प्रातः
स्मरणीय परम
पूज्य
संत
श्री
आसारामजी
बापू के
सत्संग-प्रवचन
यौवन
सुरक्षा-2
सिद्धे
बिन्दौ
सुयत्नेन किं
न सिध्यति
भूतले।
महिम्नो
यत्प्रसादस्य
नरो नारायणो
भवेत्।।
(आर्ष-ब्रह्मचर्यम्
29)
योगी
हो या भोगी,
सबको संयम की
आवश्यकता
होगी।
विभिन्न
सामवियकों और
समाचार
पत्रों में
तथाकथित
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
से प्रभावित
मनोचिकित्सक
और 'सेक्सेलोजिस्ट' युवा
छात्र-छात्राओं
को
चरित्र-संयम
और नैतिकता से
भ्रष्ट करने
पर तुले हैं।
ऐसे समय में, युग
की वर्तमान
माँग को
दृष्टि में
रखकर युगपुरुष
बापू ने
अत्यन्त
विलासपूर्ण
कुत्सित
वातावरण में
भी आसानी से
यौवन रक्षार्थ
प्रभावोत्पादक
वाणी में जो
मार्गदर्शन
दिया है, उसका
युवावर्ग को
पूर्ण लाभ
मिले, इस
भावना से
प्रेरित हो
समिति यौवन
सुरक्षा का
दूसरा भाग
आपकी सेवा में
प्रस्तुत
करते हुए
आनन्दानुभव
कर रही है।
आशा है
सुज्ञ पाठक समिति
की इस
आवश्यकतानुकूल
सेवा से स्वयं
लाभान्वित हो
दूसरों को
लाभान्वित
कराने की कृपा
करेंगे।
श्री
योग वेदान्त
सेवा समिति
अमदावाद
आश्रम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
भारतीय
मनोविज्ञान कितना
यथार्थ !
आधुनिक
चिकित्सकों की
दृष्टि में ब्रह्मचर्य
भारतीय
मनोविज्ञान से
ही विश्व का मंगल
विवेकी
नरेन्द्र स्वामी
विवेकानंद बने
'बहारवटिया'
(डाकू) जोगीदास
खुमाण
सबसे
अधिक हिन्दू सैनिक
क्यों बचे ?
ब्रह्मचर्य
व एकाग्रता का
सामर्थ्य
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
महर्षि
सनत्सुजात ने
महाराज
धृतराष्ट के
समक्ष
ब्रह्मचर्य
के माहात्म्य
का वर्णन करते
हुए कहा हैः
नैतद्
ब्रह्म
त्वरमाणेन
लभ्यं।
यन्मां पृच्छन्नतिहृष्यतीयं।
बुद्धौ
विलीने मनसि
प्रचिन्त्या।
विद्या हि सा
ब्रह्मचर्येण
लभ्या।।
'राजन्
! आपने
मुझसे जो
ब्रह्मविद्या
के विषय में
पूछा, वह
त्वरायुक्त
मानव को लभ्य
नहीं है। मन
प्रलीन होने
पर बुद्धि में
वह विद्या
अवभासित होती
है।
ब्रह्मचर्य
से ही उसको
प्राप्त करना संभव
है।'
(महाभारत,
उद्योग पर्वः
44,2)
जीवन में
पूर्ण सफल वही
होता है,
पूर्ण जीवन
वही जीता है,
पूर्ण
परमेश्वर को
वही पाता है
जो संयमी है, सदाचारी
है और
ब्रह्मचर्य
का पालन करता
है।
जिसके जीवन
में संयम है,
सदाचार है और
यौवन-सुरक्षा
के नियमों का
पालन है वह
विद्यार्थी
जीवन के हर
क्षेत्र में
सफल हो सकता
है, बड़े-बड़े
कार्य उसके
द्वारा
संपन्न हो
सकते है।
ब्रह्मचर्य
शरीर का
सम्राट है।
ब्रह्मचर्य
से बुद्धि,
तेज और बल
बढ़ता है।
ब्रह्मचर्य
से जीवन का
सर्वांगीण
विकास होता
है। ब्रह्मचर्य
जीवनदाता से
मुलाकात
कराने में
सहायक होता
है।
.....किन्तु आज
के वातावरण
में ब्रह्मचर्य
का पालन कठिन
होता जा रहा
है। चारों ओर
ब्रह्मचर्य
का नाश करने
के साधन सुलभ
हैं। जीवन को
तेजोहीन करने
की
सामग्रियाँ
खुलेआम मिलती
हैं। लोग
अश्लील नॉवेल
(उपन्यास)
पढ़ते है,
अश्लील गीत
सुनते है,
चलचित्र
देखते हैं, व्यसन
करते हैं।
इससे युवक के
बल, बुद्धि,
ओज-तेज और आयु
का शीघ्र नाश
हो जाता है और
वह असमय ही
वृद्धत्व का
शिकार हो जाता
है।
कुछ वर्षों
पूर्व 'एक
दूजे के लिए' इस नाम का एक
सिनेमा देखकर
कई युवक और
युवतियों ने
आत्महत्या कर
ली। हालाँकि
वह सिनेमा था,
वास्तविकता
नहीं थी।
सिनेमा के
नायक सचमुच में
ऐसा नहीं
करते, केवल
अभिनय करके
दिखाते हैं।
फिर भी पढ़े
लिखे कितने ही
लोग
आत्महत्या के
शिकार हो गये।
यह कैसी
बेवकूफी है !
अश्लील
उपन्यास,
सिनेमा, गीत
आदि मन को
मलिन कर देते
हैं। इसके
फलस्वरूप तन
भी कमजोर हो
जाता है।
कमजोर और
दुर्बल पेट
चाय-कॉफी पीने
से वीर्य पतला
होता है,
स्नायु
दुर्बल होते
हैं एवं
बुद्धिशक्ति
कमजोर होती
है। अतः इनसे
भी बचना चाहिए।
शराब, तम्बाकू
आदि व्यसन भी
जीवनशक्ति को
कमजोर करके
इन्सान को
रोगी बना देते
हैं। जो व्यक्ति
सूर्योदय और
सूर्यास्त के
समय सोता रहता
है उसका भी
ओज-तेज नष्ट
हो जाता है।
हम लोग जब
नीचे के
केन्द्रों
में अथवा
विकारों में
जीते हैं,
मांस-मदिरा का
सेवन करते हैं
अथवा कोई
हल्के काम
करते हैं तो
उस वक्त पता
नहीं चलता, सब
सुखद लगता है
किन्तु उसका
परिणाम बड़ा
दुःखद होता
है।
हल्के
काम-धन्धे से,
हलके वातावरण
से, हल्का साहित्य
पढ़ने से, हलके
सिनेमा देखने
से, हलके
खान-पान से
आदमी का पतन
हो जाता है,
ब्रह्मचर्य
खंडित हो जाता
है तो अच्छे
कार्यों से,
अच्छा
साहित्य
पढ़ने से,
अच्छे विकार
से, अच्छे एवं
सात्त्विक
खान-पान से
आदमी का
उत्थान भी तो
हो सकता है।
प्रातः सूर्योदय
से पूर्व उठने
से, प्रतिदिन
दस-बारह सूर्य
नमस्कार व
प्राणायाम
करने से, प्रातःकाल
की शुद्ध हवा
लेने से, आसन
करने से ब्रह्मचर्य
की रक्षा होती
है।
चाय-कॉफी की
जगह ऋतु के
अनुकूल फलों
का सेवन अच्छा
स्वास्थ्य
लाभ तो देता
ही है, शरीर को
पुष्ट भी करता
है।
सात्त्विकि
एवं अल्प आहार
भी ब्रह्मचर्य
की रक्षा में
सहायक है। कम
खाने का मतलब
यह नहीं कि
तुम 200 ग्राम
खाते हो तो 150
ग्राम खाओ। नहीं,
यदि तुम एक
किलो पचा सकते
हो और विकार
उत्पन्न नहीं
होता तो 190
ग्राम खाओ।
किन्तु तुम पचा
सकते हो 200
ग्राम, तो 210
ग्राम मत खाओ।
इससे ब्रह्मचर्य
की रक्षा में
सहायता मिलती
है और
ब्रह्मचर्य
की रक्षा होने
से व्यक्ति
में सामर्थ्य
एवं सब सदगुण
सहज विकसित
होते हैं। जहाँ चाह
वहाँ राह।
जहाँ मन की
गहरी चाह होती
है, आदमी वहीं
पहुँच जाता
है। अच्छे
कर्म, अच्छा
संग करने से
हमारे अंदर
अच्छे विचार
पैदा होते
हैं, हमारे
जीवन की अच्छी
यात्रा होती
है और बुरे
कर्म, बुरा संग
करने से बुरे
विचार
उत्पन्न होते
हैं एवं जीवन
अधोगति की ओर
चला जाता है।
हर महान
कार्य कठिन है
और हलका कार्य
सरल। उत्थान
कठिन है और
पतन सरल।
पहाड़ी पर
चढ़ने में परिश्रम
होता है, पर
उतरने में परिश्रम
नहीं होता। पतन
के समय जरा भी
परिश्रम नहीं
करना पड़ता है
लेकिन परिणाम
दुःखद होता
है.... सर्वनाश....
उत्थान के समय
आराम नहीं
होता, परिश्रम
लगता है लेकिन
परिणाम सुखद
होता है। कोई
कहे किः 'इस जमाने
में बचना
मुश्किल है....
कठिन है....' लेकिन 'कठिन है....' ऐसा समझकर
अपनी शक्ति को
नष्ट करना यह
कहाँ की
बुद्धिमानी
है ? गयी
सो गयी, राख
रही को....
मन का
स्वभाव है
नीचे के
केन्द्रों
में जाना। आदमी
विकारों में
गिर जाता है
फिर भी यदि
उसमें प्रबल
पुरुषार्थ हो
तो वह ऊपर उठ
सकता है। इस
जमाने में भी
ऐसे व्यक्ति
हैं
जिन्होंने संयम
किया है और
संयम से बलवान
हुए हैं।
पुरुषार्थ
से सब संभव है
लेकिन 'कठिन
है.... कठिन है....' ऐसा करके
कठिनता को
मानसिक सहमति
दे देते हैं
तो हमारे जीवन
में कोई
प्रगति नहीं
होती है। ध्रुव
ने यदि सोचा
होता कि 'प्रभु
प्राप्ति
कठिन है...' तो ध्रुव को
प्रभु नहीं
मिलते। प्रह्लाद
ने यदि सोचा
होता कि 'भगवद्-दर्शन
कठिन है....' तो उसके लिए
भगवद्-प्राप्ति
कठिन हो जाती।
हम किसी
कार्य को
जितना 'कठिन
है.... कठिन है.....' ऐसा समझते
हैं, वह कार्य
उतना ही कठिन
हो जाता है
लेकिन हम कठिन
को न समझकर
पुरुषार्थ
करते हैं तो
सफल भी हो
सकते हैं।
प्रयत्नशील
आदमी हजार बार
असफल होने पर
भी अपना
प्रयत्न चालू
रखता है तो
भगवान उसको
अवश्य मदद
करते हैं। हिम्मते
मर्दा तो मददे
खुदा।
नष्ट-भ्रष्ट
निस्तेज जीवन
की कगार पर
पहुँचे हुए कई
युवक-युवतियों
को किन्हीं
पुण्यात्मा
साधकों के
द्वारा आश्रम
से प्रकाशित 'यौवन
सुरक्षा', 'पुरुषार्थ
परम देव', 'योगयात्रा' पुस्तकें
पढ़ने को
मिलीं तो उनका
जीवन बदल गया।
ऐसे कई
युवक-युवतियाँ
हैं। दिल्ली
के शेखरभाई,
राजूभाई को तो
लाखों लोग
जानते हैं। 'यौवन
सुरक्षा' पुस्तक ने
उनका जीवन बदल
दिया। युवाधन
को बनाने के
लिए, देश के
भावी नागरिकों
को तेजस्वी
बनाने के लिए
आश्रम से
जुड़े हुए सभी
पुण्यातमा
अपने-अपने
इलाकों में
व्यक्तिगत
रूप से
युवक-युवतियों
को 'यौवन
सुरक्षा' पुस्तर
पाँच बार
पढ़ने के लिए
प्रोत्साहित
करें। यह
छोटा-सा दिखने
वाला काम
अपने-आपमें एक
बहुत बड़ा
पुण्यकार्य
है। एक युवक
या युवती की
जिन्दगी चमकी
तो पूरा
परिवार और
पड़ोस भी
लाभान्वित
होगा।
हे
विद्यार्थी ! ईश्वर की
असीम शक्ति
तेरे साथ
जुड़ी है। तू
कभी अपने को
अकेला मत
समझना। तेरे
दिल में दिलबर
और गुरु का
ज्ञान दोनों
साथ हैं।
परमात्मतत्त्व
और
गुरुतत्त्व
की चेतना इन
दोनों का सहयोग
लेते हुए,
विकारों एवं
नकारात्मक
चिंतन को कुचलते
हुए स्नेह और
साहस से आगे
बढ़ते जाना।
जो महान
बनने वाले
पवित्र
विद्यार्थी
हैं वे कभी
नकारात्मक,
फरियादात्मक
चिंतन नहीं
करते। जो महान
बनना चाहते
हैं वे कभी
दुश्चरित्रवान
व्यक्तियों
का अनुकरण
नहीं करते। जो
महान बनना
चाहते हैं वे
कभी हलके
कार्यों में
लिप्त नहीं
होते। ऐसे
मुट्ठीभर
दृढ़
संकल्पबलवाले
व्यक्तियों
का ही तो
इतिहास
गुणगान करता है।
हे
विद्यार्थी ! तू दृढ़
संकल्प कर किः
'एक
सप्ताह के लिए
व्यर्थ का
इधर-उधर समय
नहीं गँवाऊँगा।' अगर युवक है
तो संकल्प करे
किः 'किसी
भी युवती की
तरफ विकारी
भाव से निगाह
नहीं
उठाऊँगा।' अगर युवती
है तो संकल्प
करे किः 'किसी भी
युवक की तरफ
विकारी भाव से
निगाह नहीं
उठाऊँगी।' अगर देखना
ही पड़े या
बात करनी ही
पड़े तो संयम
को, पवित्रता
को, गुरु को या
भगवान को
सर्वत्र
उपस्थित
समझकर फिर बात
करो। हे
विद्यार्थी ! तेरे जीवन
के इस ओज को तू
अभी से
सुरक्षित कर दे।
हे वत्स !
जैसे
बीज में वृक्ष
छुप, अरु चकमक
में आग।
तेरा
प्रभु तुझमें
है, जाग सके तो
जाग।।
जो
विद्यार्थी
प्रतिदिन
भगवान का
ध्यान करता है
उसकी बुद्धि
जरूर तेजस्वी
होती है। जो
विद्यार्थी
प्रतिदिन मौन
रहने का
अभ्यास करता
है उसका मनोबल
बढ़ता है। जो
विद्यार्थी
आहार-विहार का
ध्यान रखता है
उसका तन
तंदुरुस्त
रहता है। जो
विद्यार्थी
माता-पिता और
गुरुजनों की
प्रसन्नता के
लिए कार्य
करता है वह
विद्यार्थी
आगे चलकर एक
श्रेष्ठ
मनुष्य, एक
श्रेष्ठ
नागरिक और एक
श्रेष्ठ साधक
होकर अपने
साध्य को भी
पा लेता है।
आयुर्वेद
के निष्णात
वैद्यशिरोमणि
धन्वन्तरि
महाराज के
शिष्यों ने
उनसे पूछाः ''हे गुरुदेव ! आपकी
शिक्षा, आपके
उपदेश एवं
आपके दिव्य
गुणों को हम
अपने जीवन में
आसानी से कैसे
उतारें ? इसका
कोई सरल, सचोट
एवं सुगम उपाय
बताने की कृपा
करें।"
धन्वन्तरिः
"हे
मेरे प्यारे
शिष्यो ! सारी
विद्याओं,
सारी
योग्यताओं
एवं सारे सदगुणों
को प्रगटाने
वाला, सींचने
वाला और बढ़ाने
वाला गुण है
ब्रह्मचर्य।
तुम
ब्रह्मचर्य व्रत
की महिमा
जितनी समझोगे,
तुम जितना
सदाचारी और
दिखावारहित
सेवाभावी जीवन
बिताने का
दृढ़ संकल्प
करोगे उतनी ही
तुम्हारी
आत्मशक्ति
विकसित होगी।
ब्रह्मचर्य
व्रत वह रत्न
है, वह अमृत की
खान है जो
जीवात्मा को परमात्मा
से मिला देती
है। यदि तुम
यौवन-सुरक्षा
के नियमों को
समझकर उसका
पालन करोगे तो
तुम आयुर्वेद
में तो सफल
होंगे ही, आत्मा-परमात्मा
को पाने में
भी सफल हो
जाओगे।"
हे मेरे
विद्यार्थियो
! तुम भी
हलके
विद्यार्थियों
का अनुकरण मत
करना वरन् तुम
तो
संयमी-सदाचारी
महापुरुषों
के जीवन का
अनुकरण करना।
उनके जीवन में
कितनी विघ्न-बाधाएँ
आयीं फिर भी
वे लगे रहे।
मीरा के जीवन
में कितनी
विघ्न-बाधाएँ
आयीं फिर भी
मीरा लगी रही।
ध्रुव-प्रह्लाद
के जीवन
कितना
प्रलोभन और
बाधाएँ आयी,
फिर भी वे लगे
रहे। तुम भी
उन्हीं का अनुकरण
करना।
हजार-हजार
विघ्न-बाधाएँ
आ जायें फिर
भी जो संयम का,
सदाचार का,
सेवा का,
ध्यान का, भगवान
की भक्ति का
रास्ता नहीं
छोड़ता वह जीते
जी
मुक्तात्मा,
महान आत्मा,
परमात्मा के ज्ञान
से संपन्न
सिद्धात्मा
जरूर हो जाता
है और अपने
कुल-खानदान का
भी कल्याण कर
लेता है। तुम
ऐसे कुल दीपक
बनना। हरि ॐ......
ॐ.... ॐ..... ॐ.....बल
हिम्मत..... दृढ़
संकल्पशक्ति
का विकास....
पवित्र
आत्मशक्ति का
विकास.... ॐ.....ॐ....
बाहर का
जीवन भले
सीधा-सादा हो
लेकिन जिसने
यौवनकाल में
अपने यौवन की
सुरक्षा की है
वह चाहे जो भी
संकल्प करे और
उसमें लगा रहे
तो देर-सबेर
वह समता के
सिंहासन पर
पहुँच जाता है
और अपने
परमात्मप्राप्तिरूप
लक्ष्य को
प्राप्त कर ही
लेता है। वह
चाहे तो
अविनाशी पद को
पाकर मुक्त भी
हो सकता है।
फिर तो जिस पर
उसकी नजर
पड़ेगी, वह भी
धर्मात्मा होकर
अपने कुल का
उद्धार कर
सकता है, इतना
वह महान हो
सकता है।
नेपोलियन,
सीजर और
सिकंदर से भी
तुम हजारगुना
आगे जा सकते
हो, ऐसा
आत्मा-परमात्मा
का बल तुम में
छुपा हुआ है
वत्स !
धन्वन्तरि
महाराज ने
अपने शिष्यों
से कहाः "हे
वत्सो !
तुमको जीवन के
किसी भी
क्षेत्र में
सफल होना हो
तो उसके दो
सूत्र हैं-
यौवन-सुरक्षा
और सदाचार।" ये दो
ऐसे हथियार
हैं जो हर
क्षेत्र में
विजय दिलवा
देंगे। अगर इन
दोनों चीजों
से गिरे तो फिर
चाहे
तुम्हारे पास
कितनी भी
संपत्ति हो,
कितने भी
प्रमाण-पत्र
हों फिर भी एक
मजदूर की नाईं
जीवन की गाड़ी
घसीटते-घसीटते
मर जाओगे।
अतः आज तक जो
हो गया सो हो
गया, जो बीत
गया सो बीत गया...
आज के बाद
दृढ़ संकल्प
करो कि 'यौवन
सुरक्षा' और
पुरुषार्थ
परमदेव
पुस्तक केक दो
पृष्ठ रोज पढ़ेंगे।
फिर देखो,
तुम्हारा
जीवन कितना
महान हो जाता
है ! जैसे,
पक्षी दो
पंखों से
उड़ान भरता
है, मनुष्य दो
पैरों से चलता
है, वैसे ही
तुम भी संयम
और सदाचार इन
दो पंखों से
उड़ान भरकर
अपने लक्ष्य तक
पहुँचने में
सफल हो जाओगे।
स्वप्न में
भी यदि बुरे
विचार आ जायें
तो 'हरि ॐ....
ॐ..... ॐ..... ' की
गदा मारकर
उन्हें भगा
देना। मैं
भगवान का हूँ.....
भगवान मेरे
हैं.... मेरे साथ
परमेश्वर
हैं.... मेरे साथ
गुरुदेव की
कृपा है....' ऐसा विचार
करोगे तो बड़ी
मदद मिलेगी।
गुरु का
सान्निध्य
एवं
मार्गदर्शन
पाकर
विषय-विकारों
से, विघ्न-बाधाओं
से छुटकारा पा
सकते हो।
शाबाश वीर ! शाबाश.... उठो।
हिम्मत करो।
हताशा-निराशा
को परे फेंको।
असंभव कुछ
नहीं। सब संभव
है।
वह कौन सा
उकदा है जो हो
नहीं सकता ? तेरा जी न
चाहेत तो हो
नहीं सकता।।
छोटा सा
कीड़ा पत्थर
में घर करे।
इन्सान क्या दिले-दिलबर
में घर न करे ?
परमात्मा
तुम्हारे साथ
है, परमात्मा
की शक्ति
तुम्हारे साथ
है, सदगुरु की
कृपा
तुम्हारे साथ
है फिर किस
बात का भय ? कैसी
निराशा ? कैसी
हताशा ? कैसी
मुश्किल ?
मुश्कि हो
जाये ऐसा
खजाना
तुम्हारे पास
है। संयम और
सदाचार.... ये दो
सूत्र अपना
लो, बस !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है
सभी
इन्द्रियों
पर काबू पाना।
ब्रह्मचर्य
में दो बातें
होती हैं- ध्येय
उत्तम होना,
इन्द्रियों
और मन पर अपना
नियंत्रण
होना।
ब्रह्मचर्य
में मूल बात
यह है कि मन और इन्द्रियों
को उचित दिशा
में ले जाना
है। ब्रह्मचर्य
बड़ा गुण है।
वह ऐसा गुण है,
जिससे मनुष्य
को नित्य मदद
मिलती है और
जीवन के सब
प्रकार के
खतरों में
सहायता मिलती
है।
ब्रह्मचर्य
आध्यात्मिक
जीवन का आधार
है। आज तो
आध्यात्मिक
जीवन गिर गया
है, उसकी
स्थापना करनी है।
उसमें
ब्रह्मचर्य
एक बहुत बड़ा
विचार है। अगर
ठीक ढंग से
सोचें तो
गृहस्थाश्रम
भी
ब्रह्मचर्य
के लिए ही है।
शास्त्रकारों
के बताये
अनुसार ही अगर
वर्तन किया
जाय तो
गृहस्थाश्रम
भी ब्रह्मचर्य
की साधना का
एक प्रकार हो
जाता है।
पृथ्वी को
पाप का भार
होता है, संख्या
का नहीं।
संतान पाप से
बढ़ सकती है,
पुण्य से भी
बढ़ सकती है।
संतान पाप से
घट सकती है,
पुण्य से भी
घट सकती है।
पुण्यमार्ग
से संतान बढ़ेगी
या संतान
घटेगी तो
नुकसान नहीं
होगा। पापमार्ग
से संतान
बढ़ेगी तो
पृथ्वी पर भार
होगा और
पापमार्ग से संतान
घटेगी तो नुक्सान
होगा। यह
संतान-निरोध
के कृत्रिम
उपायों के
अवलम्बन से
सिर्फ संतान
ही नहीं
रुकेगी, बुद्धिमत्ता
भी रूकेगी। यह
जो
सर्जनशक्ति (Creative
Energy) है,
जिसे हम 'वीर्य' कहते हैं,
मनुष्य उस
निर्माणशक्ति
का दुरुपयोग
करता है। उस
शक्ति का
दूसरी तरफ जो
उपयोग हो सकता
था, उसे
विषय-उपभोग
में लगा दिया।
विषय-वासना पर
जो अंकुश रहता
था, वह नहीं
रहा। संतान
उत्पन्न न हो,
ऐसी व्यवस्था
करके पति
पत्नी विषय-वासना
में व्यस्त
रहेंगे, तो
उनके दिमाग का
कोई संतुलन
नहीं रहता।
ऐसी हालत में
देश तेजोहीन बनेगा।
ज्ञानतंतु भी
क्षीण होंगे,
प्रभा भी कम
होगी,
तेजस्विता भी
कम होगी।
आज मानव
समाज में 'सेक्स' का ऊधम
मचाया जा रहा
है। मुझे
इसमें युद्ध
से भी ज्यादा
भय मालूम होता
है। अहिंसा को
हिंसा का
जितना भय है,
उससे ज्यादा
काम-वासना का
है। कमजोरों
की जो संतानें
पैदा होती
हैं, वे भी निर्वीर्य
या निकम्मी
होती हैं।
जानवरों में
भी देखा गया
है। शेर के
बच्चे कम होते
हैं, बकरी के
ज्यादा।
मजबूत जानवरों
में
विषयवासना कम
होती है,
कमजोरों में
ज्यादा।
इसीलिए ऐसा
वातावरण
निर्माण किया
जाय, जो संयम
के अनुकूल हो।
समाज में
पुरुषार्थ
बढ़ायें,
साहित्य
सुधारें और
गंदा साहित्य,
गंदे सिनेमा
रोकें।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
एक बार ऋषि
दयानंद से
किसी ने पूछाः
"आपको
कामदेव सताता
है या नहीं ?"
उन्होंने
उत्तर दियाः "हाँ वह
आता है,
परन्तु उसे
मेरे मकान के
बाहर ही खड़े
रहना पड़ता है
क्योंकि वह
मुझे कभी खाली
ही नहीं पाता।"
ऋषि दयानंद
कार्य में
इतने व्यस्त
रहते थे कि उन्हें
सामान्य
बातों के लिए
फुर्सत ही
नहीं थी। यही
उनके
ब्रह्मचर्य
का रहस्य था।
हे युवानों ! अपने जीवन
का एक क्षण भी
व्यर्थ न
गँवाओ। स्वयं
को
किसी-न-किसी
दिव्य
सत्प्रवृत्ति
में संलग्न
रखो। व्यस्त
रहने की आदत
डालो। खाली
दिमाग शैतान
का घर। निठल्ले
व्यक्ति को ही
विकार अधिक
सताते हैं। आप
अपने विचारों
को पवित्र,
सात्त्विक व
उच्च बनाओ।
विचारों की
उच्चता
बढ़ाकर आप
अपनी आंतरिक
दशा को
परिवर्तित कर
सकते हो। उच्च
व सात्त्विक
विचारों के
रहते हुए
राजसी व हलके
विचारों व
कर्मों की दाल
नहीं गलेगी।
सात्त्विक व
पवित्र विचार
ही ब्रह्मचर्य
का आधार है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
प्रत्येक
नवविवाहित
युवक-युवती को
डॉ.कोवन की
निम्न
पंक्यिताँ अवश्य
ध्यान में
रखनी चाहिएः "नई
शादी करके
पुरुष तथा
स्त्री विषय
भोग की दलदल
में जा धँसते
हैं। विवाह के
प्रारम्भ के
दिन तो मानों
व्यभिचार के
दिन होते हैं।
उन दिनों ऐसा
जान पड़ता है,
जैसे विवाह
जैसी उच्च तथा
पवित्र
व्यवस्था भी
मनुष्य को पशु
बनाने के लिए
ही गढ़ी गई
हो।
ऐ नव
विवाहित
दम्पत्ति ! क्या तुम
समझते हो कि
यह उचित है ? क्या
विवाह के
पर्दे में
छिपे इस
व्यभिचार से
तुम्हें
शांति, बल तथा
स्थायी संतोष
मिल सकते हैं ? क्या
इस व्यभिचार
के लिए छुट्टी
पाकर तुम में
प्रेम का
पवित्र भाव
बना रह सकता
है ?
देखो, अपने को
धोखा मत दो।
विषय-वासना
में इस प्रकार
पड़ जाने से
तुम्हारे
शरीर और
आत्मा, दोनों
गिरते हैं।
....और प्रेम ! प्रेम तो, यह
बात गाँठ बाँध
लो, उन लोगों
में हो ही
नहीं सकता, जो
संयमहीन जीवन
व्यतीत करते
हैं।
नई शादी के
बाद लोग विषय
में बह जाते
हैं। परन्तु
इस अन्धेपन
में पति-पत्नी
का भविष्य,
उनका आनन्द,
बल, प्रेम
खतरे में पड़
जाता है।
संयमहीन जीवन
से कभी प्रेम
नहीं उपजता।
संयम को
तोड़ने पर सदा
घृणा उत्पन्न
होती है, और
ज्यों-ज्यों
जीवन में
संयमहीनता
बढ़ती जाती
है,
त्यों-त्यों
पति-पत्नी का
हृदय एक दूसरे
से दूर होने लगता
है।
प्रत्येक
पुरुष तथा
स्त्री को यह
बात समझ लेनी
चाहिए कि
विवाहित होकर
विषयवासना का
विकार बन जाना
शरीर, मन तथा
आत्मा के लिए
वैसा ही घातक
है जैसा
व्यभिचार।
यदि पति अपनी
इच्छा को अथवा
कल्पित इच्छा
को पूर्ण करना
अपना वैवाहिक अधिकार
समझता है और
स्त्री केवल
पति से डरकर
उसकी इच्छा
पूर्ण करती
है, तो परिणाम
वैसा ही घातक
होता है, जैसा
हस्तमैथुन
का।"
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पाश्चात्य
मनोवैज्ञानिक
डॉ. सिग्मंड
फ्रायड स्वयं
कई शारीरिक और
मानसिक रोगों से
ग्रस्त था। 'कोकीन' नाम की
नशीली दवा का
वो व्यसनी भी
था। इस व्यसन
के प्रभाव में
आकर उसने जो
कुछ लिख दिया
उसे पाश्चात्य
जगत ने
स्वीकार कर
लिया और इसके
फलस्वरूप आज
तक वे शारीरिक
और मानसिक
रोगियों की
संख्या
बढ़ाते जा रहे
हैं। अब
पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों
ने फ्रायड की
गलती को
स्वीकार किया
है और एडलर एवं
कार्ल
गुस्ताव जुंग
जैसे प्रखर
मनोवैज्ञानिक
ने फ्रायड की
कड़ी आलोचना
की है। फिर भी
इस देश के
मनोचिकित्सक
और
सेक्सोलोजिस्ट
कई बार हमारे
युवावर्ग को
फ्रायड के
सिद्धान्तों
पर आधारित
उपदेश देकर
गुमराह कर रहे
हैं। कुछ लोग
समझते हैं किः
'ब्रह्मचर्य
को वैज्ञानिक
समर्थन
प्राप्त नहीं
है.... यह केवल
हमारे
शास्त्रों के
द्वारा ही
प्रमाणित है....' पर ऐसी बात
नहीं है।
वास्तव में या
तो लोगों को
गुमराह करने
वाले लोग
फ्रायड के
अंधे अनुयायी
हैं, या तो वे
इस देश में भी
पाश्चात्य देशों
की नाईं
पागलों की और
यौन रोगियों
की संख्या
बढ़ाना चाहते
हैं जिससे
उनको
पर्याप्त मरीज
मिलते रहें और
उनका धंधा
चलता रहे।
आज के
बड़े-बड़े
डॉक्टर और
मनोवैज्ञानिक
भारत के
ऋषि-मुनियों
के
ब्रह्मचर्य
विषयक विचारधारा
का, उनकी खोज
का समर्थन
करते हैं। डॉ.
ई. पैरियर का
कहना हैः "यह एक
अत्यन्त झूठा
विचार है कि
पूर्ण ब्रह्मचर्य
से हानि होती
है। नवयुवकों
के शरीर, चरित्र
और बुद्धि का
रक्षक रखना
सबसे अच्छी
बात ही है।"
ब्रिटिश
सम्राट के
चिकित्सक सर
जेम्स पेजन लिखते
हैं- "ब्रह्मचर्य
से शरीर और
आत्मा को कोई
हानि नहीं
पहुँचती।
अपने को
नियंत्रण में
रखना सबसे
अच्छी बात है।"
आज कल के
मनोचिकित्सक
और यौन
विज्ञान के
ज्ञाता जो
समाज को
अनैतिकता,
मुक्त
साहचर्य (Free Sex) और
अनियंत्रित
विकारी सुख
भोगने का
उपदेश देते
हैं उनको डॉ.
निकोलस की बात
अवश्य समझनी
चाहिए। डॉ.
निकोलस कहते
हैं- "वीर्य को
पानी की भाँति
बहाने वाले आज
कल के अविवेकी
युवकों के
शरीर को भयंकर
रोग इस प्रकार
घेर लेते हैं
कि डॉक्टर की
शरण में जाने
पर भी उनका
उद्धार नहीं
होता और अंत
में बड़ी कठिन
रोमांचकारी
विपत्तियों
का सामना करने
के बाद असमय
ही उन अभागों
का महाविनाश
हो जाता है।"
वीर्यरक्षा
से कितने लाभ
होते हैं यह
बताते हुए डॉ.
मोलविल कीथ
(एम.डी.) कहते
हैं- "वीर्य
तुम्हारी
हड्डियों का
सार, मस्तिष्क
का भोजन,
जोड़ों का तेल
और श्वास का
माधुर्य है। यदि तुम
मनुष्य हो तो
उसका एक
बिन्दु भी
नष्ट मत करो जब
तक कि तुम
पूरे 30 वर्ष के
न हो जाओ और
तभी भी केवल
संतान
उत्पन्न करने
के लिए। उस
समय स्वर्ग के
प्राणधारियों
में से कोई
दिव्यात्मा
तुम्हारे घर
में आकर जन्म
लेगी, इसमें
तनिक भी संदेह
नहीं है।"
हमारे
ऋषि-मुनियें
ने तो हजारों
वर्ष पहले वीर्यरक्षा
और संयम से
दिव्य आत्मा
को अवतरित करने
की बात बताई
है लेकिन
पाश्चात्य
बुद्धिजीवियों
से प्रभावित
हमारे देश के
शिक्षित लोग
उन महापुरुषों
के वचनों को
मानते नहीं
थे। अब पाश्चात्य
चिकित्सकों
की बात मानकर
भी यदि वे संयम
के रास्ते चल
पड़ेंगे तो
हमें
प्रसन्नता होगी।
हिन्दू
धर्मशास्त्रों
के उपदेशों को
विधर्मी एवं
नास्तिक लोग
स्वीकार न
करें यह संभव
है पर अब जबकि
उन्ही बातों
को विज्ञानी
मान रहे हैं
और अपनी भाषा
से
ब्रह्मचर्य
की आवश्यकता बता
रहे हैं,
वैज्ञानिक
स्वीकृति मिल
रही है तब
उसका स्वीकार
सबको करना ही
पड़ेगा और
सीधे नहीं तो
अनसीधे ढंग से
भी उनक भारतीय
संस्कृति की
शरण में आना
ही पड़ेगा।
इसी मे उनका
कल्याण निहित
है।
ब्रह्मचर्य
से कितने लाभ
होते हैं यह
बताते हुए डॉ.
मोन्टेगाजा
कहते हैं- "सभी
मनुष्य,
विशेषकर
नवयुवक,
ब्रह्मचर्य
के लाभें का
तत्काल अनुभव
कर सकते है।
स्मृति की स्थिरता
और धारण एवं
ग्रहण शक्ति
बढ़ जाती है।
बुद्धिशक्ति
तीव्र हो जाती
है, इच्छाशक्ति
बलवती हो जाती
है।
सच्चारित्र्य
से सभी अंगों
में एक ऐसी
शक्ति आ जाती
है कि विलासी
लोग जिसकी
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
ब्रह्मचर्य
से हमें
परिस्थितियाँ
एक विशेष
आनंददायक रंग
में रँगी हुई
प्रतीत होती
हैं।
ब्रह्मचर्य
अपने तेज-ओज
से संसार के
प्रत्येक
पदार्थ को
आलोकित कर
देता है और
हमें कभी न
समाप्त होने
वाले विशुद्ध
एवं निर्मल
आनन्द की
अवस्था में ले
जाता है, ऐसा
आनंद जो कभी
नहीं घटता।"
तथाकथित
मनोचिकित्सक
जो विक्षिप्त
फ्रायड के
अंधे अनुयायी
हैं वे
अल्पबुद्धि
प्रायः
वर्तमानपत्रों
और सामयिकों
में
स्वास्थ्य प्रश्नोत्तरी
में
हस्तमैथुन व
स्वप्नदोष को
प्राकृतिक,
स्वाभाविक
बताते हैं और
हमारे युवावर्ग
को
चरित्रभ्रष्ट
करने का बड़ा
अपराध करते
है, महापाप
करते हैं।
डॉ. केलाग
महोदय लिखते
हैं- "मेरी
सम्मति में
मानव-समाज को
प्लेग, चेचक
तथा इस प्रकार
की अन्य
व्याधियों
एवं युद्ध से
इतनी हानि
नहीं पहुँचती
जितनी हस्तमैथुन
तथा इस प्रकार
के अन्य घृणित
महापातकों से
पहुँचती है।
सभ्य समाज को
नष्ट करने
वाला यह एक
घुन है, जो
अपना घातक
कार्य लगातार
करता रहता है
और धीरे-धीरे
स्वास्थ्य,
सदगुण और साहस
को समूल नष्ट
कर देता है।"
डॉ. क्राफट
एर्विंग ने
लिखा हैः "यह
कली की
सुंदरता एवं
महक को नष्ट
कर देता है जिसे
पूर्ण फूल एवं
पवित्र होने
पर ही खिलना चाहिए
परंतु ये
कुण्ठित
बुद्धिवाले
इन्द्रिय-तृप्ति
के लिए महान
भूल करते हैं...
इससे नैतिकता,
स्वास्थ्य, चिन्तनशक्ति,
चारित्र्य
एवं
कल्पनाशक्ति
तथा जीवन की
अनुभूति नष्ट
हो जाती है।"
डॉ. हिल का
कथन हैः "हस्तमैथुन
वह तेज
कुल्हाड़ी है,
जिसे अज्ञानी
युवक अपने ही
हाथों से अपने
पैर पर मारता
है। उस
अज्ञानी को तब
चेत होता है,
जब हृदय,
मस्तिष्क और
मूत्राशय आदि
निर्बल हो
जाते हैं तथा
स्वप्नदोष,
शीघ्रपतन,
प्रमेह आदि
दुष्ट रोग आ
घेरते हैं।"
अतः जहाँ भी,
किसी भी अखबार
या पत्रिका
में कोई
मनोचिकित्सक
या
सेक्सोलोजिस्ट
समाज को गुमराह
करने के लिए
ब्रह्मचर्य
और नैतिकता के
विरूद्ध लेख
लिखते हों, जो
समाज की
आधारशिलास्वरूप
चरित्र, संयम
और नैतिकता को
नष्ट करने का
जघन्य अपराध कर
रहे हों ऐसे
लोगों का अथवा
वर्तमानपत्र
या पत्रिकाओं
का व्यापक तौर
पर विरोध करना
चाहिए।
बड़े-बड़े
महानगरों के
रेलवे
स्टेशनों पर
जब गाड़ी
पहुँचती है तब
दीवारों पर
विज्ञापन लिखे
हुए दिखते है।
'खोई
हुई शक्ति को
पुनः प्राप्त
करें...
संतान-प्राप्ति
के इच्छुक संपर्क
करें...
शीघ्रपतन और
नपुंसकता से
ग्रस्त लोग
संपर्क करें।' आज से पचीस
साल पहले इतने
यौन रोगी भारत
में नहीं थे
जितने आज हैं।
संयम और
नैतिकता का
ह्रास होने के
कारण कई लोग
कई प्रकार के
रोगी बन गये। रोगों का
उपचार करने की
अपेक्षा
रोगों को होने
न देना उत्तम है।
Prevention is better
than cure.
विश्व
स्वास्थ्य
संगठन (W.H.O.) और कई
राष्ट्रीय
संस्थाएँ
चेचक, पोलियो,
टी.बी., मलेरिया,
प्लेग आदि
संक्रामक
रोगों की
रोकथाम के लिए
करोड़ों डॉलर
खर्च करती है,
अपने लक्ष्य में
कुछ हद तक वे
सफल भी होती
हैं परन्तु इन
सबसे ज्यादा
हानिकर रोग है
वीर्यह्रास।
इसके द्वारा कई
प्रकार के
शारीरिक,
मानसिक और
जातीय रोगों का
उदभव होता है,
सामाजिक
अपराध बढ़ते
हैं, अनैतिकता
और
चरित्रहीनता
नग्न नृत्य
होने लगता है
जो आगे चलकर
संपूर्ण जाति
के स्वास्थ्य
को नष्ट कर
डालता है।
वीर्यह्रासरूपी
रोग का
नियंत्रण
करने से
व्यक्तिगत,
पारिवारिक, सामाजिक,
राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर होने
वाली भारी
हानि से
विश्वसमुदाय
बच सकता है और
उपरोक्त सभी
स्तरों पर
ब्रह्मचर्य
के अप्रतिम
लाभ से
सर्वांगीण
उन्नति
प्राप्त कर
सकता है। अतः
इस महारोग के
नियंत्रण का
सर्वप्रथम
प्रयास विश्व
में कहाँ हुआ
हो तो यह केवल
संत श्री
आसारामजी
आश्रम द्वारा
चलाये जा रहे युवाधन
सुरक्षा
अभियान के
द्वारा हुआ
है। संपूर्ण
विश्व के लिये
कल्याणकारी
इस अभियान में
स्वयं जुड़
जायें और ज्यादा
से ज्यादा
लोगों को इससे
जोड़कर पुण्य
के भागी बनें।
मानवता की
रक्षा के
पुण्यमय
कार्य में
भागीदार बनें।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यूरोप के
प्रतिष्ठित
चिकित्सक भी
भारतीय योगियों
के कथन का समर्थन
करते है। डॉ.
निकोल कहते
हैं- "यह एक
भैषजिक और
दैहिक तथ्य है
कि शरीर के
सर्वोत्तम
रक्त से
स्त्री तथा
पुरुष दोनों
ही जातियों
में प्रजनन
तत्त्व बनते
हैं। शुद्ध तथा
व्यवस्थित
जीवन में यह
तत्त्व पुनः
अवशोषित हो
जाता है। यह
सूक्ष्मतम
मस्तिष्क,
स्नायु तथा मांसपेशीय
उत्तकों (Tissues-कोशों)
का निर्माण
करने के लिए
तैयार होकर
पुनः परिसंचारण
में जाता है।
मनुष्य का यह
वीर्य वापस ले
जाने तथा उसके
शरीर में
विसारितत
होने पर उस
व्यक्ति को
निर्भीक,
बलवान, साहसी
तथा वीर बनाता
है। यदि इसका
अपव्यय किया
गया तो यह
उसको स्त्रैण,
दुर्बल तथा
कृशकलेवर,
कामोत्तेजनशील
तथा उसके शरीर
के अंगों के
कार्यव्यापार
को विकृत तथा
स्नायुतंत्र
को शिथिल
(दुर्बल) करता
है तथा उसे
मिर्गी (मृगी)
एवं अन्य अनेक
रोगों और शीघ्र
मृत्यु का
शिकार बना
देता है।
जननेन्द्रिय
के व्यवहार की
निवृत्ति से
शारीरिक, मानसिक
तथा
आध्यात्मिक
बल में
असाधारण वृद्धि
होती है।"
परम धीर तथा
अध्यवसयायी
वैज्ञानिक
अनुसंधानों
से पता चला है
कि जब कभी भी
रेतःस्राव को
सुरक्षित रखा
जाता तथा इस
प्रकार शरीर
में उसका
पुनरवशोषण
किया जाता है
तो वह रक्त को
समृद्ध तथा
मस्तिष्क को
बलवान बनाता है।
डॉ. डिओ लुई
कहते हैं- "शारीरिक
बल, मानसिक, ओज
तथा बौद्धिक
कुशाग्रता के
लिए इस वीर्य
का संरक्षण
परम आवश्यक
है।"
एक अन्य
लेखक डॉ.
ई.पी.मिलर
लिखते हैं- "शुक्रस्राव
का स्वैच्छिक
अथवा
अनैच्छिक अपव्यय
जीवनशक्ति का
प्रत्यक्ष
अपव्यय है। यह
प्रायः सभी
स्वीकार करते
हैं कि रक्त
के सर्वोत्तम
तत्त्व
शुक्रस्राव
की संरचना में
प्रवेश कर
जाते हैं। यदि
यह निष्कर्ष
ठीक है तो
इसका अर्थ यह
हुआ कि व्यक्ति
के कल्याण के
लिए जीवन में
ब्रह्मचर्य परम
आवश्यक है।"
पश्चिम के
प्रख्यात
चिकित्सक
कहते हैं कि
वीर्यक्षय से,
विशेषकर
तरूणावस्था
में
वीर्यक्षय से
विविध प्रकार
के रोग उत्पन्न
होते हैं। वे
हैं, शरीर में
व्रण, चेहरे
पर मुँहासे
अथवा विस्फोट,
नेत्रों के
चतुर्दिक,
नीली रेखाएँ,
दाढ़ी का
अभाव, धँसे
हुए नेत्र,
रक्तक्षीणता
से पीला
चेहरा, स्मृतिनाश,
दृष्टि की
क्षीणता,
मूत्र के साथ
वीर्यस्खलन,
अण्डकोश की
वृद्धि,
अण्डकोशों
में पीड़ा,
दुर्बलता,
निद्रालुता,
आलस्य, उदासी,
हृदय-कम्प,
श्वासावरोध
या कष्टश्वास,
यक्ष्मा,
पृष्ठशूल,
कटिवात,
शिरोवेदना,
संधि-पीड़ा,
दुर्बल युवक,
निद्रा में
मूत्र निकल
जाना, मानसिक
अस्थिरता,
विचारशक्ति
का अभाव,
दुःस्वप्न, स्वप्न
दोष तथा
मानसिक
अशांति।
उपरोक्त
रोगों को
मिटाने का
एकमात्र इलाज
है ब्रह्मचर्य,
यौवनतत्त्व
की सुरक्षा।
दवाइयों से या
अन्य उपचारों
से ये रोग
स्थायी रूप से
ठीक नहीं
होते।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जब पश्चिम
के देशों में
ज्ञान-विज्ञान
का विकास
प्रारम्भ भी
नहीं हुआ था
और मानव ने
संस्कृति के
क्षेत्र में
प्रवेश भी
नहीं किया था
उस समय
भारतवर्ष में
दार्शनिक और
योगी मानव मनोविज्ञान
के विभिन्न
पहलुओं और
समस्याओं पर गम्भीतापूर्वक
विचार कर रहे
थे। फिर भी
पाश्चात्य
विज्ञान की
छत्रछाया में पले
हुए और उसके
प्रकाश से
चकाचौंध
वर्तमान भारत
के
मनोवैज्ञानिक
भारतीय
मनोविज्ञान
का अस्तित्व
तक मानने को
तैयार नहीं
हैं। यह खेद की
बात है।
भारतीय
मनोवैज्ञानिकों
ने चेतना के
चार स्तर माने
हैं- जाग्रत,
स्वप्न, सुषुप्ति
और तुरीय।
पाश्चात्य
मनोवैज्ञानिक
प्रथम तीन
स्तर को ही
जानते हैं।
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
नास्तिक है।
भारतीय
मनोविज्ञान
ही आत्मविकास
और
चरित्र-निर्माण
में सबसे अधिक
उपयोगी सिद्ध
हुआ है
क्योंकि यह
धर्म से अत्यधिक
प्रभावित है।
भारतीय
मनोविज्ञान
आत्मज्ञान और आत्म-सुधार
में सबसे अधिक
सहायक सिद्ध
होता है।
इसमें बुरी
आदतों को
छोड़ने और
अच्छी आदतों
को अपनाने तथा
मन की
प्रक्रियाओं
को समझने तथा
उसका
नियंत्रण
करने के
महत्त्वपूर्ण
उपाय बताये
गये हैं। इसकी
सहायता से
मनुष्य सुखी,
स्वस्थ और
सम्मानित
जीवन जी सकता
है।
पश्चिम की
मनोवैज्ञानिक
मान्यताओं के
आधार पर विश्वशांति
का भवन खड़ा
करना बालू की
नींव पर भवन-निर्माण
करने के समान
है।
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
का परिणाम
पिछले दो
विश्वयुद्धों
के रूप में
दिखलायी
पड़ता है। यह
दोष आज पश्चिम
के
मनोवैज्ञानिकों
की समझ में आ
रहा है। जबकि भारतीय
मनोविज्ञान
मनुष्य का
दैवी रूपान्तरण
करके उसके
विकास को आगे
बढ़ाना चाहता
है। उसके
'अनेकता
में एकता' के
सिद्धान्त के
आधार पर ही
संसार के
विभिन्न
राष्ट्रों,
वर्गों,
धर्मों और
प्रजातियों
में
सहिष्णुता ही
नहीं, सक्रिय
सहयोग
उत्पन्न किया
जा सकता है। भारतीय
मनोविज्ञान
में शरीर और
मन पर भोजन का
क्या प्रभाव
पड़ता है इसकी
चर्चा से लेकर
शरीर में विभिन्न
चक्रों की
स्थिति,
कुण्डलिनी की
स्थिति, वीर्य
को
ऊर्ध्वगामी
बनाने की
प्रक्रिया
आदि की चर्चा
विस्तारपूर्वक
की गई है।
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
मानव-व्यवहार
का विज्ञान है।
भारतीय
मनोविज्ञान
मानस विज्ञान
के साथ-साथ
आत्मविज्ञान
है। भारतीय
मनोविज्ञान
इन्द्रिय-नियंत्रण
पर विशेष बल
देता है जबकि
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
केवल मानसिक
क्रियाओं या
मस्तिष्क-संगठन
पर बल देता
है। उसमें मन
द्वारा
मानसिक जगत का
ही अध्ययन
किया जाता है।
उसमें भी
फ्रायड का
मनोविज्ञान
तो एक रूग्ण
मन के द्वारा
अन्य रूग्ण
मनों का ही
अध्ययन है
जबकि भारतीय
मनोविज्ञान
में
इन्द्रिय-निरोध
से मनोनिरोध
और मनोनिरोध
से
आत्मसिद्धि
का ही लक्ष्य
मानकर अध्ययन
किया जाता है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान
में मानसिक
तनावों से
मुक्ति का कोई
समुचित साधन
परिलक्षित
नहीं होता जो
उसके व्यक्तित्व
में निहित
निषेधात्मक
परिवेशों को
स्थायी निदान
प्रस्तुत कर
सके। इसलिए फ्रायड
के लाखों
बुद्धिमान
अनुयायी भी
पागल हो गये।
'संभोग से
समाधि' के
मार्ग पर चलकर
कोई भी
व्यक्ति
योगसिद्ध महापुरुष
नहीं हुआ। उस
मार्ग पर चलने
वाले पागल हुए
हैं। ऐसे कई
नमूने हमने
(प्राणीमात्र
के परम हितैषी
आसारामजी बापू
ने) देखे हैं।
इसके विपरीत
भारतीय
मनोविज्ञान
में मानसिक
तनावों से
मुक्ति के
विभिन्न उपाय
बतलाये गये
हैं यथा
योगमार्ग,
साधन-चतुष्टय,
शुभ संस्कार,
सत्संगति,
अभ्यास, वैराग्य,
ज्ञान, भक्ति,
निष्काम कर्म
आदि। इन साधनों
के नियमित
अभ्यास से
संगठित एवं
समायोजित व्यक्तित्व
का निर्माण
संभव है।
इसलिए भारतीय
मनोविज्ञान
के अनुयायी
पाणिनी और
महाकवि कालिदास
जैसे
प्रारम्भ में
अल्पबुद्धि
होने पर भी
महान विद्वान
हो गये।
भारतीय
मनोविज्ञान ने
इस विश्व को
हजारों महान
भक्त, समर्थ
योगी तथा
ब्रह्मज्ञानी
महापुरुष
दिये हैं। अतः
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
को छोड़कर
भारतीय मनोविज्ञान
का आश्रय लेने
में ही
व्यक्ति,
कुटुम्ब,
समाज, राष्ट्र
और विश्वमानव
का कल्याण निहित
है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्वामी
विवेकानन्द हृषिकेश
के बाद मेरठ
आये। अपने
स्वास्थ्य-सुधार
के लिए
विश्राम हेतु
वे मेरठ में
रुके। विवेकानंदजी
को अध्ययन का
अत्यंत शौक
था। अध्यात्म
एवं
दर्शनशास्त्र
की पुस्तकें
वे बड़े चाव
से पढ़ते थे।
उनके एक शिष्य
अखंडानंदजी
उनके लिए
स्थानीय
पुस्तकालय से पुस्तके
ले आया करते
थे।
एक बार
विवेकानन्दजी
ने प्रसिद्ध
विचारक एवं
दार्शनिक सर
जॉन लबाक की
पुस्तकें
पढ़ने हेतु
मँगवायीं।
उन्होंने एक
ही दिन में सब
पुस्तकें पढ़
लीं। दूसरे
दिन अखंडानंद
जी वे पुस्तकें
जमा करवाने ले
गये तब
ग्रंथपाल को
विस्मय हुआ
क्योंकि पिछले
कई दिनों से
अखंडानंदजी
बड़ी-बड़ी
पुस्तकें
पढ़ने के लिए
ले जाते एवं
दूसरे दिन
पुनः जमा करवा
देते।
ग्रंथपाल ने
अखंडानंद जी
से पूछाः "महाशय ! आप
पुस्तकें
पढ़ते हैं या
केवल उनके
पन्ने पलटकर
ही वापस कर
देते हैं ? प्रतिदिन
मुझसे अलग-अलग
पुस्तकें
ढुँढवाकर
मेरा दम निकाल
देते हैं।"
यह बात
स्वामी
विवेकानन्द
के पास पहुँची
तब वे स्वयं
पुस्तकालय
में आये एवं
उन्होंने विनम्रतापूर्वक
ग्रंथपाल से
कहाः "अखण्डानन्दजी
प्रतिदिन
मेरे लिये
पुस्तकें
लाते हैं। मैं
पुस्तकें
पूरी-की-पूरी
पढ़कर दूसरे
दिन उन्हें
जमा कराने के
लिए वापस भेजता
हूँ। क्या
आपको शंका
होती है कि
मैं पढ़े बिना
ही पुस्तकें
वापस भेजता
हूँ ?"
ग्रंथपाल
ने कहाः "स्वामी
जी ! सर जॉन
लबाक जैसे गहन
तत्त्वचिंतक
की पुस्तकें
एक ही दिन में
कैसे पढ़ी जा
सकती हैं ? इसे
मैं नहीं
मानता।"
स्वामी
विवेकानन्द
जी ने कहाः "मैंने
एक ही दिन वे
सब पुस्तकें
पढ़ डाली हैं फिर
भी आपको शंका
हो तो उनकी
पुस्तकों में
से चाहे जिस
विषय पर मुझसे
कोई भी प्रश्न
पूछ सकते हैं।"
ग्रंथपाल
के दिमाग में
यह बात नहीं
उतर पाई। विवेकानंदजी
वास्तव में
पुस्तकें
पढ़ते हैं कि
नहीं, इसकी
जाँच करने के
लिए ग्रंथपाल
उन पुस्तकों
में से एक के
बाद एक प्रश्न
पूछने लगा।
विवेकानन्दजी
फटाफट उनके
उत्तर देने
लगे। इतना ही
नहीं, प्रश्न
का उत्तर
पुस्तक के किस
पृष्ठ पर हैं,
यह भी बताने
लगे।
ग्रंथपाल
उन्हें फटी
आँखों देखता
रह गया ! वह
अत्यन्त
आश्चर्य में
डूब गया !
विवेकानन्दजी
की मेधावी
स्मृतिशक्ति
एवं उनके
ज्ञान के
प्रति उसे
असीम श्रद्धा
हुई। उसने
प्रणाम करके
कहाः "स्वामी
जी ! आपकी
बात को सत्य
माने बिना
आपके साथ
मैंने जो
संशययुक्त
व्यवहार किया,
उसके बदले में
क्षमा माँगता
हूँ। वास्तव
में आप कोई
महान योगी
पुरुष हैं.....
परन्तु मुझे
यह समझाइये कि
इतनी शीघ्रता
से पुस्तकें
पढ़कर उसे आप
अक्षरशः याद
कैसे रख लेते
हैं ?"
विवेकानन्दजी
ने कहाः "यह तो
बिल्कुल
सामान्य बात
है। छोटा बालक
पहले एक-एक
अक्षर अलग-अलग
करके पढ़ता
है। फिर समझदार
होता है तब
पूरे शब्द
पढ़ता है। बाद
में पूरे
वाक्य फटाफट
पढ़ लेता है।
पढ़ा हुआ
पाठ याद रखने
के लिए
एकाग्रता की
आवश्यकता है।
एकाग्रता
प्राप्त करने
के लिए इन्द्रियसंयम
चाहिए। संयम न
हो तो मन की
शक्तियाँ
बिखर जाती हैं
और इन सबकी
नींव में सबसे
महत्त्वपूर्ण
साधना है
ब्रह्मचर्य।
भैया ! यह
सब
ब्रह्मचर्य
से ही संभव
बनता है। आपको
मेरी
स्मरणशक्ति
चमत्कारिक
लगती है
परन्तु इसमें
कुछ भी
चमत्कार नहीं
है। यह सब
ब्रह्मचर्य
का ही प्रताप
है। इसका पूरा
यश
ब्रह्मचर्य को
ही जाता है।"
विवेकानन्दजी
की बात सुनकर
ग्रंथपाल के
हृदय में उनके
प्रति अहोभाव
जाग उठा। वह
स्वामीजी के
चरणों में
नतमस्तक होकर
उनका भक्त बन
गया।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जब स्वामी
विवेकानन्द
जी विदेश में
थे, तब ब्रह्मचर्य
की चर्चा
छिड़ने पर
उन्होंने
कहाः "कुछ
दिन पहले एक
भारतीय युवक
मुझसे मिलने
आया था। वह
करीब दो वर्ष
से अमेरिका
में ही रहता
है। वह युवक
ब्रह्मचर्य
का पालन बड़ी
चुस्ततापूर्वक
करता है। एक
बार वह बीमार
हो गया तो
वहाँ के डॉ. को
बताया। तुम
जानते हो
डॉक्टर ने उस
युवक को क्या
सलाह दी ? कहाः 'ब्रह्मचर्य
प्रकृति के
नियम के विरुद्ध
है अतः
ब्रह्मचर्य
का पालन करना
उसके स्वास्थ्य
के लिए हितकर
नहीं है।'
उस युवक को
बचपन से ही
ब्रह्मचर्य-पालन
के संस्कार
मिले थे।
डॉक्टर की ऐसी
सलाह से वह
उलझन में पड़
गया। वह मुझसे
मिलने आया एवं
सारी बातें
बतायीं।
मैंने उस युवक
को समझायाः 'तुम जिस देश
के वासी हो वह
भारत आज भी
अध्यात्म के
क्षेत्र में
विश्वगुरु के
पद पर आसीन
है। अपने देश
के ऋषि-मुनियों
के उपदेश पर
तुम्हें
ज्यादा विश्वास
है कि
ब्रह्मचर्य
को जरा भी न
समझने वाले
पाश्चात्य
जगत के डॉक्टर
पर ? हमारे
ऋषि-मुनि
ब्रह्मचर्य-रक्षा
से ही परम पद
की यात्रा
करने में
समर्थ बने
हैं।
ब्रह्मचर्य
को प्रकृति के
नियम के
विरुद्ध कहने
वालों को ब्रह्मचर्य
शब्द के अर्थ
का भी पता
नहीं है।
ब्रह्मचर्य
के विषय में
ऐसे गलत ख्याल
रखने वालों के
प्रति एक ही
प्रश्न है कि 'आप में और
पशुओं में
क्या अन्तर है
?'
युवको ! हजारों वर्ष
तक तपस्या
करके,
सात्त्विक
आहार करके,
गिरि-कंदराओं
में साधना
करके प्रकृति
के
सूक्ष्मातिसूक्ष्म
रहस्यों की
खोज करने वाले
हमारे ऋषियों
की समझ ठोस है,
सत्य की नींव
पर आधारित है।
उसमें
विश्वास रखो,
श्रद्धा रखो।
देखो, मन को
प्रबल बनाना
हो तो पहले
पवित्रता क्या
चीज है ? इसे
खूब
सूक्ष्मता से
समझना होगा।
मन को पवित्र
विचारों से
सराबोर रखने
से मनोबल
बढ़ता है। मन
जितना विकारी
विचारों से
घिरा रहता है
उतना वह
निर्बल होता
जाता है।
इसलिए जीवन
में ब्रह्मचर्य
का पालन
अनिवार्य है।
ब्रह्मचर्य विकारी
वासनाओं का
नाश कर देता है।
ब्रह्मचर्य
का पालन
व्यक्ति को
उन्नत विचारों
के उत्तुंग
शिखरों पर
प्रस्थापित
कर देता है।
कइयों को
ब्रह्मचर्य
का पालन कठिन
लगता है। उनके
लिए मेरी सलाह
है कि विकारी
विचारों को शुद्ध
एवं पवित्र
विचारों से
काटने के
अभ्यास से
उसमें बहुत
सफलता मिलती
है। स्त्री
मात्र को
माता, पुत्री
अथवा बहन के
रूप में देखने
की आदत बना
लेने से
कामवासना के
विचार शांत हो
जाते हैं।
भारतीय
संस्कृति में
माता, पुत्री
एवं बहन के संबंधों
को अत्यन्त
पवित्र माना
जाता है। जब मन
में ऐसी
पवित्र भावना
रखकर स्त्री
की तरफ नजर
डालोगे तो
विकार तुम्हें
कभी नही
सतायेंगे।
ब्रह्मचर्य
सभी अवस्थाओं
में
विद्यार्थी,
गृहस्थी अथवा
साधु-संन्यासी
के लिए अत्यंत
आवश्यक है।
सदाचारी एवं
संयमी
व्यक्ति ही
जीवन के
प्रत्येक
क्षेत्र में
सफलता
प्राप्त कर
सकता है।"
इस प्रकार
स्वामी जी जब
अमेरिका के
साधकों को ब्रह्मचर्य,
सदाचार एवं
संयम की महिमा
समझा रहे थे,
तब पाश्चात्य
जगत के
डॉक्टरों की
समझ कितनी गलत
थी – उन्होंने
यह भी बता
दिया।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्वामी
विवेकानन्द
अपने कुछ
शिष्यों को
वासना का क्षय
करने एवं
जितेन्द्रिय
बनने के लिए
निर्देश दे
रहे थे। मन को
काम से हटाकर
राम में लगाना
अत्यन्त
आवश्यक है –
ऐसा वे उन्हें
समझा रहे थे
कि एक साधक ने
पूछाः "स्वामी
जी ! आप
कहते हैं कि
मन को काम से
हटाकर राम में
लगाना चाहिए।
यह कहना तो
बहुत सरल है
परन्तु इसे जीवन
में उतारना
अत्यंत कठिन
लगता है। आप
कोई ऐसी
युक्ति
बतायें कि
जिससे मन में
कामवासना उठे
ही नहीं, वह
काम का विचार
ही छोड़ दे
एवं
भगवदचिंतन
करता रहे।"
स्वामी जीः "तुम्हारी
बात सच है कि
मन को
कामवासना से
हटाना बहुत
कठिन है लेकिन
उसे एक बार भी
वश कर लोगे तो
वह जिंदगी भर
तुम्हारे
कहने में
चलेगा। केवल
ब्रह्मचर्य
का पालन किया
जाय तो
अल्पकाल में
ही सारी
विद्याएँ आ
जाती हैं,
श्रुतिधर एवं
स्मृतिधर हुआ
जा सकता है।
केवल
ब्रह्मचर्य
के अभाव के
कारण हमारे
देश का
सत्यानाश हो रहा
है। प्रजा के
रूप में हम
निर्बल होते
जा रहे हैं
एवं सच्ची मनुष्यता
खोते जा रहे
हैं।"
ऐसा स्वामी जी
कहा करते थे।
ब्रह्मचर्य
के प्रभाव से
मन की
एकाग्रता एवं
स्मरणशक्ति
का तीव्रता से
विकास होता
है।
स्वामी
विवेकानन्द
अपनी
यूरोपयात्रा
के दौरान
जर्मनी गये
थे। वहाँ कील
यूनिवर्सिटी
के प्रोफेसर
पॉल डयूसन
स्वामी
विवेकानन्द
की अदभुत
याददाश्त
देखकर दंग रह
गये थे। तब
स्वामी जी ने
रहस्योदघाटन
करते हुए कहा
थाः "ब्रह्मचर्य
के पालन से मन
की एकाग्रता
हासिल की जा
सकती है और मन
की एकाग्रता
सिद्ध हो जाये
फिर अन्य
शक्तियाँ भी
अपने-आप
विकसित होने लगती
हैं।"
संयम बड़ी चीज
है। जो संयमी
है, सदाचारी और अपने
परमात्मभाव
में है, वही
धर्मात्मा
बनता है। जो
विषय-विलास
में गरकाब हो
जाता है, वही
दुरात्मा
बनता है।
लेकिन जो संयम
करके
परब्रह्म
परमात्मा को 'मैं'
रूप में जान
लेता है वह
महान आत्मा हो
जाता है, महात्मा
हो जाता है।
ब्रह्मचर्य
का ऊँचे में
ऊँचा अर्थ यही
हैः ब्रह्म
में विचरण
करना। जो ब्रह्म
में विचरण
करे, जिसमें
जीवनभाव न बचे
वही ब्रह्मचारी
है। 'जो मैं
हूँ वही
ब्रह्म है और
जो ब्रह्म है
वही मैं हूँ....' ऐसा अनुभव
जिसे हो जाये
वही
ब्रह्मचर्य
की आखिरी
ऊँचाई पर
पहुँचा हुआ
परमात्मस्वरूप
है, संतस्वरूप
है।
संयम की
आवश्यकता सभी
को है। चाहे
बड़ा वैज्ञानिक
हो या
दार्शनिक,
विद्वान हो या
बड़ा उपदेशक,
सभी को संयम
की जरूरत है।
स्वस्थ रहना
हो तब भी
ब्रह्मचर्य
की जरूरत है,
सुखी रहना हो
तब भी
ब्रह्मचर्य
की जरूरत है
और सम्मानित
रहना हो तो भी
ब्रह्मचर्य
की जरूरत है।
कोई चारों
वेद पढ़कर
कंठस्थ कर ले
एवं उसका अर्थ
भी समझ ले –
उसके पुण्य को
तराजू के एक
पलड़े पर रखें
और दूसरे
पलड़े पर कोई
अँगूठाछाप है
लेकिन आठ प्रकार
के मैथुन से
बचा है उसका
पुण्य रखें तो
ब्रह्मचारी
का पलड़ा भारी
होगा। वेद
पढ़ना तो पुण्य
है, कंठस्थ
करना भी पुण्य
है लेकिन कोई
भले
अँगूठाछाप है
किंतु संयमी
है तो उसका
पुण्य भी
वेदपाठी से कम
नहीं होता है।
यह चतुर्वेदी
से कम नहीं
माना जायेगा।
संयम ऐसी चीज
है !
ब्रह्मचर्य
बुद्धि में
प्रकाश लाता
है, जीवन में
ओज-तेज लाता
है।
ब्रह्मचर्य
ऊँची समझ लाता
है किः "अपनी
आत्मा ब्रह्म
है, उसको
पहचानना ही
हमारा लक्ष्य
है।' अगर
ब्रह्मचर्य
नहीं है तो
गुरुदेव
दिन-रात ब्रह्मज्ञान
का उपदेश देते
हैं फिर भी
टिकता नहीं।
जो
ब्रह्मचारी
रहता है, वह
आनंदित रहता
है, निर्भीक
रहता है,
सत्यप्रिय
होता है। उसके
संकल्प में बल
होता है, उसका
उद्देश्य
ऊँचा होता है
और उसमें
दुनिया को
हिलाने का
सामर्थ्य
होता है।
स्वामी
विवेकानंद को
ही देखें।
उनके जीवन में
ब्रह्मचर्य
था तो उन्होंने
पूरी दुनिया
में भारतीय
अध्यात्मज्ञान
का ध्वज फहरा
दिया था, भारत
के दिव्य
ज्ञान का डंका
बजा दिया था।
हे भारत की
युवतियो व
युवानों ! तुम भी उसी
गौरव को हासिल
कर सकते हो।
यदि जीवन में
संयम को अपना
लो, सदाचार को
अपना लो एवं समर्थ
सदगुरु का
सान्निध्य पा
लो तो तुम भी
महान-से-महान
कार्य करने
में सफल हो
सकते हो। लगाओ
छलाँग.... कस लो
कमर.... संयमी
बनो.... ब्रह्मचारी
बनो और 'युवाधन
सुरक्षा
अभियान' के माध्यम
से अपने
भाई-बन्धुओं,
मित्रों, पड़ोसियों,
ग्रामवासियों,
नगरवासियों,
प्रांतवासियों
को भी संयम की
महिमा समझाओ
और शास्त्र की
इस बात को
चरितार्थ
करो।
सर्वे
भवन्तु
सुखिनः सर्वे
सन्तु
निरामयः।
सर्वे
भद्राणि
पश्यन्तु मा
कश्चित
दुःखभाग्भवेत्।।
"सभी
सुखी हों, सभी
निर्मल
मानसवाले हों,
सभी सबका मंगल
देखें और
दूसरों के
दुःख में
सहभागी हों,
दुःख हर्ता
हों।'
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जिसने जीभ
को नहीं जीता
वह विषय वासना
को नहीं जीत
सकता। मन में
सदा यह भाव
रखें कि हम
केवल शरीर के
पोषण के लिए
ही खाते हें,
स्वाद के लिए
नहीं। जैसे पानी
प्यास बुझाने
के लिए ही
पीते है, वैसे
ही अन्न केवल
भूख मिटाने के
लिए ही खाना
चाहिए। हमारे
माँ-बाप बचपन
से ही हमें
इसकी उलटी आदत
डालते हैं।
हमारे पोषण के
लिए नहीं
बल्कि अपना
अंधा प्यार
दिखाने के लिए
हमे तरह तरह
के स्वाद
चखाकर हमें
बिगाड़ते
हैं।
विषय-वासना
को जीतने का
रामबाण उपाय
रामनाम या ऐसा
कोई और मंत्र
है। मुझे बचपन
से रामनाम जपना
सिखाया गया
था, उसका
सहारा मुझे
मिलता ही रहता
है। जप करते
समय भले ही
हमारे मन में
दूसरे विचार
आया करते हैं
फिर भी जो
श्रद्धा रखकर
मंत्र का जप
करता ही
जायेगा उसे
अंत में विघ्नों
पर विजय अवश्य
मिलेगी।
इसमें मुझे
तनिक भी
सन्देह भी
नहीं है कि यह
मंत्र उसके
जीवन की डोर
बनेगा और उसे
सभी संकटों से
उबारेगा। इन
मंत्रों का
चमत्कार
हमारी नीति की
रक्षा करने
में है और ऐसा
अनुभव हर एक
प्रयत्न करने
वाली को थोड़े
ही दिनों में
हो जायेगा। इतना
याद रहे कि
मंत्र तोते की
तरह रटा न
जाये। उसे
ज्ञानपूर्वक
जपना चाहिए।
अवांछित
विचारों के
निवारण की
भावना और
मंत्रशक्ति
में विश्वास
रखकर जो जीभ
को वश में
रखेगा, ब्रह्मचर्य
उसके लिए आसान
से आसान चीज
हो जायेगा। प्राणीशास्त्र
का अध्ययन
करने वाले
कहते हैं कि
पशु
ब्रह्मचर्य
का जितना पालन
करता है मनुष्य
उतना नहीं
करता। हम इसके
कारण की खोज
करें तो
देखेंगे कि
पशु अपनी जीभ
पर काबू रखता
है, इरादा और
कोशिश करके
नहीं बल्कि
स्वभाव से ही।
वह जीने के
लिए खाता है,
खाने के लिए
नहीं जीता पर हमारा
रास्ता तो
इसका उलटा ही
है। माँ बच्चे
को तरह-तरह से
स्वाद चखाती
है, वह मानती
है कि अधिक से
अधिक चीजें
खिलाना ही उसे
प्यार करने का
तरीका है। माँ
बाप हमारे
शरीर को
कपड़ों से
ढकते हैं,
कपड़ों से
हमें लाद देते
हैं, हमें
सजाते-संवारते
हैं, पर हम समझें
कि कपड़े बदन
को ढकने के
लिए है, उसे
सर्दी-गर्मी
से बचाने के
लिए हैं,
सजाने के लिए
नहीं तो हम
इससे कहीं अधिक
सुन्दर बन
सकते हैं।
स्वाद भूख से
रहता है। भूखे
को सूखी रोटी
में जो स्वाद
मिलता है वह तृप्त
को लड्डू में
नहीं मिलता।
हम तो पेट में
ठूँस-ठूँसकर
भरने के लिए
तरह-तरह के
मसाले काम में
लाते है और
विविध व्यंजन
बनाते है फिर
कहते हैं कि
ब्रह्मचर्य
टिकता नहीं।
जो आँखें
ईश्वर ने हमें
अपना स्वरूप
देखने के लिए
दी हैं उन्हें
हम मलीन करते
हैं। अश्लील
उपन्यास,
कुसाहित्य,
अश्लील दृश्य,
सिनेमा आदि
देखने में
लगाते हैं। जो
देखने की
चीजें हैं
उन्हें देखने
की रूचि नहीं
है। शबरी भीलन
ने जो देखा,
मीरा ने जो
देखा,
ध्रुव-प्रह्लाद,
सुलभा ने जो
देखा, महारानी
मदालसा ने जो
देखा और अपनी
संतानों को दिखाया
वह यदि आज का
मानव देख ले
तो स्वर्ग,
वैकुंठ आदि
कल्पना का
विषम नहीं
रहेगा बल्कि
यहीं अभी
स्वर्गीय सुख
का उपभोग कर
सकता है।
ईश्वर जैसा
कुशल
सूत्रधार
दूसरा कोई नही
मिल सकता और न
आकाश से अच्छी
दूसरी
रंगशाला मिल
सकती है, पर
कौन माता
बच्चे की
आँखें धोकर
उसे आकाश के
दर्शन कराती
है ? बच्चे
की प्रथम
पाठशाला घर ही
है। आजकल घरों
में बच्चों को
जाने-अनजाने
जो शिक्षा मिल
रही है वह उसके
तथा माता-पिता
के भविष्य व
राष्ट्र के
लिए कितना
घातक है। यह
विचारणीय है।
देश के बुद्धिजीवियों
व कर्णधारों
को
गंभीरतापूर्वक
इस विषय पर
विचार करना
चाहिए।
महात्मा
गाँधी
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
एक बार
चैतन्य
महाप्रभु
(गौरांग) अपने
प्रांगण में
शिष्यों के
साथ
श्रीकृष्ण-चर्चा
कर रहे थे और
चर्चा
करते-करते
भाव-विभोर हो
रहे थे। पास
में एक बड़ा
वटवृक्ष था....
घटादार छाया....
मनमोहक
वातावरण..
इतने में एक
डोली उस
वटवृक्ष के
नीचे उतरी। उसमें
से एक दूल्हा
बाहर निकला और
विश्राम के
लिए वहीं बैठ
गया। डोली के
साथ बाराती भी
थे, वे भी वहीं
विश्राम करने
लगे। दूल्हे
का सुन्दर
रूप, उसकी
विशाल एवं
सुडौल काया,
बड़ी-बड़ी
आँखें एवं
आजानुबाहू....
देखते ही
गौरांग बोल
उठेः "अरे,
यह कितना
सुंदर है ! कितना
बढ़िया लगता
है ! लेकिन
यह शादी करके
आया है। अब यह
संसार की चक्की
में पिसेगा,
भोग विलास से
इसका शरीर
क्षीण होगा,
दुर्बलकाय
बनेगा,
विषय-विकारों
में खपेगा।
संसार की
चिन्ताओं में
अपना जीवन
बिताने की
इसकी शुरुआत
हो रही है। हे
कृष्ण ! यह
तेरा भक्त हो
जाय तो कितना
अच्छा हो !" वह
दूल्हा कोई
साधारण आदमी
नहीं था वरन्
वे बड़े
विद्वान एवं
कवि थे। वे
कविराज रामचंद्र
पण्डित स्वयं
थे। उन्होंने
गौरांग के ये
वचन सुने तो
उनके हृदय में
तीर की तरह चुभ
गये किः 'बात तो सच
है।'
वे घर गये।
दो दिन घर में
रहे तो उन्हें
लगा किः 'यह तो सचमुच
अपने को
खपाने-सताने
जैसा है।' तीसरे ही
दिन वे गौरांग
के पास आये
एवं उनके चरणों
में गिरकर
बोलेः 'हे
संतप्रवर ! मुझे
बचाइये। ऐसी
सुडौल काया
है, कुशाग्र
बुद्धि है फिर
भी यह जीवन
विषय विलास
में ही खपकर
बरबाद हो रहा
है। अब मेरी
जीवन-गाड़ी की
बागडोर आप ही
सँभालिये।"
गौरांग का
हृदय पिघल
गया।
उन्होंने
कविराज रामचंद्र
पंडित को गले से लगा
लिया। उन्हें
गुरुमंत्र की
दीक्षा देकर
प्राणायाम-ध्यान
की विधि बता
दी। थोड़े दिन
तक वे गौरांग
के साथ रहे
एवं उनके
अंतरंग शिष्य
बन गये। ऐसे
अंतरंग शिष्य
बने कि गौरांग
के मन के भाव
जानकर अपने-आप
ही तत्परता से
उनकी सेवा कर
लेते थे।
गौरांग को
इशारा भी नहीं
करना पड़ता
था। मानों, वे
गौरांग की छायारूप
हो गये।
एक बार
गौरांग
कीर्तन
करते-करते ऐसी
समधि में चले
गये कि एक-दो
दिन तो क्या,
पूरे सात दिन
हो गये, फिर भी
उनकी समाधि न
टूटी। सब
शिष्य एवं
विष्णुप्रिया
देवी भी
चिंतित हो
उठी। आखिर इस
सत्शिष्य
रामचंद्र से
कहा गयाः "अब आप
ही कुछ करिये।"
उस वक्त
गौरांग
भाव-भाव में
कृष्णलीला
में चले गये
थे। विहार
करते-करते
राधाजी का
कुंडल यमुना
के किनारे
गहरे जल में
कहीं खो गया
था और गौरांग
उसे खोजने गये
थे। कविराज
रामचन्द्र
गुरु जी का
त्राटक करते
हुए उनके
ध्यान में
तल्लीन हो
गये। ध्यान
में वे वहीं
पहुँच गये
जहाँ गौरांग
का अंतवाहक
शरीर था। अब
दोनों मिलकर
खोजने लगे।
कविराज ने
देखा कि राधा
जी का कर्णकुंडल
किसी लता में
फँस गया था।
रामचन्द्र
पंडित ने खोजा
एवं दोनों ने
राधाजी को
अर्पण किया।
राधाजी ने
अपना चबाया
हुआ तांबूल
उनको प्रसाद
में दिया वह
प्रसाद चबाते
ही उनकी आँखें
खुली तो उसकी
सुगंध चिंता
में बैठे हुए
समस्त भक्तों
तक पहुँच गयी।
भक्त दंग रह
गये कि जो
आनंद एवं
सुगन्ध
देवताओं के
लिए भी दुर्लभ
है, वह राधाजी
के प्रसाद की
सुवास में है ! यह कितनी
सुखदायी,
शांतिदायी है !
संत-सान्निध्य
एवं संयम में
बड़ी शक्ति
होती है।
रामचन्द्र जा
तो रहे थे भोग
की खाई में किन्तु
गौरांग के वचन
सुनकर उनके
सान्निध्य में
आ गये तो ऐसे
महान हो गये
कि राधाजी के
कर्णकुण्डल
खोजने में
अंतवाहक शरीर
(सूक्ष्म
शरीर) से
गौरांग के भी
सहायक हो गये ! यौवन, धन एवं
सौन्दर्य आदि
भोग के सभी
साधन एकत्रित
थे फिर भी
गौरांग की
कृपादृष्टि
को अपना लिया
तो भोग छोड़कर
योग के रास्ते
चल पड़े रामचन्द्र।
संग का बड़ा
प्रभाव पड़ता
है। यदि
युवान-युवतियों
को संत,
सदगुरु एवं
भगवदभक्त का
संग मिलता है
तो वह उन्नति
के शिखर पर ले
जाता है और
यदि दुर्भाग्य
से किसी
स्वार्थी-दुराचारी,
हस्तमैथुन
करने वाले और
कुकर्मियों
का संग मिल जाता
है तो बरबादी
की खाई में जा
गिरते है। अतः
संग करने में
सावधान रहें।
पक्षियों
को अपने जाल
में फँसाने के
लिए शिकारी
जमीन पर दाने
बिखेर देता
है। जब वे
दाने चुगने के
लिए उतर आते
हैं तब जाल
में फँस जाते
हैं। फिर
छटपटाने लगते
हैं।
स्वार्थी
आदमी कोई अनुग्रह
करे तो खतरा
है। कोई बदचलन
स्त्री या कोई
नटी बहुत
प्यार करने
लगे, नखऱे
करने लगे तो खतरा
है। वह आदमी
की जेब और
उसके नसों की
शक्ति भी खाली
कर देगी। घड़ी
भर का सुख
देगी लेकिन फिर
जिन्दगी भर
रोते रहो,
तुच्छ विकारी
आकर्षणों में
फँसकर मरते
रहो।
आजकल दोस्त
भी ऐसे ही
मिलते हैं।
कहते हैं- "चलो
मित्र ! सिनेमा
देखने चलते
हैं। मैं खर्च
करता हूँ.... चल, 'ब्लयू
फिल्म'
देखते हैं।"
दस-बारह साल
के लड़के 'ब्लयू
फिल्म' देखने
लग जाते हैं।
इससे उनकी
मानसिक
दुर्दशा ऐसी
हो जाती है, वे
ऐसी
कुचेष्टाओं
से ग्रस्त हो
जातै हैं कि
हम उसे
व्यासपीठ पर
बोल भी नहीं
सकते। वे लड़के
बेचारे अपना
इतना सर्वनाश
कर डालते हैं
कि बाप धन,
मकान, धन्धा
आदि दे जाते
है फिर भी
कोमलवय में
चरित्रभ्रष्ट
व ऊर्जानाश के
कारण वे
इन्हें सँभाल
नहीं पाते
हैं। वे न तो अपना
स्वास्थ्य
सँभाल पाते
हैं, न माता की
सेवा कर पाते
हैं, न पिता का
आदर कर पाते
हैं और न ठीक
से उनका
श्राद्धकर्म
कर पाते हैं।
अपने ही
विकारी सुखों
में वे इतना
खप जाते है कि
उनके जीवन में
कुछ सत्त्व
नहीं बचता।
उनको जरा-सा
समझाओ तो वे
चिढ़ जाते
हैं... बोलो ते
नाराज हो जाते
हैं, घर
छोड़कर भाग
जाते हैं....
डाँटो तो आत्महत्या
के विचार करने
लगते हैं।
आत्महत्या
के विचार आते
हैं तो समझो,
यह मन की दुर्बलता
व कायरता की
पराकाष्ठा
है। बचपन में
वीर्यनाश खूब
हुआ हो तो
बार-बार
आत्महत्या के
विचार आते
हैं।
वीर्यवान एवं
संयमी पुरुष को
आत्महत्या के
विचार नहीं
आते।
आत्महत्या के
विचार वे ही
लोग करते हैं
जिनकी वीर्यग्रन्थी
प्रारम्भ में
ही अत्यधिक
वीर्यस्राव
के कारण मजबूत
होने से पहले
ही शिथिल एवं कमजोर
हो गयी हो।
यही कारण है
कि हमारे देश
की अपेक्षा
परदेश में
आत्महत्याएँ
अधिक होती हैं।
हमारे
देश में भी
पहले की
अपेक्षा आज कल
आत्महत्याएँ
ज्यादा होने
लगी हैं
क्योंकि फिल्मों
के कुप्रभाव
से
बच्चे-बच्चियाँ
वीर्यस्राव
आदि के शिकार
हो गये हैं।
विद्यार्थियों
का धर्म है
ब्रह्मचर्य
का पालन करना,
नासाग्र
दृष्टि रखना।
पहले के जमाने
में पाँच साल
का होते ही
बालक को गुरुकुल
में भेज दिया
जाता था। पचीस
साल का होने
तक वह वहीं
रहता था, ब्रह्मचर्य
का पालन करता
था,
विद्याध्ययन
एवं
योगाभ्यास
करता था। जब
स्नातक होकर
गुरुकुल से
वापस आता तब
देखो तो शरीर
सुडौल एवं
मजबूत... कमर
में मूँज की
रस्सी बँधी
हुई और उस
रस्सी से
लंगोट बँधी
हुई होती थी।
वे जवान बड़े
वीर, तंदुरुस्त
एवं स्वस्थ
होते थे।
उस समय
समरांगण में
योद्धाओँ के
बल की तुलना
हाथियों के बल
से की जाती
थी। कई योद्धा
हाथियों का बल
रखते थे। अभी
का इन्सान तो
उसे 'गप्प'
ही समझता है।
विकारी जीवन
जी-जीकर उसकी
मति इतनी अल्प
हो गयी है कि
वह उस सत्य को
समझ ही नहीं
सकता।
अश्लील
फिल्मों, गंदे
उपन्यासों एवं
कुसंग ने आज
के नौजवानों
के चरित्र-बल
का सत्यानाश
कर दिया है।
सावधान ! इन
बुराइयों से
बचो, संयम की
महिमा समझो
एवं सयमी-सदाचारी
पुरुषों का
संग करो ताकि
पुनः अपने
पूर्वजों
जैसा आत्मबल,
चरित्र-बल एवं
नैतिक बल
अर्जित कर
सको।
कविराज
रामचंद्र को
गौरांग मिल गये,
रज्जब को बाबू
दीनदयाल मिल
गये,
सलूका-मलूका
को कबीर जी
मिल गये,
नरेन्द्र
(स्वामी विवेकानन्द)
को रामकृष्ण
परमहंस मिल
गये, शिवाजी
को समर्थ
रामदास मिल
गये तो उनका
जीवन कितना
ऊँचा, कितना
महान हो गया !
अतः तुम भी
खोज लो ऐसे
किन्ही
महापुरुषों
को.... उनके
बताये गये
संयम सदाचार
के मार्ग पर
चल पड़ो तो
तुम्हारा
जीवन भी महान
हो उठेगा।
उठो... जागो... अब
वक्त यूँ ही
बिताने के लिए
नहीं है।
फ्रायड के मनोविज्ञान
'संभोग से
समाधि' की पोल
खोलो। उसे
ठुकरा दो।
संयम-सदाचार
से समाधि के
सुख का अनुभव
करो। महानता
की महक महकाओ।
भगवान पतंजलि
व भगवान व्यास
का
मनोविज्ञान
संतों के
सत्संग
द्वारा समझो।
स्वस्थ जीवन,
सुखी जीवन व
मनोविज्ञान
जीवन की सुंदर
यात्रा करो।
गौरांग के
शिष्य
रामचन्द्र की
नाईं तुम भी
अपनी दिव्यता
पा सकते हो,
प्रकटा सकते
हो। अपने भारत
की आन-बान और
शानि की रक्षा
के लिए कटिबद्ध
हो जाओ।
संतों-महापुरुषों
का आशीर्वाद
तुम्हारे साथ
है
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
मिठाइयों
का शौक
कुप्रवृत्तियों
का कारण है।
दूध को विकृत
कर बनाये जाने
वाले
मिष्ठान्न,
दूध की बंगाली
मिठाइयाँ
स्वास्थ्य के
लिए बिल्कुल
अनुपयोगी
होती हैं।
"मिठाइयों
के लिए शौक का
सम्बन्ध
कुप्रवृत्तियों
के साथ है। जो
बच्चे मिठाई
के बहुत शौकीन
होते हैं,
उनके गिरने की
बहुत अधिक
संभावना बनी
रहती है और वे
दूसरे बच्चों
की अपेक्षा
हस्तमैथुनादि
कुकर्मों की
तरफ अधिक
झुकते हैं।"
(डॉ.
ब्लाच कृत 'सेक्सुअल
लाइफ ऑफ अवर
टाइम'
पृष्ठ 34)
पेटूपन
एक बीमारीः वर्तमान
युग में भूख
के कारण इतने
लोग नहीं मरते
जितने पेटूपन
से मरते हैं।
वीर्यपात के
अनेक कारणों
में एक कारण
है पेटूपन।
रसनेन्द्रिय
पर दुराचारी
व्यक्ति का
नियंत्रण
नहीं रहता। वह
सदा आवश्यकता
से अधिक खा
जाता है। ऐसे
व्यक्ति के
लिए उपवास
करना बड़ा
कठिन होता है।
डॉ. कैलॉग के
अनुसारः 'पेटूपन
सदाचार का
शत्रु है।
अधिक खा जाने
से वीर्यनाश
होना निश्चित
है। इसलिए
जितनी भूख लगी
हो, उससे कुछ
कम ही खाना
चाहिए।'
अर्धरोगहरी
निद्रा....
सर्वरोगहरी
क्षुधा
भली प्रकार
की गई निद्रा
से ही आधा रोग
नष्ट हो जाता
है तथा व्रत
उपवास का
अवलंबन लेने
को, भूख से
थोड़ा कम खाने
को सर्वरोगों
का हरण करने वाला
कहा गया है।
अतः हित और
मित का ध्यान
रखें। मैदे से
बनी चीजें,
डबलरोटी,
बिस्किट आदि हानिकारक
होती हैं। एक
बार बना भोजन
फिर-फिर से
गरम करना
स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक
है। सब्जी फिर
से गरम कर
सकते हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
स्वामी
विवेकानन्द
विद्यार्थी
काल में अपनी
पाठयपुस्तक
पढ़ रहे थे।
घर के सामने
किसी मेहमान
युवती पर उनकी
नजर पड़ी। दो
तीन बार देखने
पर विवेकी
नरेन्द्र मन
को सावधान
करने लगे किः "ऐ मन ! फिर से बुरी
नजर से देखा
तो तेरी खबर
ले लूँगा।"
उस चंचला की
चाल से एक-दो
बार उनका मन भी
चंचलता से
देखने लगा तो
उन्होंने
तुरन्त रसोईघर
से लाल मिर्च
लेकर आँखों
में झोंक दी
और मन को कहने
लगेः "विकारों
की दृष्टि से
देखते-देखते
विकारों की
खाई में
गिरेगा, कहीं
का नहीं
रहेगा। सारे विकारों
की खाई असंयम
है।" तब से
वे विवेकी
नरेन्द्र
विवेकानन्द
बनने के
रास्ते पर चले
और संयम के
प्रभाव से सफल
भी हुए। कुछ
भी एक बार
पढ़ते ही याद
रह जाता।
उन्होंने
हजारों ग्रंथ
पढ़ डाले।
यौवन की
सुरक्षा ने
उन्हें
धर्मधुरन्धर पद
पर
प्रतिष्ठित
कर दिया। देश
का गौरव
बढ़ाने वाले
युवक स्वामी
विवेकानन्द
ब्रह्मचर्य-पालन
और सदगुरु की
कृपा से
लाखों-करोड़ों
के प्रिय और
पूज्य हुए और
यौवन सुरक्षा
के पालन से
प्रभुप्राप्ति
की सफल यात्रा
पर पाये।
अपने
स्नायु
शक्तिशाली
बनाओ। हम लोहे
की मांसपेशियाँ
और फौलाद के
स्नायु चाहते
हैं। बहुत रो
चुके। अब और
अधिक न रोओ,
वरन् अपने
पैरों पर खड़े
होओ। ब्रह्मचर्य
का पालन
दृढ़ता से करो
और महामानव
बनो।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुजरात में
भावनगर जिला
है। उस भावनगर
का नरेश भी
जिससे काँपता
था, ऐसा 'बहारवटिया' था जोगीदास
खुमाण।
एक रात्रि
को वह अपनी
एकान्त जगह पर
सोया था। चाँदनी
रात थी। करीब 11
बजने को थे।
इतने में 'छन... छन.....छनन.....
छनन.....'
करती हुई किसी
की पदचाप
सुनाई दी। उसे
सुनकर जोगीदास
खुमाण अपना
तमंचा लेकर
खड़ा हो गयाः "कौन है ?"
देखा तो
सुन्दरी ! सोलह
श्रृंगार से
सजी-धजी आ रही
है।
"खड़ी
रहो। कौन हो ?"
पास आकर
हार-सिंगार से
युक्त वह
युवती बाँहें पसारती
हुई बोलीः
"जोगीदास
खुमाण !
तेरी वीरता पर
मैं मुग्ध
हूँ। अगर सदा
के लिए नहीं
तो केवल एक
रात्रि के लिए
ही मुझे अपनी
भुजाओं में ले
ले।"
गर्जता हुआ
जोगीदास
बोलाः "वहीं
खड़ी रह। तू
स्त्री है, यह
मैं जानता हूँ।
लेकिन मैं
शत्रुओं से
इतना नहीं
चौंकता हूँ,
जितना विकारों
से चौंकता
हूँ।"
युवतीः "मैंने
मन से तुम्हें
अपना पति मान
लिया है।"
जोगीदासः "तुमने
चाहे जो माना
हो, मैं किसी
गुरु की परम्परा
से चला हूँ।
मैं अपना
सत्यानाश
नहीं कर सकता।
तुम जहाँ से
आयी हो, वहीं
लौट जाओ।"
वह युवती
पुनः नाज नखरे
करने लगी, तब
जोगीदास
बोलाः "तुम
मेरी बहन हो।
मुझे इन
विकारों में
फँसाने की
चेष्टा मत
करो। चली जाओ।"
समझा-बुझाकर
उसे रवाना कर
दिया। तब से
जोगीदास
खुमाण कभी
अकेला नहीं
सोया। अपने
साथ दो अंगरक्षक
रखने लगा। वह
भी, कोई मार
जाये इस भय से
नहीं, वरन्
कोई हमारा
चरित्र भंग न
कर जाये, इस भय
से दो
अंगरक्षक
रखता था।
डाकुओं में
भी कभी-कभी
विषय-विकारों
के प्रति संयम
होता है तो वे
चमक जाते हैं।
एक रात
जोगीदास अपनी
घोड़ी
भगाते-भगाते
कहीं जा रहा
था। उसकी
मंजिल तो अभी
काफी दूर थी
लेकिन गाँव के
करीब खेत में
एक ललना काम
किये जा रही
थी और
प्रभातिया
गाये जा रही
थी। अभी
सूर्योदय भी
नहीं हुआ था।
जोगीदास की
नजर उस ललना
पर पड़ी और वह
सोचने लगाः "यह
अकेली युवती
खेत में काम
कर रही है !"
उसने घोड़ी
को उस पर
मोड़ा और
घोड़ी ललना के
पास जा खड़ी
हुई।
जोगीदासः "ऐ
लड़की !"
युवतीः "क्या
है ?"
जोगीदासः "तुझे
डर नहीं लगता ? ऐसे
सन्नाटे में
तू अकेली काम
कर रही है ? तुझे
तेरे शीलभंग
(चरित्रभंग)
का डर नहीं
लगता ?"
तब उस युवती
ने हँसिया
सँभालते हुए,
आँखे दिखाते
हुए कड़क स्वर
में कहाः "डर
क्यों लगे ? जब तक
हमारा भैया
जोगीदास
जीवित है तब
तक आसपास के
पचास गाँव की
बहू बेटियों
को डर किस बात
का ?"
उस युवती को
पता नहीं था
कि यही
जोगीदास है। जोगीदास
ने घोड़ी को
मोड़ा और अपने
गन्तव्य की ओर
निकल पड़ा।
किन्तु इस बार
उसे आत्मसंतोष
भी था किः "पचास
गाँव की बहू
बेटियों को
तसल्ली है कि
हमारा भैया
जोगीदास है।"
'बहारवटियों' में संयम
होता है तो इस
सदगुण के कारण
इतने
स्नेहपात्र
हो सकते हैं तो
फिर सज्जन का
संयम उसे उसके
लक्षय
परमेश्वर से
भी मिलाने में
सहायक हो
जाये, इसमें
क्या आश्चर्य ? युवती
के साथ
भोग-विलास
करने की
अपेक्षा दृढ़
संयम पचासों
गाँवों की
बहू-बेटियों
का धर्मभ्राता
बना देता है
यह ब्रह्मचर्य
का पालन। सिंह
जैसा बल भर
देता है 'बहारवटिया' में
ब्रह्मचर्य
का पालन।
कुप्रसिद्ध
को सुप्रसिद्ध
कर देता है
ब्रह्मचर्य
का पालन। सदाचार,
सदविचार और
यौवन की
सुरक्षा करता
है ब्रह्मचर्य
का पालन।
हे युवानो ! तुम भी संयम
की शक्ति को
पहचानो। अपने
जीवन को
विषय-विकारों
से बचाकर
ओजस्वी-तेजस्वी
एवं दिव्य बनाने
के लिए
प्रयत्नशील
हो जाओ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
द्वितीय
विश्वयुद्ध
के दौरान
अफ्रीका के सहारा
मरूस्थल में
खाद्य
आपूर्ति बंद
हो जाने के
कारण मित्रराष्ट्रों
की सेनाओं को
तीन दिन तक
अन्न जल कुछ
भी प्राप्त
नहीं हो सका।
चारों ओर
सुनसान रेगिस्तान
तथा
धूल-कंकड़ों
के अतिरिक्त
कुछ भी दिखाई
नहीं देता था।
रेगिस्तान
पार करते करते
कुल सात सौ
सैनिकों की उस
टुकड़ी में से
मात्र 210
व्यक्ति ही
जीवित बच
पाये। बाकी
सभी भूख-प्यास
के कारण
रास्ते में ही
मर गये।
आपको यह
जानकर
आश्चर्य होगा
कि इन जीवित
सैनिकों में
से 80 प्रतिशत
अर्थात् 186
सैनिक हिन्दू
थे। इस
आश्चर्यजनक
घटना का जब
विश्लेषण
किया गया तो
विशेषज्ञों
ने यह
निष्कर्ष
निकाला किः 'वे
निश्चय ही ऐसे
पूर्वजों की
संतानें थीं
जिनके रक्त
में तप,
तितिक्षा,
उपवास, सहिष्णुता
एवं संयम का
प्रभाव रहा
होगा। वे अवश्य
ही
श्रद्धापूर्वक
कठिन व्रतों
का पालन करते
रहे होंगे।'
हिन्दू
संस्कृति के
वे सपूत
रेगिस्तान
में अन्न जल
के बिना भी
इसलिए बच गये
क्योंकि
उन्होंने,
उनके
माता-पिता ने
अथवा उनके
दादा-दादी ने
इस प्रकार की
तपस्या की
होगी। सात
पीढ़ियों तक
की संतति में
अपने संस्कारों
का अंश जाता
है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
महाराष्ट्र
के एक छोटे से
गाँव में
हरिदास जी नाम
के एक संत हो
गये।
बाल्यकाल में
उनके
माता-पिता ने
उनको सत्संग
की कुछ बातें
सुनाई थीं। 15-16
साल की उम्र
रही होगी जब
वे तैलंग साधु
के संपर्क में
आये। जब साधु
मिलते हैं तो
वे साधना की
बात करेंगे,
संयम की बात
करेंगे।
तैलंग साधु से
दीक्षा ली तो
उन्होंने
संयम, प्राणायाम
सिखाया और
कहाः "बेटा ! नजर
कहीं भी जाय
तो तुरन्त
नासाग्र
दृष्टि करना।
अपने से बड़ी
हो तो उसको
माता समान,
बराबरी की हो
तो बहन के
समान,
नन्हीं-मुन्नी
हो तो कन्या
के समान
देखना। अपने
विचारों को
ब्रह्मचर्य
के पवित्र
गुणों से
संपन्न रखना।"
गुरुआज्ञा
को ईश्वर की
आज्ञा के
तुल्य मानकर
वे हरिदास जी
लग गये। हरि
के उस परम
प्रेम में,
ध्यान में।
प्राणायाम
नियमित करते,
वाणी का संयम
करते, अमावस्या,
एकादशी, पूनम
के दिन उपवास
करते। थोड़ा
दूध लेते।
बाकी के दिनों
में चावल,
मिश्री, घी, दूध
आदि का उपयोग
करते।
प्राणायाम
से चंचल मन
शांत होता है,
अपने आप में
बैठता है। इससे
सामर्थ्य आता
है।
ब्रह्मचर्य व
प्राणायाम से
शरीर की
रोगप्रतिकारक
शक्ति बढ़ती
है। मन के रोग
भी मिटते हैं,
बुद्धि की
चंचलता भी मिटती
है और आत्मबल
का विकास होता
है।
पहले
जो कुछ
तीर्थ-व्रतादि
उनको करना था,
उन्होंने
प्रयाग, काशी
आदि तीर्थों
की यात्रा कर
ली। जहाँ
अनुकूल पड़ा
वहीं रह लिये।
बड़ी विलक्षण
शक्तियाँ
उनमें संचित
होने लगी। वे
संत प्रयागराज
में यमुना तट
पर थे। किसी
वृक्ष के नीचे
बैठे थे। पास
में मंदिर था।
उन संत
महापुरुष का
प्रभाव, शांति
देने का उनका
सामर्थ्य,
सारगर्भित बोलने
की उनकी शैली
आदि बातों ने
भक्तों की भीड़
को आकर्षित
किया। भक्तगण
प्रायः उनको
घेर के बैठे
रहते थे।
इन्हीं
दिनों एक
पादरी अपने
चमचों के साथ
भीड़ में घुस
बैठा था।
बाबाजी ने
देखा कि पादरी
थोड़ी देर
बैठा लेकिनि
उसको तो अपने
ईसाईयत का प्रचार
करना था अतः
वह बीच में
खड़ा होकर
बकने लगा किः "यह
ध्यान क्या
होता है ?
प्राणायाम
क्या होता है ? इन
ब्रह्मचर्य
की बातों से
क्या काम होता
है ?" वह
हमारे हिंदू
धर्म के
देवी-देवताओं,
साधुओं एवं
स्वयं हिंदू
धर्म को
खरी-खोटी
सुनाने लगा।
सन् 1830 की यह बात
है। उस समय
अंग्रेज
शोषकों का
शासन था। अतः
वह बकने लगा
और अपने धर्म
ईसाईयत का
डिम-डिम बजाने
लगा। वे
महापुरुष और
उनके संयत
साधक काफी देर
तक शांत रहकर
सहिष्णुता का
परिचय देते
रहे।
महापुरुष
चमत्कार
दिखाते नहीं,
लेकिन कभी-कभी
उनके द्वारा
कुछ हो जाता
है। ....तो महारा
ने कहाः "तुम
बोलते हो कि
तुम्हारे
जीसस भगवान थे
और वे पाँच
रोटियों को
ढँककर बाँटते
गये और कइयों
को खिलाया तो
इससे क्या हो
गया ? यह तो
मन की
एकाग्रता से
कुछ
सिद्धियाँ आ
जाती हैं।
जादू से अथवा
योग से
रोटियाँ
निकाल दीं तो
क्या ?
पचासों
आदमियों को
भरपेट
रोटियाँ खिला
दीं तो क्या ? इसमें
क्या बड़ी बात
है ? योग
केवल लोगों को
रोटियाँ
खिलाने के लिए
थोड़े ही है ? पादरी ! तू
जीसस को इसलिए
भगवान मानता
है, इसलिए
बड़ा मानता है
कि केवल पाँच
रोटियों से
उन्होंने
पचासों
आदमियों को
खिला दिया तो
ले, मेरे पास
तो पाँच
रोटियाँ भी नहीं
है, छूमंतर
करने के लिए
कोई जादू भी
नहीं है। मेरे
पास तो योग है
जो परमात्मा
से एकत्व करने
के लिए हैं।
....और अब देख ले।"
ऐसा
कहकर उन
महाराज ने
अपने खाली
झोले में हाथ
डाला और उसमें
से वे पूरी,
पकवान, व्यंजन
निकाल-निकाल
कर फेंकते
गये। देखते ही
देखते व्यंजनों
का ढेर लगा
दिया। पादरी
दंग होकर
टुकुर-टुकुर
देखता ही रह
गया !
वहाँ पर
एकत्रित लोग
भी
आश्चर्यमुग्ध
हो गये ! हद
हो गई !
खाली झोला था
और पूरी
पकवानों का
इतना ढेर !
महाराज
निकाल-निकाल
कर बस फेंकते
ही रहे।
.....लेकिन
पादरी को तो
अपना उल्लू
सीधा करना था।
वह बोलाः "यह
तो तुम्हारे
पास नीचे कुछ
छुपा होगा।
झोले के नीचे
क्या छुपाया
है ?"
हरिदास
जी ने झोला
ऊपर उठाते हुए
कहाः "नीचे
तो फर्श है,
मूर्ख !
क्या छुपाया
है ?"
पादरी
ने कहाः "कुछ
होगा अवश्य।
यह हम सच नहीं
मानते। हाँ !
हमारी ब्रेड,
बटर, सेन्डविच
निकालकर दिखाओ
तो हम
मानेंगे।"
हरिदास
महाराज जी ने
कहाः "देखो,
अंडा, शराब और
मांस को
छोड़कर तू
दुनिया की कोई
भी चीज माँग
तो अभी निकाल
देते हैं। ये पावरोटी
ले.... ये
बिस्किट ले....'' इस
प्रकार वे
देते गये....
देते गये......
बिस्किटों एवं
पावरोटियों
का ढेर लगा
दिया।
पादरी
ने देखा कि अब
वह मुँह
दिखाने काबिल
नहीं रहा। वह
नाव में बैठकर
यमुना जी के
उस पार जाने लगा।
हरिदास जी ने
कहाः "अरे
पादरी का
बच्चा ! तू
हिन्दू धर्म
को गालियाँ
देता है,
हिंदू संस्कृति
को नीचा
दिखाता है और
अपना डिम-डिम
बजाता है !"
ऐसा कहकर वे
पादरी के पीछे
पड़े।
पादरी
तो नाव में
बैठखर जाने
लगा और हरिदास
जी उसके
पीछे-पीछे
यमुना जी के
जल के ऊपर
पैदल ही चलने
लगे। यह देखकर
पादरी हक्का
बक्का रह गया कि
मैं तो नाव
में और ये
पानी के ऊपर
पैदल चलकर आ
गये ! जब
यह यमुना जी
के उस किनारे
उतरा तो
महाराज जी भी
उस किनारे
पहुँच गये। अब
तो उसने हाथ
जोड़े और अपनी
गलती के लिए
बहुत
शर्मिन्दा हो
गया।
महाराज
जी ने कहाः "कोई
बात नही। ये
चीजें तो
तुम्हारे
मनःकल्पित
जगत की हैं।
यह सारा जगत
मनोमय है। मन
जितना एकाग्र
होता है, उतना
उसमें
सामर्थ्य आता
है। यह
चमत्कार तो
तेरे जैसे
बुद्धुओं को
हिंदू धर्म की
महानता
दिखाने के लिए
किया। वास्वत
में तो हिंदू
धर्म की
महानता इन
चमत्कारों
में निहित
नहीं है,
बल्कि सनातन
सत्यस्वरूप
परमात्मा का
साक्षात्कार
कराने में
इसकी महानता
निहित है।"
उन
महापुरुष के
पास कोई गरीब
सूरदास आया तो
महाराज बोलेः "अच्छा....
कोई बात नहीं।
देखने लग जा।"
जरा सा हाथ
घुमा दिया और
वह सूरदास
देखने लग गया।
उसकी आँखों
में रोशनी आ
गई। वह तो
धन्य-धन्य हो
गया !
ऐसे
ही कोई अशांत
व्यक्ति आता
और महाराज जी
उसको साहस व
सांत्वना के
दो मीठे वचन
सुना देते तो
उसकी अशांति
मिट जाती।
किसी के बच्चे
ऐसे-वैसे होते
और महाराज जी
जरा आशीर्वाद
दे देते तो वे
ठीक हो जाते।
इस प्रकार
हरिदास जी महाराज
के सत्संग और
उनकी
करूणा-कृपा से
बहुत लोगों को
लाभ हुआ।
सनातन धर्म की
निंदा करने
वाले
पादरियों की
आँधी को हटाने
में महाराज का
बहुत योगदान
था। उन्होंने
समाज में सनातन
धर्म की महिमा
के प्रति
जागृति लाई तो
हिंदूओं को
पता चला किः 'पादरी
लोग हमें
गुमराह करते
हैं वरना हम
भारतीय
संस्कृति में
पैदा हुए हैं
यह तो हमारा
सौभाग्य है।'
राजा
रणजीत सिंह
हरिदास जी
महाराज के
संपर्क में
आये तो वे
सपरिवार, नाते
रिश्तेदारों
सहित
महाराजश्री
से दीक्षा
लेकर अपना
भाग्य बनाने
के रास्ते चल
पड़े।
हरिदास
जी महाराज ने
धारणा का खूब
अभ्यास किया
था इसलिए
संकल्प करके
कुछ भी कर
लेते थे। संकल्पबल
से ही
उन्होंने
घमंडी पादरी
को नतमस्तक कर
दिया, निगुरों
को सगुरा बना
दिया और अभक्तों
को भक्ति का
दान दे दिया।
वे भी एक युवक
ही तो थे। ऐसे
तो कई युवक
हैं। युवक
अपनी शक्ति को
पहचानते
नहीं। बाहर
घूम-घूमकर वे
लाचार हो जाते
हैं क्योंकि
यौवनतत्त्व के
सुरक्षा की
महिमा नहीं
जानते,
एकाग्रता की
महिमा नहीं
जानते और अपने
अंदर ईश्वरीय
सनातन सत्य
भरा है यह
वास्तविकता
वे बेचारे
नहीं जानते
इसीलिए खप
जाते हैं।
उनके पास कई 'सर्टिफिकेट'
होते हैं फिर
भी चार पैसे
की नौकरी के
लिए वे भटकते-फिरते
हैं। कोई
व्यक्ति,
कंपनी या
संस्था चार
नौकर रखने के
लिए वे
भटकते-फिरते
हैं। कोई
व्यक्ति,
कंपनी या
संस्था चार
नौकर रखने के
लिए विज्ञापन
देते हैं तो
सैंकड़ों
बेरोजगार लोग
आवेदन पत्र
भेजते हैं। दो
पाँच-पाँच
आदमियों की
जरूरत होती
हैं वहाँ
सैंकड़ों
आदमी लाइन में
लगते हैं
नौकरी पाने के
लिए। ....और इन
महाराज में
कितना सामर्थ्य
!
कोई
सर्टिफिकेट
नहीं, कोई
प्रमाणपत्र
नहीं, कोई पद
नहीं फिर भी
ब्रह्मचर्य व
योग के बल से
वे इतनी
समाजसेवा एवं
देशसेवा करने
में सक्षम हो
गये।
यौवन-सुरक्षा....
अपने सर्वस्व
की सुरक्षा.....
सर्वेश्वर को
पाने की
योग्यता की
सुरक्षा....
यौवन-सुरक्षा।
माता-पिता व
पत्नी से
वफादार रहने की
कुंजी...
यौवन-सुरक्षा।
अतः 'युवाधन
सुरक्षा
अभियान' चलाने
वाले
पुण्यात्माओं
के साथ आप भी
कंधे-से-कंधा
मिलाकर
मानवता की
सेवा और
सुरक्षा में
साझीदार
बनें। आप भी
पाँच-पच्चीस
यौवन-सुरक्षा पुस्तक
इस ढंग से
बेचें या
बाँटें कि
सामने वाला
व्यक्ति इसे
पाँच बार
पढ़ने को सहमत
हो जाये।
जूनागढ़
के प्रसिद्ध
विद्रोही
डाकू (गुजरात
में जिसे 'बहारवटिया'
कहते हैं)
कादु मकराणी
उर्फ
कादरबक्ष ने
एक बार रात के
करीब 10 बजे उना
तहसील के तड़
नामक गाँव को
लूटने के लिए
उस पर आक्रमण
किया। उसे धन
की आवश्यकता
थी इसलिए वह
एक बनिये के
घर पहुँचा। घर
के सभी पुरुष
तो पीछे की
दीवार फाँदकर
भाग गये लेकिन
एक विवाहित
बेटी अकेली रह
गई। उसके शरीर
पर स्वर्ण के
आभूषण चमक रहे
थे। कादरबक्ष
बाहर बरामदे
में खड़ा रहा
और उसके साथी
घर के भीतर
लूट-पाट करने
लगे। इतने में
एकाएक उस
युवती की चीख
सुनाई दी।
कादू ने
तुरन्त ही
गर्जना कीः "हो
वलाती !
खबरदार !"
उसके
एक साथी ने उस
अकेली वणिक
युवती का हाथ
पकड़ा था। कादू
ने उसे वलाती
इसलिए कहा कि
उसकी टोली में
खुद के सिवा
और कौन-कौन थे
उनके नामों का
पता न चले।
कादू तुरन्त
ही घर के भीतर
गया और अपने
साथी को हुक्म
दियाः "बाहर
आओ।"
शर्मिन्दा
होता हुआ वह
साथी दूसरे
कमरे से बाहर
आया और कादू
के सामने खड़ा
रहा। उस युवती
को आश्वासन
देते हुए कादू
ने कहाः "बेटी
!
डरना मत। हम
तेरा घर नहीं
लूटेंगे। तू
भीतर चली जा।"
कादू
बाहर आया और
गुनहगार को
कड़ी आँख से
देखते हुए
कहाः "चलो
गाँव से बाहर।"
मानों उसकी
कड़ी नजर
अपराधी के
हृदय को चीर डालती
थी। अपने साथी
को आगे कर
उसने एक बार
उस घर में देखा।
एक दीया जल
रहा था और
दीये की लौ की
तरह थरथराती
हुई वह महिला
खड़ी थी। उसके
घर को लूटे बिना
ही सब बाहर
चले गये।
गाँव
के बाहर जाकर
उस कामी साथी
को कड़ी आँख दिखाते
हुए कादरबक्ष
ने कहाः "कादू
मकराणी छोटी
उम्र की महिला
को माँ समझकर
चलता है।
कादरबक्ष पाक
मुसलमान है।
तेरे जैसा
हैवान मेरे
साथ नहीं चल
सकता। मैं
तुझे वहीं
खत्म कर देता,
एक पल की भी देर
नहीं करता
लेकिन तेरी
लाश वहाँ
छोड़कर जाना ठीक
नहीं होता।
मुझे ही तेरी
लाश को उठाना
पड़ता। मुझे
दुःख है कि
मैं तुझे नहीं
मार सका। चला
जा यहाँ से।
ले ये तेरे
खर्च के पैसे।"
पैसे
देकर कादू ने
उस समय उसे
भगा दिया।
अपनी स्त्री
को तो कादू ने
उसके वतन भेज
दिया था और भाइयों
के साथ मिलकर
अन्यायी शासन
के खिलाफ विद्रोह
करने के लिए
वह लूटपाट
करता था।
एक
बार देर रात
को लोढवा गाँव
के किसी
राजपूत के घऱ
में डाका
डालने के लिए
कादू गया तो
एक अर्धनग्न
अवस्था में
सोई हुई
स्त्री उठकर
भागने लगी।
कादू उसकी ओर
पीठ करके खड़ा
रहा और बोलाः "बहन
!
तेरे कपड़े
ठीक तरह पहन
ले।
पर
वह अबला डर के
मारे स्तब्ध
हो गई थी अतः
कुछ कर न सकी।
तब कादू फिर
से बोलाः "बहन
!
अपने घर का
दरवाजा बंद कर
दे।"
इतना
कहकर वह बाहर
चला गया। उस
घर को उसने
नहीं लूटा।
काम-वासना की
तृप्ति के लिए
कदापि नहीं
लेकिन गहने
लूटने के लिए
भी ये 'बहारवटिया'
लोग स्त्री को
स्पर्श करना
अपनी नीति के
विरूद्ध
मानते थे।
लूटते समय दूर
खड़े रहकर
स्त्री से वे
इतना ही कहते
थे। "बहन
!
तेरे गहने
उतार दे।"
संयम-सदाचार
के कारण ही
ऐसे विद्रोही
डाकू सैन्य दल
से संपन्न
बड़ी-बड़ी
रियासतों से
भी लोहा लेते
थे। अनेक
कष्टों-मुसीबतों
को झेलते हुए
राजाओं को
संधि करने को
मजबूर कर सकते
थे। ब्रह्मचर्य
और ऊँचे
संयम-सदाचार
का सिद्धान्त
डाकू जैसों को
भी धन्य बना
देता है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
बुद्ध
के मौसेरे भाई
आयुष्यमान
नंद ने बुद्ध से
संन्यास
दीक्षा ग्रहण
करने के बाद
प्रव्रज्या
लेने की ठान
ली। जब वह घर
छोड़कर जाने
लगा तो अपनी
पत्नी से कहाः
"मैं
अपने भोगी
जीवन का त्याग
करके चिंता और
द्वेष, मोह और
ममता को सदा
के लिए छोड़कर
प्रव्रज्या
लेने जा रहा
हूँ।"
आयुष्यमान
नंद को इस
प्रकार
वैराग्यवान
देखकर पत्नी
ने उसे विदाई
देते समय कहाः
"जाते
हो तो भले जाओ
अपने जीवन का
उद्धार करने।
प्रव्रज्या
ले लो। कोई
बात नहीं।
लेकिन कर्मभाव
से इस
कर्मपतिता को
कभी-कभी जरा
याद तो कर लेना।"
पत्नी
ने इतना ही कह
दियाः 'कर्मपतिता
को कभी-कभी
जरा याद कर
लेना।' बस यही
शब्द।
प्रव्रज्या
लेने के बाद
ये शब्द
आयुष्यमान
नंद के मन में
कभी-कभी
गूँजते थे। जब
तक एक भी बात
मन में गूँजती
हो तब तक
चित्त की
विश्रांति का
मार्ग नहीं
मिल सकता है।
अतः आयुष्यमान
ने अपनी पत्नी
के अंतिम शब्द
को भूलने का बहुत
प्रयास किया,
अनेक उपाय
किया, संयम
साधा। लेकिन
मन कहाँ मानता
है ? पत्नी
के वही शब्द
अभी भी मन में
गूँज रहे हैं- 'कर्मपतिता
को कभी-कभी
जरा याद कर
लेना !'
उसके
सारे उपाय
व्यर्थ हो
गये। अंततः
उसने अपने एक
गुरुभाई
भिक्षुक को कह
दियाः "मुझे
घर जाना होगा।
मैं इस
संन्यस्त
जीवन का परित्याग
कर गृहस्थी
जीवन जिऊँगा।" उस
बुद्धिमान
गुरुभाई ने,
सत्शिष्य ने
बुद्ध को कहाः
"आयुष्यमान
नंद ऊँचाई का
रास्ता
छोड़कर पतित
प्रवाह की तरफ
जा रहा है,
सरकने वाले
संसार-सुख की
ओर जा रहा है
जिसने
हजारों-हजारों
जन्मों तक भोग
भोगे थे। भन्ते
! उसे
बचाने की
करूणा हो।"
करूणावान
हृदय ने
स्वीकृति दी।
बुद्ध ने आयुष्यमान
नंद को बुलाकर
पूछाः "तुम घर
जाना चाहते हो
? क्या
करना है ?"
आयुष्यमान
नंदः "प्रव्रज्या
करते समय मेरी
पत्नी ने
विदाई तो दी
लेकिन जाते-जाते
उसने कहा किः "कर्मपतिता
को कभी-कभी
जरा याद कर
लेना।" ये
करूणापूर्वक
शब्द यदा-कदा
मेरे कानों
में गूँजते
रहते हैं।
भन्ते ! मुझे
उसकी याद आती
है। याद उसकी
और वेश भिक्षुक
का ! मुझे
अच्छा नहीं
लगता है। घर
में रहकर भजन
करूँगा।"
बुद्ध
ने कहाः "अगर घर
में रहकर कोई
भजन करके सफल
हो जाता तो कई
लोग ऊँचे
अनुभव के धनी
होते। कोई-कोई
अवतारी पुरुष
घर में रहते
हुए दिखते हैं
लेकिन वे घर में
नहीं, ईश्वर
में रहते हैं।
ऐसा कोई
महापुरुष ही
संसार में
रहते हुए
संसारी
वातावरण से
अप्रभावित रह
सकता है। बाकी
साधक को तो
साधना के लिए
विषय-विकारों
में गिराने
वाला वातावरण
नहीं बल्कि
विषय विकारों
से बचाने वाला
साधु-संतों का
संग, एकांत
एवं ध्यान-भजन
का वातावरण ही
चाहिए।"
आयुष्यामान
नंद ने खुले
हृदय से कहाः "मैं
प्रव्रज्या
के नियम नहीं
निभा सकता।
मुझे उसकी याद
आती है।"
"त्यागकर
आये विषयभोग,
पत्नी और घर,
फिर उधर जाते
हो ? तुम
दमन किया हुआ
विषय अब चाटने
हेतु जाना चाहते
हो ?" कैसी
चोट मार दी !
आयुष्यमानः
"भन्ते ! मैं
दगाखोर जीवन
जीना नहीं
चाहता। उसकी
याद आती है।"
बुद्धः
"ठीक
है। आओ, मेरे
साथ चलो।"
बुद्ध
ले गये
आयुष्यमान
नंद को एकांत
में और उन्होंने
उसे ध्यान
करने को कहाः।
ध्यान के दरम्यान
बुद्ध ने अपनी
योगशक्ति का
उपयोग करके तावतिंस
लोक में उसकी
यात्रा करा
दी। तावतिंस
लोक में वह
क्या देखता है
कि वहाँ गजब
की सुंदरियाँ
हैं।
अप्सराओं का
सौंदर्य तो वह
देखता ही रह
गया।
बुद्ध
ने पूछाः "क्या
इनका
सौन्दर्य और
तुम्हारी
पत्नी का सौंदर्य
बराबर का है ?"
आयुष्यमानः
"नहीं
नहीं भन्ते ! क्या
कहते हैं ? इन
अप्सराओं के
रूप-लावण्य और
सौंदर्य के
आगे मेरी
पत्नी का
चेहरा भी
भद्दा लगता
है। क्या
सौंदर्य का
अंबार है ! इनके
पैरों के
नाखून कितने
चमकीले हैं ! इनके
पैर देखता हूँ
तो इतने
सुंदर,
सुहावने और
आकर्षक हैं कि
सौंदर्य के
प्रसाधनों का
उपयोग करके
मेरी पत्नी
शादी के दिनों
में जो दुल्हन
बनकर दिखती थी
उसका मुख मंडल
भी इनके पैरों
के आगे कोई
मायना नहीं
रखता है, अति
तुच्छ दिखता
है। भन्ते ! यह मैं
क्या देख रहा
हूँ !"
बुद्धः
"आयुष्यमान
! मैं
तुझे ये
अप्सराएँ
प्राप्त करा
सकता हूँ।"
आयुष्यमानः
"भन्ते ! मैं
आपकी सभी
बातें
मानूँगा, सभी
शर्तें मानूँगा।
बस मुझे ये
मिल जायें।"
बुद्धः
"चलो, अब
हम अपने लोक
में चलते हैं।"
बुद्ध
उसके चित्त को
भूलोक में ले
आये। उन्होंने
उसके सामने यह
शर्त रखीः 'तू
केवल एक वर्ष
के लिए
ब्रह्मचर्य
का पालन कर।
तेरे चित्त
में जिस किसी
भी विषय के
प्रति आकर्षण
पैदा हो, उसको
हटाते जाना और
विश्रान्ति
पाते जाना।'
बुद्ध
ने कुछ प्रयोग
बताये और
आयुष्यमान
नंद उन
प्रयोगों के अनुसार
बड़ी
ईमानदारी और
तत्परता से
साधना में लग
गया। उसने
अपने खान-पान
में संयम
किया, लोगों
से
मिलने-जुलने
में सावधानी
बरती और ब्रह्मचर्य
का सख्ती से
पालन किया।
ब्रह्मचर्य-पालन
से बुद्धि
सूक्ष्म और
तेजस्वी होती
है, प्रज्ञा
निखरती है,
शरीर में
ओज-तेज का
विकास होता
है। इससे
व्यक्तित्व
निर्भीक बनता
है।
ब्रह्मचर्य
सारी सफलताओं का
महान कुंजी
है। हमारे
खान-पान से
शरीर में जो
सप्तधातुएँ
बनती हैं
उनमें वीर्य
एक धातु है।
अगर इसका संयम
किया जाय तो
यह ओज में
परिणत हो जाता
है जिसके
प्रभाव से एक
गुप्त नाड़ी
जागृत होती है।
इस नाड़ी का
आत्म-साक्षात्कार
से सीधा संबंध
है।
श्रीरामकृष्णपरमहंस
ने भी यही बात
कही है।
एक
उच्च कोटि के
संत ने पूछा
किः 'गृहस्थ
होते हुए भी
आपने इतनी
ऊँचाइयों को
पाया जबकि
अन्य गृहस्थी
लोग भी भजन
करते हैं किन्तु
वे ऐसी ऊँचाई
पर नहीं पहुँच
पाते, ऐसा
क्यों ?'
'गृहस्थी
लोग भजन करते
हैं तो भजन
करने से जो ऊर्जा,
तेजोवलय या जो
योग्यता बनती
है उसे वे विषय
विकारों को
भोगने में
खत्म कर देते
हैं और
ठनठनपाल रह
जाते है।
लेकिन मैं
शादी-शुदा होते
हुए भी शक्ति
का ह्रास नहीं
होने देता
हूँ। मैं
गृहस्थ दिखता
हूँ, गृहस्थी
के व्यवहार
करता हूँ
लेकिन विकारी
जीवन नहीं जीता।
मैं बाजार से
गुजरता हूँ
लेकिन
खरीददार बन कर
नहीं।
रामकृष्ण
ठाकुर ऐसे ही
थे तभी तो भगवान
रामकृष्ण
होकर पूजे जा
रहे हैं। ऐसा
कोई पुरष
विरला ही होता
है।'
आयुष्यमान
नंद क्या
खाना, कब खाना,
कितना खाना,
कैसे खाना यह
सब
विवेकपूर्वक
विचारकर
खाता-पीता। अब
वह स्वाद का
गुलाम नहीं
रहा। पंद्रह
दिन में एक
बार कड़ा
उपवास करता
जिससे वीर्य,
ओज के रूप में
परिणत हो जाय।
उसने एक वर्ष
तक
ब्रह्मचर्य
का पालन करने
का दृढ़
संकल्प लिया
था ताकि बाद
में पाँच सौ
अप्सरायें
उसे सदा के
लिए भोग में
मिलेंगी और
ऊँचे लोक में
रहने को
मिलेगा।
शुरूआत
तो हुई थी भोग
की लालच से।
भोग की लालच से
ही सही उसने
खूब संयम
किया,
ब्रह्मचर्य
पाला। वर्ष
पूरा हुआ तो
बुद्ध ने
आयुष्यमान
नंद से कहाः "मैं
अपना वचन
पालने को तैयार
हूँ। मैं तुझे
उसी लोक में
भेज सकता हूँ।
मेरे लोकपाल
और पाँच सौ
अप्सराएँ
तेरी चाकरी में
रहेंगे। तू
तैयार हो जा।"
आयुष्यमान
नंद फूट-फूट
कर रोया किः "भन्ते !
भोग में
सामर्थ्य का
क्षय होता है
जबकि योग में
सामर्थ्य
बढ़ता है। भोग
में शांति अशांति
के रूप में बदलती
जबकि योग में
शांति
महाशांति का
द्वार खोलती
है। अब आप
मुझे अपने
श्रीचरणों
में ही रहने
दें। मेरे
गृहस्थी के
सुख से तो
अप्सराओं के
संग का सुख
बहुत ऊँचा है
लेकिन
विश्रान्ति के
सुख के आगे वह
सुख भी अति
तुच्छ है और
दुःखों से भरा
है। भन्ते !
परमात्म-विश्रान्ति
से चित्त
शुद्ध होता
है, स्वास्थ्य
मे लाभ होता
है, मन में
सदभावना
पनपती है,
बुद्धि में सात्त्विक
सामर्थ्य और
हृदय में
सच्ची स्वाधीनता
का प्रागट्य
होता है।"
आयुष्यमान
नंद संयम का
महत्त्व समझ
में आ चुका
था। फिर तो वह
दृढ़ता से लग
गया बुद्ध के
उपदेशों का पालन
करने में.....
जिसने
अपने जीवन में
संयम का
महत्त्व जान
लिया एवं
तदनुसार आचरण
में लग गया यह
जीवन के प्रत्येक
क्षेत्र में
अवश्य सफल
होता है।
संयमित जीवन
से समर्थ
व्यक्तित्व
एवं सुदृढ़
एवं संगठित
समाज से
शक्तिशाली,
स्वावलंबी
एवं गौरवशाली
राष्ट्र का
निर्माण होता
है। हमारा
प्राचीन भारत
समकालीन
विश्व में
सर्वश्रेष्ठ
राष्ट्र के
रूप में उभरा
था तो उसके
पीछे समाज में
संयम,
सच्चारित्र्य
एवं
कर्मनिष्ठा
ही कारणभूत
थी। अतः आप
यदि अपने राष्ट्र
की गौरवशाली
परंपरा को
पुनर्जीवित कर
उसे
विश्वगुरु के
पद पर आसीन
होते देखना चाहते
हैं तो संयम
सदाचार एवं
ब्रह्मचर्य
का सावधान
होकर पालन
करें।
मेरे
भारतवासियो ! अब उठो ! जागो ! विलासिता
का त्याग करो...
विषय-विकार
बढ़ाकर जीवन
को
नष्ट-भ्रष्ट
करने वाली
पाश्चात्य
संस्कृति के
कुप्रभाव से
अपने को बचाओ...
संयम का महत्त्व
समझो एवं औरों
को समझाओ।
आश्रम
व समितियों की
तरफ से चलाये
जा रहे 'युवाधन
सुरक्षा
अभियान' के तहत
आश्रम से
प्रकाशित 'युवाधन
सुरक्षा' पुस्तक
देश के भावी
कर्णधारों तक
पहुँचाने के
लिए व्यापक
स्तर पर
सेवाकार्य
किये जा रहे हैं।
आप भी इस
पुण्य कर्म
में अपना
अमूल्य सहयोग
प्रदान कर शिक्षणशालाओं,
घरों एवं
विभिन्न
संस्थानों में
संयम-सदाचार
की अमर ज्योत
जला दो ताकि
वर्तमान
पीढ़ी तो उससे
लाभान्वित हो
ही, भावी पीढ़ी
भी उसके
दिव्य-आलोक
में अपना पथ
प्रशस्त कर सके।
एक बार फिर
भारत के
गौरवमय अतीत
को चरितार्थ
होने दो.... उठो,
यही वक्त है !
यह समय
नहीं है सोने
का, सोकर
विषयों में
गिरने का।
स्वयं
बनो संयमी और
बनाओ, जो
गाफिल हैं
उन्हें
जगाओ।।
फैशन
चलचित्र
विलासिता
तजकर,
संयम-सदाचार
अपनाकर।
संतों
के 'युवाधन'
संदेश को,
सारे जग में
तुम फैलाओ।।
जग
में शांति फिर
आयेगी, फिर से
खुशहाली
छायेगी।
गुरु
ज्ञान की
बजेगी शहनाई
रे....
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
संसार
में
अधिकांशतः
अधिक खाने
वाले ही रोगों
के शिकार पाये
जाते हैं।
हित-मित-नियमित
आहार
लेनेवाले
संयमी
व्यक्ति ही
स्वस्थ व
दीर्घजीवी
होते हैं।
इंग्लैण्ड
के टामस पास
नियमित आहार
के लिए बड़े
प्रसिद्ध हुए।
वे नित्य सदा,
हलका, सुपाच्य
आहार लेते थे।
उन्होंने 40
वर्ष की उम्र
के बाद मिठाई,
शराब, मांस को
छुआ तक नहीं।
वे सदैव निरोग
व प्रसन्न रहते
थे।
इंगलैण्ड
के राजा
चार्ल्स
प्रथम ने उनकी
कीर्ती सुनी
तो उन्हें
अत्यन्त
आश्चर्य हुआ।
उन्होंने ऐसे
दीर्घजीवी
व्यक्ति के
दर्शन करना
चाहा। टामस
पार को बड़े
आदर से राजमहल
में बुलाया
गया। भारी
दावत का आयोजन
भी किया गया।
भोजन के समय
स्वादिष्ट
मिठाइयाँ, विभिन्न
प्रकार के
पकवान और
सुस्वादु
मांस इत्यादि
उन्हें
अत्यंत
आग्रहपूर्वक
परोसे गये।
उनके पेट में
दर्द होने लगा
तब तक उन्हें
खिलाया गया।
बेचारे
मिताहारी
टामस पार पर इस
शाही भोजन का
भयंकर
दुष्प्रभाव
पड़ा। उसी रात्रि
उनकी मृत्यु
हो गई। उस समय
उनकी आयु 152 वर्ष
की थी। एकाएक
मृत्यु का
कारण ढूँढा
गया। इतने
भारी,
अस्वाभिक,
आहार के कारण
उनके हृदय व
पेट पर बल
पड़ा, जिससे
हृदयगति रुक गयी
और वे मृत्यु
के शिकार हो
गये।
अतः
शरीर के अंगों
के साथ अति
करके अपने
स्वास्थ्य की
इति न करें।
संयम की
आवश्यकता सभी
को है। यह
संयम
बहारवटिया को
प्रसिद्ध
करता है। यह
संयम सैनिकों
को सुरक्षित
रखता है। यह
संयम साधकों
की साधना में
सुवास लाता
है। यह संयम
आयुष्यमान
नंद को स्वर्ग
की अप्सराओं
से भी ऊँचा सुख
मिलता है।
जबकि फ्रायड
के विकृत
मनोविज्ञान
से उन देशों
में लाखों
युवक-युवतियाँ
विनाश के
रास्ते जा रहे हैं जबकि भरतीय संस्कृति की सुंदर
सीख से साधारण
लोग भी
तेजस्वी बन
गये। कई भोगी
योगी बन गये।
कई दुराचारी
सदाचारी बन
गये। कई
विलासी संयमी
बन गये।
हे
भारत के सपूतो
!
संयम-सदाचार व
सच्चे सुख को
पाने के लिए
ही धरती पर
तुम्हारा
आगमन हुआ है।
हिम्मत
करो....
संयमी-साहसी
बनो। सफलता
तुम्हारे चरण
चूमेगी।