दुःखी कब होना चाहिए ?

दुःखी कब होना चाहिए ?


(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

अवंति प्रदेश में कुरघर नगर है। वहाँ कोटिकर्ण नाम के एक साधु रहते थे। एक बार कातियानी उन साधु के दर्शन करने गयी। कोटिकर्ण परमात्मा में डुबकी मारकर बोलते थे। अतः उनका उपदेश सुनकर उसके चित्त को शांति मिली। कोटिकर्ण जहाँ प्रवचन कर रहे थे, वहाँ एक दीया जल रहा था। कातियानी के मन मे हुआ, ʹमैं और तो कोई सेवा कर नहीं सकती लेकिन घर में जो तेल पड़ा हुआ है वही सेवा में लगा दूँ।ʹ यह सोचकर वह दासी से बोलीः “जाओ, अपने घर में जो तेल पड़ा है वह ले आओ।”

दो दासियाँ गयीं तो घर में जायें उसके पहले देखा कि घर में सेधं लगाकर दो-तीन चोर अंदर घुसे हैं और उनका मुखिया बाहर नजर घुमा रहा है। दासियाँ घबरायी हुई लौटीं और कातियानी को कहाः “उठिये, घर चलिये। आपके घर में तो चोरों ने सेंध लगायी है। उनका मुखिया चारों तरफ नजर घुमा रहा था तो हम हिम्मत नहीं कर पायीं, हम भाग के आपके पास आयी है। चोर अपना धन-धान्य, माल-ठाल सब ले जायें उसके पहले घर को सँभालिये।।”

अब उनको पता नहीं था कि चुपके से चोरों का मुखिया भी पास में आकर सुन रहा है। उन्होंने तो स्त्री-स्वभाव से हतप्रभ होकर बोला और चोरों के मुखिया ने वह सब सुन लिया। कातियानी ने कहाः “चोर ले ले के क्या ले जायेंगे ? अनाज ले जायेंगे, गहने गाँठें ले जायेंगे, कपड़े ले जायेंगे। जो छोड़ के मरना है वही तो ले जायेंगे न ! तुम चुप बैठो, सत्संग सुनो। जो मरने के बाद भी साथ चलेगा, ऐसे सत्संग का ज्ञान भर लो। ये चीजें यदि चोर नहीं ले जायेंगे तो मृत्यु तो छुड़ा ही देगी। जो चीजें मृत्यु छुड़ा दे, उनके लिए इतना विह्वल होने की जरूरत नहीं है। कोई बात नहीं, आराम से चलेंगे, अभी सत्संग सुनेंगे।”

दासियों को तो आश्चर्य हुआ, साथ ही उस चोरों के मुखिया को भी आश्चर्य हुआ कि ʹहम नश्वर चीजों के लिए मरे जा रहे हैं और यह कातियानी बोलती है कि ʹलेने दो, इन चीजों को तो छोड़ के ही मरना है। चोर ले के कहाँ अमर हो जायेंगे। वे तो अपनी करनी का फल भोगेंगे। हम सत्संग छोड़कर क्यों घाटा सहें ?” धिक्कार है हमें कि हम करनी का भयंकर फल भोगना पड़े ऐसे दुष्कर्म कर रहे हैं !

चोरी का संकल्प करते समय हमें दुःखी होना चाहिए, चोरी करते समय हमें दुःखी होना चाहिए कि भविष्य में दुःख मिलेगा लेकिन हम उस समय दुःखी नहीं होते है, जब पुलिस पकड़ती है तब दुःखी होते हैं अथवा नरक मिलता है तब दुःखी होते हैं। हमारे में और मूर्ख में क्या फर्क ! हम तो महामूर्ख हैं।ʹ

दुष्कर्म करते समय जो संकल्प होता है, उसी समय दुःखी होना चाहिए। सत्संग में ऐसा ही प्रसंग निकल पड़ा कि ʹजो आदमी दुष्कर्म करता है, करते समय भी पश्चाताप नहीं करता। दुःसंकल्प और दुष्क्रिया के समय भी वह दुःखी नहीं होता लेकिन दुःसंकल्प और दुष्क्रिया का जब फल भोगता है तब आदमी दुःखी होता है। जैसे काम-विकार का संकल्प हुआ तो उसी समय दुःखी होना चाहिए लेकिन दुःखी नहीं होता, काम-विकार भोगते समय भी दुःखी नहीं होता, काम-विकार भोगने के बाद फें…… फें…. पश्चाताप करता है तथा बुढ़ापा और बीमारियों को बुलावा देता है।

ऐसे ही चोर चोरी का संकल्प करते समय दुःखी नहीं होते और चोरी करते समय भी दुःखी नहीं होते। जब उन अभागों को पुलिस का दंड मिलेगा तब दुःखी होंगे। जेल भोगेंगे तब दुःखी होंगे, नहीं तो नरकों में जब तपाये जायेंगे तब दुःखी होंगे। कैसे मूर्ख हैं चोर लोग !ʹ यह चोरों का मुखिया सुन रहा था।

सत्संग पूरा हुआ तो चोरों के मुखिया ने कातियानी के पैर पकड़ लिये, फिर जाकर अपने साथियों को कहाः “जो भी माल चुराया है, छोड़ के जल्दी इस देवी की शरण में आ जाओ। जो इतना धन-धान्य लुटने पर भी सत्संग को लुटने नहीं देती, वह तो पृथ्वी की देती है !”

चोरों ने माफी माँगी और उसके मुखिया ने भी माँगी।

कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया। उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया। सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा। कुसंगी व्यक्ति कुकर्म कर अपने को पतन के गर्त में डुबा देता है, सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है। ऐसी महान ताकत है सत्संग में !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2012, पृष्ठ संख्या 7,8 अंक 232

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *