निर्वाण
प्रकरण
(१०१- २००)
अनुक्रम
प्रथमद्वितीयतृतीयभूमिकालक्षण विचार
भुशुण्डिविद्याधरोपाख्यान समाप्ति
श्रीयोगवाशिष्ठ निर्वाणप्रकरण उत्तरार्द्ध प्रारम्भ
शिलान्तरवशिष्ठब्रह्मसंवाद वर्णन
मनु बोले,
हे राजन्! बड़ा आश्चर्य है
कि शुद्ध चिन्मात्र आत्मा में माया
से नाना प्रकार के
देह, इन्द्रियाँ और
दृश्य भासि आये हैं | हे राजन्! दृश्य का
कारण अज्ञान है
| जिस आत्मा के
अज्ञान से
दृश्यरूप भासता है-
उसी के
ज्ञान से
लीन हो
जाता है
इससे संवेदन को
त्यागकर आत्मा की
भावना कर
| यह मैं हूँ, ये मेरे हैं ये संकल्प मिथ्या ही
फुरते हैं | हे राजन्! प्रथम कारणरूप से
एक जीव उपजा
और उस
आदि जीव के अनेक जीवगण हुए | जैसे
अग्नि से
चिनगारे निकलते हैं तैसे
ही उसने अनेक रूप धारे
हैं और
कोई गन्धर्व, कोई विद्याधर कोई मनुष्य, कोई राक्षस इत्यादिक हुए हैं | फिर जैसे संकल्प होते गये हैं, तैसे ही
रूप होते गये, वास्तव में जैसे जल
में तरंग स्वरूप के
प्रमाद से
अनेकभाव प्राप्त होते हैं तैसे
ही अपने संकल्प आप
ही को
बन्धनरूप होते गये हैं | इससे संकल्प नानात्व कलना मिथ्या है
| हे राजन्! इस
भावना को
त्यागकर आत्मपद को
प्राप्त हो
आत्मा अनन्त है
| यह विश्व और
प्रकार का
भान होता है
| जैसे समुद्र सम
है पर
उसमें कई
आवर्त्ततरंग और
बुद्बुदे उठते हैं सो जल से
भिन्न नहीं तैसे ही
आत्मा में अनेक
प्रकार का
विश्व फुरता है
सो आत्मा से
भिन्न नहीं, आत्मस्वरूप ही
है इससे आत्मा की
भावना कर
| कहीं ब्रह्म सत् संकल्प होकर
फुरता है
तो जानता है
कि मैं ब्रह्म, शुद्धरूप और
सदा मुक्तरूप हूँ और इस संसारसमुद्र से
पार हो
गया हूँ | जहाँ
चेतनाशक्ति है
वहाँ आपको जीवता मानता है
और दुःखी भी
जानता है
| अन्तःकरण से
मिलकर भोग की भावना करना और
सदा विषय की
तृष्णा करना जीवात्मा कहाता है
और जहाँ वासना क्षय हुई है और शुद्ध आत्मा प्रत्यक्ष है
वहाँ जीवसंज्ञा नष्ट हो
जाती है
और केवल शुद्ध आत्मा प्रकाशता है
| हे राजन्! चेतन जब
अन्तःकरण से
मिलकर बहिर्मुख फुरता है
तब संसारी हुआ जरा मरण से
दुःखी होता है
और जहाँ चेतनशक्ति अन्तर्मुख होती है
तब जन्ममरण की
भावना को
त्यागकर स्वरूप की
भावना करता है
और सर्व दुःख की
निवृत्ति होती है
| जब इसकी भावना स्वरूप की
ओर लगती है
तब कोई दुःख
नहीं रहता और
जब स्वरूप का
प्रमाद होता है
तब दुःख पाता है
| स्वरूप के
ज्ञान से
आनन्दरुप मुक्त होता है
| हे राजन्! तू
संसाररूपी कूप की गगरी रस्सी से
बँधती है
तो कभी ऊर्ध्व को जाती है
और कभी अधः को जाती है
पर जब
रस्सी टूट पड़ती
है- तब न ऊर्ध्व को
जाती है
और न अधः को
जाती है
| कूप क्या है
| अधः क्या है
और ऊर्ध्व क्या है?
सो भी
सुन | हे
राजन्! संसाररूपी कूप है, स्वर्गलोक ऊर्ध्व है
और नरक अधः है | पुण्यकर्म से
स्वर्ग को
जाता है
और पापकर्म से
नरक में जाता
है | इसी प्रकार आशारूपी रस्सी से
बँधा हुआ जीव जन्ममरणरूपी चक्र में फिरता
है | स्वर्ग और
नरक में फिरने
का कारण आशा है | जब आशा निवृत्त होती है
तब न कोई नरक है न स्वर्ग है
| जब तक
देह में अभिमान है तब तक
नीच से
नीच गति को प्राप्त होता है
| जैसे पत्थर की
शिला समुद्र में डारिये तो नीचे से
नीचे चली जाती
है तैसे ही
नीच स्थानों को
देखकर देहाभिमानी नीचे को
चला जाता है
| जब इन्द्रियादिक का
अभिमान त्याग करता है
तब जैसे क्षीर समुद्र से
निकलकर चन्द्रमा अधः से ऊर्ध्व को
चला जाता है
तैसे ही
ऊर्ध्व को
जाता है
| हे राजन्! यदि आत्मा
की भावना करोगे तो
आत्मा ही
होगा, इससे आशारूपी फाँसी को
तोड़कर शान्तपद को
प्राप्त हो
| आत्मा चिन्तामणि की
नाईं है
| जैसी भावना कीजिये तैसे ही
सिद्ध होती है,
यदि तू
आत्मभावना करेगा तो
सम्पूर्ण विश्व अपने में देखेगा | जैसे
पर्वत शिला और
पत्थर को
अपने में देखता
है तैसे ही
तू भी
सर्वआत्मा जानेगा | हे राजन्! जो कुछ दृश्य है सो सर्वात्मा के आश्रय है, शास्त्र और शास्त्रदृष्टि सब आत्मा के आश्रय हैं और राजा भी आत्मा के आश्रय है वह सर्वसत्य आत्मा चिन्तामणि कल्पवृक्ष है, जैसी कोई भावना करता है तैसी सिद्धि होती है | हे राजन्! फुरने में यह सर्वदृश्य सत्य है और जब फुरना नष्ट होता है तब न कोई शास्त्र है और न कोई दृष्टि है | केवल अद्वैत आत्मा है तो निषेध किसका कीजिये और अंगीकार किसका करिये | जो पुरुष अहंकार से रहित हुआ है वह सर्वशास्त्र दृष्टि पर विराजता है और सर्वात्मा होता है | जैन उसी को जिन कहते हैं और कालवादी उसी को काल कहते हैं सबका आसरा आत्मा है | जो पुरुष देहाभिमानी है वह मूर्ख है और स्वरूप के अज्ञान से अधः ऊर्ध्वलोक को गमन-आगमन करता है, पशु, पक्षी, स्थावर जंगम योनि पाता है और आशारूपी फाँसी से बधा हुआ दुःख को प्राप्त होता है | जो पुरुष सम्यक्दर्शी है और जिसकी शुद्ध चेष्टा है उसको कोई विकार दृष्टि नहीं आता आकाश की नाईं सदा निर्मल भासता है | उसको सम्पूर्ण विश्व आत्मस्वरूप भासता है और जो चेष्टा ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्राद्रिक करते हैं उसका कर्ता भी आपको जानता है | उसको सर्व दुःख का अन्त होता है, वह आत्मपद को प्राप्त होता है और उसको सर्व सुख की सीमा प्राप्त होती है | हे राजन्! जैसे नदी तबतक चलती है जबतक समुद्र को नहीं प्राप्त हुई पर जब समुद्र को प्राप्त होती है तब नहीं चलती तैसे ही जब तू आत्मपद को प्राप्त होगा तब कोई इच्छा तुझे न रहेगी | हे राजन्! तू अहंकार का त्याग कर अथवा ऐसा जान कि सब मैं ही हूँ | जरा मरण आदिक दुःख तब तक हैं जबतक आत्मबोध नहीं प्राप्त हुआ, जब आत्मबोध होता है तब कोई दुःख नहीं रहता | दोनों ही दुःख भारी हैं पर ज्ञानी को इन्द्र के वज्रसमान दुःख भी स्पर्श नहीं करता | हे राजन्! जैसे पेड़ से सुखकर फल गिरता है उसी प्रकार जब ज्ञानरूपी फल प्राप्त होता है तब मन, बुद्धि अहंकार पेड़ की नाईं गिर पड़ते हैं | जब तक मन की चपलता है तबतक दुःख पाता है तबक दुःख पाता है और जब मन की चपलता निवृत्त होती है तब कोई क्षोभ नहीं रहता और शान्तपद को प्राप्त होता है | शान्ति तब होती है जब प्रकृति का वियोग होता है | प्रकृति के संयोग से संसारी होता है और दुःख पाता है इससे प्रकृति को त्याग दे अर्थात् अहंकार से रहित होकर चेष्टा कर | जब तू अहंकार से रहित होगा तब उस पद को प्राप्त होगा जो न जड़ है, न शून्य है, न अशून्य है, न केवल है, उसे न आत्मा कह सकते हैं न अनात्मा, न एक होता है न दो | जो कुछ नाम है सो प्रतियोगी से मिले हुए हैं | प्रतियोगी हुआ द्वैत होता है और आत्मा अद्वैत है जिसमें वाणी की गम नहीं और जो अवाच्यपद है उसको कैसे कहिये? जितनी नाम संज्ञा हैं सो उपदेशमात्र हैं, आत्मा अनिर्वाच्यपद है | इससे संकल्प का त्याग कर और आत्मा की भावना कर | जब तू आत्मभावना करेगा तब केवल आत्मा ही प्रकाशेगा | जैसे फूल को कोई अंग सुगन्ध से रहित नहीं होता- तैसे ही आत्मा से कुछ भिन्न नहीं | हे राजन्! जब अहंकार का त्याग करोगे तब अपने आप से शोभायमान होगे और आकाश की नाईं निर्मल आत्मा में स्थित होगे | अहंकार को त्याग कर उस पद को प्राप्त होगे जहाँ शास्त्र और शास्त्रों के अर्थ प्राप्त नहीं होते, जहाँ सम्पूर्ण इन्द्रियों के रस लीन हो जाते हैं और सब दुःख नष्ट हो जाते हैं तब केवल मोक्षपद को प्राप्त होगे | हे राजन्! मोक्ष किसी देश में नहीं कि वहाँ जाकर पावे, न किसी काल में ही है कि अमुक काल आवेगा तब मुक्त होगा और न कोई पदार्थ ही है कि उसको ग्रहण करेगा, केवल अहंकार के त्याग से मोक्ष होता है जब तू अहंकार का त्याग करेगा तभी मोक्ष है | जब तू इस अनात्म अभिमान को त्यागेगा तब अपने आपसे शोभायमान होगा और जैसे धुँवा बिना अग्नि प्रकाशमान होता है तैसे ही अहंकार बिना प्रकाशेगा | जैसे बड़े पर्वत पर निर्मल और गम्भीर तालाब शोभता है तैसे ही तू शोभेगा | हे राजन्! तू अपने स्वरूप में स्थित हो |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे समाधानवर्णनंनामैकाधिकशततस्सर्गः ||101||
मनु बोले,
हे राजन्! तू
शुद्ध और
रागद्वेष से
रहित आत्मारामी नित अन्तर्मुख हो
रह जब
तू आत्मारामी होगा तब
तेरी व्याकुलता नष्ट हो
जावेगी और
शीतल चन्द्रमा सा
पूर्ण वत् हो जावेगा | ऐसा होकर
अपने प्रकृत आचार में बिचर
और किसी फल
की वाञ्छा न कर जो
पुरुष वाच्छा से
रहित होकर कर्म करता है
वह सदा अकर्ता है और महा शोभा
पाता है
| ऐसी अवस्था में स्थित
होकर जो
भोजन आवे उसको
भक्षण कर
और जो
अनिच्छित वस्त्र आवे उसको
पहिर, जहाँ नींद आवे वहाँ
सो रह
और रागद्वेष से
रहित हो
| जब तू
ऐसा होगा तब
शास्त्र और
शास्त्रों के
अर्थ से
उल्लंघित बर्तेगा जो
ऐसा पुरुष है
वह
परम रस
को पाकर रस
को पाकर मतवाला होता है
और उसको संसार की
कुछ नहीं रहती | हे
राजन्! ज्ञानवान् चाहे काशी में देह त्यागे अथवा चाण्डाल के
गृह में त्यागे वह सदा मुक्त है
और वह
सदा आत्मस्वरूप में स्थित
है | वर्तमानकाल में वह देह को
नहीं त्यागता, क्योंकि जिस काल में उसको ज्ञान हुआ उसी में देह का अभाव हुआ-ज्ञान
से देह बाध हो जाती है
| हे राजन्! ज्ञानवान् सदा मुक्त
रूप है,
वह न किसी की
स्तुति करता है
और न निन्दा करता है,
क्योंकि उसके चित्त की
कलना मिट गई है | यद्यपि रागद्वेष ज्ञानवान् में भी दृष्टि आते हैं और वह
हँसता रोता भी
देख पड़ता है
परन्तु उसके अन्तर न राग है
और न द्वेष है,
और वास्तव से
न हँसता है
न रोता है-ज्यों का
त्यों है
| जैसे आकाश शून्यरूप है
और उसमें बादल भी
दृष्टि आते हैं परन्तु आकाश को
कुछ लेप नहीं
करते, तैसे ही
ज्ञानवान् को
कोई क्रिया बन्धन नहीं करती पर
अज्ञानी जानते हैं कि ज्ञानवान् को
क्रिया बन्धन करती है
हे राजन्! ज्ञानवान् सर्वदा नमस्कार करने और
पूजने योग्य हैं | जिस स्थान में ज्ञानवान् बैठता है
उस स्थान को
भी नमस्कार है,
जिससे बोलता है
उस जिह्वा को
भी नमस्कार है,
जिससे बोलता है
उस जिह्वा को
भी नमस्कार है
और जिस पर ज्ञानवान् दृष्टि करता है
उसको भी
नमस्कार है,
वह सबका आश्रय है
| हे राजन् जैसा ज्ञानवान् की
दृष्टि से
आनन्द मिलता है
वैसा आनन्द तप,
दान और
यज्ञ आदि कर्मों से नहीं मिलता और
ऐसी दृष्टि और
किसी की
नहीं होती जैसी सन्त की
दृष्टि है
वह ऐसे आनन्द
को पाता है
जिसमें वाणी की
गम नहीं | जो
पुरुष सन्त की
दृष्टि को
पाकर सुखी होता है
उससे लोग दुःख
नहीं पाते और
लोगों से
वह दुःखी नहीं होता और
न किसी का
भय करता है,
न किसी का
हर्ष करता है
| हे राजन्! सिद्धि पाने का
सुख पाने का
सुख अल्प है,
क्योंकि उड़ने की
सिद्धि पाई तो अनेक पक्षी उड़ते फिरते हैं, इससे
आत्मज्ञान् तो
नहीं मिलता और
आत्मज्ञान बिना शान्ति नहीं होती | जब
आत्मज्ञान् प्राप्त होता है
तब जरा, मृत्यु आदिक
दुःख से
मुक्त होता है
और कोई दुःख
नहीं रहता जैसे पिंजरे से
छूटा सिंह फिर पिंजरे के बन्धन में नहीं
पड़ता, तैसे ही
वह पुरुष अज्ञानरूपी पिंजरे में नहीं
फँसता! हे
राजन्! इससे तू
आत्मा की
भावना कर
कि तेरे दुःख नष्ट हो
जावें | अज्ञान से
तुझे दुःख भासते हैं-अज्ञान से रहित सदा आनन्द
रूप है
| इससे अनुभवरूप आत्मा में स्थित
हो | जब
तू आत्मा में स्थित
होगा तब
जैसे शुद्ध के
निकट श्वेत, रक्त, पीत, श्याम
आदि रंग रखिये
तो वह
उनके प्रतिबिम्ब को
ग्रहण करती है
पर कोई रंग स्पर्श नहीं करता कल्पित से
भासते हैं, तैसे
ही तू
प्रकृत आचार को
अंगीकार करता रहेगा पर
तुझे पाप पुण्य
का स्पर्श न होगा |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मनुइक्ष्वाकुसंवादसमाप्तिर्नाम द्वयधिकशततमस्सर्गः ||102||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार उपदेश करके जब मनुजी तूष्णीं हो गये तब राजा ने भली प्रकार उनका पूजन किया | फिर मनुजी आकाश को उड़के ब्रह्मलोक में जा पहुँचे और राजा इक्ष्वाकु राज्य करने लगा | हे रामजी! जैसे राजा इक्ष्वाकु ने जीवन्मुक्त होकर राज्य किया है तैसे ही तुम भी इस दृष्टि का आश्रय करके बिचरो | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आपने जो कहा कि जैसे राजा इक्ष्वाकु ज्ञान पाकर राज्य चेष्टा करता रहा तैसे ही तू भी कर उसमें मेरा यह प्रश्न है कि जो अतिशय अपूर्व हो उसका पाना विशेष है और जो पूर्व में किसी ने पाया है उसका पाना अपूर्व और अतिशय नहीं, इसलिये मुझसे नहीं, इसलिये मुझसे कहिये कि सर्व से विशेष अपूर्व अतिशय क्या है | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ज्ञानवान् सदा शान्तरूप और रागद्वेष से रहित है और वह अपूर्व अतिशय को पाता है | जो कुछ और अतिशय है वह पूर्व अतिशय है, पर ज्ञानवान् अपूर्व अतिशय को पाता है ज्ञानी से अन्य कोई नहीं पाता आत्मज्ञान को ज्ञानी ही पाता है और वह ज्ञान एक ही है | हे रामजी! जो दूसरा नहीं पाता तो अपूर्व अतिशय हुआ | हे रामजी! अपूर्व अतिशय को पाकर ज्ञानवान् प्रकृत आचार और सर्वचेष्टा भी करता है तो भी निश्चय सर्वदा आत्म में रखता है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! ऐसा ज्ञान वान् जो अज्ञानी की नाईं सर्व चेष्टा करता है उसको किन लक्षणों से तत्त्ववेत्ता जानिये?
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक स्वसंवेद लक्षण है और दूसरा पर संवेद लक्षण है | आपही अपने को जाने और न जाने इसे स्वसंवेद कहते हैं और जिसको और भी जानते हैं उसे परसंवेद कहते हैं | हे रामजी! परसंवेद के लक्षण कहता हूँ सो सुनो | तप, दान, यज्ञ, व्रत इत्यादिक करना परसंवेद है और दुःख-सुख की प्राप्ति में धैर्य से रहना समान साध के लक्षण हैं | महा कर्ता और महाभोक्ता और महात्यागी होना, क्षमा, दया इत्यादिक लक्षण साधु के हैं ज्ञानवान् के नहीं और उड़ना, छिप जाना, जो अणिमादिक सिद्धि हैं वे भी समान लक्षण हैं परन्तु यह स्वाभाविक आन फुरते हैं सो और से भी जाने जाते हैं पर जो ज्ञानी के लक्षण हैं वे स्वसंवेद हैं | इससे भिन्न उसके शरीर में सींग नहीं होते कि उससे जानिये | जैसे और व्यवहार हैं तैसे ही ज्ञानी को सिद्धिसमान है | यह भी ज्ञानवान् का लक्षण नहीं ओर पुण्य पापादिक क्रिया परसंवेद हैं सो माया के कल्पे हैं ज्ञानी के नहीं जितने लक्षण देखने में आवेंगे वे मिथ्या हैं और माया के कल्पे हैं | ज्ञानी का लक्षण स्वसंवेद है | वह सर्वदा आत्मा में स्थित है और और अपने आपसे सन्तुष्ट है | उसे न किसी का हर्ष है, न शोक है, जन्म मरण में समान है और काम, क्रोध, लोभ मोह सबको जानता है | उसका लक्षण इन्द्रियों का विषय नहीं क्योंकि वह निर्वाच्यपद को प्राप्त हुआ है | रामजी! जिसको ज्ञान प्राप्त होता है उसका चित्त स्वाभाविक ही विषयों से विरस होता है और इन्द्रियजित होता है-उसकी भोगों की इच्छा निवृत्त हो जाती है |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ज्ञानिलक्षणविचारो नाम त्रयधिकशततमस्सर्गः ||103||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मायाजाल का काटना महाकठिन है | यह आदि कलना जीव को हुई है |जो कोई इसमें सत््बुद्धि करता है वह पखेरू की नाईं जाल में फँसा हुआ निकल नहीं सकता है-तैसे ही अनात्मा अभिमान से निकल नहीं सकता है | हे रामजी! फिर मेरे वचन सुनो क्योंकि जैसे मेघ का शब्द मोर को प्रियतम लगता है, तैसे ही मेरे वचन प्रिय लगते हैं | मैं भी तेरे हित के निमित्त कहता और उपदेश करता हूँ | रघुकुल का ऐसा कोई नहीं हुआ जो शिष्य का संशय निवृत्त न करे | हे रामजी! मेरा शिष्य भी ऐसा कोई नहीं हुआ जो मेरे उपदेश से न जगा हो | इस
निमित्त मैं तप, ध्यान आदिक को भी त्याग कर तुझे जगाऊँगा-इससे मैं तुझको उपदेश करता हूँ | हे रामजी! शुद्ध आत्मा में जो अहंभाव हुआ है और जो कुछ अहंकार से भासता है सो मिथ्या है-इसमें कुछ सत् नहीं-और जो इसका साक्षीभूत ज्ञानरूप है वह सत्य है-उसका कदाचित नाश नहीं होता | जो जो वस्तु फुरने से उपजी हैं वे सब नाशवन्त हैं-यह बात बालक भी जानते हैं | जो सत्य है वह असत्य नहीं होता और जो वस्तु असत् है यह सत् नहीं होती | जैसे रेत से घृत निकलना असत् है अर्थात् कदाचित् नहीं निकलता जैसे एक मेढ़क के लाख कणका करिये अथवा शिला पर घिसिये पर जब उस पर वर्षा होती है तब सब कणके दर्दुर हो जाते हैं | इससे सत्य का कदाचित नाश नहीं होता और असत्य का सद्भाव कदाचित नहीं होता | हे रामजी! सत््ब्रह्म की भावना करो | जो ब्रह्म की भावना करता है वह ब्रह्म ही होता है | जैसे घृत में घृत, दूध में दूध और जल में जल मिल जाता है तैसे ही यह जीव भावना करके चिद्घन ब्रह्म के साथ एक हो जाता है और जीवसंज्ञा निवृत्त हो जाती है | जैसे अमृत के पान किये से अमर होता है तैसे ही ब्रह्म की भावना करने से ब्रह्म होता है | जो अनात्मा की भावना करता है तो पराधीन होकर दुःख पाता है जैसे विष के पान किये से अवश्य मरता है तैसे ही अनात्मा की भावना से अवश्य दुःख पाता है | और उसका नाश होता है | इससे आत्मभावना करो | हे रामजी! जो वस्तु संकल्प से उदय होती है वह थोड़े काल रहती है और जो चल वस्तु है वह भी अवश्य नाश होती है | यह दृश्य आत्मा में भ्रम से सिद्ध है | जैसे मृग तृष्णा का जल, सीपी में रूपा और आकाश मैं दूसरा चन्द्रमा भ्रम से सिद्ध है-वास्तव नहीं, तैसे ही अहंकार देह इन्द्रियों से सुख भासता है सो सब मिथ्या है | इससे दृश्य की भावना त्याग करके अपने अनुभवस्वरूप में स्थित हो | जब आत्मा में स्थित होगे तब मोह को न प्राप्त होगे | जैसे पारस के स्पर्श से सुवर्ण हुआ ताँबा फिर ताँबा नहीं होता, तैसे ही तू भी जब आत्मपद को जानेगा तब फिर इस मोह को न प्राप्त होगा कि मैं हूँ, यह मेरा `अहं' त्वंभाव तेरा निवृत्त हो जावेगा और यह भावना न रहेगी | रामजी ने पूछा हे भगवन्! मच्छर और जूँ आदिक जो प्रस्वेद से उत्पन्न होते हैं सो सब कर्म करके उत्पन्न होते हैं और देवता, मनुष्यादि सब कर्मों से उत्पन्न होते हैं अथवा कर्मों बिना भी कुछ होते हैं?
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आदि परमात्मा से जो सब जीव उत्पन्न हुए हैं सो चार प्रकार के हैं | एक तो कर्मों से उत्पन्न हुए हैं और एक कर्मों बिना हुए हैं, एक आगे होंगे और एक अब भी उत्पन्न होते हैं | रामजी बोले, हे संशयरूपी हृदय अन्धकार के निवृत्त करनेवाले सूर्य और संदेहरूपी बादलों के निवृत्त करनेवाले पवन! कृपा करके कहिये कि कर्मों बिना कैसे उत्पन्न होते हैं और कर्मों से कैसे उत्पन्न होते हैं?
कैसे कैसे हुए हैं, कैसे होते हैं और कैसे आगे होंगे?
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मा चिदाकाश अपने आप में स्थित है | जैसे अग्नि अपनी उष्णता में स्थित है तैसे ही आत्मा अपने स्वभाव में स्थित है | वह अनन्त और अविनाशी है-उसमें फुरनशक्ति स्वाभाविक स्थित है जैसे पवन में स्पन्द शक्ति स्वाभाविक होती है और जैसे फूलों में सुगन्ध स्वाभाविक रहती है तैसे ही आत्मा में फुरनशक्ति है | हे रामजी! फुरनशक्ति जैसे ही आद्यफुरी है तो उस शब्द की अपेक्षा से आकाश हुआ और जब स्पर्श की अपेक्षा की तब पवन प्रकट हुआ | इसी प्रकार पञ्चतन्मात्रा हो आईं शुद्धसंवित् में जो आदि फुरना हुआ उससे प्रथम अन्तवाहक शरीर हुये , उनका निश्चय आत्मा में रहा कि हम आत्मा हैं और सम्पूर्ण विश्व हमारा संकल्प है | हे रामजी! कई इस प्रकार उत्पन्न होकर अन्तवाहक से फिर विदेह मुक्ति को प्राप्त हुये | जैसे जल से बरफ होकर सूर्य के तेज से शीघ्र ही फिर जल हो जाती है तैसे ही फिर वे शीघ्र ही विदेहमुक्त हुये | कई अन्तवाहक से आधिभौतिक इस प्रकार हो गये कि जबतक अन्तवाहक में स्मरण रहा तबतक अन्तवाहक रहे और जब स्वरूप का प्रमाद हुआ और संकल्प से जो भूत रचे थे उनमें दृढ़ निश्चय हुआ और जाना कि हम ये हैं तब आधिभौतिक हो गये जैसे ब्राह्मण शूद्रों के कर्म करने लगे- और उसके निश्चय में हो जावे कि मेरा यही कर्म है और जैसे शीत करके जल से बरफ हो जाती है तैसे ही संवित् में जब दृढ़ संकल्प हुआ तब उन्होंने आपको आधिभौतिक जाना हे रामजी! आदि परमात्मा से जो कर्म बिना उत्पन्न हुए हैं उनका कोई कर्म नहीं, क्योंकि जो अन्तवाहक में रहे उनकी ईश्वरसंज्ञा हुई | उनके संकल्प से जीव उपजे , उनका कारण ईश्वर हुआ और आगे जीवकलना से उनका फुरना कर्म हुआ | आगे जैसे जैसे कर्म संकल्प से करते हैं तैसे तैसे शरीर धारते हैं | हे रामजी! आत्मा से जो जीव उपजे हैं सो आदि-अकारण होते हैं, जो आज उपजे हैं तो भी और जो चिरकाल से उपजे हैं तो भी और जो चिरकाल से उपजे हैं तो भी | वे पीछे कारण भाव को कर्म के वश से प्राप्त हुए हैं | हे रामजी! जिनका आदि फुरना हुआ है और स्वरूप में दृढ़ निश्चय रहा है उनकी संज्ञा पुण्य है और जो स्वरूप को विस्मरण करके आधिभौतिक में निश्चय करते रहे उनकी धनसंज्ञा है | हे रामजी! पुण्य से धन होना सुगम है और धन से पुण्य होना कठिन है-कोई भाग्यवान् पुरुष ही यत्न करके धन से पुण्यवान् होता है | जैसे पर्वत से पत्थर गिरना सुगम है तैसे ही पुण्य से धन होना सुगम है और जैसे पत्थर को पर्वत पर चढ़ाना कठिन है तैसे ही धन से पुण्य होना कठिन है | कितने चिरकाल धन में बहते हैं और कितने यत्न करके शीघ्र ही पुण्यवान् होते हैं | हे रामजी! जो सदा अन्तवाहक रहते हैं उनकी संज्ञा ईश्वर है और अन्तवाहक को त्यागकर आधिभौतिक होते हैं वे जीव कहाते हैं और परतन्त्र हैं-जैसे कर्म करते हैं तैसे ही शरीर धारते हैं जो धन से पुण्य होते हैं वे ज्ञानवान् हैं और उनका फिर जन्म नहीं होता | अब भी जो प्रथम उत्पन्न होते हैं वे कर्म बिना होते हैं और जब अपने स्वरूप से गिरते हैं तब जैसा संकल्प करते हैं तैसे ही शरीर धारते हैं | हे रामजी! यह विश्व संकल्प मात्र है, इससे संकल्प का त्याग करो | इस दृश्य की आस्था न करो | हे रामजी! खाना, पीना इत्यादिक चेष्टा करो परन्तु उसमें अहंभाव न करो | अहंकार अज्ञान से सिद्ध हुआ है सो दृश्य मिथ्या है | अहंभाव के होने से दुःखी होता है इससे अहंकार से रहित चेष्टा करो | हे रामजी! बन्धन और मोक्ष का लक्षण सुनो | विषय और इन्द्रियों के संयोग से इष्ट में राग करना और अनिष्ट में द्वेष करना ही बन्ध है |जैसे जाल में पक्षी बन्धायमान होता है | ग्राह्य ग्राहक इन्द्रियाँ और विषय के सम्बन्ध से इष्ट अनिष्ट होता है | जिसमें इन्द्रियों का संयोग होता है उसमें समबुद्धि रहे, उनके धर्म अपने में न देखे और उनका जाननेवाला जो अनुभव रूप आत्मा है उसमें साक्षीरूप होकर स्थित रहे, इस प्रकार जो इनका ग्रहण करता है वह सदा मुक्तिरूप है और जो इससे भिन्न है वह मूर्ख जीव बन्धवान् है तुम इस ग्राह्य ग्राहक सम्बन्ध से सावधान रहो | इनका सम्बन्ध ही बन्धन है और इनसे रहित होना मुक्ति है | रागद्वेष करनेवाला मन है, इस मन का त्याग करो, मन ही दुःखदायी है | जैसे कुम्हार का चक्र फिरता है और उससे बासन उत्पन्न होते हैं तैसे ही मनरूप चक्र से पदार्थरूपी बासन उत्पन्न होते हैं | मन के फुरने से संसार सत्य होता है और जब फुरना निवृत्त होगा तब कोई दुःख न रहेगा | हे रामजी! जब फुरने और अफुरने में समान होगे तब राग-द्वेष से रहित होकर बिचरोगे | यह हो और यह न हो, इससे रहित होकर चेष्टा करो | अभिलाषपूर्वक संसार में न फुरो | हे रामजी! पूर्व जो ज्ञान वान् हुए हैं उनको भूत की चिन्तना न थी और आगे होने की आशा भी न थी | वर्तमान काल में शास्त्र के अनुसार रागद्वेष से रहित वे चेष्टा करते थे, इससे तू भी संकल्प का त्यागकर स्वरूप में स्थित हो | हे रामजी! ब्रह्मा से आदि तृणपर्यन्त किसी पदार्थ में राग हुआ तो बन्धन है | मेरा यही आशीर्वाद है कि ब्रह्मा से आदि तृण पर्यन्त किसी पदार्थ में तुम्हें रुचि न हो अपने आपही में रुचि हो | हे रामजी! यह संसार मिथ्या है और इसमें कोई पदार्थ सत् नहीं-सब मन के रचे हुए हैं, इससे मन को स्थित करो | जैसे धोबी साबुन से वस्त्र का मैल दूर करता है तैसे ही मन से मन को स्थिर करो | जब मन को स्वरूप में स्थिर करोगे तब मन अपने संकल्प को आप ही नाश करेगा | जैसे दुष्ट पुरुष की जब धन से वृद्धि होती है तब वह अपने भाई आदिक के नाश करने का उपाय करता है, तैसे ही मन जब आत्मपद में स्थित होता है तब अपने संकल्प को नष्ट करता है जब तुम्हारा मन स्वरूप में स्थित होगा तब तुम अमन होगे और तुम्हारे सब दुःख नष्ट हो जावेंगे | मन के नाश बिना सुख नहीं | हे रामजी! यह मन ऐसा दुष्ट है कि जिससे उपजता है उसी के नाश का निमित्त होता है जैसे बाँस से अग्नि उपजकर उसी को जलाती है, तैसे ही आत्मा से उपजकर यह मन आत्मा ही को तुच्छ करता है | जैसे राजा का नौकर राजा की सत्ता पाकर राजा को ही मारकर आप राजा होता है, तैसे ही मन आत्मा की सत्ता पाकर और उसको ढ़ाँपकर आपही कर्ता भोक्ता हो बैठा है | इससे मन को मन ही से नाश करो | जैसे लोहा तपाकर लोहे को काटता है तैसे ही मन ही को शुद्ध करो | हे रामजी! वृक्ष, बेलि, फल, फूल, पशु, पक्षी, देवता, यज्ञ, नाग जो कुछ स्था वर-जंगम पदार्थ हैं वे प्रथम कर्मों के बिना उत्पन्न हुए हैं और पीछे जब स्वरूप से गिरते हैं और घन पद को प्राप्त होते हैं तब कर्मों से शरीर होते हैं | कर्मों का बीज अहंकार है और अहंकार में शरीर है | जैसे बीज से वृक्ष होता है और समय पाकर फूल, फल प्रकट होते हैं, तैसे ही अहंकार से शरीर प्रकट होते हैं और जब अहंकार नष्ट हुआ तब कोई शरीर नहीं-केवल आत्मपद है | अहंकार है नहीं और प्रत्यक्ष दिखाई देता है और आत्मपद अच्युत है पर गिरे की नाई भासता है, निरावलम्ब है और अवलम्ब की नाई दृष्टि आता है, निराकार है पर आकार सहित भासता है, निराभास है और आभाससहित दिखाई देता है | इससे केवल चिन्मात्र आत्मा में स्थित हो | यह सब चिन्मात्र ही रूप है | हे रामजी! जब ऐसी भावना होती है तब चित् अचित्त हो जाता है और जब चित् अचित् हुआ तब जगत्कलना मिट जाती है केवल आत्मतत्व ही भासता है |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कर्मविचारो नाम चतुरधिकशततमस्सर्गः ||104||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस जीव के तीन स्वरूप हैं-एक स्वरूप तो शुद्धात्मा चिदा नन्द ब्रह्म है जिससे सब प्रकाशते हैं, दूसरा अन्तवाहक पुण्यनाम है जो आत्मा के प्रमाद से हुआ है | जो मात्र पद से उत्थान हुआ है तो भी प्रमादी नहीं, क्योंकि आत्मा का स्मरण रहा है | और
जब आत्मपद को भूला तब तीसरा आधिभौतिक हुआ और पञ्चतत्वों को अपना आप जानने लगा है | हे रामजी! ये तीन स्वरूप जीव के हैं | आत्मा के प्रमाद से जीवसंज्ञा पाता है और दुःखी और परतन्त्र होता है | इससे पञ्चभौतिक और अन्तवाहक को त्यागकर वास्तव- -स्वरूप में स्थित हो | हे रामजी! ये जो स्थूल और सूक्ष्म शरीर हैं सो विचार से नष्ट हो जाते हैं पर तीसरा जो स्वरूप है वह सत्य है | तू उसी में स्थित हो | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! ये तीन रूप जो तुमने जीव के कहे उनके मध्य में नाशरूप कौन है और सत््रूप कौन हैं?
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! हाथ पाँव संयुक्त जो देह है और भोग से मिली हुई है और यह जीव अपने ही संकल्प से सदा फैलाव रचता है | चित्तरूपी देह इस फुरनेरूप से अन्तवाहक है वह सदा प्राणवायु के रथ पर स्थित रहता है-देह हो चाहे न हो हे रामजी! ये दोनों शरीर उपजते और नष्ट भी होते हैं और आदिअन्त से रहित चिन्मात्र जो निर्विकल्प है उसे जीव का परमरूप जानो जो तुरीयापद है उसी से जाग्रदादिक उपजे हैं और उसी में लीन होते हैं | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! मैं तीन को जानता हूँ-एक जाग्रत है जो निद्रा से रहित है और जिसमें इन्द्रियाँ और चार अन्तःकरण अपने-अपने विषयको ग्रहण करते हैं, दूसरा स्वप्न है वहाँ भी इन्द्रियाँ विषय की जाग्रत् की नाईं संकल्प से ग्रहण करती हैं और तीसरे में इन्द्रियाँ अपने विषय से रहित होती हैं और जड़ता आती है, तब कुछ नहीं भासता शिला की नाईं जड़ता तमोगुण आत्मक है- सो सुषुप्ति है | इन तीनों को तो मैं जानता हूँ पर तुरीया और तुरीयातीत को कृपा करके कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अपना होना और न होना दोनों को त्यागकर पीछे केवल तुरीयापद रहता है सो शान्त और निर्मलपद है | हे रामजी! तुरीया जाग्रत नहीं क्योंकि जाग्रत संकल्प जाल है और उससे मनरूप इन्द्रियों में रागद्वेष होता है | तुरीया स्वप्न अवस्था भी नहीं क्योंकि स्वप्न भ्रमरूप होता है- जैसे रस्सी में सर्प भासता है सो और का और होता है और तुरीया सुषुप्ति भी नहीं, क्योंकि उसमें अत्यन्त जड़ता है तुरिया चेतनरूप, उदासीन और शुद्ध है और जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति से रहित हैं | जीवन्मुक्त तुरीयापद में स्थित रहता है | हे रामजी! जो तुरीयापद में स्थित है वह जगत् में स्थित हुआ भी शान्त है और अज्ञानी को जगत् वज्रसारवत् दृढ़ है | ज्ञानी सदा शान्तरूप है, क्योंकि वह तीनों अवस्थाओं का साक्षी है, उसको न उनमें राग है न द्वेष है उदासीन की नाई है तुरीयातीतपद को वाणी की गम नहीं | जीवन्मुक्त पुरुष जब विदेहमुक्त होता है तब इसी पद को प्राप्त होता है जहाँ वाणी की भी गम नहीं | जबतक जीवन्मुक्त है तबतक तुरीयापद में स्थित रह राग द्वेष से रहित होता है और इन्द्रियाँ भी अपने विषय में राग द्वेष से रहित होकर स्वाभाविक बर्तती हैं | जिस पुरुष को राग द्वेष उत्पन्न होता है वह तुरीयापद को नहीं प्राप्त हुआ और चित्त सहित है और जिस पुरुष को राग द्वेष नहीं उत्पन्न होता उसका चित्त सत््पद को प्राप्त हुआ है | जिसका सत््पद को प्राप्त हुआ उसको संसार की सत्यता नहीं भासती, वह स्वप्नवत् जगत् को देखता है | इससे तू भी सत््पद में स्थित होकर साक्षीरूप हो रह |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे तुरीयापदविचारो नाम पञ्चाधिकशततमस्सर्गः ||105||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! कर्ता, कारण और कर्म ये तीनों हों पर तू इनका साक्षी हो इनका कर्तृत्व अभिमान तुझे न हो कि मैं यह करता हूँ अथवा त्याग किया है, उदासीन की नाईं हो रहे | इसी पर एक आख्यान कहता हूँ उसे सुनो | तुम प्रबुद्ध हो तो भी दृढ़ बोध के निमित्त सुनो! हे रामजी! एक वन में काष्ठमौन-नामक एक मुनि रहता था एक दिन एक बधिक किसी मृग पर बाण चलाता हुआ उसके पीछे दौड़ता जाता था वह आगे गया तो मृग बधिक की दृष्टि से अगोचर हो गया | बधिक ने देखा कि एक तपस्वी बैठा है, उससे पूछा, हे मुनीश्वर! यह एक मृग आया था सो किस ओर को गया तुमने देखा हो तो मुझसे कहो काष्ठमौन बोले, हे बधिक! हमको कुछ सुधि नहीं, क्योंकि हम निरहंकार है, हमारे साथ चित्त और अहंकार दोनों नहीं | जो तुम कहो कि इन्द्रियों की चेष्टा कैसे होती है तो सूर्य के आश्रय लोगों की चेष्टा होती है और दीपक के आश्रय चेष्टा होती है और सूर्य दीपक साक्षी हैं तैसे ही हम इन्द्रियों के साक्षी हैं और इनकी चेष्टा स्वाभाविक होती है | हमको इनसे कुछ प्रयोजन नहीं | हे बधिक! अहंकार करनेवाला अहंकार है जैसे माला के भिन्न भिन्न दाने तागे के आश्रय होते हैं और सबमें एक तागा होता है तब माला होती है पर जब तागा टूट पड़ता है तब दाने भिन्न भिन्न हो जाते हैं, तैसे ही इन्द्रियाँरूपी दाने हैं और अहंकाररूपी तागा है, उस अहंकाररूपी तागे के टूटने से इन्द्रियाँ भिन्न भिन्न हो जाती हैं जैसे राजा के नाश हुए सेना और गोपाल के नष्ट हुए गौवें भिन्न भिन्न हो जाती है और पिता के नष्ट हुए बालक व्याकुल होते हैं तैसे ही अहंकार बिना इन्द्रियाँ व्याकुल होती हैं | उनका अभिमान मुझमें कुछ नहीं | इनका अभिमानी अहंकार था सो मेरा नष्ट हो गया है | इन्द्रियाँ अपने अपने विषय में बिचरती हैं मुझको इनका न राग है और न द्वेष है | हे साधो! मुझे न जाग्रत है और न स्वप्न, न सुषुप्ति भासती है, इन तीनों से रहित हम तुरीयापद में स्थित हैं और हमारा अहं त्वं मिट गया है | हम नहीं जानते कि मृग बायें गया या दाहिने, क्योंकि नेत्र इन्द्रियाँ देखनेवाली हैं उनको बोलने की शक्ति नहीं | ये अपने अपने विषय को ग्रहण करती हैं, एक इन्द्रिय को दूसरे की शक्ति नहीं फिर तुझसे कौन कहे? इन सबका धारनेवाला अहंकार था जो सबको अपना आप जानता था | जैसे शरत््काल में मेघ नष्ट होते हैं तैसे ही अहंकार के नष्ट होने से हम स्वच्छ, निर्मलशान्त तुरीयापद में स्थित हैं | इन्द्रियों का बीज अहंकार मृतक हो गया है और इन्द्रियाँ भी मृतक हो गई हैं देखनेमात्र दृष्टि आती हैं | जैसे भीत पर पुतलियाँ लिखी हों पर उनसे कार्य कुछ न हो तैसे ही हमारी इन्द्रियों से कुछ कार्य नहीं होता तो तुझसे कौन कहे | वशिष्ठजी बोले हे रामचन्द्र! जब इस प्रकार मुनीश्वर ने कहा तब बधिक समझकर उठ गया | हे रामजी! तुरीयापद शान्तरूप है जहाँ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों का अभाव है वह केवल अद्वैतपद है | ये जो ब्रह्म, आत्मा चिदानन्द आदि संज्ञा हैं तो तुरीयापद में हैं और तुरीयातीतपद में शब्द की गम नहीं वह अशब्दपद है | विदेहमुक्त पुरुष उसी पद को प्राप्त होते हैं और जीवन्मुक्त साक्षात् करके तुरीयाव स्था में बिचरते हैं, जहाँ जाग्रत जो दीर्घ दुःख सुख का भान है सो नहीं और स्वप्न जो राग द्वेष के लिये अल्पकाल है सो भी नहीं और जड़ता तामस अवस्था भी नहीं इन तीनों से रहित तुरीयापद है और शान्त है उसमें कोई क्षोभ नहीं | यह जगत् उसका आभास है | जैसे समुद्र में तरंग वास्तव में कुछ नहीं-जल ही है, तैसे ही केवल तुरीया स्वरूप सत्तासमान तेरा स्वरूप है उसमें स्थित हो उसमें ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र सिद्ध, ज्ञानी इत्यादिक स्थित हैं और काष्ठ मौन बधिक का उपदेश करनेवाला भी तुरीयापद में स्थित है | उसकी विशेषकलना जो भिन्न भिन्न नामरूप को देखनेवाली थी निवृत्त हुई थीं, केवल सत्तासमान में स्थित था | इससे कलना को त्यागकर तुम भी तुरीयापद में स्थित हो रहो |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे काष्ठमौनवृत्तान्तवर्णनं नाम षडधिकशततमस्सर्गः ||106||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह विश्व केवल आकाशरूप है पर आत्मा से भिन्न नहीं, आत्मा का ही चमत्कार है | जैसे मेघ में बिजली का चमत्कार होता है तैसे यह विश्वरूप चित्त कला आत्मा का चमत्कार है | हे रामजी! वास्तव में ब्रह्म ही है कुछ भिन्न नहीं | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह विश्व आपने ब्रह्मरूप कहा कि मेघ में बिजली की नाईं क्षण में उपजता और क्षण में लीन होता है, पर मेघ में बिजली दृष्टि आती है | जहाँ मेघ होता है वहाँ बिजली भी होती है इससे मेघ से बिजली उत्पन्न हुई तो उसका कारण मेघ है | हे मुनीश्वर! इस चित्तस्पन्द कला के कारण की उत्पत्ति ब्रह्म से कैसे हुई है सो कृपा करके मुझसे समझाकर कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जो वितण्डक होकर तुम तर्क करते हो सो कुछ नहीं-इस नाशबुद्धि को त्यागो | यह तो बालक भी जानते हैं कि बिजली क्षणभंगुररूप है सत्य नहीं | तुम्हारा और क्या प्रयोजन है सो कहो | यह तर्क कारण कार्यरूप का कैसा करते हो? रामजी बोले, हे भगवन्! यह स्पन्दकला सत्य है वा असत्य है | इसका कारण कौन है जिससे वह फुरती है | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! सर्व प्रकार से सर्वात्मा ही स्थित है | चित्त और चित्तस्पन्द यह भेदकल्पना वास्तव में कुछ नहीं , ब्रह्म ही अपने स्वरूप में आप स्थित है और सब भ्रम से भासते हैं | जैसे भ्रमदृष्टि से आकाश में मोती भासते हैं और नेत्र मूँदकर खोलो तो तरुवरे भासते हैं, तैसे ही यह जगत् भ्रम से भासता है | हे रामजी! हम इस संसार समुद्र के पार हुए हैं | हम सरीखे ज्ञानवानों के यथार्थ वचन सुनकर हृदय में धारो तो शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति हो और जो मूर्खता करके मेरे वचनों को न धारोगे तो तुम्हारे दुःख नष्ट न होंगे और वृक्ष तृण, बेल आदिक योनि पावोगे | हे रामजी! आकाश और काल आदिक पदार्थ सर्वकलना से सिद्ध हुए हैं-आत्मा में कोई नहीं | हे रामजी! वायु से रहित जो समुद्र का चमत्कार है उसका कारण कौन है? दीपक में जो प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तो उस प्रकाश और उष्णता का कारण कौन है? वायु के निस्पन्द और स्पन्द का कारण कौन है? जैसे इनका कारण कोई नहीं, वायु का रूप स्पन्द निस्पन्द है, अग्नि का रूप उष्णता है और दीपक का रूप प्रकाश है तैसे ही कलना भी आत्मस्वरूप है-कुछ भिन्न नहीं | हे रामजी! यह कलना जो तुझको भासती है उसको त्याग करो | जब अपने आपको देखोगे तब संशय मिट जावेंगे | जैसे जब प्रलयकाल का जल चढ़ता है तब सर्व जलमय हो जाता है-कुछ भिन्न नहीं होता, तैसे ही अपने स्वरूप को जब तुम देखोगे तब तुमको सब आत्मा ही भासेगा-आत्मा से भिन्न कुछ न दृष्ट आवेगा | हे रामजी! आत्मा एक रस है, सम्यक््दर्शन से ज्यों का त्यों भासेगा और असम्यक् दर्शन से और का और भासेगा | जैसे रस्सी को यथार्थ न देखिये तो सर्पभ्रम होता है और भयवान् होता है और जब ज्यों की त्यों रस्सी जानी तब सर्पभ्रम निवृत्त हो जाता है तैसे ही आत्मा के न जाने से जीव संसारी होता है, भयभीत होता है, आपको जन्मता मरता मानता है और सर्वविकार देह के आत्मा में जानता है पर आत्मा को जानता है तब सब भ्रम निवृत्त हो जाते हैं | जैसे नेत्रों से तारे दीखते हैं और जब नेत्र मूँद लो तो उनका आकार अन्तः करण में भासता है, क्योंकि उनकी सत्यता हृदय में होती है-पर जब हृदय से उनकी सत्यता उठ जाती है तब फिर नहीं भासते, तैसे ही चित्त के भ्रम से संसार हुआ है उसको मिथ्या जानो | हे रामजी! फुरने में जो दृढ़भावना हुई है जो ही सत्य होकर मिथ्या संसार हुआ है, जब चित्त का त्याग करोगे तब संसार की सत्यता जाती रहेगी | रामजी बोले हे भगवन् आपने जो कहा कि यह विश्व कल्पनामात्र है सो मैंने जाना कि इसी प्रकार-कुछ सत्य नहीं जैसे राजा लवण, इन्द्र ब्राह्मण के पुत्र और शुक्र की कलना जब फुरने से दृढ़ हुई तब उन्हें फुरनरूप विश्व सत्य होकर स्थित हुआ और भासने लगा | हे भगवन्! यह मैं जानता हूँ कि विश्व फुरनेमात्र है पर जब फुरना मिट जाता है तो उसके पीछे जो शान्ति रूप शेष रहता है सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अब तुम सम्यक् बोधवान् हुए हो और जो जानने योग्य है वह तुमने जाना है | हे रामजी! अध्यात्म शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि और सब दृश्य असंभव है एक चिद्घन ब्रह्म अपने आपमें स्थित है | हे रामजी! आत्मा शुद्ध, निर्मल और विद्या, अविद्या से रहित हैं और संसार का उसमें अत्यन्त अभाव है जो कुछ शब्द आदिक संज्ञा हैं वे भी फुरने में हैं आत्मा तो निर्वाच्यपद है उसकी समझा इतनी शास्त्रकारों ने कही हैं | शून्यवादी तो उसी को शून्य कहते हैं, विज्ञानवादी विज्ञानरूप कहते हैं, उपासनेवाले उसी को ईश्वर कहते