श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण

ब्रह्मः अनन्त शक्तियों का पुंज

पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू

स्पन्दनशक्ति के अलावा और अनेकानेक शक्तियाँ ब्रह्म में समाविष्ट हैं।  ब्रह्म ही अनेक शक्तियों का पुंज है। ब्रह्म ही अपनी शक्तियों को जहां चाहे, प्रकट कर सकता है।

श्रीयोगवाशिष्ठ रामायण में कहा हैः

सर्वशक्तिमयो आत्मा।  आत्मा (परमात्मा) सब शक्तियों से युक्त है। वह जिस शक्ति की भावना जहां करे, वहीं अपने संकल्प द्बारा उसे प्रकट हुआ देखता है।

सर्वशक्ति हि भगवानयैव तस्मै हि रोचते।

भगवान ही सब प्रकार की शक्तियों वाला तथा सब जगह वर्तमान है। वह जहां चाहे अपनी शक्ति को प्रकट कर सकता है। वास्तव में नित्य, पूर्ण और अक्षय ब्रह्म में ही समस्त शक्तियाँ मौजूद हैं। संसार में कोई वस्तु ऐसी है ही नहीं जो सर्वरूप से प्रतिष्ठित ब्रह्म में मौजूद न हो। शांत आत्मा, ब्रह्म में ज्ञान शक्ति, क्रियाशक्ति आदि अनेकानेक शक्तियाँ वर्त्तमान हैं ही। ब्रह्म की चेतनाशक्ति शरीरधारी जीवों में दिखाई देती है तो उसकी स्पन्दनशक्ति, जिसे क्रियाशक्ति भी कहते हैं, हवा में दिखती है। उसी शक्तिरूप ब्रह्म की जड़शक्ति पत्थर में है तो द्रवशक्ति (बहने की शक्ति) जल में दिखती है। चमकने की शक्ति का दर्शन हम आग में कर सकते हैं। शून्यशक्ति आकाश में, सब कुछ होने की भवशक्ति संसार की स्थिति में, सबको धारण करने की शक्ति दशों दिशाओं में, नाशशक्ति नाशों में, शोकशक्ति शोक करने वालों में, आनन्दशक्ति प्रसन्नचित्त वालों में, वीर्यशक्ति योध्दाओं में, सृष्टि करने की शक्ति सृष्टि में देख सकते हैं। कल्प के अन्त में सारी शक्तियाँ स्वयं ब्रह्म में रहती हैं।

परमेश्वर की स्वाभाविक स्पन्दनशक्ति प्रकृति कहलाती है। वही जगन्माया नाम से भी प्रसिध्द है। यह स्पन्दनशक्तिरूपी भगनान की इच्छा इस दृश्य जगत की रचना करती है। जब शुध्द संवित में जड़शक्ति का उदय हुआ तो संसार की विचित्रता उत्पन्न हुई। जैसे चेतन मकड़ी से जड़ जाले की उत्पत्ति हुई वैसे ही चेतन ब्रह्म से प्रकृति उदभूत हुई। ब्रह्मानन्दस्वरूप आत्मा ही भाव की दृढ़ता से मिथ्यारूप में प्रकट हो रहा है।

प्रकृति के तीन प्रकार हैं- सूक्ष्म, मध्यम और स्थूल। तीनों अवस्थाओं में प्रकृति स्थित रहती है। इसी कारण प्रकृति भी तीन प्रकार की कहलाई। इसके भी तीन भेद हुए- सत्त्व, रज, तम। त्रिगुणात्मक प्रकृति को अविद्या भी कहते हैं। इसी अविद्या से प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सारा जगत अविद्या के आश्रयगत है। इससे परे परब्रह्म है। जैसे फूल और उसकी सुगन्ध, धातु और आभूषण, अग्नि और उसकी ऊष्णता एकरूप है वैसे ही चित्त और स्पन्दनशक्ति एक ही है। मनोमयी स्पन्दनशक्ति उस ब्रह्म से भिन्न हो ही नहीं सकती। जब चितिशक्ति क्रिया से निवृत्त होकर अपने अधिष्टान की ओर यानी ब्रह्म में लौट आती है और वहीं शांत भाव से स्थित रहती है तो उसी अवस्था को शांत ब्रह्म कहते हैं। जैसे सोना किसी आकार के बिना नहीं रहता वैसे ही परब्रह्म भी चेतनता के बिना, जो कि उसकी स्वभान है, स्थित नहीं रहता. जैसे तिक्तता के बिना मिर्च, मधुरता के बिना गन्ने का रस नहीं रहता वैसे चित्त की चेतनता स्पन्दन के बिना नहीं रहती।

प्रकृति से परे स्थित पुरूष सदा ही शरद ऋतु के आकाश की तरह स्वच्छ, शांत व शिवरूप है। भ्रमरूपवाली प्रकृति परमेश्वर की इच्छारूपी स्पन्दनात्मक शक्ति है। वह तभी तक संसार में भ्रमण करती है कि जब तक वह नित्य तृप्त और निर्विकार शिव का दर्शन नही करती। जैसे नदी समुद्र में पड़ कर अपना रूप छोड़कर समुद्र ही बन जाती है वैसे ही प्रकृति पुरूष को प्राप्त करके पुरूषरूप हो जाती है, चित्त के शांत हो जाने पर परमपद को पाकर तद्रूप हो जाती है।

जिससे जगत के सब पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जिसमें सब पदार्थ स्थित रहते हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, जो सब जगह, सब कालों में और सब वस्तुओं में मौजूद रहता है उस परम तत्त्व को ब्रह्म कहते हैं।

यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च।

यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नम:।।

ज्ञाता ज्ञानं तथाज्ञेयं द्रष्टादर्शनदृश्यभू:

कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञत्यात्मने नम:।।

स्फुरन्तिसीकरा यस्मादानन्दरस्याम्बरेsवनौ।

सर्वेषां जीवनं तस्मै ब्रह्मानन्दात्मने नम:।।

( ्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण१.१.१-२-३ )

जिससे सब प्राणी प्रकट होते हैं, जिसमें सब स्थित हैं और जिसमें सब लीन हो जाते हैं, उस सत्यरूप तत्त्व को नमस्कार हो!

जिससे ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय का दृष्टा-दर्शन-दृश्य का तथा कर्त्ता, हेतु और क्रिया का उदय होता है उस ज्ञानस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!

जिससे पृथ्वी और स्वर्ग में आनंन्द की वर्षा होती है और जिससे सब का जीवन है उस ब्रह्मानंदस्वरूप तत्त्व को नमस्कार हो!

ब्रह्म केवल उसको जाननेवाले के अनुभव में ही आ सकता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह अवाच्य, अनभिव्यक्त और इन्द्रियों से परे है। ब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव द्वारा ही होता है। वह परम पराकाष्ठास्वरूप है। वह सब दृष्टियों की सर्वोत्तम दृष्टि है। वह सब महिमाओं की महिमा है। वह सब प्राणिरूपी मोतियों का तागा है जो कि उनके हृदयरूपी छेदों में पिरोया हुआ है। वह सब प्राणिरूपी मिर्चों की तीक्षणता है। वह पदार्थ का पदार्थतत्त्व है। वह सर्वोत्तम तत्त्व है।

उस परमेश्ववर तत्त्व को प्राप्त करना, उसी सर्वेश्वर में स्थिति करना-यही मानव जीवन की सार्थकता है |