जीवन्मुक्तिबाह्यलक्षणव्यवहारवर्णन
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! तुमको जो धारणा से पृथ्वी का अनुभव हुआ और उसमें जगत् हुआ वह संकल्परूप था व मन से उपजा
था अथवा आधिभौतिक था? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी सब जगत् संकल्परूप है और आधिभौतिक की नाईं भासता है परन्तु केवल चिदाकाश अपने आपमें स्थित है | वह चिदाकाश मैं हूँ, न कदाचित् उपजा हूँ और न नाश होऊँगा, सर्वदा अद्वैत अचैत्य, चिन्मात्ररूप हूँ | उसके संकल्प का नाम मन है, आभास का नाम संकल्प है और उसी का नाम ब्रह्मा और इच्छा है, उसी में जगत् स्थित है सो आकाशरूप है-कुछ बना नहीं हे रामजी! जिसको सत्य और असत्य कहते हो वह शुभ-अशुभरूप जगत् मन में स्थित है और सर्वआकार निराकाररूप हैं, भ्रान्ति से पिण्डाकार भासते हैं | जैसे स्वप्न में शुभ- अशुभ पदार्थ भासते हैं सो निराकार हैं पर भ्रान्ति से पिण्डाकार भासते हैं तैसे ही वे जगत् भी निराकार हैं पर भ्रम से पिण्डाकार भासते हैं और विचार किये से शून्य हो जाते हैं | जैसे मनोराज से आकार रचित है, तैसे ही हमारे आकार जानो-स्वरूप से कुछ उपजे नहीं | जैसे मृत्तिका में बालक
नानाप्रकार की सेना रचते हैं और उस मृत्तिका का उनको भिन्न-भिन्न भाव निश्चय होता है, तैसे ही अद्वैत आत्मा में मनरूपी बालक ने जगत् कल्पा है वास्तव में कुछ नहीं-आत्मतत्त्व सदा अपने आपमें स्थित है | जैसे मृगतृष्णा का जल ही नहीं तो उसमें डूबा किसे कहिये, तैसे ही मन आप आभासरूप है तो उसका रचा जगत् कैसे सत् हो? हे रामजी! सब चिदाकाशरूप है-दूसरा कुछ बना नहीं | आत्मरूप आकाश में मनरूपी नीलता है सो अविचार सिद्ध है और विचार किये से नीलता कुछ वस्तु नहीं | जैसे दीपक के विद्यमान होने से अन्धकार नहीं रहता, तैसे ही विचार किये से मन और मन की रचना जगत् नहीं रहता | मन का निर्वाण करना ही परमशान्ति है और कोई उपाय नहीं | हे रामजी! जितने क्षोभ हैं, उनका कर्त्ता मन है और सम्पूर्ण शब्द अर्थ कल्पना मन से उठती है-मन के निर्वाण हुए कोई नहीं रहती | रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! आप अनन्त ब्रह्माण्ड की ���ृथ्वी होकर स्थित हुए सो कुछ और रूप भी हुए अथवा न हुए? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मरूपी जो जाग्रत् है उसमें मैं अनन्त ब्रह्माण्ड की पृथ्वी होकर स्थित हुआ | मैं चैतन्य था और जड़ की नाईं स्थित हुआ-वास्तव में मैं जगत् न था केवल चिदाकाश था जिसमें न कुछ नाना है, न अनाना है; न अस्ति है, न नास्ति है, और जिसमें अहं-त्वं-इदं का अभाव है | वह केवल परम चिदाकाश है जो आकाश से भी निर्मल चिदाकाश है और जो है सो सर्व शब्द ब्रह्म है | जगत् के होते भी वह अरूप है, क्योंकि कुछ आरम्भ परिणाम से नहीं बना-केवल आत्मा का चमत्कार है | हे रामजी! जहाँ जहाँ पदार्थ सत्ता है वहाँ वहाँ जगत् वस्तु है | सर्वदा काल, सर्वकार, सब पदार्थों का स्पन्द ब्रह्म है, जहाँ ब्रह्मसत्ता है वहाँ जगत् है | इस प्रकार मैंने अनन्त ब्रह्माण्ड को देखा | जब मैं अनन्त ब्रह्माण्ड की पृथ्वी होकर स्थित हुआ तो जब जल की धारणा की तब जलरूप होकर फैला और वृक���ष, घास, फूल, फल, गुच्छे, डाल तमाल और पत्रों में रस होकर स्थित हुआ, थम्भे में मैं ही बल हुआ और समुद्र हुआ; नदियों के प्रवाह होकर मैं ही बहने लगा और उसमें गड़ गड़ करने लगा और तरंग बुद्बुदे फेन को फैलाकर विलास किया, ओस के कणके होकर मैं ही स्थित हुआ, आकाश में मेघ होकर बरसता और प्राणियों को तृप्त करने लगा | उनमें रुधिर आदि रस होकर मैं ही स्थित हुआ और उनकी नाड़ियों में मथन करके आप ही प्रवेश किया | जैसी नाड़ी होती है तैसा तैसा रस होकर मैं स्थित हुआ | रस, बीज, कफ, पित्त, मूत्र आदिक सब नाड़ियों में मैं ही स्थित हुआ | सर्व प्राणियों की जिह्वा के अग्रभाग में रस होकर मैं स्थित हुआ और अपने आपका आपसे स्वादु को ग्रहण करने लगा- 576 और हिमालय में बरफ होकर स्थित हुआ | हे रामजी! मैं चैतन्य होके जड़ की नाईं स्थित् हुआ, बीज होकर मैंने ही उत्पन्न किया और प्रलय के मेघ होकर मैंने ही नाश किया | इस प्रकार जल होकर स्थावर, जंगम सर्वजगत् में स्थित हुआ और सदा अपने आपमें स्थित होकर अपने स्वरूप को न त्यागा | जैसे स्वप्न में जगत् अनुभवरूप है और अनहोता भासता है, तैसे ही मैं जलरूप होकर जगत् को धारता भया | हे रामजी! नाना प्रकार के स्थानों में मैं स्थित हुआ, फूलों की शय्या पर चिरकाल पर्यन्त विश्राम करता रहा, गन्ध होकर फूलों में स्थित हुआ और मेघ होकर आकाश में बिचरा और ऐसी वर्षा की कि पर्वतों पर वेग से प्रवाह चलने लगा और मैं कणके कणके होके समुद्र और नदी में बिचरा | यह प्रतिभा चिद्अणु में मुझको हुई |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे�़न्तरोपाख्याने जलरूपवर्णनंनाम द्विशताधिकप्रथमस्सर्गः ||201||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जल के अनन्तर मैंने तेज की भावना की अर्थात् तेज धारा, तब मुझमें इतने अंग उदय हुए-चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि-और इनसे जगत् की क्रिया सिद्ध होने लगी | जैसे राजा के अंग अनुचर और हरकारे होते हैं तैसे ही तमरूपी चोर को दीपक रूपी हरकारे मारने लगे आकाशरूपी जो मैं था इसमें मेरे कण्ठ में तारावलीरूपी माला पड़ी थी | सूर्य होकर मैं जल को सोखता और दशों दिशाओं को प्रकाशता रहा | आकाश जो ऊर्ध्वता से श्याम भासता है वह मेरे निकट प्रकाशमान होता था, सब जगत् में मैं ही फूल रहा था और जहाँ मैं रहूँ तहाँ से तम का अभाव हो जावे | चन्द्रमा और सूर्यरूपी डब्बा है जिससे दिन, रात और काल, वर्षरूपी अनेक रत्न सर्वदा निकलते रहते हैं | राजसी, सात्त्विकी और तामसी क्रियारूपी कमलिनी का मैं सूर्य हुआ और सर्वदेवताओं और पितरों को तृप्त करता रहा | यज्ञ की अग्नि और रत्न, मोती, मणि आदिक जो प्रकाश पदार्थ हैं उसमें प्रकाश मैं ही हुआ | प्राणों के भीतर मैं स्थित हुआ और प्राण अपान के क्षोभ से अन्न को पचाने लगा | जैसे आत्मा के प्रकाश से रूप, अवलोक और मनस्कार प्रकाशते हैं,तैसे ही सब पदार्थ मेरे प्रकाश से प्रकाशित होने लगे, क्योंकि मैं तेजरूप था-मानो चैतन्यसत्ता का दूसरा भाई हूँ | जैसे सर्वपदार्थ आत्मा से सिद्ध होते हैं, तैसे ही मुझसे सिद्ध होने लगे | हे रामजी! राजों में तेज और सिद्धों में वीर्य में ही था, बलरूप होकर जगत् को मैं ही पुष्ट करता था, बड़वाग्नि दाहकशक्ति होकर जगत् को मैं ही नष्ट करता था और तेजवानों में तेज, बलवानों में बल मैं ही था | तले भी मैं था, मध्य भी मैं ही था और चन्द्रमा सूर्य से रहित जो स्थान हैं उनमें भी मैं ही था | अग्निरूपी दीपक और चन्द्रमा और सूर्यरूपी नेत्रों से मध्यमण्डल में स्पष्ट मैं देखता था | हे रामजी! इस प्रकार तेजरूप होकर भीतर बाहर जंगम पदार्थों में स्थित हुआ पर जब बोधदृष्टि से देखूँ तब सर्व आत्मा ही का भान हो और जब अन्त वाहक दृष्टि से आपको विराट््रूप जानूँ कि सर्वजगत् में मैं ही फैल रहा हूँ |और सर्व पदार्थ मेरे ही अंग हैं | निदान तेजवानों में तेज और क्रोधवानों में क्रोध यतियों में यती और अजीत मैं हुआ और सर्व और मेरी ही जय है, क्योंकि जय उसकी होती है जिसमें बल और तेज होता है- सो बल मैं हूँ और तेज भी मैं हूँ इससे मेरी जय है | हे रामजी! सुवर्ण और रत्नमणि में जो प्रकाश और रूप है सो मैं हुआ | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! इस प्रकार जो आप जगत् की क्रिया अनुभव करने लगे कि जलरूप होकर अग्नि को बुझाना और अग्नि होकर जल को जलाना इत्यादिक क्रिया जो तुम्हारे ऊपर इष्ट अनिष्ट से होती रहीं उनको तुमने सुख दुःख से अनुभव किया व न किया सो मेरे बोध के निमित्त कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे चैतन्य पुरुष स्वप्ने में पर्वत वृक्ष, देह इन्द्रियों और नाना प्रकार के जड़पदार्थ देखते हैं जो वास्तव में उनमें नहीं हैं, केवल अनुभवरूप हैं परन्तु निद्रादोष से वे उन्हें द्वैत की नाईं जानते हैं और उनका राग-द्वेष अपने में मानते हैं, यथार्थ में दृष्टा ही दृश्यरूप होकर स्थित होता है परन्तु निद्रादोष से नहीं जान सकता और जब जागता है तब स्वप्न की सब सृष्टि को अपना आपही जानता है, तैसे ही यह जगत् अपने स्वरूप में नहीं, जब बोध स्वरूप में जागोगे तब पदार्थ भावना जाती रहेगी और सब जगत् बोध स्वरूप भासेगा | हे रामजी! जिस पुरुष को देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित अखण्ड सत्ता उदय हुई है उसको ज्ञानी कहते हैं | जब यह पुरुष परमात्म अवलोकन करता है तब जगत् आत्मस्वरूप ही भासता है | जिस पुरुष को स्वप्न की सृष्टि में पूर्व का स्वरूप विस्मरण नहीं हुआ उसको अन्तवाहक कहते हैं और उसको पत्थर, जल और अग्नि में प्रवेश करने से भी खेद नहीं होता | हे रामजी! मैं जो आकाश में उड़ता फिरा और आकाश को भी लाँघकर ब्रह्माण्ड के खप्पर पर फिरा हूँ सो अन्तवाहक शरीर से ही फिरा हूँ | जिसको अन्तवाहक शरीर प्राप्त होता है उसको कोई आवरण नहीं रोक सकता क्योंकि सब उसके सब उसके अंग होते हैं | मुझको शुद्ध आत्मा में स्वप्ना हुआ था पर पूर्व का स्वरूप विस्मरण नहीं हुआ इससे सब जगत् मुझको अपना स्वरूप ही भासता रहा और अपने संकल्प से कल्पे हुए अपने ही अंग भासते थे | जैसे कोई मनोराज से अग्नि का समुद्र रचे और उसमें स्नान करे तो वह भी होता है, क्योंकि उसको खेद नहीं होता सब अपने संकल्प में ही उसको भासते हैं | अन्तवाहक शरीर से विराट सबको अपना आप देखता है तैसे ही सब जगत् मुझको अपना आप भासता था तो खेद कैसे हो? जैसे स्वप्न में पर्वत, नदियाँ और अग्नि देखता है सो वही रूप है और आप भी एक आकार धारण करके बन जाता है और पूर्व का स्वरूप उसकी परिच्छिन्नता से भूल जाता है और रागद्वेष से जलता है | मैंने तत्त्वरूप बन के आपको जड़ रूप देखा और चैतन्यरूप भी देखा इस प्रकार मुझको अपना स्वरूप विस्मरण न हुआ तब मैं विराट््रूप सबको अपना अंग ही देखता रहा इससे मुझे खेद कैसे होता? खेद तब होता है जब अपना स्वरूप भूलता है और परिच्छिन्न सा बन जाता है, पर मैं तो बोधवान् रहा कि मैंने स्पन्द से सब रूप धारे हैं | हे राम जी! जिसको यह निश्चय है उसको दुःख कहाँ? सुखदुःखरूप जो पदार्थ हैं सो मैंने अपने में ऐसे देखे जैसे आदर्श में प्रतिबिम्ब भासता है | जिसको यह दृष्टि हो उसको दुःख कहाँ है? हे रामजी! जिसको अन्तवाहक शक्ति प्राप्त होती है वह पाताल और आकाश में जाने को समर्थ होता है और जहाँ प्रवेश किया चाहें वहाँ जा सकता है, क्योंकि सृष्टि संकल्पमात्र है | हे रामजी! और कुछ बनी नहीं आत्मा का किञ्चन ही सृष्टिरूप होकर भासता है | हे रामजी! यह सृष्टि सब ब्रह्मस्वरूप है | हमको तो सदा ऐसे ही भासती है | जब तुम जागोगे तब तुमको भी ऐसे ही भासेगी | तुम भी अब जागे हो | उस प्रकार मैं अग्नि होकर स्थित हुआ कि जिसकी शिखा से कालख निकलती थी | प्रकाश में ही हुआ और अपने चिद्स्वरूप अनुभव में मुझको जगत् भासे उसमें मैं स्थित हुआ | अन्धकार और उलूकादि भी मेरे प्रकाश से प्रकाशते हैं और भावरूप पदार्थ भी मैं अपने में जानता भया, क्योंकि भाव रूप पदार्थ तब भासते हैं जब उनका रूप होता है, सो रूपवान् पदार्थ मैं ही था इस कारण सब मेरे ही में सिद्ध होते थे | इस प्रकार मुझको यह प्रतिभा हुई |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे�़न्तरोपाख्यानचिद्रूप वर्णनन्नाम द्विशताधिकद्वितीयस्सर्गः ||202||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! फिर मैंने पवन की धारणा का अभ्यास किया तब पवनरूप होकर विचरने लगा और कमल के फूलों और वृक्षों को हिलाने लगा | तारों और नक्षत्रों का आधारभूत हुआ वे मेरे आदार पर फिरने लगे | चन्द्रमा और सूर्य के चलानेवाला भी मैं ही हुआ और समुद्र और नदियों के प्रवाह मेरी ही शक्ति से चलते रहे मन का बड़ा वेग भी मैं ही हुआ और प्राणियों में मेरा निवास हुआ म��ं ही प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान पञ्चरूप होकर स्थित हुआ और सब नाड़ियों में मेरा निवास हुआ | सब नाड़ियों को रस अपना-अपना भाग मैं ही पहुँचाता रहा और हलना, चलना, बोलना, लेना, देना सब मुझही से सिद्ध होता था निदान सर्वपदार्थों में स्पर्शशक्ति मैं ही हुआ और सर्वशब्द मेरे ही से सिद्ध होते थे | क्रियारूपी बुन्द का मेघ हुआ, आकाशरूपी गृह में मेरा निवास था और दशों दिशा सब मेरे में ही फुरी थीं | देवताओं को गन्ध से मैं ही सुख देता था और दीपक को मैं ही प्रज्वलित करता था | पक्षियों में मेरा सदा निवास था | जैसे अग्नि में उष्णता रहती है तैसे ही सबके सुखाने और हरियावल करनेवाला मैं ही हूँ | हे रामजी! इस प्रकार मैं पवन होकर स्थित हुआ इसलिये रूप, अवलोक और मन स्कार सर्व पदार्थ मैं ही हुआ और चन्द्रमा, सूर्य, तारे, अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु ,रुद्र, वरुण, कुबेर और यम आदिक जगत् होकर मैं ही स्थित हुआ | पञ्चभूतों के भीतर और बाहर भी मैं था, प्राण-अपान के क्षोभ से दुःख होता है सो मैं ही साकार निराकाररूप हूँ और रक्त पीत श्यामरंग पदार्थ सब मैं ही हूँ | पञ्चभूत जो चिद्अणु फुरे हैं सो उसी का रूप हैं जैसे स्वप्न की सृष्टि सब अपना ही रूप होती है-इतर कुछ नहीं होती | हाड़, माँस, पृथ्वी होकर भूतों में स्थित हुआ और वायुरूप प्राण, अग्नि रूप समिधा और आकाशरूप अवकाश भया हूँ | इस प्रकार मैं सर्व में स्थित भया | मैं भी चैतन्यरूप था और वे तत्त्व भी चैतन्यवपु थे | जैसे स्वप्न में जगत् आकाशरूप हैं | हे रामजी! सर्वकाल, सर्वकार सर्व का सर्वात्मा स्थित है दूसरा कुछ नहीं! आत्मसत्ता सदा अपने आपमें स्थित हैं इससे भिन्न जानना भ्रान्तिमात्र है | यह दृष्टि ज्ञानवान् की है पर जो असम्यक्दर्शी है उनको भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं | इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण जगत् अपने में ही देखा | हे रामजी! मैं ब्रह्मरूप था इससे उसमें जगत् होते दृष्ट आये और जो मैं ब्रह्म से इतर होता तो एकतृण भी न उत्पन्न होता | मैं जो ब्रह्म रूप था इससे सृष्टि उत्पन्न होती है | हे रामजी! जब मैंने बोधदृष्टि से देखा तब आत्मा से भिन्न कुछ न दीखा और जब अन्तवाहक दृष्टि से देखा तब स्पन्द के कारण अणु अणु में सृष्टि भासी! जैसे जहाँ चन्दन का अणु होता है वहाँ सुगन्ध भी होती है, तैसे ही जहाँ जहाँ तत्त्व के अणु हैं वहाँ वहाँ सृष्टि भी है | हे रामजी! एक अणु में अनन्त सृष्टि मुझको भासी | जैसे एक पुरुष शयन करता है और उसको स्वप्नमें सृष्टि भासती है और फिर स्वप्न से स्वप्नान्तर की सृष्टि देखता है तो एक ही जीव में बहुत भासते हैं, तैसे ही एक अणु से अनेक सृष्टि होती हैं | हे रामजी! जो सृष्टि है तो आभास रूप है और आभास अधिष्ठान के आश्रय होता है | सबका अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है जो देश और काल के परिच्छेद से रहित अखण्ड अद्वैत सत्ता है | इसी से कहा है कि अणु-अणु में सृष्टि है, क्योंकि कोई अणु भिन्न नहीं, ब्रह्मसत्ता ही है, सर्वब्रह्म है तो सृष्टि भी ब्रह्मरूप है-इससे सब ब्रह्म ही जानो | ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं | जैसे वायु और स्पन्द में भेद नहीं, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में भेद नहीं |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनंनाम द्विशताधिकतृतीयस्सर्गः ||203||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जब मेरे में सृष्टि फुरी तब मैं उनके भ्रम को त्याग और संकल्प को खैंचकर अन्तर्मुख हुआ और अपनी जो कुटी थी उसकी ओर आया | मैंने कुटी देखी तो उसमें एक पुरुष बैठा मुझको दृष्टि आया | तब मैंने विचार किया कि यह कौन है, मेरा शरीर कहाँ है? मैंने विचार करके देखा कि यह कोई महासिद्ध है | मेरा शरीर इसने मृतक जानकर गिरा दिया है और आप पदमासन बाँधकर दोनों टँखने पुट्ठों के ऊपर किये और शिर और ग्रीवा सूधे किये बैठा है | दोनों हाथ काँधों पर ऊर्ध्व किये है-मानों कमल फूल है व मानों अन्तर का प्रकाश बाहर उदय हुआ है और नेत्र मूँदे है- मानों सब वृत्ति खैंच ली है | हे रामजी! इस प्रकार समाधि लगाकर पद्मासन बाँधे वह आत्मपद में स्थित बैठा था और उसका मुख सूर्य की नाईं प्रकाशता था | जैसे धुयें से रहित अग्नि प्रकाशता है, तैसे ही वह सिद्ध प्रकाशमान स्थित था | इस प्रकार मैंने उसको आत्मपद में स्थित देखा | जैसे दीपक निर्वाण स्थित होता है, तैसे ही उसे स्थित देखकर मैंने विचार किया कि इसे यहाँ ही बैठा रहने दूँ और मैं अपने स्थान सप्तर्षि यों में जाऊँ | इस प्रकार कुटी के संकल्प को त्यागकर मैं उड़ा और उड़ते हुए मार्ग में मुझको विचार उपजा कि देखूँ अब उस सिद्ध की क्या दशा है | फिर उलटकर देखा तो कुटी सहित सिद्ध वहाँ नहीं था, क्योंकि कुटी उसकी आधारभूत थी सो मेरे संकल्प में स्थित थी, जब मेरा संकल्प निर्वाण हो गया तब वह कुटी गिर पड़ी तो उसमें वह सिद्ध कैसे रहे, वह भी गिर पड़ा | हे रामजी! उसको गिरता देखकर मैं भी उसके पीछे हुआ कि उसका कौतुक देखूँ | निदान आगे वह चला और मैं पीछे चला परन्तु मैं स्वाधीन और वह पराधीन चला जाता था | जैसे मेघ से बूँद गिरती है तो नहीं ठहरती तैसे ही वह चला और सप्तद्वीप के पार दशसहस्त्र योजन स्वर्ण की धरती है उस पर आन पड़ा और उसी प्रकार पद्मासन बाँधे हुए शीश और ग्रीवा उसी प्रकार सम ठहरे, क्योंकि उसके शीश और ग्रीवा ऊर्ध्व को थे | हे रामजी! शरीर प्राण से हलता चलता है,जब प्राण ठहर जाते हैं तब शरीर नहीं हलता चलता इस कारण उसका शरीर सम ही रहा और जैसे कुटी में बैठा था उसी प्रकार आसन करके पृथ्वी पर आ पड़ा | तब मेरे मन में आया कि इसके साथ कुछ चर्चा भी करना चाहिये परन्तु यह तो समाधि में स्थित है इसलिये प्रथम किसी प्रकार इसको जगाऊँ | हे रामजी ऐसा विचार करके मैं मेघ होकर उसके शिर पर वर्षा करने लगा और बड़ा शब्द किया जिससे पहाड़ फटने लगे पर उस शब्द और वर्षा से भी वह न जागा | फिर जब मैं ओले होकर उसके ऊपर वर्षा करने | लगा-जैसे पत्थर की वर्षा की वर्षा होती है तब ऐसी वर्षा होने से वह नेत्र खोलकर देखने लगा-जैसे पर्वत पर मोर मेघ को देखने लगे और मैं उसके आगे आ स्थित हुआ | तब उसने समाधि खोली और उसकी प्राण इन्द्रियाँ अपने स्थान में आईं | हे रामजी! जब मुझको उसने अपने आगे देखा तब मैं अद्वैतभाव को त्यागकर बोला, हे साधो तू कौन है, कहाँ स्थित है, क्या करता था और किस निमित्त कुटी में स्थित था? सिद्ध बोले, हे मुनीश्वर! मैं अपने प्रकृतभाव में स्थित हूँ और सब कुछ कहूँगा परन्तु जल्दी जल्दी मतकर-मैं स्मरण करके कहता हूँ | हे रामजी! मुझसे इस प्रकार कहकर वह स्मरण करने लगा और फिर स्मरण करके बोला, हे वशिष्ठजी! मुझपर क्षमा करो, क्योंकि सन्तों का शान्तस्वभाव होता है | मुझसे तुम्हारी बड़ी अवज्ञा हुई है परन्तु तुम क्षमा करो-मेरा तुमको नमस्कार है | हे रामजी! इस फ्रकार नमस्कार करके उसने निर्मल आनन्द के उपजाने वाले यह वचन कहे कि हे मुनीश्वर! संसाररूपी नदी है जिसका बड़ा प्रवाह है और कदाचित् नहीं सूखता | चित्तरूपी समुद्र से यह प्रवाह निकलता है, जन्म-मरण इसके दोनों किनारे हैं, रागद्वेषरूपी इसमें तरंग हैं और भोग की तृष्णा इसमें चक्र फिरता है-उसमें मैंने बड़ा दुःख पाया है | हे मुनीश्वर! अपने सुख के निमित्त देवों के स्थानों में भी मैं गया, दिव्य भोग भोगे और स्पर्श आदिक जो भोग हैं वे भी सब मैंने भोगे हैं परन्तु शान्ति मुझको नहीं प्राप्त हुई और जिस सुख को मैं चाहता था सो न पाया | जैसे पपीहा मेघ की बूँद चाहता है और मरुस्थल की भूमिका में उसको शान्ति नहीं होती, तैसे ही मुझको विषयों के सुख में शान्ति न हुई | हे मुनीश्वर! इस जगत् को असार जानकर मेरा चित्त विरक्त हुआ है इतने काल मैंने भोग भोगे परन्तु मुझको शान्ति न हुई | इसको असत् जानकर मैं फिरा और विचार किया कि जो सार हो उसमें स्थित हो रहूँ | तब मैंने जाना कि सार अपना अनुभवरूप ज्ञानसंवित ही है-इससे मैं उसी में स्थित हुआ हूँ | हे मुनीश्वर! जितने विषय हैं वे विषरूप हैं | विष के पान किये से मृत्यु ही होती है | स्त्री, धन आदिक सुख मोह और दुःख के देनेवाले हैं | ऐसा कौन पुरुष है जो इनमें आया सावधान रहता है? ये तो स्वरूप से नष्ट करने वाले हैं | हे मुनीश्वर! देहरूपी एक नदी है जिसमें बुद्धिरूपी एक मछली रहती है, जब वह शिर बाहर निकालती है अर्थात् इच्छा करती है तब भोगरूपी बगला इसको खा जाता हे अर्थात् आत्म मार्ग से शून्य करता है | ये जो भोगरूपी चोर हैं जब इनका संग जीव करता है तब वे इसको लूट लेते हैं अर्थात् आत्मज्ञान से शून्य करते हैं और जब आत्मज्ञान से शून्य होता है तब जन्मों का अन्त नहीं आता-अनेक शरीर धारता है | जैसे चक्र पर चढ़ी हुई मृत्तिका अनेक वासनों के आकार धारती है तैसे ही आत्मज्ञान से रहित जीव अनेक शरीर धारता है पर अब मैं जाता हूँ मुझको वे अब नहीं लूट सकते | हे मुनीश्वर! भोगरूपी बड़े नाग हैं, और जो नाग हैं उनके डसे से शरीर मृतक होते हैं पर विषयरूपी सर्प के फूत्कार से ही मृतक होता है अर्थात् इच्छा करने से ही आत्मपद से शून्य होता है | जब जीव को विषयों की इच्छा से सम्बन्ध होता है तब उसका क्षण-क्षण में निरादर होता है- जैसे कदली वन से रहित हुआ और महावत के वश में आया हस्ती निरादर पाता है | हे मुनीश्वर! जिस शरीर के निमित्त जीव विषयों की इच्छा करता है वह शरीर भी नाशरूप है इसमें अहंप्रतीति करनी परम आपदा का कारण है और अहंप्रतीति न करनी परमसुख का कारण है | जैसे सर्प के मुख में पड़ा हुआ दर्दुर मच्छर खाने की इच्छा करता है सो महामूर्ख है | किसी क्षण काल उसको ग्रास लेगा, इससे भोगों की इच्छा करनी व्यर्थ है और दुःख का कारण है | हे मुनीश्वर जब बाल अवस्था व्यतीत होती है तब युवा अवस्था आती है और युवा के उपरान्त जब वृद्धावस्था आती है तब शरीर जर्जरीभाव को प्राप्त होता है | जैसे वसन्तऋतु की मञ्चरी जेठ आषाढ़ में सूख जाती है, तैसे ही वृद्धावस्था में शरीर जर्जरीभाव को प्राप्त होता है और दुःख पाता है | बालक अवस्था में जीव क्रीड़ा में मग्न होता है, यौवन अवस्था में कामादिक सेवता और वृद्ध होकर चिन्ता में मग्न रहता है | इस प्रकार जब यह तीनों अवस्था व्यतीत होती हैं तब मर जाता है | जीवों की अवधि इस प्रकार व्यतीत होती है और परमपद से अप्राप्त रहते हैं | हे मुनीश्वर! यह आयु बिजली के चमत्कार की नाईं है | इस क्षणभंगुर अवस्था में जो भोगों की वाञ्छा करते हैं वे महादुःख को प्राप्त होते हैं | इनमें सुख देखकर जो कोई कहे कि मैं स्वस्थ रहूँगा तो कदाचित् न होगा | जैसे जल के तरंगों में बैठकर कोई स्थित हुआ चाहे तो नहीं हो सकता-अवश्य मरेगा-तैसे ही विषय भोगों से शान्ति सुख नहीं होता | जैसे कोई महाधूप से तपा हुआ सर्प के फन की छाया के नीचे बैठकर सुख की वाञ्छा करे तो सुख न पावेगा पर जब आत्मज्ञान रूपी वृक्ष की छाया के नीचे बैठे तब शान्त और सुखी होगा | जिन पुरुषों ने विषयों की सेवना की है वे परमसुख को प्राप्त होते हैं और जिन्होंने आत्मपद की सेवना की है वे परमानन्द को प्राप्त होते हैं | जैसे नदी का प्रवाह नीचे चला जाता है, तैसे ही मूर्ख का मन विषयों की ओर धावता है | यह संसार मायामात्र है और इसमें शान्ति कदाचित् नहीं प्राप्त होती | जैसे मरुस्थल की नदी के जल से तृषा निवृत्त नहीं होती तैसे ही विषय भोगों से शान्ति कदाचित् नहीं होती | जो आत्मपद से विमुख हैं वे विषयों की ओर धावते हैं और जो आत्मपद में स्थित हैं वे विषयों की ओर नहीं दौड़ते | जैसे समुद्र में तरंग उपजकर नष्ट होते हैं और जैसे नदी का वेग समुद्र की ओर गमन करता है पर पत्थर की शिला गमन नहीं करती, तैसे ही भोगरूपी समुद्र की ओर अज्ञानी दौड़ता है ज्ञानी नहीं गमन करता | हे मुनीश्वर! कमल में सुगन्ध तबतक होती है जबतक सर्प के मुख का वायु नहीं लगा, तैसे ही बुद्धि में विचार तबतक है जबतक चित्तरूपी सर्परूपी सर्प को भोग और इच्छारूपी वायु नहीं लगा | जब यह लगता है तब विचाररूपी सुगन्ध ले जाता है और विषरूपी तृष्णा को छोड़ जाता है | बाण निशान की ओर तब धावता है जब धनुष और चिल्ले को त्यागता है और त्यागे से फिर नहीं मिलता, तैसे ही आत्मारूपी चिल्ले से जब चित्तरूपी बाण छूटता है तब भोगरूपी निशान की ओर धावता है और जब जाता है तब फिर आना कठिन होता है-अर्थात् अन्तर्मुख होना कठिन होता है | हे मुनीश्वर! यह आश्चर्य है कि जो पदार्थ सुखदायक नहीं हैं उनकी ओर चित्त बड़ा यत्न करता है पर तो भी वे सिद्ध नहीं होते और अयत्नसिद्ध आत्मपद है उसको त्यागते हैं | जिनको यह सुख जानता है वे सब दुःख के स्थान हैं जिस अपने को यह भला जानता है वह अनर्थ का कारण है | जिस देह को जीव सुखरूप जानता है वह सर्वरोग का मूल है | जिनको यह भोग जानता है वे इसको दुःख देनेवाले परमरोग हैं और जिनको यह सत्य जानता है वे सब मिथ्या हैं, जिनको यह स्थित जानता है वे स्थित नहीं चलरूप हैं, जिनको यह रस जानता है वे सब विरस हैं, जिनको बान्धव जानता है वे सब अबान्धव हैं और दृढ़ बन्धनरूप हैं और जिसको यह सुख देनेवाली स्त्री जानता है वह सर्पिणी है और परमविष के देनेवाली है जिसका काटा मर जाता है फिर नहीं जीता अर्थात् आत्मपद में स्थित नहीं होता | हे मुनीश्वर! मैं परम आपदा का कारण देह को जानता हूँ इसके निवृत्त हुए जीव परमपद को प्राप्त होता है जिस पुत्र, धन आदिक को जीव संपदा जानता है सो परम दुःखरूप आपदा है, इसमें सुख कदाचित् नहीं | यह वार्त्ता मैं सुनकर नहीं कहता, मैंने देखकर विचार किया है, विचार करके अनुभव किया है और अनुभव करके कहा है कि यह संसार मायामात्र है | बड़े-बड़े स्थानों में भी गया हूँ परन्तु सार पदार्थ मुझको कोई दृष्टि नहीं आया | स्वर्ग में नन्दनवन आदि काष्ठरूप ही देखे, मृत्युलोक में आकर देखा तो पञ्चभूत ही दृष्टि आये और शरीर में रक्त, माँस, हाड़, मूत्र आदिक देखे, जो ऐसे शरीर में अहमप्रत्यय करते हैं मैं उनको धिक्कार देता हूँ | शरीर की आयुष्य ऐसी है जैसे दोनों हाथों में जल लीजिये तो बह जाता है अथवा जैसे जल में तरंग बुद्बुदे उपजकर नष्ट होते हैं व बिजली का चमत्कार होकर नष्ट हो जाता है | जो ऐसे शरीर को पाकर सुख की तृष्णा करते हैं वे महामूर्ख हैं | बालक अवस्था तरंग की नाईं नष्ट हो जाती है यौवन अवस्था बिजली के चमत्कार वत् छिप जाती है और वृद्ध अवस्था में केश श्वेत हो जाते हैं और दाँत घिसकर गिर पड़ते हैं | जैसे नीचे स्थान में जल स्थित हो जाता है तैसे ही सब रोग वृद्ध अवस्था में आ स्थित होते हैं और तृष्णा दिन दिन बढ़ती जाती है | हे मुनीश्वर! उस समय सब पदार्थ जर्जरीभूत हो जाते हैं और तृष्णा जवान होती है-जैसे वसन्तऋतु की मञ्जरी बढ़ती जाती है-और जो सुखभोग प्राप्त होकर बिछुड़ जाते हैं उनका दुःख होता है | हे मुनीश्वर! इस प्रकार इनको असत्य जानकर मैं स्वरूप में स्थित हुआ हूँ | यदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट बड़ी उत्तम मूर्ति धारके आ स्थित हों तो भी हमको खैंच नहीं सकते जैसे मूर्ति की लिखी कमलिनी भँवर को नहीं खैंच सकती, तैसे ही हम सरीखों को विषय नहीं चला सकते | हे मुनीश्वर! तुम्हारा शरीर मैंने अवज्ञा करके डाल दिया है-विचार से नहीं फेंका | ब्रह्मा रुद्रादिक जो त्रिकालज्ञ हैं वे भी इस चर्मदृष्टि से नहीं जान सकते, जब विचार से देखते हैं तभी जानते हैं, इस कारण विचार बिना मैंने तुम्हारा शरीर फेंक दिया था | अब तुम क्षमा करो | योगेश्वर विचार से ही भूतम भविष्यत् और वर्तमान को जानता है, इन नेत्रों से तो वही जाना है कि जो अग्रभाग में होता है विशेष नहीं जाना जाता, इस कारण मुझसे तुम्हारा शरीर गिरा है |
इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णनन्नाम द्विशताधिक चतुर्थस्सर्गः ||204||
वशिष्ठजी बोले, हे साधो! मुझसे भी तेरा गिराना विचार बिना हुआ है कि विचार बिना मैं उठ गया था | यह कुटी मेरे अन्तवाहक संकल्प में थी सो मैं अपने स्थान को चला इस कारण यह कुटी गिर पड़ी और तुम भी गिर पड़े | जो बीत गई सो भली हुई उसकी क्या चिन्तना कीजिए? ज्ञानवान् बीती की चिन्तना नहीं करते जो होनी थी सो भली हुई | हे साधो! अब जहाँ तुम्हें जाना है वहाँ जावो और हम भी जाते हैं | हे रामजी! इस प्रकार चर्चा करके हम दोनों आकाश मार्ग को उड़े-जैसे पक्षी उड़ते हैं-और परस्पर नमस्कार करके हम दोनों भिन्न भिन्न हो गये | वह अपने स्थान को चला और मैं अपने स्थान को चला और बहुतेरे स्थान देखता गया परन्तु मुझको कोई न जानता था | हे रामजी यह सम्पूर्ण वृत्तान्त जो मैंने तुमसे कहा है उसे तुम विचारो | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आपने जो सिद्ध के साथ समागम किया था तो आकाशमार्ग में कैसे शरीर से किया था और पंचभौतिक शरीर तो पृथ्वी पर पड़ा था और पृथ्वी में अणुरूप हो गया था फिर आप किस शरीर से बिचरे? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अन्तवाहक शरीर से मैं बिचरता फिरा था और उससे ही मैं सिद्ध और देवताओं के स्थानों और इन्द्र, वरुण और कुबेर के स्थानों में फिरा हूँ परन्तु मुझे कोई न देखता था और मैं सबको देखता था | संकल्प रचित पुरुष से मेरा व्यवहार हुआ था और किससे कहूँ? रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! अन्तवाहक शरीर तो इन्द्रियों का विषय नहीं है फिर सिद्ध से आपने चर्चा कैसे की और उसने तुमको कैसे देखा? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जो तुम कहते हो तो सुनो | मैं इस निमित्त दृष्टि आया कि मेरा सत्य संकल्प था | मुझे यह फुरना हुआ कि सिद्ध मुझको देखे और मुझसे चर्चा करे इससे उसने मुझको देखा उसका संकल्प भी मेरे में आया तब जाना | जो दोनों सिद्ध हों और उनका संकल्प भिन्न भिन्न हो तो एक दूसरे के संकल्प को नहीं जानते- परन्तु किसी का विशेष संकल्प हो तो वह दूसरे के संकल्प को जानता है | इससे यद्यपि उसका संकल्प मेरे देखने को न था पर मेरा दृढ़ संकल्प था इससे मैं उसके संकल्प को खैंचकर अपनी ओर ले आया | जो बली होता है उसी की जय होती है-इससे उसने मुझको देखा | हे रामजी! जो अन्तवाहक में स्थित होता है उसको तीनों काल का ज्ञान होता है परन्तु व्यवहार में लगे तो उसे भूल जाता है और जो वर्तमान पदार्थ होता है उसी का ज्ञान होता है | इसी कारण उसने मेरा शरीर डाल दिया था, क्योंकि वह समाधि के व्यवहार में लगा था और मेरे संकल्प से वह कुटी भी गिरी थी कि जब मैं अपने स्थान के व्यवहार को ऐसी चिन्तना करके चला था | जो मैं चिन्तना में न होता, अन्तवाहक शरीर में होता और उस कुटी का भविष्यत् विचार उस संकल्प को रहने देता तो वह सिद्ध न गिरता पर मैं तो और ही व्यवहार में लगा था इससे अन्तवाहक विस्मरण हो गया जिससे वह कुटी गिर पड़ी और सिद्ध भी गिर पड़ा | हे रामजी! इस प्रकार सिद्ध गिरा और उससे चर्चा हुई तब मैं वहाँ से चला और अन्तवाहक शरीर से आकाशमार्ग में फिरने लगा | सिद्धों के समूह और देवता, विद्याधर, गन्धर्व, किन्नर , ऋषि. मुनि, वरुण, कुबेर, इन्द्र , यम आदि सबके स्थान देखे परन्तु मुझको कोई न देखे | मैं बड़े बड़े शब्द करूँ कि किसी प्रकार कोई शब्द सुने और मुझको देखे परन्तु मेरा शब्द कोई न सुने और न कोई देखे |जैसे स्वप्ने में कोई शब्द न करे तो उसका शब्द जाग्रत्वाला कोई नहीं सुनता और जैसे असंकल्पवाला दूसरे की सृष्टि व्यवहार का शब्द नहीं जानता तैसे ही मुझको कोई न जानता था | हे रामजी! इस प्रकार मैं प्रथम आकाश में पिशाच की नाईं होकर बिचरा और फिर दैत्यों के स्थानों में बिचरा मैं सबको देखूँ पर मुझको कोई न देखे | रामजी ने पूछा, हे भगवन् | पिशाच का शरीर, जाति और क्रिया कैसी होती है और उनके रहने का कौन स्थान है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! पिशाच की कथा से कुछ प्रयोजन न था तथापि तुमने प्रसंग पाकर पूछा है इससे मैं कहता हूँ | पिशाच का आकार नहीं होता और जो रूप वे धारते हैं सो सुनो | कई तो आकाश की नाईं शून्य होते हैं और परछाही की नाई भय देते हैं, कई शूकर और कई काकरूप धारकर स्थित होते हैं | ऐसे रूप धारके वे विचरते हैं और सबको देखते और जानते हैं पर उनको कोई नहीं जानता | शीत-उष्ण से वे भी दुःख पाते हैं और इच्छा, द्वेष, लोभ, मान, मोह, क्रोध आदिक विकार उनमें भी रहते हैं | शीतल जल और भले भोजन की वे भी इच्छा करते हैं और नगरों वृक्षों और दुर्गन्ध स्थानों में भी रहते हैं | कहीं सियार होकर दिखाई देते हैं और कहीं श्वान होकर दृष्टि आते हैं | मन में भी प्रवेश करते हैं और मन्त्र पाठ, दान आदिक से जो वश होते हैं सो भी अपनी अपनी वासना के अनुसार होते हैं | इनमें भी उत्तम, मध्यम और नीच होते हैं, जो उत्तम हैं वे देवताओं के स्थानों, मध्यम के स्थानों और नीच नरकों के स्थानों में रहते हैं और इनकी उत्पत्ति अचैत्य चिन्मात्र जो दृश्य से रहित शुद्ध चैतन्यहै उससे हुई है | हे रामजी! सबका अपना आप वही चैतन्यसत्ता की नाईं है, उसमें जैसी जैसी वासना होती है तैसा ही तैसा पदार्थ हो भासता है | हे रामजी! न कहीं पिशाच है और न जगत् है, ब्रह्मसत्ता ही ज्यों की त्यों अपने आपमें स्थित है | शुद्ध आत्मत्वमात्र में किञ्चन `अहं' होकर फुरा है उसी को जीव कहते हैं | उस अहं की दृढ़ता से मन फुरा है सो मन ब्रह्मारूप होकर स्थित हुआ है | उस ब्रह्मा ने मनोराज से आगे जगत् उत्पन्न किया है और ब्रह्मा ही जगत््रूप होकर स्थित हुआ है सो ब्रह्मा स्थित है | हे रामजी! ब्रह्मा का शरीर अन्तवाहक और केवल आकाशरूप है और उसके दृढ़ संकल्प से आधिभौतिक जगत् दृढ़ हुआ है- उसी मन से और मन हुआ है | हे रामजी! जैसे ब्रह्मा का शरीर अन्तवाहक है तैसे ही सबका शरीर अन्तवाहक है परन्तु संकल्प की दृढ़ता से आधिभौतिक भासता है और सब मनरूप है परन्तु दीर्घकाल का स्वप्ना है वह जाग्रत होकर स्थित हुआ है इससे दृढ़ भासता है | जिनको शरीर में अहंकार है उनको जगत् आधिभौतिक भासता है और जो प्रबोधरूप हैं उनको सब जगत् संकल्परूप है- वास्तव में कुछ उपजा नहीं, न तुम हो,न मैं हूँ न ब्रह्मा है और न जगत् है-सब ही ब्रह्मरूप है | जैसे आकाश और शून्यता में कुछ भेद नहीं, अग्नि और उष्णता में कुछ भेद नहीं और वायु और स्पन्द में कुछ भेद नहीं, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं | ब्रह्मा और जगत् दोनों अज है, न ब्रह्मा ही उपजा है और न जगत् ही उपजा है-दोनों ब्रह्मरूप हैं | जो ब्रह्म से भिन्न भासता है वह भ्रान्तिमात्र है | हे रामजी! पञ्चभूत और छटा मन इनका नाम जगत् है | जबतक ये भूत उसमें दृष्टि आते हैं तबतक भ्रान्ति है और जब इनसे रहित केवल चैतन्य भासे तब उसी का नाम परमपद है | हे रामजी! जब आत्मपद में जागोगे तब पञ्च भूत भी आत्मा से भिन्न न भासेंगे | सबका अधिष्ठान चैतन्यसत्ता है जबतक आत्मा का प्रमाद है तब तक संसारभ्रम न मिटेगा | सब जगत् निराकार संकल्पमात्र है परन्तु संकल्प की दृढ़ता से आकाश में स्थूलभूत दृष्टि आते हैं | ज्ञानकाल और अज्ञानकाल में जगत् उपजा नहीं परन्तु अज्ञानी को दृढ़ भासता है | जैसे मनोराज से किसी ने नगर रचा हो तो वह उसी के हृदय में है और कहीं नहीं भासता, तैसे ही जबतक जीव अज्ञान निद्रा में सोया है तबतक जगत् भासता है पर जब जागेगा तब आकाशरूप देखेगा | हे रामजी! अपना संकल्प आपको नहीं बाँधता | जबतक स्वरूप का प्रमाद नहीं होता तबतक ब्रह्मा का संकल्प ब्रह्मा को नहीं बन्धन करता | स्वरूप भी अहंप्रत्यय से तो संकल्प रूप है और दूसरी कुछ वस्तु सत्य नहीं-आत्मा ही है | वास्तव में न जगत् का आदि है, न मध्य है और न अन्त है, न जगत् का होना है और न अनहोना है-आत्मसता ही अपने आपमें स्थित है | हे रामजी! जो सर्वात्मा ही है तो राग-द्वेष किसका हो? सब अपना आप ही है और अपना आप जो आत्मतत्त्व है उसका किञ्चन संवेदन फुरने से जगत््रूप होकर स्थित हुआ है | जैसे किसी पुरुष ने मनोराज से एक स्थान रचा और उसमें दृढ़ भावना हुई तो आधिभौतिक भासने लग जाता है, तैसे ही जगत् भी ब्रह्मा का संकल्प है और चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, रुद्र, वरुण और कुबेर आदिक सब संकल्परूप हैं पर संकल्प की दृढ़ता से आधिभौतिक भासते हैं | हे रामजी! आत्मरूपी एक ताल है जिसमें चैतन्यरूपी जल है, फुरनरूपी कीचड़ है और उसमें चौदह प्रकार के भूतजातरूप दर्दुर रहते हैं सो सब संकल्पमात्र है | हे रामजी! आकाश में एक आकाशक्षेत्र है जिसमे शिला उत्पन्न होती हैं | स्वर्गलोक और देवता बड़ी शिला हैं, एक उनमें उज्ज्वल शिला है सो ज्ञानवान् है मध्यम शिला मनुष्य हैं नीचे शिला तिर्यक आदिक योनि हैं सो सब ही निर्बीज हैं अर्थात् कारण से रहित हैं और अद्वैत आत्मा सदा अपने आपमें स्थित है-कुछ उत्पन्न नहीं हुआ परन्तु भ्रान्ति से भिन्न भिन्न भासता है | जैसे फैन बुद्बुदे और तरंग सब जल रूप हैं, तैसे ही यह जगत् सब आत्मरूप है और जैसे स्वप्न और संकल्प की सृष्टि कारण बिना होती है, तैसे यह जगत् कारण बिना संकल्प से उत्पन्न हुआ है | जैसे ब्रह्मादिक हुए हैं तैसे ही पिशाच भी उदय हुए हैं | हे रामजी! जैसा किञ्चन आत्मा में होता है तैसा ही होकर भासता है, वास्तव में पृथ्वी आदिक तत्त्व कहीं नहीं और न कहीं ब्रह्म उपजा है, न कोई जगत् उपजा है सब भ्रममात्र हैं | जितने वपु भासते हैं वे सब निर्वपु हैं, चैतन्यता से फुरे हैं और सब जीवों का आदि अन्तवाहक शरीर है | जैसे ब्रह्मा का अन्तवाहक शरीर था, तैसे ही सर्व जीवों का अन्तवाहक शरीर होता है परन्तु संकल्प की दृढ़ता से आधिभौतिक हो भासता है | सब जीवों का अपना अपना भिन्न भिन्न संकल्प है उसी के अनुसार अपनी सृष्टि होती है | जो तुम कहो कि भिन्न भिन्न हैं तो जीव इकट्ठे क्यों दृष्टि आते हैं, चाहिये कि अपनी अपनी सृष्टि में हो तो उसका उत्तर यह है कि जैसे एक नगरवासी और नगर में जावे और एक नगरवासी और मैं आवे और दोनों जाय इकट्ठे बैठें, तैसे ही सब जीव इकट्ठे भासते हैं पर उनके इकट्ठे हुए भी इसकी सृष्टि को वह नहीं देखता और उसकी सृष्टि को यह नहीं देखता जैसे स्वप्न में भिन्न भिन्न भूतजात होते हैं और अनुभव में इकट्ठे इकट्ठे दृष्टि आते हैं और एक अनुभव में भिन्न भिन्न होते हैं एक दूसरे की सृष्टि को नहीं जानते | जीव को अन्तवाहक भूल गया है इससे आधिभौतिक दृढ़ हो रहा है जैसा अनुभव में अभ्यास होता है तैसा ही भासता है | जहाँ पिशाच होता है वहाँ अन्धकार भी होता है | जो मध्याह्न का सूर्य उदय हो और पिशाच आगे आवे तो अन्धकार हो जाता है ऐसा तमरूप वह होता है | जैसे उलूकादिक को प्रकाश में अन्धकार होता है तैसे ही अनेक सूर्य का प्रकाश हो तो भी पिशाच को अन्धकार ही रहता है | हे रामजी! जैसा उनमें निश्चय होता है तैसा ही भान होता है, क्योंकि उनका ओज तमरूप है | जैसा किसी को निश्चय होता है तैसा ही भासता है | हमको तो सदा आत्मा का निश्चय है इससे हमें सदा आत्मतत्त्व का भान होता है | जैसा पिशाच पाञ्चभौतिक शरीर से रहित चेष्टा करते हैं तैसे ही मैं पंचभौतिक
शरीर से रहित आकाश में चेष्टा करता रहा हूँ |
इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणेअन्तरोपाख्यानवर्णनन्नाम द्विशताधिकपञ्चमस्सर्गः ||205||
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैं चिदाकाशरूप हूँ इसलिये पाञ्चभौतिक शरीर से रहित अन्त वाहक शरीर से मैं विचरता रहा परन्तु मुझको कोई न देखे | चन्द्रमा, सूर्य और इन्द्र जो सहस्त्र नेत्रवाले हैं और सिद्ध, गन्धर्व, ऋषीश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी इस चर्मदृष्टि से मुझे न देख सकें और मैं सबको देखता फिरूँ | इन्द्र के निकट जाकर मैंने उसके अंग हिलाये परन्तु उसने मुझको न जाना | जैसे संकल्पनगर किसी को हिलावे और वह न देखे और आधिभौतिक शरीर न हिले | इससे मैं अति मोह को प्राप्त हुआ कि इतने काल मैं रहा और मुझको कोई देख नहीं सकता | तब मैंने यह इच्छा की मुझको सब देखें | मैं तो सत्यसंकल्परूप था इससे सब मुझे देखने लगे | जैसे कोई इन्द्रजाल को देखे तैसे ही वे मुझको देखने लगे | जिसने पृथ्वी पर देखा उसने पृथ्वी से उपजा वशिष्ठ जाना और मनुष्यलोक में कई जल से उपजा जानेंकि वारिज वशिष्ठ है | कई ने वायु से उपजा जाना और कई जानें कि सप्तऋषियों के मध्य जो तेजोमय वशिष्ठ है वही है | इस प्रकार जगत् में मुझको सब देखने लगे और मैं सबके