दैनिक हवन विधि
गायत्री
मंत्र
सर्वप्रथम
गायत्री
मंत्र का
उच्चारण करके
शिखा-बन्धन
अर्थात् अपने
केशों को
सुरक्षित करें-
ॐ
भूर्भुवः
स्वः । तत्
सवितुर्वरेण्यं
भर्गोदेवस्यधीमहि
। धियो यो नः
प्रचोदयात्
।। (यजुर्वेद 36.3)
भावार्थः
हे सर्वरक्षक,
प्राणाधार,
दुःखविनाशक,
सुखस्वरूप,
सत्-चित्-आनन्दघन-परमात्मन्
! आप सकल जड़
चेतन जगत के
उत्पन्न करने
वाले, दिव्यगुणयुक्त,
परमदयालु देव
हैं । हम आपके
वरण करने
योग्य उस 'भर्ग'
नामक तेज का
ध्यान करते
हैं, जो भर्ग
तेज हमारे
सूक्ष्म,
स्थूल और कारण
शरीर में
उत्पन्न होने
वाले समस्त पापों
का भर्जन करने
वाला है – भून
देने वाला है,
जो
आत्मिक-मानसिक-शारीरिक
सभी दोषों को
जला देने वाला
है । वह धारण
किया हुआ तेज
हमारी
बुद्धियों,
कर्मों,
प्राणशक्ति
और वाणी को
सदा सन्मार्ग
पर प्रेरित
करे ।
हे
सर्वप्रेरक,
सकल ऐश्वर्य
के स्वामी,
जन्म-मरण के
चक्र से
मुक्ति
दिलाने वाले,
सर्व-प्रकाशक,
सविता-पिता !
हमारी बुद्धि
आप से कभी
विमुख न हो ।
आप हमारी बुद्धियों
में सदैव
प्रकाशित
रहें । हम पर
अपनी अमोघ
कृपा-दृष्टि
की वृष्टि
सदैव सर्वत्र करते
रहें । हे
करुणानिधान !
मुझ उपासक की
इस विनम्र
प्रार्थना को
स्वीकार करें
तथा इस अबोध
का सब प्रकार
से कल्याण एवं
उद्धार करें ।
ईश्वर-स्तुति
प्रार्थना
उपासना मंत्र
ॐ
विश्वानि देव
सवितुर्दुरितानि
परासुव । यद्
भद्रं तन्न आ
सुव ।।
(यजुर्वेदः 30.3)
अर्थात्
हे सकल जगत के
उत्पत्तिकर्ता,
समग्र ऐश्वर्य
युक्त,
शुद्धस्वरूप,
सब दुःखों के
दाता
परमेश्वर ! आप
कृपा करके
हमारे
सम्पूर्ण
दुर्गुण,
दुर्व्यसन और
दुःखों को दूर
कर दीजिए । जो
कल्याणकारक
गुण, कर्म,
स्वभाव और
पदार्थ हैं,
वह सब हमको प्राप्त
कीजिये ।
आचमनः
पहले
हाथ धुलाएँ ।
फिर तीन बार
जल पीने के
लिए कहें । इन
मंत्रों को
क्रमशः
उच्चारित करते
हुए । ॐ
केशवाय नमः, ॐ
नारायणाय नमः,
ॐ माधवाय
नमः । इसके
बाद फिर हाथ
धोने के लिए
कहें और इस
मंत्र का
उच्चारण करें
। ॐ
ऋषिकेशाय नमः
इति
हस्तप्रक्षालनम्
।
ॐ शन्नो
देवीर्भिष्टय
ऽ आपो
भवन्तु पीतये
।
शँयोर्भिस्रवन्तु
नः ।
अर्थात्
हे सर्वरक्षक
सर्वप्रकाशक
प्रभो आप
हमारे लिए
अभीष्ट
सुखकारक,
पूर्ण आनन्द के
देने वाले तथा
कल्याणकारक
होवें, और
अपने परमानन्द
की हम पर सब ओर
से सदा वर्षा
कीजिए अर्थात्
हमें शान्ति
प्रदान कीजिए
।
पवित्रिकरणः
ॐ
अपवित्रः
पवित्रो वा
सर्वावस्थां
गतोऽपि वा
।
यः
स्मरेत्
पुण्डरीकाक्षं
स बाह्याभ्यंतरः
शुचिः ।।
तिलकः
ॐ
त्रिलोचन भव ।
ॐ
चन्दनस्य
महत्पुण्यं
पवित्रं
पापनानम ।
आपदां
हरते नित्यं
लक्ष्मीः
तिष्ठति
सर्वदा ।।
रक्षा
सूत्रः मौली
बाँधें
येन बद्धो
बलिराजा
दानवेन्द्रो
महाबल ।
तेन त्वां
प्रतिबध्नामि
रक्षे माचल
माचल ।।
दीप
प्रज्वलनः
भो दीप देवरूपस्तवं
कर्म
साक्षीह्यविघ्नकृत
।
यावत्
पूजासमाप्तिः
स्यात ताव्
त्वं सुस्थिरो
भव ।।
ॐ
दीपदेवताभ्यो
नमः,
ध्यायामि,
आवाहयामि,
स्थापयामि,
सर्वोपचारैः
गंधाक्षतपुष्पं
समर्पयामि ।
दीप
समर्पणः
दीपोस्तमो
नाशयन्ति
दीपः कान्तिं
प्रयच्छति ।
तस्माद्दीप
प्रदानेन
प्रीयतां मे
जनार्दनः ।।
दीपो
ज्योति परं
ब्रह्म दीपो
ज्योति
जनार्दनः ।
दीपो हरतु
मे पापं
दीपज्योतिः
नमोऽस्तु ते
।।
शुभं
करोतु
कल्याणं
आरोग्यं
सुखसंपदम् ।
शत्रुबुद्धि
विनाशाय
दीपोज्योतिः
नमोऽस्तु ते
।।
कलश
पूजनः
हाथ में
अक्षत पुष्प
लेकर कलश में
वरुणदेवता तथा
अन्य सभी
तीर्थों का
आवाहन करेंगे
ब्रह्माण्डोदरतीर्थानी
करैः
स्पृष्टानि ते
रवे ।
तेन
सत्येन मे देव
तीर्थं देहि
दिवाकरः ।।
अक्षत
पुष्प कलश पर
चढ़ा दें ।
ॐ गंगे च
यमुने चैव
गोदावरी
सरस्वति ।
नर्मदे
सिन्धु
कावेरी जलेऽस्मिन
सन्निधिं
कुरु ।।
ॐ वं
वरुणाय नमः । ॐ
वरुणदेवाय
नमः ।
रक्षा
विधानः
बायें हाथ
में अक्षत
लेकर दशों
दिशाओं में छाँटते
हुए निम्न
मंत्र बोलें
अपक्रमन्तु
भूतानि
पिशाचाः
सर्वतो दिशाः
।
सर्वेषामविरोधेन
यज्ञकर्म
समारम्भे ।
हवन
पूजन का
संकल्पः
ॐ विष्णुः
विष्णुः
विष्णुः
श्रीमद्भगवतो
महापुरुषस्य
विष्णोराज्ञया
प्रवर्तमानस्य,
अद्य
श्रीब्राह्मणोअह्नि
द्वितिये
परार्धे
श्रीश्वेतवाराहकल्पे,
सप्तमे
वैवस्वतमन्वन्तरे,
अष्टाविंशतितमे
युगे कलियुगे,
कलि प्रथम
चरणे,
भूर्लोके, जम्बूद्वीपे,
भारतवर्षे, ........
प्रदेशे.....
नगरे..... ग्रामे
मासानां
मासोत्तमेमासे
महामांगलिक
मासे....... मासे,
शुभे .... पक्षे, ....
तिथौ,
वासराधि...... वासरे,
अद्य अस्माकं
सद्गुरु देव
संत श्री
आशाराम जी
बापूनां
आपदां निवारण
अर्थे आयुः,
आरोग्यः, यशः,
कीर्तिः,
पुष्टिः तथा
आध्यात्मिक
शक्ति वृद्धि
अर्थे ॐ ह्रीं
ॐ मंत्रस्य
हवन काले
संकल्पं अहं
करिष्ये ।
स्वस्तिवाचन
प्राचीनकाल
से ही वैदिक
मंत्रों में
जितनी ऋचाएं
आई है, विवाह
मण्डप और अन्य
शुभ प्रसंगों
में हम जो स्वस्ति
वाचन करते है, शगुन
और तिलक में
भी इसकी प्रथा
है,
या
फिर जब कभी भी
हम कोई
मांगलिक
कार्य करते है
तो
स्वस्तिवाचन
की परंपरा रही
है. यह एक गहरा
विज्ञान है, जिसे
समझने की
आवश्यकता है।
स्वस्ति
न इन्द्रो
वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः
पुषा विश्ववेदाः
।
स्वस्ति
नस्तार्क्ष्यो
अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो
बृहस्पतिर्दधातु
॥
ॐ
भद्रं
कर्णेभिः
शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं
यदायुः ॥
इंद्र
यानी सामूहिक
चेतना . कहा
जाता है की इंद्र
के सहस्त्र
अक्ष यानी
आँखें होती
है. यह एक
विशाल जन समूह
जिसकी एक
चेतना हो ; उसका
प्रतीक है.
साधारण जन
समूह किसी ना
किसी मनोरंजन , राग
रंग जैसे की
क्रिकेट मैच , डांस
या गाने का शो
आदि में
एकाग्र होता
है. जैसे
इंद्र को
नृत्य गान आदि
पसंद है , वैसे
ही सामूहिक जन
चेतना ऐसी ही
गतिवधियों में
एकाग्र चित्त
होती है. यह
मॉब
मेंटालिटी का
प्रतीक है.
साधु- संत
-महात्मा , ऋषि-मुनि
उच्च चेतना
युक्त होते है
, पर
एकाकी और
एकांत वासी
होते है. देश
और समाज के
कल्याण के लिए
सामूहिक जन
चेतना उच्च
चेतना युक्त
महात्मा का
अनुकरण करे , सामाजिक
आन्दोलन शुभ
दिशा में हो ; यह
प्रार्थना
स्वस्ति वाचन
से की जाती है.
विश्व का
ज्ञान रखने
वाले पूषा
(सूर्य) हमारा
कल्याण करें; अरिष्टों
(कष्टों, विपदाओं)
का निवारण
करनेवाले, चक्र
के समान प्रबल
गरूडदेव
हमारे लिए
कल्याणकारी
हों; वाणी के
अधिष्ठाता
बृहस्पति
हमारे लिए
कल्याणप्रद
हों. ऊँ
शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः= हे परमात्मन्
हमारे
त्रिविध ताप
की शान्ति हो।
ॐ शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः।।
कानों
से हम
कल्याणकारक
शुभ भाषण
सुनें. आँखों
से हम
कल्याणकारक
वस्तु देखें।
स्थिर सुदृढ़
अवयवों से
युक्त शरीरों
से हम
तुम्हारी
स्तुति करते
हुए, जितनी
हमारी आयु है, वहाँ
तक हम देवों
का हित ही
करें अर्थात
देवत्व को
प्राप्त करे , सत्व
गुणों को
बढाते चले.
समाज में
बुराई आटे में
नमक के बराबर
हो तो चलता है ; पर जब
बुराई इतनी बढ़
जाए की नमक
में आटा हो तो
दुनिया में
त्राहि
त्राहि हो
जाती है. उससे
रक्षा करने की
भावना जगाने
वाला यह
मन्त्र है.
इस
भावना से जोड़
कर रोज़
स्वस्ति वाचन
पाठ किया जाए
तो आत्म
कल्याण और
समाज का
कल्याण अवश्य होगा।
गुरुस्तवन
हाथ में
अक्षत पुष्प लेकर
सद्गुरु देव
का ध्यान करें
।
गुरुब्रह्मा
गुरुविर्ष्णुः......
अक्षत
पुष्प
गुरुदेव का
ध्यान करते
हुए चित्र पर
छोड़ दें ,
चित्र के अभाव
में भूमि पर
ध्यान करते
हुए छोड़ दें
।
गणपति
मंत्र बोलें
गणपतिर्विघ्नराजो
लम्बतुण्डो
गजाननः ।
द्वैमातुरश्च
हेरम्ब
एकदन्तो
गणाधिपः ।
विनायकश्चारूकर्ण
पशुपालो
भवात्मजः ।
द्वादशैतानि
नामानि
प्रातरुत्थाय
यः पठेत्
विश्वं
तस्य
भवेद्वश्यं न
विघ्नं भवेत्
क्वचित् ।।
वक्रतुण्ड
महाकाय
सूर्यकोटि
समप्रभः निर्विघ्नं
कुरु मे देव
सर्वकार्येषु
सर्वदा ।
अग्नि
प्रज्वलन
इस मंत्र
के साथ अग्नि प्रज्वलित
करें । कपूर
को रखकर उसको
जला दें । साथ
में यह मंज्ञ
बोलते जायें ।
ॐ अग्निं
प्रज्वलितं
वन्दे जात
वेदं हुताशनम्
।
हिरण्यवर्णममलं
समिद्धं
विश्वतोमुखम्
।।
घृताहुति
नीचे लिखे
मंत्र को एक
बार पढ़कर घी
की एक आहुति
दें ।
ॐ अयन्त
इध्म आत्मा
जातवेदस्
तेनेध्यस्व
वर्धस्व
चेद्ध वर्धय ।
चास्मान् प्रजया
पशुभिर्
ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा
।।
इदमग्नये
जातवेदसे –
इदन्न मम ।।
अर्थात्-
हे
प्रकाशस्वरूप
परमेश्वर !
यज्ञाग्नि
में समर्पित
यह समिधा
अग्नि का जीवन
है । जिस
प्रकार इस
समिधा से
प्रत्येक
पदार्थ को प्रकाशित
करने वाली यह
अग्नि
प्रदीप्त
होती है और
खूब बढ़ती है,
उसी प्रकार आप
भी हमें
प्रजा, पशु,
ब्रह्मतेज,
खाने योग्य
अन्न तथा खाये
हुए अन्न को
पचाने योग्य
शक्ति से
समृद्ध करें –
यही हमारी
प्रार्थना है
।
सर्वप्रकाशक
प्रभु ! यह
आहुति आपको
समर्पित है,
यह मेरे लिये
नहीं है ।
चार
आहुतियाँ
केवल घृत की
दें, सामग्री
नहीं डालनी ।
इदन्न मम के
बाद यंत्र को
जल की कटोरी
में छाँटें ।
ॐ अग्नये
स्वाहा ।
इदमग्नये -
इदन्न मम ।।
ॐ सोमाय
स्वाहा । इदं
सोमाय – इदन्न
मम ।।
ॐ
प्रजापतये
स्वाहा । इदं
प्रजापतये –
इदन्न मम ।।
ॐ
इन्द्राय
स्वाहा ।
इदमिन्द्राय –
इदन्न मम ।।
गणपति
के लिए आठ
आहूतियाँ दें
अब आहुति
में सामग्री
भी डालनी है ।
ॐ गं
गणपतये नमः
स्वाहा । आठ
आहुतियाँ ।
देवताओं
के लिए
आहुतियाँ हर
मंत्र की एक
आहुति दें ।
ॐ
श्रीमन्महागणाधिपतये
नमः स्वाहा ।
ॐ श्री
गुरुभ्यो नमः
स्वाहा ।
ॐ इष्टदेवताभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
कुलदेवताभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
ग्रामदेवताभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
वास्तुदेवताभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
स्थानदेवताभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
लक्ष्मीनारायणाभ्यां
नमः स्वाहा ।
ॐ
उमामहेश्वराभ्यां
नमः स्वाहा ।
ॐ
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां
नमः स्वाहा ।
ॐ शचीपुरन्दनाभ्यां
नमः स्वाहा ।
ॐ
मातृपितृचरणकमलेभ्यो
नमः स्वाहा ।
ॐ
सर्वेभ्यो
देवेभ्यो नमः
स्वाहा ।
ॐ
सर्वेभ्यो
ब्राह्मणेभ्यो
नमः स्वाहा ।
पंच
प्राणाहुतिः
ॐ प्राणाय
स्वाहा ।
ॐ व्यानाय
स्वाहा ।
ॐ अपानाय
स्वाहा ।
ॐ समानाय
स्वाहा ।
ॐ उदानाय
स्वाहा ।
मुख्य
मंत्र की एक
माला करते हुए
अर्थात् 108 बार
उच्चारण करते हुए
108 आहुतियाँ
अग्नि में
डालें । ॐ
ह्रीं ॐ मंत्र
यदि
महामृत्युञ्जय
मंत्र का हवन
करना है तो उसका
विनियोग भी
पढ़ें ।
महामृत्युञ्जयमंत्र
विनियोग
हाथ में जल
लेकर विनियोग
करें ।
ॐ अस्य
श्री
महामृत्युञ्जय
मंत्रस्य
वशिष्ठ ऋषिः,
अनुष्टुप
छंदः, श्री
महामृत्युंजय
रुद्रो देवता,
हौं बीजं, जूं
शक्तिः, सः
कीलकं श्री
आशाराम जी
सद्गुरुदेवस्य
आयुः आरोग्यः
यशः कीर्तिः
तथा पुष्टिः
वृद्धि अर्थे
जपे तथा हवने
विनियोगः ।
हाथ में
रखे हुए जल को
जल के पात्र
में छोड़ दें
।
समर्पण
मंत्र हवन के
बाद
हे ईश्वर
दयानिधे !
भवत्कृपयाऽनेन
जपोपासनादि-कर्मणा
धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां
सद्यः
सिद्धिर्भवेन्नः
।
अर्थात्
हे ईश्वर
दयानिधे !
आपकी कृपा से
जो जो उत्तम
काम हम लोग
करते हैं, वे
सब आपके अर्पण
हैं, जिससे हम
लोग आपको प्राप्त
होकर धर्म – जो
सत्य न्याय का
आचरण करना है,
अर्थ – जो धर्म
से पदार्थों
को प्राप्त
करना है, काम –
जो धर्म और
अर्थ से इष्ट
भोगों का सेवन
करना है और
मोक्ष – जो सब
दुःखों से
छूटकर सदा
आनन्द में
रहना है – इन
चार पदार्थों
की सिद्धि
हमको शीघ्र
प्राप्त हो ।
नमस्कार
मंत्र
ॐ नमः
शम्भवाय च
मयोभवाय च नमः
शंकराय च
मयस्कराय च
नमः शिवाय च
शिवतराय च ।।
इस मंत्र
की 5 आहुतियाँ
दें-
ॐ यां
मेधां
देवगणाः
पितरश्चोपासते।
तया
मामद्य
मेधयाग्ने
मेधाविनं
कुरु स्वाहा।।
यजु. 32-14
अर्थात्-
विद्वानों के
समूह और
रक्षकों के समूह
जिस
निश्चयात्मक
उत्तम बुद्धि
का सेवन करते
हैं, हे
तेजस्वी
परमात्मन् ! उस
बुद्धि से आज
मुझे
बुद्धिमान
करो। मैं सर्वथा
त्याग करता
हूँ।
इस मंत्र
की 5 आहुतियाँ
दें-
ॐ
चित्तात्मिकां
महाचित्तिं चित्तस्वरूपिणीं
आराधयामि
चित्तजान
रोगान शमय शमय
ठं ठं ठं
स्वाहा ठं ठं
ठं स्वाहा |
अर्थात्-
‘हे
चित्तात्मिका, महाचित्ति, चित्तस्वरूपिणी
! मैं तेरी
आराधना करता
हूँ |
जगत – शक्तिदात्री
भगवती ! मेरे
चित्त के
रोगों का तू
शमन कर |’
समापन
की ओर-
दिवि
वा भुवि वा
ममास्तु वासो
नरके वा
नरकान्तक
प्रकामम्।
अवधीरितशारदारविन्दौ
चरणौ ते मरणेऽपि
चिन्तयामि।।
अर्थात्-
मैं चाहे
स्वर्ग में
रहूँ, पृथिवी
पर रहूँ या
नरक में रहूँ।
मेरी कामना
यही है कि मरणसमय
में आपके
चरणों का
स्मरण बना
रहे। हे प्रभो
! मैं यह
नहीं चाहता,
मेरा संसार
बन्धन छूट जाय।
दुःख-सुख तो
पूर्वजन्मोंम
के अनुरूप
प्रारब्धानुसार
होते रहें।
मैं तो यही
चाहता हूँ कि
मेरा किसी भी
योनि में जन्म
हो, आपके
चरणों में
भक्ति बनी रहे।
यह
बात सनकादि
कुमारों ने
भगवान से कही-
हमने आपके
पार्षदों को
क्रोध में
भरकर श्राप दे
दिया। इससे
भले ही हमें
नरक मिल,
किंतु वहाँ भी
आपके चरणों की
स्मृति बनी
रहे।
मंगलं
भगवान
विष्णुः
मंगलं
गरुड़ध्वज ।
मंगलं
पुण्डरीकाक्षं
मंगलाय तन्नो
हरि ।
कर्पूर
गौरं
करुणावतारं
संसारसारं
भुजगेन्द्रहारं
।
सदावसन्तं
हृदयारविन्दे
भवं भवानि
सहितं नमामि ।
सह
नाववतु। सह नौ
भुनक्तु। सह
वीर्यं
करवावहै।
तेजस्वि
नावधीतमस्तु।
मा
विद्विषावहै।।
ॐ शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः।
(कृष्णयजुर्वेदीय
शान्तिपाठ)
हम
दोनों साथ साथ
रक्षा करें,
एक साथ मिलकर
पालन पोषण
करें, साथ ही
साथ शक्ति
प्राप्त
करें। हमारा
अध्ययन तेजसे
परिपूर्ण हो।
हम कभी
परस्पर
विद्वेष न
करें। हें
ईश्वर !
हमारे
आध्यात्मिक,
आधिदैविक और
आधिभौतिक –
त्रिविध
तापों की
निवृत्ति हो।
ॐ
पूर्ममदः
पूर्णमिदं
पूर्णात्
पूर्ममुदच्यते
।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यत
।। स्वाहा ।।
इस
मंत्र को
उच्चारित
करते हुए ।
अन्तिम आहुति
डाल दें।
सामग्री सहित
। इसके बाद
सामग्री नहीं
डालनी है ।
ॐ शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः
घृत
की आहुतियाँ
दें
ॐ
श्रीपतये
स्वाहा ।
ॐ
भुवनपतये
स्वाहा ।
ॐ
भूतानांपतये
स्वाहा ।
ॐ अग्नये
स्विष्टकृते
स्वाहा । इदं
अग्नये स्विष्टकृते
न मम ।
ॐ सर्वं वै
पूर्णं
स्वाहा ।। इस
मंत्र की तीन
आहुतियाँ दें
केवल घृत से ।
वैश्विक
कल्याण की
प्रार्थना
दुर्जनः
सज्जनो
भूयात्
सज्जनः
शान्तिमाप्नुयात्।
शान्तो
मुच्येत
बन्धेभ्यो
मुक्तश्चान्यान
विमोच्यत्।।
स्वस्ति
प्रजाभ्याः
परिपालयन्ता
न्यायेन मार्गेण
महीं महीशाः।
गोब्राह्मणेभ्यः
शुभमस्तु
नित्यं लोकाः
समस्ताः
सुखिनो
भवन्तु।।
काले
वर्षतु
पर्जन्यः
पृथिवी
शस्यशालिनी।
देशोऽयं
क्षोभरहितो
ब्राह्मणाः
सन्तु
निर्भयाः।।
सर्वे
भवन्तु
सुखिनः सर्वे
सन्तु
ऩिरामयाः।
सर्वे
भद्राणि
पश्यन्तु मा
कश्चिद्
दुःखभाग्भवेत्।।
सर्वस्तरतु
दुर्गाणि
सर्वो
भद्राणि
पश्यतु।
सर्वः
सद्बुद्धिवाप्नोतु
सर्व सर्वत्र
नन्दतु।।
स्वस्ति
मात्रे उत
पित्रे नो
अस्तु स्वस्ति
गोभ्यो जगते
पुरुषेभ्यः।
विश्वं
सुभूतं
सुविदत्रं नो
अस्तु
ज्योगेव दृशेम
सूर्यम्।।
अपुत्राः
पुत्रिणः
सन्तु
पुत्रिणः
सन्तु पौत्रिणः।
अधनाः
सधनाः सन्तु
जीवन्तु
शरदां शतम्।।
दुर्जन
सज्जन बन
जायें। सज्जन
शान्ति लाभ करें।
शान्त पुरुष
सब प्रकार के
बन्धनों से
मुक्त हों।
मुक्त पुरुष
दूसरों को भी
जन्म-मृत्यु
के बन्धन से
छुड़ाने में
समर्थ हों। प्रजाजनों
का कल्याण हो।
राजा लोग
न्यायोचित मार्ग
से पृथ्वी का
शासन करें।
खेती तथा दूध
के लिए गौओं
का और ज्ञान
प्रसार के लिए
ब्राह्मणों
का सदा कल्याण
हो। सभी लोग
सुखी हों। मेघ
समय पर वर्षा
करें। भूमि
सदा हरी-भरी
रहे। हमारा यह
देश (विश्व)
क्षोभरहित हो
जाये। ब्राह्मणों
को किसी
प्रकार का भय
न रहे। समय पर
सुवृष्टि हो,
पृथ्वी
धन-धान्य से
परिपूर्ण हो-शस्यशालिनी
हो तथा हमारा
यह देश क्लेश
और क्षोभ
उत्पन्न करने
वाली सभी
बातों से रहित
हो जाये।
तत्त्व की खोज
में लगे रहने
वाले ब्राह्मण
सर्वथा
भयरहित होकर
तत्त्वानुसंधान
करें। सभी
प्राणी सुखी
हों। सब नीरोग
रहें। सभी
अच्छे दिन
देखें। जगत
में कोंई भी
दुःख का भागी
न हो। सभी लोग
संकटों की –
कठिनाइयों को
पार कर जायें।
सब लोग शुभ का
दर्शन करें। सब
लोगों को
सद्बुद्धि
प्राप्त हो।
सब लोग सर्वत्र
प्रसन्न
रहें। हमारे
पितरों का
कल्याण हो,
गौओं का
कल्याण हो,
जगत का और
मनुष्य मात्र
का कल्याण हो,
हमारे सभी
आत्मीय जन
सुखी
और
मङ्गलकारी
ज्ञानवाले
हों। हम दीर्घकाल
तक भगवान
सूर्य के
दर्शन किया
करें। जिनके
पुत्र नहीं
हैं वे
पुत्रवान हो
जायें,
पुत्रवान पौत्र
प्राप्त
करें। जो
निर्धन हैं,
वे धन-सम्पन्न
हो जाएँ, जो
पुत्र-पौत्र
और धन-सम्पन्न
हैं, वे
शतायु-पूर्णायु
प्राप्त
करें।
यह
प्रार्थना
अपने शुभ
कर्मों के
अन्त में करते
रहने से अपने
लिए पृथक
योगक्षेम की
प्रार्थना
करने की
आवश्यकता ही
नहीं रह जाती।
प्रार्थना
आरती आदि
अज्ञानाद्वा
प्रमादाद्व
वैकल्यात्
साधनस्य च।
यन्नयूनमतिरिक्तं
वा तत्सर्वं
क्षन्तुर्महसि।।
द्रव्यहीनं
क्रियाहीनं
मन्त्रहीनं
मयान्यथा।
कृतं
यत्तत्
क्षमस्वेश
कृपया त्वं
दयानिधे।।
यन्मया
क्रियते कर्म
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।
तत्सर्वं
तावकी पूजा
भूयाद भूत्यै
च मे प्रभो।।
भूमौ
स्खलितपादानां
भूमिरेवावलम्बनम्।
त्वयि
जातापराधानां
त्वमेव शरणं
प्रभो।।
अन्यथा
शरणं नास्ति
त्वमेव शरणं
मम्।
तस्मात्
कारूण्यभावेन
क्षमस्व
परमेश्वर।।
अपराधसहस्राणि
क्रियन्तेsहर्निशं
मया।
दासोsयमिति
मां मत्वा
क्षमस्व
जगतां पते।।
आवाहनं
न जानामि न
जानामि
विसर्जनम्।
पूजा
चैव न जानामि
त्वं गतिः
परमेश्वर।।
भगवन
अज्ञान से,
प्रमाद से तथा
साधन की कमी
से मेरे
द्वारा जो
न्यूनता या
अधिकता का दोष
बन गया हो, उसे
आप क्षमा
करें। ईश्वर !
दयानिधे !
मैंने जो
द्र्व्यहीन,
क्रियाहीन
तथा
मन्त्रहीन
विधिविपरीत
कर्म किया है
उसे आप
कृपापूर्वक
क्षमा करें।
प्रभो ! मैंने
जाग्रत,
स्वप्न और
सुषुप्ति
अवस्थाओं में
जो कर्म किया
है, वह सब
पूजारूप हो
जायें और मेरे
लिए
कल्याणकारी
हों। धरती पर
जो लड़खड़ाकर
गिरते हैं,
उनको सहारा देने
वाली भी धरती
ही है, उसी
प्रकार आपके
प्रति अपराध
करने वाले
मनुष्यों के
लिए भी आप ही शरणदाता
हैं।
परमेश्वर !
आपके सिवा
दूसरा कोई शरण
नहीं है। आप
ही मेरे शरणदाता
हैं। अतः
करूणापूर्वक
मेरी त्रृटियों
को क्षमा
करें।
जगत्पते !
मेरे द्वारा
रात दिन
सहस्रों अपराध
बनते हैंष अतः
'यह
मेरा दास है।'
ऐसा समझकर
क्षमा करें।
परमेश्वर !
मैं आवाहन
करना नहीं
जानता,
विसर्जन भी
नहीं जानता और
पूजा करना भी
अच्छी तरह
नहीं जानता, अब
आप ही मेरी
गति हैं –
सहारे हैं।
(नारद
पुराण)
संसारसागरे
मग्नं दीनं मा
करुणानिधे।
कर्मग्राहगृहीताङ्गं
मामुद्धर
भवार्णवात्।।
पद्म पुराण
हे
करुणानिधे !
मैं इस संसार
समुद्र में
डूबा हुआ हूँ।
मुझे कर्मरूपी
ग्राह ने पकड़
रखा है। आप
मुझ दीन का इस
भवसागर से
उद्धार
कीजिये।
यत्र
गत्वा न
शौचन्ति न
व्थन्ति
चरन्ति वा।
तदहं
स्थानमन्यतं
मार्गदिष्यामि
केवलम्।।
जहाँ
जाने के बाद
व्यथा नहीं
होती, पतन
नहीं होता उसी
मार्ग को मैं
पाना चाहता
हूँ।
मन्त्रहीनं
क्रियाहीनं
भक्तिहीनं
सुरेश्वरः।
यत्पूजितं
मया देव
परिपूर्णं
तदस्तु मे।।
देवेश्वर
!
देव ! मेरे
द्वारा किये
गये आपके पूजन
में जो मन्त्र,
विधि तथा
भक्ति की
न्यूनता हुई
हो, वह सब आपकी
कृपा से पूर्ण
हो जाये।
(पद्म पुराण।)
यजमान
परिवार को
आशीर्वाद
(पुष्पवर्षा)
ॐ सत्याः
सन्तु
यजमानस्य
कामाः ।
ॐ सफलाः
सन्तु
यजमानस्या
कामाः ।
ॐ पूर्णाः
सन्तु
यजमानस्य
कामाः ।
ॐ
सौभाग्यमस्तु,
शुभं भवतु,
कल्याणमस्तु
।
ॐ स्वस्ति,
स्वस्ति
स्वस्ति ।।
अर्थात्
यजमान की सभी
शुभकामनाएँ
सत्य, सफल और पूर्ण
हों । यजमान
परिवार में
सदा सौभाग्य,
शुभ तथा
कल्याण ही
कल्याण बना
रहे ।)
शान्ति-पाठ
ॐ द्यौः
शान्तिर्न्तरिक्षं
शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः
शान्तिरोषधयः
शान्तिः ।
वनस्पतयः
शान्तिर्विश्वेदेवाः
शान्तिर्ब्रह्म
शान्तिः
सर्वं शान्ति
शान्तिरेव
शान्तिः सा मा
शान्तिरेधि
।।
ॐ शान्तिः
शान्तिः
शान्तिः ।।
प्रदक्षिणा
करें
यज्ञवेदि (हवन
कुण्ड) की
यानि
कानि च पापानि
जन्मजन्मान्तर
कृतानि च ।
तानि
सर्वानि
नश्यन्ति
प्रदक्षिण
पदे पदे ।।
इसके
बाद ईशान कोण
की तरफ से हवन
की राख की तिलक
सभी को करें ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ