मैं पहले ही चाहता था, मेरे पास आयी। उसे देखकर मैं बहुत खुश हो गया। सालों के बाद मेरी इच्छा पूर्ण हुई। मैं उसे एकांत में ले गया। मैंने उससे आने का कारण पूछा तो उसने सारी हकीकत बतायी। उसने कहाः "मेरे पति को धन की बहुत आवश्यकता है। अपनी इज्जत व शील को बेचकर भी मैं उन्हें कुछ धन ला देना चाहती हूँ। आप मेरी मदद कर सकें तो आपकी बड़ी मेहरबानी।"

तब मैंने कहाः "थोड़ा धन तो क्या, तुम जितना भी माँगोगी, मैं देने को तैयार हूँ।"

मैं कामांध हो गया था, मकान के सारे खिड़की-दरवाजे मैंने बन्द किये। कहीं से थोड़ा भी दिखायी दे ऐसी जगह भी बंद कर दी ताकि हमें कोई देश न ले। फिर मैं उसके पास गया।

उसने कहाः ʹरूको ! आपने सारे खिड़की-दरवाजे, छेद व सुराख बंद किये हैं, जिससे हमें कोई देख न सके लेकिन मुझे विश्वास है कि कोई हमें अब भी देख रहा है।"

मैंने पूछाः "अब भी कौन देख रहा है ?"

"ईश्वर ! ईश्वर हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहा है। आप उनके आगे भी कपड़ा रख दो ताकि आपको पाप का  प्रायश्चित न करना पड़े।" उसके ये शब्द मेरे दिल के आर-पार उतर गये। मुझ पर मानो हजारों घड़े पानी ढुल गया। मुझे कुदरत का भय सताने लगा। मेरी सारी वासना चूर-चूर हो गयी। मैंने खुदा से माफी माँगी और अपनी इस दुर्वासना के लिए बहुत ही पश्चाताप किया। परमेश्वर की अनुकम्पा मुझ पर हुई। भूतकाल में किये हुए कुकर्मों की माफी मिली, इससे मेरा दिल निर्मल हो गया। मैंने सारे खिड़की-दरवाजे खोल दिये और कुछ धन लेकर उस स्त्री के साथ चल पड़ा। वह स्त्री मुझे अपने पति के पास ले गयी। मैंने धन की थैली उसके  पास रख दी और सारी हकीकत सुनायी। उस दिन से मुझे प्रत्येक वस्तु में खुदाई नूर दिखने लगा है। तब से अग्नि, वायु व जल मेरे अधीन हो गये हैं।"

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः पूज्य बापू जी ! सावधानी बरतते हुए भी वीर्यपात, स्वप्नदोष होता हो तो क्या करें ?

उत्तरः सावधानी बरतने पर भी वीर्यपात का कष्ट हो तो चिंतिन न हों, बल्कि दृढ़ निश्चय से अधिक सावधानी बरतो। भगवत्प्रार्थना करो। ʹ अर्यमायै नमः"। मंत्र का जप करो। सर्वांगासन करके योनि को सिकोड़ लो (मूलबन्ध करो) और श्वास को बाहर निकालते हुए पेट को अंदर की ओर खींचो। कुछ समय  तक श्वास को बाहर ही रोके रखो और भावना करो कि ʹमेरा वीर्य ऊर्ध्वगामी हो रहा है।ʹ इस प्रयोग से ब्रह्मचर्य़ की रक्षा होगी।

ʹ माँ !..... गजानन..... शिवजी !..... रक्षा करो।ʹ यह प्रार्थना करें। अवश्य रक्षा होती है।

स्वप्नदोष से बचने के उपाय

अर्यमायै नमः मंत्र का जप सोने से पूर्व 21 बार करने से बुरे सपने नहीं आते।

सोने से पहले तर्जनी उँगली से तकिये पर अपनी माता का नाम लिखकर सोने से बहुत लाभ होता है।

आँवले के चूर्ण में चौथाई हिस्सा (25 प्रतिशत) हल्दी चूर्ण मिलाकर रखें। 7 दिन तक सुबह शाम यह मिश्रण 3-4 ग्राम लेने से चम्ताकरिक लाभ होता है। इसके सेवन से 2 घंटे पूर्व व पश्चात दूध न लें।

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पूज्य बापू जी का विद्यार्थियों के नाम संदेश

      हे मित्र ! बार-बार असफल होने पर भी तुम निराश मत हो | अपनी असफलताओं को याद करके हारे हुए जुआरी की तरह बार-बार गिरो मत | ब्रह्मचर्य की इस पुस्तक को फिर-फिर से पढ़ो | प्रातः निद्रा से उठते समय बिस्तर पर ही बैठे रहो और दृढ़ भावना करो :

      मेरा जीवन प्रकृति की थप्पड़ें खाकर पशुओं की तरह नष्ट करने के लिए नहीं है | मैं अवश्य पुरुषार्थ करूँगा, आगे बढूँगा | हरि ॐ

   मेरे भीतर परब्रह्म परमात्मा का अनुपम बल है | हरि ॐ

 तुच्छ एवं विकारी जीवन जीनेवाले व्यक्तियों के प्रभाव से मैं अपनेको विनिर्मुक्त करता जाऊँगा | हरि ॐ

 सुबह में इस प्रकार का प्रयोग करने से चमत्कारिक लाभ प्राप्त कर सकते हो | सर्वनियन्ता सर्वेश्वर को कभी प्यार करो कभी प्रार्थना करो कभी भाव से, विह्वलता से आर्तनाद करो | वे अन्तर्यामी परमात्मा हमें अवश्य मार्गदर्शन देते हैं | बल-बुद्धि बढ़ाते हैं | साधक तुच्छ विकारी जीवन पर विजयी होता जाता है | ईश्वर का असीम बल तुम्हारे साथ है | निराश मत हो भैया ! हताश मत हो | बार-बार फिसलने पर भी सफल होने की आशा और उत्साह मत छोड़ो | 

      शाबाश वीर … ! शाबाश … ! हिम्मत करो, हिम्मत करो | ब्रह्मचर्य-सुरक्षा के उपायों को बार-बार पढ़ो, सूक्ष्मता से विचार करो | उन्नति के हर क्षेत्र में तुम आसानी से विजेता हो सकते हो |

       करोगे न हिम्मत ?

       अति खाना, अति सोना, अति बोलना, अति यात्रा करना, अति मैथुन करना अपनी सुषुप्त योग्यताओं को धराशायी कर देता है, जबकि संयम और पुरुषार्थ सुषुप्त योग्यताओं को जगाकर जगदीश्वर से मुलाकात करा देता है |

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मन को सीख

(ब्रह्मनिष्ठ स्वामी श्री लीलाशाह जी महाराज के अमृतवचन)

मन बहुत ही चंचल है। मन को वश करना अत्यन्त कठिन है परंतु अभ्यास से यह भी सरल हो जाता है। हमें प्रतिदिन अपने कर्मों को याद करना चाहिए तथा अशुभ या पाप कर्मों के लिए पश्चाताप करना चाहिए। मन को समझाना चाहिए कि ʹहे मन ! तूने आज तक कितने ही अपराध किये, इन्द्रियों को विकारी बनाया, बुरे मार्ग पर ले गया, अधःपतन और बरबादी की। आश्चर्य तो यह कि जीवन के अनमोल वर्ष बीत जाने पर भी अभी तक बुरे काम करने से पीछे नहीं हटता। परमात्मा का डर रख। परमात्मा पर विश्वास रख। परमात्मा हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहे हैं।

हे मन ! अगर नहीं समझेगा तो तुझे स्वर्ग में तो क्या, नरक में भी स्थान मिलना मुश्किल हो जायेगा। तेरा तोते जैसा ज्ञान दुःखों के सामने जरा भी टिक नहीं सकता। हे मलिन मन ! तूने मेरी अधोगति की है। तूने मुझे विषयों के क्षणिक सुख में घसीटकर वास्तविक सुख से दूर रख के मेरे बल, बुद्धि और तंदरूस्ती का नाश किया है। तूने मुझसे जो अपराध करवाये हैं, वे अगर लोगों के सामने खोल दिये जायें तो लोग मुझे तिरस्कार व धिक्कार से फटकारेंगे।

हे दयालु परमात्मा ! मुझे धीरज व सदबुद्धि दो। सन्मार्ग बताओ। मेरे मलिन मन ने मेरा नाश किया है। मेरा मनुष्य-जन्म व्यर्थ जा रहा है। मलिन मन शैतान है।"

इस प्रकार मन को सदा समझाते रहोगे तो मन की डोर टूटेगी और मन काबू में आयेगा। सत्य, न्याय और ईमानदारी के मार्ग पर चलोगे तो उद्धार कठिन नहीं है।

मन पर कभी विश्वास न रखो, मन को स्वतन्त्रता दोगे तो तुम्हारी नौका खतरे में आ जायेगी। जैसे हाथी को नियंत्रण में रखने के लिए अंकुश की आवश्यकता रहती है, वैसे ही मन को वश में रखने के लिए सदा सत्संग, सच्चिंतन, सत्पठन करो, जीवन में उतारो। समय-सारणी बना कर मन को बाँधो, एक मिनट भी मन को खाली न होने दो। जीवन के प्रत्येक पल को नियमितता की जंजीर से बाँध दो। जो समय बरबाद हो गया हो, उसके लिए हृदयपूर्वक पश्चाताप करो। परम कृपालु परमात्मा बहुत ही दयालु हैं। उनकी शरण में जाओगे तो वे तुम्हारी रक्षा करेंगे। हम मानव तो हैं परंतु मानवता खो बैठे हैं, निरी पशुता देखने में आती है। सच्चा मानव बनने के लिए जीवन को संयमी बनाओ।

प्रभु सबको सदबुद्धि दें और सच्चा मानव बनायें।

हरि शान्ति......

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व्यसनों से सावधान

शराब एवं बीड़ी सिगरेट तम्बाकू का सेवन मनुष्य की कामवासना को उद्दीप्त करता है। कुरान शरीफ के अल्लाहपाक त्रिकोल रोशल के सिपारा में लिखा है कि "शैतान का भड़काया हुआ मनुष्य ऐसी नशीली चीजों का उपयोग करता है। ऐसे व्यक्ति से अल्लाह दूर रहता है क्योंकि यह काम शैतान का है और शैतान उस आदमी को जहन्नुम में ले जाता है। नशीली वस्तुओं के सेवन से फेफड़े व हृदय कमजोर हो जाते हैं, सहनशक्ति घट जाती है और आयुष्य भी कम हो जाता है। अमेरिकी डॉक्टरों ने खोज करके बताया है कि नशीली वस्तुओं के सेवन से कामभाव उत्तजित होने पर वीर्य पतला व कमजोर पड़ जाता है।

तम्बाकू अर्थात् तमोगुण की खान

तम्बाकू में निकोटीन नाम का अति कातिल, घातक जहर होता है। इससे तम्बाकू के व्यसनी कैंसर व क्षय जैसे जानलेवा रोग के भोग बनकर सदा के लिए ʹकैन्सलʹ हो जाते हैं। आजकल ये रोग अधिक फैल रहे हैं। तम्बाकू के व्यसनी अत्यन्त तमोगुणी, उग्र स्वभाव के हो जाने से क्रोधी, चिड़चिड़े व झगड़ालू बन जाते हैं। दूसरों की भावनाओं का लेशमात्र भी ध्यान नहीं रहता।

अरे, मेरे पावन व गरीब देश के वासियो ! महान पूर्वजों द्वारा दिये गये दिव्य, भव्य संस्कारों के वारिसदारो ! चेतो ! चेतो ! तम्बाकू भयानक काला नाग है। तम्बाकू के कातिल नागपाश से बचो ! अपने शरीर, मन, बुद्धि, धन, मान, प्रतिष्ठा को बचाओ ! सर्वनाशक तम्बाकू से बचो, अवश्य बचो !!

बहुत खतरनाक है पान मसाला

धूम्रपान से भी खतरनाक है पान मसाला या गुटखा। सुपारियों में प्रति सुपारी 10 से 12 घुन (एक प्रकार  के कीड़े) लग जाते हैं, तभी वे पान-मसाला या गुटखा बनाने हेतु काम में लाई जाती हैं।

इन घुनयुक्त सुपारियों को पीसने से घुन भी इनमें पिस जाते हैं। छिपकलियाँ सुखाकर व पीसकर उनका पाउडर व सुअर के मांस का पाउडर भी उसमें मिलाया जाता है। धातु क्षीण करने वाली सुपारी से युक्त इस कैंसरकारक मिश्रण का नाम रख दिया - ʹपान-मसालाʹ या ʹगुटखाʹ। एक बार आदत पड़ जाने पर यह छूटता नहीं। घुन का पाउडर ज्ञानतंतुओं में एक प्रकार की उत्तेजना पैदा करता है। पान-मसाला या गुटखा खाने में व्यक्ति न चाहते हुए भी बीमारियों का शिकार हो जाता है और तबाही के कगार पर पहुँच जाता है।

पान मसाला खाने वाले लोग धातु दौर्बल्य के शिकार हो जाते हैं, जिससे उन्हें बल-तेजहीन संतानें होती हैं। वे लोग अपने स्वास्थ्य तथा आने वाली संतान की कितनी हानि करते हैं यह उन बेचारों को पता ही नहीं है।

एक उपायः

पान मसाला या गुटखा खाने की आदत को छोड़ने के लिए 100 ग्राम सौंफ, 10 ग्राम अजवाइन और थोड़ा सेंधा नमक लेकर उसमें दो निंबुओं का रस निचोड़ के तवे पर सेंक लें। यह मिश्रण जेब में रखें। जब भी उस घातक पान मसाले की याद सताये, जेब से थोड़ा-सा मिश्रण निकाल कर मुँह में डालें। इससे सुअर का मांस, छिपकलियों का पाउडर व सुपारियों के साथ पिसे घुनमिश्रित पान-मसाले को मुँह में डालकर अपना सत्यानाश करने की आदत से आप बच सकते हैं। इससे आपका पाचनतंत्र भी ठीक रहेगा और रक्त की शुद्धि भी होगी।

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हमारे महान वैज्ञानिक

ऋषि भारद्वाज

वैदिक कालीन विमान विद्या के प्रणेता

ऋषि कपिल

सांख्य दर्शन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक

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चाय-कॉफी ने फैलाया सर्वनाश....

स्वास्थ्य पर हो रहा है भयानक कुठाराघात !

चाय-कॉफी पीने से शरीर व मस्तिष्क में स्फूर्ति आती है, ऐसे बहाने बनाकर मनुष्य इसके व्यसन में अधिकाधिक गहरे उतरते जा रहे हैं। वे शरीर, मन, मस्तिष्क तथा पसीने की कमाई गँवा देते हैं और भयंकर रोगों में फँसते जाते हैं, उनकी भूख मर जाती है, पाचनशक्ति मंद पड़ जाती है, मस्तिष्क सूखने लगता है और इससे नींद भी हराम हो जाती है। ऐसे तुरन्त मिलने वाली कृत्रिम स्फूर्ति को सच्ची स्फूर्ति मानना यह बड़ी भारी भूल है।

चाय-कॉफी के घातक दुष्परिणामः

चाय-कॉफी में पाये जाने वाले केमिकल्स व उनसे होने वाली हानियाँ-

केफीनः ऊर्जा व कार्यक्षमता कम होती है। कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम, होता है। कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है। परिणामतः हार्ट अटैक हो सकता है। पाचनतंत्र कमजोर होने से कब्ज और बवासीर होती है। रक्तचाप व अम्लता बढ़ती है। नींद कम आती है। सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव उत्पन्न होते हैं। गुर्दे और यकृत खराब होते हैं। शुक्राणुओं की संख्या घटने लगती है। वीर्य पतला होकर प्रजनन शक्ति कम होती है। यह गर्भस्थ शिशु के आराम में विक्षेप करता है, जो जन्म के बाद उसके विकृत व्यवहार का कारण होता है। अधिक चाय-कॉफी पीने वाली महिलाओं की गर्भधारण की क्षमता कम होती है। गर्भवती स्त्री अधिक चाय पीती है तो नवजात शिशु को जन्म के बाद नींद नहीं आती। वह उत्तेजित और अशांत रहता है, कभी-कभी ऐसे शिशु जन्म के बाद ठीक तरह से श्वास नहीं ले सकते और मर जाते हैं। संधिवात, जोड़ों के दर्द, गठिया व त्वचा विकार उत्पन्न होते हैं।

टेनिनः अजीर्ण व कब्ज रहता है। यकृत को हानि पहुँचाता है। इससे आलस्य व प्रमाद बढ़ता है, चमड़ी रूक्ष बनती है।

थीनः इससे खुश्की चढ़ती है, सिर में भारीपन महसूस होता है।

सायनोजनः अनिद्रा, लकवा जैसी भयंकर बीमारियाँ पैदा करता है।

एरोमिक ऑयलः आँतों पर हानिकारक प्रभाव डालता है।

अधिक चाय पीने वाले मधुमेह, चक्कर आना, गले के रोग, रक्त की अशुद्धि, दाँतों के रोग और मसूड़ों की कमजोरी से ग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए चाय-कॉफी का सेवन कभी न करें। इतना जानने के बाद तो आप स्वास्थ्य व जीवन के शत्रु न बनो भाई।

चाय-कॉफी के स्थान पर....

जब भी चाय-कॉफी पीने की इच्छा हो तब उसके स्थान पर निम्निलिखित प्रयोग करके उसका सेवन करने से अत्यधिक लाभ होगा एवं सर्दी, जुकाम, खाँसी, श्वास, कफजनित बुखार, निमोनिया आदि रोग कभी नहीं होंगे।

बनफ्शा, छाया में सुखाये तुलसी के पत्ते, दालचीनी, छोटी इलायची, सौंफ, ब्राह्मी के सूखे पत्ते, छिली हुई यष्टिमधु – प्रत्येक वस्तु एक तोला (लगभग 12-12 ग्राम)

इन सबको अलग-अलग पीसकर मिश्रण बनाकर रखें। जब चाय पीने की इच्छा हो तब आधा तोला (लगभग 6 ग्राम) चूर्ण को एक रतल (450 ग्राम) पानी में उबालें। आधा पानी शेष रहे तब छानकर उसमें दूध, मिश्री मिलाकर पियें। इससे मस्तिष्क में शक्ति, शरीर मे स्फूर्ति और भूख बढ़ती है।

पाचनशक्ति व बुद्धिवर्धक, हृदय के लिए हितकर

14 बहुमूल्य औषधियों के संयोग से बनी यह ओजस्वी चाय क्षुधावर्धक, मेध्य व हृदय के लिए बलदायक है। यह मनोबल को बढ़ाती है। मस्तिष्क को तनावमुक्त करती है, जिससे नींद अच्छी आती है। यह यकृत के कार्य को सुधार कर रक्त की शुद्धि करती है।

इसमें निहित घटक द्रव्य व उनके लाभ

सोंठः कफनाशक, आमपाचक, जठराग्निवर्धक। ब्राह्मीः स्मृति, मेधाशक्ति व मनोबल वर्धक। अर्जुनः हृदयबलवर्धक, रक्त-शुद्धिकर, अस्थि पुष्टिकर। दालचीनीः जंतुनाशक, हृदय व यकृत उत्तेजक, ओजवर्धक। तेजपत्रः सुगंध व स्वाददायक, दीपन, पाचक। शंखपुष्पीः मेध्य, तनावमुक्त करने वाली, निद्राजनक। काली मिर्चः जठराग्निवर्धक, कफघ्न, कृमिनाशक। रक्तचंदनः दाहशामक, नेत्रों के लिए हितकर। नागरमोथः दाहशामक, पित्तशामक, कृमिघ्न, पाचक। इलायचीः त्रिदोषशामक, मुखदुर्गंधिहर, हृदय के लिए हितकर। कुलंजनः पाचक, कंठशुद्धिकर, बहुमूत्र में उपयुक्त। जायफलः स्वर व वर्ण सुधारने वाले, रूचिकर, वृष्य। मुलेठी (यष्टिमधु)- कंठ-शुद्धिकर, कफघ्न, स्वरसुधारक। सौंफः उत्तम पाचक, रूचिकर, नेत्रज्योतिवर्धक।

एक आधा घंटा पहले अथवा रात को पानी में भिगोकर रखी हुई ओजस्वी चाय सुबह उबालें तो उसका और अधिक गुण आयेगा।

(यह ओजस्वी चाय सभी संत श्री आशारामजी आश्रमों व श्री योग वेदांत सेवा समितियों के सेवा केन्द्रों पर उपलब्ध है।)

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कोल्ड ड्रिंक्स पी रहे हैं या जंतुनाशक दवा ?

अब आप ही निर्णय करें

कोल्ड ड्रिंक्स में डी.डी.टी. (कैंसरकारक), लिण्डेन (बच्चों के मस्तिष्क को क्षतिग्रस्त करता है), क्लोरपायरिफोस (गर्भवती महिलाओं के लिए घातक), मेलाथियोन (तंत्रिका-तंत्र के लिए हानिकारक) के अतिरिक्त अन्य घातक रसायन जैसे कैफीन, कोकिन, अल्कोहल, पोटेशियम बेंजोएट, फॉस्फोरिक अम्ल भी पाये जाते हैं। इनके सेवन से हड्डियों का गलना, मोटापा, गुर्दों में पथरी आदि खतरनाक बीमारियाँ भी हो सकती हैं।

लहर नहीं जहर हूँ मैं...

पेप्सी बोली कोका कोला !

भारत का इन्सान है भोला।

विदेश से मैं आयी हूँ,

साथ मौत को लायी हूँ।

लहर नहीं ज़हर हूँ मैं,

गुर्दों पर बढ़ता कहर हूँ मैं।

मेरी पी.एच. दो पॉइन्ट सात,

मुझ में गिर कर गल जायें दाँत।

जिंक आर्सेनिक लेड हूँ मैं,

काटे आँतों को वो ब्लेड हूँ मैं।

मुझसे बढ़ती एसिडिटी,

फिर क्यों पीते भैया-दीदी ?

ऐसी मेरी कहानी है,

मुझसे अच्छा तो पानी है।

दूध दवा है, दूध दुआ है,

मैं जहरीला पानी हूँ।

हाँ दूध मुझसे सस्ता है,

फिर पीकर मुझको क्यों मरता है ?

540 करोड़ कमाती हूँ,

विदेश में ले जाती हूँ।

शिव ने भी न जहर उतारा,

कभी अपने कण्ठ के नीचे।

तुम मूर्ख नादान हो यारो !

पड़े हुए हो मेरे पीछे।

देखो इन्सां लालच में अंधा,

बना लिया है मुझको धंधा।

मैं पहुँची हूँ आज वहाँ पर,

पीने का नहीं पानी जहाँ पर।

नकल नहीं अब अकल से जीयो,

जो कुछ पीना संभल के पीयो।

रखना अब तुम ध्यान,

घर आयें जब मेहमान।

इतनी तो रस्म निभाना,

उनको भी कुछ कस्म दिलाना।

दूध जूस गाजर रस पीना,

डाल कर छाछ में जीरा पुदीना।

अनानास आम का अमृत,

बेदाना बेलफल का शरबत।

स्वास्थ्यवर्धक नींबू का पानी,

जिसका नहीं है कोई सानी।

तुम भी पीना और पिलाना,

पेप्सी अब नहीं घर लाना।

अब तो समझो मेरे बाप,

मेरे बचे स्टॉक से करो टॉयलेट साफ।

नहीं तो होगा वो अंजाम,

कर दूँगी मैं काम तमाम।

(लेखकः गिरीश कुमार जोशी, उदयपुर (राज.)

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युवानों सावधान !

भारतभूमि ऋषि, मुनियों, अवतारों की भूमि है। यहाँ पहले लोग आपस में मिलते तो ʹराम-रामʹ कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते थे। दो बार ही ʹरामʹ क्यों कहते थे ? दो बार राम कहने के पीछे कितना सुंदर अर्थ छुपा है कि सामने वाले व्यक्ति तथा मुझमें, दोनों में उसी राम-परमात्मा-ईश्वर की चेतना है, उसे प्रणाम हो ! ऐसी दिव्य भावना को ʹप्रेमʹ कहते हैं। निर्दोष, निष्कपट, निःस्वार्थ, निर्वासनिक स्नेह को ʹप्रेमʹ कहते हैं। इस प्रकार एक दूसरे से मिलने पर भी ईश्वर की याद ताजा हो जाती थी पर आज ऐसी पवित्र भावना तो दूर की बात है, पतन करने वाले ʹआकर्षणʹ को ही ʹप्रेमʹ माना जाने लगा है। 14 फऱवरी को ʹवेलेन्टाइन डेʹ मनाया जाता है। इस दिन पश्चिमी देशों में युवक-युवतियाँ एक दूसरे को ग्रीटिंग कार्डस, चॉकलेटस और गुलाब के फूल भेंट करते हैं।

पश्चिमी देशों के वासनामय प्रेम का घृणित रूप अभी अपने देश में भी दिखने लगा है। विशेषतः कॉलेजों में लाल गुलाब में लिये कइयों को देखा जा सकता है।

इस दिन के लिए बाजार में 20 रूपये से लेकर 200 रूपये तक के तरह-तरह के ग्रीटिंग कार्डस पाये जाते हैं। विशेष प्रकार के महँगे चॉकलेट्स भी मिलते हैं। कहाँ तो परस्परं भावयन्तु।

ʹहम एक दूसरे को उन्नत करें। तन्मे मनः शिवसकंल्पमस्तु। मेरा मन सदैव शुभ विचार ही किया करे। - इस प्रकार की दिव्य भावना को जगाने वाले हमारे रक्षाबंधन, भाईदूज जैसे पर्व और कहाँ यह वासना, अभद्रता को बढ़ावा देने वाला ʹवेलेन्टाइन डेʹ !

अभी तो विज्ञान भी सिद्ध कर रहा है कि सवासनिक प्रेम में पड़े हुए व्यक्ति की बुद्धि कुंठित हो जाती है। यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन के वैज्ञानिक एड्रियांस औरटेल्स 11 देशों में विविध जातियों के लोगों पर प्रयोग करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि एकाग्रता और यादशक्ति से संबंधित ज्ञानतंतुओं पर प्रेम का गहरा असर होता है। अपने प्रेमी-प्रेमिका का फोटो देखने के बाद उस व्यक्ति के मस्तिष्क की संवेदना को ʹमेग्निटिक रेसोनेन्स इमेजिंगʹ (MRI) के द्वारा मापा गया। फोटो देखने पर मस्तिष्क के चार छोटे विभागों में रक्त का प्रवाह ज्यादा देखने को मिला, जिसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति की यादशक्ति तथा एकाग्रता घट जाती है और भय व अवसाद (डिप्रेशन) बढ़ जाता है।

ʹवेलेन्टाइन डेʹ के नाम पर भले ही युवक-युवतियाँ समझें कि वे मौज मना रहे हैं पर वे जानते ही नहीं कि अपने-आपका कितना नुक्सान कर रहे हैं। कितना वीर्य का नाश, जीवनीशक्ति का नाश कर रहे हैं।

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ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ को राज्यस्तरीय पर्व के रूप में

मनाने का स्वर्णिम इतिहास रचा छत्तीसगढ़ सरकार ने

अपने राज्य की बाल एवं युवा पीढ़ी तथा समस्त जनता के कल्याण की पवित्र सदभावना से ओतप्रोत छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री एवं शिक्षामंत्री ने पूज्य बापू जी के ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ मनाने के आह्वान को शिरोधार्य करते हुए इसे प्रतिवर्ष पूरे राज्य में मनाने की घोषणा की।

माता मिता के सम्मान के दिव्य संस्कारों का आदर कर ऐसा स्वर्णिम इतिहास रचने वाले पहले राज्य के रूप में छ्त्तीसगढ़ का नाम हमेशा याद किया जायेगा।

संस्कार धरोहर का संरक्षण

संवर्धन करने हेतु प्रतिवर्ष 14 फऱवरी को पूरा छत्तीसगढ़ राज्य मातृ-पितृ पूजन दिवस मनायेगा। (मुख्य मंत्री डॉ. रमन सिंह)

"परम पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का देशव्यापी आह्वान है कि 14 फरवरी को बच्चे बच्चियाँ अपने माँ-पा की पूजा-अर्चना करके इस दिन को ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ के रूप में मनायें। मैं पूरे छत्तीसगढ़ के सरकारी तथा गैर सरकार विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में 14 फरवरी को मातृ-पितृ पूजन कार्यक्रम मनाये जाने की अपेक्षा करता हूँ।" (डॉ. रमन सिंह, मुख्यमंत्री (छत्तीसगढ़)

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विश्वमानव की मंगलकामना से भरे पूज्य संत श्री आसारामजी बापू का परम हितकारी संदेश

मातृ-पितृ पूजन दिवसः 14 फरवरी

प्रेम-दिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर विनाशकारी कामविकार का विकास हो रहा है, जो आगे चलकर चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, खोखलापन, जल्दी बुढ़ापा और मौत लाने वाला साबित होगा। अतः भारतवासी इस अंधपरंपरा से सावधान हों !

'इन्नोसन्टी रिपोर्ट कार्ड' के अनुसार 28 विकसित देशों में हर साल 13 से 19 वर्ष की 12 लाख 50 हजार किशोरियाँ गर्भवती हो जाती हैं। उनमें से 5 लाख गर्भपात कराती हैं और 7 लाख 50 हजार कुँवारी माता बन जाती हैं। अमेरिका में हर साल 4 लाख 94 हजार अनाथ बच्चे जन्म लेते हैं और 30 लाख किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों के शिकार होते हैं।

यौन संबन्ध करने वालों में 25 % किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों से पीड़ित हैं। असुरिक्षित यौन संबंध करने वालों में 50 % को गोनोरिया, 33 % को जैनिटल हर्पिस और एक प्रतिशत के एड्स का रोग होने की संभावना है। एडस के नये रोगियों में 25 % 22 वर्ष से छोटी उम्र के होते हैं। आज अमेरिका के 33 % स्कूलों में यौन शिक्षा के अंतर्गत 'केवल संयम' की शिक्षा दी जाती है। इसके लिए अमेरिका ने 40 करोड़ से अधिक डॉलर (20 अरब रूपये) खर्च किये हैं।

प्रेम दिवस जरूर मनायें लेकिन प्रेमदिवस में संयम और सच्चा विकास लाना चाहिए। युवक युवती मिलेंगे तो विनाश-दिवस बनेगा। इस दिन बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता का पूजन करें और उनके सिर पर पुष्ष रखें, प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतानों को प्रेम करें। संतान अपने माता-पिता के गले लगे। इससे वास्तविक प्रेम का विकास होगा। बेटे-बेटियाँ माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों में ईश्वरीय अंश देखें।

तुम भारत के लाल और भारत की लालियाँ (बेटियाँ) हो। प्रेमदिवस मनाओ, अपने माता-पिता का सम्मान करो और माता-पिता बच्चों को स्नेह करें। करोगे न बेटे ऐसा ! पाश्चात्य लोग विनाश की ओर जा रहे हैं। वे लोग ऐसे दिवस मनाकर यौन रोगों का घर बन रहे हैं, अशआंति की आग में तप रहे हैं। उनकी नकल तो नहीं करोगे ?

मेरे प्यारे युवक-युवतियो और उनके माता-पिता ! आप भारतवासी हैं। दूरदृष्टि के धनी ऋषि-मुनियों की संतान हैं। प्रेमदिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर बच्चों, युवान-युवतियों के ओज-तेज का नाश हो, ऐसे दिवस का त्याग करके माता-पिता और संतानों ! प्रभु के नाते एक-दूसरे को प्रेम करके अपने दिल के परमेश्वर को छलकने दें। काम विकार नहीं, रामरस, प्रभुप्रेम, प्रभुरस....

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। बालिकादेवो भव।

कन्यादेवो भव। पुत्रदेवो भव।

माता पिता का पूजन करने से काम राम में बदलेगा, अहंकार प्रेम में बदलेगा, माता-पिता के आशीर्वाद से बच्चों का मंगल होगा।

पाश्चात्यों का अनुकरण आप क्यों करो ? आपका अनुकरण करके वे सदभागी हो जाये।

जो राष्ट्रभक्त नागरिक यह राष्ट्रहित का कार्य करके भावी सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण में साझीदार हो रहे हैं वे धनभागी हैं और जो होने वाले हैं उनका भी आवाहन किया जाता है।

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यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

सिर दीजे सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

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सदगुरु महिमा

गुरु बिनु भव निधि तरै न कोई |

जौं बरंचि संकर सम होई ||

-संत तुलसीदासजी

 

हरिहर आदिक जगत में पूज्यदेव जो कोय |

सदगुरू की पूजा किये सबकी पूजा होय ||

-निश्चलदासजी महाराज

 

सहजो कारज संसार को गुरू बिन होत नाँही |

हरि तो गुरू बिन क्या मिले, समझ ले मन माँही ||

-संत कबीरजी संत

 

सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार |

संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ||

-गुरू नानक देवजी

"गुरूसेवा सब भाग्यों की जन्मभूमि है और वह शोकाकुल लोगों को ब्रह्ममय कर देती है | गुरुरूपी सूर्य अविद्यारूपी रात्रि का नाश करता है और ज्ञानाज्ञान रूपी सितारों का लोप करके बुद्धिमानों को आत्मबोध का सुदिन दिखाता है |"

-संत ज्ञानेश्वर महाराज

"सत्य के कंटकमय मार्ग में आपको गुरू के सिवाय और कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकता |"

- स्वामी शिवानंद सरस्वती

"कितने ही राजा-महाराजा हो गये और होंगे, सायुज्य मुक्ति कोई नहीं दे सकता | सच्चे राजा-महाराज तो संत ही हैं | जो उनकी शरण जाता है वही सच्चा सुख और सायुज्य मुक्ति पाता है |"

-समर्थ श्री रामदास स्वामी

"मनुष्य चाहे कितना भी जप-तप करे, यम-नियमों का पालन करे परंतु जब तक सदगुरू की कृपादृष्टि नहीं मिलती तब तक सब व्यर्थ है |"

-स्वामी रामतीर्थ

प्लेटो कहते है कि : "सुकरात जैसे गुरू पाकर मैं धन्य हुआ |"

इमर्सन ने अपने गुरू थोरो से जो प्राप्त किया उसके महिमागान में वे भावविभोर हो जाते थे |

 

श्री रामकृष्ण परमहंस पूर्णता का अनुभव करानेवाले अपने सदगुरूदेव की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे |

पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज भी अपने सदगुरूदेव की याद में स्नेह के आँसू बहाकर गदगद कंठ हो जाते थे |

पूज्य बापूजी भी अपने सदगुरूदेव की याद में कैसे हो जाते हैं यह तो देखते ही बनता है | अब हम उनकी याद में कैसे होते हैं यह प्रश्न है | बहिर्मुख निगुरे लोग कुछ भी कहें, साधक को अपने सदगुरू से क्या मिलता है इसे तो साधक ही जानते हैं |

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पावन उदगार

हर व्यक्ति जो निराश है उसे आशारामजी की जरूरत है

"जिस महापुरुष ने, जिस महामानव ने, जिस दिव्य चेतना से संपन्न पुरुष ने इस धरा पर धर्म, संस्कृति, अध्यात्म और भारत की उदात्त परंपराओं को पूरी ऊर्जा (शक्ति) से स्थापित किया है, उस महापुरुष के मैं दर्शन न करूँ ऐसा तो हो ही नहीं सकता। इसलिए मैं स्वयं यहाँ आकर अपने-आपको धन्य और कृतार्थ महसूस कर रहा हूँ। मेरे प्रति इनका जो स्नेह है यह तो मुझ पर इनका आशीर्वाद है और बड़ों का स्नेह तो हमेशा रहता ही है छोटों के प्रति। यहाँ पर मैं आशीर्वाद लेने के लिए आया हूँ।

मैं समझता हूँ कि जीवन में लगभग हर व्यक्ति निराश है और उसको आसारामजी की ज़रूरत है। देश यदि ऊँचा उठेगा, समृद्ध बनेगा, विकसित होगा तो अपनी प्राचीन परंपराओं, नैतिक मूल्यों और आदर्शों से ही होगा और वह आदर्शों, नैतिक मूल्यों, प्राचीन सभ्यता, धर्म-दर्शन और संस्कृति का जो जागरण है, वह आशाओ के राम बनने से ही होगा। इसलिए श्रद्धेय, वंदनीय महाराज श्री 'आसाराम जी' की सारी दुनिया को जरूरत है। बापू जी के चरणों में प्रार्थना करते हुए कि आप दिशा देते रहना, राह दिखाते रहना, हम भी आपके पीछे-पीछे चलते रहेंगे और एक दिन मंजिल मिलेगी ही, पुनः आपके चरणों में वंदन!"

प्रसिद्ध योगाचार्य श्री रामदेव जी।

बापू जी का अवतरण हुआ है

"सुख-शांति व स्वास्थ्य का प्रसाद बाँटने के लिए ही इन संत का, महापुरुष का अवतरण हुआ है।"

काँची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य जगदगुरु श्री जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज।

बापू नित्य नवीन, नित्य वर्धनीय आनंदस्वरूप हैं

"परम पूज्य बापू के दर्शन करके मैं पहले भी आ चुका हूँ। दर्शन करके 'दिने-दिने नवं-नवं प्रतिक्षण वर्धनाम्' अर्थात बापू नित्य नवीन, नित्य वर्धनीय आनंदस्वरूप हैं, ऐसा अनुभव हो रहा है और यह स्वाभाविक ही है। पूज्य बापू जी को प्रणाम!"

सुप्रसिद्ध कथाकार संत श्री मोरारी बापू।

"कितने ही राजा-महाराजा हो गये और होंगे, सायुज्य मुक्ति कोई नहीं दे सकता। सच्चे राजा-महाराजा तो संत ही हैं। जो उनकी शरण जाता है वही सच्चा सुख और सायुज्य मुक्ति पाता है।"

समर्थ श्रीरामदासजी महाराज

बापू जी का सान्निध्य गंगा के पावन प्रवाह जैसा है

वे अलमस्त फकीर हैं। वे बड़े सरल और सहज हैं। वे जितने ही ऊपर से सरल हैं, उतने ही अंतर में गूढ़ हैं। उनमें हिमालय जैसी उच्चता, पवित्रता, श्रेष्ठता है और सागरतल जैसी गम्भीरता है। वे राष्ट्र की अमूल्य धरोहर हैं।

जूना अखाड़ा स्वामी अवधेशानंदजी महाराज, हरिद्वार।

जिन्होंने सारे विश्व के अंदर भावधारा को प्रबल किया

"प्रातःस्मरणीय-सायं वंदनीय, सारे राष्ट्र ही नहीं अपितु सारे विश्व में भक्ति की गंगा को प्रवाहित करने वाले पूज्य बापूजी को मैं वंदन करती हूँ। पूज्य बापूजी जैसे संत, जिन्होंने सारे विश्व के अंदर भावधारा को प्रबल किया, उनका वंदन होना चाहिए।"

"साध्वी ऋतम्भराजी "

क्या आपको पता है ?

फ्रांस के वैज्ञानिक डॉ. एंटोनी बोविस ने बायोमीटर (ऊजा मापक यंत्र) का उपयोग करके वस्तु, व्यक्ति, वनस्पति या स्थान की आभा की तीव्रता मापने की पद्धति खोज निकाली। इस यंत्र द्वारा यह मापा गया कि सात्त्विक जगह और मंत्र का व्यक्ति पर कितना प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि सामान्य, स्वस्थ मनुष्य का ऊर्जा-स्तर 6500 बोविस होता है। पवित्र मंदिर, आश्रम आदि के गर्भगृहों का ऊर्जा-स्तर 11000 बोविस तक होता है। ऐसे स्थानों में जाकर सत्संग, जप, कीर्तन, ध्यान आदि का लाभ ले के अपना ऊर्जा-स्तर बढ़ाने की जो परम्परा अपने देश में है, उसकी अब आधुनिक विज्ञान भी सराहना कर रहा है क्योंकि व्यक्ति का ऊर्जा-स्तर जितना अधिक होता है उतना ही अधिक वह स्वास्थ्य, तंदुरूस्ती, प्रसन्नता का धनी होता है।

ऊर्जा-अध्ययन करते हुए जब वैज्ञानिकों ने कार के जप से उत्पन्न ऊर्जा को मापा तब तो उनके आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा क्योंकि यह ऊर्जा 70000 बोविस पायी गयी। और यही कारण है कि कार युक्त सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर जो विद्यार्थी प्रतिदिन कुछ प्राणायाम और जप करते हैं, वे चाहे थके-हारे एवं पिछड़े भी हों तो भी शीघ्र उन्नत हो जाते हैं। कार की महिमा से जपकर्ता को सब तरह से लाभ अधिक है। यदि आपके मंत्र में कार है तो लगे रहिये।

आप कहते हैं.....

बापू जी हमारी आँख में ज्ञान का अंजन लगा रहे हैं

"संत महात्माओं के दर्शन तभी होते हैं, उनका सान्निध्य तभी मिलता है जब कोई पुण्य जागृत होता है। जरूर यह मेरे पुण्यों का ही फल है जो बापू जी के दर्शन हुए। देश भर की परिक्रमा करते हुए जन-जन के मन में अच्छे संस्कार जगाना, यह एक ऐसा परम राष्ट्रीय कर्तव्य है, जिसने हमारे देश को आज तक जीवित रखा है और इसके बल पर हम उज्जवल भविष्य का सपना देख रहे हैं, उस सपने को साकार करने की शक्ति-भक्ति एकत्र कर रहे हैं। पूज्य बापू जी सारे देश में भ्रमण करके जागरण का शंखनाद कर रहे हैं, संस्कार दे रहे हैं तथा अच्छे और बुरे में भेद करना सिखा रहे हैं। हमारी जो प्राचीन धरोहर थी और जिसे हम लगभग भूलने का पाप कर बैठे थे, बापू जी हमारी आँखों में ज्ञान का अंजन लगाकर उसको फिर से हमारे सामने रख रहे हैं। बापू जी का प्रवचन सुनकर बड़ा बल मिलता है। पुण्य-प्रवचन सुनते ही निराशा भी आज दूर हो गयी, बड़ा आनंद आया। मैं बापूजी के चरणों में विनम्र होकर नमन करता हूँ। उनका आशीर्वाद हमें मिलता रहे, उनके आशीर्वाद से प्रेरणा पाकर, बल प्राप्त करके हम कर्तव्य के पथ पर निरंतर चलते हुए परम वैभव को प्राप्त करें, यही प्रभु से प्रार्थना है।"

श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री

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अवतरण दिवस ʹसेवा दिवसʹ के रूप में

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील को यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई है कि श्री आशारामजी बापू जी का अवतरण दिवस ʹसेवा दिवसʹ के रूप में मनाया जा रहा है।

अर्चना दत्ता (मुखोपाध्याय)

राष्ट्रपति की विशेष कार्याधिकारी (जनसम्पर्क)

गरीबों व पिछड़ों को ऊपर उठाने के कार्य सराहनीय हैं

"गरीबों और पिछड़ों को ऊपर उठाने का कार्य आश्रम द्वारा चलाये जा रहे हैं, मुझे प्रसन्नता है। मानव-कल्याण के लिए, विशेषतः, प्रेम व भाईचारे के संदेश के माध्यम से किये जा रहे विभिन्न आध्यात्मिक एवं मानवीय प्रयास समाज की उन्नति के लिए सराहनीय हैं।"

डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम, राष्ट्रपति, भारत गणतंत्र।

सराहनीय प्रयासों की सफलता के लिए बधाई

"मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि 'संत श्री आसारामजी आश्रम न्यास' जन-जन में शांति, अहिंसा और भ्रातृत्व का संदेश पहुँचाने के लिए देश भर में सत्संग का आयोजन कर रहा है। उसके सराहनीय प्रयासों की सफलता के लिए मैं बधाई देता हूँ।"

श्री के. आर. नारायणन्, तत्कालीन राष्ट्रपति, भारत गणतंत्र, नई दिल्ली।

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पू. बापूः राष्ट्रसुख के संवर्धक

"पूज्य बापू द्वारा दिया जाने वाला नैतिकता का संदेश देश के कोने-कोने में जितना अधिक प्रसारित होगा, जितना अधिक बढ़ेगा, उतनी ही मात्रा में राष्ट्रसुख का संवर्धन होगा, राष्ट्र की प्रगति होगी। जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रकार के संदेश की जरूरत है।"

(श्री लालकृष्ण आडवाणी, उपप्रधानमंत्री एवं केन्द्रीय गृहमंत्री, भारत सरकार।)

आप समाज की सर्वांगीण उन्नति कर रहे हैं

"आज के भागदौड़भरे स्पर्धात्मक युग में लुप्तप्राय-सी हो रही आत्मिक शांति का आपश्री मानवमात्र को सहज में अनुभव करा रहे हैं। आप आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा समाज की सर्वांगीण उन्नति कर रहे हैं व उसमें धार्मिक एवं नैतिक आस्था को सुदृढ़ कर रहे हैं।"

श्री कपिल सिब्बल, दूरसंचार मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार

पुण्योदय पर संत समागम

"संत श्री आसारामजी जैसे दिव्य शक्तिसम्पन्न संत पधारें और हमको आध्यात्मिक शांति का पान कराकर जीवन की अंधी दौड़ से छुड़ायें, ऐसे प्रसंग कभी-कभी ही प्राप्त होते हैं। ये पूजनीय संतश्री संसार में रहते हुए भी पूर्णतः विश्वकल्याण के लिए चिन्तन करते हैं, कार्य करते हैं। लोगों को आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने की कलाएँ और योगसाधना की युक्तियाँ बताते हैं।

आज उनके समक्ष थोड़ी ही देर बैठने से एवं सत्संग सुनने से हमलोग और सब भूल गये हैं तथा भीतर शांति व आनंद का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे संतों के दरबार में पहुँचना पुण्योदय का फल है। उन्हे सुनकर हमको लगता है कि प्रतिदिन हमें ऐसे सत्संग के लिए कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए। पूज्य बापू जी जैसे महान संत व महापुरुष के सामने मैं अधिक क्या कहूँ? चाहे कुछ भी कहूँ, वह सब सूर्य के सामने चिराग दिखाने जैसा है।"

श्री मोतीलाल वोरा, अखिल भारतीय काँग्रेस कोषाध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री (म.प्र.), पूर्व राज्यपाल (उ.प्र.)।

 

संतों के मार्गदर्शन में देश चलेगा तो आबाद होगा

"पूज्य बापू जी में कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग तीनों का ही समावेश है। आप आज करोड़ों-करोड़ों भक्तों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। संतों के मार्गदर्शन में देश चलेगा तो आबाद होगा। मैं तो बड़े-बड़े नेताओं से यही कहता हूँ कि आप संतों का आशीर्वाद जरूर लो। इनके चरणों में अगर रहेंगे तो सत्ता रहेगी, टिकेगी तथा उसी से धर्म की स्थापना होगी।"

श्री अशोक सिंघल, अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद।

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हम प्रार्थना करते हैं कि देश में अमन चैन आये

"बापू जी ! हम अमन-चैन से रहना चाहते हैं, मगर देश के अंदर व बाहर ऐसी ताकते हैं जो हम लोगों को लड़ाती रहती हैं। मैं आपसे प्रार्थना करूँगा कि वे ताकतें कभी ताकतवर न हों। आप जैसे खुदा के प्यारे, जिनको उन्होंने यह रोशनी बख्शी है उनसे हम सब प्रार्थना करते हैं कि न सिर्फ इस प्रांत में बल्कि सम्पूर्ण देश में अमन-चैन आये और हम तरक्की की राह पर चलें।"

फारूख अब्दुल्ला, तत्कालीन मुख्यमंत्री (जम्मू-कश्मीर) व केन्द्रीय अक्षय ऊर्जा मंत्री

बाल व महिला उत्थान के कार्य प्रशंसनीय हैं

"मुझे इस बात की खुशी है कि बापू जी के कितनी सारी जगहों पर बाल उत्थान के लिए बाल संस्कार केन्द्र व गुरुकुल तथा महिला उत्थान के लिए आश्रम व अभियान चलते हैं। बापू जी के वचनों के अनुसार अगर हम चलें, उनका अनुसरण करें तो भारत पुनः अपनी महानता को प्राप्त कर पूरे विश्व का कल्याण कर सकता है।"

श्रीमती कृष्णा तीरथ, महिला एवं बाल विकास मंत्री, भारत सरकार

5 वर्ष के बालक ने चलायी जोखिमभरी सड़कों पर कार !

"मैंने पूज्य बापूजी से ʹसारस्वत्य मंत्रʹ की दीक्षा ली है। जब मैं पूजा करता हूँ, बापू जी मेरी तरफ पलकें झपकाते हैं। मैं बापूजी से बातें करता हूँ। मैं रोज दस माला जप करता हूँ। मैं बापूजी से जो माँगता हूँ, वह मुझे मिल जाता है। मुझे हमेशा ऐसा एहसास होता है कि बापूजी मेरे साथ हैं।

5 जुलाई 2005 को मैं अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था। मेरा छोटा भाई छत से नीचे गिर गया। उस समय हमारे घर में कोई बड़ा नहीं था। इसलिए हम सब बच्चे डर गये। इतने में पूज्य बापू जी की आवाज आयी कि ʹतांशू ! इसे वैन में लिटा और वैन चलाकर हास्पिटल ले जा।ʹ उसके बाद मैंने अपनी दीदियों की मदद से हिमांशु को वैन में लिटाया। गाड़ी कैसे चली और अस्पताल तक कैसे पहुँची, मुझे नहीं पता। मुझे रास्ते भर ऐसा एहसास रहा कि बापूजी मेरे साथ बैठे हैं और गाड़ी चलवा रहे हैं।" (घर से अस्पताल की दूरी 5 कि.मी. से अधिक है।)

तांशु बेसोया, राजवीर कालोनी, दिल्ली – 96

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मंत्रदीक्षा क्यों ?

भगवान श्रीकृष्ण ने ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में कहा हैः

यज्ञानां जपयज्ञोस्मि। ʹयज्ञों में जपयज्ञ हूँ।

भगवान श्रीराम कहते हैं-

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा।

पंचम भक्ति सो वेद प्रकासा।।

ʹमेरे मंत्र का जप और मुझमें दृढ़ विश्वास-यह पाँचवीं भक्ति है।

(श्रीरामचरितमानस)

इस प्रकार विभिन्न शास्त्रों में मंत्रजप की अदभुत महिमा बतायी गयी है। परंतु यदि मंत्र किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से दीक्षा में प्राप्त हो जाय तो उसका प्रभाव अनंत गुना होता है। संत कबीर जी कहते हैं-

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार

श्री सदगुरुदेव की कृपा और शिष्य की श्रद्धा, इन दो पवित्र धाराओं के संगम का नाम ही "दीक्षा" है। भगवान शिवजी के पार्वती जी को आत्मज्ञानी महापुरुष वामदेवजी से दीक्षा दिलवायी थी। काली माता ने श्री रामकृष्णजी को ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु तोतापुरी महाराज से दीक्षा लेने के लिए कहा था। भगवान विट्ठल ने नामदेवजी को आत्मवेत्ता सत्पुरुष विसोबा खेचर से दीक्षा लेने के ले कहा था। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी अवतार लेने पर सदगुरु की शरण में जाकर मार्गदर्शन लिया था। इस प्रकार जीवन में ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से दीक्षा पाने का बड़ा महत्त्व है।

मंत्रदीक्षा से दिव्य लाभ

पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षा लेने के बाद साधक के जीवन में अनेक प्रकार के लाभ होने लगते हैं, जिनमें 18 प्रकार के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

गुरुमंत्र के जप से बुराइयाँ कम होने लगती हैं। पापनाश व पुण्य संचय होने लगता है।

मन पर सुख-दुःख का प्रभाव पहले जैसा नहीं पड़ता।

सांसारिक वासनाएँ कम होने लगती हैं।

मन की चंचलता व छिछोरापन मिटने लगता है।

अंतःकरण में अंतर्यामी परमात्मा की प्रेरणा प्रकट होने लगती है।

अभिमान गलता जाता है।

बुद्धि में शुद्ध-सात्त्विक प्रकाश आने लगता है।

अविवेक नष्ट होकर विवेक जागृत होता है।

चित्त को समाधान, शांति मिलती है, भगवदरस, अंतर्मुखता का रस और आनंद आने लगता है।

आत्मा व ब्रह्म की एकता का ज्ञान प्रकाशित होता है कि मेरा आत्मा परमात्मा का अविभाज्य अंग है।

हृदय में भगवत्प्रेम निखरने लगता है, भगवन्नाम, भगवत्कथा में प्रेम बढ़ने लगता है।

परमानंद की प्राप्ति होने लगेगी और भगवान व भगवान का नाम एक है – ऐसा ज्ञान होने लगता है।

भगवन्नाम व सत्संग में प्रीति बढ़ती है।

मंत्रदीक्षित साधक के चित्त में पहले की अपेक्षा हलचलें कम होने लगती हैं और वह समत्वयोग में पहुँचने के काबिल बनता जाता है।

साकार या निराकार जिसको भी मानेगा, उसी की प्रेरणा से उसके ज्ञान व आनंद के साथ और अधिक एकाकारता का एहसास करने लगेगा।

दुःखालय संसार में, दुन्यावी चीजों में पहले जैसी आसक्ति नहीं रहेगी।

मनोरथ पूर्ण होने लगते हैं।

गुरुमंत्र परमात्मा का स्वरूप ही है। उसके जप से परमात्मा से संबंध जुड़ने लगता है।

इसके अलावा गुरुमंत्र के जप से 15 दिव्य शक्तियाँ जीवन में प्रकट होने लगती हैं-

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गुरुमंत्र के जप से उत्पन्न 15 शक्तियाँ

भुवनपावनी शक्तिः नाम-कमाईवाले संत जहाँ जाते हैं, जहाँ रहते हैं, यह भुवनपावनी शक्ति उस जगह को तीर्थ बना देती है।

सर्वव्याधिनाशिनी शक्तिः सभी रोगों को मिटाने की शक्ति।

सर्वदुःखहारिणी शक्तिः सभी दुःखों के प्रभाव को क्षीण करने की शक्ति।

कलिकाल भुजंगभयनाशिनी शक्तिः कलियुग के दोषों को हरने की शक्ति।

नरकोद्धारिणी शक्तिः नारकीय दुःखों या नारकीय योनियों का अंत करने वाली शक्ति।

प्रारब्ध-विनाशिनी शक्तिः भाग्य के कुअंकों को मिटाने की शक्ति।

सर्व अपराधभंजनी शक्तिः सारे अपराधों के दुष्फल का नाश करने की शक्ति।

कर्मसम्पूर्तिकारिणी शक्तिः कर्मों को सम्पन्न करने की शक्ति।

सर्ववेदतीर्थादिक फलदायिनी शक्तिः सभी वेदों के पाठ व तीर्थयात्राओं का फल देने की शक्ति।

सर्व अर्थदायिनी शक्तिः सभी शास्त्रों, विषयों का अर्थ व रहस्य प्रकट कर देने की शक्ति।

जगत आनंददायिनी शक्तिः जगत को आनंदित करने की शक्ति।

अगति-गतिदायिनी शक्तिः दुर्गति से बचाकर सदगति कराने की शक्ति।

मुक्तिप्रदायिनी शक्तिः इच्छित मुक्ति प्रदान कराने की शक्ति।

भगवत्प्रीतिदायिनी शक्तिः भगवान की प्रीति प्रदान करने की शक्ति।

पूज्य बापू जी दीक्षा में कार युक्त वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं, जिससे 19 प्रकार की अऩ्य शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। उनको विस्तृत जानकारी आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ʹभगवन्नाम-जप महिमाʹ में दी गयी है।

पूज्य बापूजी से मंत्रदीक्षा लेकर भगवन्नाम-मंत्र का नियमित जप करने वाले भक्तों को उपर्युक्त प्रकार के अनेक-अनेक लाभ होते हैं, जिनका पूरा वर्णन करना असम्भव है।

रामु न सकहिं नाम गुन गाई

इसलिए हे मानव ! उठ, जाग और पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु से मंत्रदीक्षा प्राप्त कर.... नियमपूर्वक जप कर.... फिर देख, सफलता तेरी दासी बनने को तैयार हो जायेगी !

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दीक्षा से बदलती है जीवन-दिशा

मैं पेशे से डॉक्टर हूँ और सन् 1960 से अमेरिका में रहता हूँ। 1983 की बात है, मुझे मैडिकल कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल रहा था, जिससे मैं बहुत उदास हो गया था। उस समय भगवान की महती कृपा से ही मुझे बापूजी के सत्संग में जाने का सौभाग्य मिला। मन-ही-मन मैंने बापू जी से प्रार्थना की तो उनकी कृपा से मुझे कॉलेज में प्रवेश मिल गया।

मैं कई साधु-महात्माओं के पास गया पर बापू जी के सत्संग में मुझे अवर्णनीय, असीम शांति का अनुभव हुआ। मुझे कई दुर्व्यसनों में भी मुक्ति मिल गयी। पहले मेरी आमदनी भी बहुत कमी थी किंतु अब बापूजी की कृपा से साल भर में लगभग एक करोड़ रूपये से भी ज्यादा कमा लेता हूँ। आज मेरा पूरा परिवार पूज्य बापूजी से दीक्षित है।

बापूजी के यहाँ योगशिक्षा, मंत्रदीक्षा एवं सत्संग निःशुल्क उपलब्ध होता है, ऐसा और कहीं नहीं होता। दिन-रात शारीरिक विषमताएँ सहन करते हुए जीवमात्र की भलाई में रत रहने वाले मेरे पूज्य बापूजी को पूरा समझ पाना असम्भव है, वे मानवी सीमाओं से परे हैं। निश्चय ही पूज्य बापूजी मेरे जीवन की सर्वाधिक मूल्यवान निधि हैं। सारे तीर्थों का वास मुझे उनके श्रीचरणों में नजर आता है। उनकी महिमा कहाँ तक गाऊँ, उन्होंने मुझे क्या नहीं दिया ! सबका मंगल करने वाले, सबका दुःख हरने वाले, परम हितैषी, भगवत्स्वरूप गुरुदेव को मेरे कोटि-कोटि प्रणाम !

डॉक्टर राजीव यादव

2362, कैम्बरवैल, सेंट लुईस, मिसौरी (यू.एस.ए.)

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सारस्वत्य मंत्र की अदभुत शक्तियाँ

यदि सारस्वत्य मंत्र का नियमित एवं श्रद्धापूर्वक जप किया जाय तो बुद्धिशक्ति एवं स्मृतिशक्ति का आशातीत विकास होता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पूज्य बापूजी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लिये हुए अनेकों विद्यार्थियों का उन्नत जीवन।

ʹऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरीʹ के 80000 शब्दों को उनकी पृष्ठ संख्या सहित याद कर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्डस में अपना नाम दर्ज कराने वाले वीरेन्द्र मेहता विश्व के 25 अदभुत व्यक्तियों में से एक हैं। वे भी अपनी सफलता का कारम पूज्य बापू जी से प्राप्त मंत्रदीक्षा व यौगिक प्रयोगों को मानते हैं।

फिजियोथेरेपिस्ट डॉ. राहुल कत्याल भी प्रारम्भ में एक कमजोर विद्यार्थी थे पर सारस्वत्य मंत्र के जप से उनकी प्रतिभा का तेजी से विकास हुआ और उन्होंने ऐसी व्हील चेयर का आविष्कार किया, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा अमेरिका से डॉ. रूरी कूपर ने भी की। उन्हें नेशनल रिसर्च डेवलमेंट कॉरपोरेशन का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा एक लाख रूपये नकद देकर सम्मानित किया गया। ऐसे हो रहे हैं बापू के बच्चे ! बापू के बच्चे, नहीं रहते कच्चे !

सिविल सेवा परीक्षा (आई.ए.एस.) – 2006 में सफल, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के प्रोबेशनरी अधिकारी 2006 की परीक्षा में पूरे भारत में 12वाँ स्थान तथा सन् 2005 की केन्द्रीय खुफिया अधिकारी की परीक्षा में पूरे भारत में प्रथम स्थान पाने वाले कुणाल अग्रवाल सारस्वत्य मंत्र का नियमित जप करते हैं। स्वभाव से ही विनयी कुणाल कहते हैं- भारत देश की सबसे कठिन परीक्षा आई.ए.एस. में मैंने आसानी से सफलता प्राप्त की, यह सब पूज्य बापू जी की दासी माया की कृपा है। गुरुदेव के श्रीचरणों में विनती है कि अब मैं सत्य को पाने के मार्ग पर चल पड़ूँ।

अजय रंजन मिश्रा, जो पहले कमजोर विद्यार्थी थे, सारस्वत्य मंत्र के जप से उनकी बुद्धि का अदभुत विकास हुआ और उऩ्होंने सेल्युलर नेटवर्किंट से संबंधित 110 डॉलर (लगभग 5500 रूपये) व 150 डॉलर (लगभग 7500 रूपये) मूल्य की दो पुस्तकें (1,Fundamentals of Cellular Network planning and optimization. 2. Advanced cellular network planning and optimization. ) लिखीं, जो इंगलैंड से प्रकाशित हुई हैं। आज वे नोकिया मोबाइल कम्पनी में ग्लोबल सर्विसेस प्रोडक्ट मैनेजर हैं। भैंसे चराने वाला क्षितिज सोनी, जिसके लिए ढाई रूपये की टायर की चप्पलें खरीदकर पहनना भी मुश्किल होता था, मोबिल ऑयल के डिब्बे में पानी ले जाता और रात की रखी रोटी नमक के साथ अथवा जैसे-तैसे चबा लेता था, ऐसा गरीब बालक व्रत, संयम और पूज्य बापू जी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्रजप के प्रभाव से आज गो एयर (हवाई जहाज कम्पनी) में एयरक्राफ्ट इंजीनियर है।

सन् 2006 का ʹबाल श्रीʹ पुरस्कार, जो कि भारत सरकार की ओर से 16 वर्ष तक के बच्चों के लिए सर्वोच्च पुरस्कार है, प्राप्त करने वाली भव्या पंडित संगीत जगत की नवोदित गायिका हैं, जिनके गायन की तारीफ प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खाँ ने भी की थी और कई चैनलों पर जिनके संगीत-कार्यक्रम प्रसारित हो चुके हैं। वे भी पूज्य बापू जी से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र पूज्य बापूजी की कल्याणमयी कृपा का अनुदान है। श्रद्धा-भक्ति से जिस विद्यार्थी ने भी सारस्वत्य मंत्र का आश्रय लिया है, उसकी प्रज्ञा, स्मृतिशक्ति, निर्णयक्षमता का विलक्षण विकास हुआ है और हर क्षेत्र में सफलता उसके कदम चूमने लगी है।

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आप भी ऐसे सौभाग्यशाली बनिये

पूज्य बापू जी विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा देते हैं। इस मंत्र के जप से बुद्धि कुशाग्र बनती है और सभी क्षेत्रों में सफलता पाने की योग्यता विकसित होने लगती है। दीक्षा के समय सिखायी जाने वाली यौगिक युक्तियों से फेफड़े व हृदय मजबूत बनते हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति व धारणाशक्ति बढ़ती है। ऐसे अनेक-अनेक फायदे होते हैं। सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर कई विद्यार्थियों ने अपना भविष्य उज्जवल बनाया है। आप भी ऐसे सौभाग्यशाली बनिये।

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विद्यार्थी प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः भारतीय संस्कृति का स्वस्तिक चिन्ह शुभ क्यों माना जाता है ?

उत्तरः यह आकृति हमारे ऋषि मुनियों ने कई सूक्ष्म अनुसंधानों के बाद निर्मित की है। एकमेव और अद्वितीय ब्रह्म विश्वरूप में फैला है, यह बात स्वस्तिक की खड़ी और आड़ी रेखाएँ स्पष्ट रूप से बताती हैं। स्वस्तिक की खड़ी रेखा ज्योतिर्लिंग का सूचन करती है और आड़ी रेखा विश्व का विस्तार बताती है। स्वस्तिक की चार भुजाएँ यानी भगवान श्रीविष्णु के चार हाथ। स्वस्तिक की आकृति सर्वांगी मंगलमय भावना का प्रतीक है। प्रयोगों द्वारा सिद्ध हुआ है कि तथा स्वस्तिक देखने से जीवनशक्ति का विकास होता है।

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छोटी सी है अर्जी, बाकी आपकी मर्जी !

बस आने में देर है, क्या करें ? निकाला मोबाइल और जुट गये बातों में। मित्र के घर जाकर किसी विषय पर विस्तारपूर्वक चर्चा करनी थी परंतु विचार बदला, उठाया मोबाइल और फोन द्वारा ही चर्चा चालू... क्यों ? इतने पैसे भर दिये हैं और अनलिमिटेड बात करने की स्कीम जो ले ली है ! हद हो गयी ! थोड़े रूपये बच गये तो क्या, लम्बी बातें करने में बोलने की शक्ति और समय तो हमारा ही खराब हो रहा है ! साथ में बुद्धिनाश और बीमारियों का तोहफा भी मिल रहा है, सो अलग !

ʹछान्दोग्य उपनिषदʹ के अनुसार ʹवाणी तेजोमय है। वाणी का निर्माण अग्नि के स्थूल भाग, हड्डी के मध्य भाग तथा मज्जा के सूक्ष्म भाग से होता है।ʹ अतः जो मोबाइल द्वारा वाणी का अपव्यय करता है, उसका ओज-तेज नष्ट होता है और वह बुद्धि एवं शक्तिहीनता का शिकार हो ही जाता है।

जिन्हें अपने हितकारी शास्त्रों की पुकार समझ में नहीं आती हो, उन्हें आधुनिक विज्ञान की भी पुकार सुना देते हैं - ʹप्रोसीडिंग्स ऑफ द इंटरनेशनल कॉन्फरेन्स ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडियेशन एट यूनिटेन, आई.सी.एन.आई.आर. 2003 एच इलेक्टोमैग्नेटिक फील्ड एंड आवर हेल्थʹ में बताया गया  कि स्वीडन में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि पिछले दस सालों से मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे 1600 लोगों को ब्रेन टयूमर था। यह बात और भी गम्भीर तब बन जाती है, जब पता चलता है कि इन सभी लोगों को दिमाग के उस हिस्से में टयूमर था, जहाँ मोबाइल का इस्तेमाल होता है अर्थात् कनपटी के पास।

अन्वेषण से पता लगा है कि मोबाइल का प्रयोग करने वालों के कान के एक सैंटीमीटर के दायरे में त्वचा का नर्वस सिस्टम गड़बड़ा जाता है। फिनलैंड मं 2 साल तक हुए एक शोध के मुताबिक मोबाइल फोन का रेडिएशन ब्लड ब्रेन बैरियर (रक्त को मस्तिष्क में फैलने से रोकने वाली पर्त) को क्षति पहुँचा सकता है। नॉटिंघम यूनिवर्सिटी, यू.के. में 2002 में हुए एक शोध के अनुसार मोबाइल फोन के रेडिएशन से स्ट्रेस (तनाव पैदा करने वाले) हार्मोन्स बढ़ते हैं।

जिनका काम मोबाइल के बिना नहीं चल सकता हो उन्हें इसका उपयोग उतना ही करना चाहिए, जितना शौच के लिए शौचालय का। कट-टू-कट बात व प्रयोजनपूर्ति होते ही कर दिया दूर ! यह है हितभरी अर्जी, बाकी आपकी मर्जी !

श्रीनिवास

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ऐसी करिये स्मरणशक्ति का पोषण

सौंफ और धनिया दोनों समभाग मिलाकर कूट-छानकर रख लें। इसमें बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर सुबह शाम एक एक चम्मच खायें।

अखरोट की बनावट मानव मस्तिष्क जैसी होती है। अतः प्रातःकाल एक अखरोट व मिश्री दूध में मिलाकर पीने से याददाश्त पुष्ट होती है।

मालकाँगनी का 2-2 बूँद तेल एक बताशे में डालकर सुबह-शाम खाने से मस्तिष्क के एवं मानसिक रोगों में लाभ होता है।

स्वस्थ अवस्था में भी तुलसी के आठ-दस पत्ते, एक काली मिर्च तथा गुलाब की कुछ पंखुड़ियों को बारीक पीसकर पानी में मिलाकर प्रतिदिन सुबह पीने से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। इसमें एक से तीन बादाम मिलाकर ठंडाई की तरह बना सकते हैं। इसके लिए पहले रात को बादाम भिगोकर सुबह छिलका उतारकर पीस लें। यह ठंडाई दिमाग को तरावट व स्फूर्ति प्रदान करती है।

जिन व्यक्तियों के मस्तिष्क और स्नायु दुर्बल हो गये हों, याद न रहता हो, उन्हें सेवफल का सेवन करना चाहिए। सेवफल के सेवन से स्मरणशक्ति बढ़ती है। इसके लिए एक या दो सेवफल बिना छिलका उतारे चबा-चबाकर भोजन से आधा घंटा पहले खायें। सेवफल पर प्रायः मोम की पर्त होती है, इसलिए उसे गर्म पानी में डुबाकर चाकू से रगड़ते हुए मोम उतारकर खायें।

रोज सुबह आँवले का मुरब्बा खाने से भी स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। अथवा च्यवनप्राश खाने से इसके साथ कई अन्य लाभ भी होते हैं।

सिर पर देशी गाय के घी के मालिश करने से भी स्मरणशक्ति बनी रहती है। मूलबंध, उड्डीयान बंध, जालन्धर बंध (कंठकूप पर दबाव डालकर ठोड़ी को छाती की तरफ देखकर के बैठना) से भी बुद्धि  विकसित होती है, मन स्थिर होता है।

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सर्वांगीण विकास की कुंजियाँ

यादशक्ति बढ़ाने हेतुः प्रतिदिन 15 से 20 मि.ली. तुलसी रस व एक चम्मच च्यवनप्राश का थोड़ा सा घोल बना के सारस्वत्य मंत्र अथवा गुरुमंत्र जपकर पियें। 40 दिन में चमत्कारिक फायदा होगा।

भोजन के बाद तिल का एक लड्डू चबा-चबाकर खायें।

100 ग्राम, सौंफ, 100 ग्राम बादाम व 200 ग्राम मिश्री तीनों को कूटकर मिला लें। सुबह यह मिश्रण 3 से 5 ग्राम चबा-चबाकर खायें, ऊपर से दूध पी लें। (दूध के साथ भी ले सकते हैं) इससे भी यादशक्ति बढ़ेगी।

पढ़ा हुआ याद रहे, इस हेतुः अध्ययन के समय पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके सीधे बैठें। सारस्वत्य मंत्र का जप करके, फिर जीभ की नोक को तालू में लगाकर पढ़ें। अध्ययन के बीच-बीच में व अंत में शांत हों और पढ़े हुए मनन करें। शांति.... राम-राम.... या गुरुमंत्र का स्मरण करके शांत हों।

कद बढ़ाने हेतुः प्रातःकाल दौड़ लगायें, पुल अप्स व ताड़ासन करें। 2 काली मिर्च के टुकड़े करके मक्खन में मिलाकर निगल जायें। बेल के 6 पत्ते व 2-4 काली मिर्च हनुमान जी का स्मरण करते हुए चबाकर खायें। उसमें पानी डाल के पीसकर भी खा सकते हैं। (देशी गाय का दूध कदवृद्धि में) विशेष सहायक  है।)

शरीरपुष्टि हेतुः भोजन के पहले हरड़ चूसें व भोजन के साथ भी खायें। रात्रि में एक गिलास पानी में एक नींबू निचोड़कर उसमें दो किशमिश भिगो दें। सुबह पानी छानकर पी जायें व किशमिश चबाकर खा लें।

नेत्रज्योति बढ़ाने हेतुः सौंफ व मिश्री 1-1 चम्मच मिलाकर रात को सोते समय खायें। यह प्रयोग नियमित रूप से 5-6 माह तक करें।

नेत्ररोगों से रक्षा हेतुः पैरों के तलवों व अँगूठों की सरसों के तेल से मालिश करें। अरुणाय हुँ फट् स्वाहा। इस मंत्र को जपते हुए आँखे धोने से अर्थात आँखों में धीरे-धीरे पानी छाँटने से आँखों की असह्य पीड़ा मिटती है।

डरावने, बुरे स्वप्नों से बचाव हेतुः हरये नमः। मंत्र जपते हुए सोयें। सिरहाने, आश्रम की निशुल्क प्रसादी ʹगृह दोष-बाधा निवारक यंत्र रख दें।

दुःख, मुसीबतें एवं ग्रहबाधा निवारण हेतुः जन्मदिवस के अवसर पर महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए घी, दूध, शहद और दूर्वा के मिश्रण की आहुतियाँ डालते हुए हवन करें। इससे जीवन में दुःख आदि का प्रभाव शांत होह जायेगा व नया उत्साह प्राप्त होगा।

घर में सुख, स्वास्थ्य व शांति हेतुः रोज प्रातः व सायं देशी गाय के गोबर से बने कंडे का एक छोटा टुकड़ा जला लें। उस पर देशी गौघृतमिश्रित चावल के कुछ दाने डाल दें ताकि वे जल जायें। इससे घर में स्वास्थ्य व शांति बनी रहती है तथा वास्तुदोषों का निवारण होता है।

आध्यात्मिक उन्नति हेतुः चलते-फिरते, दैनिक कार्य करते हुए भगवन्नाम का मानिसक जप, सबमें भगवद् भाव, हर दो कार्यों के बीच थोड़ा शांत होना, सबकी भलाई में अपना भला मानना, मन के विचारों पर निगरानी रखना, आदरपूर्वक सत्संग व स्वाध्याय करना आदि शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति के उपाय हैं।

मधुमेह (Diabetes) नियंत्रित करने का चमत्कारी प्रयोग

सुबह आधा किलो करेले काटकर एक चौड़े बर्तन में रख के उन्हें पैरों से कुचलें। जीभ में कड़वाहट का एहसास हो तब कुचलना छोड़ दें। यह प्रयोग दस दिन तक करें। इससे मधुमेह नियंत्रित हो जायेगा। आवश्यक हो तो यह प्रयोग दस दिन बाद पुनः दोहरा सकते हैं।

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योगामृत

सर्वांगासन

इस आसन में समग्र शरीर को ऊपर उठाया जाता है। उस समय शरीर के सभी अंग सक्रिय रहते हैं इसीलिए इसे सर्वांगासन कहते हैं।

लाभः यह आसन मेधाशक्ति को बढ़ाने वाला व चिरयौवन की प्राप्ति कराने वाला है। विद्यार्थियों को तथा मानसिक, बौद्धिक कार्य करने वाले लोगों को यह आसन अवश्य करना चाहिए। इससे नेत्रों और मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। इस आसन को करने से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है व स्वप्नदोष जैसे रोगों का नाश होता है। सर्वांगासन के नित्य अभ्यास से जठराग्नि

तीव्र होती है, त्वचा लटकती नहीं तथा झुर्रियाँ नहीं पड़तीं।

विधिः  बिछे हुए आसन पर लेट जायें। श्वास लेकर भीतर रोकें व कमर से दोनों पैरों तक का भाग ऊपर उठायें। अब सामान्य श्वास-प्रश्वास करें। हाथ की कोहनियाँ भूमि से लगी रहें व ठोढ़ी छाती के साथ चिपकी रहे। गर्दन और कंधे के बल पूरा शरीर ऊपर की ओर सीधा खड़ा कर दें। दृष्टि पैर के दोनों अँगूठों पर हो।

गहरा श्वास लें, फिर श्वास बाहर निकाल दें। श्वास बाहर रोककर गुदा व नाभि के स्थान को अंदर सिकोड़ लें व अर्यमायै नमः । मंत्र का मानसिक जप करें। अब गुदा को पूर्वस्थिति में ले आयें। फिर से ऐसा करें, 3 से 5 बार ऐसा करने के बाद गहरा श्वास लें। श्वास भीतर भरते हुए ऐसा भाव करें कि ʹमेरी ऊर्जाशक्ति ऊर्ध्वगामी होकर सहस्रार चक्र की ओर प्रवाहित हो रही है। मेरे जीवन में संयम बढ़ रहा है। फिर श्वास बाहर छोड़ते हुए उपर्युक्त विधि को दोहरायें। ऐसा 5 बार कर सकते हैं। सर्वांगासन की स्थिति में दोनों पैरों को जाँघों पर लगाकर पद्मासन भी किया जा सकता है।

समय­- सामान्यतः एक से पाँच मिनट तक यह आसन करें। क्रमशः 15 मिनट तक बढ़ा सकते हैं।

रोगों में लाभः थायराइड नामक अंत-ग्रंथि में रक्त संचार तीव्र गति से होने लगता है, जिससे थायराइड के अल्प विकासवाले रोगी को लाभ होता है।

सावधानीः थायराइड के अति विकास वाले, उच्च रक्तचाप वाले, खूब कमजोर हृदयवाले और अत्यधिक चर्बीवाले लोग यह आसन न करें।

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पादपश्चिमोत्तानासन

यह आसन भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। भगवान शिव ने मुक्तकंठ से इस आसन की प्रशंसा करते हुए कहा हैः ʹयह आसन सर्वश्रेष्ठ है।ʹ इसे करते समय ध्यान मणिपुरचक्र में स्थित हो।

लाभः चिंता एवं उत्तेजना शांत करने के लिए यह आसन उत्तम है। इस आसन से उदर, छाती और मेरूदंड की कार्यक्षमता बढ़ती है। संधिस्थान मजबूत बनते हैं और जठराग्नि प्रदीप्त होती है। पेट के कीड़े अनायास ही मर जाते हैं।

विधिः बैठकर दोनों पैरों को सामने लम्बा फैला दें। श्वास भीतर भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर की ओर लम्बा करें। श्वास रोके हुए दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठे से दाहिने पैर का अँगूठा और बायें हाथ की तर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकड़ें। अब श्वास छोड़ते हुए नीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें। ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कोहनियाँ घुटनों के पास जमीन से लगी रहें। सामान्य श्वास-प्रश्वास करते हुए इस स्थिति में यथाशक्ति पड़े रहें। धीरे-धीरे श्वास भीतर भरते हुए मूल स्थिति में आ जायें।

समयः प्रारम्भ में आधा मिनट इस आसन को करते हुए धीरे-धीरे 15 मिनट तक बढ़ा सकते हैं।

रोगों में लाभः मन को गंदे विचारों से बचाकर संयमित करने हेतु इस आसन का नियमित अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से स्वप्नदोष, वीर्यविकार व रक्तविकार रोग दूर होते हैं।

मंदाग्नि, अजीर्ण, पेट के रोग, सर्दी, खाँसी, कमर का दर्द, हिचकी, अनिद्रा, ज्ञानतंतुओं की दुर्बलता, नल की सूजन आदि बहुत से रोग इसके अभ्यास से दूर होते हैं। मधुप्रमेह, आंत्रपुच्छ शोथ (अपेंडिसाइटिस), दमा, बवासीर आदि रोगों में भी यह अति लाभदायक है।

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ब्रह्मचर्यासन

साधारणतया योगासन भोजन के बाद नहीं किये जाते परंतु कुछ ऐसे आसन हैं जो भोजन के बाद भी किये जाते हैं। उन्हीं आसनों में से एक है ब्रह्मचर्यासन। यह आसन रात्रि भोजन के बाद सोने से पहले करने से विशेष लाभ होता है।

ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है।

विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे। हाथों को घुटना पर रख के शांत चित्त से बैठे रहें।

लाभः इस आसन के अभ्यास से वीर्यवाहिनी नाड़ी का प्रवाह शीघ्र ही ऊर्ध्वगामी हो जाता है और सिवनी नाड़ी की उष्णता कम हो जाती है, जिससे यह आसन स्वप्नदोषादि बीमारियों को दूर करने में परम लाभकारी सिद्ध हुआ है।

जिन व्यक्तियों को बार-बार स्वप्नदोष होता है, उन्हें सोने से पहले पाँच से दस मिनट तक इस आसन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे उपस्थ इन्द्रिय में काफी शक्ति आती है और एकाग्रता में भी  वृद्धि होती है।

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प्राणमुद्रा

लाभः यह मुद्रा प्राणशक्ति का केन्द्र है। इससे शरीर निरोगी रहता है। आँखों के रोग मिटाने के लिए व चश्मे के नम्बर घटाने के लिए यह मुद्रा अत्यन्त लाभदायक है।

विधिः कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठे के ऊपरी भागों को परस्पर एक साथ स्पर्श कराओ। शेष दो उँगलियाँ सीधी रहें।

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स्वप्नदोष से पीड़ित युवाओं के लिए वरदान

वीर्यस्तम्भासन

 

जो स्वप्नदोष के शिकार हो जाते हैं उनका वीर्य क्षीण होता रहता है। उनके मन में अनेक प्रकार की चिंताएँ उत्पन्न होती हैं और शरीर कृश होने लगता है। ऐसे युवानों के लिए वीर्यस्तम्भासन डूबते को नौका का सहारा जैसा है।

विधिः खड़े होकर दोनों पैरों को फैला दें। इसके बाद दोनों हाथों को कमर के पीछे ले जाकर बायें हाथ से दायें हाथ की कलाई पकड़ लें। बायें पैर को घुटने से मोड़कर नाक से उसके अँगूठे को स्पर्श करें। इस आसन को पैर बदलकर पुनः करें।

लाभः इसके अभ्यास से भुजाओं, पैरों, कमर तथा हथेलियों में शक्ति व सुदृढ़ता आती है और कद बढ़ता है। स्वप्नदोष आदि वीर्यविकार नष्ट होते हैं। इसके नित्य अभ्यास से वीर्य ऊर्ध्वगामी होता है। यह नेत्रज्योति बढ़ाता है। गुदा संबंधी बीमारियों के लिए लाभदायी है। कई मूत्रविकार तथा मधुमेह आदि रोग इसके अभ्यास से नष्ट होते हैं।

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मयूरासन

इस आसन में मयूर अर्थात् मोर की आकृति बनती है इसलिए इसे मयूरासन कहा जाता है। ध्यान मणिपुर चक्र में। श्वास बाह्य कुम्भक।

विधिः जमीन पर घुटने टिकाकर बैठ जायें। दोनों हाथ की हथेलियों को जमीन पर इस प्रकार रखें कि सब अंगुलियाँ पैर की दिशा में हों और परस्पर लगी रहें। दोनों कुहनियों को मोड़ कर पेट के कोमल भाग पर, नाभि के इर्दगिर्द रखें। अब आगे झुककर दोनों पैरों को पीछे की ओर लम्बा करें। श्वास बाहर निकालकर दोनों पैरों को जमीन से ऊपर उठायें और सिर का भाग नीचे झुकायें। इस प्रकार पूरा शरीर जमीन के बराबर समानांतर रहे ऐसी स्थिति बनायें। सम्पूर्ण शरीर का वजन केवल दो हथेलियों पर ही रहेगा। जितना समय रह सकें उतना समय इस स्थिति में रहकर फिर मूल स्थिति में आ जायें। इस प्रकार दो तीन बार करें।

लाभः मयूरासन करने से ब्रह्मचर्य-पालन में सहायता मिलती है। पाचनतंत्र के अंगों की ओर रक्त का प्रवाह अधिक बढ़ने से वे अंग बलवान और कार्य़शील बनते हैं। पेट के भीतर के भागों में दबाव पड़ने से उनकी शक्ति भी बढ़ती है। उदर के अंगों की शिथिलता और मन्दाग्नि दूर करने में मयूरासन बहुत उपयोगी है।

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अनुलोम-विलोम प्राणायाम

प्राणबल, मनोबल व आत्मबल विकसित करने का अनुपम खजाना है – अनुलोम-विलोम प्राणायाम। यह प्राणायाम करने में सरल एवं सभी के लिए अत्यंत लाभदायक है।

लाभः इस प्राणायाम से श्वास लयबद्ध तथा सूक्ष्म हो जाते हैं और स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिकता में भी लाभ होता है। प्राणशक्ति का नियमन होता है, जिससे ध्यान भजन में मन लगता है। मानसिक तनाव दूर होता है। आनंद, उत्साह व निर्भयता की प्राप्ति होती है। एकाग्रता में वृद्धि होती है। तन-मन में ताजगी व स्फूर्ति भरने के लिए यह प्राणायाम रामबाण औषधि सिद्ध होता है।

विधिः पद्मासन में बैठकर दोनों नथुनों से पूरा श्वास बाहर निकाल दें। अब दाहिने हाथ की तर्जनी (पहली उँगली) व मध्यमा (बड़ी उँगली) को अंदर की ओर मोड़कर उसके अँगूठे से दायें नथुने को बंद करके बायें नथुने से भीतर लम्बा श्वास लें। श्वास भीतर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं।

दोनों नथुनों को बंद करके निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके रखें। यह हुआ आभ्यांतर  कुंभक। कुंभक की अवस्था में अथवा किसी भी भगवन्नाम का मानसिक जप अत्यंत लाभदायी है।

फिर बायें नथुने को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका (सबसे छोटी उँगली) व अनामिका (उसके पास वाली उँगली) से बंद करके दायें नथुने से धीरे धीरे श्वास बाहर छोड़ते हुए पूरा बाहर निकाल दें। श्वास बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं।

दोनों नथुनों को बंद कर श्वास को बाहर ही सुखपूर्वक रोकें। इसे बाह्य कुम्भक कहते हैं।

अब दायें नथुने से श्वास लें।

फिर निश्चित समय तक श्वास भीतर ही रोके रखें।

बायें नथुने से श्वास धीरे धीरे छोड़ें।

पूरा श्वास बाहर निकल जाने के बाद उसे बाहर ही रोकें। यह एक प्राणायाम हुआ। इसमें समय का अनुपात इस प्रकार है।

पूरक आभ्यांतर कुम्भक रेचक बहिर्कुम्भक

1            4       2      2

अर्थात् श्वास लेने में यदि 10 सैकेण्ड लगायें तो 40 सैकेण्ड श्वास अंदर रोककर ऱखें। 20 सैकेण्ड श्वास छोड़ने में लगायें तथा 20 सैकेण्ड बाहर रोकें।

धीरे-धीरे नियमित अभ्यास द्वारा इस स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है।

ध्यान दें- विशेष ध्यान देने की बात है कि मूलबंध (गुदा का संकोचन करना), उड्डीयान बंध (पेट को अंदर की ओर सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचना) एवं जालन्धर बंध (ठोड़ी को कंठकूप से लगाना) – इस तरह से त्रिबंध करके यह प्राणायाम करने से अधिक लाभदायी सिद्ध होता है।

प्रातःकाल ऐसे 5 से 10 प्राणायाम करने का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए।

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हमारे महान वैज्ञानिक

सी.वी. रमणः नोबेल पुरस्कार विजेता, भारत रत्न विभूषित, विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक।

जगदीशचन्द्र बसुः प्रसिद्ध वनस्पति वैज्ञानिक, जिन्होंने क्रेस्कोग्राफ संयंत्र एवं वायरलेस टेलिग्राफ का सर्वप्रथम आविष्कार किया।

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कंजूसी नहीं, करकसर

कंजूस उसे नहीं कहते हैं जो करकसर (मितव्यय) करता है, जो उचित जगह खर्च न करे उसे कंजूस कहते हैं। करकसर करना सदगुण है, कंजूसी दुर्गुण है।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू एक बार यात्रा करते-करते राँची पहुँचे। राँची पहुँचने पर उनके पैरों के तलवे पीड़ा से आक्रांत हो गये। पीड़ा का कारण था कि उनकी चप्पल घिस गयी थी।

वे अहिंसक जूते अथवा चप्पल ही पहनते थे। पशु की जबरन हत्या कर उस चमड़े के बनाये गये जूते चप्पल वे कभी नहीं पहनते थे।

राँची से 10-20 कि.मी. दूर गाँधी हाट से चप्पल लायी गयी। राजेन्द्र बाबू ने पूछाः "कितने रूपये की ?"

"उन्नीस।"

"पिछले साल ग्यारह की थी, अभी उन्नीस की कैसे हो गयी ?"

"यह टीप-टॉपवाली है, फैशनेबल है।"

"पैरों में फैशन की क्या जरूरत ! यह चप्पल वापस ले जाओ ग्यारहवाली ले आओ, आठ रूपये बच जायेंगे।"

सचिव कार से चप्पल वापस करने जा रहा था, उसे बोलेः "इधर आओ, तुम आने-जाने में पेट्रोल जलाओगे। गाँव में जो लोग प्रवचन सुनने आते हैं उऩमें से किसी एक को दे देना, कल बदलकर ले आयेगा। आठ रूपये मेरे भारतवासियों के आँसू पोंछने में काम आयें, मैं फिजूर खर्च क्यों करूँ ?"

राजेन्द्रबाबू करकसर से जीते थे।

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू करकसर से जीवनयापन करते हैं। आश्रम का कार्य व्यवहार करकसर से चलाकर दरिद्रनारायणों की सेवा करना यह पूज्य बापूजी का स्वाभाविक कर्म बन गया है। अपने पूज्य लीलाशाहजी महाराज भी करकसर से जीते थे। लालबहादुर शास्त्री हों, मालवीय जी हों अथवा गांधी जी, प्रत्येक महान व्यक्ति में यह सदगुण होता है।

सादा, सस्ता जीवन हो और ऊँचे विचार हों। मन को भगवद्भाव से, भगवद्सुख से भरते रहो और जेब को करकसर से छका रहने दो। घर को सादगी और स्नेह से, व्यवहार को प्रेम और प्रभुस्मृति से प्रभुपूजा बना दो।

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जाग मुसाफिर

(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

बल्ख बुखारा का शेख वाजिद अली 999 ऊँटों पर अपना बावर्चीखाना लदवाकर जा रहा था। रास्ता सँकरा था। एक ऊँट बीमार होकर मर गया। उसके पीछे आने वाले ऊँटों की कतार रूक गयी। यातायात बंद हो गया। शेख वाजिद ने कतार रूकने का कारण पूछा तो सेवक ने बतायाः "हुजूर ! ऊँट मर गया है। रास्ता सँकरा है। आगे नहीं जा सकते।"

शेख को आश्चर्य हुआः "ऊँट मर गया ! मरना कैसा होता है ?"

वह अपने घोड़े से नीचे उतरा। चलकर आगे आया। सँकरी गली में मरे हुए ऊँट को गौर से देखने लगा।

"अरे ! इसका मुँह भी है, गर्दन और पैर भी मौजूद हैं, पूँछ भी है, पेट और पीठ भी है तो यह मरा कैसे ?"

उस विलासी शेख को पता ही नहीं कि मृत्यु क्या चीज होती है ! सेवक ने समझायाः "जहाँपनाह ! इसका मुँह, गर्दन, पैर, पूँछ, पेट, पीठ आदि सब कुछ है लेकिन इसमें जो जीवतत्त्व था, उससे इसका संबंध टूट गया है। इसके प्राण-पखेरू उड़ गये हैं।"

"....तो अब य़ह नहीं चलेगा क्या ?"

"चलेगा कैसे ! यह सड़ जायेगा, गल जायेगा, मिट जायेगा, जमीन में दफन हो जायेगा या गीध, चीलें, कौवे, कुत्ते इसको खा जायेंगे।"

"ऐसा ऊँट मर गया ! मौत ऐसे होती है ?"

"हुजूर ! मौत अकेले ऊँट की ही नहीं  बल्कि सबकी होती है। हमारी भी मौत हो जायेगी।"

"......और मेरी भी ?"

"शाहे आलम ! मौत सभी की होती है।"

ऊँट की मृत्यु देखकर वाजिदअली के चित्त को झकझोरता हुआ वैराग्य का तुफान उठा। युगों से जन्मों से प्रगाढ़ निद्रा में सोया हुआ आत्मदेव अब ज्यादा सोना नहीं चाहता था। 999 ऊँटों पर अपना सारा रसोईघर, भोग-विलास की साधन-सामग्रियाँ लदवाकर नौकर-चाकर, बावर्ची, सिपाहियों के साथ जो जा रहा था, उस सम्राट ने उन सबको छोड़कर अरण्य का रास्ता पकड़ लिया। वह फकीर हो गया। उसके हृदय से आर्जवभरी प्रार्थना उठीः ʹहे खुदा ! हे परवरदिगार ! हे जीवनदाता ! यह शरीर कब्रिस्तान में दफनाया जाय, सड़ जाय, गल जाय, उसके पहले तू मुझे अपना बना ले मालिक !ʹ

शेख वाजिद के जीवन में वैराग्य की ज्योति ऐसी जली कि उसने अपने साथ कोई सामान नहीं रखा। केवल एक मिट्टी की हाँडी साथ में रखी। उसमें भिक्षा माँगकर खाता था, उसी से पानी पी लेता था, उसी को सिर का सिरहाना बनाकर सो लेता था। इस प्रकार बड़ी विरक्तता से वह जी रहा था।

अधिक वस्तुएँ पास रखने से वस्तुओं का चिंतन होता है, उनके अधिष्ठान आत्मदेव का चिंतन खो जाता है। साधक का समय व्यर्थ में चला जाता है।

एक बार वाजिदअली हाँडी का सिरहाना बनाकर दोपहर को सोया था। कुत्ते को भोजन की सुगंध आयी तो हाँडी को सूँघने लगा, मुँह डालकर चाटने लगा। उसका सिर हाँडी के सँकरे मुँह में फँस गया। वह ʹक्याऊँ...... क्याऊँ....ʹ करके हाँडी सिर के बल खींचने लगा। फकीर की नींद खुली। वह उठ बैठा तो कुत्ता हाँडी के साथ भागा। दूर जाकर पटका तो हाँडी फूट गयी। शेख वाजिद हँसने लगाः

"यह भी अच्छा हुआ। मैंने पूरा साम्राज्य छोड़ा, भोग-वैभव छोड़े, 999 ऊँट, घोड़े, नौकर-चाकर, बावर्ची आदि सब छोड़े और यह हाँडी ली। हे प्रभु ! तूने यह भी छुड़ा ली क्योंकि अब तू मुझसे मिलना चाहता है। प्रभु तेरी जय हो !

अब पेट ही हाँडी बन जायेगा और हाथ ही सिरहाने का काम देगा। जिस देह को दफनाना है, उसके लिए अब हाँडी भी कौन संभाले ! जिससे सब सँभाला जाता है, उसकी मुहब्बत को अब सँभालूँगा।"

आदमी को लग जाय तो ऊँट की मौत भी उसमें वैराग्य जगा देती है, अन्यथा तो कम्बख्त लोग अब्बाजान को दफनाकर घर आकर  सिगरेट सुलगाते हैं। अभागे लोग अम्मा को, बीबी को, रिश्तेदारों को कब्रिस्तान में पहुँचाकर वापस आकर वाइन (शराब) पीते हैं। ऐसे क्रूर लोगों के जीवन में वैराग्य नहीं जगता। उन्हें ईश्वर का मार्ग नहीं सूझता।

तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय।

जैसे ज्वर के जोर से भूख विदा हो जाय।।

पूर्व के पाप जोर करते हैं तो हरिचर्चा में रस नहीं आता। जैसे बुखार जोर पकड़ता है तो भूख मर जाती है।

हरिचर्चा में, ईश्वर स्मरण में, ध्यान-भजन में, कीर्तन-सत्संग में रस न आये तो भी बार-बार करता रहे, सत्संग सुनता रहे। समय पाकर पाप पलायन हो जायेंगे और भीतर का रस शुरू हो जायेगा। जैसे जिह्वा में कभी सूखा रोग हो जाता है तो मिश्री भी मीठी नहीं लगती। सब वैद्य लोग इलाज बताते हैं कि ʹमिश्री मीठी न लगे फिर भी चूसो। वही इस रोग का इलाज है। मिश्री चूसते-चूसते सूखा रोग मिटता जायेगा और मिश्री का स्वाद आने लगेगा।ʹ

इसी प्रकार पापों के कारण मन ईश्वर-चिंतन में, रामनाम में न लगता हो तो भी रामनाम जपते जाओ, सत्संग सुनते जाओ, ईश्वर चिंतन में मन लगाते जाओ। इससे पाप कटते जायेंगे और भीतर का ईश्वरीय आनंद प्रकट होता जायेगा।

अभागा तो मन है, आप अभागे नहीं हो। आप सब पवित्र हो, भगव्तस्वरूप हो। आपका पापी, अभागा मन अगर आपको भीतर का रस न भी लेने दे, तो भी राम-राम, हरि , शिव-शिव आदि भगवन्नाम के जप में, कीर्तन में, ध्यान-भजन में, संत-महात्मा के सत्संग समागम में बार-बार जाकर हरि रसरूपी मिश्री चूसते रहो। इससे पापरूपी सूखा रोग मिटता जायेगा और हरिरस की मधुरता हृदय में प्रकट होती जाय़ेगी। आपका बेड़ा पार हो जायेगा।

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ज्ञान मुद्रा

लाभः मानसिक रोग जैसे कि अनिद्रा अथवा अतिनिद्रा, कमजोर यादशक्ति, क्रोधी स्वभाव आदि हो तो यह मुद्रा अत्यंत लाभदायी सिद्ध होगी।

यह मुद्रा करने से पूजा-पाठ, ध्यान-भजन में मन लगता है। इस मुद्रा का अभ्यास प्रतिदिन 30 मिनट करना चाहिए।

विधिः तर्जनी अर्थात् प्रथम उँगली को अँगूठे के नुकीले भाग पर स्पर्श कराओ। शेष तीनों उँगलियाँ सीधी रहें।

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विवेक कीजिये

सिद्धार्थ (बुद्ध) जब घर छोड़कर जा रहे थे तब उनका छन्न नामक सारथी साथ में था। नगर से दूर जाकर सिद्धार्थ जब उसको वापस लौटाने लगे तब वह रोयाः "कुमार ! आप यह क्य कर रहे हैं ? इतना सारा धन वैभव छोड़कर आप जा रहे हैं ! आप बड़ी गलती कर रहे हैं। मैं नौकर हूँ। आपको कुछ कहना छोटे मुँह बड़ी बात होगी लेकिन कहे बिना मेरा दिल नहीं मान रहा है, इसलिए कह रहा हूँ। अपराध तो कर रहा हूँ स्वामी को समझाने का लेकिन आप थोड़ी सी समझ से काम लें। अपना इतना धन, राज-वैभव, पुत्र  परिवरा छोड़कर जा रहे हैं।"

सिद्धार्थ ने कहाः "प्रिय छन्न ! तूने तो धन की तिजोरियाँ दूर से देखी हैं किंतु मेरे पास उनकी कुंजियाँ थीं। मैंने उनको नजदीक से देखा है। तूने राज-वैभव और मेरे पुत्र-पत्नी परिवार को दूर से देखा है लेकिन मैंने नजदीक से देखा है। तू तो रथ चलाने वाला सारथी है जबकि मैं रथ का मालिक हूँ। मुझे अऩुभव है कि यह वास्तविक धन नहीं है। मैंने उसे खूब नजदीक से देखा है।

धन वह है जो शक्ति दे। धन वह है जो निर्वासनिक बनाये। धन वह है जो फिर माता के गर्भ में न फँसाये। यह धन तो मेरे लिए बाधा है। मैंने ठीक से देखा है। मुझे इससे शांति नहीं मिली। धन वह है जो आत्मशांति दे। तेरी सीख ठीक है पर वह तेरी मति के अनुसार सीख है। वास्तव में तेरी सीख में कोई दम नहीं।"

कई बार अज्ञानी लोग भक्तों को समझाने का ठेका ले बैठते हैं। भक्ति के रास्ते कोई सज्जन, सदगृहस्थ, सेठ, साहूकार, साहब, अधिकारी चलते हैं तो लोग समझाते हैं- "अरे साहब ! यह क्या चक्कर में पड़े हो ! यह क्या अँधश्रद्धा कर रहे हो !"

विनोबा जी कहते थेः "क्या श्रद्धा ने ही अंधा होने का ठेका लिया है ? अँधश्रद्धा कहना भी तो अंधश्रद्धा है !"

भक्तों को अंधश्रद्धालु कहने वाले लोगों को सुना देना चाहिएः "तुम बीड़ी-सिगरेट में भी श्रद्धा करते हो। उसमें कोई सुख नहीं फिर भी सुख मिलेगा यह मानकर फूँकते रहते हो, मुँह में आग लगाते रहते हो, कलेजा जलाते रहते हो। क्या यह अँधश्रद्धा नहीं है ! वाइन व्हिस्की को – जो कि अल्कोहल है उसे शरीर में भर रहे हो सुख लेने के लिए, यह अंधश्रद्धा नहीं है ? डिस्को डांस करके जीवनशक्ति का ह्रास करते हो, यह अंधश्रद्धा नहीं है ?..... और हरिकीर्तन करके कोई नाच रहा है तो यह अंधश्रद्धा है ? श्रद्धा ने ही अंधा होने का ठेका लिया है क्या ?"

श्रद्धा तो करनी ही पड़ती है। हम लोग डॉक्टर पर श्रद्धा करते हैं कि वह इंजेक्शन में ʹडिस्टिल्ड वाटरʹ नहीं लगा रहा है। हालाँकि कुछ डॉक्टर ʹडिस्टिल्ड वाटरʹ के इंजेक्शन लगा देते हैं। चाय बनाने वाला नौकर पर श्रद्धा करनी पड़ती है कि दूध जूठा न होगा, मच्छरवाला या मरे हुए पतंगेवाला न होगा। हजाम पर भी श्रद्धा करनी पड़ती है कि वह खुला उस्तरा चला रहा है परंतु उस्तरा गले पर नहीं घुमा देगा। यह श्रद्धा है तभी तो आराम से दाढ़ी बनवा रहे हैं।

जरा-सी हजामत करवानी है तो अनपढ़ हजाम पर श्रद्धा करनी पड़ती है, फिर जन्म-मरण की सारी हजामत मिटानी है तो वेद  गुरुओं पर श्रद्धा जरूरी है कि नहीं ?

बस ड्राईवर पर श्रद्धा करनी पड़ती है। पचास-साठ आदमी अपना जान-माल सब ड्राईवर के भरोसे सौंपकर बस में बैठते हैं। कितनी ही बसें दुर्घटनाग्रस्त हो जाती हैं, लोग मर जाते हैं फिर भी हम बस में बैठना बंद तो नहीं करते। श्रद्धा करते हैं कि हमारा बस ड्राईवर दुर्घटना नहीं करेगा।

हवाई जहाज के पायलट पर श्रद्धा करनी पड़ती है। हवाई जहाज का स्टीयरिंग इतना हलका होता है कि जरा-सा यूँ घूम जाय तो गये काम से ! फिर भी दौ सौ तीन सौ यात्री अपने जान माल, पूरा जीवन पायलट के हवाले कर देते हैं। वह यहाँ से उठाकर लंदन रख देता है, उस पायलट को सर्वस्व अर्पण करके ही बैठना पड़ता है तो जो सदा-सदा के लिए जीवत्व से उठाकर ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित कर दें ऐसे वेद, उपनिषद, गीता और संत-महापुरुष-सदगुरुओं पर श्रद्धा न करेंगे तो क्या तुम्हारी बीड़ी-सिगरेट पर श्रद्धा करेंगे ? तुम्हारी ʹवाइनʹ पर श्रद्धा करेंगे ? रॉक म्यूजिक और डिस्को डांस पर श्रद्धा करेंगे ? तुम्हारी बहिर्मुख जीवन जीने की पद्धति पर श्रद्धा करेंगे ? घुल-मिलकर माया के जाल में फँस मरेंगे ? इतने दुर्भाग्य हमारे नहीं हुए।

हम तो फिर से वह प्रार्थना करेंगे कि हे प्रभु ! जब तक जी में जान है, तन में प्राण है तब तक मेरे दिल की डोरी, श्रद्धा की डोरी मजबूत बनी रहे... तेरी तरफ बढ़ती रहे... तेरे प्यारे भक्त और संतों के प्रति बढ़ती रहे।

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प्राणिमात्र की आशाओं के राम

ʹश्रीरामचरित मानसʹ में आता हैः

संत हृदय नवनीत समाना।

कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।

निज परिताप द्रवइ नवनीता।

पर दुःख द्रवहिं संत सुपनीता।।

ʹसंतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है। परंतु उन्होंने असली बात कहना नहीं जाना क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है जबकि परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।

(श्रीरामचरित.उ.कां. 124.4)

संतों का हृदय बड़ा दयालु होता है। जाने-अनजाने कोई भी जीव उनके सम्पर्क में आ जाता है तो उसका कल्याण हुए बिना नहीं रहता। एक उपनिषद में उल्लेख आता है।

यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।

स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।

ʹब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !ʹ

ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी बापू का पावन जीवन तो ऐसी अनेक घटनाओं से परिपूर्ण है, जिनसे उनकी करूणा-उदारता एवं परदुःखकातरता सहज में ही परिलक्षित होती है। आज से 30 वर्ष पहले की बात हैः

एक बार पूज्य श्री डीसा में बनास नदी के किनारे संध्या के समय ध्यान-भजन के लिए बैठे हुए थे। नदी में घुटने तक पानी बह रहा था। उसी समय जख्मी पैरवाला एक व्यक्ति नदी किनारे चिंतित सा दिखायी दिया। वह नदी पार अपने गाँव जाना चाहता था। घुटने भर पानी वाली नदी, पैर में भारी जख्म, नदी पार कैसे करे ! इसी चिंता में डूबा सा दिखा। पूज्यश्री उसकी चिंता का कारण समझ गये और उसे अपने कंधे पर बैठाकर नदी पार करा दी। घाव से पीड़ित पैरवाला वह गरीब मजदूर दंग रह गया। साँईं की सहज करूणा-कृपा व दयाभरे व्यवहार से प्रभावित होकर डामर रोड बनाने वाले उस मजदूर ने अपना दुःखड़ा सुनाते हुए पूज्य बापू जी से कहाः

"पैरे में जख्म होने से ठेकेदार ने काम पर आने से मना कर दिया है। कल से मजदूरी नहीं मिलेगी।"

पूज्य बापूजी ने कहाः "मजदूरी न करना, मुकादमी करना। जा, मुकादम हो जा !"

दूसरे दिन ठेकेदार के पास जाते ही उस मजदूर को उसने ज्यादा तनख्वाहवाली हाजिरी भरने की आरामदायक मुकादमी की नौकरी दे दी। किसकी प्रेरणा से दी, किसके संकल्प से दी यह मजदूर से छिपा न रह सका। कंधे पर बैठाकर नदी पार कराने वाले ने रोजी रोटी की चिंता से भी पार कर दिया तो मालगढ़ का वह मजदूर प्रभु का भक्त बन गया और गदगद कंठ से डीसावासियों को अपना अनुभव सुनाने लगा।

ऐसे अगणित प्रसंग हैं जब बापू जी ने निरीह, निःसहाय जीवों को अथवा सभी ओर से हारे हुए, दुःखी, पीड़ित व्यक्तियों को कष्टों से उबारकर उनमें आनंद, उत्साह भरा हो।

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तुम्हारे रूपये-पैसे, फूल-फल की मुझे आवश्यकता नहीं, लेकिन तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस, मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है। मैं रोने वालों का रूदन भक्ति में बदलने के लिए, निराशों के जीवन में आशा के दीप जगाने के लिए, लीलाशाहजी की लीला का प्रसाद बाँटने के लिए आया हूँ और बाँटते-बाँटते कइयों को भगवदरस में छका हुआ देखने को आया हूँ। प्रभुप्रेम के गीत गुँजाकर आप भी तृप्त रहेंगे, औरों को भी तृप्ति के आचमन दिया करेंगे, ऐसा आज से आप व्रत ले लें, यही आशाराम की आशा है। गुरु.... गुरु..... गुरु..........

पूज्य बापूजी

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वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य बनी पूज्य संत श्री

आशारामजी की आभा

हरेक व्यक्ति के शरीर से एक आभा (ओरा) निकलती है। अब विज्ञान ने इसको मापने के लिए विशेष प्रकार के कैमरे व यंत्र विकसित कर लिये हैं। विश्वप्रसिद्ध आभा विशेषज्ञ डॉ. हीरा तापड़िया ने विश्वप्रसिद्ध संत श्री आशारामजी बापू का आभा चित्र खींचा तो वे आश्चर्यचकित रह गये। डॉ. तापड़िया कहते हैं-

"मैंने अब तक लगभग सात लाख से भी ज्यादा लोगों की आभा ली है, जिनमें एक हजार विशिष्ट व्यक्ति शामिल हैं जैसे बड़े संत, साध्वियाँ, प्रमुख व्यक्ति आदि।

संत श्री आशारामजी की आभा का अध्ययन कर मैंने पाया कि वह इतनी अधिक प्रभावशाली है कि कोई भी उनके पास आयेगा तो वह उनकी आभा से अभिभूत हो जायेगा, उनकी आभा के प्रभाव में रहेगा।

बापूजी की आभा में बैंगनी (वायलट रंग) है, जो यह दर्शाता है कि बापू जी आध्यात्मिकता के शिरोमणि हैं। यह सिद्ध ऋषि मुनियों में ही पाया जाता है। लालिमा यह दर्शाती है कि बापू जी शक्तिपात करते हैं, दूसरों की क्षीणता को पूर्णतः हर लेते हैं तथा अपनी शक्ति देते हैं। आसमानी रंग  उन्नत ऊँचाइयों में रहने वाली बापू जी की आभा का परिचायक है।

बापू जी का आभा में यह प्रमुखता मैंने पायी कि वे सम्पर्क में आये व्यक्ति की ऋणात्मक ऊर्जा को ध्वस्त कर धनात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं। बापूजी की आभा की एक खासियत यह भी है कि वे दूर से किसी को भी शक्ति दे सकते हैं। बापू जी के सत्संग में जब मैं गया था तो वहाँ जाँच करने पर मैंने देखा कि बापूजी की आभा अपने-आप रबड़ की तरह खिंचकर खूब लम्बी हो जाती है और वहाँ उपस्थित समूची भीड़ पर छा जाती है।

बापूजी की आभा देखकर मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य हुआ क्योंकि लगातार पिछले कम-से-कम दस जन्मों से बापू जी की समाजसेवा का यह पुनीत कार्य करते आ रहे हैं, जैसे – लोगों पर शक्तिपात करके उन्हें आध्यात्मिकता में लगाना, व्यसनमुक्त करना, स्वस्थ करना, समाज की बुराइयों को दूर करना, ज्ञानामृत बाँटना, आनंद बरसाना आदि। मुझे पिछले दस जन्मों तक का ही पता चल पाया, उसके पहले का पढ़ने की क्षमता मशीन में नहीं थी।

आज तक जितने भी लोगों की आभाएँ मैंने ली हैं, किसी को भी इतना उन्नत नहीं पाया है।"

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आश्रम के सेवाकार्यों की झलक......

सत्संगः देश-विदेश में सद्विचारों, सुसंस्कारों, यौगिक क्रियाओं व स्वास्थ्यप्रद युक्तियों का ज्ञान बाँटा जा रहा है। असंख्य लोग असाध्य रोगों से मुक्ति पा रहे हैं। ध्यान योग शिविरों में कुंडलिनी योग व ध्यान ध्यान योग द्वारा तनाव व विकारों से छुटकारा दिलाकर लोगों की सुषुप्त शक्तियों को जागृत किया जाता है।

विद्यार्थी उत्थान शिविरः इनमें पूज्य बापू जी के सान्निध्य में विद्यार्थियों को ज्ञान-ध्यान-यौगिक क्रियाओं का प्रसाद प्राप्त होता है।

सत्साहित्य प्रकाशनः आश्रम द्वारा 14 भाषाओं में 345 पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है। मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद 10 भाषाओं में प्रकाशित की जा रही है। मासिक पत्र लोक कल्याण सेतु भी प्रकाशित होता है।

बाल संस्कार केन्द्रः ये 17000 केन्द्र विद्यार्थियों में सुसंस्कार-सिंचन में रत हैं।

पिछड़े लोगों का विकासः गरीबों, आदिवासियों को नियमित निःशुल्क अनाज-वितरण भंडारे (भोजन-प्रसाद वितरण), अनाज, वस्त्र, बर्तन, बच्चों को नोटबुकें, मिठाई प्रसाद आदि का वितरण तथा नकद आर्थिक सहायता देने का कार्य बड़े पैमाने पर होता है।

प्याऊः सार्वजनिक स्थलों पर शीतल छाछ व जल का प्याऊ लगाकर इनका निःशुल्क वितरण होता है।

ʹभजन करो, भोजन करो, रोजी पाओʹ योजनाः आश्रम संचालित इस योजना के अंतर्गत बेरोजगार अथवा जो नौकरी धंधा करने में सक्षम नहीं हैं, उन्हें सुबह से शाम तक जप, कीर्तन, सत्संग का लाभ देकर भोजन और रोजी दी जाती है ताकि गरीबी, बेरोजगारी घटे व जप-कीर्तन से वातावरण की शुद्धि हो।

आपातकालीन सेवाः अकाल, बाढ़, भूकम्प, सुनामी तांडव – सभी में आश्रम ने निरंतर सेवाएँ दी हैं।

गौ-सेवाः विभिन्न राज्यों में 9 बड़ी गौशालाओं का संचालन हो रहा है, जिनमें कत्लखाने ले जाने से रोकी गयी हजारों गायों की सेवा की जा रही है।

युवा सेवा संघ तथा युवाधन सुरक्षा व व्यसनमुक्ति अभियानः इनसे युवाओं को मार्गदर्शन मिल रहा है तथा व्यसनियों के व्यसन छूट रहे हैं।

चिकित्सा सेवाः आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक, प्राकृतिक चिकित्सा व एक्युप्रेशर – इन निर्दोष चिकित्सा-पद्धतियों से निष्णात वैद्यों द्वारा विभिन्न स्थानों में उपचार किये जाते हैं। निःशुल्क चिकित्सा शिविरों का आयोजन होता है। दूर-दराज के आदिवासी व ग्रामीण क्षेत्रों में आश्रम के चल चिकित्सालय सेवा हेतु पहुँच जाते हैं।

अस्पतालों में सेवाः मरीजों में फल, दूध, दवाएँ व सत्साहित्य का वितरण किया जाता है।

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आश्रम स्थापना व लोक कल्याण

गुरुआज्ञा शिरोधार्य करके समाधि-सुख छोड़कर आप अशांति की भीषण आग से तप्त लोगों में शांति का संचार करने हेतु समाज के बीच आ गये। सन् 1972 में आप श्री साबरमती के पावन तट पर स्थित मोटेरा पधारे, जहाँ दिन में भी मारपीट, लूटपाट, डकैती व असामाजिक कार्य होते थे। वही मोटेरा गाँव आज लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं का पावन तीर्थधाम, शांतिधाम बन चुका है। इस साबर-तट स्थित आश्रमरूपी विशाल वटवृक्ष की 400 से भी अधिक शाखाएँ आज भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में फैल चुकी हैं और इन आश्रमों में सभी वर्णों, जातियोँ और संप्रदायों के लोग देश-विदेश से आकर आत्मानंद में डुबकी लगाते हैं तथा हृदय में परमेश्वरीय शांति का प्रसाद पाकर अपने को धन्य-धन्य अनुभव करते हैं। अध्यात्म में सभी मार्गों का समन्वय करके पूज्यश्री अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास का मार्ग सुगम करते हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग, निष्काम कर्मयोग और कुण्डलिनी योग से साधक-शिष्यों का, जिज्ञासुओं का आध्यात्मिक मार्ग सरल कर देते हैं। निष्काम कर्मयोग हेतु आश्रम द्वारा स्थापित 1400 से भी अधिक सेवा समितियाँ आश्रम की सेवाओं को समाज के कोने-कोने तक पहुँचाने में जुटी रहती हैं।

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योग सामर्थ्य के धनी

ब्रह्मनिष्ठ अपने आप में एक बहुत बड़ी ऊँचाई है। ब्रह्मनिष्ठा के साथ यदि योग-सामर्थ्य भी हो तो दुग्ध-शर्करा योग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा ही सुमेल देखने को मिलता है पूज्य बापू जी के जीवन में। एक ओर जहाँ आपकी ब्रह्मनिष्ठा साधकों को सान्निध्यमात्र से परम आनंद, पवित्र शांति में सराबोर कर देती है, वहीं दूसरी ओर आपकी करूणा-कृपा से मृत गाय को जीवनदान मिलना, अकालग्रस्त स्थानों में वर्षा होना, वर्षों से निःसंतान रहे दम्पत्तियों को संतान होना, रोगियों के असाध्य रोग सहज में दूर होना, निर्धनों को धन प्राप्त होना, अविद्वानों को विद्वता प्राप्त होना, घोर नास्तिकों के जीवन में आस्तिकता का संचार होना – इस प्रकार की अनेकानेक घटनाएँ आपके योग-सामर्थ्य सम्पन्न होने का प्रमाण हैं।

ʹसभी का मंगलʹ का उदघोष करने वाले पूज्य बापू जी को हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी व अन्य धर्मावलम्बी भी अपने हृदय-स्थल में बसाये हुए हैं व अपने को पूज्यश्री के शिष्य कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। भारत की राष्ट्रीय एकता अखण्डता व शांति के प्रबल समर्थक पूज्य बापूजी ने राष्ट्र के कल्याणार्थ अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है।

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