स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती
मैं एक दिन ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम में गंगाकिनारे बैठा था। एक मित्र मेरे पास आकर बैठ गया और बोलाः “स्वामी जी ! संसार में किसी से मेरी आसक्ति नहीं है। मुझे आनंद चाहिए। इसके लिए आप जो आज्ञा करोगे, मैं वहीं करूँगा। यदि आप कहोगे तो विवाह भी कर सकता हूँ और आपके कहने पर शरीर भी छोड़ सकता हूँ।“
मैंने पूछाः “ईमानदारी से कहते हो ?”
“स्वामी जी ! पूरी ईमानदारी से।“
“यह आनंद पाने की इच्छा छोड़ दो!”
“छोड़ दी।“ अचानक उसके शरीर में कप्म हुआ। नेत्रों से टपाटप आँसू गिरने लगे। रोमांच हुआ। शरीर में चमक आयी। वह समाधिस्थ हो गया। उठने पर बोलाः “मैं समझ गया कि आनंद कैसा होता है।“
नारायण ! नित्यप्रातः शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मस्वरूप को त्यागकर अप्राप्त अनात्मवस्तु को चाहने का नाम ही मृत्यु है। यही असत्-अचित्-दुःख है। हमारे मन में प्राप्त वस्तु का तिरस्कार करके अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का जो संकल्प है, वह हमारे जीवन को दुःखी-अज्ञानी-जड़ बनाये हुए है। अपने आनंदस्वरूप पर इच्छा का पर्दा है। इच्छाएँ ही आनंद की आच्छादिका (ढकने वाली) हैं। इच्छामात्र छोड़ो और आनंद-ब्रह्मानुभूति करो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 7, अंक 309
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