(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
अपने शास्त्र, इष्टमंत्र और गुरु परम्परा – इन तीन चीजों से पूर्णता प्राप्त होती है । मनमाना कुछ किया और सफलता मिली तो व्यक्ति अहंकार में नष्ट हो जायेगा और विफलता मिली तो विषाद में जा गिरेगा । साधना ठीक है कि नहीं यह कैसे पता चलेगा ? यह आत्मानुभव है या कोई और अनुभव है – यह किसी से तो पूछना पड़ेगा ? मुझे देवी दिखती है, देवता दिखते हैं, भगवान दिखते हैं… अरे, तुम्हारी भावना के भगवान कब तुम्हारे साथ रहें और कब झगड़ा हो जाय कोई पता नहीं । कब तुम्हारी भावना के भगवान से तुमको अलग होना पड़े कोई पता नहीं । जय-विजय वैकुण्ठ से भी गिरे थे ।
एक व्यक्ति खूब पढ़े थे – बी.ए. बी. एड. किया, एम. ए. एम. एड. किया, पी. एच. डी. की, डी. लिट. किया । देखा कि नौकरी कर-करके जिंदगी पूरी हो रही है तो साधु बन गये । वृंदावन में आकर बाँकेबिहारी की भक्ति करते थे । नंदनंदन यशोदानंदन श्रीकृष्ण को बालक रूप में मानते थे । किसी गरीब का बालक मिल गया, बड़ा प्यारा लग रहा था । उसी बालक की कृष्ण के रूप में उपासना करने लगे । यशोदा माँ जैसे कृष्ण को उठातीं वैसे वे उस बालक को उठाते, नहलाते-धुलाते, खिलाते-पिलाते । साधु उस बालक में कृष्णबुद्धि करके सारा दिन उसकी पूजा में बिताते थे । एक दो तीन साल के होते-होते उनके कृष्ण-कन्हैया सोलह साल के हो गये । वे ठाकुर जी युवराज श्री कृष्ण हो गये तब भी उनको बड़े लाड़-प्यार से पालते, पीताम्बर पहनाते, बंसी देते, आरती करते ।
एक दिन उनको सूझा कि मेरे प्रभु जी को प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के पास ले जाऊँ । प्रभुदत्त भी खेले कि ‘चलो, आ जाओ चुनाव में, हम भी तुम्हारे सामने खड़े रहेंगे, फार्म भरेंगे, क्या हो जायेगा ? तुम्हारे से थोड़े मत (वोट) कम मिलेंगे लेकिन हमको भी दुनिया जानती है ।’ नेहरूजी के सामने खड़े रहकर उन्होंने पचपन हजार मत ले लिए । तो ऐसे विनोदी थे, खिलाड़ी थे । साधु अपने ठाकुर जी को उनके पास ले गये । प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने समझाया कि भावना के भगवान और वास्तविक भगवान में कुछ अंतर भी समझो । इस सोलह साल के छोरे को तुम भगवान मानते हो लेकिन सचमुच में भगवान श्रीकृष्ण थे तब भी अर्जुन का दुःख नहीं मिटा था । जब भगवान श्री कृष्ण ने भगवत्-तत्त्व का, सच्चिदानंद प्रभु तत्त्व का ज्ञान दिया और अर्जुन ने स्वीकार किया तभी दुःख मिटा । साधु बात मानने को तैयार नहीं हुआ, बोला ‘मेरे ये बाल-गोपाल अभी युवराज कृष्ण हैं, मेरे मुक्तिदाता है ।’
अब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी खिलाड़ी ठहरे । उन्होंने सोलह वर्ष के कृष्ण-कन्हैया को थोड़ा दूर जंगल में घुमाने के बहाने ले जाकर प्रश्नोत्तर करते-करते, बातचीत करते-करते रँग दिया । किसी गरीब का लड़का था और ठाकुर जी होकर मजा ले रहा था । प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के संग से भगवान का व्यवहार जरा बदला हुआ मिला तो वह साधु उस लड़के को बोलाः “ऐसा कैसे हो गया रे तू ?”
लड़काः “अभी भगवान मानते थे और अभी ‘तू’ बोल रहे हो, शर्म नहीं आती ? मैं तो कृष्ण हूँ ।”
साधुः “अरे, तू काहे का कृष्ण है ?”
अब भक्त और भगवान में जरा तू-तू, मैं-मैं हो गयी । उस साधु ने कहाः “अच्छा ठाकुर जी ! मैं तुझे दिखाता हूँ ।”
वह उसको बातों में लगाके जंगल में ले गया और जमकर पिटाई की । आज तक भगवान ने मक्खन-मिश्री खायी, दुपट्टे पहने और मजा लिया था । जब धाऽड़-धाऽड़ करके पिटाई हुई तो वे भगवान कैसे भी करके जान छुड़ाकर भागे और रेलवे स्टेशन पर जा पहुँचे ।
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को पता चला । वे वहाँ पहुँच गये और उस लड़के से बोलेः “तुम्हारी उनकी नहीं बनती है तो मेरे यहाँ रहो । अब जाके झोंपड़ी में रहोगे और खेत-खली में तपोगे, काले बन जाओगे । ठाकुर जी जब थे तब थे, अब तुम ब्रह्मचारी होकर मेरे पास ही रह लो । भगवान को थोड़ा शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए । सर्वज्ञ हरि ! अपने सर्वज्ञ स्वभाव को भी जानो । ‘भागवत’ में आता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भी युधिष्ठिर महाराज के यज्ञ में साधुओं का सत्कार किया था, उनके चरण धोये थे, उनकी जूठी पत्तलें उठायी थीं ।”
सोलह वर्ष के भगवान को यह बात जँच गयी । वह लड़का प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के यहाँ जैसे आश्रम में साधक रहते हैं ऐसे रहा ।
यह प्राचीनकाल की कहानी नहीं है । इस युग की, नेहरू जी के जमाने की घटित घटना है । भगत होना अलग बात है, भावना अलग बात है लेकिन सत्य अलग बात है । वे कोई बुरे हैं ऐसी बात नहीं लेकिन वहीं के वहीं भावना के जगत में घूम रहे हैं । नामदेव जी भगवान के दर्शन करते थे, तब भी भगवान बोलेः ‘विसोबा खेचर के पास जाओ ।’ सती जी को शिवजी बोलते हैं कि वामदेव गुरु जी से दीक्षा लो और काली ने अपने पुजारी गदाधर को कहा कि तुम गुरु तोतापुरी जी से दीक्षा ले लो और गुरु तोतापुरी जी ने गदाधऱ पुजारी को रामकृष्ण परमहंस पद पर पहुँचाया । हम बचपन में शिवजी की उपासना करते थे और वही करते रहते तो हमें बहुत-बहुत तो शिवजी के जाग्रत में दर्शन हो जाते और शिवजी आकर वरदान, आशीर्वाद देकर अंतर्धान हो जाते पर मैं गुरु जी के चरणों में गया, डटा रहा तो मेरा उज्जवल अनुभव है । मेरा रब अब मेरे से दूर नहीं । अब मेरा प्रभु वरदान देकर अंतर्धान होने वाला नहीं, मेरे से बिछड़ने वाला नहीं, दूर नहीं, दुर्लभ नहीं ।
ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 199
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