श्रीयोगवाशिष्ठ तृतीय उत्पत्ति प्रकरण

अनुक्रम

श्रीयोगवाशिष्ठ तृतीय उत्पत्ति प्रकरण प्रारम्भ.... 4

बोधहेतुवर्णन.. 4

प्रथमसृष्टिवर्णन.. 6

बोधहेतुवर्णन.. 8

बोधहेतुवर्णन.. 10

प्रयत्नोंपदेश.. 13

दृश्यअसत्यप्रतिपादन.. 15

सच्छास्त्रनिर्णयो... 18

परमकारण वर्णन.. 18

परमात्मस्वरूप वर्णन.. 22

परमार्थरूपवर्णन.. 24

जगदुत्पत्तिवर्णन.. 26

स्वयम्भूउत्पत्ति वर्णन.. 27

सर्वब्रह्मप्रतिपादनम्.. 29

परमार्थप्रतिपादन.. 33

विश्रान्तिवर्णन.. 42

विज्ञानाभ्यासवर्णन.. 44

देहाकाशमागमन.. 47

आकाशगमनवर्णन.. 48

भूलोकगमनवर्णन.. 48

सिद्धदर्शनहेतुकथन.. 49

जन्मान्तरवर्णन.. 51

गिरिग्रामवर्णन.. 53

पुनराकाशवर्णन.. 54

ब्रह्माण्डवर्णन.. 56

गगननगरयुद्धवर्णन.. 57

रणभूमिवर्णन.. 58

द्वन्द्वयुद्धवर्णन.. 59

स्मृत्यनुभववर्णन.. 60

भ्रान्तिविचार. 64

स्वप्नपुरुषसत्यतावर्णन.. 67

अग्निदाहवर्णन.. 69

अग्निदाहवर्णन.. 70

सत्य कामसंकल्पवर्णन.. 72

विदूरथमरणवर्णन.. 73

मृत्युमूर्च्छानन्तरप्रतिमावर्णन.. 76

मण्डपाकाश गमनवर्णन.. 78

मृत्युविचारवर्णन.. 80

संसारभ्रम वर्णन.. 84

मरणानंतरावस्थावर्णन.. 87

स्वप्ननिरूपणं.. 90

जीवजीवन्वर्णन.. 92

निर्वाणवर्णन.. 94

प्रयोजन वर्णन.. 95

जगत्किञ्चनवर्णन.. 99

दैवशब्दार्थविचार. 102

बीजावतारो नाम.. 103

बीजांकुरवर्णन.. 104

जीवविचार. 106

संश्रितउपशमयोग.. 107

सत्योपदेश.. 109

विसूचिकाव्यवहार-वर्णन.. 113

सूचीशरीरलाभ.. 115

राक्षसीविचार. 117

राक्षसीविचार. 118

राक्षसीप्रश्न वर्णन.. 120

राक्षसीप्रश्नभेद. 122

परमार्थनिरूपण.. 125

राक्षसीसुहृदता वर्णन.. 130

सूच्याख्यानसमाप्ति वर्णन.. 133

मनअंकुरोत्पत्तिकथन.. 133

आदित्यसमागम.. 136

ऐंदवसमाधिवर्णन.. 137

जगद्रचनानिर्वाण वर्णन.. 139

ऐन्दवनिश्चयकथन.. 140

कृत्रिमइन्द्रवाक्य.... 141

अहल्यानुरागसमाप्तिवर्णन.. 143

जीवक्रमोपदेश.. 144

मनोमाहात्म्य वर्णन.. 147

वासनात्याग वर्णन.. 149

कर्मपौरुषयोरैक्य प्रतिपादन.. 150

मनः संज्ञाविचार. 152

चिदाकाशनाहात्म्यवर्णन.. 155

चित्तोपाख्यानवर्णन.. 156

चित्तोपाख्यानसमाप्तिवर्णन.. 158

चित्तचिकित्सावर्णन.. 160

बालकाख्यायिकावर्णन.. 161

मननिर्वाणोपदेशवर्णन.. 163

चित्तमाहात्म्यवर्णन.. 166

इन्द्रजालोपाख्यान नृपमोह. 167

राजाप्रबोध.. 168

चाण्डालीविवाहवर्णन.. 169

इन्द्रजालोपाख्यान उपद्रव वर्णन.. 171

साम्बरोपाख्यानसमाप्ति वर्णन.. 172

चित्तवर्णन.. 173

मनशक्तिरूपप्रतिपादन.. 177

सुखोपदेशवर्णन.. 180

अविद्यावर्णन.. 181

यथाकथितदोषपरिहारोपदेश.. 185

सुखदुःखभोक्तव्योपदेश.. 189

सात्त्विकजन्मावतार. 190

अज्ञानभूमिकावर्णन.. 192

ज्ञानभूमिकोपदेश.. 193

युक्तोपदेश.. 195

चाण्डालीशोचनवर्णन.. 196

चित्ताभावप्रतिपादन.. 197

आर्षे महारामायण.. 199

 

 

श्रीपरमात्मने नमः

श्रीयोगवाशिष्ठ तृतीय उत्पत्ति प्रकरण प्रारम्भ

बोधहेतुवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ब्रह्म और ब्रह्मवेत्ता में त्व इदं सः इत्यादिक सर्व शब्द आत्मसत्ता के आश्रय स्फुरते हैं । जैसे स्वप्न में सब अनुभव सत्ता में शब्द होते हैं वैसे ही यह भी जानो और जो उसमें यह विकल्प होते हैं कि जगत् क्या हुआ है और किसका है इत्यादिक चोगचञ्चु हैं । हे रामजी! यह सब जगत् ब्रह्मरूप है यहाँ स्वप्न का दृष्टान्त विचार लेना चाहिए । इसके पहिले मुमुक्षु प्रकरण मैंने तुमसे कहा है अब क्रम से उत्पत्तिप्रकरण कहता हूँ सो सुनिये-जो ज्ञान वस्तुस्वभाव है । हे रामजी! जो पदार्थ उपजता है वही बढ़ता, घटता, मोक्ष और नीच, ऊँच होता है और जो उपजता न हो, उसका बढ़ना, घटना, बन्धु, मोक्ष और नीच, ऊँच होना भी नहीं होता । हे रामजी! स्थावर-जंगम जो कुछ जगत् दीखता है सो सब आकाशरूप है । दृष्टा का जो दृश्य के साथ संयोग है इसी का नाम बन्धन है और उसी संयोग के निवृत होने का नाम मोक्ष है । उसकी निवृत्ति का उपाय मैं कहता हूँ । देहरूपी जगत् चिन्मात्ररूप है और कुछ उपजा नहीं, जो उपजा भासता है सो ऐसा है जैसे सुषुप्ति में स्वप्न । जैसे स्वप्न में सुषुप्ति होती है वैसे ही जगत् का प्रलय होता है और जो प्रलय में शेष रहता है उसकी संज्ञा व्यवहार के निमित्त कहते हैं । नित्य, सत्य, ब्रह्म, आत्मा, सच्चिदानन्द इत्यादिक जिसके नाम रखे हैं वह सबका अपना आप है । चेतनता से उसका नाम जीव हुआ है और शब्द अर्थों को ग्रहण करने लगा है । हे रामजी! चैतन्य में जो स्पन्दता हुई है सो संकल्प विकल्परूपी मन होकर स्थित हुआ है । उसके संसरने से देश, काल, नदियाँ; पर्वत, स्थावर और जंगमरूप जगत् हुआ है । जैसे सुषुप्ति से स्वप्न हो वैसे जगत् हुआ है । उसको कोई अविद्या कोई जगत् कोई माया कोई संकल्प और कोई दृश्य कहते हैं; वास्तव में सब ब्रह्मस्वरूप है-इतर कुछ नहीं । जैसे स्वर्ण से भूषण बनता है तो भूषण स्वर्णरूप है; स्वर्ण से इतर भूषण कुछ वस्तु नहीं है वैसे ही जगत् और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं है । भेद तो तब हो जब जगत् उपजा हो;जो उपजा ही नहीं तो भेद कैसे भासे और जो भेद भासता है सो मृगतृष्णा के जलवत् है- अर्थात् जैसे मृगतृष्णा की नदी के तरंग भासते हैं पर वहाँ सूर्य की किरणें ही जल के समान भासती हैं, जल का नाम भी नहीं, वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । चैतन्य के अणु-अणु प्रति सृष्टि आभासरूप है कुछ उपजी नहीं । अद्वैतसत्ता सर्वदा अपने आप में स्थित है, फिर उसमें जन्म, मरण और बन्ध, मोक्ष कैसे हो? जितनी कल्पना बन्ध-मोक्ष आदि भासती है सो वास्तविक कुछ नहीं है आत्मा के अज्ञान से भासती है । हे रामजी! जगत् उपजा नहीं, अपनी कल्पना ही जगत्‌रूप होकर भासती है और प्रमाद से सत् हो रही है निवृत्त होना कठिन है । अनियत और नियत शब्द जो कहे हैं सो भावनामात्र हैं, ऐसे वचनों से तो जगत् दूर नहीं होता । हे रामजी! अर्थयुक्त वचनों के बिना दृश्यभ्रम नहीं निवृत्त होता । जो तर्क करके और तप, तीर्थ, दान, स्नान, ध्यानादिक करके जगत् के भ्रम को निवृत्त करना चाहे वह मूर्ख है, इस प्रकार से तो और भी दृढ़ होता है । क्योंकि जहाँ जावेगा वहाँ देश, काल और क्रिया सहित नित्य पाञ्चभौतिक सृष्टि ही दृष्टि आवेगी और कुछ दृष्टि न आवेगी, इससे इसका नाश न होगा और जो जगत् से उपराम होकर समाधि लगाके बैठेगा तब भी चिरकाल में उतरेगा और फिर भी जगत् का शब्द और अर्थ भास आवेगा । जो फिर भी अनर्थरूप संसार भासा तो समाधि का क्या सुख हुआ? क्योंकि जब तक समाधि में रहेगा तभी तक वह सुख रहेगा । निदान इन उपायों से जगत् निवृत्त नहीं होता । जैसे कमल के डोड़े में बीज होता है और जब तक उस बीज का नाश नहीं होता तब तक फिर उत्पन्न होता रहता है और जैसे वृक्ष के पात तोड़िये तो भी बीज का नाश नहीं होता । वैसेही तप, दानादिकों से जगत् निवृत्त नहीं होता और तभी तक अज्ञानरूपी बीज भी नष्ट नहीं होता । जब अज्ञानरूपी बीज नष्ट होगा तब जगत्‌रूपी वृक्ष का अभाव हो जावेगा । और उपाय करना मानो पत्तों को तोड़ना है । इन उपायों से अक्षय पद और अक्षय समाधि नहीं प्राप्त होती । हे रामजी! ऐसी समाधि तो किसी को नहीं प्राप्त होती कि शिला के समान हो जावे । मैं सब स्थान देख रहा हूँ कदाचित् ऐसे भी समाधि हो तो भी संसारसत्ता निवृत्त न होगी, क्योंकि अज्ञानरूपी बीज निवृत्त नहीं हुआ । समाधि ऐसी है जैसे जाग्रत् से सुषुप्ति होती है, क्योंकि अज्ञानरूपी वासना के कारण सुषुप्ति से फिर जाग्रत आती है वैसे ही अज्ञानरूपी वासना से समाधि से भी जाग जाता है क्योंकि उसको वासना खैंच ले आती है । हे रामजी! तप, समाधि आदिकों से संसारभ्रम निवृत्त नहीं होता । जैसे कांजी से क्षुधा किसी की निवृत्त नहीं होती वैसे ही तप और समाधि से चित्त की वृत्ति एकाग्र होती है परन्तु संसार निवृत्त नहीं होता । जब तक चित्त समाधि में लगा रहता है तब तक सुख होता है और जब उत्थान होता है तब फिर नाना प्रकार के शब्दों और अर्थों से युक्त संसार भासता है । हे रामजी! अज्ञान से जगत भासता है और विचार से निवृत्त होता है । जैसे बालक को अपनी अज्ञानता से परछाहीं में वैताल की कल्पना होती है और ज्ञानसे निवृत्त होती है वैसे ही यह जगत् अविचार से भासता है और विचार से निवृत्त होता है । हे रामजी! वास्तव में जगत् उपजा नहीं- असत्‌रूप है । जो स्वरूप से उपजा होता तो निवृत्त न होता पर यह तो विचार से निवृत्त होता है इससे जाना जाता है कि कुछ नहीं बना । जो वस्तु सत्य होती है उसकी निवृत्ति नहीं होती और जो असत् है सो स्थिर नहीं रहती । हे रामजी! सत्‌स्वरूप आत्मा का अभाव कदाचित् नहीं होता और असत्‌रूप जगत् स्थिर नहीं होता । जगत् आत्मा में आभासरूप है आरम्भ और परिणाम से कुछ उपजा नहीं । जहाँ चैतन्य नहीं होता वहाँ सृष्टि भी नहीं होती, क्योंकि सृष्टि आभासरूप है । आत्मा आदर्शरूप है उसमें अनन्त सृष्टियाँ प्रतिबिम्बित होती हैं । आदर्श में प्रतिबिम्ब भी तब होता है जब दूसरा निकट होता है, पर आत्मा के निकट दूसरा और कोई प्रतिबिम्ब नहीं होता, क्योंकि आभासरूप है । एक ही आत्मसत्ता चैत्यता से द्वैत की नाईं होकर भासती है, पर कुछ बना नहीं । जैसे फूल में सुगन्ध होती है, तिलों मे तेल होता है और अग्नि में उष्णता होती है और जैसे मनोराज की सृष्टि होती है वैसे ही आत्मा में जगत् है । जैसे मनोराज से मनोराज की सृष्टि भिन्न नहीं ।    

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम प्रथमस्सर्गः ॥१॥

अनुक्रम

 

प्रथमसृष्टिवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक आकाशज आख्यान जो श्रावण का भूषण और बोध का कारण है उसको सुनिये । आकाशज नामक एक ब्राह्मण शुद्धचिदंश से उत्पन्न हुए । वह धर्मनिष्ठ  सदा आत्मा में स्थिर रहते थे, भले प्रकार प्रजा का पालन करते थे और चिरञ्जीवी थे । तब मृत्यु विचार करने लगी कि मैं अविनाशिनी हूँ और जीव उपजते है उनको मारती हूँ परन्तु इस ब्राह्मण को मैं नहीं मार सकती । जैसे खंग की धार पत्थर पर चलाने से कुण्ठित हो जाती है वैसे ही वैसे ही मेरी शक्ति इस ब्राह्मण पर कुण्ठित हो गई है । हे रामजी! ऐसा विचारकर मृत्यु ब्राह्मण को भोजन करने के निमित्त उठी और जैसे श्रेष्ठ पुरुष अपने आचार कर्म को नहीं त्याग करते वैसे ही मृत्यु भी अपने कर्मों को विचार कर चली । जब ब्राह्मण के गृह में मृत्यु ने प्रवेश किया तो जैसे प्रलयकाल में महातेज संयुक्त अग्नि सब पदार्थों को जलाने लगती है वैसे ही अग्नि इसके जलाने को उड़ी और आगे दौड़ के जहाँ ब्राहण बैठा था अन्तःपुर में जाकर पकड़ने लगी । पर जैसे बड़ा बलवान् पुरुष भी और के संकल्परूप पुरुष को नहीं पकड़ सकता वैसे ही मृत्यु ब्राह्मण को न पकड़ सकी । तब उसने धर्मराज के गृह में जाकर कहा, हे भगवान्! जो कोई उपजा है उसको मैं अवश्य भोजन करती हूँ, परन्तु एक ब्राह्मण जो आकाश से उपजा है उसको मैं वश में नहीं कर सकी । यह क्या कारण है? यम बोले , हे मृत्यो! तुम किसी को नहीं मार सकतीं, जो कोई मरता है वह अपने कर्मों से मरता है । जो कोई कर्मों का कर्त्ता है उसके मारने को तुम भी समर्थ हो, पर जिसका कोई कर्म नहीं उसके मारने को तुम समर्थ नहीं हो । इससे तुम जाकर उस ब्राह्मण के कर्म खोजो जब कर्म पावोगी तब उसके मारने को समर्थ होगी-अन्यथा समर्थ न होगी । हे रामजी! जब  इस प्रकार यम ने कहा तब कर्म खोजने के निमित्त मृत्यु चली । कर्म वासना का नाम है । वहाँ जाकर ब्राह्मण के कर्मों को ढूँढ़ने लगी और दशों दिशा में ताल, समुद्र बगीचे और द्वीप से द्वीपान्तर इत्यादिक सब स्थान देखती फिरी, परन्तु ब्राह्मण के कर्मों की प्रतिभा कहीं न पाई । हे रामजी! मृत्यु बड़ी बलवन्त है, परन्तु उस ब्राह्मण के कर्मों को उसने न पाया तब फिर धर्मराज के पास गई-जो सम्पूर्ण संशयों को नाश करने वाले और ज्ञानस्वरूप हैं-और उनसे कहने लगी, हे संशयों के नाशकर्त्ता! इस ब्राह्मण के कर्म मुझको कहीं नहीं दृष्टि आते, मैंने बहुत प्रकार से ढूँढ़ा । जो शरीरधारी हैं सो सब कर्म सयुंक्त हैं पर इसका तो कर्म कोई भी नहीं है इसका क्या कारण है? यम बोले, हे मृत्यो! इस ब्राह्मण की उत्पत्ति शुद्ध चिदाकाश से हुई है जहाँ कोई कारण न था । जो कारण बिना भासता है सो ईश्वररूप है । हे मृत्यो! शुद्ध आकाश से जो इसकी उत्पत्ति हुई है तो यह भी वही रूप है । यह ब्राह्मण भी शुद्ध चिदाकाशरूप है और  इसका चेतन ही वपु है । इसका कर्म कोई नहीं और न कोई क्रिया है! अपने स्वरूप से आप ही इसका होना हुआ है, इस कारण इसका नाम स्वयम्भू है और सदा अपने आपमें स्थित है । इसको जगत् कुछ नहीं भासता -सदा अद्वैत है । मृत्यु बोली, हे भगवान्!  जो यह आकाशस्वरूप है तो साकाररूप क्यों दृष्टि आता है? यमजी बोले, हे मृत्यो! यह सदा निराकार चैतन्य वपु है और इसके साथ आकार और अहंभाव भी नहीं है इससे इसका नाश कैसे हो । यह तो अहं त्वं जानता ही नहीं और जगत् का निश्चय भी इसको नहीं है । यह ब्राह्मण अचेत चिन्मात्र है, जिसके मन में पदार्थों का सद्भाव होता है उसका नाश भी होता है और जिसको जगत् भासता ही नहीं उसका नाश कैसे हो? हे मृत्यो! जो कोई बड़ा बलिष्ठ भी हो और सैकड़ों जंजीरें भी हों तो भी आकाश को बाँध न सकेगा वैसे ही ब्राह्मण आकाशरूप है इसका नाश कैसे हो? इससे इसके नाश करने का उद्यम त्यागकर देहधारियों को जाकर मारो -यह तुमसे न मरेगा । हे रामजी! यह सुनकर मृत्यु आश्चर्यवत् हो अपने गृह लौट आई । रामजी बोले, हे भगवान्! यह तो हमारे बड़े पितामह ब्रह्मा की वार्त्ता तुमने कही है । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह वार्त्ता तो मैंने ब्रह्मा की कही है, परन्तु मृत्यु और यम के विवाद निमित्त यह कथा मैंने तुमको सुनाई है । इस प्रकार जब बहुत काल व्यतीत होकर कल्प का अन्त हुआ तब मृत्यु सब भूतों को भोजनकर फिर ब्रह्मा को भोजन करने गई । जैसे किसी का काम हो और यदि एक बार सिद्ध न हुआ तो वह उसे छोड़ नहीं देता फिर उद्यम करता है वैसे ही मृत्यु भी ब्रह्मा के सन्मुख गई । तब धर्मराज ने  कहा, हे मृत्यो! यह ब्रह्मा है। यह आकाशरूप है और आकाश ही इसका शरीर है । आकाश के पकड़ने को तुम कैसे समर्थ होगी? यह तो पञ्चभूत के शरीर से रहित है । जैसे संकल्प पुरुष होता है तो उसका आकाश ही वपु होता है वैसे ही यह आकाशरूप आदि, अन्त मध्य और अहं त्वं के उल्लेख से रहित और अचेत चिन्मात्र है इसके मारने को तू कैसे समर्थ होगी? यह जो इसका वपु भासता है सो ऐसा है जैसे शिल्पी के मन में स्तम्भ की पुतली होती है पर वह कुछ नहीं वैसे ही स्वरूप से इतर होना नहीं है । यह तो ब्रह्मस्वरूप है, हमारे तुम्हारे मन में इतर होना नहीं है । यह तो ब्रह्मस्वरूप है, हमारे तुम्हारे मन में इसकी प्रतिमा हुई है, यह तो निर्वपु है । जो पुरुष देहवन्त होता है क्योंकि निर्वपु है वैसे यह भी निर्वपु है । इसके मारने की कल्पना को त्याग देहधारियों को जाकर मारो।           

इति श्रीयोगवाशिष्ठेउत्पत्तिप्रकरणे प्रथमसृष्टिवर्णनन्नाम द्वितीयस्सर्गः ॥२॥

अनुक्रम

 

बोधहेतुवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र सत्ता ऐसी सूक्ष्म है कि उसमें आकाश भी पर्वत के समान स्थूल है । उस चिन्मात्र में जो अहं अस्मि चैत्यौन्मुखत्व हुआ है उसने अपने साथ देह को देखा । पर वह देह भी आकाशरूप है । हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र में चैत्य का उल्लेख किसी कारण से नहीं हुआ, स्वतः स्वाभाविक ही ऐसा उल्लेख आय फुरा है उसी का नाम स्वयंभू ब्रह्म है । उस ब्रह्मा को सदा ब्रह्म ही का निश्चय है । ब्रह्मा और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं है । जैसे समुद्र और तरंग में, आकाश और शून्यता में और फूल और सुगंध में कुछ भेद नहीं होता वैसे ही ब्रह्म में भेद नहीं । जैसे जल द्रवता के कारण तरंगरूप होकर भासता है वैसे ही आत्मसत्ता चैतन्यता  से ब्रह्मा होकर भासती है । ब्रह्मा दूसरी वस्तु नहीं, सदा चैतन्य आकाश है और पृथ्वी आदिक तत्त्वों से रहित है । हे रामजी! न कोई इसका कारण है और न कोई कर्म है । रामजी बोले, हे भगवन्! आपने कहा कि ब्रह्माजी का वपु पृथ्वी आदि तत्त्वों से रहित है और संकल्पमात्र है तो इसका कारण स्मृतिरूप संस्कार क्यों न हुआ । जैसे हमको और जीवों की स्मृति है वैसे ही ब्रह्मा को भी होनी चाहिये? वशिष्ठजी बोले, हे राम! स्मृति संस्कार उसी का कारण होता है जो आगे भी देखा हो । जो पदार्थ आगे देखा होता है उसकी स्मृति संस्कार से होती है और जो देखा नहीं होता उसकी स्मृति नहीं होती । ब्रह्माजी अद्वैत, अज और आदि, मध्य, अन्त से रहित हैं, उनकी स्मृति कारण कैसे हो? वह तो शुद्ध बोधरूप है और आत्मतत्त्व ही ब्रह्मारूप होकर स्थित हुआ है । अपने आपसे जो इसका होना हुआ है इसी से इसका नाम स्वयम्भू है । शुद्ध बोध में चेत्य का उल्लेख हुआ है-अर्थात् चित्र चैतन्यस्वरूप का नाम है । अपना चित् संवित् ही कारण है और  दूसरा कोई कारण नहीं-सदा निराकार और संकल्परूप इसका शरीर है और पृथ्वी आदिक भूतों से शुद्ध अन्तवाहक वपु है । रामजी बोले, हे मुनीश्वर! जितने जीव हैं उनके दो-दो शरीर हैं-एक अन्तवाहक और दूसरा आधिभौतिक । ब्रह्मा का एक ही अन्तवाहक शरीर कैसे है यह वार्त्ता स्पष्ट कर कहिये । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो सकारणरूप जीव है उनके दो-दो शरीर हैं पर ब्रह्माजी अकारण हैं इस कारण उनका एक अन्त वाहक ही शरीर है । हे रामजी! सुनिये, अन्य जीवों का कारण ब्रह्मा है इसी कारण यह जीव दोनों देहों को धरते हैं और ब्रह्माजी का कारण कोई नहीं यह अपने आप ही उपजे हैं इनका नाम स्वयम्भू है । आदि में जो इनका प्रादुर्भाव हुआ है सो अन्तवाहक शरीर है । इनको अपने स्वरूप का विस्मरण नहीं हुआ सदा अपने वास्तव स्वरूप में स्थित हैं इससे अन्तवाहक हैं और दृश्य को अपना संकल्पमात्र जानते हैं । जिनको दृश्य में दृढ़ प्रतीति हुई उनको आधिभौतिक कहते हैं । जैसे आधिभौतिक जड़ता से जल की बरफ होती है वैसे ही दृश्य की दृढ़ता आधिभौतिक होते हैं । हे रामजी! जितना जगत् तुमको दृष्टि आता है सो सब आकाश रूप है पृथ्वी आदिक भूतों से नहीं हुआ केवल भ्रम से आधिभौतिक भासते हैं । जैसे  स्वप्ननगर आकाशरूप होता है किसी कारण से नहीं उपजता और न किसी पृथ्वी आदिक तत्त्वों से उपजता है केवल आकाशरूप है और निद्रादोष से आधिभौतिक होकर भासता है वैसे ही यह जाग्रत जगत् भी अज्ञान से आधिभौतिक आकाश भासता है । जैसे अज्ञान से स्वप्न अर्थाकार भासता वैसे ही जगत् अज्ञान से अर्थाकार भासता है । हे रामजी! यह सम्पूर्ण जगत् संकल्पमात्र है और कुछ बना नहीं । जैसे मनोराज के पर्वत आकाशरूप होते हैं वैसे ही जगत् भी आकाशरूप है । वास्तव में कुछ बना नहीं सब पुरुष के संकल्प हैं और मन से उपजे हैं । जैसे बीज से देशकाल के संयोग से अंकुर निकलता है वैसे ही सब दृश्य मन से उपजता है । वह मनरूपी ब्रह्मा है और ब्रह्मादि मनरूप हैं । उनके संकल्प में जो सम्पूर्ण जगत् स्थित है वह सब आकाशरूप है-आधिभौतिक कोई नहीं । हे रामजी! आधिभौतिक जो आत्मा में भासता है सो भ्रान्तिमात्र है । जैसे बालक को परछाहीं में वैताल भासता है वैसे ही अज्ञानी को जो आधिभौतिक भासते हैं सो भ्रान्तिमात्र है-वास्तव में कुछ नहीं है । हे रामजी! जितने भासते हैं वे सब अन्तवाहक हैं, परन्तु अज्ञानी को अन्त वाहकता निवृत्त होकर आधिभौतिकता दृढ़ हो गई है । जो ज्ञानवान पुरुष हैं सो अन्तवाहकरूप ही हैं । हे रामजी! जिन पुरुषों को प्रमाद नहीं हुआ वे सदा आत्मा में स्थित और अन्तवाहकरूप हैं और सब जगत् आकाशरूप है । जैसे संकल्प पुरुष, गन्धर्व नगर और स्वप्नपुर होते हैं वैसे ही यह जगत् है, जैसे शिल्पी कल्पता है कि इस थम्भ में इतनी पुतलियाँ हैं सो पुतलियाँ उपजीं नहीं थम्भा ज्यों का त्यों स्थित है पुतली का सद्भाव केवल शिल्पी के मन में होता है वैसे ही सब विश्व मन में स्थित है,उसका स्वरूप कुछ नहीं बना । जैसे तरंग ही जलरूप और जल ही तरंगरूप है वैसे ही दृश्य भी मनरूप है और मन ही दृश्यरूप है । हे रामजी! जब तक मन का सद्भाव है तब तक दृश्य है--दृश्य का बीज मन है । जैसे कमल का सद्भाव उसके बीज में होता है और उससे कमल के जोड़े की उत्पत्ति होती है वैसे ही जगत् का बीज मन है--सब जगत् मन से उत्पन्न होता है । हे रामजी! जब तुमको स्वप्न आता है तब तुम्हारा ही चित्त दृश्य को चेतता जाता है और तो कोई कारण नहीं होता वैसे ही यह जगत् भी जानना । यह तुम्हारे अनुभव की वार्ता कही है, क्योंकि यह तुमको नित अनुभव होता है । हे रामजी! मन ही जगत् का कारण है और कोई नहीं । जब मन उपशम होगा तब दृश्यभ्रम मिट जावेगा । जब तक मन उपशम नहीं होता तब तक दृश्यभ्रम भी निवृत्त नहीं होता और जब तक दृश्य निवृत्त नहीं होता तब तक शुद्ध बोध नहीं होता एवं जब तक शुद्ध बोध नहीं होता तब तक आत्मानन्द नहीं होता ।          

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम तृतीयस्सर्गः ॥३॥

अनुक्रम

 

बोधहेतुवर्णन

इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार मुनिशार्दूल वशिष्ठजी कहकर तूष्णीम् हुए  और सर्व श्रोता वशिष्ठजी के वचनों को सुनने और उनके अर्थ में स्थित हो इन्द्रियों की चपलता को त्याग वृत्ति को स्थित करते भये । तरंगों के वेग स्थिर हो गये, पिंजरों में जो तोते थे सो भी सुनकर तूष्णीम् हो गये, ललना जो चपल थीं सोभी उस काल में अपनी चपलता को त्याग करती भईं और वन के पशु पक्षी जो निकट थे सो भी सुनकर तूष्णीम् हुए । निदान मध्याह्न का समय हुआ तब राजा के बड़े भृत्यों ने कहा, हे राजन्! अब स्नान-सन्ध्या का समय हुआ उठ कर स्नान-सन्ध्या कीजिए । तब वशिष्ठजी बोले, हे राजन्! अब जो कुछ कहना था सो हम कह चुके, कल फिर कुछ कहेंगे । राजा ने कहा, बहुत अच्छा और उठकर अर्ध्य पाद्य नैवेद्य से वशिष्ठजी का पूजन किया और और जो ब्रह्मर्षि थे उनकी भी यथायोग्य पूजा की । तब वशिष्ठजी उठ खड़े हुए और परस्पर नमस्कार कर अपने-अपने स्थानों को चले आकाशचारी आकाश को, पृथ्वी पर रहनेवाले ब्रह्मर्षि और राजर्षि पृथ्वी पर, पातालवासी पाताल को और सूर्य भगवान् दिन रात्रि की कल्पना को त्यागकर स्थिर हो रहे और मन्द-मन्द पवन सुगन्ध सहित चलने लगी मानो पवन भी कृतार्थ होने आया है । इतने में सूर्य अस्त होकर और ठौर में प्रकाशने लगे, क्योंकि सन्त जन सब ठौर में प्रकाशते हैं । इतने में  रात्रि हुई तो तारागण प्रकट हो गये और अमृत की किरणों को धारण किये चन्द्रमा उदय हुआ । उस समय अन्धकार का अभाव हो गया और राजा का द्वार भी चन्द्रमा की किरणों से शीतल हो गया -मानो वशिष्ठजी के वचनों को सुनकर इनकी तप्तता मिट गई । निदान सब श्रोताओं ने विचारपूर्वक रात्रि को व्यतीत किया जब सूर्य की किरण निकली तो अन्धकार नष्ट हो गया-जैसे सन्तों के वचनों से अज्ञानी के हृदय का तम नष्ट होता है-और सब जगत् की क्रिया प्रकट हो आई तब खेचर, भूचर और पाताल के वासी सब श्रोता स्नान सन्ध्या कर अपने-अपने स्थानों में आये और परस्पर नमस्कार कर पूर्व के प्रसंग को उठा कर रामजी सहित बोले, हे भगवन्! ऐसे मन का रूप क्या है- जिससे कि संसाररूपी दुःखों की मञ्जरी बढ़ती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस मन रूप कुछ देखने में नहीं आता । यह मन नाममात्र है । वास्तव में इसका रूप कुछ नहीं है और आकाश की नाई शून्य है । हे रामजी! मन आत्मा में कुछ नहीं उपजा । जैसे सूर्य में तेज, वायु में स्पन्द, जल में तरंग, सुवर्ण में भूषण, मरीचिका में जल है और आकाश में दूसरा चन्द्रमा है वैसे ही मन भी आत्मा में कुछ वास्तव नहीं है । हे रामजी! यह आश्चर्य है कि वास्तव में कुछ उपजा नहीं, पर आकाश की नाई सब घटों में वर्त्तता है और सम्पूर्ण जगत् मन से भासता है । असत्‌रूपी जगत् जिससे भासता है उसी का नाम मन है । हे रामजी! आत्मा शुद्ध और अद्वैत है द्वैतरूप जगत् जिसमें भासता है उसका नाम मन है और संकल्प विकल्प जो फुरता है वह मन का रूप है । जहाँ-जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ-वहाँ मन है जैसे जहाँ-जहाँ तरंग फुरते हैं वहाँ-वहाँ जल है वैसे ही जहाँ-जहाँ संकल्प फुरता है वहाँ-वहाँ मन है । मन के और भी नाम हैं-स्मृति, अविद्या, मलीनता और तम ये सब इसी के नाम ज्ञानवान् पुरुष जानते हैं । हे रामजी! जितना जगज्जाल भासता है सो सब मन से उत्पन्न हुआ है और सब दृश्य मनरूप हैं, क्योंकि मन का रचा हुआ है वास्तव में कुछ नहीं है । हे रामजी! मनरूपी देह का नाम अन्तवाहक शरीर है वह संकल्परूप सब जीवों का आदि वपु है । उस संकल्प में जो दृढ़ आभास हुआ है उससे आधिभौतिक भासने लगा है और आदि स्वरूप का प्रमाद हुआ है । हे रामजी! यह जगत् सब संकल्परूप है और स्वरूप के प्रमाद से पिण्डाकार भासता है । जैसे स्वप्नदेह का आकार आकाशरुप है उसमें पृथ्वी आदि तत्त्वों का अभाव होता है परन्तु अज्ञान से आधिभौतिकता भासती है सो मन ही का संसरना है वैसे ही यह जगत् है, मन के फुरने से भासता है । हे राम जी! जहाँ मन है वहाँ दृश्य है और जहाँ दृश्य है वहाँ मन है । जब मन नष्ट हो तब दृश्य भी नष्ट हो । शुद्ध बोधमात्र में जो दृश्य भासता है जब तक दृश्य भासता है तब तक मुक्त न होगा, जब दृश्यभ्रम नष्ट होगा तब शुद्ध बोध प्राप्त होगा । हे रामजी! दृष्टा, दर्शन, दृश्य यह त्रिपुटी मन से भासती है । जैसे स्वप्न में त्रिपुटी भासती है और जब जाग उठा तब त्रिपुटी का अभाव हो जाता है और आप ही भासता है वैसे ही आत्मसत्ता में जागे हुए को अपना आप अद्वैत ही भासता है । जब तक शुद्ध बोध नहीं प्राप्त हुआ तब तक दृश्यभ्रम निवृत्त नहीं होता । वह बाह्य देखता है तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, अन्तर देखेगा तो भी सृष्टि ही दृष्टि आती है, और उसको सत्य जानकर राग-द्वेष कल्पना ऊठती है । जब मन आत्मपद को प्राप्त होता है तब दृश्यभ्रम निवृत्त हो जाता है । जैसे जब वायु की स्पन्दता मिटती है तब वृक्ष के पत्रों का हिलना भी मिट जाता है । इससे मनरूपी दृश्य ही बन्धन का कारण है । रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्यरूपी विसूचिकारोग है, उसकी निवृत्ति कैसे हो सो कृपा करके कहो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! संसाररूपी वैताल जिसको लगा है उसकी निवृत्ति इस प्रकार होती है कि प्रथम तो विचार करके जगत् का स्वरूप जानो, उसको अनन्तर जब आत्मपद में विश्रान्ति होगी तब तुम सर्व आत्मा होगे । हे रामजी! दृश्यभ्रम जो तुमको भासता है उसको मैं उत्तर ग्रन्थ से निवृत्त करूँगा, इसमें सन्देह नहीं । सुनिये, यह दृश्य मन से उपजा है और इसका सद्भाव मन में ही हुआ है । जैसे कमल का उपजना कमल के बीज में है वैसे ही संसार का उपजना स्मृति से होता है । वह स्मृति अनुभव आकाश में होती है । हे रामजी! स्मृति पदार्थ की होती है जिसका अनुभव पहिले होता है । जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो संकल्प रूप है-कोई पदार्थ सत्‌रूप नहीं । जो वस्तु असत्‌रूप है उसकी स्थिरता नहीं होती और जो वस्तु सत्‌रूप है उसका कदाचित् नहीं होता । जितना कुछ प्रपञ्च भासता है सो असत्‌रूप है मन के चिन्तन से उत्पन्न हुआ है । जब फुरने से रहित हो तब जगत् भ्रम निवृत्त होता है । हे रामजी! पृथ्वी, पर्वत आदिक जगत् असत् रूप न होते तो मुक्त भी कोई न होता । मुक्त तो दृश्यभ्रम से होता है, जो दृश्यभ्रम से नष्ट न होता तो मुक्त भी कोई न होता; पर ब्रह्मर्षि, राजर्षि देवता इत्यादिक बहुतेरे मुक्त हुए हैं, इस कारण कहता हूँ कि दृश्य असत्यरूप मन के संकल्प में स्थित है । हे रामजी! एक मन को स्थिरकर देखो, फिर अहं त्वं आदिक जगत् तुमको कुछ न भासेगा । चित्तरूपी आदर्श में संकल्परूपी दृश्य मलीनता है । जब मलीनता दूर होगी तब आत्मा का साक्षात्कार होगा । हे रामजी! यह दृश्यभ्रम मिथ्या से उदय हुआ है । जैसे गन्धर्वनगर और स्वप्नपुर वैसे ही यह जगत् भी है । जैसे शुद्ध आदर्श में पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही चित्तरूपी आदर्श में यह दृश्य प्रतिबिम्ब है । मुकुर  में जो पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है सो आकाशरूप है उसमें कुछ पर्वत का सद्भाव नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् का सद्भाव नहीं । जैसे बालक को भ्रम से परछाहीं में पिशाच बुद्धि होती है वैसे ही अज्ञानी को जगत् भासता है --वास्तव में जगत् कुछ नहीं है । हे रामजी! न कुछ मन उपजा है और न कुछ जगत् उपजा है- दोनों असत्‌रूप हैं । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । जैसे आकाश अपनी शून्यता से और समुद्र जल से पूर्ण है वैसे ही ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित और पूर्ण है और उसमें जगत् का अत्यन्त अभाव है इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह तुम्हारे वचन ऐसे हैं जैसे कहिये कि बन्ध्या के पुत्र ने पर्वत चूर्ण किया शशे के श्रृंग अति सुन्दर हैं, रेत में तेल निकलता है और पत्थर की शिला नृत्य करती वा मूर्ति का मेघ गर्जन और पत्थर की पुतलियाँ गान करती हैं । तुम कहते हो कि दृश्य कुछ उपजा ही नहीं और मुझको ये जरा, मृत्यु आदिक विकारों सहित प्रत्यक्ष भासते हैं इससे मेरे मन में तुम्हारे वचनों का सद्भाव नहीं स्थित होता । कदाचित् तुम्हारे निश्चय में इसी प्रकार है तो अपना निश्चय मुझको भी बतलाइए । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! हमारे वचन यथार्थ हैं । हमने असत् कदाचित् नहीं कहा! तुम विचार के देखो यह जगत् आडम्बर बिना कारण हुआ है । जब महाप्रलय होता है तब शुद्ध चैतन्य संवित् रह जाता है और उसमें कार्य कारण कोई कल्पना नहीं रहती उसमें फिर यह जगत् कारण बिना फुरता है । जैसे सुषुप्ति में स्वप्नसृष्टि फुर आती है और जैसे स्वप्नसृष्टि अकारण है वैसे ही यह सृष्टि भी अकारण है । हे रामजी! जिसका समवायकारण और निमित्तकारण न हो और प्रत्यक्ष भासे उसे जानिये कि भ्रान्तिरूप है । जैसे तुमको नित्य स्वप्न का अनुभव होता है और उसमें नाना प्रकार के पदार्थ कार्य कारण सहित भासते हैं पर कारण बिना हैं वैसे ही यह जगत् भी कारण बिना है । इससे आदि कारण बिना ही जगत् उपजा है । जैसे गन्धर्वनगर, संकल्पपुर और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही यह जगत् भासता है-कोई पदार्थ सत् नहीं । जैसे स्वप्न में राजमहल और नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं सो किसी कारण से तो नहीं उपजे केवल आकाशरूप मन के संसरने से सब भासते हैं वैसे ही यह जगत् चित्त के संसरने से भासता है जैसे स्वप्न में और स्वप्ना भासता है और फिर उसमें और स्वप्न भासता है वैसे यह जगत् भासता है और वैसे ही जागत्  जगज्जाल मन की कल्पना से भासता है । हे रामजी! चलना, दौड़ना, देना, बोलना, सुनना रूँधना इत्यादि विषय और रागद्वेषादिक विकार सब मन के फुरने से होते हैं- आत्मा में कोई विकार नहीं । जब मन उपशम होता है तब सब कल्पनाएँ निवृत्त हो जाती हैं इससे संसार का कारण मन ही है ।     

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे बोधहेतुवर्णनन्नाम चतुर्थस्सर्गः ॥४॥

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प्रयत्नोंपदेश

रामजी बोले, हे भगवान्! मन का रूप क्या है? वह तो मायामय है इसका होना जिससे है  सो कौन पद है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सब जगत् का अभाव हो जाता है और पीछे जो शेष रहता है सो सत्‌रूप है । सर्ग के आदि में भी सत्‌रूप होता है उसका नाश कदाचित् नहीं होता, वह सदा प्रकाशरूप, परमदेव, शुद्ध, परमात्म तत्त्व, अज, अविनाशी और अद्वैत है । उसको वाणी नहीं कह सकती । वही पद जीवन्मुक्त पाता है । हे रामजी! आत्म आदिक शब्द कल्पित हैं, स्वाभाविक कोई शब्द नहीं प्रवर्तता । शिष्य को बताने के लिए शास्त्रकारों ने देव के बहुत नाम कल्पे हैं । मुख्य तो दॆव को पुरुष कहते हैं । वेदान्तवादी उसी को ब्रह्म कहते और विज्ञान वादी उसी को विज्ञान से बोध कहते हैं । कोई कहते हैं कि निर्मलरूप है । शून्य वादी कहते हैं शून्य ही शेष रहता है कोई कहते हैं प्रकाशरूप है जिसके प्रकाश से सूर्यादिक प्रकाशते हैं । एक उसको वक्ता कहते हैं आदिवेद का वक्ता वही है और स्मृतिकर्त्ता कहते है कि सब कुछ वह स्मृति से करनेवाला है और सब कुछ उसकी इच्छा से हुआ है, इससे सबका कर्ता सर्व आत्मा है । हे रामजी! इसी तरह अनेक नाम शास्त्रकारों ने कहे हैं । इन सबका अधिष्ठान परमदेव है और अस्ति आदि षड्विकारों से रहित शुद्ध, चैतन्य और सूर्यवत् प्रकाशरूप है । वही देव सब जगत् में पूर्ण हो रहा है । हे रामजी! आत्मारूपी सूर्य है और ब्रह्मा, विष्णु रुद्रादिक उसकी किरणें हैं । ब्रह्मरूपी समुद्र में जगत् रूपी तरंग बुद्बुदे उत्पन्न होकर लीन होते हैं और सब पदार्थ उस आत्मा के प्रकाश से प्रकाशते हैं । जैसे दीपक अपने आपसे प्रकाशता है और दूसरों को भी प्रकाश देता है वैसे ही आत्मा अपने प्रकाश से प्रकाशता है और सबको सत्ता देनेवाला है । हे रामजी! वृक्ष आत्मसत्ता से उपजता है, आकाश में शून्यता उसी की है और अग्नि में ऊष्णता, जल में द्रवता और पवन में स्पर्श उसी की है । निदान सब पदार्थों की सत्ता वही है । मोरों के पंखों में रंग आत्मसत्ता से ही हुआ है; पत्थर में मूँगा और पत्थरों में जड़ता उसी की है । और स्थावर-जंगम जगत् का अधिष्ठानरूप वही ब्रह्म है । हे रामजी! आत्मरूपी चन्द्रमा की किरणों से ब्रह्माण्डरूपी त्रसरेण उत्पन्न होती हैं । वह चन्द्रमा शीतलता और अमृत से पूर्ण है । ब्रह्मरूपी मेघ है उससे जीवरूपी बूँदें टपकती हैं । जैसे बिजली का प्रकाश होता है और छिप जाता है वैसे ही जगत् प्रकट होता है और छिप जाता है । सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता और वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और परमानन्द है । सब सत्य असत्यरूप पदार्थ उसी आत्मसत्ता से होते हैं । हे रामजी! उस देव की सत्ता से जड़पुर्यष्टक चैतन्य होकर चेष्टा करती है । जैसे चुम्बक पत्थर की सत्ता से लोहा चेष्टा करता है वैसे ही चैतन्यरूपी चुम्बक मणि से देह चेष्टा करती है । वह आत्मा नित्य चैतन्य और सबका कर्ता है, उसका कर्त्ता और कोई नहीं । वह सबसे अभेदरूप समानसत्ता है और उदय अस्त से रहित है । हे रामजी! जो पुरुष उस देव का साक्षात् करता है उसकी सब क्रिया नष्ट हो जाती हैं और चिद्जड़ ग्रन्थि छिद जाती है और केवल बोधरूप होते हैं । जब स्वभावसत्ता में मन स्थित होता है तब मृत्यु को सम्मुख देख कर भी विह्वल नहीं होता । इतना कहकर फिर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी वह देव किसी स्थान में नहीं रहता और कहीं दूर भी नहीं है, वह तो अपने आपही में स्थित है । हे रामजी! घटघट में वह देव है पर अज्ञानी को दूर भासता है । स्नान, दान, तप आदि से वह प्राप्त नहीं होता केवल ज्ञान से ही प्राप्त होता है-कर्त्तव्य से प्राप्त होता है-कर्तव्य से प्राप्त नहीं होता । जैसे मृगतृष्णा की नदी भासती है वह कर्तव्यता निवृत्त नहीं होती, केवल ज्ञातव्य से ही निवृत्ति होती है वैसे ही जगत् की निवृत्ति आत्मज्ञान से ही होती है । हे रामजी! कर्तव्य भी यही है जो ज्ञात व्यरूप है-अर्थात् यह कि जिससे ज्ञातव्यस्वरूप की प्राप्ति होती है । रामजी बोले, हे भगवन्! जिस देव के जानने से पुरुष फिर जन्म-मरण को नहीं प्राप्त होता वह कहाँ रहता है और किस तप और क्लेश से उसकी प्राप्ति होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! किसी तप से उस देव की प्राप्ति नहीं होती केवल अपने पौरुष और प्रयत्न से ही उसकी प्राप्ति होती है। जितना कुछ राग, द्वेष, काम, क्रोध, मत्सर और अभिमान सहित तप है वह निष्फल दम्भ है । इनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती । हे रामजी! इसकी परम औषध सत्संग और सत्‌शास्त्र का विचार है जिससे दृश्यरूपी बिसूचिका निवृत्त होती है । प्रथम इसका आचार भी शास्त्र और लौकिक अविरुद्ध हो अर्थात् शास्त्रों के अनुसार हो और भोगरूपी गढ़े में न गिरे । दूसरे संतोष संयुक्त यथालाभ संतुष्ट होकर अनिच्छित भोगों को प्राप्त हो और जो शास्त्र अविरुद्ध हो उसको ग्रहण करे और जो विरुद्ध हो उसका त्याग करे-इनसे दीन न हो । ऐसे उदारात्मा को शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति होती है । हे रामजी! आत्मपद पाने का कारण सत्संग और सत्‌शास्त्र है । सन्त वह है जिसको सब लोग श्रेष्ठ कहते हैं और सत्‌शास्त्र वही है जिस में ब्रह्मनिरूपण हो । जब ऐसे सन्तों का संग और सत्‌शास्त्रों का विचार हो तो शीघ्र ही आत्मपद की प्राप्ति होती है । जब मनुष्य श्रुति विचार द्वारा अपने परम स्वभाव में स्थित होता है तब ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी उस पर दया करते हैं और कहते हैं कि यह पुरुष परब्रह्म हुआ है । हे रामजी! सन्तों का संग और सत्‌शास्त्रों का विचार निर्मल करता और दृश्यरूप मैल का नाश करता है जैसे निर्मली, रेत से जल का मैल दूर होता है वैसे ही यह पुरुष निर्मल और चैतन्य होता है ।     

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे प्रयत्नोंपदेशोनाम पञ्चमस्सर्गः ॥५॥

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दृश्यअसत्यप्रतिपादन

इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन् वह देव जो तुमने कहा कि जिसके जानने से संसार बन्धन से मुक्त होता है कहाँ स्थित है और किस प्रकार मनुष्य उसको पाता है? वशिष्ठ जी बोले, हे रामजी! वह देव दूर नहीं शरीर ही में स्थिर है । नित्य, चिन्मात्र सबसे पूर्ण और सर्व विश्व से रहित है । चन्द्रमा को मस्तक में धरनेवाले सदाशिव, ब्रह्मा जी और इन्द्रादिक सब चिन्मात्ररूप हैं । बल्कि सब जगत् चिन्मात्र रूप है । रामजी बोले, हे भगवन्! यह तो अज्ञान बालक भी कहते हैं कि आत्मा चिन्मात्र है; तुम्हारे उपदेश से क्या सिद्ध हुआ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस विश्व के चेतन जानने से तुम संसारसमुद्र को नहीं लाँघ सकते इस चेतन का नाम संसार है । यह चेतन जीव है, संसार नामरूप है इससे जरामरणरूप तरंग उत्पन्न होते हैं क्योंकि अहं से दुःख पाता है । हे रामजी! चैतन्य होकर जो चेतता है सो अनर्थ का कारण है और चेतन से  रहित जो चैतन्य है वह परमात्मा है । उस परमात्मा को जानकर मुक्ति होती है तब चेतनता मिट जाती है । हे रामजी! परमात्मा के जानने से हृदय की चिद्जड़ ग्रन्थि टूट पड़ती  है अर्थात् अहं मम नष्ट हो जाते हैं, सब संशय छेदे जाते हैं और सब कर्मक्षीण हो जाते हैं । रामजी ने पूछा, हे भगवन्! चित्त चैतन्योन्मुख होता है तब आगे दृश्य स्पष्ट भासता है, उसके होते चित्त के रोकने को क्योंकर समर्थ होता है और दृश्य किस प्रकार निवृत्त होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दृश्यसंयोगी चेतन जीव है, वह जन्मरूपी जंगल में भटकता भटकता थक जाता है । चैतन्य को जो चेतन अर्थात् चिदाभास जीवरूप प्रकाशी कहते हैं सो पंडित भी मूर्ख हैं । यह तो संसारी जीव है इसके जानने से कैसे मुक्ति हो । मुक्ति परमात्मा के जानने से होती है और सब दुःख नाश होते हैं । जैसे विसूचिका रोग उत्तम औषध से ही निवृत्त होता है वैसे ही परमात्मा के जानने से मुक्ति होती है । रामजी ने यह पूछा, हे भगवन्! परमात्मा का क्या रूप है  जिसके जानने से जीव मोहरूपी समुद्र को तरता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! देश से देशान्तर को दूर जो संवित निमेष में जाता है उसके मध्य जो ज्ञानसंवित है सो परमात्मा का रूप है और जहाँ संसार का अत्यन्त अभाव होता है उसके पीछे जो बोधमात्र शेष रहता है वह परमात्मा का रूप है । हे रामजी! वह चिदाकाश जहाँ दृष्टा का अभाव होता है वही परमात्मा का रूप है और जो अशून्य है और शून्य की नाईं स्थित है और जिसमें सृष्टि का समूह शून्य है ऐसी अद्वैत सत्ता परमात्मा का रूप है । हे रामजी! महाचैतन्य रूप बड़े पर्वत की नाईं जो चैतन्य स्थित है और अजड़ है पर जड़ के समान स्थित है वह परमात्मा का रूप है और जो सबके भीतर बाहर स्थित है और सबको प्रकाशता है सो  परमात्मा का रूप है । हे रामजी! जैसे सूर्य प्रकाशरुप और आकाश शून्यरूप है वैसे ही यह जगत् आत्मरूप है । रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो सब परमात्मा ही है तो क्यों नहीं भासता और जो सब जगत् भासता है इसका निर्वाण कैसे हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् भ्रम से उत्पन्न हुआ है-वास्तव में कुछ नहीं है । जैसे आकाश में नीलता भासती है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । जब जगत् का अत्यन्त अभाव जानोगे तब परमात्मा का साक्षात्कार होगा और किसी उपाय से न होगा। जब दृश्य का अत्यन्त अभाव करोगे तब दृश्य उसी प्रकार स्थित रहेगा, पर तुमको परमार्थ सत्ता ही भासेगी । हे रामजी! चित्तरूपी आदर्श दृश्य के प्रतिबिम्ब बिना कदाचित् नहीं रहता । जब तक दृश्य का अत्यन्त अभाव नहीं होता तब तक परम बोध का साक्षात्कार नहीं होता । इतना सुनकर रामजी ने फिर पूछा कि हे भगवन्! यह दृश्य-जाल आडम्बर मन में कैसे स्थित हुआ है? जैसे सरसों के दानों में सुमेरु का आना आश्चर्य है वैसे ही जगत् का मन में आना भी आश्चर्य है । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक दिन तुम वेदधर्म की प्रवृत्ति सहित सकाम यज्ञ योगादिक त्रिगुण से रहित होकर स्थित हो और सत्संग सत्‌शास्त्रपरायण हो तब मैं एक ही क्षण में दृश्यरूपी मैल दूर करूँगा । जैसे सूर्य की किरणों के जाने से जल का अभाव हो जाता है वैसे ही तुम्हारे भ्रम का अभाव हो जावेगा । जब दृश्य का अभाव हुआ तब दृष्ठा भी शान्त होवेगा और जब दोनों का अभाव हुआ तब पीछे शुद्ध आत्मसत्ता ही भासेगी । हे रामजी! जब तक दृष्टा है तब तक दृश्य है और जब तक दृश्य है तब तक दृष्टा है । जैसे एक की अपेक्षा से दो होते हैं-दो हैं तो एक है और एक है तब दो भी-एक न हो तब दो कहाँ से हों-वैसे ही एक के अभाव से दोनों का अभाव होता है । दृष्टा की अपेक्षा से ही दृश्य की अपेक्षा करके दृष्टा है । एक के अभाव से दोनों का अभाव हो जाता है । हे रामजी! अहंता से आदि लेकर जो दृश्य है सो सब दूर करूँगा । हे रामजी! अनात्म से आदि लेके जो दृश्य है वही मैल है । इससे रहित होकर चित्तरूप दर्पण निर्मल होगा । जो पदार्थ असत् है उसका कदाचित् भाव नहीं होता और जो पदार्थ सत् है सो असत् नहीं होगा जो वास्तव में सत् न हो उसका मार्जन करना क्या कठिन है; हे रामजी! यह जगत् आदि से उत्पन्न नहीं हुआ । जो कुछ दृश्य भासता है वह भ्रान्तिमात्र है । जगत निर्मल  ब्रह्म चैतन्य ही है । जैसे सुवर्ण से भूषण होता है तो वह सुवर्ण से भिन्न नहीं  वैसे ही जगत् और ब्रह्म में कुछ भेद नहीं । हे रामजी! दृश्यरूपी मल के मार्जन के  लिये  मै बहुत प्रकार की युक्ति तुमसे विस्तारपूर्वक कहूँगा उससे तुमको अद्वैत  सत्ता का भान होगा । यह जगत् जो तुमको भासता है वह किसी के द्वारा नहीं उपजा । जैसे मरुस्थल की नदी भासती है और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही यह जगत् बिना कारण भासता है । जैसे मरुस्थल में जल नहीं जैसे बन्ध्या का पुत्र नहीं और जैसे  आकाश में वृक्ष नहीं वैसे ही यह जगत् है । जो कुछ देखते हो वह निरामय ब्रह्म है ।  यह वाक्य तुमको केवल वाणीमात्र नहीं कहे हैं किन्तु युक्तिपूर्वक कहे हैं हे रामजी गुरु की कही युक्ति को जो मूर्खता से त्याग करते हैं उनको सिद्धान्त नहीं प्राप्त  होता । 

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे दृश्यअसत्यप्रतिपादनन्नाम षष्ठस्सर्गः ॥६॥

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सच्छास्त्रनिर्णयो

इतना सुन रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! वह युक्ति कौन है और कैसे प्राप्त होती है जिसके धारण करने से पुरुष आत्मपद को प्राप्त होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मिथ्या ज्ञान से जो विसूचिकारूपी जगत् बहुत काल का दृढ़ हो रहा है वह विचाररूपी मन्त्र से शान्त होता है । हे रामजी! बोध की सिद्धता के लिए मैं तुमसे एक आख्यान कहता हूँ उसको सुनके तुम मुक्तात्मा होगे और जो अर्द्धप्रबुद्ध होकर तुम उठ जाओगे तब तिर्यगादिक योनि को प्राप्त होगे । हे रामजी! जिस अर्थ के पाने की जीव इच्छा करता है उसके पाने के अनुसार यत्न भी करे और थककर फिरे नहीं तो अवश्य उसको पाता है, इससे सत्संगति और सत्‌शास्त्रपरायण हो जब तुम इनके अर्थ में दृढ़ अभ्यास करोगे तब कुछ दिनों में परमपद पावोगे । फिर रामजी ने पूछा हे भगवन् आत्मबोध का कारण कौन शास्त्र है और शास्त्रों में श्रेष्ठ कौन है कि उसके जानने से शोक न रहे? वशिष्ठजी बोले, हे महामते, रामजी! महाबोध का कारण शास्त्रों में परमशास्त्र में यह महारामायण है । इसमे बड़े-बड़े इतिहास हैं जिनसे परमबोध की प्राप्ति होती है । हे रामजी! सब इतिहासों का सार मैं तुमसे कहता हूँ जिसको समझ कर जीवनमुक्त हो तुमको जगत् न भासेगा, जैसे स्वप्न में जागे हुए को स्वप्न के पदार्थ भासते हैं । जो कुछ सिद्धान्त है उन सबका सिद्धान्त इसमें है और जो इसमें नहीं वह और में भी नहीं है इसको बुद्धिमान सब शास्त्र विज्ञान भण्डार जानते हैं । हे रामजी! जो पुरुष श्रद्धासंयुक्त इसको सुने और नित्य सुनके विचारेगा उसकी बुद्धि, उदार होकर परमबोध को प्राप्त होगी- इसमें संशय नहीं । जिसको इस शास्त्र में रुचि नहीं है वह पापात्मा है । उसको चाहिये कि प्रथम और शास्त्रों को विचारे उसके अनन्तर इसको विचारे तो जीवन्मुक्त होगा । जैसे उत्तम औषध से रोग शीघ्र ही निवृत्त होता है वैसे ही इस शास्त्र के सुनने और विचारने से शीघ्र ही अज्ञान नष्ट होकर आत्मपद प्राप्त होगा । हे रामजी! आत्मपद की प्राप्ति वर और शाप से नहीं होती जब विचाररूप अभ्यास करे तो आत्मज्ञान प्राप्त होता है! हे रामजी! दान देने, तपस्या करने और वेद के पढ़ने से भी आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती, केवल आत्मविचार से ही होती है । संसारभ्रम भी अन्यथा नष्ट नहीं होता ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सच्छास्त्रनिर्णयोनाम सप्तमस्सर्गः ॥७॥

अनुक्रम

 

परमकारण वर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिस पुरुष के चित्त और प्राणों की चेष्टा और परस्पर बोधन आत्मा का है और जो आत्मा को कहता भी है; आत्मा से तोषवान् भी है और आत्मा ही में रमता भी है ऐसा ज्ञान निष्ठ जीवनमुक्त होकर फिर विदेहमुक्त होता है । रामजी बोले हे मुनीश्वर! जीवनमुक्त और विदेहमुक्त का क्या लक्षण है कि उस दृष्टि को लेकर मैं भी वैसे ही विचरूँ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो पुरुष सब जगत् के व्यवहार करता है और जिसके हृदय में द्वैतभ्रम शान्त हुआ है वह जीवन्मुक्त है; जो शुभ क्रिया करता है और हृदय से आकाश की नाईं निर्लेप रहता है वह जीवनमुक्त है; जो पुरुष संसार की दशा से सुषुप्त होकर स्वरूप में जाग्रत हुआ है और जिसका जगतभ्रम निवृत्त हुआ है वह जीवनमुक्त है । हे रामजी! इष्ट की प्राप्ति में जिसकी कान्ति नहीं बढ़ती और अनिष्ट की प्राप्ति में न्यून नहीं होती वह पुरुष जीवन्मुक्त है और जो पुरुष सब व्यवहार करता है और हृदय से द्वेष रहित शीतल रहता है वह जीवन्मुक्त है । हे रामजी! जो पुरुष रागद्वेषादिक संयुक्त दृष्टि आता है; इष्ट में रागवान् दिखता है और अनिष्ट में द्वेषवान् दृष्टि आता है पर हृदय से सदा शान्तरूप है वह जीवन्मुक्त है । जिस पुरुष को अहं ममता का अभाव है और जिसकी बुद्धि किसी में लिपायमान नहीं होती वह कर्म करे अथवा न करे परन्तु जीवन्मुक्त है । हे रामजी! जिस पुरुष को मान, अपमान, भय और क्रोध में कोई विकार नहीं उपजता और आकाश की नाईं शून्य हो गया है वह जीवन्मुक्त है । जो पुरुष भोक्ता भी हृदय से अभोक्ता है और सचित्त दृष्टि आता है पर अचित्त है वह जीवन्मुक्त है । जिस पुरुष से कोई दुःखी नहीं होता और लोगों से वह दुःखी नहीं होता और राग, द्वेष और क्रोध से रहित है वह जीवन्मुक्त है । हे रामजी! जो पुरुष चित्त के फुरने से जगत् की उत्पत्ति जानता है और चित्त के अफुर होने से जगत् का प्रलय जानता है और सबमें समबुद्धि है वह जीवन्मुक्त है । जो पुरुष भोगों से जीता दृष्टि आता है और मृतक की नाईं स्थित और चेष्टा करता दृष्टि आता है, पर वास्तव में पर्वत के सदृश अचल है वह जीवन्मुक्त है । हे रामजी! जो पुरुष व्यवहार करता दृष्टि आता है और जिसके हृदय में इष्ट अनिष्ट विकार कोई नहीं है वह जीवन्मुक्त है । जिस पुरुष को सब  जगत् आकाशरूप दीखता है और जिसकी निर्वासनिक बुद्धि हुई है वह जीवन्मुक्त है, क्योंकि वह सदा आत्मस्वभाव में स्थित है और सब जगत् को ब्रह्मस्वरूप जानता है । इतना सुनकर रामजी बोले, हे भगवन् जीवन्मुक्त की तो तुमने कठिन गति कही । इष्ट अनिष्ट में सम और शीतल बुद्धि कैसे होती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इष्ट अनिष्टरूपी जगत् अज्ञानी को भासता है और ज्ञानी को सब आकाशरूप भासता है उसे राग द्वेष किसी में नहीं होता । औरों की दृष्टि में वह चेष्टा करता दृष्टि आता है, परन्तु जगत् की वार्त्ता से सुषुप्त है । हे रामजी! जीवन्मुक्त कुछ काल रहकर जब शरीर को त्यागता है तब ब्रह्मपद को प्राप्त होता है । जैसे पवन स्पन्द को त्यागकर निस्पन्द होता है वैसे ही वह जीवन्मुक्त को त्यागकर विदेह मुक्त होता है । तब वह  सूर्य होकर तपता है, ब्रह्मा होकर सृष्टि उत्पन्न करता है, विष्णु होकर प्रतिपालन  करता है, रुद्र होके संहार करता है, पृथ्वी होके सब भूतों को धरता और ओषधि अन्नादिकों को उत्पन्न करता है, पर्वत होके पृथ्वी को रखता है, जल होके रस देता है, अग्नि होके उष्णता को धारता है, पवन होके पदार्थों को सुखाता है,चन्द्रमा होके ओषधियों को पुष्ट करता है, आकाश होके सब पदार्थों को ठौर देता है,मेघ होके वर्षा करता है और स्थावर जंगम जितना कुछ जगत् है सबका आत्मा होके स्थित होता है । रामजी ने पूछा, हे भगवन्! विदेहमुक्त शरीर को धारण कर क्षोभवान् होकर जगत् में आता है तो त्रिलोकी का भ्रम क्यों नहीं मिटता? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जगत् आडम्बर अज्ञानी के हृदय में स्थित है और ज्ञानवान् को सब चिदाकाशरूप है । विदेह मुक्त वही रूप होता है जहाँ उदय अस्त की कल्पना कोई नहीं केवल शुद्ध बोधमात्र है । हे रामजी! यह जगत् आदि से उपजा नहीं केवल अज्ञान से भासता है । मैं तुम और सब जगत् आकाशरुप हैं । जैसे आकाश में नीलता और दूसरा चन्द्रमा भासते हैं । और जैसे मरुस्थल में जल भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । हे रामजी! जैसे स्वर्ण में भूषण कुछ उपजा नहीं और जैसे समुद्र में तरंगे होती हैं वैसे ही आत्मा में जगत उपजा नहीं । यह सब जगज्जाल मन के फुरने से भासता है, स्वरूप से कुछ नहीं बना । ज्ञानी को सदा यही निश्चय रहता है, फिर जगत् का क्षोभ उसको कैसे भासे? हे रामजी! यह भी मैंने तुम्हारे जाननेमात्र को कहा है, नहीं तो जगत् कहाँ है जगत् का तो अत्यन्त अभाव है । इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जगत् के अत्यन्त अभाव हुए बिना आत्मबोध की प्राप्ति नहीं होती । वशिष्ठ बोले, हे रामजी! दृश्य दृष्टा का मिथ्याभ्रम उदय हुआ है । जब दोनों में से एक का अभाव हो तब दोनों का अभाव हो और जब दोनों का अभाव हो तब शुद्ध बोधमात्र शेष रहे । जिस प्रकार जगत् का अत्यन्त अभाव हो वह युक्ति मैं तुमसे कहता हूँ । हे रामजी! चिरकाल का जो जगत् दृढ़ हो रहा है वह मिथ्यावान् विसूचिका है । वह विचाररूपी मन्त्र से निवृत्त होता है । जैसे पर्वत पर चढ़ना और उतरना शनैः-शनैः होता है वैसे ही अविद्धकभ्रम चिरकाल का दृढ़ हो रहा है, विचार करके क्रम से उसकी निवृत्ति होती है । जगत् के अत्यन्त अभाव हुए बिना आत्मबोध नहीं होता । उसके अत्यन्त अभाव के निमित्त मैं युक्ति कहता हूँ, उसके समझने से जगत् भ्रम नष्ट होगा और जीवन्मुक्त होकर तुम विचरोगे । हे रामजी! बन्धन से वही बँधता है जो उपजा हो और मुक्त भी वही होता जो उपजा हो । यह जगत् जो तुमको भासता है वह उपजा नहीं । जैसे मरुस्थल में नदी भासती है वह भी उपजी नहीं है भ्रम से भासती है वै से ही आत्मा में जगत् भासता है पर उपजा नहीं । जैसे अर्द्ध मीलित नेत्र पुरुष को आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही भ्रम से जगत् भासता है । हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब स्थावर , जंगम, देवता, किन्नर, दैत्य, मनुष्य, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादिक जगत् का अभाव होता है । इसके अनन्तर जो रहता है सो इन्द्रियग्राहक सत्ता नहीं और असत्य भी नहीं और न शून्य, न प्रकाश, न अन्धकार, न दृष्टा, न दृश्य, न केवल न अकेवल, न चेतन, न जड़ न ज्ञान, न अज्ञान, न साकार, न निराकार, न किञ्चन और न अकिञ्चन ही है वह तो सर्वशब्दों से रहित है । उसमें वाणी की गम नहीं और जो है तो चेतन से रहित चैतन्य आत्मतत्त्वमात्र है जिसमें अहं त्वं की कोई कल्पना नहीं । ऐसे  शेषरहता है और पूर्ण, अपूर्ण, आदि , मध्य, अन्त से रहित है । सोई सत्ता जगत्‌रूप  होकर भासती है और कुछ जगत् बना नहीं । जैसे मरीचिका में जल भासता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । हे रामजी! जब चित्तशक्ति स्पन्दरूप हो भासती है तब जगदाकार भासता है और जब निस्स्पन्द होती है तब जगत् का अभाव होता है, पर आत्मसत्ता एकरस रहती है । जैसे वायु स्पन्दरूप होता है तो भासता है और निस्स्पन्दरुप नहीं भासता परन्तु वायु एक ही है वैसे ही जब चित्त संवेदनस्पन्दरूप होता है तब जगत् होकर भासता है और जब निस्स्पन्दरूप होता है तब जगत् मिट जाता है । हे रामजी! चेतन तब जाना जाता है जब संवेदनस्पन्दरूप होता है जैसे सुगन्ध का ग्रहण आधार से होता है और आधाररूप द्रव्य के बिना सुगन्ध का ग्रहण नहीं होता । जैसे वस्त्र श्वेत होता है तब रंग को ग्रहण करता है अन्यथा रंग नहीं चढ़ता वैसे ही आत्मा का जानना स्पन्द से होता है स्पन्द के बिना जानने की कल्पना भी नहीं होती । जैसे आकाश में शून्यता और अग्नि में उष्णता भासती है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है--वह अनन्यरूप है । जैसे जल द्रवता से तरंगरूप होके भासता है वैसे ही आत्मसत्ता जगत्‌रूप होके भासती है । वह आकाशवत् शुद्ध है और श्रवण,चक्षु नासिका, त्वचा, देह और शब्द स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से रहित है और सब ओर से श्रवण करता, बोलता, सूँघता, स्पर्श करता और रस लेता भी आप ही है । आत्मरूपी सूर्य की किरणों में जलरूपी त्रिलोकी फुरती भासती है । जैसे जल में चक्र आवृत्त फुरते भासते सो जल से इतर कुछ नहीं, जलरूप ही हैं वैसे ही जगत् आत्मा से भिन्न नहीं आत्मरूप ही है । आत्मा ही जगत्‌रूप होकर भासता है । जिह्वा नहीं पर बोलता है; अभोक्ता है पर भोक्ता होके भासता है; अफुर है पर फुरता भासता है; अद्वैत है पर द्वैतरूप होकर भासता है और निराकार है पर साकाररूप होके भासता है । हे रामजी! आत्मसत्ता सब शब्दों से अतीत है पर वही सब शब्दों को धारती है और दृष्टा होके भासती है, इतर कुछ है नहीं । कई सृष्टि समान होती हैं और कई विलक्षण होती हैं परन्तु स्वरूप से कुछ  भिन्न नहीं सदा आत्मरुप हैं जैसे सुवर्ण से भूषण समान आकार भी होते और विलक्षण भी  होते हैं । और कंकण से आदि लेके जो भूषण हैं सो सुवर्ण से इतर नहीं होते -सुवर्णरूप ही है वैसे ही जगत् आत्मस्वरूप है और शुद्ध आकाश से भी निर्मल बोधमात्र है । हे रामजी! जब तुम उसमें स्थित होगे तब जगत्‌भ्रम मिट जावेगा । जगत् वास्तव में कुछ नहीं है सदा ज्यों का त्यों अपने आपमें स्थित है; केवल मन के फुरने से ही जगत् भासता है मन के फुरने से रहित होने पर सब कल्पना मिट जाती है और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों भासती  है और सबका अधिष्ठानरूप है । यह सब जगत् उसी से हुआ है और वही रूप है । सबका कारण आत्मसत्ता है और उसका कारण कोई नहीं । अकारण, अद्वैत, अजर, अमर, और सब कल्पना से रहित शुद्ध चिन्मात्ररुप है ।   

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे परमकारण वर्णनन्नामाष्टमस्सर्गः ॥८॥

अनुक्रम

परमात्मस्वरूप वर्णन

इतना सुनकर रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जब महाप्रलय होता है और सब पदार्थ नष्ट हो जाते हैं उसके पीछे जो रहता है उसे शून्य कहिये वा प्रकाश कहिये, क्योंकि तम तो नहीं; चेतन है अथवा जीव है, मन है वा बुद्धि है सत् असत्, किञ्चन, इनमें कोई तो होवेगा; आप कैसे कहते हैं कि वाणी की गम नहीं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह तुमने बड़ा प्रश्न किया है । इस भ्रम को मैं बिना यत्न नाश करूँगा । जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही तुम्हारे संशय का नाश होगा । हे रामजी! जब महा प्रलय होता है तब सम्पूर्ण दृश्य का अभाव हो जाता है पीछे जो शेष रहता है सो शून्य नहीं, क्योंकि दृश्याभास उसमें सदा रहता है और वास्तव में कुछ हुआ नहीं । जैसे थम्भ में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है कि इतनी पुतलियाँ इस थंभ से निकलेंगी सो थम्भ में ही शिल्पी कल्पता है जो थम्भ न हो तो शिल्पी पुतलियाँ किसमें कल्पता? वैसे ही आत्म रूपी थम्भे में मनरूपी शिल्पी जगत्‌रूपी पुतलियाँ कल्पता है; जो आत्मा न हो तो पुतलियाँ किसमें कल्पे जैसे थम्भे में पुतलियाँ थम्भारूप हैं वैसे ही सब जगत् ब्रह्मरूप है ब्रह्मा से इतर जगत् का होना नहीं । जैसी पुतलियों का सद्भाव और असद्भाव थम्भ में है, क्योंकि अधिष्ठानरूप थम्भा है- थम्भे बिना पुतलियाँ नहीं होती, वैसे ही जगत् आत्मा के बिना नहीं होता । हे रामजी! सद्भाव हो जाता है वह सत् से होता है असत् से नहीं और असद्भाव सिद्ध होता है वह सत् ही में होता है असत् में नहीं होता । इससे सत् शून्य नहीं; जो शून्य होता तो किसमें भासता जैसे सोम जल में तरंग का सद्भाव और  असद्भाव भी होता है । असद्भाव इस कारण होता है कि तरंग भिन्न कुछ नहीं और सद्भाव इस कारण से होता है कि जल ही में तरंग होता है वैसे ही जगत् का सद्भाव असद्भाव आत्मा में होता है शून्य में नहीं । जैसे सोम जल में कहनेमात्र को तरंग हैं, नहीं तो जल ही वैसे ही जगत् कहनेमात्र को है, हुआ कुछ नहीं -एक सत्ता ही है । और शून्य और अशून्य भी नहीं, क्योंकि शून्य और अशून्य ये दोनों शब्द उसमें कल्पित हैं शून्य उसको कहते हैं जो सद्भाव से रहित अभावरूप हो और अशून्य उसको कहते हैं जो विद्यमान हो । पर आत्मसत्ता इन दोनों से रहित है । अशून्य भी शून्य का प्रतियोगी है जो शून्य नहीं तो अशून्य कहाँ से हो । ये दोनों ही अभावमात्र हैं । हे रामजी! यह सूर्य, तारा, दीपक आदि भौतिक प्रकाश भी वहाँ नहीं, क्योंकि प्रकाश अन्धकार का विरोधी है जो यह प्रकाश होता तो अन्धकार सिद्ध न होता । इससे वहाँ प्रकाश भी नहीं है और तम भी नहीं है, क्योंकि सूर्यादिक जिससे प्रकाशते हैं वह तम कैसे हो? आत्मा के प्रकाश बिना सूर्यादिक भी तमरूप हैं । इससे वह न शून्य है, न अशून्य है, न प्रकाश है, न तम है, केवल आत्मतत्त्वमात्र है । जैसे थम्भ में पुतलियाँ कुछ हैं नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ हुआ नहीं । जैसे बेलि और बेलि की मज्जा में कुछ भेद नहीं वैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं और जैसे जल और तरंग में मृत्तिका और घट में कुछ भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं, नाममात्र भेद है । हे रामजी! जल और मृत्तिका का जो दृष्टान्त दिया है ऐसा भी आत्मा में नहीं । जैसे जल में तरंग होता है और मृत्तिका में घट होता है सो भी परिणाम होता है । आत्मा में जगत् भान  नहीं है और जो मानसिक है तो आकाशरूप है । इससे जगत् कुछ भिन्न नहीं है रूप अवलोकन मनस्कार जो कुछ भासता है वह सब आकाशरूप  है । आत्मसत्ता ही चित्त के फुरने से जगत्‌रूप हो भासती है-जगत् कुछ दूसरी वस्तु नहीं । जैसे सूर्य की किरणों में जलाभास होता है वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । हे रामजी! थम्भ में जो शिल्पकार पुतलियाँ कल्पता है सो भी नहीं होतीं और यहाँ कल्पनेवाला भी बीच की पुतली है वह भी होने बिना भासती है । हे रामजी! जिससे यह जगत् भासता है उसको शून्य कैसे कहिये और जो कहिये कि चेतन है तो भी नहीं, क्योंकि चेतन भी तब होता है जब चित्तकला फुरती है जहाँ फुरना न हो वहाँ चेतनता कैसे रहे? जैसे जब कोई मिरच को खाता है तब उसकी तिखाई भासती है, खाये बिना नहीं भासती । वैसे ही चैतन्य जानना भी स्पन्दकला में होता है, आत्मा में जानना भी नहीं होता । चैतन्यता से रहित चिन्मात्र अक्षय सुषुप्तिरूप है उसको जो तुरीय कहता है वह ज्ञेय ज्ञानवान से गम्य है । हे रामजी! जो पुरुष उसमें स्थित हुआ है उसको संसाररूपी सर्प नहीं डस सकता, वह अचैत्य चिन्मात्र होता है और जिसको आत्मा में स्थिति नहीं होती उसको दृश्यरूपी सर्प डसता है । आत्मसत्ता में तो कुछ द्वेत नहीं हुआ आत्मसत्ता तो आकाश से भी स्वच्छ है । इनका दृष्टा, दर्शन, दृश्य स्वतः अनुभवसत्ता आत्मा का रूप है और वह अभ्यास करने से प्राप्त होती है । हे रामजी! उसमें द्वैतकल्पना कुछ नहीं है । वह अद्वैतमात्र है वह न दृष्टा है न जीव है, न कोई विकार और न स्थूल, न सूक्ष्म है-एक शुद्ध अद्वैतरूप अपने आपमें स्थित है जो यह चैत्य का फुरना ही आदि में नहीं हुआ तो चेतनकलारूप जीव कैसे हो और जो जीव ही नहीं तो कैसे हो जो बुद्धि ही नहीं तो मन और इन्द्रियाँ कैसे हों; जो इन्द्रियाँ नहीं तो देह कैसे हो और जो देह न हो तो जगत् कैसे हो? हे रामजी! आत्मसत्ता में सब कल्पना मिट जाती हैं; उसमें कुछ कहना नहीं बनता वह तो पूर्ण, अपूर्ण, सत्, असत् से न्यारा है भाव और अभाव का कभी उसमें कोई विकार नहीं; आदि, मध्य, अन्त की कल्पना भी कोई नहीं वह तो अजर, अमर, आनन्द, अनन्त, चित्तस्वरूप, अचैत्य चिन्मात्र और अवाक्यपद है । वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, आकाश से भी अधिक शून्य और स्थूल से भी स्थूल एक अद्वैत  और अनन्त चिद्रूप है । इतना सुनन रामजी ने पूछा, हे भगवन! यह अचिंत्य, चिन्मात्र और परमार्थसत्ता जो आपने कही उसका रूप बोध के निमित्त मुझसे फिर कहो । वशिष्ठजी  बोले, हे रामजी! जब महाप्रलय होता है तब सब जगत नष्ट हो जाता है, पर ब्रह्मसत्ता शेष रहती है उसका रूप मैं कहता हूँ मनरूपी ब्रह्मा है मन की वृत्ति जो प्रवृत्त  होती है वह एक प्रमाण, दूसरी विपर्यक, तीसरी विकल्प, चौथी अभाव और पाँचवीं स्मरण  है । प्रमाणवृत्ति तीन प्रकार की है-एक प्रत्यक्ष; दूसरी अनुमान जैसे धुँवा से अग्नि जानना और तीसरी शब्दरूप ये तीनों प्रमाणवृत्ति आप्तकामिका हैं । द्वितीय विपर्यक वृत्ति है-विपरीत भाव से तृतीय विकल्पवृत्ति है चेतन ईश्वररूप है और साक्षी पुरुषरूप है अर्थात् जैसे सीप पड़ी हो और उसमें संशय वृत्ति चाँदी की या सीपी की भासे तो उसका नाम विकल्प है । चतुर्थ निद्रा-अभाव वृत्ति है और पञ्चम स्मरणवृत्ति है यही पाँचों वृत्तियाँ हैं और इनका अभिमानी मन है जब तीनों शरीरों का अभिमानी अहंकार नाश हो तब पीछे जो रहता है सो निश्चल सत्ता अनन्त आत्मा है । मैं असत् नहीं कहता हूँ । हे रामजी! जाग्रत् के अभाव होने पर जब तक सुषुप्ति नहीं आती वह रूप परमात्मा का है अंगुष्ठ को जो शीत उष्ण का स्पर्श होता है उसको अनुभव करनेवाली परमात्मसत्ता है जिसमें दृष्टा, दर्शन और दृश्य उपजता है और फिर लीन होता है वह परमात्मा का रूप है । उस सत्ता में चेतन भी नहीं है । हे रामजी! जिसमें चेतन अर्थात् जीव और जड़ अर्थात् देहादिक दोनों नहीं हैं वह अचैत्य चिन्मात्र परमात्मा रूप है । जब सब व्यहार होते हैं उनके अन्तर आकाशरूप हैं-कोई क्षोभ नहीं ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है वह शून्य है परन्तु शून्यता से रहित है । हे रामजी!  जिसमें दृष्टा, दर्शन और दृश्य तीनों प्रतिबिम्बित हैं और आकाशरूप है-ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है। जो स्थावर में स्थावरभाव और चेतन में चेतन भाव से व्याप रहा है और मन बुद्धि  इन्द्रियाँ जिसको नहीं पा सकतीं ऐसी सत्ता परमात्मा का रूप है । हे रामजी! ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का जहाँ अभाव हो जाता है उसके पीछे जो शेष रहता है और जिसमें कोई विकल्प नहीं ऐसी अचेत चिन्मात्रसत्ता परमात्मा का रूप है ।   

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे परमात्मस्वरूप वर्णनन्नाम नवमस्सर्गः ॥९॥

अनुक्रम

परमार्थरूपवर्णन

इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! यह दृश्य जो स्पष्ट भासता है सो महाप्रलय में कहाँ जाता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! बन्ध्या स्त्री का पुत्र कहाँ से आता है और कहाँ जाता है और आकाश का वन कहाँ से आता और कहाँ जाता है? जैसे आकाश का वन है वैसे ही यह जगत् है । फिर रामजी ने पुछा, हे मुनीश्वर! बन्ध्या का पुत्र और आकाश का वन तो तीनों काल में नहीं होता शब्दमात्र है और उपजा कुछ नहीं पर यह जगत् तो स्पष्ट भासता है बन्ध्या के पुत्र के समान कैसे हो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे बन्ध्या का पुत्र और आकाश का वन उपजा नहीं वैसे ही यह जगत् भी उपजा नहीं । जैसे संकल्पपुर होता है और जैसे स्वप्ननगर प्रत्यक्ष भासता है और आकाशरूप है, इनमें से कोई पदार्थ सत् नहीं वैसे ही यह जगत् भी आकाशरूप है और कुछ उपजा नहीं । जैसे जल और तरंग में, काजल और श्यामता में, अग्नि और उष्णता में, चन्द्रमा और शीतलता में, वायु और स्पन्द में आकाश और शून्यता में भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं-सदा अपने स्वभाव में स्थित है । हे रामजी! जगत् कुछ बना नहीं, आत्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है और उसमें अज्ञान से जगत् भासता है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा मरुस्थल में जल और आकाश में तरुवरे भासते हैं वैसे ही आत्मा में अज्ञान से जगत् भासता है । इतना सुन फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन्! दृश्य के अत्यन्त अभाव बिना बोध की प्राप्ति नहीं होती और जगत् स्पष्टरूप भासता है । दृष्टा और दृश्य जो मन से उदय हुए हैं सो भ्रम से हुए हैं । जो एक है तो दोनों भी है और जब दोनों में एक का अभाव हो तो दोनों मुक्त हों, क्योंकि जहाँ दृष्टा है वहाँ दृश्य भी है और जहाँ दृश्य है वहाँ दृष्टा भी है । जैसे शुद्ध आदर्श के बिना प्रतिबिम्ब नहीं होता वैसे ही दृष्टा भी दृश्य के बिना नहीं रहता और दृश्य दृष्टा के बिना नहीं । हे मुनीश्वर! दोनों में एक नष्ट हो तो दोनों निर्वाण हों इससे वही युक्ति कहो जिससे दृश्य का अत्यन्त अभाव होकर आत्मबोध प्राप्त हो । कोई ऐसा भी कहते हैं कि दृश्य आगे था अब नष्ट हुआ तो उसको भी संसारभाव देखावेगा और जिसको विद्यमान नहीं भासता और उसके अन्तर सद्भाव है तो फिर संसार देखेगा । जैसे सूक्ष्म बीज में वृक्ष का सद्भाव होता है वैसे ही स्मृति फिर संसार को दिखावेगा और आप कहतेहैं कि जगत् का अत्यन्त अभाव होता है और जगत् का कारण कोई नहीं-आभासमात्र है और उपजा कुछ नहीं? हे मुनीश्वर! जिसका अत्यन्त अभाव होता है वह वस्तु वास्तव में नहीं होती और जो है ही नहीं तो बन्धन किसको हुआ तब तो सब मुक्तस्वरूप हुए पर जगत् तो प्रत्यक्ष भासता है? इससे आप वही युक्ति कहो जिससे जगत का अत्यन्त अभाव हो । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दृश्य के अत्यन्त अभाव के निमित्त मैं एक कथा सुनाता हूँ; जिसका अर्थ निश्चयकर समझने से दृश्य शान्त होकर फिर संसार कदाचित् न उपजेगा । जैसे समुद्र में धूल नहीं उड़ती वैसे ही तुम्हारे हृदय में संसार न रहेगा । हे रामजी! यह जगत् जो तुमको भासता है सो अकारणरूप है; इसका कारण कोई नहीं । हे रामजी! जिसका कारण कोई न हो और भासे उसको जानिये कि भ्रममात्र है-उपजा कुछ नहीं जैसे स्वप्न में सृष्टि भासती है वह किसी कारण से नहीं उपजी केवल संवित्‌रूप है वैसे ही सर्ग आदि कारण से नहीं उपजा केवल आभासरूप है- परमात्मा में कुछ नहीं । हे रामजी! जो पदार्थ कारण बिना भासे तो जिसमें वह भासता है वही वस्तु उसका अधिष्ठानरूप है ।जैसे तुमको स्वप्न में स्वप्न का नगर होकर भासता है पर वहाँ तो कोई पदार्थ नहीं केवल आभासरूप है और संवित ज्ञान ही चैतन्यता से नगर होकर भासता है, वैसे ही विश्व अकारण आभास आत्मसत्ता से होके भासता है । जैसे जल में द्रवता; वायु में स्पन्द; जल में रस और तेज में प्रकाश है वैसे ही आत्मा में चित्तसंवेदन है । जब चित्तसंवेदन स्पन्दरूप होता है तब जगत्‌रूप होकर भासता है-जगत् कोई वस्तु नहीं है । हे रामजी! जैसे तत्वों के अणु और ठौर भी पाये जाते हैं और आकाश के अणु और ठौर नहीं पाये जाते क्योंकि आकाश शून्यरूप है वैसे ही आत्मा से इतर इस जगत् का भाव कहीं नहीं पाते क्योंकि यह आभासरूप है और किसी कारण से नहीं उपजा । कदाचित् कहो कि पृथ्वी आदिक तत्त्वों से जगत् उपजा है तो ऐसे कहना भी असम्भव है । जैसे छाया से धूप नहीं उपजती वैसे ही तत्त्वों से जगत् नहीं उपजता, क्योंकि आदि आप ही नहीं उपजे तो कारण किसके हो? इससे ब्रह्मसत्ता सर्वदा अपने आप में स्थित है । हे रामजी! आत्मसत्ता जगत् का कारण नहीं, क्योंकि वह अभूत और अजड़रूप है सो भौतिक और जड़ का कारण कैसे हो? जैसे धूप परछाहीं का कारण नहीं वैसे ही आत्मसत्ता जगत् का कारण नहीं । इससे जगत् कुछ हुआ नहीं वही सत्ता जगत्‌रूप होकर भासती है । जैसे स्वर्ण भूषणरूप होता है और भूषण कुछ उपजा नहीं वैसे ब्रह्म सत्ता जगत्‌रूप होकर भासती है । जैसे अनुभव संवित स्वप्ननगररुप हो भासता है वैसे ही यह सृष्टि किञ्चनरूप है दूसरी वस्तु नहीं । ब्रह्मसत्ता सदा अपने आप में स्थित है और जितना कुछ जगत् स्थावर जंगमरूप भासता है वह आकाशरूप है ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे परमार्थरूपवर्णनन्नाम दशमस्सर्गः ॥१०॥

अनुक्रम

 

जगदुत्पत्तिवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मसत्ता नित्य, शुद्ध, अजर,अमर और सदा अपने आपमें स्थित है । उसमें जिस प्रकार सृष्टि उदय हुई है वह सुनिये । उसके जानने से जगत् कल्पना मिट जावेगी । हे रामजी! भाव-अभाव, ग्रहण-त्याग, स्थूल-सूक्ष्म, जन्म-मरण आदि पदार्थों से जीव छेदा जाता है उससे तुम मुक्त होगे । जैसे चूहे सुमेरु पर्वत को चूर्ण नहीं कर सकते वैसे ही तुमको संसार के भाव-अभाव पदार्थ चूर्ण न कर सकेंगे । हे रामजी! आदि शुद्ध देव अचेत चिन्मात्र है, उनमें चैत्यभाव सदा रहता है, क्योंकि वह चैतन्यरूप है । जैसे वायु में स्पन्द शक्ति सदा रहती है वैसे ही चिन्मात्र में चैत्य का फुरना रहकर "अहमस्मि" भाव को प्राप्त हुआ है । इस कारण उसका नाम चैतन्य है । हे रामजी! जब तक चैतन्य-संवित अपने स्वरूप के ठौर नहीं आता तब तक इसका नाम जीव है और संकल्प का नाम बीज चित्-संवित है, जब जीव संवित चैत्य को चेतता है तब प्रथम शून्य होकर उसमें शब्दगुण होता है उस आदि शब्दतन्मात्रा से पद, वाक्य और प्रमाण सहित वेद उत्पन्न हुए । जितना कुछ जगत् में शब्द है उसका बीज तन्मात्रा है । जिससे वायु स्पर्श होता है । फिर रूपतन्मात्रा हुई, उससे सूर्य अग्नि आदि प्रकाश हुए । फिर रसतन्मात्रा हुई जिससे जल हुआ और सब जलों का बीज वही है । फिर गन्ध तन्मात्रा हुई जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी का बीज वही है । हे रामजी इसी प्रकार पाँचों भूत हुए हैं फिर पृथ्वी, अपू, तेज वायु और आकाश से जगत् हुआ है सो भूत पञ्चकृत और अपञ्चीकृत है । यह भूत शुद्ध चिदाकाशरूप नहीं, क्योंकि संकल्प और मैलयुक्त हुए हैं । इस प्रकार चिद्‌अणु में सृष्टि भासी है जैसे वटबीज में से वट का विस्तार होता है वैसे ही चिद्‌अणु में सृष्टि है । कहीं क्षण में युग और कहीं युग में क्षण भासता है । चिद्‌अणु में अनन्त सृष्टि फुरती हैं । जब चित्-संवित चैत्योन्मुख होता है तब अनेक सृष्टि होकर भासती हैं और जब चित् संवित आत्मा की ओर आता है तब आत्मा के साक्षात्कार होने से सब सृष्टि पिण्डाकार होती है । अर्थात् सब आत्मारूप होती है इससे इस जगत् के बीज सूक्ष्मभूत हैं और इनका बीज चिद्‌अणु है । हे रामजी! जैसा बीज होता है वैसा ही वृक्ष होता है । इससे सब जगत् चिदाकाशरूप है । संकल्प से यह जगत् आडम्बर होता है और संकल्प के मिटे सब चिदाकाश होता है । जैसे संकल्प आकाशरूप है जिससे क्षण में अनेकरूप होते हैं । जैसे संकल्पनगर और स्वप्नपुर होता है वैसे ही यह जगत् है । हे रामजी! इस जगत् का मूल पञ्चभूत है जिसका बीज संवित और स्वरूप चिदाकाश है । इसी से सब जगत् चिदाकाश है; द्वैत और कुछ नहीं ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे जगदुत्पत्तिवर्णनन्नाममैकादशस्सर्गः ॥११॥

अनुक्रम

 

स्वयम्भूउत्पत्ति वर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! परब्रह्म सम, शान्त, स्वच्छ, अनन्त, चिन्मात्र और सर्वदा काल अपने आप में स्थित है । उसमें सम-असमरूप जगत् उत्पन्न हुआ है । सम अर्थात् सजातीयरूप और असम अर्थात् भेदरूप कैसे हुए सो भी सुनिये । प्रथम तो उसमें चैत्य का फुरना हुआ है; उसका नाम जीव हुआ और उसने दृश्य को चेता उससे तन्मात्र, शब्द, स्पर्श रूप,रस और गन्ध उपजे । उन्ही से पृथ्वी, अपू, तेज, वायु और आकाश पञ्चभूतरूपी वृक्ष हुआ और उस वृक्ष में ब्रह्माण्डरूपी फल लगा इससे जगत् का कारण पञ्चतन्मात्रा हुई हैं और तन्मात्रा का बीज आदि संवित आकाश है और इसी से सर्व जगत् ब्रह्मरूप हुआ । हे रामजी! जैसे बीज होता है वैसा ही फल होता है । इसका बीज परब्रह्म है तो यह भी पर ब्रह्म हुआ जो आदि अचेत चिन्मात्र स्वरूप परमाकाश है और जिस चैतन्य संवित में जगत् भासता है वह जीवाकाश है । वह भी शुद्ध निर्मल है, क्योंकि वह पृथ्वी आदि भूतों से रहित है । हे रामजी! यह जगत् जो तुमको भासता है सो सब चिदाकाशरूप है और वास्तव में द्वैत कुछ नहीं बना । यह मैंने तुमसे ब्रह्माकाश और जीवाकाश कहा । अब जिससे इसको शरीर ग्रहण हुआ सो सुनिये । हे रामझी! शुद्ध चिन्मात्र में जो चैत्यो न्मुखत्व "अहं अस्मि" हुआ और उस अहंभाव से आपको जीव अणु जानने लगा । अपना वास्तव स्वरूप अन्य भाव की नाईं होकर जीव अणु में जो अहंभाव दृढ़ हुआ उसी का नाम अहंकार हुआ उस अहंकार की दृढ़ता से निश्चयात्मक बुद्धि हुई और उसमें संकल्परूपी मन हुआ जब मन इसकी ओर संसरने लगा तब सुनने की इच्छा की इससे श्रवण इन्द्रिय प्रकट हुई; जब रूप देखने की इच्छा की तब चक्षु इन्द्रिय प्रकट हुई; जब स्पर्श की इच्छा की तो त्वचा इन्द्रिय प्रकट हुई और जब रस लेने की इच्छा की तो जिह्वा इन्द्रिय प्रकट हुई । इसी प्रकार से देह इन्द्रियाँ चैत्यता से भासीं और उनमें यह जीव अहंप्रतीति करने लगा । हे रामजी! जैसे दर्पण में पर्वत का प्रतिबिम्ब होता है वह पर्वत से बाह्य है वैसे ही देह और इन्द्रियाँ बाह्य दृश्य हैं पर अपने में भासी हैं इससे उनमें अहं प्रतीति होती है । जैसे कूप में मनुष्य आपको देखे वैसे ही देह में आपको देखता है जैसे डब्बे में रत्न होता है वैसे ही देह में आपको देखता है । वही चिद्‌अणु देह के साथ मिलकर दृश्य को रचता है । उस अहं से ही क्रिया भासने लगी जैसे स्वप्न में दौड़े और जैसे स्थित में स्पन्द होती है वैसे ही आत्मा में जो स्पन्द क्रिया हुई वह चित्त-संवित् से ही हुई है और उसी का नाम स्वयम्भू ब्रह्मा हुआ । जैसे संकल्प से दूसरा चन्द्रमा भासता है वैसे ही मनोमय जगत् भासता है । जैसे शश के शृंग होते हैं वैसे ही यह जगत् है । कुछ उपजा नहीं केवल चित्त के स्पन्द में जगत् फुरता है ।जैसे जैसे चित्त फुरता गया वैसे वैसे देश, काल, द्रव्य, स्थावर, जंगम, जगत् की मर्यादा हुई । इससे सब जगत् संकल्प से इतर जगत् का आकार कुछ नहीं । जब संकल्प फुरता है तब आगे जगत् दृश्य भासता है और संकल्प निस्स्पन्द होता है तब दृश्य का अभाव होता है । हे रामजी! इस प्रकार से यह ब्रह्मा निर्वाण हो फिर और उपजते हैं इससे सब संकल्पमात्र ही है । जैसे नटवा नाना प्रकार के पट के स्वांग करके बाहर निकल आता है वैसे ही देखो यह सब मायामात्र है । हे रामजी! जब चित्त की ओर संसरता है तब दृश्य का अन्त नहीं आता और जब अन्तर्मुख होता है तब जगत् आत्मरूप होता है । चित्त के निस्स्पन्द होने से एक क्षण में जगत् निवृत्त होता है क्योंकि संकल्प रूप ही है । इससे यह जगत् आकाशरुप है उपजा कुछ नहीं और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है । जैसे स्वप्न में पर्वत और नदियाँ भ्रम से दीखते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रममात्र है । हे रामजी! यह स्थावर, जंगम जगत् सब चिदाकाश है । हमको तो सदा चिदाकाश ही भासता है । आदि विराटरूप में ब्रह्मा भी वास्तव में कुछ उपजे नहीं तो जगत् कैसे उपजा । जैसे स्वप्न में नाना प्रकार के देश काल और व्यवहार दृष्टि आते हैं सो अकारणरूप हैं उपजे कुछ नहीं और आभासमात्र हैं, वैसे ही यह जगत् आभासमात्र है । कार्य-कारण भासते हैं तो भी अकारण हैं । हे रामजी! हमको जगत् ऐसा भासता है जैसे स्वप्न से जागे मनुष्य को भासता है । जो वस्तु अकारण भासी है सो भ्रान्तिमात्र है । जो किसी कारण द्वारा जगत् नहीं उपजा तो स्वप्नवत् है । जैसे संकल्पपुर और गन्धर्वनगर भासते हैं वैसे ही यह जगत् भी जानो । आदि विराट आत्मा अन्तवाहकरूप है और वह पृथ्वी आदि तत्त्वों से रहित आकाशरूप है तो यह जगत् आधिभौतिक कैसे हो । सब आकाशरूप है ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे स्वयम्भूउत्पत्ति वर्णनन्नाम द्वादशस्सर्गः ॥१२॥

अनुक्रम

 

सर्वब्रह्मप्रतिपादनम्

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह दृश्य मिथ्या असत्‌रूप है । जो है सो निरामय ब्रह्म है यह ब्रह्माकाश ही जीव की नाईं हुआ है । जैसे समुद्र द्रवता से तरंगरूप होता है वैसे ही ब्रह्म जीवरूप होता है । आदिसंवित् स्पन्दरुप ब्रह्मा हुआ है और उस ब्रह्मा से आगे जीव हुए हैं । जैसे एक दीपक से बहुत दीपक होते हैं और जैसे एक संकल्प से बहुत संकल्प होते हैं वैसे ही एक आदि जीव से बहुत जीव हुए हैं । जैसे थम्भे में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है पर वह पुतलियाँ शिल्पी के मन में होती हैं थम्भा ज्यों का त्यों ही स्थित है वैसे ही सब पदार्थ आत्मा में मन कल्पे है, वास्तव में आत्मा ज्यों का त्यों ब्रह्म है । उन पुतलियों में बड़ी पुतली ब्रह्म है और छोटी पुतली जीव है । जैसे वास्तव में थम्भा है, पुतली कोई नहीं उपजी; वैसे ही वास्तव में आत्म सत्ता है जगत् कुछ उपजा नहीं; संकल्प से भासता है और संकल्प के मिटने से जगत् कल्पना मिट जाती है । इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! एक जीव से जो बहुत जीव हुए हैं तो क्या वे पर्वत में पाषाण की नाईं उपजते हैं वा कोई जीवों की खानि है? जिससे इस प्रकार इतने जीव उत्पन्न हो आते हैं; अथवा मेघ की बूँदों वा अग्नि से विस्फुलिंगों की नाईं उपजते हैं सो कृपाकर कहिए? और एक जीव कौन है जिससे सम्पूर्ण जीव उपजते हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! न एक जीव है और न अनेक हैं । तेरे ये वचन ऐसे हैं जैसे कोई कहे कि मैंने शश के श्रृंग उड़ते हुए देखें हैं । एक जीव भी तो नहीं उपजा मैं अनेक कैसे कहूँ? शुद्ध और अद्वैत आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है । वह अनन्त आत्मा है, उसमें भेद की कोई कल्पना नहीं है । हे रामजी! जो कुछ जगत् तुमको भासता है सो सब आकाशरूप है कोई पदार्थ उपजा नहीं । केवल संकल्प के फुरने से ही जगत् भासता है । जीव शब्द और उसका अर्थ आत्मा में कोई नहीं उपजा, यह कल्पना भ्रम से भासती है आत्मसत्ता ही जगत् की नाई भासती है, उसमें न एक जीव है और न अनेक जीव हैं । हे रामजी! आदि विराट् आत्मा आकाशरूप है, उससे जगत् उपजा है । मैं तुमको क्या कहूँ? जगत् विराटरूप है, विराट जीवरूप हैं और जीव आकाशरूप है, फिर और जगत् क्या रहा और जीव क्या हुआ? सब चिदाकाशरुप है । ये जितने जीव भासते हैं वे सब ब्रह्मस्वरूप हैं, द्वैत कुछ नहीं और न इसमें कुछ भेद है । रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! आप कहते हैं कि आदि जीव कोई नहीं तो इन जीवों का पालनेवाला कौन है । वह नियामक कौन है जिसकी आज्ञा में ये विचरते हैं? जो कोई हुआ ही नहीं तो ये सर्वज्ञ और अल्पज्ञ क्योंकर होते हैं और एक में कैसे हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी जिसको तुम आदिजीव कहते हो वह ब्रह्मरूप है । वह नित्य, शुद्ध और अनन्त शक्तिमान अपने आपमें स्थित है उसमें जगत कल्पना कोई नहीं । हे रामजी! जो शुद्ध चिदाकाश अनन्तशक्ति में आदिचित्त किञ्चन हुआ है वही शुद्ध चिदाकाश ब्रह्मसत्ता जीव की नाईं भासने लगी हैं । स्पन्दद्वारा हुए की नाईं भासती है । पर अपने स्वरूप से इतर कुछ हुआ नहीं । चैतन्य-संवित् आदि स्पन्द से (विराट) ब्रह्मारूप होकर स्थित हुआ है और उसने संकल्प करके जगत् रचा है । उसी ने शुभ अशुभ कर्म रचे हैं और उसी ने नीति रची है । अर्थात् यह शुभ है और यह अशुभ है; वही आदि नीति महाप्रलय पर्यन्त ज्यों की त्यों चली जाती है । हे रामजी! यह अनन्त शक्तिमान् देव जिससे आदि फुरना हुआ है वैसे ही स्थित है । जो आदि शक्ति फुरी है वह वैसे ही है जो अल्पज्ञ फुरा है सो अल्पज्ञ ही है । हे रामजी! संसार के पदार्थों में नीतिशक्ति प्रधान है; उसके लाँघने को कोई भी समर्थ नहीं है । जैसे रचा है वैसे ही महाप्रलय पर्यन्त रहती है । हे रामजी! आदि नित्य विराट्पुरुष अन्तवाहक रूप पृथ्वी आदि तत्वों से रहित है और यह जगत् भी अन्तवाहकरूप पृत्वी आदि तत्त्वों से नहीं उपजा- सब संकल्परूप है । जैसे मनोराज का नगर शून्य होता है वैसे ही यह जगत् शून्य है । हे रामजी! इस सर्ग का निमित्त कारण और समवाय कारण कोई नहीं । जो पदार्थ निमित्त कारण और समवाय कारण बिना दृष्टि आवे उसे भ्रममात्र जानिये, वह उपजता नहीं । जो पदार्थ उपजता है वह इन्हीं दोनों कारणों से उपजा है, पर वह जगत् का कारण इनमें से कोई नहीं । ब्रह्मसत्ता नित्य, शुद्ध और अद्वैत सत्ता है उसमें कार्य कारण की कल्पना कैसे हो? हे रामजी? यह जगत् अकारण है केवल भ्रान्ति से भासता है । जब तुमको आत्मविचार उपजेगा तब दृश्य भ्रम मिट जावेगा । जैसे दीपक हाथ में लेकर अन्धकार को देखिये तो कुछ दृष्टि नहीं आता वैसे ही जो विचार करके देखोगे तो जगत् भ्रम मिट जावेगा । जगत् भ्रम मन के फुरने से ही उदय हुआ है इससे संकल्पमात्र है । इसका अधिष्ठान ब्रह्म है, सब नामरूप उस ब्रह्मसत्ता में कल्पित हैं और षट्विकार भी उसी ब्रह्मसत्ता में फुरे हैं पर सबसे रहित और शुद्ध चिदाकाश रूप है और जगत् भी वह रूप है जैसे समुद्र में द्रवता से तरंग, बुद्बुदे और फेन भासते हैं वैसे ही आत्मसत्ता में चित्त के फुरने से जगत् भासता है । जैसे आदि चित्त में पदार्थ दृढ़ हुई है वैसे ही स्थित है और आत्मा के साथ अभेद है, इतर कुछ नहीं, सब चिदाकाश है । इच्छा, देवता, समुद्र, पर्वत ये सब आकाशरूप हैं । हेरामजी! हमको सदा चिदाकाशरूप ही भासता है और आत्मसत्ता ही मन, बुद्धि, पर्वत, कन्दरा, सब जगत् होकर भासती है । जब चैत्योन्मुखत्व होता है तब जगत् भासता है । जैसे वायु स्पन्दरूप होता है तो भासती है और निस्स्पन्दरूप होती है तो नहीं भासती, वैसे ही चित्तसंवेदन स्पन्दरूप होता है तो जगत् भासता है और जब चित्तसंवेदन स्फुरण रूप होता है तो जगत् कल्पनामिट जाती है । हे रामजी! चिन्मात्र में जो चैत्यभाव हुआ है इसी का नाम जगत् है, जब चैत्य से रहित हुआ तो जगत् मिट जाता है । जब जगत् ही न रहा तो भेदकल्पना कहाँ रही? इससे न कोई कार्य है, न कारण है और न जगत् है-सब भ्रममात्र कल्पना है । शुद्ध चिन्मात्र अपने आप में स्थित है । हे रामजी! शुद्ध चिन्मात्र में चित्त सदा किञ्चन रहता है जैसे मिरचों के बीज में तीक्ष्णता सदा रहती है , परन्तु जब कोई खाता है तब तीक्ष्णता भासती है, अन्यथा नहीं भासती, वैसे ही जब चित्त संवेदन चैत्योन्मुखत्व होता है तब जीव को जगत् भासता है और संवेदन से रहित जीव को जगत् कल्पना नहीं भासती । हे रामजी! जब संवेदन के साथ परिच्छिन्न संकल्प मिलता है तब जीव होता है और जब इससे रहित होता है तो शुद्ध चिदात्मा ब्रह्म होता है । जिस पुरुष की सब कल्पना मिट गई हैं और जिसको शुद्ध निर्विकार ब्रह्मसत्ता का साक्षाकार हुआ है वह पुरुष संसार भ्रमसे मुक्त हुआ है । हेरामजी! यह सब जगत् आत्मा का आभासरूप है । वह आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, नित्य, शुद्ध, सर्वगत स्थाणु की नाईं अचल है अतः जगत् चिदाकाशरूप है । हमको तो सदा ऐसे ही भासता है पर अज्ञानी वाद विवाद किया करते हैं । हमको वाद विवाद कोई नहीं, क्योंकि हमारा सब भ्रम नष्ट हो गया है । हे रामजी! यह सब जगत् ब्रह्मरूप है और द्वैत कुछ नहीं । जिसको यह निश्चय हो गया है उसको सब अंग अपना स्वरूप ही है तो निराकार और निर्वपु सत्ता के अंग अपना स्वरूप क्यों न हो । यह सब प्रपञ्च चिदाकाशरूप है परन्तु अज्ञानी को भिन्न भिन्न और जन्ममरण आदि विकार भासते हैं और ज्ञानवान् को सब आत्मरूप ही भासते हैं । पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और आकाश सब आत्मा के आश्रय फुरते हैं और चित्तशक्ति ही ऐसे होकर भासती है । जैसे वसन्तऋतु आती है तो रसाशक्ति से वृक्ष और बेलें सब प्रफुल्लित होकर भासती हैं वैसे ही चित्तशक्ति को स्पन्दता ही जगत्‌रूप होकर भासती है । हे रामजी! जैसे वायु स्पन्दता से भासती है वैसे ही जगत् फुरने से भासता है वैसे ही चित्तसंवित जगत्‌रूप होकर भासता है फुरने से ही जगत् है और कोई वस्तु नहीं हैं, इसी से जगत् कुछ नहीं है । जैसे समुद्र तरंगरूप हो भासता है, वैसे ही आत्मा जगत्‌रूप हो भासता है । इससे जगत् दृश्य भाव से भासता है पर संवित् से कुछ नहीं । वायु जड़ और आत्मा चैतन्य है और जल भी परिणाम से तरंगरूप होता है, आत्मा अच्युत और निराकार है । हे रामजी! चैतन्यरूप रत्न है और जगत् उसका चमत्कार है अथवा चैतन्यरूपी अग्नि में जगत्‌रूपी उष्णता है । हे रामजी! चैतन्य प्रकाश ही भौतिक प्रकाश होकर भासता है, इससे जगत् है, और वास्तव से नहीं । चैतन्य सत्ता ही शून्य आकाशरूप होकर भासती है । इस भाव से जगत् है वास्तव में नहीं हुआ । इससे जगत् कुछ नहीं चैतन्यसत्ता ही पृथ्वीरुप होकर भासती है, दृष्टि में आता है इससे जगत् है पर आत्मसत्ता से इतर कुछ नहीं हुआ । चैतन्य रूप घन अन्धकार में जगत्‌रूपी कृष्णता है, अथवा चैतन्यरुपी काजल का पहाड़ है और चैतन्यरूपी सूर्य में जगत्‌रूपी दिन है, आत्मरूपी समुद्र में जगत्‌रूपी तरंग है, आत्मारूपी कुसुम में जगत्‌रूपी सुगन्ध है, आत्मरूपी बरफ में शुक्लता और शीतलतारूपी जगत् है, आत्मरूपी बेलि में जगत्‌रूपी फूल है, आत्मरूपी स्वर्ण में जगत्‌रूपी भूषण है; आत्मरूपी पर्वत में जगत्‌रूपी जड़ सघनता है, आत्मरूपी अग्नि में जगत्‌रूपी प्रकाश है, आत्मरूपी आकाश में जगत्‌रूपी शून्यता है, आत्मरूपी ईख में जगत्‌रूपी मधुरता है, आतरूपी दूध में जगत्‌रूपी घृत है, आत्मरूपी मधु में जगत्‌रूपी मधुरता है अथवा आत्मरूपी सूर्य में जगत्‌रूपी जलाभास है और नहीं है । हे रामजी! इस प्रकार देखो कि जो सर्व, ब्रह्म, नित्य, शुद्ध, परमानन्द स्वरूप है वह सर्वदा अपने आप में स्थित है-भेद कल्पना कोई नहीं । जैसे जल द्रवता से तरंगरूप होके भासता है वैसे ही ब्रह्मसत्ता जगत्‌रूप होके भासती है न कोई उपजता है और न कोई नष्ट होता है । हे रामजी! आदि जो चित्तशक्ति स्पन्द रूप है वह विराट्रूप ब्रह्म वास्तव से चिदाकाशरूप है, आत्मसत्ता से इतरभाव को नहीं प्राप्त हुआ । जैसे पत्र के ऊपर लकीरें होती हैं सो पत्र से भिन्न वस्तु नहीं पत्र रूप ही हैं वैसे ही ब्रह्म में जगत् है कुछ इतर नहीं है, बल्कि पत्र के ऊपर लकीरें तो आकार हैं, पर ब्रह्म में जगत् में कोई आकार नहीं । सब आकाशरूप मन से फुरता है जगत् कुछ हुआ नहीं । जैसे शिला में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है वैसे ही आत्मा में मन ने जगत् कल्पना की है । वास्तव में कुछ हुआ नहीं शिला वज्र की नाईं दृढ़ है और सब जगत् को धरि रही है और आकाश की नाईं विस्ताररुप होकर शान्तरूप है । निदान हुआ कुछ नहीं जो कुछ है सो ब्रह्मरूप है और जो ब्रह्म ही है तो कल्पना कैसे हो? इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि इस प्रकार जब मुनि शार्दूल वशिष्ठजी ने कहा तब सायं काल का समय हुआ और सब सभा परस्पर नमस्कार करके अपने अपने आश्रम को गई । फिर सूर्य की किरणों के निकलते ही सब अपने-अपने स्थानों पर आ बैठे 

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सर्वब्रह्मप्रतिपादनम् त्रयोदशस्सर्गः ॥१३॥

अनुक्रम

 

परमार्थप्रतिपादन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मा में कुछ उपजा नहीं भ्रम से भास रहा है । जैसे आकाश में भ्रम से तरुवरे और मुक्तमाला भासती हैं वैसे ही अज्ञान से आत्मा में जगत् भासता है । जैसे थम्भे की पुतलियाँ शिल्पी के मन में भासती हैं कि इतनी पुतलियाँ इस थम्भे में है सो पुतलियाँ कोई नहीं, क्योंकि किसी कारण से नहीं उपजीं वैसे ही चेतनरूपी थम्भें में मनरूपी शिल्पी त्रिलोकीरूपी पुतलियाँ कल्पता है । परन्तु किसी कारण से नहीं उपजीं - ब्रह्मसत्ता ज्यों की त्यों ही स्थित है । जैसे सोमजल में त्रिकाल तरंगों का अभाव होता है इसी प्रकार जगत् का होना कुछ नहीं, चित् के फुरने से ही जगत् भासता है । जैसे सूर्य की किरणें झरोखों में आती हैं और उसमें सूक्ष्म त्रस रेणु होते हैं । उनसे भी चिद्‌अणु सूक्ष्म चिद्‌अणु से यह जगत् फुरता है सो वह आकाशरूप है, कुछ उपजा नहीं, फुरने से भासता है । हे रामजी! आकाश, पर्वत, समुद्र, पृथ्वी आदि जो कुछ जगत् भासता है सो कुछ उपजा नहीं तो और पदार्थ कहाँ उपजे हों? निदान सब आकाशरूप हैं वास्तव में कुछ उपजा नहीं और जो कुछ अनुभव में होता है वह भी असत् है । जैसे स्वप्न सृष्टि अनुभव से होती है वह उपजी नहीं, असत्‌रूप है वैसे ही यह जगत् भी असत्‌रूप है शुद्ध निर्विकार सत्ता अपने आप में स्थित है । उस सत्ता को त्याग करके जो अवयव अव यवी के विकल्प उठाते हैं उनको धिक्कार है । यह सब आकाशरूप है और आधिभौतिक जगत जो भासता है सो गन्धर्वनगर और स्वप्नसृष्टिवत् है । हे रामजी! पर्वतों सहित जो यह जगत् भासता है सो रत्तीमात्र भी नहीं । जैसे स्वप्न के पर्वत जाग्रत के रत्ती भर भी नहीं होते, क्योंकि कुछ हुए नहीं, वैसे ही यह जगत् आत्मरूप है और भ्रान्ति करके भासता है । जैसे संकल्प का मेघ सूक्ष्म होता है, वैसे ही यह जगत् आत्मा में तुच्छ है । जैसे शशे के श्रृंग असत् होते हैं वैसे ही यह जगत् असत् है और जैसे मृगतृष्णा की नदी असत् होती है वैसे ही यह जगत् असत् है । असम्यक् ज्ञान से ही भासती है और विचार करने से शान्त हो जाती है । जब शुद्ध चैतन्यसत्ता में चित्तसंवेदन होता है तब वही संवेदन जगत्‌रूप होकर भासता है परन्तु जगत् हुआ कुछ नहीं । जैसे समुद्र अपनी द्रवता के स्वभाव से तरंगरूप होकर भासता है परन्तु तरंग कुछ और वस्तु नहीं है जलरूप ही है वैसे ही ब्रह्मसत्ता जगत्‌रूप होकर फुरती है । सो जगत् कोई भिन्न पदार्थ नहीं है ब्रह्मसत्ता ही किञ्चन द्वारा ऐसे भासती है । जैसे बीज होता है वैसा ही अंकुर निकलता है, इसलिये जैसे आत्मसत्ता है वैसे ही जगत् है दूसरी वस्तु कोई नहीं आत्म सत्ता अपने आपमें ही स्थित है पर चित्तसंवेदन के स्पन्द से जगत्‌रूप होता है । हे रामजी । इसी पर मण्डप आख्यान तुमको सुनाता हूँ, वह श्रवण का भूषण है और उसके समझने से सब संशय मिट जावेंगे और विश्राम प्राप्त होगा । इतना सुन रामजी बोले, हे भगवन्! मेरे बोध की वृत्ति के निमित्त मण्डपाख्यान जिस विधि से हुआ है सो संक्षेप से कहो । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस पृथ्वी में एक महातेजवान् राजा पद्म हुआ था । वह लक्ष्मीवान्, सन्तानवान्, मर्यादा का धारनेवाला अति सतोगुणी और दोषों का नाशकर्त्ता एवं प्रजापालक, शत्रुनाशक और मित्रप्रिय था और सम्पूर्ण राजसी और सात्त्विकी गुणों से सम्पन्न मानो कुल का भूषण था । लीला नाम उसकी स्त्री बहुत सुन्दरी और पतिव्रता थी मानो लक्ष्मी ने अवतार लिया था । उसके साथ राजा कभी बागों और तालों और कभी कदम्बवृक्षों और कल्पवृक्षों में जाया करता था, कभी सुन्दर-सुन्दर स्थानों में जाके क्रीड़ा करता था ; कभी बरफ का मन्दिर बनवाके उसमें रहता था और कभी रत्नमणि के जड़े हुए स्थानों में शय्या बिछवाके विश्राम करता था । निदान इसी प्रकार दोनों दूर और निकट के ठाकुरद्वारों और तीर्थों में जाके क्रीड़ा करते और राजसी और सात्त्विकी स्थानों में विचरते थे । वे दोनों परस्पर श्लोक भी बनाते थे एक पद कहे दूसरा उसको श्लोक करके उत्तर दे और श्लोक भी ऐसे पड़ें कि पढ़ने में तो संस्कृत परन्तु समझने में सुगम हो । इसी प्रकार दोनों का परस्पर अति स्नेह था । एक समय रानी ने विचार किया कि राजा मुझको अपने प्राणों की नाईं प्यारे और बहुत सुन्दर हैं इसलिये कोई ऐसा यत्न, यज्ञ वा तो-दान करूँ कि किसी प्रकार इसकी सदा युवावस्था रहे और अजर-अमर हो इसका और मेरा कदाचित वियोग न हो । ऐसा विचार कर उसने ब्राह्मणों, ऋषीश्वरों और मुनीश्वरों से पूछा कि हे विप्रो! नर किस प्रकार अजर-अमर होता है? जिस प्रकार होता हो हमसे कहो? विप्र बोले, हे देवि! जप, तप आदि से सिद्धता प्राप्त होती है । परन्तु अमर नहीं होता । सब जगत् नाशरूप है इस शरीर से कोई स्थिर नहीं रहता । हे रामजी! इस प्रकार ब्राह्मणों से सुन और भर्ता के वियोग से डरकर रानी विचार करने लगी कि भर्त्ता से मैं प्रथम मरूँ तो मेरे बड़े भाग हों और सुखवान् होऊँ और जो यह प्रथम मृतक हो तो वही उपाय करूँ जिससे राजा का जीव मेरे अन्तःपुर में ही रहे बाह्य न जावे और मैं दर्शन करती रहूँ । इससे मैं सरस्वती की सेवा करूँ । हे रामजी! ऐसा विचार शास्त्रानुसार तपरूप सरस्वती का पूजन करने लगी । निदान तीन रात्र और दिनपर्यन्त निराहार रह चतुर्थदिन में व्रतपारण करे और देवतों, ब्राह्मणों , पण्डितों गुरु और ज्ञानियों की पूजा करके स्नान, दान, तप ध्यान नित्यप्रति कीर्त्तन करे पर जिस प्रकार आगे रहती थी उसी प्रकार रहे भर्त्ता को न जनावे । इसी प्रकार नेमसंयुक्त क्लेश से रहित तप करने लगी । जब तीन सौ दिन व्यतीत हुए तब प्रीतियुक्त हो सरस्वती की पूजा की और वागीश्वरी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा, हे पुत्रि! तूनेभर्ता के निमित्त निरन्तर तप किया है, इससे मैं प्रसन्न हुई, जो वर तुझे अभीष्ट हो सो माँग । लीला बोली, हे देवि । तेरी जय हो । मैं अनाथ तेरी शरण हूँ मेरी रक्षा करो । इस जन्म को जरारूपी अग्नि जो बहुत प्रकार से जलाती है उसके शान्त करने को तुम चन्द्रमा हो और हृदय के तम नाश करने को तुम सूर्य हो । हे माता! मुझको दो वर दो-एक यह कि जब मेरा भर्त्ता मृतक हो तब उसका पुर्यष्टक बाह्य न जावे अन्तःपुर ही में रहे और दूसरा यह कि जब मेरी इच्छा तुम्हारे दर्शन की हो तब तुम दर्शन दो । सरस्वती ने कहा ऐसा ही होगा । हे रामजी! ऐसा वरदान देकर जैसे समुद्र में तरंग उपजके लीन होते हैं वैसे ही देवी अन्तर्धान हो गई और लीला वरदान पाकर बहुत प्रसन्न हुई । कालरूपी चक्र में क्षणरूपी आरे लगे हुए हैं और उसकी तीनसौ साठ कीलें हैं वह चक्र वर्ष पर्यन्त फिरकर फिर उसी ठौर आता है । ऐसे कालचक्र के वर्ग से राजा पद्म रणभूमि में घायल होकर घर में आकर मृतक हो गया । पुर्यष्टक के निकलने से राजा का शरीर कुम्हिला गया और रानी उसके मरने से बहुत शोक वान् हुई । जैसे कमलिनी जल बिना कुम्हिला जाती है वैसे ही उसके मुख की कान्ति दूर हो गई और विलाप करने लगी । कभी ऊँचे स्वर से रूदन करे और कभी चुप रह जावे । जैसे चकवे के वियोग से चकवी शोकवान् होती है और जैसे सर्प की फुत्कार लगने से कोई मूर्छित होता है वैसे ही राजा के वियोग से लीला मूर्छित हो गई और व्याकुल होके प्राण त्यागने लगी । तब सरस्वती ने दया करके आकाशवाणी की कि हे सुन्दरि! तेरा भर्त्ता जो मृतक हुआ है इसको तू सब ओर से फूलों से ढ़ाँप कर रख, तुझको फिर भर्त्ता की प्राप्ति होवेगी और यह फूल न कुम्हिलावेंगे । तेरे भर्त्ता की ऐसी अवस्था है जैसे आकाश की निर्मल कान्ति है और वह तेरे ही मन्दिर में है कहीं गया नहीं । हे रामजी इस प्रकार कृपा करके जब देवी ने वचन कहे तो जैसे जल बिना मछली तड़पती हुई मेघ की वर्षा से कुछ शान्तिमान् होती है वैसे ही लीला कुछ शान्तिमान् हुई । फिर जैसे धन हो और कृपणता से धन का सुख न होवे वैसे ही वचनों से उसे कुछ शान्ति हुई और भर्त्ता के दर्शन बिना जब पूर्ण शान्ति न हुई तब उसने ऊपर नीचे फूलों से भर्त्ता को ढाँपा और उसके पास आप शोक मान् होकर बैठी रुदन करने लगी । फिर देवी की आराधना की तो अर्द्धरात्रि के समय देवीजी आ प्राप्त हुई और कहा, हे सुन्दरि! तेने मेरा स्मरण किस निमित्त किया है और तू शोक किस कारण करती है । यह तो सब जगत् भ्रान्तिमात्र है । जैसे मृगतृष्णा की नदी होती है वैसे ही यह जगत् है । अहं त्वं इदं से ले आदिक जो जगत भासता है सो सब कल्पनामात्र है और भ्रम करके भासता है । आत्मा में हुआ कुछ नहीं तुम किसका शोक करती हो । लीला बोली हे परमेश्वरि! मेरा भर्त्ता कहाँस्थित है और उसने क्या रूप धारण किया है? उसको मुझे मिलाओ, उसके बिना मैं अपना जीना नहीं देख सकती । देवी बोली हे लीले! आकाश तीन है-एक भूताकाश, दूसरा चित्ताकाश और तीसरा चिदाकाश । भूताकाश चित्ताकाश के आश्रय है और चित्ताकाश चिदाकाश के आश्रय है तेरा भर्ता अब भूताकाश को त्यागकर चित्ताकाश को गया है । चित्ताकाश चिदाकाश के आश्रय स्थित है इससे जब तू चिदाकाश में स्थित होगी तब सब ब्रह्माण्ड तुझको भासेगा । सब उसी में प्रतिबिम्बित होते हैं वहाँ तुझको भर्त्ता का और जगत् का दर्शन होगा । हे लीले । देश से क्षण में संवित देशान्तर को जाता है उसके मध्य जो अनुभव आकाश है वह चिदाकाश है । जब तू संकल्प को त्याग दे तो उससे जो शेष रहेगा सो चिदाकाश है । हे लीले! यहाँ जो जीव विचरते हैं सो पृथ्वी के आश्रय हैं और पृथ्वी आकाश के आश्रय है, इससे ये जीव जो विचरते हैं सो भूताकाश के आश्रय विचरते हैं और चित्त जिसके आश्रय से क्षण में देश देशान्तर भटकता है सो चिदाकाश है । हे लीले! जब दृश्य का अत्यन्त अभाव होता है तब परमपद की प्राप्ति होती है सो चिरकाल के अभ्यास से होती है और मेरा यह वर है कि तुझको शीघ्र ही प्राप्त हो । हे रामजी! जब इस प्रकार कहकर ईश्वरी अन्तर्धान हो गई तब लीला रानी निर्विकल्प समाधि में स्थित हुई और देह का अहंकार त्याग कर चित्त सहित पक्षी के समान अपने गृह से उड़कर एक क्षण में आकाश को पहुँची जो नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा परमशान्तिरूप और सबका अधिष्ठान है उसमें जाकर भर्ता को देखा । रानी स्पन्दकल्पना ले गई थी उससे अपने भर्ता को वहाँ देखा और बहुत मण्डलेश्वर भी सिंहासनों पर बैठे देखे । एक बड़े सिंहासन पर बैठे अपने भर्ता को भी देखा जिसके चारों ओर जय जय शब्द होता था । उसने वहाँ बड़े सुन्दर मन्दिर देखे और देखा कि राजा के पूर्व दिशा में अनेक ब्रह्मण ऋषीश्वर और मुनीश्वर बैठे हैं और बड़ी ध्वनि से पाठ करते हैं । दक्षिण दिशा में अनेक सुन्दरी स्त्रियाँ नाना प्रकार के भूषणों सहित बैठी हुई हैं । उत्तरदिशा में हस्ती, घोड़े, रथ, प्यादे और चारों प्रकार की अनन्त सेना देखी और पश्चिम में मण्डलेश्वर देखे । चारों दिशा में मण्ड लेश्वर आदि उस जीव के आश्रय विराजते देखके आश्चर्य में हुई । फिर नगर और प्रजा देखी कि सब अपने व्यवहार में स्थित हैं और राजा की सभा में जा बैठी पर रानी सबको देखती थी और रानी को कोई न देखता था । जैसे और के संकल्पपुर को और नहीं देखता वैसे ही रानी को कोई देख न सके । तब रानी ने उसका अन्तःपुर देखा जहाँ ठाकुरद्वारे बने हुए देवताओं की पूजा होती थी । वहाँ की गन्ध, धूप और पवन त्रिलोकी को मग्न करती थी और राजा का यश चन्द्रमा की नाईं प्रकाशित था । इतने में पूर्व दिशा से हरकारे ने आके कहा कि हे राजन्! पूर्व दिशा में और किसी राजा को क्षोभ हुआ । फिर उत्तर दिशा से हरकारे ने आ कहा कि हे राजन्! उत्तरदिशा में और राजा का क्षोभ हुआ है और तुम्हारे मण्डलेश्वर युद्ध करते हैं । इसी प्रकार दक्षिण दिशा की ओर से भी हरकारा आया और उसने भी कहा कि और राजा का क्षोभ हुआ है और पश्चिम दिशा से हरकारा आया उसने कहा कि पश्चिम दिशा में भी क्षोभ हुआ है । एक और हरकारा आया उसने कहा कि सुमेरु पर्वत पर जो देवतों और सिद्धों के रहने के स्थान हैं वहाँ क्षोभ हुआ है और अस्ताचल पर्वत क्षोभ हुआ है । तब जैसे बड़े मेघ आवें वैसे ही राजा की आज्ञा से बहुत सी सेना आई । रानी ने बहुत से मन्त्री, नन्द आदिक टहलिये, ऋषीश्वर और मुनीश्वर वहाँ देखे । जितने भृत्य थे वे सब सुन्दर और वर्षा से रहित बादरों की नाईं श्वेत वस्त्र पहिने देखे और बड़े वेदपाठी ब्राह्मण देखे जिनके शब्द से नगारे के शब्द भी सूक्ष्म भासते थे! हे रामजी! इस प्रकार ऋषीश्वर , मन्त्री, टहलिये और बालक उसमें देखे, सो पूर्व और अपूर्व दोनों देखती भई और आश्चर्यवान् हो चित्त में यह शंका उपजी कि मेरा भर्त्ता ही मुआ है वा सम्पूर्ण नगर मृतक हुआ है जो ये सब परलोक में आये हैं । तब क्या देखा कि मध्याह्न का सूर्य शीश पर उदित है और राजा सुन्दर षोडश वर्ष का प्रथम की जरावस्था को त्यागकर नूतन शरीर को धारे बैठा है । ऐसे आश्चर्य को देख के रानी फिर अपने गृह में आई । उस समय आधीरात्रि का समय था अपनी  सहेलियों को सोई हुई देख जगाया और कहा जिस सिंहासन पर मेरा भर्त्ता बैठता था उसको साफ करो मैं उसके ऊपर बैठूँगी और जिस प्रकार उसके निकट मन्त्री और भृत्य आन बैठते थे उसी प्रकार आवें । इतना सुनकर सहेलियों ने जा बड़े मन्त्री से कहा और मन्त्री ने सबको जगाया और सिंहासन झड़वाकर मेघ की नाईं जल की वर्षा की । सिंहासन पर और उसके आसपास मेघ की नाईं जल की वर्षा की । सिंहासन पर और उसके आसपास वस्त्र बिछाये और मशालें जलाकर बड़ा प्रकाश किया । जैसे अगस्त्यमुनि ने समुद्र को पान किया था वैसे ही अन्धकार को प्रकाश ने जब पान कर लिया तब मन्त्री, टहलुये , पण्डित, ऋषीश्वर ज्ञानवान् जितने कुछ राजा के पास आते थे वे सब सिंहासन के निकट आकर बैठे और इतने लोग आये मानों प्रलयकाल में समुद्र का क्षोभ हुआ है और जल से पूर्ण प्रलय हुई सृष्टि मानों पुनः उत्पन्न हुई है । लीला इस प्रकार मन्त्री, टहलुये, पण्डित और बालकों को भर्ता बिना देखे बड़े आश्चर्य  को प्राप्त हुई कि एक आदर्श को अन्तर बाहर दोनों और देखती है । इस प्रकार देखके हृदय की वार्त्ता किसी को न बताई और भीतर आकर कहने लगी कि बड़ा आश्चर्य है, ईश्वर की माया जानी नहीं जाती कि यह क्या है । इस प्रकार आश्चर्यमान होकर उसने सरस्वतीजी की आराधना की और सरस्वती कुमारी कन्या का रूप धरके आन प्राप्त हुई । तब लीला ने कहा, हे भगवती! मैं बारम्बार पूछती हूँ तुम उद्वेगवान् न होना, बड़ों का यह स्वभाव होता है कि जो शिष्य बारम्बार पूछे तो भी खेदवान नहीं होते । अब मैं पूछती हूँ कि यह जगत् क्या है और वह जगत् क्या है? दोनों में कृत्रिम कौन है और अकृत्रिम कौन है? देवी बोली, हे लीले! तूने पूछा कि कृत्रिम कौन है और अकृत्रिम कौन है सो मैं पीछे तुझसे कहूँगी । लीला बोली, हे देवि! जहाँ तुम हम बैठे हैं वह अकृत्रिम है और वह जो मेरे भर्त्ता का स्वर्ग है सो कृत्रिम है, क्योंकि सूर्यस्थान में वह सृष्टि  हुई है । देवी बोली, हे लीले! जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है । जो कारण सत् होता है तो कार्य भी सत् होता है और सत् से असत् नहीं होता और असत् से सत् भी नहीं होता और न कारण से अन्य कार्य होता है । इससे जैसे यह जगत् है वैसा ही वह जगत् भी है । इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! कारण से अन्य कार्यसत्ता होती है, क्योंकि मृत्तिका जल के उठाने में समर्थ नहीं और जब मृत्तिका का घट बनता है तब जल को उठाता है तो कारण से अन्य कार्य की भी सत्ता हुई । देवी बोली, हे लीले! कारण से अन्य कार्य की सत्ता तब होती है जब सहायकारी भिन्न होता है । जहाँ सहायकारी नहीं होता वहाँ कारण से अन्य कार्य की सत्ता नहीं होती । तेरे भर्ता की सृष्टि भी कारण बिना भासी है । उसका जीवपुर्यष्टक आकाशरूप था, वहाँ न कोई समवायकारण था, और न निमित्त कारण था इससे उसको कृत्रिम कैसे कहिये? जो किसी का किया हो तो कृत्रिम हो पर वह तो आकाशरूप पृथ्वी आदिक तत्त्वों से रहित है । जो समवाय कारण ही न हो तो उसका निमित्तकारण कैसे हो । इससे तेरे भर्त्ता का सर्ग अकारण है । लीला ने पूछा हे देवि! उस सर्ग की जो संस्काररूप स्मृति है सो कारण क्यों न हो? देवी बोली, हे लीले! स्मृति तो कोई वस्तु नहीं है । स्मृति आकाश रूप है । स्मृति संकल्प का नाम है सो वह भी संकल्प आकाशरूप है और कोई वस्तु नहीं वह मनोराजरूप है इससे उसकी सत्ता भी कुछ नहीं है केवल आभासरूप है । लीला बोली, हे महेश्वरि! यदि वह संकल्प मात्र आकाशरूप है तो जहाँ हम तुम बैठे हैं वह भी वही है तो दोनों तुल्य हैं । देवी बोली, हे लीले! जैसा तुम कहती हो वैसा ही है । अहं, त्वं, इदं, यह, वह सम्पूर्ण जगत् आकाशरूप है और भ्रान्तिमात्र भासता है । उपजा कुछ नहीं सब आकाशमात्र है और स्वरूप से इनका कुछ सद्भाव नहीं होता । जो पदार्थ सत्य न हो उसकी स्मृति कैसे सत् हो? लीला बोली हे देवि! अमूर्त्ति मेरा भर्त्ता था सो मूर्त्तिवत् हुआ और उसको जगत् भासने लगा सो कैसे भासा? उसका स्मृति कारण है वा किसी और प्रकार से, यह मेरे दृश्यभ्रम निवृत्ति के निमित्त मुझको वही रूप कहो । देवी बोली, हे लीले! यह और वह सर्ग दोनों भ्रमरूप हैं । जो यह सत् हो तो इसकी स्मृति भी सत् हो पर यह जगत् असत्‌रूप है । जैसे यह भ्रम तुमको भासा है सो सुनो । एक महाचिदाकाश है जिसका किञ्चन चिद्‌अणु है और उसके किसी अंश में जगत्‌रूपी वृक्ष है । सुमेरु उस वृक्ष का थम्भ है, सप्तलोक डाली हैं, आकाश शाखें हैं, सप्तसमुद्र उसमें एक पर्वत है जिसके नीचे एक नगर बसता है । वहाँ एक नदी का प्रवाह चलता है और वशिष्ठ नाम एक ब्राह्मण जो बड़ा धार्मिक था वहाँ सदा अग्निहोत्र करता था । धन, विद्या, पराक्रम और कर्मों में वशिष्ठजी ऋषीश्वरों के समान था परन्तु ज्ञान में भेद था । जैसा खेचर वशिष्ठ का ज्ञान है वैसा भूचर वशिष्ठ का ज्ञान न था । उसकी स्त्री का नाम अरुन्धती था । वह पतिव्रता और चन्द्रमा के समान सुन्दरी थी और उसी अरुन्धती के समान विद्या, कर्म, कान्ति, धन, चेष्टा और पराक्रम उसका भी था और चैतन्यता अर्थात् ज्ञान और सबलक्षण एक समान थे । वह आकाश की अरुन्धती थी और यह भूमि की अरुन्धती थी! एक काल में वशिष्ठ ब्राह्मण पर्वत के शिखर पर बैठा था । वह स्थान सुन्दर हरे तृणों से शोभायमान था एक दिन एक अति सुन्दर राजा नाना प्रकार के भूषणों से भूषित परिवार सहित उस पर्वत के निकट शिकार खेलने के निमित्त चला जाता था । उसके शीश पर दिव्य चमर होता ऐसा शोभा देता था मानो चन्द्रमा की किरणें प्रसर रही हैं और शिर पर अनेक प्रकार के छत्रों की छाया मानों रूपे का आकाश विदित होता था । रत्नमणि के भूषण पहिरे हुए मण्डलेस्वर उसके साथ थे और हस्ती, घोड़े रथ और पैदल चारों प्रकार की सेना जो आगे चली जाती थी उनकी धूलि बादल होकर स्थित हुई निदान नौबत नगारे बजते हुए राजा की सवारी जाती देख के वशिष्ठ ब्राह्मण मन में चिन्तवन करने लगा कि राजा को बड़ा सुख प्राप्त होता है, क्योंकि सब सौभाग्य से राजा सम्पन्न होता है । इस प्रकार राज्य मुझको भी प्राप्त हो । तब तो वह यह इच्छा करने लगा कि मैं कब दिशाओं को जीतूँगा और मेरे यश से कब दशों दिशा पूर्ण होंगी ऐसे छत्र मेरे शिर पर कब ढुरेंगे और चारों प्रकार की सेना मेरे आगे कब चलेगी । सुन्दर मन्दिरों में सुन्दरी स्त्रियों के साथ मैं कब बिलास करूँगा और मन्द मन्द शीतल पवन सुगन्धता के साथ कब स्पर्श होगा । हे लीले! जब इस प्रकार ब्राह्मण ने संकल्प को धारण किया और जो अपने स्वकर्म थे सो भी करता रहा कि इतने ही में उसको जरावस्था प्राप्त हुई । जैसे कमल के ऊपर बरफ पड़ता है तो कुम्हिला जाता है वैसे ही ब्राह्मण का शरीर कुम्हिला गया और मृत्यु का समय निकट आया । जब उसकी स्त्री भर्ता की मृत्युनिकट देखके कष्टवान् हुई तो उसने मेरी आराधना, जैसे तूने की है, की और भर्त्ता की अजर अमरता को दुर्लभ जानके मुझसे वर माँगा कि हे देवि! मुझको यह बर दे कि जब मेरा भर्त्ता मृतक हो तब इसका जीव बाह्य न जावे । तब मैंने कहा ऐसा ही होगा । हे लीले! जब बहुत काल व्यतीत हुआ तो ब्राह्मण मृतक हुआ पर उसका जीव मन्दिर में ही रहा । जैसे मन्दिर में आकाश रहता है वैसे ही मन्दिर में रहा । हे लीले! जब वह आकाश रूप हो गया तब उसकी पुर्यष्टक में जो राजा का दृढ़ संकल्प था इसलिये जैसे बीज से अंकुर निकल आता है वैसे ही वह संकल्प आन फुरा और उससे वह अपने को त्रिलोकी का राजा और परम सौभाग्य सम्पन्न देखने लगा कि दशों दिशा मेरे यश से पूर्ण हो रही हैं; मानो यशरूपी चन्द्रमा की यह पूर्णमासी है । जैसे प्रकाश अन्धकार को नाश करता है वैसे ही वह शत्रुरूपी अन्धकार का नाशकर्त्ता प्रकाश हुआ और ब्राह्मणों के चरणों का सिंहासन हुआ अर्थात् ब्राह्मणों को बहुत पूजने लगा । निदान अर्थियों को कल्पवृक्ष और स्त्रियों को कामदेव और स्त्रियों को कामदेव इत्यादिक जो सात्विकी और राजसी गुण हैं उनसे सम्पन्न हुआ । पर उसकी स्त्री उसको मृतक दैखके बहुत शोकवान् हुई । जैसे जेठ आषाढ़ की मञ्जरी सूख जाती है वेसे ही वह सूख गई और शरीर को छोड़ के अन्तवाहक शरीर से अपने भर्त्ता को वैसे ही जा मिली जैसे नदी समुद्र को जा मिलती है और ब्राह्मण के पुत्र धन संयुक्त अपने गृह में रहे । उस ब्राह्मण को मृतक हुए अब आठ दिन हुए हैं कि वही वशिष्ठ ब्राह्मण तेरा भर्त्ता राजा पद्म हुआ । अरुन्धती उसकी स्त्री तू लीला हुई । जितना कुछ आकाश, पर्वत, समुद्र, पृथ्वी और त्रिलोकी है सो वशिष्ठ ब्राह्मण के अन्तःपुर में एक कोने में स्थित है । वहाँ तुमको आठ दिन व्यतीत हुए हैं और अभी सूतक भी नहीं गया पर यहाँ तुमने साठ सहस्त्र वर्ष राज्य करके नाना प्रकारके सुन्दर भोग भोगे हैं । हे लीले! जिस प्रकार तूने जन्म लिया है सो मैंने सब कहा है । पर वह क्या है? सब भ्रममात्र है । जितना कुछ जगत् तुमको भासता है सो आभासमात्र है संकल्प से फुरता है वास्तव से कुछ नहीं है हे लीले! जो यह जगत् सत् न हुआ तो इसकी स्मृति कैसे सत्य हो । तुम हम और सब उसी ब्राह्मण के मन्दिर में स्थित हैं । लीला बोली, हे देवि! तुम्हारे वचन को मैं असत् कैसे कहूँ? पर जो तुम कहती हो कि उस ब्राह्मण का जीव अपने गृह में ही रहा; वहाँ हम तुम बैठे हैं और देश देशान्तर, पर्वत, समुद्र, लोक और लोकपालक सब जगत् उसी ही गृह में है तो वह उसमें समाते कैसे हैं? ये वचन तुम्हारे ऐसे कोई कहे कि सरसों के दाने में उन्मत्त हाथी बाँधे हुए हैं; सिहों के साथ मच्छर युद्ध करते हैं; कमल के डोड़े में सुमेरु पर्वत आया है; कमल पर बैठकर भ्रमर रस पान कर गया और स्वप्न में मेघ गर्जता है, चित्रामणि के मोर नाचते हैं और जाग्रत की मूर्त्ति के ऊपर लिखा हुआ मोर मेघ को गर्जता देखके नृत्य करता है । जैसे ये सब असम्भव वार्ता हैं वैसे ही तुम्हारा कहना मुझको असम्भव भासता है । देवी बोली, हे लीले! यह मैंने तुझसे झूठ नहीं कहा । हमारा कहना कदाचित् असत् नहीं, क्योंकि यह आदि परमात्मा की नीति है कि महापुरुष असत् नहीं कहते । हम तो धर्म के प्रतिपादन करनेवाली हैं; जहाँ धर्म की हानि होती है वहाँ हम धर्म प्रतिपादन करती हैं और जो हम धर्म का प्रतिपादन न करें तो धर्म को और कैसे मानें । हे लीले! जैसे सोये हुए के स्वप्न में त्रिलोकी भास आती है । सो अन्तःकरण में ही होता है और स्वप्न से जाग्रत होती है वैसे ही मरना भी जान । जब जहाँ मृतक होता है वही जीव पुर्यष्टक आकाश रूप हो जाता है और फिर वासना के अनुसार उसको जगत् भास आता है । जैसे स्वप्न में जगत् भास आता है वह क्या रूप है?आकाश रूप ही है वैसे ही इसको भी जान । हे लीले! यह सब जगत् तेरे उसी अन्तःपुर में है, क्योंकि जगत् चित्ताकाश में स्थित है । जैसे आदर्श में प्रतिबिम्ब होता है वैसे ही चित्त में जगत है और आकाश रूप है, इससे जो चित्त अन्तःपुरमें हुआ तो जगत् भी हुआ । हे लीले! यह जगत् जो तुझको भासता है सो आकाशरूप है । जैसे स्वप्न और संकल्प नगर और कथा के अर्थ भासते हैं वैसे ही यह जगत् भी है और जैसे मृगतृष्णा का जल भासता है वैसे ही यह जगत् भी जान । हे लीले! वास्तव में कोई पदार्थ उपजा नहीं भ्रम से सब भासते हैं । जैसे स्वप्न में स्वप्नान्तर फिर उससे और स्वप्ना दीखता है वैसे ही तुमको भी यह सृष्टि भ्रम से भासी है । हे लीले! यह जगत् आत्मरूप है । जहाँ चिद्‌अणु है वहाँ जगत् भी है परन्तु क्या रूप है, आभासरूप है । जैसे वह आकाशरूप है वैसे ही यह जगत् भी आकाशरुप है । जिस प्रकार यह चेतता है उस प्रकार हो भासता है इससे संकल्पमात्र है । जैसे स्वप्नपुर भासता है और जैसे संकल्पनगर होता है वैसे ही यह जगत् है । जैसे मरुस्थल की नदी के तरंग भासते हैं वैसे ही यह जगत् भासता है । इससे कल्पना त्याग दो । इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! उस वशिष्ठ ब्राह्मण को मरे आठ दिन बीते हैं और हमको यहाँ साठ सहस्त्र वर्ष बीते है यह वार्त्ता कैसे सत् जानिये? थोड़े काल में बड़ा काल कैसे हुआ? देवी बोली, हे लीले! जैसे थोड़े देश में बहुत देश आते हैं वैसे ही काल में बहुत काल भी आता है । अहन्ता ममता आदिक जितना कुछ जगत् है सो आभासमात्र है  उसे क्रम से सुन । जब जीव मृतक होताहै तब मूर्छा होती है फिर मूर्छा से चैतन्यता फुर आती है, उसमें यह भासता है कि यह आधार है तो यह आधेय है; यह मेरा हाथ है; यह मेरा शरीर है; यह मेरा पिता है; इसका मैं पुत्र हूँ; अब इतने वर्ष का मैं हुआ; ये मेरे बान्धव है; इनके साथ मैं स्नेह करता हूँ; यह मेरा गृह है और यह मेरा कुल चिरकाल का चला आता है । मरने के अनन्तर इतने क्रम को देखता है । हे लीले! जिस प्रकार वह देखता है वैसे ही यह भी जान । एक क्षण में और का और भासने लगता है । यह जगत् चैतन्य का किञ्चन है । जैसे चेतन संवित् में चैत्यता होती है वैसे ही यह जगत् भी भासता है और जैसे स्वप्न में दृष्टा, दर्शन, दृश्य तीनों भासते हैं वैसे ही आत्मसत्ता में यह जगत् किञ्चन होता है और भ्रम से भासता है, वास्तव में नानात्व कुछ हुआ नहीं । जैसे स्वप्न में कारण बिना नाना प्रकार का जगत् भासता है वैसे ही परलोक में नाना प्रकार का जगत् कारण बिना ही भासता है सो आकाशरूप है और मनके भ्रम से भासता है वैसे ही यह जगत् भी मन के भ्रम से भासता है । स्वप्न जगत्, परलोक जगत् और जाग्रत जगत् में भेद कुछ नहीं । जैसे वह भ्रममात्र है वैसे ही यह भ्रममात्र है- वास्तव में कुछ उपजा नहीं । जैसे समुद्र में तरंग कुछ वास्तव नहीं वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ वास्तव नहीं असत् ही सत् की नाई भासता है । किसी कारण से उपजा नहीं इस कारण अविनाशी है । हे लीले! जैसे चयोन्मुखत्व हुए चेतन आकाशरूप भासता है वैसे ही चैत्यता में चेतन आकाश है क्योंकि कुछ हुआ नहीं । जैसे समुद्र में तरंग होता है तो वह तरंग कुछ जल से इतर है नहीं, जल ही है, वैसे ही आत्मा में जगत् कुछ इतर नहीं बल्कि जल में तरंग की नाईं भी आत्मा में जगत् नहीं । जैसे शश के शृंग असत् हैं वैसे ही जगत् असत् है-कुछ उपजा नहीं । हे लीले! जब जीव मृतक होता है तब उसको देश, काल, क्रिया, उत्पत्ति, नाश, कुटुम्ब, शरीर, वर्ष आदिक नानारूप भासते हैं पर वे सब आभास रूप हैं । जिस प्रकार क्षण क्षण में इतने भास आते  हैं वैसे ही कारण बिना यह जगत् भासित है तो दृश्य और दृष्टा भी कोई न हुआ । देश काल क्रिया द्रव्य इन्द्रियाँ, प्राण, मन और बुद्धि सब भ्रम से भासते हैं । आत्मा उपाधि से रहित आकाशरूप है और उसके प्रमोद से जगत्‌भ्रम उदय हुआ है । हे लीले! भ्रम में क्या नहीं होता? जैसे एक रात्रि में हरिश्चन्द्र को द्वादशवर्ष भ्रम से भासे थे वैसे ही यहाँ भी थोड़े काल में बहुत काल भासा है । दो अवस्था में और का और भासता है । स्वप्न में और का और भासता है और उन्मत्तता से भी और का और भासता है । अभोक्ता आपको भोक्ता मानता है और भ्रम से उत्साह और शोक को इकट्ठा देखता है । किसी को उत्साह होता है और स्वप्न में मृतक भाव शोक को देखता है । बिछड़ा हुआ स्वप्न में मिला देखता है और जो मिला सो आपको बिछुड़ा जानता है । काल और है । भ्रम करके और काल देखता है । इससे देखो यह सब भ्रमरूप है । जैसे भ्रम से यह भासता है वैसे ही यह जगत् भी भ्रम से भासता है परन्तु ब्रह्म से इतर कुछ नहीं । इससे न बन्ध है और न मोक्ष है । जैसे मिरच में तीक्ष्णता है वैसे ही आत्मा में जगत् है । जैसे थम्भे में पुतलियाँ होती हैं वैसे ही आत्मा में जगत् है और जैसे थम्भे में पुतलियाँ कुछ हुई नहीं ज्यों का त्यों है और शिल्पी के मन में पुतलियाँ हैं वैसे ही ब्रह्म में जगत् है नहीं, पर मनरूपी शिल्पी में जगत्‌रूपी पुतलियाँ कल्पी है । आत्मसत्ता ज्यों की त्यों नित्य, शुद्ध, अज, अमर अपने आपमें स्थित है ।  

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मण्डपाख्याने परमार्थप्रतिपादननाम चतुर्दशस्सर्गः ॥१४॥

अनुक्रम

 

विश्रान्तिवर्णन

देवी बोली हे लीले! जब जीव को मृत्यु से मूर्छा होती है तब शीघ्र ही उसको फिर कुछ जन्म और देश, काल, क्रिया, द्रव्य और अपना परिवार आदि नाना प्रकार का जगत् भास आता है पर वास्तव में कुछ नहीं -स्मृति भी असत् है । एक स्मृति अनुभव से होती है और एक स्मृति अनुभव बिना भी होती है पर दोनों स्मृति मिथ्या हैं । जैसे स्वप्न में अपना देह देखता है तो वह अनुभव असत् है, क्योंकि वह कुछ अपने मरने की स्मृति से नहीं भासा और उस मरण की स्मृति भौ असत् है । स्वप्न में कोई पदार्थ देखा तो जाग्रत में-उसको स्मरण करना भी असत् है, क्योंकि वास्तव में कुछ हुआ नहीं । इससे यह जगत् अकारणरूप है और जो है सो चिदाकाश ब्रह्मरूप है । न कुछ विदूरथ की सृष्टि सत् है और न यह सृष्टि सत् है-सब संकल्पमात्र है ।इतना सुन लीला ने पूछा हे देवि! जो यह सृष्टि भ्रममात्र है तो वह जो विदूरथ की सृष्टि है सो इस सृष्टि के संस्कार से हुई है और यह सृष्टि उस ब्राह्मण और ब्राह्मण की स्मृति संस्कार से हुई है तो ब्राह्मण और ब्राह्मणी की सृष्टि किसकी स्मृति से हुई है । देवी बोली, हे लीले! वह जो वशिष्ठ ब्राह्मण की सृष्टि है सो ब्राह्मण के संकल्प से हुई और ब्राह्मण ब्रह्मा में फुरा है, परन्तु वास्तव में ब्रह्मा भी कुछ नहीं हुआ तो उसको सृष्टि क्या कहूँ यह जितना कुछ सृष्टि है सो उसी ब्राह्मण के मन्दिर में है, वास्तव से कुछ हुई नहीं सब संकल्परुप है और मन के फुरने से भासती है । जैसे जैसे संकल्प फुरता है वैसे होकर भासता है । यह सृष्टि जो तेरे भर्त्ता को भासि आई है वह संकल्प से भासि आई है । थोड़े काल में बहुत भ्रम होकर भासता है । लीला ने पूछा, हे देवि! जहाँ ब्राह्मण को मृतक हुए आठ दिन व्यतीत हुए हैं उस सृष्टि को हम किस प्रकार देखें? देवी बोली, हे लीले! जब तू योगाभ्यास करे तब देखे । अभ्यास बिना देखने की सामर्थ्य न होगी, क्योंकि वह सृष्टि चिदाकाश में फुरती है । जब तू चिदाकाश में अभ्यास करके प्राप्त होगी तब तुझ को सब सृष्टि भासि आवेगी । वह जो सृष्टि है सो और के संकल्प में है जब उसके संकल्प में प्रवेश करे तो उसकी सृष्टि भासे, अन्यथा नहीं भासती । जैसे एक के स्वप्न को दूसरा नहीं जान सकता वैसे ही और की सृष्टि नहीं भासती । जब तू अन्तवाहकरूप हो तब वह सृष्टि देखे । जब तक आधिभौतिक स्थूल पञ्चतत्त्वों के शरीर में अभ्यास है तब तक उसको न देख सकेगी, क्योंकि निराकार को निराकार ग्रहण करता है आकार नहीं ग्रहण कर सकता । इससे यह आधिभौतिक देह भ्रम है इसको त्यागकर चिदाकाश में स्थित हो । जैसे पक्षी आलय को त्याग कर आकाश में उड़ता है और जहाँ इच्छा होती है वहाँ चला जाता है वैसे ही चित्त को एकाग्र करके स्थूल शरीर को त्याग दे और योग अभ्यास कर आत्मसत्ता में स्थित हो । जब आधिभौतिक को त्यागकर अभ्यास के बल से चिदाकाश में स्थित होगी तब आवरण से रहित होगी और फिर जहाँ इच्छा करेगी वहाँ चली जावेगी और जो कुछ देखा चाहेगी वह देखेगी । हे लीले! हम सदा उस चिदाकाश में स्थित हैं । हमारा वपु चिदाकाश है इस कारण हमको कोई आवरण रोक नही सकता हमसे उदारों की सदा स्वरूप में स्थिति है और हम सदा निरावरण हैं कोई कार्य हमको आवरण नहीं कर सकता, हम स्वइच्छित हैं-जहाँ जाया चाहें वहाँ जाते हैं और सदा अन्तवाहक रूप हैं । तू जब तक आधिभौतिकरूप है तब तक वह सृष्टि तुझको नहीं भासती और तू वहाँ जा भी नहीं सकती । हे लीले! अपना ही संकल्प सृष्टि है । उसमें जब तक चित्त की वृत्ति लगी है उस काल में यह अपना शरीर ही नहीं भासता तो और का कैसे भासे? जब तुझको अन्तवाहकता का दृढ़ अभ्यास हो और आधिभौतिक स्थूल शरीर की ओर से वैराग्य हो तब आधिभौतिकता मिट जावेगी, क्योंकि आगे ही सब सृष्टि अन्तवाहकरूप है पर संकल्प की दृढ़ता से आधिभौतिक भासती है । जैसे जल दृढ़ शीतलता से बरफरूप हो जाता है वैसे ही अन्तवाहकता से आधिभौतिक हो जाते हैं-प्रमादरूप संकल्प वास्तव में कुछ हुआ नहीं । जब वही संकल्प उलट कर सूक्ष्म अन्तवाहक की ओर आता है तब आधिभौतिकता मिट जाती है और अन्तवाहकता आ उदय होती है । जब इस प्रकार तुझको निरावरणरूप उदय होगा तब देखने में और जानने में कुछ यत्न न होगा । साकार से निराकार का ग्रहण नहीं कर सकता । निराकार की एकता निराकार से ही होती है-अन्यथा नहीं होती । जब तू अन्तवाहकरूप होगी तब उसकी संकल्प सृष्टि में तेरा प्रवेश होगा । हे लीले! यह जगत् संकल्परुप भ्रममात्र है, वास्तव में कुछ हुआ नहीं, एक अद्वैत आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है और द्वैत कुछ नहीं । लीला बोली, हे देवि! जो एक अद्वैत आत्मसत्ता है तो कलना यह दूसरी वस्तु क्या है सो कहो? देवी बोली, हे लीले । जैसे स्वर्ण में भूषण कुछ वस्तु नहीं, जैसे सीपी में रूपा दूसरी वस्तु कुछ नहीं और जैसे रस्सी में सर्प दूसरी वस्तु नहीं वैसे ही कलना भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं है एक अद्वैत आत्मसत्ता ज्यों की त्यों स्थित है; उसमें नानात्व भासता है पर वह भ्रममात्र है-वास्तव में अपना आप एक अनुभव सत्ता है । इतना सुन फिर लीला ने पूछा, हे देवि! जो एक अनुभवसत्ता और मेरा अपना आप है तो मैं इतना काल क्यों भ्रमती रही? देवी बोली, हे लीले! तू अविचाररूप भ्रम से भ्रमती रही है । विचार करने से भ्रम शान्त हो जाता है । भ्रम और विचार भी दोनों तेरे हौ स्वरूप हैं और तुझसे ही उपजे हैं । जब तुझको अपना विचार होगा तब भ्रम निवृत्त हो जावेगा । जैसे दीपक के प्रकाश से अन्धकार नष्ट हो जाता है वैसे ही विचार से द्वैतभ्रम नष्ट हो जावेगा और जैसे रस्सी के जाने से सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है और सीप के जाने से रूप भ्रम नष्ट हो जाता है वैसे ही आत्मा के जाने से आधिभौतिक भ्रम शान्त हो जावेगा । जब दृश्य का अत्यन्ताभाव जान के दृढ़ वैराग्य करिये और आत्म स्वरूप का दृढ़ अभ्यास हो तब आत्मा साक्षात्कार होकर भ्रम शान्त हो जाता है और इसी से कल्याण होता है । हे लीले! जब दृश्य जगत् से वैराग्य होता है तब वासना क्षय हो जाती है और शान्ति प्राप्त होती है । हे लीले! तू आत्मसत्ता का अभ्यास कर तो तेरा जगत्‌भ्रम शान्त हो जावेगा । भ्रम भी कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि देह आदिक भ्रम भी कुछ नहीं हुआ । जैसे रस्सी के जाने से साँप का अभाव विदित होता है वैसे ही आत्मा के जाने से देहादिक का अत्यन्त अभाव हो जाता है ।           

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे विश्रान्तिवर्णनन्नाम पञ्चदशस्सर्गः ॥१५॥

अनुक्रम

 

 

विज्ञानाभ्यासवर्णन

देवी बोली, हे लीले! जितने कुछ शरीर तुझको भासते हैं सो सब स्वप्नपुर की नाईं हैं । जैसे स्वप्न में शरीर भासता है, पर जब निज स्वरूप में स्मृति होती है तब स्वप्न का शरीर सत्य नहीं भासता । जैसे संकल्प के त्यागने से संकल्परूप शरीर नहीं भासता । वैसे ही बोधकाल में यह शरीर भी नहीं भासता! जैसे मनोराज के त्यागने से मनोराज का शरीर नहीं भासता वैसे ही यह शरीर भी नहीं भासता । जब स्वरूप का ज्ञान होगा तब यह भी वास्तव न भासेगा । जैसे स्वरूप स्मरण होने पर स्वप्न शरीर शान्त होता है वैसे ही वासना के शान्त होने पर जाग्रत शरीर भी शान्त हो जाता है । जैसे स्वप्न का देह जागने से असत् होता है वैसे ही जाग्रत शरीर की भावना त्यागने से यह भी असत् भासता है । इसके नष्ट होने पर अन्तवाहक देह उदय होवेगा । जैसे स्वप्न में राग द्वेष होता है और जब पदार्थों की वासना बोध से निर्वीज होती है तब उनसे मुक्त होता है वैसे ही जिस पुरुष की वासना जाग्रत पदार्थों में नष्ट हुई है सो पुरुष जीवन्मुक्त पद को प्राप्त होता है । और यदि उसमें फिर भी वासना दृष्ट आवे तो वह वासना भी निर्वासना है । सो सर्व कल्पनाओं से रहित है उसका नाम सत्तासामान्य है । हे लीले! जिस पुरुष ने वासना रोकी है और ज्ञाननिद्रा से आवर्या हुआ है उसको सुषुप्तिरूप जान । उसकी वास ना सुषुप्ति है और जिसकी वासना प्रकट है और जाग्रतरूप से विचरता है उसको अधिक मोह से आवर्या जानिये । जो पुरुष चेष्टा करता दृष्टि आता है और जिसकी अन्तःकरण की वासना नष्ट हुई है उसको तुरिया जान । हे लीले! जो पुरुष प्रत्यक्ष चेष्टा करता है और अन्तःकरण की वासना से रहित है वह जीवन्मुक्त है । जिस पुरुष का चित्त सत्पद को प्राप्त हुआ है उसको जगत् की वासना नष्ट हो जाती है और जो वासना फुरती भासती है तो भी सत्य जानके नहीं फुरती । जब शरीर की वासना नष्ट होती है तब आधिभौतिकता नष्ट हो जाती है और अन्तवाहकता आन प्राप्त होती है । जैसे बरफ की पुतली सूर्य के तेज से जलरूप हो जाती है वैसे ही आधिभौतिकता क्षीण होकर अन्तवाहकता प्राप्त होती है । जब आन्तवाहकता प्राप्त होती है तब शरीर आभासमय चित्‌रूप होता है और अपने जन्मान्तरों से व्यतीत सृष्टिका सब ज्ञान हो आता है । तब वह जहाँ जाने की इच्छा करता है वहाँ जा प्राप्त होता है और यदि किसी सिद्ध के मिलने अथवा किसी के देखने की इच्छा करे सो सब कुछ सिद्ध होता है, परन्तु अन्तवाहक बिना शक्ति नहीं होती जब इस देह से तेरा अहंभाव उठेगा तब सब जगत् तुझको प्रत्यक्ष भासेगा । हे लीले! जब आधिभौतिक शरीर की वासना नष्ट होती है तब अन्तवाहक देह होती है और जब अन्तवाहक में वृत्ति स्थित होती है तब और के संकल्प की सृष्टि भासती है । इससे तू वासना घटाने का यत्न कर । जब वासना नष्ट होगी तब तू जीवन्मुक्त पदको प्राप्त होगी । हे लीले!जबतक तुझको पूर्ण बोध नहीं प्राप्त होगा तब तू अपनी इस देह को यहाँ स्थापन कर वह सृष्टि चलकर देख । जैसे अन्तवाहक शरीर से मांसमय स्थूल देह का व्यवहार नहीं सिद्ध होता वैसे ही स्थूल देह से सूक्ष्म कार्य नहीं होता । इससे तू अन्तवाहक शरीर का अभ्यास कर । जब अभ्यास करेगी तब वह सृष्टि देखने को समर्थ होगी हे लीले! जैसे अनुभवमें स्थित होती है सो मैंने तुझसे कही । यह वार्त्ता बालक भी जानते हैं कि यह वर और शाप की नाईं नहीं है । जब अपना आप ही अभ्यास करेगी तब बोध की प्राप्ति होगी । हे लीले! सब जगत् अन्तवाहकरूप है अर्थात् संकल्परूप है अर्थात् संकल्परूप और अबोध रूप है । संकल्प के अभ्यास से आधिभौतिक उत्पन्न हुआ है, इससे संसार की वासना दृढ़ हुई है और जन्म मरण आदि विकार चित्त में भासते हैं । जीव न मरता है और न जन्मता है । जैसे स्वप्न में जन्म मरण भासते हैं और जैसे संकल्प से भ्रम भासता है वैसे ही जन्म मरण भ्रम से भासता है । जब तुम आत्मपद का अभ्यास करोगी तब यह विकार मिट जावेगा और आत्मपद की प्राप्ति होगी । लीला ने पूछा हे देवि! तुमने मुझसे परम निर्मल उपदेश किया है जिसके जानने से दृश्य विसूचिका निवृत्त होती है, पर वह अभ्यास क्या है, बोध का साधन कैसे होता है, अभ्यास पुष्ट कैसे होता है और पुष्ट होने से फल क्या होता है? देवी बोली, हे लीले! जो कुछ कोई करता है सो अभ्यास बिना सिद्ध नहीं होता । सबका साधक अभ्यास है । इससे तू ब्रह्म का अभ्यास कर । हे लीले! चित्त में आत्मपद की चिन्तना, कथन, परस्पर बोध, प्राणों की चेष्टा और आत्मपद के मनन को ब्रह्माभ्यास कहते हैं! बुद्धि मान् चिन्तना किसको कहते हैं सो भी सुन । शास्त्र और गुरु से जो महावाक्य श्रवण किये हैं उनको युक्तिपूर्वक, विचारना और कथन करना चिन्तना कहाता है । शिष्यो को उपदेश करना, परस्पर बोध करना और निर्णय करके निश्चय करना, इन तीनों के परायण रहने को बुद्धिमान् ब्रह्म अभ्यास कहते हैं । जिन पुरुषों के पाप अन्त को प्राप्त हुए हैं और पुण्य बचे हैं वे रागद्वेष से मुक्त हुये हैं, उनको तू ब्रह्मसेवक जान । हे लीले! जिन पुरुषों को रात्रि दिन अध्यात्म शास्त्र के चिन्तन में व्यतीत होते हैं और वासना को नहीं प्राप्त होते उनको ब्रह्माभ्यासी जान-वे ब्रह्माभ्यास में स्थित हैं । हे लीले! जिनकी भोगवासना क्षीण हुई है और संसार के अभाव की भावना करते हैं वे विरक्तचित्त महात्मा पुरुष भव्यमूर्ति शीघ्र ही आत्मपद को प्राप्त होते हैं और जिनकी बुद्धि वैराग्यरूपी रंग से रँगी है और आत्मानन्द की ओर वृत्ति धावती है ऐसे उदार आत्माओं को ब्रह्माभ्यासी कहते हैं । हे लीले! जिन पुरुषोंने जगत् का अत्यन्त अभाव जाना है कि यह आदि से उत्पन्न नहीं हुआ और दृश्य को असत् जानके त्यागते हैं, परमतत्त्व को सत्य जानते हैं और इस युक्ति से अभ्यास करते हैं वे ब्रह्माभ्यासी कहते हैं । जिस पुरुष को दृश्य की असम्भवता का बोध हुआ है और इस बुद्धि का भी जो अभाव करके परमात्मपद में प्राप्ति करते हैं सो ब्रह्माभ्यासी कहाते हैं । हे लीले! दृश्य के अभाव जाने बिना राग और द्वेष निवृत्त नहीं होते । रागद्वेष बुद्धि इस लोक में दुःखों को प्राप्त करती है और जिसको दृश्य की असम्भव बुद्धि प्राप्त हुई है उसको यज्ञ अर्थात् परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त होता है । जब उस पद में दृढ़ अभ्यास होता है तब परमानन्द निर्वाण पद को प्राप्त होता है और जो जगत् के अभाव के निमित्त यत्न करता है वह प्राकृत है । हे लीले! बोध का साधन अभ्यास है, अभ्यास शास्त्र से होता है, प्रयत्न से पुष्ट होता है और पुष्ट होने से आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती है । हे लीले! जिनको ब्रह्माभ्यासी वा ब्रह्म के सेवक कहते हैं वे तीन प्रकार के हैं-एक उत्तम दूसरे मध्यम और तीसरे प्रकृत । उत्तम अभ्यासी वह है जिसको बोधकला उत्पन्न हुई है और दृश्य का असम्भव बोध हुआ है जिसको दृश्य का असम्भव बोध हुआ है पर बोधकला नहीं उपजी और वह उसके अभ्यास में है वह मध्यम है । जिसको दृश्य का असम्भव बोध नहीं हुआ और सदा यही हृदय में रहता है कि दृश्य का असम्भव हो यह प्राकृत है । इससे जिस प्रकार मैंने तुझको अभ्यास कहा है वैसे ही अभ्यास करने से तू परमपद को प्राप्त होगी। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे अज्ञानरूपी निद्रा में जीव शयन कर रहा है, उससे जगत् को नाना प्रकार से देखता है वैसे ही अविद्यारूपी निद्रा में विवेकरूपी वचनों के जल की वर्षा करके जब देवी ने लीला को जगाया तब उसकी अज्ञानरूपी निद्रा ऐसे नष्ट हो गई जैसे शरत्काल में मेघ का कुहड़ा नष्ट हो जाता है । वाल्मीकिजी बोले, जब इस प्रकार मुनीश्वर ने कहा तो सायंकाल का समय हुआ और सर्व सभा परस्पर नमस्कार करके स्नान को गई और जब सूर्य की किरणें उदय हुई तब फिर सब आ स्थित हुए ।  

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे विज्ञानाभ्यासवर्णनन्नामषोडशस्सर्गः ॥१६॥

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देहाकाशमागमन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार अर्द्धरात्रि के समय देवी और लीला का संवाद हुआ । उस समय सब लोग और सहेलियाँ बाहर पड़ी सोती थीं और लीला का भर्त्ता फूलों में दबा हुआ था । उसके पास दिव्य वस्त्र पहिरे हुए चन्द्रमा की कान्ति के समान सुन्दर देवियाँ सब कलनाओं को त्यागके और अंगों को संकोचकर ऐसी समाधि में स्थित भईं मानो रत्न के थम्भ से पुतलियाँ उत्कीर्ण किये स्थित हैं । अन्तःपुर भी उनके प्रकाश से प्रकाशमान हुआ और वे ऐसी शोभा देती थीं मानो कागज के ऊपर मूर्तियाँ लिखी हैं । इस प्रकार सब दृश्य कल्पना को त्याग के निर्विकल्प समाधि में स्थित हुई । जैसे कल्पवृक्ष की लता दूसरी ऋतु के आने से अगले रस को त्याग के दूसरी ऋतु के रस को अंगीकार करती है वैसे ही वे सब दृश्यभ्रम को त्याग के आत्मतत्व में स्थित हुईं और अंहसत्ता से आदि से लेकर उनका दृश्यभ्रम शान्त हो गया । दृश्य रूपी पिशाच के शान्त होने पर जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है वैसे ही वे निर्मलभाव को प्राप्त हुई । हे रामजी! यह जगत् शश के शृंग की नाईं असत् है । जो आदि न हो अन्त भी न रहे और वर्तमान में दृष्टि आवे वह असत् जानिये । जैसे मृगतृष्णा का जल असत्य है वैसे ही यह जगत भी असत्य है । ऐसे जब स्वभावसत्ता उनके हृदय में स्थित हुई तब अन्य सृष्टि के देखने का जो संकल्प था सो आन फुरा । उस फुरने से वे आकाशरूप देह से चिदाकाश में उड़ीं और सूर्य और चन्द्रमा के मण्डलों को लाँघकर दूर से दूर जाकर अन्त योजनपर्यन्त स्थान लाँघे । फिर भूतों की सृष्टि देखी उसमें प्रवेश किया ।     

 

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलाविज्ञान देहाकाशमागमनन्नाम सप्तदशस्सर्गः ॥१७॥

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आकाशगमनवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार परस्पर हाथ पकड़कर वे दूर से दूर गईं मानो एक ही आसन पर दोनों चली जाती हैं । जहाँ मेघों के स्थान और अग्नि और पवन के वेग नदियों की नाईं चलते थे और जहाँ निर्मल आकाश था वहाँ से भी आगे गई । कहीं चन्द्रमा और सूर्य का प्रकाश ही न था और कहीं चन्द्रमा और सूर्य प्रकाशमान थे; कहीं देवता विमानों पर आरूढ़ थे; कहीं सिद्ध उड़ते थे और कहीं विद्याधर, किन्नर और गन्धर्व गान करते थे । कहीं सृष्टि उत्पन्न होती; कहीं प्रलय होती और कहीं शिखाधारी तारे उपद्रव करते उदय हुए थे । कहीं प्राण अपने व्यवहार में लगे हुए; कहीं अनेक महापुरुष ध्यान में स्थित; कहीं हस्ति, पशु-पक्षी और देत्य-डाकिनी विचरतें और योगनियाँ लीला करती थीं । कहीं अन्धे गूँगे रहते थे, कहीं गीध पक्षी; सिंह और घोड़े के मुखवाले गण विचरते और कहीं गीध पक्षी वरुण,कुबेर, इन्द्र, यमादिक लोकपाल बैठे थे । कहीं बड़े पर्वत सुमेरु, मंदराचल आदिक स्थित कहीं अनेक योजन पर्यन्त वृक्ष ही चले जाते; कहीं अनेक योजन पर्यन्त अविनाशी प्रकाश; कहीं अनेक योजन पर्यन्त अविनाशी अन्धकार; कहीं जल से पूर्ण स्थान; कहीं सुन्दर पर्वतों पर गंगा के प्रवाह चले जाते और कहीं सुन्दर बगीचे, बावड़ी ताल और उनमें कमल लगे हुए थे । कहीं भूत भविष्यत् होता, कहीं कल्पवृक्षों के वन, कहीं अनन्त चिन्तामणि; कहीं शून्य स्थान; कहीं देवता और देत्यों के बड़े युद्ध होते और नक्षत्रचक्र फिरते और कहीं प्रलय होता था । कहीं देवता विमानों में फिरते ; कहीं स्वामिकार्तिक के रक्खे हुए मोरों के समूह विचरते; कहीं कुक्कुट आदि पक्षी विद्याधरों के वाहन विचरते और कहीं यम के वाहन महिषों के समूह विचरते थे । कहीं पाषाण संयुक्त पर्वत;कहीं भैरव के गण नृत्य करते; कहीं विद्युत चमकती; कहीं कल्पतरु कहीं मन्द-मन्द शीतल पवन सुगन्ध समेत चलती और कहीं पर्वत रत्न और मणि शोभते थे । निदान इसी प्रकार अनेक जगज्जाल उनदेवियों ने देखे । जीवरूपी मच्छड़ त्रिलोकरूपी गूलर के फलों में देखे । इसके अनन्तर उन्होंने भूमण्डल को देख के महीतल में प्रवेश किया ।      

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने आकाशगमनवर्णनन्नामाष्टादशस्सर्गः ॥१८॥

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भूलोकगमनवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तब देवियों ने भूतल ग्राम में आकर ब्रह्माण्ड खप्परमें प्रवेश में किया । वह ब्रह्माण्ड त्रिलोकरूपी कमल है और उसकी अष्ट पंखुड़ि याँ हैं । उसमें पर्वतरूपी डोड़ा है; चेतनता सुगन्ध है और नदियाँ समुद्र अम्बुकगण हैं । जब रात्रिरूपी भँवरे उस पर आन विराजते हैं तब वे कमल सकुचाय जाते हैं वे पातालरूपी कीचड़ में लगे हैं; पत्ररूपी मनुष्य देवता हैं; दैत्य राक्षस उसके कण्टक हैं और डोडा उसका शेषनाग है । जब वह हिलता है तब भूचाल होता है और दिनकर से प्रकाशता है । इसका विस्तार इस प्रकार है कि एक लाख योजन जम्बूद्वीप है और उसके परे दुगुना खारा समुद्र है । जैसे हाथ का कंकण होता है वैसे ही उस जल से वह द्वीप आवरण किया है । उससे आगे उससे दुगुनी पृथ्वी है जिसका नाम कुशद्वीप है और उससे दूने घृत के समुद्र से वेष्टित है । उसके आगे उससे दूनी पृथ्वी का नाम क्रौंचद्वीप है वह अपने से दूने दधि के समुद्र से वेष्टित है । फिर शाल्मली द्वीप है और उससे दूना मधु का समुद्र उसके चारों ओर है । फिर प्लक्षद्वीप है उससे दूना इक्षुरस का समुद्र है । फिर उससे दूना पुष्करद्वीप है और उससे दूना मीठे जल का समुद्र उसे घेरे है । इस प्रकार सप्त समुद्र हैं । उससे परे दशकोटि योजन कञ्चन की पृथ्वी प्रकाशमान है और उससे आगे लोकालोक पर्वत हैं और उन पर बड़ा शून्य वन है । उससे परे एक बड़ा समुद्र है । समुद्र से परे दशगुणी अग्नि है; अग्नि से परे दशगुणी वायु है; वायु से परे दशगुणा आकाश है और आकाश से परे लक्ष योजन पर्यन्त घनरूप ब्रह्माण्ड का कन्ध है । उसको देख के दोनों फिर आईं ।  

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने भूलोकगमनवर्णनन्नामैकोन-विंशस्सर्गः ॥१९॥

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सिद्धदर्शनहेतुकथन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वहाँ से फिर उन्होंने वशिष्ठ ब्राह्मण और अरुन्धती का मण्डल, ग्राम और नगर को देखा कि शोभा जाती रही है । जैसे कमलों पर धूल की वर्षा हो और कमल की शोभा जाती रहे; जैसे वन को अग्नि लगे और वन लक्ष्मी जाती रहे; जैसे अगस्त्य मुनि ने समुद्र को पान कर लिया था और समुद्र की शोभा जाती रही थी; जैसे तेल और बाती के पूर्ण होने से दीपक के प्रकाश का अभाव हो जाता और जैसे वायु के चलने से मेघ का अभाव होता है वैसे ही ग्राम की शोभा का अभाव देखा । जो कुछ प्रथम शोभा थी सो सब नष्ट हो गई थी और दासियाँ रुदन करती थीं । तब लीला रानी को जिसने चिरकाल तप और ज्ञान का अभ्यास किया था; यह इच्छा उपजी कि मुझे और देवी को मेरे बान्धव देखें । तब लीला के सत्संकल्प से उसके बान्धवों ने उनको देखकर कहा कि यह वनदेवी गौरी और लक्ष्मी आई हैं इनको इनको नमस्कार करना चाहिए । वशिष्ठ के बड़े पुत्र ज्येष्ठ शर्मा ने फूलों से दोनों के चरण पूजे और कहा, हे देवि! तुम्हारी जय हो । यहाँ मेरे पिता और माता थे, अब वह दोनों काल के वश स्वर्ग को गये हैं इससे हम बहुत शोकवान् हुए हैं । हमको त्रैलोक शून्य भासते हैं और हम सब रुदन करते हैं । वृक्षों पर जो पक्षी रहते थे सो भी उनको मृतक देख के वन को चले गये; पर्वत की कन्दरा से पवनमानों रुदन करता आता है, और नदी जो वेग से आती है और तरंग उछलते हैं मानों वह भी रुदन करते हैं । कमलों पर जो जल के कण हैं मानों कमलों के नयनों से रुदन करके जल चलता है और दिशा से जो उष्ण पवन आता है मानों दिशा भी उष्ण श्वासें छोड़ती है । हे देवियों! हम सब शोक को प्राप्त हुए हैं । तुम कृपा करके हमारा शोक निवृत्त करो, क्योंकि महापुरुषों का समागम निष्फल नही होता और उनका शरीर परोपकार के निमित्त है । हे रामजी! जब इस प्रकार ज्येष्ठ शर्माने कहा तब लीला ने कृपा करके उसके शिर पर हाथ रक्खा और उसके हाथ रखते ही उसका सब ताप नष्ट हो गया । और जैसे ज्येष्ठ आषाढ़ के दिनों में तपी हुई पृथ्वी मेघ की वर्षा होने से शीतल हो जाती है वैसे ही उसका अन्तः करण शीतल हुआ । जो वहाँ के निर्धन थे वह उनके दर्शन करने से लक्ष्मीवान् होकर शान्ति को प्राप्त हुए और शोक नष्ट हो गया और सूखे वृक्ष सफल हो गये । इतना सुन राम जी बोले, हे भगवन्! लीला ने अपने ज्येष्ठ शर्मा को मातारूप होकर दर्शन क्यों न दिया, इसका कारण मुझसे कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! शुद्ध आत्मसत्ता में जो स्पन्द संवेदन हुई है सो संवेदन भूतों का पिण्डाकार हो भासती है और वास्तव में आकाश रूप है भ्रान्ति से पृथ्वी आदिक भूत भासते हैं । जैसे बालक को छाया में भ्रम से वैताल भासता है वैसे ही संवेदन के फुरने से पृथिव्यादिक भूत भासते हैं । जैसे स्वप्न में भ्रम से पिण्डाकार भासते हैं और जगने पर आकाशरूप भासते हैं वैसे भ्रम के नष्ट होने पर पृथ्वी आदि भूत आकाशरूप भासते हैं । जैसे स्वप्न के नगर स्वप्नकाल में अर्थाकार भासते हैं और अग्नि जलाती है पर जागने से सब शून्य होजाती है वैसे ही अज्ञान के निवृत्त होने से यह जगत् आकाशरुप हो जाता है ।जैसे मूर्छा में नाना प्रकार के नगर; परलोक जगत्; आकाश में तरुवरे और मुक्तमाला और नौका पर बैठे तट के वृक्ष चलते भासते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रम से अज्ञानी को भासता है और ज्ञानवान् को सब चिदाकाश भासता है-जगत् की कल्पना कोई नहीं फुरती । इससे लीला उसको पुत्रभाव और अपने को मातृभाव कैसे देखती । उसका अहं और मम भाव नष्ट हो गया था । जैसे सूर्य के उदय होने से अन्धकार नष्ट होता है वैसे ही लीला का अज्ञानभ्रम नष्ट हो गया था और सब जगत् उसको चिदाकाश भासता था । इस कारण वह अपने को माताभाव न जानती भई । जो उसमें कुछ ममत्व होता तो उसको माताभाव से देखती, परन्तु उसको यह अहं ममभाव न था इस कारण देवीरूप में दिखाया और शिर पर हाथ इसलिए रक्खा कि सन्तों का दयालु स्वभाव है । माता पुत्र की कल्पना उसमें कुछ न थी । केवल आत्मारूप जगत् उसको भासता था ।   

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने सिद्धदर्शनहेतुकथनन्नामविंशतितमस्सर्गः ॥२०॥

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जन्मान्तरवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! फिर वहाँ से देवी और लीला दोनों अन्तर्धान हो गईं । तब वहाँ के लोग कहने लगे कि वनदेवियों ने हमारे बड़ी कृपा करके हमारे दुःख नाश किये और अन्तर्धान हो गईं । हे रामझी! तब दोनों आकाश में आकाशरूप अन्तर्धान हुई और परस्पर संवाद करने लगीं । जैसे स्वप्न में संवाद होता है वैसे ही उनका परस्पर संवाद हुआ । देवी ने कहा, हे लीले! जो कुछ जानना था सो तूने जाना और जो कुछ देखना था सो भी देखा-यह सब ब्रह्म की शक्ति है । और जो कुछ पूछना हो सो पूछो । लीला बोली, हे देवि!मैं अपने भर्ता विदूरथ के पास गई तो उसने मुझे क्यों न देखा और मेरी इच्छा से ज्येष्ठशर्मा आदि ने मुझे क्यों देखा इसका कारण कहो? देवी बोली, हे लीले! तब तेरा द्वैतभ्रम नष्ट न हुआ था और अभ्यास करके अद्वैत को न प्राप्त हुई थी । जैसे धूपमें छाया का सुख नहीं अनुभव होता वैसे ही तुझको अद्वैत का अनुभव न था । हे लीले! जैसे ऋतु का फल मधुर होता है । जैसे ज्येष्ठ आषाढ़ विदित हो और वर्षा नहीं आईं वैसे ही तू थी-अर्थात् संसारमार्ग को लंघी थी पर अद्वैत तत्त् व को न प्राप्त हुई थी इससे आत्मशक्ति तुझको न प्रत्यक्ष हुई थी ।आगे तेरा सत्संकल्प प हुई है । अब तैंने सत्संकल्प किया है कि तुझको ज्यैष्ठशर्मा देखे इसी से वे सब तुझको देखते भये । अब तू विदूरथ के निकट जावेगी तो तेरे साथ ऐसा ही व्यवहार होगा । लीला बोली, हे देवि! इस मण्डप आकाश में मेरा भर्त्ता वशिष्ठ ब्राह्मण हुआ और फिर जब मृतक हुआ तब इसी लोक मण्डप आकाश में उसको पृथ्वी लोक फुरि आया, जिससे पद्म राजा हो उसने चिरकाल पर्यन्त चारों द्वीपों का राज्य किया और जब फिर मृतक हुआ तब इसी मण्डप आकाश में उसको जगत् भासित होकर पृथ्वीपति हुआ उसका नाम विदूरथ हुआ । हे देवि! इसी मण्डप आकाश में जर्जरीभाव और जन्म मरण हुआ और अनन्त ब्रह्माण्ड इसमें स्थित हैं । जैसे सम्पुट में सरसों के अनेक दाने होते हैं वैसे ही इसमें सब ब्रह्माण्ड मुझको समीप ही भासते है और भर्त्ता की सृष्टि भी मुझको अब प्रत्यक्ष भासती है अब जो कुछ तुम आज्ञा करो सो मैं करूँ । देवी बोली, हे भूतल अरुन्धती! तेरे जन्म तो बहुत हुए हैं और अनेक तेरे भर्त्ता हुए हैं पर उन सबमें यह भर्त्ता इस मण्डप में है । एक वशिष्ठ ब्राह्मण था सो मृतक हो उसका शरीर तो भस्म हो गया है और फिर पद्मराजा हुआ उसका शव तेरे मण्डप में पड़ा है और तीसरा भर्त्ता संसार मण्डप में वसुधापति हुआ वह संसार समुद्र में भोगरूपी कलोल कर व्याकुल है । वह राजा में चतुर हुआ है पर आत्मपद से विमुख हुआ है । अज्ञान से जानता था कि मैं राजा हूँ; मेरी आज्ञा सबके ऊपर चलती है और मैं बड़े भोगों का भोगनेवाला और सिद्ध बलवान् हूँ । हे लीले! वह संकल्प विकल्परूपी रस्सी से बाँधा हुआ है । अब तू किस भर्त्ता के पास चलती है । जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ मैं तुझको ले जाऊँ । जैसे सुगन्ध को वायु ले जाता है वैसे ही मैं तुझको ले जाऊँगी । हे लीले! जिस संसार मण्डल को तू समीप कहती है सो वह चिदाकाश की अपेक्षा से समीप भासता है और सृष्टि की अपेक्षा से अनन्त कोटि योजनाओं का भेद है । इसका वपु आकाशरूप है । ऐसी अनन्त सृष्टि पड़ी फुरती है । समुद्र और मन्दराचल पर्वत आदिक अनन्त हैं उनके परमाणु में अनन्त सृष्टि चिदाकाश के आश्रय फुरती है । चिद्‌अणु में रुचि के अनुसार सृष्टि बड़े आरम्भ से दृष्टि आती है और बड़े स्थूल गिरि पृथ्वी दृष्टि आते हैं पर विचारकर तौलिये तो एक चावल के समान भी नहीं होती । हे लीले! नाना प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण पर्वत भी दृष्टि आते हैं पर आकाशरूप है । जैसे स्वप्न में चैतन्य का किञ्चन नाना प्रकार जगत् दृष्टि आता है वैसे ही यह जगत् चैतन्य का किञ्चन है । पृथ्वी आदि तत्त्वों से कुछ उपजा नहीं । हे लीले! आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है । जैसे नदी में नाना प्रकार के तरंग उपजते हैं और लीन भी होते हैं वैसे ही आत्मा में जगज्जाल उपजा और नष्ट भी हो जाता है, पर आत्मसत्ता इनके उपजने और लीन होने में एक रस है । यह सब केवल आभासरूप है वास्तव कुछ नहीं । लीला बोली हे माता! अब मुझको पूर्व की सब स्मृति हुई है । प्रथम मैंने ब्रह्मा से राजसी जन्म पाया और उससे आदि लेकर नाना प्रकार के जो अष्टशत जन्म पाये हैं वे सब मुझको प्रत्यक्ष भासते हैं  प्रथम जो चिदाकाश से मेरा जन्म हुआ उसमें मैं विद्याधर की स्त्री भई और उस जन्म के कर्म से भूतल में आकर मैं दुःखी हुई। फिर पक्षिणी भई और जाल में फँसी और उसके अनन्तर भीलिनी होकर कदम्ब वन में विचरने लगी । फिर वनलता भई; वहाँ गुच्छे मेरे  स्तन और पत्र मेरे हाथ थे । जिसकी पर्णकुटी में लता थी वह ऋषीश्वर मुझको हाथ से स्पर्श किया करता था इसमें मृतक होकर उसके गृह में पुत्री हुई । वहाँ जो मुझसे कर्म हो सो पुरुष ही का कर्म हो इसमें मैं बड़ी लक्ष्मी से सम्पन्न राजा हुई । वहाँ मुझसे दुष्टकर्म हुए इससे मैं कुष्ठ रोगग्रसित बन्दरी होकर आठ वर्ष वहाँ रही । फिर मैं बैल हुई; मुझको किसी दुष्ट ने खेती के हल में जोड़ा और उससे मैंने दुःख पाया । फिर मैं भ्रमरी भई और कमलों पर जाकर सुगन्ध लेती थी । फिर मृगी होकर चिर पर्यन्त वन में विचरी । फिर एक देश का राजा भई और सौ वर्ष पर्यन्त वहाँ भोगे और फिर कछुये का जन्म लेकर, राजहंस का जन्म लिया । इसी प्रकार मैंने अनेक जन्मों को धारण करके बड़े कष्ट पाये । हे देवि! आठसौ जन्म पाकर में संसारसमुद्र में वासना से घटीयन्त्र की नाईं भ्रमी हूँ ।अब मैंने निश्चय किया है कि आत्मज्ञान विना जन्मों का अन्त कदाचित् नहीं होता सो तुम्हारी कृपा से अब मैंने निःसंकल्प पद को पाया।  

इति श्रीयोगवाशिष्टे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने जन्मान्तरवर्णनन्नाम एकविंशतितमस्सर्गः ॥२१॥

अनुक्रम

 

गिरिग्रामवर्णन

इतनी कथा सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वज्रसार की नाईं वह ब्रह्माण्ड खप्पर जिसका अनन्त कोटि योजन पर्यन्त विस्तार था उसे ये दोनों कैसे लंघती गईं । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वज्रसार ब्रह्माण्ड खप्पर कहाँ है और वहाँ तक कौन गया है? न कोई वज्र सार ब्रह्माण्ड है और न कोई लाँघ गया है सब आकाशरूप है । उसी पर्वत के ग्राम में जिसमें वशिष्ठ ब्राह्मण का गृह था उसी मण्डप आकाशरूप सृष्टिका वह अनुभव करता भया । हे रामजी । जब वशिष्ठ ब्राह्मण मृतक भया तब उसी मण्डपाकाश के कोने में अपने को चारों ओर समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राजा जानने लगा कि मैं राजा पद्म हूँ और अरुन्धती को लीला करके देखा कि यह मेरी स्त्री है । फिर वह मृतक हुआ तो उसको उसी आकाशमण्डप में और जगत का अनुभव हुआ और उसने अपने को राजा विदूरथ जाना । इससे तुम देखो कि कहाँ गया और क्या रूप है? उसी मण्डप आकाश में तो उसको सृष्टि का अनुभव हुआ; इससे जो सृष्टि है वह उसी वशिष्ठ के चित्त में स्थित है तब ज्ञप्तिरूप देवी की कृपा से अपने ही देहाकाश में लीला अन्तवाहक देह से जो आकाश रूप है उड़ी और ब्रह्माण्ड को लाँघ के फिर उसी गृह में आई । जैसे स्वप्न से स्वप्ना न्तर को प्राप्त हो वैसे ही देख आई । पर वह गई कहाँ और आई कहाँ? एक ही स्थान में रहकर एक सृष्टि से अन्य सृष्टि को देखा । इनको ब्रह्माण्ड के लंघ जाने में कुछ यत्न नहीं, क्योंकि उनका शरीर अन्तवाहक रूप है । हे रामजी! जैसे मन से जहाँ लंघना चाहे वहाँ लंघ जाता है वैसे ही वह प्रत्यक्ष लंघी है । वह सत्यसंकल्प रूप है और वस्तु से कहे तो कुछ नहीं । हे रामजी! जैसे स्वप्न की सृष्टि नाना प्रकार के व्यवहारों सहित बड़ी गम्भीर भासती है पर आभासमात्र है वैसे ही यह जगत देखते हैं पर न कोई ब्रह्माण्ड है न कोई जगत् है और न कोई भीत है केवल चैतन्यमात्र किञ्चन है और बना कुछ नहीं । जैसे चित्तसंवेदन फुरता है वैसे ही आभास हो भासता है । केवल वासनामात्र ही जगत् है, पृथ्वी आदिक भूत कोई उपजा नहीं-निवारण ज्ञान आकाश अनन्तरूप स्थित है । जैसे स्पन्द और निस्स्पन्द दोनों रूप पवन ही हैं वैसे ही स्फुर और अफुररूप आत्मा ही ज्यों का त्यों है और शान्त सर्वरूप चिदाकाश है । जब चित्त किञ्चन होता है तब आपही जगत्‌रूप हो भासता है-दूसरा कुछ नहीं । जिन पुरुषों ने आत्मा जाना है उनको जगत् आकाश से भी शून्य भासता है और जिन्होंने नहीं जाना उनको जगत् वज्रसार की नाईं दृढ़ भासता है । जैसे स्वप्नमें नगर भासते हैं वैसे ही यह जगत् है । जैसे मरुस्थल में जल और सुवर्ण में भूषण भासते हैं वैसे ही आत्मा में जगत् भासता है । हेरामजी! इस प्रकार देवी और लीला ने संकल्प से नाना प्रकार के स्थानों को देखा जहाँ झरनों से जलज चला आता था; बावली और सुन्दर ताल और बगीचे देखे जहाँ पक्षी शब्द करते थे और मेघ पवन संयुक्त देखे मानों स्वर्ग यहीं था ।  

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे लीलोपाख्याने गिरिग्रामवर्णनन्नाम द्वाविंशतितमस्सर्गः ॥२२॥

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पुनराकाशवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार देखके वे दोनों शीतलचित्त ग्राम में वास करती भईं और चिरकाल जो आत्म अभ्यास किया था उससे शुद्ध ज्ञानरूप और त्रिकालज्ञान से सम्पन्न हुईं । उससे उन्हें पूर्व की स्मृति हुई और जो कुछ अरुन्धती के शरीर से किया था सो देवी से कहा कि हे देवी! तुम्हारी कृपा से अब मुझको पूर्व की स्मृति हुई जो कुछ इस देश में मैंने किया था सो प्रकट भासता है कि यहाँ एक ब्राह्मणी थी, उसका शरीर वृद्ध था और नाड़ियाँ दीखती थी और भर्ता को बहुत प्यारी और पुत्रों की माता थी वह मैं ही हूँ । हे देवि! मैं यहाँ देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करती थी, यहाँ दूध रखती, यहाँ अन्नादिकों के वासन रखती थी, यहाँ मेरे पुत्र, पुत्रियाँ, दामाद और दौहित्र बैठते थे; यहाँ मैं बैठती थी और भृत्यों को कहती थी कि शीघ्र ही कार्य करो । हे देवि! यहाँ मैं रसोई करती थी और मेरा भर्ता शाक और गोबर ले आता था और सर्व मर्यादा कहता था । ये वृक्ष मेरे लगाये हुए हैं, कुछ फल मैंने इनसे लिये हैं और कुछ रहें है वे ये हैं । यहाँ मैं जलपान करती थी । हे देवि! मेरा भर्त्ता सब कर्मों में शुद्ध था पर आत्मस्वरूप से शून्य था । सब कर्म मुझको स्मरण होते हैं । यहाँ मेरा पुत्र ज्येष्ठशर्मा गृह में रुदन करता है । यह बेलि मेरे गृह मे बिस्तरी है और सुन्दर फूल लगे हैं । इनके गुच्छे छत्रों की नाईं हैं और झरोखे बेलि से आवरे हुए हैं । मेरा मण्डप आकाश है, इससे मेरे भर्ता का जीव आकाश है । देवी बोली, हे लीले! इस शरीर के नाभिकमल से दश अंगुल ऊर्ध्व हृदयाकाश है, सो अंगुष्ठमात्र हृदय है उसमें उसका संवित आकाश है । उसमें जो राजसी वासना थी उससे उसके चारों समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राज्य फुर आया कि " मैं राजा हूँ" यहाँ उसे आठ दिन मृतक हुए बीते हैं और यहाँ चिरकाल राज्य का अनुभव करता है । हे देवि! इस प्रकार थोड़े काल में बहुत अनुभव होता है और हमारे ही मण्डप में वह सब पड़ा है । उसकी पुर्यष्टक में जगत् फुरता है उसमें ही राजा विदूरथ है इस राज्य के संकल्प से उसकी संवित इसी मण्डप आकाश में स्थित है । जैसे आकाश में गन्ध को लेके पवन स्थित हो वैसे ही उसकी चेतन संवित संकल्प को लेकर इसी मण्डपाकाश में स्थित है उसकी संवित इस मण्डप आकाश में है उस राजा की सृष्टि मुझको कोटि योजन पर्यन्त भासती है । यदि में पर्वत और मेघ अनेक योजन पर्यन्त लंघती जाऊँ तब भर्त्ता के निकट प्राप्त होऊँ और चिदाकाश की अपेक्षा से अपने पास ही भासती है । अब व्यवहार दृष्टि से वह कोटि योजन पर्यन्त है इससे चलो जहाँ मेरा भर्ता राजा विदूरथ है वह स्थान दूर है तो भी निश्चय से समीप है । इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर वे दोनों,जैसे खड्ग की धारा श्याम होती है, जैसे विष्णुजी का अंग श्याम है, जैसे काजर श्याम होता और जैसे भ्रमरे की पीठ श्याम होती है वैसे ही श्याम मण्डपाकाश में पखेरू के समान अन्तवाहक शरीर से उड़ी और मेघों और बड़े वायु के स्थान; सूर्य, चन्द्रमा और ब्रह्मलोक पर्यन्त देवतों के स्थान को लाँघकर इस प्रकार दूर से दूर गई और शून्य आकाश में ऊर्ध्व जाके ऊर्ध्व को देखती भईं कि सूर्य और चन्द्रमा आदि कोई नहीं भासता । तब लीला ने कहा हे देवि । इतना सूर्य आदि का प्रकाश था वह कहाँ गया? यहाँतो महाअन्धकार है; ऐसा अन्धकार है कि मानों सृष्टि में ग्रहण होता है । देवी बोली, हे लीले! हम महाआकाश में आई हैं । यहाँ अन्धकार का स्थान है, सूर्य आदि कैसे भासें? जैसे अन्धकूप में त्रसरेणु नहीं भासते वैसे ही यहाँ सूर्य चन्द्रमा नहीं भासते । हम बहुत ऊर्ध्व को आई हैं । लीला ने पूछा, हे देवि! बड़ा आश्चर्यहै कि हम दूर से आई हैं जहाँ सूर्यादिकों का प्रकाश भी नहीं भासता इससे आगे अब कहाँ जाना है? देवी बोलीं, हे लीले! इसके आगे ब्रह्माण्ड कपाट आवेगा । वह बड़ा वज्रसार है और अनन्त कोटि योजन पर्यन्त उसका विस्तार है और उसकी धूलि की कणिका भी इन्द्र के वज्र समान हैं इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार देवी कहती ही थी कि आगे महावज्रसार ब्रह्माण्ड कपाट आया और अन्त कोटि योजन पर्यन्त उसका विस्तार देखकर उसको भी वे लाँघ गईं पर उन्हें कुछ भी क्लेश न भया क्योंकि जैसा किसी को निश्चय होता है वैसा ही अनुभव होता है । वह निरावरण आकाशरूप देवियाँ ब्रह्माण्ड कपाट को लाँघ गई । उसके परे दशगुणा जल का आवरण; उसके परे दशगुणा अग्नितत्त्व ; उसके परे दशगुणा वायु; उसके परे दशगुणा आकाश और उसके परे परमाकाश है । उसका आदि मध्य और अन्त कोई नहीं । जैसे बन्ध्या के पुत्र की कथा की चेष्टा का आदि अन्त कोई नहीं होतावैसे ही परम आकाश है; वह नित्य, शुद्ध और अनन्तरूप है और अपने आपमें स्थित है । उसका अन्त लेने को यदि सदाशिव मनरूपी वेग से और विष्णुजी गरुड़जी पर आरूढ़ होके कल्प पर्यन्त धावें तो भी उसका अन्त न पावें और पवन अन्त लिया चाहे तो वह भी न पावे । वह तो आदि, मध्य और अन्त कलना से रहित बोधमात्र है ।      

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे पुनराकाशवर्णनन्नाम त्रयोविंशतितमस्सर्गः ॥२३॥

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ब्रह्माण्डवर्णन

वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! जब वे पृथ्वी, अप्, तेज आदिक आवरणों को लाँघ गईं तब परम आकाश उनको भासित हुआ । उसमें उनको धूलि की कणिका और सूर्य के त्रसरेणु के समान ब्रह्माण्ड भासे । वह महाकाल शून्य को धारनेवाला परम आकाश है और चिद्‌अणु जिसमें सृष्टि फुरती है वह ऐसा महासमुद्र है कि कोई उसमें अधः को जाता है और कोई ऊर्ध्व को जाता है कोई तिर्यक् गति को पाता है । हे रामजी! चित्त संवित् में जैसा जैसा स्पन्द फुरता है वैसा ही वैसा आकार हो भासता है; वास्तव में न कोई अधः है, न कोई ऊर्ध्व है, न कोई आता है और न कोई जाता है केवल आत्मसत्ता अपने आप में ज्यों की त्यों स्थित है । फुरने से जगत् भासता है और उत्पन्न होकर फिर नष्ट होता है । जैसे बालक का संकल्प उपज के नष्ट हो जाता वैसा ही चैतन्य संवित में जगत् फुरके नष्ट हो जाता है । रामजी ने पूछा, हे भगवन्! अधः और ऊर्ध्व क्या होते हैं तिर्यक क्यों भासते हैं और यहाँ क्या स्थित है सो मुझसे कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! परमाकाश -सत्ता आवरणसे रहित शुद्ध बोधरूप है । उसमें जगत् ऐसे भासता है जैसे आकाश में भ्रान्ति से तरुवरे भासते हैं, उसमें अधः और ऊर्ध्व कल्पनामात्र है । जैसे हलों के बेंट के चौगिर्द चींटियाँ फिरती हैं और उनको मन में अधःऊर्ध्व भासता है सो उनके मन में अधः ऊर्ध्व की कल्पना हुई है । हे रामजी! यह जगत् आत्मा का आभासरूप है । जैसे मन्दराचल पर्वत के ऊपर हस्तियों के समूह विचरते हैं वैसे ही आत्मा में अनेक जगत् फुरते हैं; जैसे मन्दराचल पर्वत के आगे हस्ती हो वैसे ही ब्रह्म के आगे जगत् हैं और वास्तव में सब ब्रह्मरूप है । कर्त्ता, कर्म, करण सम्प्रदान अपादान और अधिकरण सब  ब्रह्म ही हैं और ये जगत् ब्रह्मसमुद्र के तरंग हैं । उन जगत् ब्रह्माण्डों को देवियों ने देखा । जैसे ब्रह्माण्ड उन्होंने देखे हैं वे सुनिए । कई सृष्टि तो उन्होंने उत्पन्न होती देखीं और कई प्रलय होती देखीं । कितनों के उपजने का आरम्भ देखा जैसे नूतन अंकुर निकलता है; कहीं जल ही जल है; कहीं अन्धकार ही है-प्रकाश नहीं; कहीं सब व्यवहार संयुक्त हैं और वेदशास्त्र के अपूर्व कर्म हैं । कहीं आदि ईश्वर ब्रह्मा हैं उनसे सब सृष्टि हुई है; कहीं आदि ईश्वर विष्णु हैं उनसे सब सृष्टि हुई और कहीं आदि ईश्वर सदाशिव हैं । इसी प्रकार कहीं और प्रजापति से उपजते हैं; कहीं नाथ को कोई नहीं मनाते सब अनीश्वरवादी हैं; कहीं तिर्यक् ही जीव रहते हैं; कहीं देवता ही रहते हैं और कहीं मनुष्य ही रहते हैं । कहीं बड़े आरम्भ करके सम्पन्न हैं और कहीं शून्यरूप हैं । हे रामजी! इसी प्रकार उन्होंने अनेक सृष्टि चिदाकाश में उत्पन्न होती देखीं जिनकी संख्या करने को कोई समर्थ नहीं; चिदात्मा में आभासरूप फुरती हैं और जैसे फुरना होती है उसके अनुसार फुरती हैं ।   

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे ब्रह्माण्डवर्णनन्नाम चतुर्विंशतितमस्सर्गः ॥२४॥

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गगननगरयुद्धवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार दोनों देवियाँ राजा के जगत् में आकर अपने मण्डप स्थानों को देखती भईं । जैसे सोया हुआ जाग के देखता है वैसे ही जब अपने मण्डप में उन्होंने प्रवेश किया तब क्या देखा कि राजा का शव फूलों से ढाँपा हुआ पड़ा है । अर्द्धरात्रि का समय है; सब लोग गृह में सोये हुए हैं और राजा पद्म के शव के पास लीला का शरीर पड़ा है । और अन्तःपुर में धूप, चन्दन, कपूर और अगर की सुगन्ध भरी है तब वे विचारने लगी कि वहाँ चलें जहाँ राजा राज्य करता है। उसकी पुर्यष्टक में विदूरथ का अनुभव हुआ था,उस संकल्प के अनुसार विदूरथ की सृष्टि देखने को देवी के साथ लीला चली और अन्तवाहक शरीर से आकाशमार्ग को उड़ीं । जाते जाते ब्रह्माण्ड की बाट को लाँघ गईं तब विदूरथ के संकल्प में जगत् को देखा । जैसे तालाब में सेवार होती है वैसे ही उन्होंने जगत् को देखा । सप्तद्वीप नवखण्ड, सुमेरुपर्वत, द्वीपादिक सब रचना देखी और उसमें जम्बूद्वीप और भरतखण्ड और उसमें विदूरथ राजा का मण्डपस्थान देखती भईं । वहाँ उन्होंने राजा सिद्ध को भी देखा कि राजा विदूरथ की पृथ्वी की कुछ हद उसके भाइयों ने दबाई थी और उसके लिये सेना भेजी । राजा विदूरथ ने भी सुनके सेना भेजी और दोनों सेना मिलके युद्ध करने को आई है; देवता विमानों पर आरूढ़ और सिद्ध, चारण, गन्धर्व और विद्याधर शास्त्रों को छोड़ देखने को स्थित भये हैं । विद्याधरी और अप्सरा भी आई हैं कि जो शूरमा युद्ध में प्राणों को त्यागेंगे हम उनको स्वर्ग में ले जावेंगी । रक्त और माँस भोजन करने को भूत, राक्षस, पिशाच, योगिनियाँ भी आन स्थित भई हैं । हे रामजी! शूर पुरुष तो स्वर्ग के भूषण हैं और अक्षयस्वर्ग को भोगेंगे और जिनका मरना धर्मपक्ष से संग्राम में होगा वह भी स्वर्ग को जावेंगे । इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! शूरमा किसको कहते हैं और जो युद्ध करके स्वर्ग को नहीं प्राप्त होते वे कौन हैं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो शास्त्र युक्ति से युद्ध नहीं करते और अनर्थरूपी अर्थ के निमित्त युद्ध करते हैं सो नरक को प्राप्त होते हैं और जो धर्म, गौ, ब्राह्मण, मित्र, शरणागत और प्रजा के पालन के निमित्त युद्ध करते हैं वे स्वर्ग के भूषण हैं । वे ही शूरमा कहाते हैं और मरके स्वर्ग में जाते हैं और स्वर्ग में उनका यश बहुत होता है । जो पुरुष धर्म के अर्थ युद्ध करते हैं वे अवश्य स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं वे मूर्ख हैं । स्वर्ग को वही जाते हैं जिनका मरना धर्म के अर्थ हुआ है । जो किसी भोग के अर्थ युद्ध करते हैं सो नरक को ही प्राप्त होते हैं ।    

इति श्रीयोगवाशिष्ठे लीलोपाख्याने गगननगरयुद्धवर्णनन्नाम पञ्चविंशतितमस्सर्गः ॥२५ ॥

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रणभूमिवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दोनों देवियों ने रणसंग्राम में क्या देखा कि एक महा शून्य वन है उसमें जैसे दो बड़े समुद्र उछलकर परस्पर मिलने लगें वैसे ही दोनों सेना जुड़ी हैं । तब उन्होंने क्या देखा कि सब योधा आन स्थित हुए हैं और मच्छव्यूह और गरुड़व्यूह चक्रव्यूह भिन्न भिन्न भाग करके दोनों सेना के योधा एक एक होकर युद्ध करने लगे हैं । प्रथम परस्पर देख एक ने कहा कि यह बाण चलाव और दूसरे ने कहा कि नहीं तू चला; उसने कहा नहीं तू ही प्रथम चला । निदान सब स्थिर हो रहे, मानो चित्र लिखे छोड़े हैं । इसके अनन्तर दोनों सेना के और योधा आये मानों प्रलयकाल के मेघ उछले हैं उनके आने से एक-एक योधा की मर्यादा दूर हो गई सब इकट्ठे युद्ध करने लगे और बड़े शस्त्रों के प्रवाह करने लगे । कहीं खंगों के प्रहार चलते थे और कहीं कुल्हाड़े, त्रिशूल, भाले, बरछियाँ, कटारी, छूरी, चक्र, गदादिक शस्त्र बड़े शब्द करके चलाने लगे । जैसे मेघ वर्षाकाल में वर्षा करते हैं वैसे ही शस्त्रों की वर्षा होने लगी । हे रामजी! प्रलयकाल के जितने उपद्रव थे सो सब इकट्ठे हुए । योधा युद्ध की ओर आये और कायर भाग गये । निदान ऐसा संग्राम हुआ कि अनेकों योधाओं के शिर काटे गये और उनके हस्ती घोड़े मृत्यु को प्राप्त हुए । जैसे कमल के फूल काटे जाते हैं वैसे ही उनके शीश काटे जाते थे । तब दोनों सेनाओं के राजा चिन्ता करने लगे कि क्या होगा । हे रामजी! इस युद्ध में रुधिर की नदियाँ चलीं, उनमें प्राणी बहते जाते थे और बड़े शब्द करते थे जिनके आगे मेघों के शब्द भी तुच्छ भासते थे । हे रामजी! दोनों देवियाँ संकल्प के विमान कल्प के आकाशमें स्थित हुई तो क्या देखा कि ऐसा युद्ध हुआ है जैसे महाप्रलय में समुद्र एक रूप हो जाते हैं । और बिजली की नाईं शस्त्रों का चमत्कार होता था । जो शूरवीर हैं उनके रक्त की जो बूँदियाँ पृथ्वी पर पड़ती हैं उन बूँदों में जितने मृत्तिका के कणके लगे होते हैं उतने ही वर्ष वे स्वर्ग को भोगेंगे । जो शुरमा युद्ध में मृतक होते थे उनको विद्याधरियाँ स्वर्ग को ले जाती थीं और देवगण स्तुति करते थे कि ये शूरमा स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं और अक्षय अर्थात् चिरकाल स्वर्ग भोगेंगे । हे रामजी! स्वर्गलोक के भोगमन में चिन्तन करके शूरमा हर्षवान् होते थे और युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र चलाते और सहन करते थे और फिर युद्ध के सम्मुख धीरज धरके स्थित होते थे । जैसे सुमेरु पर्वत धैर्यवान् और अचल स्थित है उससे भी अधिक वे धैर्यवान् थे । संग्राम में योधा ऐसे चूर्ण होते थे जैसे कोई वस्तु उखली में चूर्ण होती है परन्तु फिर सम्मुख होते और बड़े हाहाकार शब्द करते थे हस्ती से हस्ती परस्पर युद्ध करते शब्द करते थे । हे रामजी! इसी प्रकार अनेक जीव नाश को प्राप्त हुए । जो शूरमा मरते थे उनको विद्याधरियाँ स्वर्ग को ले जाती थीं । निदान परस्पर बड़े युद्ध हुए । खंगवाले खंगवाले से और त्रिशूलवाले त्रिशूलवाले से युद्ध करते । जैसा-जैसा शस्त्र किसी के पास हो वैसे ही उसके साथ युद्ध करें और जब शस्त्र पूर्ण हो जावें तो मुष्टि के साथ युद्ध करें । इसी प्रकार दशों दिशाएँ युद्ध से परिपूर्ण हुईं ।     

इति श्रीयोगवाशिष्ठे लीलोपाख्याने रणभूमिवर्णनन्नाम षड्विंशतितमस्सर्गः ॥२५॥

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द्वन्द्वयुद्धवर्णन

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार बड़ा युद्ध हुआ तो गंगाजी के समान शूरमों के रुधिर का तीक्ष्ण प्रवाह चला और उस प्रवाह में हस्ती, घोड़े, मनुष्य, रथ सब बहे जाते थे और सेना नाश को प्राप्त होती जाती थी । हे रामजी! उस समय बड़ा क्षोभ उदय हुआ और राक्षस, पिशाचादिक तामसी जीव माँस भोजन करते और रुधिर पान करते आनन्दित होते थे । जैसे मन्दराचल पर्वत से क्षीरसमुद्र को क्षोभ हुआ था वैसे ही युद्ध    संग्राम में योद्धाओं का क्षोभ हुआ और रुधिर का समुद्र चला । उसमें हस्ती, घोड़े, रथ और शूरमा तरंगों की नाईं उछलते दृष्टि आते थे । रथवालों से रथवाले; घोड़ेवालों से हस्तीवाले और प्यादे से प्यादे युद्ध करते थे । हे रामजी! जैसे प्रलयकाल की अग्नि में जीव जलते हैं वैसे ही जो योधा रणभूमि में आवें सो नाश को प्राप्त हों । जैसे दीपक में पतंग प्रवेश करता है और जैसे समुद्र में नदियाँ प्रवेश करती हैं वैसे ही रणभूमि में दशों दिशाओं के योद्धा प्रवेश करते थे । किसी का शीश काटा जावे और धड़ युद्ध करे; किसी की भुजा काटी जायें और किसी के ऊपर रथ चले जावें और हस्ती, घोड़े, उलट-उलट पड़े और नाश हो जावें । हे रामजी । दोनों राजाओं की सहायता के निमित्त पूर्वदिशा, काशी, मद्रास, भीला; मालव, सकला, कवटा, किरात, म्लेच्छ, पारसी, काशमीर, तुरक, पञ्जाब, हिमालय पर्वत; सुमेरुपर्वत इत्यादि के अनेक देशपाल, जिनके बड़े भुजदण्ड, बड़े केश और बड़े भयानक रूप थे युद्ध के निमित्त आये । बड़ी ग्रीवावाले, एकटँगे; एकाचल, एकाक्ष, घोड़े के मुखवाले, श्वान के मुखवाले और कैलास के राजा और जितने कुछ पृथ्वी के राजा थे सो सब आये । जैसे महाप्रलय के समुद्र उछलते हैं और दिशा स्थान जल से पूर्ण होते हैं वैसे ही सेना से सब स्थान पूर्ण हुए और दोनों ओर से युद्ध करने लगे । चक्रवाले चक्रवाले से और खङ्ग, कुल्हाड़े, त्रिशूल, छुरी, कटारी, बरछी, गदा, वाणादिक शस्त्रों से परस्पर युद्ध करने लगे । एक कहे कि प्रथम मैं जाता हूँ, दूसरा कहे कि में प्रथम आता हूँ । हे राम जी! उस काल में ऐसा युद्ध होने लगा कि कहने में नहीं आता । दौड़ दौड़ के योद्धा रण में ज&#