श्रीगणेशाय नमः
श्रीयोगवाशिष्ठ
द्वितीय भाग
निर्वाण प्रकरण
अनुक्रम
भुशुण्ड्यु पाख्याने सुमेरुशिखर लीलावर्णन
भुशुण्ड्यु पाख्याने अस्ताचललाभ
भुशुण्ड्यु पाख्याने जीवितवृत्तान्त वर्णन
द्वितीय भाग
निर्वाण प्रकरण प्रारम्भ
वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! उपशम प्रकरण के अनन्तर अब तुम निर्वाण प्रकरण सुनो जिसके जानने से तुम निर्वाणपद को प्राप्त होगे | बड़े उत्तम वचन मुनिनायक ने रामजी से कहे हैं और रामजी ने सब और ओर से मन खैंचकर मुनीश्वर के वाक्यों में स्थापित किया है | और राजालोग भी निस्स्पन्द हो गये मानो कागज पर चित्र लिखे हैं-और वशिष्ठजी के वचनों को विचरने लगे | राजकुमार भी विचारते और कण्ठ हिलाते थे और शिर और भुजा फेर के विस्मय को प्राप्त हुए | वे प्रसन्नता को प्राप्त हुए कि जिस जगत् को सत्य जानकर हम बिचरते थे वह है ही नहीं | ऐसा विचारकर वे आश्चर्य को प्राप्त हुए | तब दिन का चतुर्थभाग रह गया और सूर्य अस्त हुए-मानो वशिष्ठजी के वचन सुनकर वे भी कृतार्थ हुए हैं -सब तेजक्षीण हो गया और शीतलता प्राप्त हुई | स्वर्ग से जो सिद्ध और देवता आये थे उनके गले में मन्दार आदिक वृक्षों के फूल थे उनसे पवन के द्वारा सब स्थान सुगन्धित हो गये और भँवरे फूलों पर गुञ्जार करने लगे और झरोखों के मार्ग से सूर्य की किरणें आती थीं उनसे सूर्यमुखी कमल जो राजा और देवताओं के शीश पर थे वह सूख गये | जैसे मन से जगत् की सत्ता निवृत्त हो जाती है और वृत्ति सकुचाती जाती है | बालक जो सभा में बैठे थे और पिञ्जरों में जो पक्षी बैठे थे उनके भोजन का समय हुआ और बालकों के भोजन के निमित्त मातायें उठीं | जब चौथे पहर राजा की नौबत, नगारे, भेरी, शहनाई, बाजे बजने लगे और वशिष्ठजी जो बड़े ऊँचे स्वर से कथा कहते थे- उनका शब्द नगारे और बाजों से दब गया तब-जैसे वर्षाकाल का मेघ गरजता है और मोर बोलकर तूष्णींम् हो जाते हैं तैसे ही वशिष्ठजी तूष्णीम् हो गये | ऐसा शब्द हुआ कि जिससे आकाश, पृथ्वी और सब दिशा भर गये और पिञ्जरो में पक्षी पंखों को फैलाकर भड़ भड़ शब्द करने लगे-जैसे भूकम्प हुए से लोग काँपते और शब्द करते हैं और-बालक माता के शरीर से लिपट गये | इसके अनन्तर मुनिशार्दूल वशिष्ठजी बोले कि हे निष्पाप, रघुनाथ! मैंने तुम्हारे चित्तरूपी पक्षी के फँसाने के निमित्त अपना वाक््रूपी जाल फैलाया है, इससे अपने चित्त को वश करके तुम आत्मपद में लगो | हे रामजी! यह जो मैंने तुमको उपदेश किया है उसके सार में दुर्बुद्धि को त्यागकर चित्त को लगाओ | जैसे हंस जल को त्याग कर दूध पान करता है तैसे ही आदि से अन्तपर्यन्त सब उपदेश बारम्बार विचारकर सार को अंगीकार करो | इस प्रकार संसारसमुद्र से तरकर परमपद को प्राप्त होगे | अन्यथा न होगे | हे रामजी! जो इन वचनों को अंगीकार करेगा वह संसारसमुद्र से तर जावेगा और जो अंगीकार न करेगा वह नीच गति को प्राप्त होगा | जैसे विन्ध्याचल पर्वत की खाईं में हाथी गिरके कष्ट पाता है तैसे ही वह संसार में कष्ट पावेगा | हे रामजी! ये जो मेरे वचन हैं इनको ग्रहण न करोगे तो नीचे गिरोगे-जैसे पन्थी हाथ से दीपक त्यागकर रात्रि को गढ़े में गिरता है-और जो असंग होकर व्यवहार में विचरोगे तो आत्मसिद्धि को प्राप्त होगे | यह जो मैंने तुमको तत्त्वज्ञान, मनोनाश और वासनाक्षय कहा है इस अभ्यास से सिद्धि को प्राप्त होगे | यह शास्त्र का सिद्धान्त है | हे सभा! हे महाराजो, हे राम, लक्ष्मण और भूपतिलोगों! जो कुछ मैंने तुमसे कहा है उसको तुम विचारो, जो कुछ और कहना है उसे मैं प्रातःकाल कहूँगा | इतना कह वाल्मीकिजी बोले हे साधो! इस प्रकार जब मुनीश्वरों ने कहा तब सब सभा उठ खड़ी हुई और वशिष्ठजी के वचनों को पाकर सब खिल आये-जैसे सूर्य को पाकर कमल खिल आता है | वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों इकट्ठे उठे और वशिष्ठजी विश्वामित्र को अपने आश्रम में ले गये आकाशचारी देवता और सिद्ध वशिष्ठजी को नमस्कार करके अपने अपने स्थानों को गये, राजा दशरथ अर्ध्य पाद्य से वशिष्टजी का पूजन करके अपने अन्तःपुर में गये और श्रोता लोग भी आज्ञा लेकर और वशिष्ठजी का पूजन करके अपने अपने स्थानों में गये | राजकुमार अपने मण्डल को गये, मुनीश्वर वन में गये और राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न वशिष्ठजी के आश्रम को गये और पूजा करके फिर अपने गृह में आये | सब श्रोता अपने अपने स्थानों को जाकर स्नानसन्ध्यादिक कर्म करने लगे, पितर और देवताओं की पूजा और ब्राह्मणों से लेकर भृत्य पर्यन्त सबको भोजन कराकर अपने मित्र और भाइयों के साथ भोजन किया और यथाशक्ति अपने वर्णाश्रम के धर्म को साधा | जब सूर्य भगवान् अस्त हुए और दिन की क्रिया निवृत्त हो गई तब रात्रि हुई और निशाचर बिचरने लगे तब भूचर, राजऋषि और राजपुत्र आदिक जो श्रोता थे सो रात्रि को एकान्त में अपने अपने आसन पर बैठकर विचारने लगे | राजकुमार और राजा अपने अपने स्थानों पर बैठे और ब्राह्मण, तपस्वी कुशादिक बिछाकर बैठे विचारते थे कि संसार के तरने का क्या उपाय कहा है, और जो वशिष्ठजी ने वचन कहे थे उनमें भले प्रकार चित्त को एकाग्र कर और भले प्रकार विचारकर निद्रा को प्राप्त हुए | जैसे सूर्य उदय हुए पद्मिनियाँ मुँद जाती हैं तैसे ही वे सब सुषुप्ति को प्राप्त हुए, पर राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न तीन पहर वशिष्ठजी के उपदेश को विचारते रहे और आधे पहर सोकर फिर उठे |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे दिवसरात्रिव्यापारवर्णनन्नाम प्रथमस्सर्गः ||1||
वाल्मीकिजी बोले, हे साधो! इस प्रकार जब रात्रि व्यतीत हुई और तम का नाश हुआ तब राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्नादिक स्नान और सन्ध्यादिक कर्म करके वशिष्ठजी के आश्रम में जा स्थित हुए | वशिष्ठजी भी संन्ध्यादिक करके अग्निहोत्र करने लगे और जब कर चुके तब रामादिक ने उनको अर्ध्य पाद्य से पूजा और चरणों पर भले प्रकार मस्तक रक्खा | जब राम जी गये थे तब वशिष्ठजी के द्वारे पर कोई न था पर एक घड़ी में अनेक सहस्त्र जीव आये और वशिष्ठजी रामादिक को साथ लेकर राजा दशरथ के गृह में आये | तब राजा दशरथ उनकी अगवानी को आगे आये और वशिष्ठजी का आदर व पूजन किया और दूसरे लोगों ने भी बहुत पूजन किया | निदान नभचर और भूचर जितने श्रोता थे वे सब आये और नमस्कार करके बैठे और सब निस्स्पन्द और एकाग्र होकर स्थित भये | जैसे निस्स्पन्द वायु से कमलोंकी पंक्ति अचल होती है तैसे वे बैठे | भाटजन जो स्तुति करनेवाले थे वे भी एक ओर बैठे और सूर्य की किरणें झरोखों के मार्ग से आईं - मानो किरणें भी वशिष्ठजी के वचन सुनने को आई हैं | तब वशिष्ठजी की ओर रामजी ने देखा जैसे स्वामिकार्त्तिक शंकर की ओर, कच बृहस्पति की ओर और प्रह्लाद शुक्र की ओर देखें तैसे ही रामजी की दृष्टि औरों को देखते-देखते वशिष्ठजी पर आ स्थित हुई | तब वशिष्ठ जी ने रामजी की ओर देखा और बोली, हे रघुनन्दन! मैंने जो तुमको उपदेश किया है वह तुमको कुछ स्मरण है? वे वचन परमार्थबोध के कारण, आनन्दरूप और महागम्भीर हैं | अब और भी बोध के कारण और अज्ञानरूपी शत्रु के नाशकर्त्ता, इन्दुप्रभा वचनों को सुनो निरन्तर आत्मसिद्धान्त शास्त्र मैं तुमसे कहता हूँ | हे रामजी! वैराग्य और तत्त्व के विचार से संसारसमुद्र को तरता है और सम्यक््तत्त्व के बोध से जब दुर्बोध निवृत्त हो जाता है तब वासना का आवेश नष्ट हो जाता है और निर्दुःखपद को प्राप्त हो जाता है वह पद देशकाल और वस्तु के परिच्छेद से रहित है | वही ब्रह्म जगत््रूप होकर स्थित हुआ है और भ्रम से द्वैत की नाईं भासता है | वह सब भावों से अविच्छिन्न सर्वत्र ब्रह्म है, इस प्रकार महत् स्वरूप जानकर शान्तिमान् हो | हे रामजी! केवल ब्रह्म तत्त्व अपने आपमें स्थित है, न कुछ चित्त है, न अविद्या है, न मन है, न जीव है, यह सब कलना ब्रह्म में भ्रम से फुरती हैं | जो स्पन्द फुरना दृश्य और चित्त है सो कलनारूप संभ्रम है | ब्रह्म में कोई पदार्थ नहीं | हे रामजी! स्वर्ग, पाताल और भूमि में सदाशिव से तृण पर्यन्त जो कुछ दृश्य है वह सब परब्रह्म है-चिद्रूप से अन्य नहीं | उदासीन और मित्र, बाँधव से लेकर सब ब्रह्म है जबतक अज्ञान कलना से जगत् में बुद्धि स्थित है और ब्रह्मभाव नानात्व है तबतक चित्तादि कलना होती है, जब तक देह में अहंभाव है और अनात्मदृश्य में ममत्व है तबतक चित्त आदिक भ्रम होता है और जबतक सन्तजन और सत््शास्त्रों से ऊँचे पद को नहीं पाया और मूर्खता क्षीण नहीं हुई तबतक चित्तादिक भ्रम होता है | हे रामजी! जबतक देहाभिमान शिथिलता को नहीं प्राप्त हुआ, संसार की भावना नहीं मिटी और सम्यक््ज्ञान करके स्थिति नहीं पाई, जबतक चित्तादिक प्रकट हैं, तबतक अज्ञान से अन्धा है और विषयों की आशा के आवेश से मूर्छित है और मोह मूर्च्छा से नहीं उठा तब तक चित्तादिक कलना होती है | हे रामजी! जबतक आशारूपी विष की गन्ध हृदयरूपी वन में होती है तबतक विचाररूपी चकोर नहीं प्राप्त होता और भोगवासना नहीं मिटती | जब भोगों की आशा मिट जावे और सत्य शीतलता और संतुष्टता में हृदय प्राप्त हो तब चित्तरूपी भ्रम निवृत्त हो जाता है | जब मोह और तृष्णा निवृत्तकरिये और नित्य अभ्यास हो तब चित्त शान्त भूमिका को प्राप्त होता है हे रामजी! जिस पुरुष की स्थिति स्वरूप में हुई है वह आपको देह से देखता है | उस सम्यक््दर्शी के चित्त की भूमिका कहते हैं | जब अनन्त चेतनतत्त्व की भावना होती है और दृश्य को त्यागकर आत्मस्वरूप में प्राप्त होता है तब वह पुरुष सब जगत् को अपना अंग ही देखता है अर्थात् सब अपना स्वरूप देखता है | ऐसा जो आत्मरूप देखता है उसको जीवत्वादिक भ्रम कहाँ है? जब अज्ञान भ्रम निवृत्त होता है | तब परम अद्वैत पद उदय होता है | जैसे रात्रि के क्षीण हुए उदय होता है तैसे ही मोह के निवृत्त हुए आत्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है और जब स्वरूप का साक्षात्कार होता है तब चित्त नष्ट हो जाता है | जैसे सूखा पत्र अग्नि में दग्ध हो जाता है तैसे ही ज्ञानवान् का चित्त नष्ट हो जाता है | हे रामजी! जीवन्मुक्त जो महात्मा पुरुष और परावरदर्शी है और जिसको सर्वत्र ब्रह्म ही दीखता है उसका चित्त सत्यपद को प्राप्त होता है | वह चित्त सत्य कहाता है और उसमें वासना भी दृष्टि नहीं आती | वह चैतन्यमन है और वह चित्त सत्यपद को प्राप्त हुआ है | यह जगत् ज्ञानवान् को लीलामात्र भासता है और वह हृदय से शान्तिरूप और नित्यतृप्त है उसको सर्वदा आत्मज्योति भासती है, विवेक से उसके चित्त से जगत् की सत्ता निवृत्त हो गई है और स्वरूप में उसने स्थिति पाई है सो चित्तसत्ता कहाती है | फिर वह कर्म चेष्टा करता भी दृष्टि आता है और मोह को नहीं प्राप्त होता जैसे भुना बीज नहीं उगता तैसे ही ज्ञानी की चेष्टा जन्म का कारण नहीं और जो अज्ञानी हैं उनकी वासना मोह संयुक्त है | जैसे कच्चा बीज उगता है तैसे ही अज्ञानी वासना से फिर जन्म लेता है और जिस चित्त से आसक्ति निवृत्त हुई है उसकी वासना जन्म का कारण नहीं | वह चित्तसत्ता कहाती है | हे रामजी! जिन पुरुषों ने पाने योग्य पद पाया है और ज्ञानाग्नि से चित्त दग्ध किया है वे फिर जन्म नहीं लेते | जो कुछ जगत् है उनको सब ब्रह्मरूप है जैसे वृक्ष और तरु नाममात्र दो वास्तव में एक ही है, तैसे हि ब्रह्म और जगत् नाम मात्र दोनों हैं, पर वास्तव में एक ही है | जैसे जल में तरंग और बुद्बुदे जलरूप हैं तैसे ही ब्रह्म में जगत् ब्रह्मरूप है | चैतन्य आत्मारूपी मिरच में जगत््रूपी तीक्ष्णता है | हे रामजी! ऐसे ब्रह्म तुम हो | जो तुम कहो कि मैं चित्त नहीं तो कुछ माना जाता है, क्योंकि जो तुम कहो मैं जड़ हूँ तो तुम आकाशवत् हुए तुम्हारे में कलना का उल्लेख कैसे हो? जो चैतन्य हो तो शोक किसका करते हो जो चिन्मय हो तो निरायास आदि अन्त से रहित हुए | निदान सब तुमही हो अपने स्वरूप को स्मरण करो तब शान्ति पावोगे | जो सब भाव में स्थित हो और सबको उदय करनेवाले शान्तरूप, चैतन्य और ब्रह्मरूप हो | हे रामजी! ऐसी जो चैतन्यरूपी शिला है उसके उदय में वासनारूपी फुरना कहाँ हो? वह तो महाघनरूप है | हे रामजी! जो तुम हो सोई हो, उसमें और तुम्हारे में कुछ भेद नहीं | वही सत् और असत् रूप होकर भासता है, जिसके अन्तर सब पदार्थ हैं और जिसमें नानात्व और `अहं' `त्वं', `अज्ञ' `तज्ञ' की कुछ कलना नहीं | ऐसा जो सत्यरूप चिद्घन आत्मा है उसको नमस्कार है | हे रामजी! तुम्हारी जय हो | तुम आदि और अन्त से रहित विशाल हो और शिला के अन्तर्वत् चिद्घनस्वरूप आकाशवत् निर्मल हो | जैसे समुद्र में तरंग हैं तैसे ही तुम्हारे में जो जगत् है सो लीला मात्र है | तुम अपने घनस्वरूप में स्थित हो |
इति श्री योगवाशीष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्रामदृढ़ीकरणं नाम द्वितीयस्सर्गः ||2
वशिष्ठजी बोले, हे निष्पाप, रामजी!जिस चैतन्यरूपी समुद्र में जगत््रूपी तरंग फुरते और लीन हो जाते हैं ऐसे अनन्त आत्मभाव की भावना से मुक्त और भाव अभाव से रहित हो | ऐसा जो चिदात्म तुम्हारा स्वरूप है वही सब जगत््रूप है तब वासनादिक आवरण कहाँ हैं? जीव और वासना सब आत्मा का किञ्चन है दूसरी वस्तु कुछ नहीं तब और कथा और प्रसंग कैसे हो? हे रामजी! महासरल गम्भीर और प्रकाशरूप जो चैतन्य समुद्र है वह तुम्हारा रूप है और रामरूपी एक तरंग फुर आया है सो समुद्र तुम हो ऐसा जो आत्मतत्त्व है वह जगत्् रूपी होकर भासता है | जैसे अग्नि से उष्णता, फूल से सुगन्ध, कज्जल से कृष्णता, बरफ से शुक्लता, गुड़ से मधुरता और सूर्य से प्रकाश भिन्न नहीं तैसे ही ब्रह्म से अनुभव भिन्न नहीं-नित्यरूप है | अनुभव से अहं भिन्न नहीं, अहं से जीव भिन्न नहीं, जीव से मन भिन्न नहीं, मन से इन्द्रियाँ भिन्न नहीं, इन्द्रियों से देह भिन्न नहीं और देह से जगत् भिन्न नहीं | इस प्रकार महाचक्र जो प्रवृत्त की नाईं हुआ है सो कुछ हुआ नहीं, न शीघ्र प्रवर्तन है, न चिरकाल का प्रवर्ता है, न कोई न्यून है और न अधिक है, सर्वदा एक अखण्डसत्ता परमात्मतत्त्व है जैसे आकाश में आकाश स्थित है तैसे ही ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित है | वही सत्ता वज्रभूत और वही पूर्ण होकर स्थित है, द्वैतकल्पना कुछ नहीं | ऐसे अपने स्वरूप में जो पुरुष स्थित है वह जीवन्मुक्त है | ऐसा जो ज्ञानवान् है वह मन, इन्द्रियों और शरीर की चेष्टा भी करता है पर उसको कर्तव्य का लेप नहीं लगता | हे रामजी! ज्ञानवान् को न कुछ त्यागने योग्य रहता है और न ग्रहण करने योग्य है, वह सब पदार्थों से निर्लेप रहता है जबतक इनको ग्रहण और त्याग की बुद्धि होती है तबतक संसार के सुख दुःख का भागी होता है और इससे हेयोपादेय जिसको अभाव है वह सुख दुःख का भागी नहीं होता | हे रामजी! जो कुछ जगत् है वह एक अद्वैत आत्मतत्त्व है, अन्य कुछ नहीं | जैसे घट मठ की उपाधि से आकाश नाना प्रकार का भासता है और समुद्र तरंग से अनेक रूप भासता है पर नानात्वभाव को नहीं प्राप्त होता तैसे ही आत्मा में नाना प्रकार का जगत् भासता है और नानात्व को नहीं प्राप्त होता | ऐसे स्वरूप को जानकर उसमें स्थित हो, बाहर से अपने वर्णाश्रम का व्यवहार करो पर हृदय से पत्थर की नाईं हर्ष शोक से रहित हो | संवित्तमात्र आत्मा को जो अपना रूप देखता है वही सम्यक््दर्शी है और उसका अज्ञान और मोह नष्ट हो जाता है | जैसे नदी का वेग मूलसहित तट के वृक्ष को काटता है तैसे ही आत्मज्ञान मोह सहित अज्ञान को काटता है | मित्रता, वैर, हर्ष, शोक, राग, द्वेष आदिक जो विकार हैं वे चित्त में रहते हैं सो उसका चित्त नष्ट हो जाता है | हे रामजी! ज्ञानी सोता भी दृष्टि आता है पर कदाचित् नहीं सोता जिसका अनात्मा में अहं भाव निवृत्त हुआ है और जिसकी बुद्धि लेपायमान नहीं होती वह पुरुष इस लोक को मारे तो भी उसने कोई नहीं मारा और न वह बन्धायमान होता है | हे रामजी! जो वस्तु न हो और भासे उसको मायामात्र जानिये, जानने से वह नष्ट हो जावेगी | जैसे तेल बिना दीपक शान्त हो जाता है तैसे ही ज्ञान से वासना क्षय हो जाती है और चित्त अचित्त हो जाता है | जिसको सुख दुःख में ग्रहण त्याग नहीं वह जीवन्मुक्त आत्मस्थित है |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मैकप्रतिपादनन्नाम तृतीयस्सर्गः ||3||
वशिष्ठजी बोले हे रामजी! मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रयादिक जो दृश्य हैं वह अचिन्त्य चिन्मात्र है और जीव भी उससे अभिन्नरूप है | जैसे सुवर्ण और भूषण में भेद कुछ नहीं तैसे ही चिन्मात्र और जीवादिक अभिन्न हैं | जबतक चित्त अज्ञान में होता है तबतक जगत् का कारण होता है और जब अज्ञान नष्ट हो जाता है तब चित्तादिक का अभाव हो जाता है अध्यात्मविद्या जो वेदान्तशास्त्र है उसके अभ्यास से अज्ञान नष्ट हो जाता है | जैसे अग्नि के तेज से शीत का अभाव हो जाता है तैसे ही अध्यात्मविद्या के विचार और अभ्यास से अज्ञान नष्ट हो जाता है | जबतक अज्ञान का कारण तृष्णा उपशम को नहीं प्राप्त हुई तबतक अज्ञान है- और जबतृष्णा नष्ट हो तब जानिये कि अज्ञान का अभाव हुआ | हे रामजी! तृष्णारूपी विषूचिका रोग के नाश करने का मन्त्र अध्यात्मशास्त्र ही है, उसके अभ्यास से तृष्णा क्षीण हो जाती है | जैसे शरत््काल में कुहिरा नष्ट हो जाता है, तैसे ही आत्मअभ्यास से चित्त शान्त हो जाता है, और जैसे शरत््काल में मेघ नष्ट होजाता है तैसे ही विचार से मूर्खता नष्ट हो जाती है | जब चित्त अचित्तता को प्राप्त होता है तब वासनाभ्रम क्षीण हो जाता है जैसे तागे से मोती पिरोये होते हैं और तागे के टूटे से मोती भिन्न भिन्न हो जाते हैं तैसे ही अज्ञान के नष्ट हुए मनादिक सब नष्ट हो जाते हैं | जो पुरुष अध्यात्म शास्त्र के अर्थ को नहीं धारण करते और न प्रीति ही करते हैं वे पापी कीटादिक नीच योनि को प्राप्त होंगे | हे कमलनयन! तुम्हारे में जो कुछ मूर्खता और चञ्चलता थी वह नष्ट हो गई है और जैसे पवन के ठहरने से जल अचल होता है तैसे ही तुम स्थिर और भाव अभाव से रहित परम आकाशवत् निर्मल पद को प्राप्त हुए हो | हे रामजी! मैं ऐसे मानता हूँ कि मेरे वचनों से तुम बोधवान् हुए हो और विस्तृत अज्ञानरूपी निद्रा से जागे हो | समान जीव भी हमारी वाणी से जग आते हैं, और तुम तो अति उदार बुद्धि हो तुम्हारे जागने में क्या आश्चर्य है? हे रामजी! जब गुरु भी दृढ़ होता है और शिष्य भी शुद्धपात्र होता है तब गुरु के वचन उसके हृदय में प्रवेश करते हैं सो मैं गुरु भी समर्थ हूँ कि मुझको अपना स्वरूप सदा प्रत्यक्ष है और सत््शास्त्र के अनुसार मैंने वचन कहे हैं और तेरा हृदय भी शुद्ध है उसमें प्रवेश कर गये हैं | जैसे तप्त पृथ्वी के क्षेत्र में जल प्रवेश कर जाता है तैसे ही हृदय में वचनों ने प्रवेश किया है | हे राघव! हम महानुभाव रघुवंश कुल के बड़े गुरु के गुरु हैं ,हमारे वचन तुमको धारने आते हैं | अब खेद से रहित होकर अपने प्रकृत आचार को करो | इतना कहकर बाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब मुनीश्वर ने कहा तब सूर्य अस्त होने लगा और सब सभासद परस्पर नमस्कार करके अपने अपने स्थानों को गये | रात्रि के व्यतीत हुए सूर्य की किरणों के निकलते ही फिर आ बैठे |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चित्तभावाभाववर्णनन्नामचतुर्थस्सर्गः ||4||
रामजी बोले, हे मुनीश्वर! मैं परम स्वस्थता को प्राप्त होकर अपने आप में स्थित हूँ और आपके वचनों की भावना से जगज्जाल के स्थित हुए भी मुझको शान्ति हो गई है | आत्मानन्द से मैं तृप्त हुआ हूँ-जैसे बड़ी वर्षा से पृथ्वी तृप्त होती है-और प्रसन्नता को पाकर स्थित हूँ | सब ओर से केवल आत्मारूप मुझको भासता है और नानात्व का अभाव हुआ है | जैसे कुहिरे से रहित दिशा और आकाश निर्मल भासता है तैसे ही सम्यक््ज्ञान से मुझको शुद्ध आत्मा भासता है और मोह निवृत्त हो गया है | मोहरूपी जंगल में जो तृष्णारूपी मृग और रागद्वेष आदिक धूलि और कुहिरा था सो सब निवृत्त हो गया है और ज्ञानरूपी वर्षा से सब शान्त हो गये है | अब मैं आत्मानन्द को प्राप्त हुआ हूँ, जो आदि अन्त से रहित और अमृत है बल्कि अमृत का स्वाद भी उसके आगे तुच्छ भासता है | ऐसे आनन्द से मैं अपने स्वभाव में प्राप्त हुआ हूँ मैं राम हूँ अर्थात् सबमें रमने वाला हूँ, मेरा मुझको नमस्कार है | अब में सब सन्देह से रहित हूँ और सब संशय और विकार मेरे नष्ट हुए हैं | जैसे प्रातःकाल होने से निशाचर और वैताल आदिक निवृत्त हो जाते हैं तैसे ही राग द्वेषादिक विकारोंका अभाव हुआ और निर्मल हृदय कमल में मैं स्थित हूँ | जैसे भँवरा फिरता फिरता कमल में आ स्थित होता है तैसे ही मैं आत्मरूपी सार में स्थित हूँ | अविद्यारूपी कलंक आत्मा को कहाँ था मैं तो निश्चय से निर्मलताको प्राप्त हुआ हूँ |जैसे सूर्य के उदय हुए तम का अभाव हो जाता है तैसे ही मेरी संशय और अविद्या नाश हुई है | अब मुझे सर्व आत्मा भासता है और कलना कोई नहीं | भावित आकार अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ | मैं पूर्व प्रकृति को देखके हँसता हूँ कि क्या जानता था और क्या करता था | मैं तो नित्य शुद्ध ज्यों का त्यों आदि अन्त से रहित हूँ | हे मुनीश्वर! तेरे वचनरूपी अमृत के समुद्र में मैंने स्नान किया है और उससे अजर-अमर आनन्दपद को पाकर सूर्य से भी ऊँचे पद को प्राप्त हुआ हूँ और वीतशोक होकर परम शुद्धता, समता, शीतलता और अद्वैत अनुभव को प्राप्त हूँ |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे राघवविश्रान्तिवर्णनन्नाम पञ्चमस्सर्गः ||5||
अज्ञानमाहात्म्यवर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम वचन सुनो; तुम्हारे हित की कामना से मैं कहता हूँ | अब तुम आत्मपद को प्राप्त हुए हो परन्तु बोध की वृद्धि के निमित्त फिर सुनो, जिसके सुनने से अल्पबुद्धि भी आनन्दपद को प्राप्त हो | हे रामजी! जिसको अनात्म में आत्माभिमान है और आत्मज्ञान नहीं हुआ उसको इन्द्रियरूपी शत्रु दुःख देते हैं जैसे निर्बल पुरुषको चोर दुःख देते हैं और जिसकी आत्मपद में स्थिति हुई है उसको इन्द्रियाँ दुःख नहीं देतीं-जैसे दृढ़ राजा के शत्रु भी मित्र हो जाते हैं तैसे ही ज्ञानवान् के इन्द्रियगण मित्र होते हैं | जिन पुरुषों की देह में स्थित बुद्धि है और इन्द्रियों के विषय की सेवना करते हैं उनको बड़े दुःख प्राप्त होते हैं | हे राम जी! आत्मा और शरीर का सम्बन्ध कुछ नहीं है | जैसे तम और प्रकाश विलक्षण स्वभाव हैं तैसे ही आत्मा और देह का परस्पर विलक्षण स्वभाव है | आत्मा सर्वविकारों से रहित, नित्यमुक्त, उदय अस्त से रहित और सबसे निर्लेप है और सदा ज्यों का त्यों प्रकाशरूप भगवान् आत्मा सतरूप है उसका सम्बन्ध किससे हो? देह जड़ और असत्य, अज्ञानरूप, तुच्छ, विनाशी और अकृतज्ञ है उसका संयोग किस भाँति हो? आत्मा चैतन्य, ज्ञान, सत् और प्रकाशरूप है उसका देह के साथ कैसे संयोग हो? अज्ञान से देह और आत्मा का संयोग भासता है, सम्यक््ज्ञान से संयोग का अभाव भासता है | हे रामजी! ये मैंनें निपुण वचन कहे हैं, इनका बारम्बार अभ्यास करने से संसार मोह का अभाव हो जावेगा | जब संसार का कारण मोह निवृत्त हुआ तब फिर उसका सद्भाव न होगा जबतक अज्ञानरूपी निद्रासे दृढ़ होकर नहीं जागता तबतक आवरण रहता है | जैसे निद्रा के जागे से फिर निद्रा घेर लेती है पर जब दृढ़ होके जागे तब फिर नहीं घेरती, तैसे ही दृढ़ अभ्यास से अज्ञान निवृत्त हुआ फिर आवरण न करेगा | इससे मोह और दुःख निवृत्ति के अर्थ दृढ़ अभ्यास करो| हे रामजी! आत्मा देह के गुण को अंगीकार नहीं करता, यदि देह के गुण अंगीकार करे तो आत्मा भी जड़ हो जावे पर वह तो सदा ज्ञानरूप है, और जो देह आत्मा का गुण परमार्थ से अंगीकार करे तो देह भी चेतन हो जावे पर वह तो जड़रूप है | उसको अपना ज्ञान कुछ नहीं | ज्यों का त्यों ज्ञान हो तब शरीर तुच्छ और जड़ भासे | हे रामजी! देह और आत्मा का कुछ सम्बन्ध नहीं और समवाय सम्बन्ध भी नहीं फिर इससे मिलकर वृथा दुःख को ग्रहण करना इससे बढ़के और मूर्खता क्या है? जब कुछ भी इसका समान लक्षण न हो उसका सम्बन्ध कैसे हो? आत्मा चैतन्य है, देह जड़ है, आत्मा सत््रूप है, देह असत््रूप है, आत्मा प्रकाशरूप है, देह तमरूप है, आत्मा निराकार है, देह साकार है, आत्मा सूक्ष्म है और देह स्थूल है तो फिर आत्मा और देह का सम्बन्ध कैसे हो? और जब इनका संयोग ही नहीं तब दुःख किसका हो? जैसे सूक्ष्म और स्थूल दिन और रात्रि, ज्ञान और अज्ञान, धूप और छाया, सत् और असत् का सम्बन्ध नहीं होता तैसे ही आत्मा और देह का संयोग नहीं होता और देह के सुख दुःख से आत्मा को सुखी दुःखी जानना मिथ्याभ्रम है | जरा-मरण, सुख-दुःख, भाव-अभाव आत्मा में रञ्चकमात्रभी नहीं, यदि देह में अभिमान होता है तो ऊँच नीच जन्म पाता है, वास्तव में कुछ नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और उसमें विकार कोई नहीं | जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जल में होता है और जल के हिलने से प्रतिबिम्ब भी चलता है तैसे ही देह के सुख दुःख से आत्मा में सुख दुःख विकार मूर्ख देखते हैं-आत्मा सदा निर्लेप है और जब यथाभूत सम्यक् आत्मज्ञान हो तब देह में स्थित भी भ्रम को न प्राप्त हो | हे रामजी! जब यथाभूत ज्ञान होता है तब सत् को सत् जानता है और असत् को असत् जानता है | जैसे दीपक हाथ में होता है तब सत्-असत् पदार्थ भासते हैं तैसे ही ज्ञान से सत्-असत् यथार्थ जानता है और अज्ञान से मोह में भ्रमता है | जैसे वायु से पत्र भ्रमता है तैसे ही मोहरूपी वायु से अज्ञानी जीव भ्रमता है और कदाचित् स्वस्थ नहीं होता | जैसे यन्त्र की पुतली तागे से चेष्टा करती है तैसे ही अज्ञानी जीव प्राणरूपी तागे से चेष्टा करते हैं और जैसे नटुआ अनेक स्वाँग धारता है तैसे ही कर्म से जीव अनेक शरीर धारता है | जैसे काठकी पुतली तृण, काष्ठ, फूलादिक को लेती त्यागती और नृत्य करती है- तैसे ही ये प्राणी भी चेष्टा करते हैं और शब्द, स्पर्श, रूप,रस, गन्ध का ग्रहण करते हैं | जैसे वह पुतलियाँ जड़ हैं तैसे ही ये भी जड़ हैं | यदि कहिये कि इनमें तो प्राण है तो जैसे लुहार की धौकनी श्वास को लेती और त्यागती है तैसे ही ये जीव भी चेष्टा करते हैं | हे रामजी! अपना वास्तव स्वरूप है सो ब्रह्म है, उसके प्रमाद से जीव मोह और कृपणता को प्राप्त होते हैं | जैसे लुहार की खाल वृथा श्वास लेती है तैसे ही इनकी चेष्टा व्यर्थ है इनकी चेष्टा और बोलना अनर्थ के निमित्त है-जैसे धनुष से जो बाण निकलता है सो हिंसा के निमित्त है, उससे और कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता तैसे ही अज्ञानी की चेष्टा और बोलना अनर्थ और दुःख के निमित्त है, सुख के निमित्त नहीं और उसकी संगति भी कल्याण के निमित्त नहीं-जैसे जंगल के ठूँठ वृक्ष से छाया और फल की इच्छा करनी व्यर्थ है, तैसे ही अज्ञानी जीव की संगति से सुख नहीं होता | उनको दान देना व्यर्थ है-जैसे कीचड़ में घृत डालना व्यर्थ होता है तैसे ही मूर्खों को दान दिया व्यर्थ होता है और उनके साथ बोलना भी व्यर्थ है | जैसे यज्ञ में श्वान को बुलाना निष्फल है तैसे ही उनके साथ बोलना निष्फल है | हे रामजी! जो अज्ञानी जीव हैं वे संसार में आते, जाते और जन्मते, मरते हैं और शरीर में आस्था करते हैं, एवम् पुत्र, दारा, बान्धव, धनादिक से ममत्व बुद्धि करते हैं पर इस मिथ्यादृष्टि से वे दुःख पाते हैं और मुक्ति कदाचित नहीं होती, क्योंकि अनात्म में आत्मबुद्धि को त्याग नहीं करते और ममता बुद्धि में दृढ़ रहते हैं | हेरामजी! जो अज्ञानी हैं वे असत् पदार्थ को देखते हैं और वस्तुरूप की ओर से अन्धे हैं इससे वे परमार्थ धन से विमुख रहते हैं | नरक का सार जो स्त्री आदिक हैं उनमें वे प्रीति करते हैं और उनको देखकर प्रसन्न होते हैं | जैसे मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होता है तैसे ही स्त्री आदिकों को देखकर मूर्ख प्रसन्न होते हैं | हे रामजी! मूर्ख के मारने के निमित्त स्त्री रूपी विष की बेलि है, नेत्ररूपी उसके फूल हैं, ओष्ठरूपी पत्र हैं, स्तनरूपी गुच्छे हैं और अज्ञानरूपी भँवरे वहाँ विराजमान होते हैं-और नाश करते हैं | मतिरूपी तालाब में हर्षरूपी कमल और चित्तरूपी भँवरे सदा रहते हैं और अज्ञानरूपी नदी में दुःखरूपी लहरें और तृष्णारूपी बुद्बुदे हैं, ऐसी नदी मरणरूपी बड़वाग्नि में जा पड़ेगी | हे रामजी! जब जन्म होता है तब जीव महागर्भ अग्नि से जलता हुआ निकलता है और महामूर्ख अवस्था में निकलकर दुःखी होता है, जब यौवन अवस्था को प्राप्त होता है तब विषयों को सेवता है-वे भी दुःख के कारण होते हैं और फिर वृद्धा वस्था को प्राप्त होता है तब शरीर अशक्त होता है और हृदय को तृष्णा जलाती है | इस प्रकार जन्म-मरण अवस्था में जीव भटकते हैं | हे रामजी! संसाररूपी कूप में मोहरूपी घटों की माला है और तृष्णा और वासनारूपी रस्सी से बाँधे हुए जीव भ्रमते हैं |ज्ञान वान् को संसार कोई दुःख नहीं देता,गोपद की नाईं तुच्छ हो जाता है और अज्ञानी को समुद्रवत् तरना कठिन होता है | वह अपने भीतर ही भ्रम देखता है और निकल नहीं सकता थोड़ा भी उसको बहुत हो जाता है | जैसे पक्षी को पिंजरे में और कोल्हू के बैल को घर ही में बड़ा मार्ग हो जाता है तैसे ही अज्ञानी को तुच्छ संसार बड़ा हो भासता है | हे रामजी! जिस जगत् को रमणीय जानकर जीव उसके पदार्थों की इच्छा करता है वे सब पाञ्चभौतिक पदार्थ हैं पर मोह से उनको सुन्दर जानता है उनमें प्रीति करता है और स्थिर जानता है और वह सब अनर्थ के निमित्त होते हैं | हे रामजी! अज्ञानरूपी चन्द्रमा के उदय से भोगरूपी वृक्ष पुष्ट होते हैं और जन्मों की परंपरा रस को पाते हैं कर्मरूपी जल से सिंचते है और पुण्य और पापरूपी मञ्जरी उनमें होती है | अज्ञान रूपी चन्द्रमा का वासनारूपी अमृत है और आशारूपी चकोर उसको प्रसन्न होता है | आशा रूपी कमलिनी पर अज्ञानरूपी भँवरा बैठकर प्रसन्न होता है इससे सब जगत् अज्ञान से रमणीय भासता है | हे रामजी! जिस अज्ञान से यह जगत् स्थित है उसका प्रवाह सुनो | जब अज्ञानरूपी चन्द्रमा पूर्ण होकर स्थित होता है तब कामनारूपी क्षीरसमुद्र उछलता है और अनेक तरंग फैलाता है | उसके रस से तृष्णारूपी मञ्जरी पुष्ट होती है और काम, क्रोध, लोभ और मोहरूपी चकोर उसको देखकर प्रसन्न होते हैं | देह अभिमानरूपी रात्रि के निवृत्त हुए और विवेकरूपी सूर्य के उदय हुए अज्ञानरूपी चन्द्रमा का प्रकाश निवृत्त हो जाता है | हे रामजी! अज्ञान से जीव भ्रमते हैं और उनकी चेष्टा विपर्यय हो गई है, जो तुच्छ और नीच दुःखरूप पदार्थ हैं उनको देखकर सुखदायक और रमणीय जानते हैं और स्त्री को देख प्रसन्न होते हैं | कवीश्वर कहते हैं कि इसके कपोल कमलवत्, नेत्र भँवरेवत्, होठ हँसनेवाले और भुजा बेलि की नाईं हैं, कञ्चन के कलशवत् स्तन हैं, उदर और वक्षस्थल बहुत सुन्दर हैं और जंघस्थल केले के स्तम्भवत्् हैं |जिस स्त्री की कवि स्तुति करते हैं वह स्त्री रक्तमांस की पुतली है कपोल भी रक्तमांस हैं, होठ भी रक्तमाँस हैं, भुजा विष के वृक्ष के टासवत् हैं, स्तन भी रक्तमाँस हैं और संपूर्ण शरीर भी रक्तमाँस अस्थि से पूर्ण एक मूर्ति बनी है उसको जो रमणीय जानते हैं वे मूर्ख मोह से मोहित हुए हैं और अपने नाश के निमित्त इच्छा करते हैं | जैसे सर्पिणी से जो कोई हित करेगा वह नष्ट होगा तैसे ही इससे हित किये से नाश होगा और जैसे कदलीवन का महाबली हाथी काम से नीच गति पाता है और संकट में पड़ता है और अंकुश सहकर जो अपमान को प्राप्त होता है, सो एक के हित से ही ऐसी गति को प्राप्त होता है, तैसे ही यह जीव स्त्री की इच्छा करके अनेक दुःख पाता है | जैसे दीपक को रमणीय जानकर पतंग उसमें प्रवेश करता है और नष्ट होता है तैसे ही यह जीव स्त्री की इच्छा करता है और उसके संग से नाश को प्राप्त होता है | लक्ष्मी का आश्रय करके जो सुख की इच्छा करता है वह भी सुखी न होगा | जैसे पहाड़ दूर से देखतेमात्र सुन्दर भासता है तैसे ही यह भी देखने में सुन्दर लगती है पर लक्ष्मी का आश्रय करके जो सुख की इच्छा करे सो सुख न मिलेगा, अन्त में दुःख को ही प्राप्त होगा जब लक्ष्मी प्राप्त होती है तब अनर्थ और पाप करने लगता है और दुःख का पात्र होता है, और जब जाती है तब दुःख दे जाती है और उससे जलता रहता है | हे रामजी! जगत् में सुख की इच्छा करना व्यर्थ है, प्रथम जन्म लेता है तब भी दुःख से जन्म लेता है, फिर जन्म कर मूर्ख और नीच बालक अवस्था को प्राप्त होता है तब कुछ विचार नहीं होता है उसमें दुःख पाता है और कुछ शक्ति नहीं होती उससे दुःख पाता है, जब यौवन अवस्था रूपी रात्रि आती है तब उसमें काम, क्रोध,लोभ और मोहरूपी निशाचर विचरते हैं और तृष्णारूपी पिशाचिनी बिचरती है, क्योंकि उस अवस्था में विवेकरूपी चन्द्रमा नहीं उदय होता उससे अन्धकार में वे सब क्रीड़ा करते हैं | हे रामजी! यौवन अवस्थारूपी वर्षा काल में बुद्धि आदिक नदियाँ मलिनभाव को प्राप्त होती हैं, कामरूपी मेघ गर्जता है और तृष्णारूपी मोरनी उसको देख प्रसन्न होकर नृत्य करती है | फिर यौवन अवस्थारूपी चूहे को जरारूपी बिल्ली भोजन कर लेती है और शरीर महाजर्जरीभूत हो निर्बल हो जाता है, तृष्णा बढ़ती जाती है और हृदय से जलता है, निदान फिर मृत्युरूपी सिंह जरारूपी हरिण को भोजन कर लेता है | इस प्रकार मनुष्य उपजता और मरता है और आशारूपी रस्सी से बँधा हुआ घटीयन्त्र की नाईं भटकता है- शान्ति कदाचित् नहीं पाता | हे रामजी! ब्रह्माण्डरूपी एक वृक्ष है और उसमें जीवरूपी पत्र लगे हैं सो कर्मरूपी वायु से हिलते हैं और अज्ञानरूपी जड़ता है |चित्तरूपी ऊँचा वृक्ष है उस पर लोभादिक उलूक बैठते हैं | जगत््रूपी ताल में शरीररूपी कमल हैं उन पर जीवरूपी भँवरे आ बैठते हैं और कालरूपी हाथी आकर उनको भोजन कर जाता है | हे रामजी! जनतारूपी जीर्ण पक्षी आशारूपी फाँसी से बँधे हुए वासनारूपी पिंजड़े में पड़े हैं और रागद्वेषरूपी अग्नि में पड़े हुए कालरूपी पुरुष के मुख में प्रवेश करते हैं| जनरूपी पक्षी उड़ते फिरते हैं सो कोई दिन उनको जब कालरूपी व्याध जाल फैलावेगा तब फँसा लेगा | हे रामजी! संसाररूपी ताल में जीवरूपी मछलियाँ है और कालरूपी बगला उनको भोजन करता है | कालरूपी कुम्हार जनरूपी मृत्तिका के बासन बनाता है और वे शीघ्र ही फूट जाते हैं | जीवरूपी नदी कर्मरूपी तरंगों को फैलाती है और कालरूपी बड़वाग्नि में जा पड़ती है | जगत््रूपी हाथी के मस्तक में जीवरूपी मोती हैं, उस हाथी को कालरूपी सिंह भोजन कर जाता है | वह कालरूपी भक्षक ऐसा है कि जिसने ब्रह्मा को भी भोजन किया है और करता है पर तृप्त नहीं होता | जैसे घृत की आहुति से अग्नि तृप्त नहीं होती तैसे ही काल जीवों के भोजन से तृप्त नहीं होता है | हे रामजी! एक निमेष में अनेक जगत् उपजते हैं और निमेष में लीन हो जाते हैं | सबके अभाव हुए जो शेष रहता है वह रुद्र है, फिर वह भी निवृत्त होता है और सबके पीछे एक परमतत्त्व ब्रह्मसत्ता रहती है | हे रामजी! जो कुछ जगत् है वह अज्ञान से भासता है | जन्म, मरण, बालअवस्था, यौवन और वृद्धादिक विकार अज्ञान से भासते हैं और अज्ञान के नष्ट हुए सब नष्ट हो जाते हैं | जबतक आत्म विचार नहीं उपजता तबतक अज्ञान रहता है और जब आत्मविचार उपजता है तब अज्ञानरूपी रात्रि निवृत्त हो जाती है केवल ब्रह्मपद भासता है |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अज्ञानमाहात्म्यवर्णनन्नामषष्ठस्सर्गः ||6||
अविद्यालतावर्णन
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह संसाररूपी यौवन चेतनरूपी पर्वत के श्रृंग पर स्थित है और अविद्यारूपी बेलि उसमें बढ़कर विकास को प्राप्त हुई और सुख, दुःख, भाव, अभाव, अज्ञानपत्र, फूल और फल हैं | जहाँ अविद्या सुखरूप होकर स्थित होती है वहाँ ऊँचे सुख को भुगाती है और सत्य की नाईं होती है और जहाँ दुःखरूप होकर स्थित होती है वहाँ दुःखरूप भासती है | वही सुख दुःख इसके फल हैं | दिनरूपी फूल हैं और रात्रिरूपी भँवरे हैं, जन्मरूपी अंकुर हैं और भोगरूपी रस से पूर्ण है जब विचार रूपी घुन अबिद्यारूपी वृक्ष को खाने लगता है तब वह नष्ट हो जाती है | जबतक विचाररूपी घुन नहीं लगा तबतक वह दिन-दिन बढ़ती जाती है और दृढ़ होती जाती है | हे रामजी! अविद्या रूपी बलि का मूल संवित फुरना है उससे फैली है, तारागण उसके फूल हैं, चन्द्रमा और सूर्यउसका प्रकाश है और दुष्कृत कर्मरूपी नरकस्थान कण्टक हैं, शुभ कर्मरूपी स्वर्ग उसके फूल हैं और सुख दुःखरूपी फल लगते हैं, जीवरूपी उसके पत्र हैं जो कालरूपी वायु से हिलते हैं और जीर्ण होकर गिर पड़ते हैं, पृथ्वीरूपी उसकी त्वचा है, पर्वतरूपी पीड़ है, मरणरूपी उसमें छिद्र हैं, जन्मरूपी अंकुर हैं और मोहरूपी कलियाँ हैं जिनके महासुन्दर और अंग हैं उनसे जीव मोहित होते हैं- जैसे स्त्री को देखकर पुरुष मोहित होते हैं-और सात समुद्र के जल से सींची जाती है जिससे पुष्ट होती है | उस बेलि में एक विष की भरी सर्पिणी रहती है जो कोई उसके निकट जाता है उसको काटती है और वह मूर्च्छा से गिर पड़ता है | संसाररूपी मूर्छा की देने वाली तृष्णारूपी सर्पिणी है | वह बेलि अन्यथा नष्ट नहीं होती, जब विचाररूपी घुन इसको लगे तो नष्ट हो जाती है | हे रामजी! जो कुछ प्रपञ्च तुमको भासता है सो सब अविद्यारूप है, कहीं अविद्या जलरूप हुई है कहीं पहाड़, कहीं नाग, कहीं देवता, कहीं दैत्य, कहीं पृथ्वी, कहीं चन्द्रमा, कहीं सूर्य, कहीं तारे, कहीं तम, कहीं प्रकाश, कहीं तेज, कहीं पाप, कहीं पुण्य, कहीं स्थावर ,कहीं मूढ़रूप, कहीं अज्ञान से दीन और कहीं ज्ञान से आपही क्षीण हो जाती है | कहीं तप दान आदिक से क्षीण होती है, कहीं पापादिक से वृद्ध होती है, कहीं सूर्यरूप होकर प्रकाशती है, कहीं स्थानरूप होती है, कहीं नरक में लीन हैं, कहीं स्वर्गवासी है, कहीं देवता होती है, कहीं कृमि होती है कहीं विष्णुरूप होकर स्थित हुई है, कहीं ब्रह्मा होकर स्थित है, कहीं रुद्र है, कहीं अग्निरूप है, कहीं पृथ्वीरूप हुई है और कहीं आकाश व कहीं भूत भविष्यत् और वर्तमान हुई है | हे रामजी! जो कुछ देखने में आता है वह सब महिमा इसी की है | ईश्वर से आदि तृणपर्यन्त सब अविद्यारूप है जो इस दृश्यजाल से अतीत है उसको आत्मलाभ जानो |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अविद्यालतावर्णनन्नाम सप्तमस्सर्ग ||7||
रामजी ने पूछा, हे ब्रह्मन्! विष्णु और हर आदिक तो शुद्ध आकार आकाश जाति हैं इनको अविद्या तुम कैसे कहते हो? यह सुनकर मुझको संशय उत्पन्न हुआ है | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! प्रथम अविद्या और तत्त्व सुनो कि किसको कहते हैं | जो अविद्यमान हो और विद्यमान भासे वह अविद्या है और जो सदा विद्यमान है उसको तत्त्व कहते हैं | हे राम जी! शुद्ध संवित् और कलना से रहित जो चिन्मात्र आत्मसत्ता है सो ही तत्त्व है, उसमें जो अहं उल्लेख से संवेदनकलना पूर्णरूप से फुरी है सो ही चिन्मात्र संवित् का आभास है | वही संवेदन फुरकर स्थानभेद से सूक्ष्म, स्थूल और मध्यमभाव को प्राप्त हुई है और वही दृढ़ स्पन्द से मनन-भाव को प्राप्त हुई है | सात्त्विक, राजस और तामस तीनों उसी के आकार हुआ हैं | वह अविद्या त्रिगुण प्राकृत धर्मिणी हुई है और तीन गुण जो तुझसे कहे हैं वे भी एक गुण तीन प्रकार के हुए हैं जिससे अविद्या के गुण नव प्रकार के भेद को प्राप्त हुए हैं जो कुछ तुमको दृश्य भासता है वह अविद्या के नव गुणों में है | ऋषीश्वर, मुनीश्वर,सिद्ध,नाग, विद्याधर और देवता अविद्या के सात्त्विक भाग हैं और उस सात्त्विक के विभाग में नाग सात्त्विक -तामस हैं, विद्याधर, सिद्ध, देवता और मुनीश्वर, अविद्या के सात्त्विक भाग में सात्त्विक-राजस हैं और हरिहरादिक केवल सात्त्विक हैं | हे रामजी! सात्त्विक जो प्रकृतभाग है उसमें जो तत्त्वज्ञ हुए हैं वे मोह को नहीं प्राप्त होते, क्योंकि वे मुक्तिरूप होते हैं | हरिहरादिक शुद्ध सात्त्विक हैं और सदा मुक्तिरूप होकर जगत् में स्थित हैं | वे जबतक जगत् में हैं तबतक जीवन्मुक्त हैं और जब विदेह-मुक्त हुए तब परमेश्वर को प्राप्त होते हैं | हे रामजी! एक अविद्या के दो रूप हैं | एक अविद्या विद्यारूप होती है-जैसे बीज फल को प्राप्त होता है और फल बीजभाव को प्राप्त होता है जैसे जल से बुद्बुदा उठता है तैसे ही अविद्या से विद्या उपजती है और विद्या से अविद्या लीन होती है | जैसे काष्ठ से अग्नि उपजकर काष्ठ को दग्ध करती है तैसे ही विद्या अविद्या से उपजकर अविद्या को नाश करती है | वास्तव में सब चिदाकाश है जैसे जल में तरंग कलनामात्र है तैसे ही विद्या अविद्या भावनामात्र है इसको त्यागकर शेष आत्मसत्ता ही रहती है | अविद्या और विद्या आपस में प्रतियोगी हैं जैसे तम और प्रकाश, इससे इन दोनों को त्यागकर आत्मसत्ता में स्थित हो | विद