श्रीयोगवाशिष्ठ चतुर्थ
स्थिति
प्रकरण
श्रीयोगवाशिष्ठ चतुर्थ
स्थिति प्रकरण
प्रारम्भ
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयारूप वर्णन
दामव्यालकटोपाख्याने
देशाचारवर्णन
दाम, व्याल, कटोपाख्यानसमाप्ति वर्णन
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
अब
स्थितिप्रकरण
सुनिये जिसके
सुनने से जगत्
निर्वाणता को प्राप्त
हो । कैसा
जगत् है कि
जिसके आदि
अहन्ता है ।
ऐसा जो
दृश्यरूप
जगत् है सो भ्रान्तिमात्र
है । जैसे
आकाश में नाना
प्रकार के
रंगों सहित
इन्द्रधनुष
असत्रूप है
तैसे ही यह
जगत् है ।
जैसे दृर्टा
बिना अनुभव
होता है और
निद्रा बिना
स्वप्न और भविष्यत्
नगर भासता है
तैसे जगत्
स्थित हुआ है
। जैसे वानर
रेत इकट्ठी
करके अग्नि की
कल्पना हैं पर
उससे शीत
निवृत्त नहीं
होती, भावनामात्र
अग्नि होती है,
तैसे ही यह
जगत्
भावनामात्र
है । जैसे
आकाश में रत्न
मणि का प्रकाश
और
गन्धर्वनगर
भासता है और
जैसे
मृगतृष्णा की
नदी भासती है
तैसे ही यह
असत्रूप
जगत् भ्रम से
सत्रूप हो भासता
है । जैसे दृढ़
अनुभव से
संकल्प भासता
है पर वह असत्रूप
है और जैसे
कथा के अर्थ
चित्त में
भासते हैं
तैसे ही
निःसार रूप जगत्
चित्त में
साररूप हो
भासता है । जैसे
स्वप्न में
पहाड़ और
नदियाँ भास
आती हैं, तैसे
ही सब भूत बड़े
भी भासते हैं
पर आकाशवत्
शून्यरूप हैं
। स्वप्न में
अंगना से प्रेम
करना अर्थ से
रहित और असत्
रुप है सिद्ध
नहीं होता
तैसे ही यह भी
प्रत्यक्ष भासता
है परन्तु
वास्तव में
कुछ नहीं, अर्थ
से रहित है
जैसे चित्र की
लिखी कमलिनी
सुगन्ध से
रहित होती है
तैसे ही यह
जगत् शून्यरूप
है । जैसे
आकाश में
इन्द्रधनुष
और केले का
थम्भ सुन्दर
भासता है
परन्तु उस में
कुछ सार नहीं
निकलता तैसे
ही यह जगत्
देखने में
रमणीय भासता
है परन्तु
अत्यन्त असत्रूप
है, इसमें
सार कुछ नहीं
निकलता । देखने
में प्रत्यक्ष
अनुभव होता है
परन्तु
मृगतृष्णा की
नदीवत् असत्रूप
है । रामजी ने
पूछा, हे
भगवन्!सर्व
संशयों के
नाशकर्ता! जब
महाकल्प क्षय
होता है तब
दृश्यमान सब
जगत् आत्मरूप
बीज में लीन
होता है ।
जैसे बीज में
अंकुर रहता है,
उससे उपजता
है उसी में
स्थित होता है
और फिर उसी
में लीन होता
है । यह
बुद्धि ज्ञान
की है अथवा अज्ञान
की? सर्व
संशयों की
निवृत्ति के
अर्थ मुझसे
स्पष्ट करके
कहिये ।
वशिष्ठजी बोले,
हे रामजी!
इस प्रकार
महाकल्प के
क्षय होने पर
बीजरूप आत्मा
में जगत्
स्थित होता है
। जो ऐसा कहते
हैं वह परम
अज्ञानी और महामूर्ख
बालक हैं जो
ब्रह्म को
जगत् का कारण
बीज से अंकुर
की नाईं कहते
हैं वह मूर्ख
हैं । बीज तो
दृश्यरूप
इन्द्रिय का विषय
होता है ।
जैसे बटबीज से
अंकुर होता है
और फिर
विस्तार पाता
है सो
इन्द्रियों का
विषय है और जो
मन सहित षट्
इन्द्रियों
से अतीत है, अर्थात्
इन्द्रियों
का विषय नहीं,
आकाश से भी
अधिक निर्मल
है, उसको
जगत् का बीज
कैसे कहिये? जो आकाश से
भी अधिक
सूक्ष्म, परम
उत्तम अनुभव
से उपलब्ध और
नित्य
प्राप्त है
उसको बीजभाव कहना
नहीं बनता ।
हे रामजी!
जोकि शान्त, सूक्ष्म, सदा
प्रकाशसत्ता
है और जिसमें दृश्य
जगत् असत्रूप
है उसको
बीजरूप कैसे
कहिये? और
जब बीजरूप
कहना नहीं बनता
तब उसे जगत्
कैसे कहिये? आकाश से भी
अधिक सूक्ष्म
निर्मल परमपद
में सुमेरु, समुद्र, आकाश
आदिक जगत्
नहीं बनता ।
जो किञ्चन और
अकिञ्चन है और
निराकार, सूक्ष्म
सत्ता है
उसमें
विद्यमान
जगत् कैसे हो?
वह महासूक्ष्मरूप
है और दृश्य
उससे विरुद्धरूप
है जैसे धूप
में छाया नहीं,
जैसे सूर्य
में अंधकार
नहीं, जैसे
अग्नि में बरफ
नहीं, और
जैसे अणु में
सुमेरु नहीं
होता, तैसे
ही आत्मामें
जगत् नहीं
होता । सत्यरूप
आत्मा में
असत्यरूप
जगत् कैसे हो?
वट का बीज
साकाररूप
होता है और निराकाररूप
आत्मा में
साकाररूप
जगत् होना अयुक्त
है! हे रामजी!
कारण दो
प्रकार का
होता है-एक
समवाय कारण और
दूसरा
निमित्तकारण,
आत्मा
दोनों कारणों
से रहित है । निमित्तकारण
तब होता है जब
कार्य से
कर्त्ता भिन्न
हो, पर
आत्मा तो
अद्वैत है, उसके निकट
दूसरी वस्तु
नहीं, वह
कर्त्ता कैसे
हो और किसका हो,
सहकारी भी
नहीं जिससे
कार्य करे, वह तो मन और
इन्द्रियों
से रहित
निराकार अविकृ
तरूप है । और
समवाय कारण भी
परिणाम से
होता है ।
जैसे वट बीज
परिणाम से
वृक्ष होता है,
पर आत्मा तो
अच्युतरूप है ,
परिणाम को
कदाचित् नहीं
प्राप्त होता
तो समवाय कारण
कैसे हो? जायते,
अस्ति, वर्धते,
विपरिणमते,
क्षियते, नश्यति, इनषट्
विकारों से रहित
निर्विकार
आत्मा जगत् का
कारण कैसे हो?
इससे यह
जगत्
अकारणरूप
भ्रान्ति से भासता
है । जैसे
आकाश में
नीलता,सीप
में रूपा और
निद्रादोष से
स्वप्न
दृष्टि भासते हैं
तैसे ही यह
जगत्
भ्रान्ति से
भासता है । और
जब स्वरूप में
जागे तब जगत्भ्रम
मिट जाता है ।
इससे
कारणकार्य
भ्रम को
त्यागकर तुम
अपने स्वरूप
में स्थित हो
। दुर्बोध से
संकल्प रचना
हुई है उसको
त्याग करो और
आदि, मध्य
और अन्त से
रहित जो सत्ता
है उसी में
स्थित हो तब जगत्भ्रम
मिट जावेगा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
जगत् निराकरणन्नाम
प्रथमस्सर्ग
॥1॥
अनुक्रम
वशिष्ठजी
बोले, हे
देवताओं में
श्रेष्ठ, रामजी!
बीज से
अंकुरित्
आत्मा से जगत्
का होना
अंगीकार
कीजिये तो भी
नहीं बनता, क्योंकि
आत्मा
सर्वकल्पनाओं
से रहित महा चैतन्य
और निर्मल
अकाशवत् है, उसको जगत्
का बीज कैसे
मानिये? बीज
के परिणाम में
अंकुर होता है,
और कारण
समवायों से
होता है, आत्मा
में समवाय और
निमित्त
सहकारी कदाचित्
नहीं बनते ।
जैसे बन्ध्या
स्त्री की सन्तान
किसी ने नहीं
देखी तैसे ही आत्मा
से जगत् नहीं
होता । जो
समवाय और
निमित्तकारण
बिना पदार्थ
भासे तो
जानिये कि यह
है नहीं, भ्रान्तिमात्र
भासता है ।
आत्मसत्ता
अपने आप में
स्थित है । और सृष्टि
स्थिति, प्रलय
से
ब्रह्मसत्ता
ही अपने आप
में स्थित है
। जो इस
प्रकार स्थिति
है तो कारण
कार्य का क्रम
कैसे हो और जो
कारण कार्य भाव
न हुआ तो पृथ्वी
आदिक भूत कहाँ
से उपजे? और
जो कारण कार्य
मानिये तो
पूर्व जो
विकार कहे हैं
उनका दूषण आता
है । उससे न
कोई कारण है
और न कार्य है,
कारण कार्य
बिना जो पदार्थ
भासे उसको सत्रूप
जाने । वह
मूर्ख बालक और
विवेक रहित है
जो उसे कार्य
कारण मानता
है- इससे यह
जगत् न आगे था,
न अब है और न
पीछे
होगा-स्वच्छ
चिदाकाशसत्ता
अपने आप में
स्थित है । जब
जगत् का
अत्यन्त अभाव
होता है तब
सम्पूर्ण
ब्रह्म ही
दृष्टि आता है
। जैसे समुद्द
में तरंग
भासते हैं
तैसे ही आत्मा
में जगत्
भासता
है-अन्यथा कारण
कार्यभाव कोई
नहीं और न
प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव
और
अन्योन्याभाव
ही है । प्राग्भाव
उसे कहते हैं
कि जो प्रथम न
हो, जैसे
प्रथम पुत्र
नहीं होता और
पीछे उत्पन्न
होता है । और
जैसे
मृत्तिका से
घट उत्पन्न
होता है ।
प्रध्वंसाभाव
वह है जो प्रथम
होकर नष्ट हो
जाता है, जैसे
घट था और नष्ट
हो गया ।
अन्योन्याभाव
वह है, जैसे
घट में पट का
अभाव है और पट
में घट का
अभाव है । ये
तीन प्रकार के
अभाव जिसके
हृदय में उसको
जगत् दृढ़ होता
है और उसको
शान्ति नहीं
होती । जब
जगत् का
अत्यन्ताभाव
दीखता है तब
चित्त शान्तिमान्
होता है ।
जगत् के
अत्यन्ताभाव
के सिवाय और
कोई उपाय नहीं
और अशेष जगत्
की निवृत्ति
बिना मुक्ति
नहीं होती
सूर्य आदि
लेकर जो कुछ
प्रकाश
पृथ्वी आदिक
तत्त्व, क्षण,
वर्ष, कल्प
आदिक काल और
मैं , यह
रूप, अवलोक,
मनस्कार
इत्यादिक
जगत् सब
संकल्पमात्र
है और कल्प, कल्पक, ब्रह्माण्ड,
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र,
इन्द्र से
कीट
आदिपर्यन्त
जो कुछ जगत्
जाल है वह उपज
उपजकर
अन्तर्धान हो
जाता है ।
महाचैतन्य
परम आकाश में
अनन्त वृत्ति
उठती है जैसे
जगत् के पूर्व
शान्त सत्ता
थी तैसे ही तुम
अब भी जानो और
कुछ नहीं हुआ
। पर माणु के
सहस्त्रांश
की नाईं
सूक्ष्म
चित्तकला है,
उस
चित्तकला में
अनन्त कोटि सृष्टियाँ
स्थित हैं,वही
चित्तसत्ता
फुरने से जगत्रूप
हो भासती है
और प्रकाशरूप
और निराकार
शान्तरूप है,
न उदय होता
है, न अस्त
होता है, न
आता है और न
जाता है । जैसे
शिला में रेखा
होती है तैसे
आत्मा में
जगत् है। जैसे
आकाश में
आकाशसत्ता फुरती
है तैसे ही
आत्मा में
जगत् फुरता है
और आत्मा ही
में स्थित है
। निराकार
निर्विकार रूप
विज्ञान
घनसत्ता अपने
आप में स्थित
और उदय और
अस्त से रहित,
विस्तृतरूप
है । हे रामजी!
जो सहकारी
कारण कोई न
हुआ तो जगत्
शून्य हुआ ऐसे
जानने से सर्व
कलंक कलना
शान्त हो जाती
है । हे रामजी!
तुम दीर्घ
निद्रा में
सोये हो, उस
निद्रा का अभाव
करके
ज्ञानभूमिका
को प्राप्त हो
जाओ । जागे से
निःशोक पद
प्राप्त होगा
।
इति
श्रौयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
स्मृतिबीजोपयासोनाम
द्वितीयस्सर्गः
॥2॥
रामजी
ने पूछा, हे भगवन्!
महाप्रलय के
अन्त और
सृष्टि के आदि
में जो प्रजापति
होता है वह
जगत् को पूर्व
की स्मृति से
उसी भाँति रचता
है तो ये जगत्
स्मृति रूप
क्यों न होवे?
वशिष्ठजी
बोले कि हे
रामजी!
महाप्रलय के
आदि में
प्रजापति
स्मरण करके
पूर्व की नाईं
जगत् रचता है
जो ऐसे मानिये
तो नहीं बनता,
क्योंकि
महाप्रलय में
प्रजापति कहाँ
रहता? जो
आप ही न रहे
उसकी स्मृति
कैसे मानिये?
जैसे आकाश
में वृक्ष
नहीं होता
तैसे ही
महाप्रलय में
प्रजापति
नहीं होता ।
फिर रामजी ने
पूछा, हे
ब्रह्मण्य! जगत्
के आदि में जो
ब्रह्मा था
उसने जगत् रचा,
महाप्रलय
में उसकी
स्मृति का नाश
तो नहीं होता,
वह तो फिर
स्मृति से
जगत् रचता है
आप कैसे कहते
हैं कि नहीं
बनता? वशिष्ठजी
बोले, हे
शुभव्रत, रामजी!
महाप्रलय के
पूर्व जो
ब्रह्मादिक
होते हैं वह महाप्रलय
में सब निर्वाण
हो जाते हैं
अर्थात्
विदेहमुक्त
होते हैं । जो
स्मृति करने वाले
अन्तर्धान हो
गये स्मृति
कहाँ रही और
जो स्मृति
निर्मूल हुई
तो उसको जगत्
का कारण कैसे
कहिये? महाप्रलय
उसका नाम है
जहाँ सर्व
शब्द अर्थ सहित
निर्मूल हो
जाते हैं, जहाँ
सब अन्तर्धान
हो गये तहाँ
स्मृति किसकी
कहिए और जो
स्मृति का
अभाव हुआ तो कारण
किसका किसकी
नाईं कहिये? इससे
सर्वजगत्
चित्त के
फुरने मात्र
है । जब महा प्रलय
होता है तब सब
यत्न बिना ही
मोक्षभागी होते
हैं और जो
आत्मज्ञान हो
तो जगत् के
होते भी
मोक्षभागी
होते हैं पर
जो आत्मज्ञान
नहीं होता तो
जगत् दृढ़ होता
है, निवृत्त
नहीं होता ।
जब दृश्य जगत्
का अभाव होता
है तब स्वच्छ
चैतन्य सत्ता
जो आदि अन्त
से रहित है
प्रकाशती है
और सब जगत् भी
वही रूप भासता
है सर्व में
अनादि सिद्ध ब्रह्मतत्त्व
प्रकाशित है,
उसमें जो
आदि संवेदन
फुरता है वह
ब्रह्मरूप है
और अन्तवाहक
देह विराट्
जगत हो भासता है
। उसका एक
प्रमाणरूप यह
तीनों जगत् है,
उसमें देश,
काल, क्रिया,
द्रव्य, दिन,
रात्रि
क्रम हुआ है ।
उसके अणु में
जो जगत् फुरते
हैं सो क्या
हैं? सब
संकल्परूप है
और
ब्रह्मसत्ता
का प्रकाश है
। जो प्रबुद्ध
आत्मज्ञानी
है उसको सब
जगत् एक ब्रह्मरूप
ही भासता है
और जो अज्ञानी
है उसके चित्त
में अनेक
प्रकार जगत्
की भावना होती
है । द्वैत
भावना से यह
भ्रमता है ।
जैसे ब्रह्माण्ड
के अनेक
परमाणु होते
हैं, उनके
भीतर अनन्त
सृष्टियाँ
हैं और उनके
अन्तर और
अनन्त सृष्टि
हैं तैसे ही
और जो अनन्त सृष्टि
हैं उनके
अन्तर और
अनन्त
सृष्टियाँ फुरती
हैं सो सब
ब्रह्मतत्त्व
का ही प्रकाश
है ।
ब्रह्मरूपी
महासुमेरु है,
उसके भीतर
अनेक जगत्रूपी
परमाणु हैं सो
सब अभिन्न रूप
है । हे रामजी!
सूर्य की
किरणों के
समूह में जो
सूक्ष्म त्रसरेणु
होते हैं उनकी
संख्या
कदाचित् कोई
कर भी सके
परन्तु आदि
अन्त से रहित
जो आत्मरूपी सूर्य
है उसकी
त्रिलोकी
रूपी किरणों
की संख्या कोई
नहीं कर सकता
। जैसे समुद्र
में जल और
पृथ्वी में
धूलि के
असंख्य
परमाणु हैं तैसे
ही आत्मा में
असंख्य
परमाणुरूप सृष्टियाँ
हैं । जैसे
आकाश
शून्यरूप है
तैसे ही आत्मा
चिदाकाश जगत्रूप
है, यह जो मैंने
उसकी सृष्टि
कही है जो
इनको तुम जगत्
शब्द से
जानोगे तो
अज्ञान
बुद्धि है और दुःख
और भ्रम
देखोगे जो
इनको
ब्रह्मशब्द
का अर्थ
जानोगे तो इस
बुद्धि से
परमसार को प्राप्त
होगे ।
सर्वविश्व
ब्रह्म से
फुरता है और
विज्ञानघन
ब्रह्मरूप ही
है, द्वैत नहीं
। जब जागोगे
तब तुमको ऐसे
ही भासेगा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
जगदनन्तवर्णनन्नाम
तृतीयस्सर्गः
॥3॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इन्द्रियों
का जीतना
मोक्ष का कारण
है और किसी
क्रम तथा उपाय
से
संसारसमुद्र
नहीं तरा जाता
। सन्तों के
संग और सत्शास्त्रों
के विचार से जब
आत्मतत्त्व
का बोध होता
है । जब तक
संसार का
अत्यन्त अभाव
नहीं होता तब
तक आत्मबोध
नहीं होता ।
यह मैंने
तुमसे क्रम
कहा है सो
संसारसमुद्र
तरने का उपाय
है । बहुत
कहने से क्या
है सब कर्मों
का बीज मन है, मन में छेदे
से ही सब जगत्
का छेदन होता
है । जब
मनरूपी बीज
नष्ट होता है
तब जगत्रूपी
अंकुर भी नष्ट
हो जाता है ।
सब जगत् मन का
रूप है, इसके
अभाव का उपाय
करो । मलीन मन
से अनेक जन्म के
समूह उत्पन्न
होते हैं और
इसके जीतने से
सब लोकों में
जय होती है ।
सब जगत् मन से
हुआ है, मन
के रहित हुए
से देह भी
नहीं भासती, जब मन से
दृश्य का अभाव
होता है तब मन भी
मृतक हो जाता
है, इसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं ।
हे रामजी!
मनरूपी पिशाच
का नाश और
किसी उपाय से
नहीं होता ।
अनेक कल्प बीत
गये और बीत
जायँगे तब भी
मन का नाश न
होगा । इससे
जब तक जगत्
दृश्यमान है
तब तक इसका
उपाय करे ।
जगत् का
अत्यन्त अभाव
चिन्तना और
स्वरूप आत्मा
का अभ्यास
करना यही परम
औषध है । इस उपाय
से मनरूपी
दृष्टा नष्ट
होता है जब तक
मन नष्ट नहीं
होता तब तक मन
के मोह से जन्म
मरण होता है
और जब ईश्वर
परमात्मा की
प्रसन्नता
होती है तब मन
बन्धन से मुक्त
होता है
सम्पूर्ण
जगत्, मन
के फुरने से
भासता है जैसै
आकाश में
शून्यता और
गन्धर्व नगर
भासते हैं
तैसे ही
संपूर्ण जगत्
मन में भासता
है । जैसे
पुष्प में
सुगन्ध, तिलों
में तेल, गुणी
में गुण और
धर्मी में
धर्म रहते हैं
तैसे ही यह
सत् असत्,स्थूल
सूक्ष्म, कारण,
कार्यरूपी
जगत- मन में
रहता है ।
जैसे समुद्र में
तरंग आकाश में
दूसरा
चन्द्रमा और
मरुस्थल में
मृगतृष्णा का
जल फुरता है
तैसे ही चित्त
में जगत् फुरता
है । जैसे
सूर्य में
किरणें, तेज
में प्रकाश और
अग्नि में
उष्णता है तैसे
ही मन में
जगत् है ।
जैसे बरफ में
शीतलता, आकाश
में शून्यता
और पवन में
स्पन्दता है
तैसे ही मन
में जगत् ।
सम्पूर्ण
जगत् मनरूप है,
मन जगत्रूप
है और परस्पर एकरूप
हैं, दोनों
में से एक
नष्ट हो तब
दोनों नष्ट हो
जाते हैं । जब
जगत् नष्ट हो तब
मन भी नष्ट हो
जाता है ।
जैसे वृक्ष के
नष्ट होने से
पत्र, टास,
फूल, फल
नष्ट हो जाते
हैं और इनके
नष्ट होने से
वृक्ष नष्ट
नहीं होता ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
अंकुरवर्णनन्नाम
चतुर्थस्सर्गः
॥4॥
रामजी
ने पूछा, हे भगवन्!
आप
सर्वधर्मों
के वेत्ता और
पूर्व अपर के
ज्ञाता हैं, मन के फुरने
से जगत् कैसे
होता है और
कैसे हुआ है? दृष्टान्त
सहित मुझसे
कहिये । वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! जैसे
इन्द्र
ब्राह्मण के
पुत्रों की दश
सृष्टि हुईं
और दश ही
ब्रह्मा हुए
सो मन के
फुरने से ही
उपजकर मन के
फुरने में
स्थित हुए और
जैसे लवण राजा
को इन्द्रजाल
की माया से
चाण्डाल की प्रतिमा
दृढ़ होकर भासी
तैसे ही यह जगत्
मन में स्थित
हुआ है । जैसे
मन के फुरने से
चिरकाल
स्वर्ग को
भोगते रहे और अनेक
भ्रम देखे, तैसे ही यह
जगत् मन के
भ्रम से स्थित
हुआ है । रामजी
ने पूछा हे भग वन्!
भृगु ऋषीश्वर
के पुत्र ने
मन के भ्रम से
कैसे स्वर्गसुख
भोगे, यह
कैसे भोग का अधिपति
हुआ है और
कैसे संसार
भ्रम देखा? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! भृगु
के पुत्र का
वृत्तान्त
सुनो । भृगु
और काल का
संवाद मंदराचल
पर्वतमें हुआ
है । एक समय
भृगु मन्दराचल
पर्वत में
जहाँ
कल्पवृक्ष और
मन्दार आदिक वृक्ष,
बहुत
सुन्दर स्थान
और दिव्यमूर्ति
हैं तप करते
थे और शुक्रजी
उनकी टहल करते
थे । जब
भृगुजी
निर्विकल्प समाधि
में स्थित हुए
तब निर्मल
मूर्ति शुक्र एकान्त
जा बैठै । वे
कण्ठ में
मन्दार और
कल्पवृक्षों
के फूलों की माला
पहिरे हुए
विद्या और
अविद्या के
मध्य में स्थित
थे जैसे
त्रिशंकु
राजा चाण्डाल
था, पर
विश्वामित्र
के वर को पाके
जब स्वर्ग में
गया तब
देवताओं ने
अनादर कर उसे
स्वर्ग से
गिरा दिया और
विश्वामित्र
ने देखके कहा
कि वहीं खड़ा
रह इससे वह
भूमि और आकाश
के मध्य में स्थित
रहा, तैसे
ही शुक्र बैठै
तो क्या देखा
कि एक
महासुन्दर
अप्सरा उसके
ऊर्ध्व
स्वर्ग की ओर
चली जाती है ।
जैसे लक्ष्मी
की ओर
विष्णुजी
देखें तैसे ही
अप्सरा को
शुक्र ने देखा
कि
महासुन्दरी
और अनेक
प्रकार के
भूषण और
वस्त्र पहिने
हुए महासुगन्धित
है और
महासुन्दर आकाशमार्ग
भी उससे
सुगन्धित हुआ
है । पवन भी
उसकी स्पर्श
करके सुगन्ध
पसारती है और
महामद से उसके
पूर्ण नेत्र
हैं । ऐसी
अप्सरा को
देखके शुक्र
का मन
क्षोभायमान
हुआ और जैसे पूर्णमासी
के चन्द्रमा
को देखके
क्षीरसमुद्र
क्षोभित होता
है तैसे ही
उसकी वृत्ति अप्सरा
में जा स्थित
हुई और कामदेव
का वाण आ लगा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवसंविद्गमनन्नाम
पञ्चमस्सर्गः
॥5॥
वशिष्ठ
जी बोले, हे रामजी!
इस प्रकार
उसने अप्सरा
को देखके
नेत्र मूँदे और
मनोराज को
फैलाकर चिन्तने
लगा कि यह
मृगनयनी ललना
जो स्वर्ग को
गई है मैं भी
उसके निकट पहुँचू
। ऐसे विचार
के वह उसके
पीछे चला और
जाते जाते मन
से स्वर्ग में
पहुँचा । वहाँ
सुगन्ध सहित
मन्दार और
कल्पतरु, द्रव
स्वर्ण की
नाईं देवताओं
के शरीर और
हास विलास
संयुक्त
स्त्रियाँ
जिनके हरिण की
नाईं नेत्र
हैं देखे ।
मणियों के
समूह की परस्पर
उनमें
प्रतिबिम्ब
पड़ते हैं और
विश्वरूप की
उपमा स्वर्ग
लोक में देखी
। मन्द मन्द
पवन चलती है, मन्दार
वृक्षों में
मञ्जरी
प्रफुल्लित
हैं और
अप्सरागण
विचरती हैं ।
इन्द्र के
सम्मुख गया तो
देखा कि ऐरावत
हस्ती जिसने
युद्ध में
दाँतों से दैत्य
चूर्ण किये
हैं बड़े मद
सहित खड़ा है, देवताओं के
आगे अप्सरा
गान करती हैं,
सुवर्ण के
कमल लगे हुए
हैं । ब्रह्मा
के हंस और
सारस पक्षी
विचरते हैं और
देवताओं के
नायक विश्राम
करते हैं, फिर
लोकपाल, यम,
चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र,
वायु और अग्नि
के स्थान देखे
जिनका
महाज्वालवत्
प्रकाश है ।
ऐरावत् के
दाँतों में
दैत्यों की पंक्ति
देखी, देवता
देखे जो
विमानों पर
आरूढ़ भूषण
पहिने हुए
फिरते हैं और
उनके हार मणियों
से जड़े हुए
हैं । कहीं
सुन्दर
विमानों की
पंक्ति
विचरती हैं, कहीं मन्दार
वृक्ष हैं, कहीं कल्पवृक्ष
हैं, उनमें
सुन्दर लता
हैं, कहीं
गंगा का
प्रवाह चलता है,
उस पर
अप्सरागण
बैठी हैं, कहीं
सुगन्धता
सहित पवन चलता
है, कहीं
झरने में से
जल चलता है, कहीं सुन्दर
नन्दन वन हैं,
कहीं
अप्सरा बैठी
हैं, कहीं
नारद आदिक
बैठे हैं और
कहीं जिन
लोगों ने
पुण्य किये
हैं वे बैठे
सुख भोगते हैं
और विमानों पर
आरूढ़ हुए
फिरते हैं ।
कहीं इन्द्र की
अप्सरा
कामदेव से
मस्त हैं और जैसे
कल्पवृक्ष
में पक्के फल
लगते हैं तैसे
ही रत्न और
चिन्तामणि
लगे हैं, और
कहीं चन्द्रकान्तिमणि
स्रवती है ।
इस प्रकार शुक्र
ने मन से
स्वर्ग की
रचना देखा, मानों त्रिलोक
की रचना यही
है । शुक्र को
देखके इन्द्र
खड़ा हुआ कि
दूसरा भृगु
आया है और बड़े
प्रकाश
संयुक्त
शुक्र की
मूर्ति को
प्रणाम किया
और हाथ पकड़ के
अपने पास बैठा
के बोला, हे
शुक्रजी! आज
हमारे धन्य
भाग है जो तुम
आये । आज
हमारा स्वर्ग
तुम्हारे आने
से सफल, शोभित
और निर्मल हुआ
है । अब तुम
चिरपर्यन्त
यहीं रहो । जब
ऐसे इन्द्र ने
कहा तब
शुक्रजी
शोभित हुए और
उसको देखके
सुरों के समूह
ने प्रणाम
किया कि भृगु
के पुत्र शुक्रजी
आये हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरण
भार्गवमनोराजवर्णनन्नाम
षष्ठस्सर्गः
॥6॥
वसिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जब इस प्रकार
शुक्रजी
इन्द्र के पास
जा बैठे तब
अपना जो निज
भाव था उसको
भुला दिया ।
वह जो
मन्दराचल पर्वत
पर अपना शरीर
था सो भूल गया और
वासना से
मनोराज का
शरीर दृढ़ हो
गया । एक मुहूर्त्त
पर्यन्त
इन्द्र के पास
बैठै रहे
परन्तु चित्त
उस अप्सरा में
रहा । इसके अनन्तर
उठ खड़े हुए और
स्वर्ग को
देखने लगे तब
देवताओं ने
कहा कि चलो
स्वर्ग की
रचना देखो ।
तब शुक्रजी
देखते-देखते
जहाँ वह
अप्सरा थी
वहाँ गये ।
बहुत-सी
अप्सराओं में
वह बैठी थी, उसको
शुक्रजी ने इस
भाँति देखा
जैसे
चन्द्रमा
चाँदनी को
देखे । उसे
देखके शुक्र का
शरीर
द्रवीभूत
होकर प्रस्वेद
से पूर्ण हुआ
जैसे
चन्द्रमा को
देखके
चन्द्रकान्तिमणि
द्रवीभूत
होती है, और
कामदेव के बाण
उसके हृदय में
आ लगे उससे व्याकुल
हो गया ।
शुक्र को देख
के उसका चित्
भी मोहित हो
गया-जैसे
वर्षाकाल की
नदी जल से
पूर्ण होती है
तैसे ही परस्पर
स्नेह बढ़ा ।
तब शुक्रजी ने
मन से तम रचा
उससे सब
स्थानों में
तम हो गया जैसे
लोकालोक
पर्वत के तम
होता है तैसे
ही सूर्य का
अभाव हो गया ।
तब भूतजात सब
अपने अपने
स्थानों में
गये जैसे दिन
के अभाव हुए
पशु-पक्षी
अपने अपने गृह
को जाते हैं
और वह अप्सरा
शुक्र के निकट
आई । शुक्रजी
श्वेत आसन पर
बैठ गये और
अप्सरा भी जो
सुन्दर
वस्त्र और
भूषण पहिने
हुए थी चरणों
के निकट बैठी
और स्नेह से
दोनों कामवश
हुए । तब
अप्सरा ने
मधुर वाणी से
कहा, हे
नाथ! मैं
निर्बल होकर
तुम्हारे शरण
आई हूँ मुझको
कामदेव दहन
करता है, तुम
रक्षा करो, मैं इससे
पूर्ण हो गई
हूँ । स्नेहरूपी
रस को वही
जानता है
जिसको
प्राप्त हुआ
है, जिसको
रस का स्वाद
नहीं आया वह क्या
जाने । हे
साधो! ऐसा सुख
त्रिलोकी में
और कुछ नहीं
जैसा सुख परस्पर
स्नेह से होता
है ।अब
तुम्हारे
चरणों को पाके
मैं
आनन्दवान्
हुई हूँ और
जैसे चन्द्रमा
को पाके
कमलिनी और
चन्द्रमा की
किरणों को
पाके चकोर
आनन्दवान्
होते हैं तैसे
ही मुझको स्पर्श
करके आप आनन्द
होंगे । जब इस
प्रकार अप्सरा
ने कह तब
दोनों काम के
वश होकर क्रीड़ा
करने लगे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवसंगमोनामसप्तमस्सर्गः
॥7॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इस प्रकार
उसको पाके
शुक्र ने आपको
आनन्दवान्
मान, मन्दार
और कल्पवृक्ष
के नीचे
क्रीड़ा की और
दिव्य-वस्त्र,
भूषण और
फूलों की माला
पहिनकर वन, बगीचे और
किनारों में
क्रीड़ा करते
और चन्द्रमा
की किरणों के
मार्ग से अमृत
पान करते रहे
। फिर
विद्याधरों
के गणों के
साथ रह उनके
स्थानों और
नन्दनवन इत्यादि
में क्रीड़ा
करते कैलाश
पर्वत पर गये और
अप्सरा सहित
वन कुञ्ज में
फिरते रहे ।
फिर लोकालोक
पर्वत पर
क्रीड़ा की फिर
मन्दराचल
पर्वत के
कुञ्च में
विचर अर्ध शत
युगपर्यन्त
श्वेतद्वीप
में रहे । फिर
गन्धर्वों के
नगरों में रहे
और फिर इन्द्र
के वन में रहे
। इसी प्रकार
बत्तीस युग
पर्यन्त
स्वर्ग में
रहे, जब
पुण्य क्षीण
हुआ तब
भूमि-लोक में
गिरा दिये गये
और
गिरते-गिरते
उनका शरीर टूट
गया । जैसे झरने
में से जल
बन्द हो तैसे
ही शरीर
अन्तर्धान हो
गया । तब उसकी
चिन्तासंयुक्त
पुर्यष्टक
आकाश में
निराधार हो
रही और वासनारूपी
दोनों
चन्द्रमा की
किरणों में जा
स्थित हुए ।
फिर शुक्र ने
तो किरणों
द्वारा धान्य
में आ निवास
किया और उस
धान्य को दशारण्य
नाम ब्राह्मण
ने भोजन किया
तो वीर्य होकर
ब्राह्मणी के
गर्भ में जा
रहा और उस
धान्य को मालव
देश के राजा
ने भी भोजन
किया उसके
वीर्यद्वारा
वह अप्सरा
उसकी स्त्री
के उदर में जा
स्थित हुई ।
निदान दशारण्य
ब्राह्मण के
गृह में शुक्र
पुत्र हुआ और
मालवदेश के
राजा के यहाँ
अप्सरा
पुत्री हुई ।
क्रम से जब
षोडश वर्ष की
हुई तो महादेव
की पूजा कर यह
प्रार्थना की
कि हे देव! मुझको
पूर्व के
भर्त्ता की
प्राप्ति हो
इस प्रकार वह
नित्य पूजन
करे और वर
माँगे । निदान
वहाँ वह
यौवनवान् हुआ
यहाँ यह
यौवनवती हुई ।
तब राजा ने
यज्ञ को
प्रारम्भ किया
और उसमें सब
राजा और
ब्राह्मण आये
। दशारण्य
ब्राह्मण भी
पुत्रसहित
वहाँ आया तब
उस पूर्वजन्म
के भर्त्ता को
देखकर स्नेह से
राजपुत्री के
नेत्रों से जल
चलने लगा और
उसके कण्ठ में
फूल की माला
डालके उसे
अपना भर्त्ता
किया । राजा
यह देखके आश्चर्यमान
हुआ और निश्चय
किया कि भला
हुआ । फिर
क्रम से विवाह
किया और
पुत्री और
जामातृ को
राज्य देके आप
वन में तप
करने के लिए
चला गया ।
यहाँ ये पुरुष
और स्त्री
मालवदेश का
राज्य करने
लगे और चिरकाल
तक राज्य करते
रहे । निदान
दोनों वृद्ध हुए
और उनका शरीर
जर्जरीभूत हो
गया । तब उसको वैराग्य
हुआ कि स्त्री
महादुःखरूप
है पर उसे
सामान्य
वैराग्य हुआ
था इससे
जर्जरीभूत
अंग में सेवने
से तो अशक्त
हुआ परन्तु
तृष्णा
निवृत्त न हुई
। निदान मृतक
हुआ और
बान्धवों ने
जला दिया तब
ज्ञान की प्राप्ति
बिना
महाअन्धकूप
मोह में जा
पड़े । हे
रामजी!
मृत्यु-मूर्च्छा
के अनन्तर उसको
परलोक भासि
आया और वहाँ
कर्म के
अनुसार सुख
दुःख भोग के
अंग वंग देश
में धीवर हुआ
और अपने
धीवरकर्म
करता रहा ।
फिर जब वृद्ध
अवस्था आई तब
शरीर में
वैराग्य हुआ कि
यह संसार
महादुःखरूप
है ऐसे जानके
सूर्य भगवान्
का तप करने
लगा और जब
मृतक हुआ तब तप
के वश से
सूर्यवंश में
राजा होकर
भावना के वश
से कुछ
ज्ञानवान्
हुआ । इस जन्म में
वह योग करने
और वेद पढ़ने
लगा और योग की
भावना से जब
शरीर छूटा तब
बड़ा गुरू हुआ
और सबको उपदेश
करने लगा, मन्त्र
सिद्ध किया और
वेद में बहुत
परिपक्व हुआ ।
मन्त्र के वश
से वह
विद्याधर हुआ
और एक कल्प
पर्यन्त
विद्याधर रहा
। जब कल्प का अन्त
हुआ तब शरीर
अन्तर्धान हो
गया और पवनरूपी
वासना सहित हो
रहा । जब
ब्रह्मा की रात्रि
क्षय हुई, दिन
हुआ और
ब्रह्मा ने
सृष्टि रची तब
वह एक मुनीश्वर
के गृह में पुत्र
हुआ और वहाँ
उसने बड़ा तप
किया । वह
सुमेरु पर्वत
पर जाकर स्थित
हुआ और एक मन्वन्तर
पर्यन्त वहाँ
रहा । जब
इकहत्तर चौयुगी
बीती तब वह
भोगों के वश
हरिणी का पुत्र
हुआ और मनुष्य
के आकार से
वहाँ रहा और पुत्र
के स्नेह से
मोह को
प्राप्त हो निरन्तर
यही चिन्तना
करने लगा कि
मेरे पुत्र को
बहुत धन, गुण,
आयु, बल
हो, इस
कारण तप के
भ्रष्ट होने
से अपने धर्म
से विरक्त हुआ,
आयुष्य
क्षीण हुई और
मृत्युरूप
सर्प ने ग्रस
तप की अभिलाषा
से शरीर छूटा
इस कारण भोग
की चिन्ता
संयुक्त
मद्रदेश के
राजा के गृह
में उत्पन्न
हुआ, फिर
उस देश का
राजा हुआ और
चिरपर्यन्त
राज्य भोग के
वृद्धावस्था
को प्राप्त
हुआ और शरीर
जर्जरीभूत हो
गया । वहाँ तप
के अभिलाषा
में उसका शरीर
छूटा उससे
तपेश्वर के
गृह में पुत्र
हुआ और सन्ताप
से रहित होकर
गंगाजी के
किनारे पर तप
करने लगा । हे
रामजी । इस
प्रकार मन के
फुरने से
शुक्र ने अनेक
शरीर भोगे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवोपाख्याने
बिविधजन्म
वर्णनन्नाम अष्टमस्सर्गः
॥8॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इस प्रकार
शुक्र मन से
भ्रमता फिरा ।
भृगु के पास
जो उसका शरीर
पड़ा था सो
निर्जीव हुआ
पुर्यष्टक निकल
गई थी और पवन
और धूप से शरीर
जर्जरीभूत हो
गया जैसे मूल
से काटा वृक्ष
गिर पड़ता है, तैसे ही
शरीर गिर पड़ा चञ्चल
मन भोग की
तृष्णा से
वहाँ गया था ।
जैसे हरिण वन
में भ्रमता है
और चक्र पर चढ़ा
वासन भ्रमता
है तैसे ही
उसने भ्रम से
भ्रमान्तर
देखा, पर
जब मुनीश्वर
के गृह में
जन्म लिया तब
चित्त में
विश्राम हुआ
और गंगा के तट पर
तप करने लगा ।
निदान मन्दराचल
पर्वतवाला
शुक्र का शरीर
नीरस हो गया
शरीर
चर्ममात्र
शेष रह गया और
लोहू सूख गया
। जब शरीर के
रन्ध्र मार्ग
से पवन चले तब
बाँसुरीवत्
शब्द हो, मानो
चेष्टा को
त्याग के
आनन्दवान्
हुआ है । जब
बड़ा पवन चले
तब भूमि में
लोटने लगे, नेत्र आदिक
जो रन्ध्र थे
सो गर्तवत् हो
गये और मुख फैल
गया-मानो अपने
पूर्व स्वभाव
को देख के
हँसता है, जब
वर्षाकाल आवे
तब वह शरीर जल
से पूर्ण हो
जावे और जल
उसमें प्रवेश करके
रन्ध्रों के
मार्ग से ऐसे
निकले जैसे झरने
से निकलता है
और जब उष्णकाल
आवे तब
महाकाष्ठ की
नाईं धूप से
सूख जावे ।
निदान वह शरीर
वन में मौनरूप
होकर स्थित रहा
। और
पशु-पक्षियों
ने भी उस शरीर
को नष्ट न
किया । उसका
एक तो यह कारण
था कि
राग-द्वैष से
रहित पुण्य
आश्रम था-और
दूसरे भृगुजी
महातपस्वी
तेजवान् के
निकट कोई आ न
सकता था ।
तीसरे उनके
संस्कार शेष
थे । इस कारण
उस देह को कोई
नष्ट न कर सका
। यहाँ तो
शरीर की यह
दशा हुई और
वहाँ शुक्र
पवन के शरीर
से चेष्टा
करता रहा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे
भार्गवकलेवरवर्णनन्नाम
नवमस्सर्गः ॥9॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जब सहस्त्र
वर्ष अर्थात्
भूमिलोक के
तीनलाख साठ
सहस्त्र वर्ष
बीते तब
भगवान्
भृगुजी समाधि
से उतरे तो उन्हें
शुक्र दृष्टि
न आया । जब भले प्रकार
नेत्र फैलाकर
देखा तब मालूम
हुआ कि उसका
शरीर कृश हो
के गिर पड़ा है
। यह दशा देख
उन्होंने
जाना कि काल
ने इसको भक्षण
किया है और
धूप वायु और
मेघ से शरीर जर्जरीभूत
हो गया है, नेत्र
गढ़ेरूप हो गये
हैं, शरीर
में कीड़े पड़
गये हैं और जीवों
ने उसमें आलय
बनाये हैं ।
घुराण अर्थात्
कुसवारी और
मक्खियाँ
उसमें
आती-जाती हैं,
श्वेत दाँत
निकल आये हैं-मानों
शरीर की दशा
को देखके
हँसते हैं और मुख
और ग्रीवा
महाभयानकरूप,
खपर श्वेत
और नासिका और
श्रवण स्थान
सब जर्जरीभूत
हो गये हैं । उस
शरीर की यह
दशा देख के
भृगुजी उठ खड़े
हुए और क्रोधवान्
होकर कहने लगे
कि काल ने
क्या समझा जो
मेरे पुत्र को
मारा । शुक्र
परम तपस्वी और
सृष्टिपर्यन्त
रहने वाला था
सो बिना काल, काल ने मेरे
पुत्र को
क्यों मारा, यह कौन रीति
है? मैं
काल को शाप
देकर भस्म
करूँगा । तब
महाकाल का रूप
काल अद्भुत
शरीर धरकर आया
। उसके षटमुख,
षटभुजा, हाथ
में खग, त्रिशूल
और फाँसी और
कानों में
मोती पहिने हुए,
मुख से
ज्वाला
निकलती थी, महाश्याम
शरीर
अग्निवत्
जिह्वा और
त्रिशूल के
अग्निकी लपटें
निकलती थीं ।
जैसे
प्रलयकाल की
अग्नि से धूम
निकलता है
तैसे ही उसका
श्याम शरीर और
बड़े पहाड़ की
नाईं उग्ररूप
था और जहाँ वह
चरण रखता था
वहाँ पृथ्वी
और पहाड़
काँपने लगते
थे । निदान
भृगुजी
महाप्रलय के
समुद्रवत्
क्रोध पूर्ण थे,
उनसे कहने
लगा,हे
मुनीश्वर! जो
मर्यादा और
परावर
परमात्मा के
वेत्ता हैं वे
क्रोध नहीं
करते और जो
कोई क्रोध करे
तो भी वे मोह
के वश होकर
क्रोधवान्
नहीं होते ।
तुम कारण बिना
क्यों मोहित होकर
क्रोध को
प्राप्त हुए
हो? तुम
ब्रह्मतनय
तपस्वी हो और
हम नीति के
पालक हैं। तुम
हमारे पूजने
योग्य हो- यही
योग्य हो-यही
नीति की इच्छा
है और तप के बल से
तुम क्षोभ मत
करो, तुम्हारे
शाप से मैं
भस्म भी नहीं
होता । प्रलयकाल
की अग्नि भी
मुझको दग्ध
नहीं कर सकती
तो तुम्हारे
शाप से मैं कब
भस्म हो सकता
हूँ । हे मुनीश्वर!
मैं तो अनेक ब्रह्माण्ड
भक्षण कर गया
हूँ, और कई
कोटि ब्रह्मा,
विष्णु और रुद्र
मैंने ग्रास
लिये हैं, तुम्हारा
शाप मुझको
क्या कर सकता
है? जैसे
आदि नीति ईश्वर
ने रची है
तैसे ही स्थित
है । हम सबके
भोक्ता हुए
हैं और तुमसे
ऋषि हमारे भोग
हुए हैं, यही
आदि नीति है ।
हे मुनीश्वर!
अग्नि स्वभाव
से ऊर्ध्व को
जाता है और जल स्वभाव
से अधः को
जाता है, भोक्ता
को भोग
प्राप्त होता
और सब सृष्टि
काल के मुख
में प्राप्त
होती है । आदि
परमात्मा की
नीति ऐसे ही
हुई है और
जैसे रची है
तैसे ही स्थिति
है पर जो निष्कलंक
ज्ञानदृष्टि
से देखिये तो
न कोई कर्त्ता
है,न
भोक्ता है,न
कारण है, न
कार्य है, एक
अद्वैतसत्ता
ही है और जो
अज्ञान
कलंकदृष्टि
से देखिये तो कर्ता
भोक्ता अनेक
प्रकार भ्रम
भासते हैं, हे ब्राह्मण!
कर्त्ता
भोक्ता आदिक
भ्रम असम्यक्
ज्ञान से होता
है, जब
सम्यक् ज्ञान
होता है तब
कर्त्ता, कार्य
और भोक्ता कोई
नहीं रहता ।
जैसे वृक्ष
में पुष्प
स्वभाव से उपज
आते हैं और
स्वभाव से ही नष्ट
हो जाते हैं
तैसे ही भूत
प्राणी
सृष्टि में
स्वाभाविक
फुर आते हैं
और फिर स्वाभाविक
रीति से ही
नष्ट हो जाते
हैं । ब्रह्मा
उत्पन्न करता
है और नष्ट भी करता
है । जैसे
चन्द्रमा का
प्रतिबिम्ब
जल के हिलने
से हिलता
भासता है और
ठहरने से ठहरा
भासता है तैसे
ही मन के
फुरने से
आत्मा में कर्त्तव्य
भोक्तव्य
भासता है वास्तव
में कुछ नहीं,
सब मिथ्या
है । जैसे
रस्सी में
सर्प भ्रम से
भासता है तैसे
ही आत्मा में
कर्त्तव्य
भोक्तव्य
भ्रम से भासता
है । इससे
क्रोध मत करो,
यह
दुष्टकर्म आपदा
का कारण है । हे
मुनीश्वर! मैं
तुमको यह वचन
अपनी विभूति
और अभिमान से
नहीं कहता ।
यह स्वतः ईश्वर
की नीति है और
हम उसमें
स्थित हैं ।
जो बोधवान्
पुरुष हैं वे
अपने प्रकृत आचार
में विचरते
हैं और अभिमान
नहीं करते ।
जो कर्त्तव्य
के वेत्ता हैं
वे बाहर से प्रकृत
आचार करते हैं
और हृदय से
सुषुप्ति की नाईं
स्थित रहते
हैं । वह
ज्ञानदृष्टि धैर्य
और उदार
दृष्टि कहाँ
गई जो शास्त्र
में प्रसिद्ध
है? तुम
क्यों अन्धे
की नाई स्थित
रहते हैं । वह
ज्ञान दृष्टि,
धैर्य और
उदार दृष्टि
कहाँ गई जो
शास्त्र में प्रसिद्ध
है? तुम
क्यों अन्धे
की नाईं
मोहमार्ग में
मोहित होते हो?
हे साधो!
तुम तो
त्रिकालदर्शी
हो, अविचार
से मूर्ख की
नाईं जगत् में
क्यों मोह को
प्राप्त होते हो?
तुम्हारा
पुत्र अपने
कर्मों के फल
को प्राप्त
हुआ है और तुम
मूर्ख की नाईं
मुझको शाप देना
चाहते हो । हे
मुनीश्वर! इस
लोक में सब
जीवों के
दो-दो शरीर
हैं- एक मनरूप
और दूसरा
आधिभौतिक ।
आधिभौतिक
शरीर अत्यन्त
विनाशी है और
जहाँ इसको मन
प्रेरता है
वहाँ चला जाता
है-आपसे कुछ
कर नहीं सकता
। जैसे सारथी
भला होता है
तो रथ को भले
स्थान को ले
जाता है और जो
सारथी भला नहीं
होता तो रथ को
दुःख के स्थान
में ले जाता
है तैसे ही
यदि जो मन भला
होता है तो
उत्तम लोक में
जाता है जो
दुष्ट होता है
तो नीच स्थान
में जाता है ।
जिसको मन असत्
करता है सो
असत् भासता है
और जिसको मन
सत् करता है
वह सत् भासता
है । जैसे
मिट्टी की
सेना बालक
बनाते और फिर
भंग करते हैं,
कभी सत्
करते, कभी
असत् करते हैं
और जैसे करते
हैं तैसे ही देखते
हैं, तैसे
ही मन की
कल्पना है ।
हे साधो!
चित्तरूपी
पुरुष है, जो
चित्त करता है
वह होता है और
जो चित्त नहीं
करता वह नहीं
होता । यह जो
फुरना है कि
यह देह है, ये
नेत्र हैं; ये अंग हैं
इत्यादिक सब
मनरूप हैं ।
जीव भी मन का
नाम है और मन
का जीना जीव
है । वही मन की
वृत्ति जब
निश्चयरूप होती
है तब उसका
नाम बुद्धि
होता है, जब
अहंरूप धारती
है तब उसका
नाम अहंकार
होता है और जब
देह को स्मरण
करती है तब उसका
नाम चित्त
होता है ।
इससे पृथ्वी
रूपी शरीर कोई
नहीं, मन
ही दृढ़ भावना
से शरीररूप
होता है और
वही आधिभौतिक
हो भासता है और
जब शरीर की
भावना को
त्यागता है तब
चित्तपरमपद
को प्राप्त
होता है । जो
कुछ जगत है वह
मन के फुरने
में स्थित है,
जैसा मन फुरता
है तैसा ही
रूप हो भासता है
। तुम्हारे
पुत्र शुक्र
ने भी मन के
फुरने से अनेक
स्थान देखे
हैं । जब तुम समाधि
में स्थित थे
तब वह
विश्वाची
अप्सरा के पीछे
मन से चला गया
और स्वर्ग में
जा पहुँचा
।फिर देवता
होकर
मन्दारवृक्षों
में अप्सरा के
साथ विचरने
लगा और फिर
पारिजात तमाल
वृक्ष और
नन्दन वन में
विचरता रहा ।
इसी प्रकार
बत्तीस युग
पर्यन्त
विश्वाची अप्सरा
के साथ
लोकपालों के
स्थान
इत्यादिक में
विचरता रहा और
जैसे भँवरा
कमल को सेवता
है तैसे ही
तीव्र संवेग
से भोग भोगता
रहा । जब
पुण्य क्षीण
हुआ तब वहाँ
से इस भाँति
गिरा जैसे
पक्का फल
वृक्ष से
गिरता है । तब
देवता का शरीर
आकाशमार्ग
में अन्तर्धान
हो गया और
भूमिलोक में आ
पड़ा । फिर धान
में आकर
ब्राह्मण के
वीर्य द्वारा
ब्राह्मणी का
पुत्र हुआ, फिर मालवदेश
का राज्य किया
और फिर धीवर
का जन्म पाया
। फिर
सूर्यवंशी
राजा हुआ, फिर
विद्याधर हुआ
और कल्प
पर्यन्त
विद्याधरों
में विद्यमान
रहा और फिर
विन्ध्याचल
पर्वत में लय
होकर क्रान्त
देश में धीवर
हुआ । फिर तरंगीत
देश में राजा
हुआ,फिर
क्रान्तदेश
में हरिण हुआ
और वनमें
विचरा और फिर विद्यामान्
गुरु हुआ ।
निदान
श्रीमान्
विद्याधर हुआ
और कुण्डलादि
भूषणों से
सम्पन्न बड़ा
ऐश्वर्यवान्
गन्धर्वों का
मुनिनायक हुआ
और कल्प
पर्यन्त वहाँ
रहा । जब
प्रलय होने
लगी तब पूर्व
के सब लोक
भस्म हो
गये-जैसे अग्नि
में पतंग भस्म
होते हैं-तब तुम्हारा
पुत्र
निराधार और
निराकार
वासना से
आकाशमार्ग
में भ्रमता
रहा । जैसे
आलय बिना
पक्षी रहता है
तैसे ही वह
रहा और जब
ब्रह्मा की
रात्रि
व्यतीत हुई और
सृष्टि की
रचना बनी तब
वह सतयुग में
ब्राह्मण का
बालक
वसुदेवनाम हो
गंगा के तट पर
तप करने लगा
।अब उसे आठसौ
वर्ष तप करते
बीते हैं, जो
तुम भी
ज्ञानदृष्टि
से देखोगे तो सब
वृत्तान्त
तुमको भास आवेगा
। इससे देखो
कि इसी प्रकार
है अथवा किसी
और प्रकार है
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
कालवाक्यन्नामदशमस्सर्गः
॥10॥
काल
बोले, हे
मुनीश्वर? ऐसी
गंगा के तट पर
जिसमें
महातरंग
उछलते और झनकार
शब्द होते हैं
तुम्हारा
पुत्र तप करता
है । शिर पर
उसके बड़ी जटा
हैं और सर्व
इन्द्रियों को
उसने जीत लिया
है । जो तुमको
उसके मन के
विस्तार
देखने की
इच्छा है तो
इन नेत्रों को
मूँदकर ज्ञान
के नेत्रों से
देखो । हे
रामजी! जब इस
प्रकार जगत के
ईश्वर काल ने,
जिसकी
समदृष्टि है,
कहा, तब
मुनीश्वर ने
नेत्रों को
मूँदकर, जैसे
कोई अपनी
बुद्धि में
प्रतिबिम्ब
देखे,
ज्ञाननेत्रों
से एक
मुहूर्त्त
में अपने पुत्र
का सब
वृत्तान्त
देखा और फिर
मन्दराचल
पर्वत पर जो
भृगुशरीर पड़ा
था उसमें
प्रवेशकर अन्तवाहक
शरीर से अपने
अग्रभाग में
काल भगवान् को
देखकर पुत्र
को गंगा के तट
पर देखा । यह
दशा देख वह
आश्चर्य को
प्राप्त हुआ और
विकारदृष्टि
को त्यागकर
निर्मलभाव से
वचन कहे । हे
भगवन्! तीनों
काल के ज्ञाता
ईश्वर! हम
बालक हैं , इसी
से निर्दोष हैं
। तुम सरीखे
बुद्धिमान्
और तीन काल
अमलदर्शी हैं
। हे भगवन्!
ईश्वर की माया
महाआश्चर्यरूप
है जो जीवों
को अनेक भ्रम
दिखाती है और
बुद्धिमान्
को भी मोह
करती है तो
मूर्खों की
क्या बात है? तुम सब कुछ
जानते हो, जीवों
की सब
वार्त्ता
तुम्हारे अन्तर्गत
है । जैसी
जीवों के मन
की वृत्ति होती
है उसके
अनुसार वे
भ्रमते हैं ।
वह मन की सब
तुम्हारे
अन्तर्गत
फुरती है ।
जैसे इन्द्रजाली
अपनी बाजी का
वेत्ता होता है
तैसे ही तुम
इन सबों के
वेत्ता हो ।
हे भगवन्!
मैंने भ्रम को
प्राप्त होकर क्रोध
इस कारण से
किया कि मेरे
पुत्र की
मृत्यु न थी
वह चिरञ्जीवी
था और उसको
मैं मृतक हुआ
देखके भ्रम को
प्राप्त हुआ ।
हमारा क्रोध
आपदा का कारण
नहीं था , क्योंकि
जब मैंने
पुत्र का शरीर
निर्जीव देखा
तब कहा कि
अकारण मृतक
हुआ इस कारण
क्रोध हुआ । क्रोध
भी नीतिरूप है
अर्थात् जो
क्रोध का स्थान
हो वहाँ क्रोध
चाहिए । मैंने
विचार के
क्रोध नहीं
किया है
अर्थात्
पुत्र की अवस्था
देख के क्रोध
किया,निर्जीव
शरीर को देखके
क्रोध किया, इसी से यह
क्रोध आपदा का
कारण नहीं ।
अयुक्ति कारण
से जो क्रोध
होता वह आपदा
का कारण है और
युक्ति से जो
क्रोध है वह
सम्पदा का
कारण है यह
कर्त्तव्य
संसार की
सत्ता में
स्थित है । यह
नीति है कि जब
तक जीव है तबतक
जगत् क्रम है
जैसे जब तक
अग्नि है तब
तक उष्णता भी
है । जो
कर्तव्य है वह
करना है और जो त्यागने
योग्य है वह
त्यागना है । यह
नीति जगत् में
स्थित है । जो
हेयोपादेय
नहीं जानता
उसको त्यागना
योग्य है ।
इससे मैंने
पुत्र की
अकालमृत्यु
देखके क्रोध
किया था
परन्तु विचार
करके जब तुमने
स्मरण कराया
तब मैंने
विचार करके
देखा कि मेरा
पुत्र अनेक
भ्रम पाकर अब
गंगा के तट पर
तप करता है ।
हे भगवन्!
तुमने तो कहा
कि सब जीवों
के दो-दो शरीर
हैं-एक मनोमय
और दूसरा
आधिभौतिक, पर
मैं तो यह
मानता हूँ कि
केवल मन ही एक
शरीर है, दूसरा
कोई नहीं ।
मनही का किया
सफल होता है, शरीर का
नहीं होता ।
काल बोले, हे
मुनीश्वर! तुमने
यथार्थ कहा, शरीर एक मन
ही है । जैसे
घट को कुलाल
रचता है, तैसे
ही मन भी देह को
रचता है ।जो
मन शरीर से
रहित निराकार
होता है तो
क्षण में आकार
को रच लेता है
। जैसे बालक
परछाहीं में
वैताल को भ्रम
से रचता है।
मन में जो
फुरनसत्ता है
वह स्वप्न भ्रम
दिखाती है और
उसमें बड़े
आकार और
गन्धर्व नगर
भासि आते हैं
पर वह मन ही की सत्ता
है । स्थूल
दृष्टि से
जीवों को दो
शरीर भासते
हैं बोधवान्
को तीनों जगत्
मन रूप भासते
हैं और सब मन
से रचे हैं ।
जब भेदवासना
होती हे तब
असत्रूप
जगत् नाना प्रकार
हो भासता है ।
जैसे असम्यक्
दृष्टि से दो
चन्द्रमा
भासते हैं
तैसे ही
सम्यक् दर्शी
को एक
चन्द्रमावत्
सब शान्तरूप
आत्मा ही
भासता है और
भेदभावना से
घट पट आदिक अनेक
पदार्थ भासते
हैं कि मैं
दुर्बल हूँ व
मोटा हूँ,सुखी
हूँ व दुःखी
हूँ, यह
जगत् है यह
काल है, इत्यादिक
सो संसार
वासनामात्र
है । जब मन शरीर
की वासनाको
त्यागकर परमार्थ
की ओर आता है
तब भ्रम को
नहीं प्राप्त
होता । हे
मुनिवर!
समुद्र से
तरंग उठकर
उर्ध्व को
जाता है, जो
वह जाने मैं
तरंग होता हूँ
तो मूर्ख
है-यही अज्ञान
दृष्टि है ।
ऊर्ध्व को
जावेगा तब
जानेगा मैं ऊर्ध्व
को गया हूँ, नीचे जावेगा
तब जानेगा मैं
पाताल को गया
हूँ, यह
कल्पना ही
अज्ञान है, वास्तव नहीं
। वास्तव
दृष्टि यह है
जो अधः हो
अथवा उर्ध्व
हो परन्तु
आपको जलरूप
जाने । तैसे
ही जो पुरुष
परिच्छेद
देहादिक में
अहं प्रतीत
करता है सो
अनेक भ्रम
देखता है,सम्यक्दर्शी
सब आत्मरूप
जानता है ।
सर्व जीव
आत्मरूप समुद्र
के तरंग हैं, अज्ञान से
भिन्न हैं और
ज्ञान से वही
रूप है ।
आत्मारूपी
समुद्र सम, स्वच्छ, शुद्ध
आदि रूप, शीतल,
अवि नाशी और
विस्तृत अपनी
महिमा में
स्थित है और सदा
आनन्दरूप है
जैसे कोई जल
में स्थित हो
और तट पर
पहाड़में
अग्नि लगी हो
तो उस अग्नि का
प्रतिबिम्ब
जल में देख वह
कहे कि मैं
दग्ध होता हूँ
। जैसे भ्रम
से उसको
ज्वलनता
भासती है तैसे
ही जीव को
आभासरूप जगत्
दुःखदायक
भासता है ।
जैसे तट के
वृक्ष, पर्वतादि
पदार्थ जल में
नाना प्रकार
प्रतिबिम्बवत्
भासते हैं
तैसे ही
आभासरूप जगत्
को जीव नाना
रूप मानते हैं
। जैसे एक
समुद्र में
नाना तरंग
भासते हैं
तैसे ही आत्मा
में अनेक आकार
जगत् भासता है,
वास्तव में
द्वैत कुछ
नहीं सर्व
शक्तिरूप ब्रह्मसत्ता
ही है उसी से विचित्ररूप
चञ्चल भासता है
पर वह एकरूप
अपने आपमें
स्थित है ।
ब्रह्म में
जगत् फुरता है
और उसी में
लीन होता है ।
जैसे समुद्र
में तरंग
उपजते हैं और
फिर उसी में लीन
होते हैं, कुछ
भेद नहीं, पूर्ण
में पूर्ण ही
स्थित है जैसे
जल से तरंग और
ईश्वर से जगत्
और पत्र, डाल,
फूल, फल,
वृक्षरूप
हैं तैसे ही
सब जगत्
आत्मरूप है और
वह आत्मा अनेक
शक्तिरूप हैं
। जैसे एक
पुरुष अनेक
कर्म का
कर्त्ता होता
है और जैसा कर्म
करता है तैसे
ही संग को
पाता है
अर्थात् पाठ
करने से पाठक
और पाक करने
से पाचक और
जाप करने से
जापक आदि अनेक
नाम धरता है, तैसे ही एक
आत्मा अनेक शक्ति
धारता है । जैसे
जिस आकार की
परछाहीं पड़ती
है तैसा ही
आकार भासता है
और एक मेघ में
अनेक रंग सहित
इन्द्रधनुष
भासता है तैसे
ही यह अनेक भ्रम
पाता है । हे
साधो! सब जगत् ब्रह्मा
से फुरा है और
जो जड़ भासते
हैं वे भी चैतन्यसत्ता
से फुरे हैं ।
जैसे मकड़ी
अपने मुख से
जाला निकालकर
आप ही ग्रास
लेती है तैसे
ही चैतन्य से
जड़ उत्पन्न होके
फिर लीन हो
जाते हैं ।
चैतन्य जीव से
सुषुप्ति
जड़ता उपजती है
और फिर उसी
में निवृत्त
होती है । इससे
अपनी इच्छा से
यह पुरुष
बन्धवान्
होता है और
अपनी इच्छा से
ही मुक्त होता
है । जब
बहिर्मुख देहादिक
अभिमान से
मिलता है तब
आपको बन्धवान्
करता है-जैसे
घुरान आप ही गृह
रचके
बन्धवान्
होता है और जब
पुरुषार्थ करके
अन्तर्मुख
होता है तब
मुक्ति पाता है
। जैसे अपने
हाथ के बल से
बन्धन को तोड़
के कोई बली
निकल जाता है
। हे साधो! ईश्वर
की
विचित्ररूप
शक्ति है, जैसी
शक्ति फुरती
है तैसा ही
रूप दिखाती है
। जैसे ओस
आकाश में
उपजती है और
उसी को ढाँप
लेती है तैसे
ही आत्मा में
जो
इच्छाशक्ति उपजती
है वही आवरण
कर लेती है और
उसी में तन्मयरूप
होजाती है ।
वास्तव में
जीव को बन्धन
और मोक्ष नहीं
है, बन्ध
और मोक्ष
दोनों शब्द
भ्रान्तिमात्र
हैं, मैं
नहीं जानता कि
बन्ध और मोक्ष
लोक में
कहाँसे आये हैं
। आत्मा को न
बन्धन है और न
मोक्ष है, ऐसे
सत्रूप को
असत्यरूप ने
ग्रास कर लिया
है जो कहता है
कि मैं दुःखी
व सुखी हूँ, दुबला हूँ व
मोटा हूँ
इत्यादि माया
महाआश्चर्यरूप
है जिसने जगत्
को मोहित किया
है । हे
मुनिश्वर! जब
चित्तसंवित्
कलनारूप होता
है तब कुसवारी
की नाईं आप ही
आपको बन्धन
करता है और जब
दृश्य से रहित
अन्तर्मुख होता
है तब शुद्ध
मोक्षरूप
भासता है । बन्ध
और मुक्ति
दोनों मन की
शक्ति हैं, जैसा-जैसा
मन फुरता है
तैसा तैसा रूप
भासता है ।
अनेक शक्ति
आत्मा से
अनन्यरूप है,
सब आत्मा से
उपजा है और
आत्मा में ही स्थित
है । जैसे
समुद्र में
तरंग उपजते
हैं और उसी
में स्थित
होकर लीन हो
जाते हैं और
चन्द्रमा से
किरणें उदय
होकर भिन्न
भासतीं पर फिर
उसी में लीन
होती हैं तैसे
ही जीव उपज कर
लीन हो जाते
हैं । परमात्मारूपी
महासमुद्र है,
चेतनतारूपी
उसमें जल है जिससे
जीवरूपी अनेक
तरंग उपजते
हैं और उसी में
स्थित होकर
फिर लीन हो
जाते हैं । कोई
तरंग
ब्रह्मारूप, कोई विष्णु,
कोई रुद्र
होकर
प्रकाशते हैं
और कोई लहर
प्रमाद से
रहित यम, कुबेर,
इन्द्र, सूर्य,
अग्नि, मनुष्य,
देवता, गन्धर्व,
विद्याधर, यक्ष, किन्नर
आदिक रूप होकर
उपजते हैं और
फिर लीन हो
जाते हैं । कोई
स्थित होकर
चिरकाल
पर्यन्त रहते
हैं-जैसे
ब्रह्मादिक, कोई उपजकर
और कुछ काल रहकर
विध्वंस हो
जाते हैं-जैसे
देवता, मनुष्यादिक
और कोई कीट
सर्प आदिक
फुरते हैं और
चिरकाल भी रहते
हैं और
अल्पकाल में
भी नष्ट हो
जाते हैं । कोई
ब्रह्मादिक
उपजकर अप्रमादी
रहते हैं और
कोई प्रमादी
हो जाते हैं
और तुच्छ शरीर
होते हैं यह
संसार स्वप्न
आरम्भ है और
दृढ़ होकर
भासता है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे
संसारावर्तवर्णन्नामैकादशस्सर्गः
॥11॥
काल
बोले, हे
मुनीश्वर!
देवता, दैत्य,
मनुष्यादिक
आकार ब्रह्म
से अभिन्नरूप
हैं और यह सत्
है । जब
मिथ्या
संकल्प से जीव
कलंकित होता
है तब जानता
है कि "मैं
ब्रह्म नहीं "
इस निश्चय को
पाके मोहित
होता है और मोहित
हुआ अधः को
चला जाता है । यद्यपि
वह ब्रह्म से
अभिन्न रूप है
और उसमें स्तित
है तो भी
भावना के वश
से आपको भिन्न
जानके मोह को
प्राप्त होता
है। शुद्ध ब्रह्म
में जो संवित्
का उल्लेख
होता है वही
कलंकितरूप
कर्म का बीज
है, उससे
आगे विस्तार
को पावता है ।
जैसे जल जिस जिस
बीज से मिलता
है उसी रस को
प्राप्त होता
है तैसे ही
संवित् का
फुरना जैसे
कर्म से मिलता
है तैसी गति
को प्राप्त
होता है । संकल्प
से कलंकित हुआ
अनेक दुःख
पाता है । यह
प्रमादरूप
कर्म कञ्ज के
बीज सा है जिसको
जो मुट्ठी भर
भर बोता है सो अपने
दुःख का कारण
है और यह जगत्
आत्मरूप
समुद्र की लहर
है जो विस्तार
से फुरती है
और कोई ऊर्ध्व
को जाती है और
कोई अधः को
जाती है फिर
लीन हो जाती
है । ब्रह्मा आदि
तृण पर्यन्त
इन सबका यही
धर्म है जैसे
पवन का स्पन्द
धर्म है तैसे
ही इनका भी है,
पर उनमें
कोई निर्मल
पूजने योग्य
ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्रादिक
हैं, कुछ
मोह संयुक्त
है- जैसे
देवता, मनुष्य,
सर्प, कोई
अनन्त मोह में
स्थित
हैं-जैसे
पर्वत वृक्षादिक,
कोई अज्ञान
से मूढ़ हैं-
जैसे कृमि, कीटादिक
योनि, ये
दूर से दूर
चले गये हैं ।
जैसे जल के
प्रवाह से तृण
चला जाता है
तैसे ही देवता,
मनुष्य, सर्पादिक
कितने
भ्रमवान् भी
होते हैं और
कोई तट के
निकट आके फिर
बह जाते हैं
अर्थात्
सत्संग और
सत्शास्त्रों
को पाके फिर
माया के
व्यवहार में
बह जाते हैं
और यमरूप चूहा
उनको काटता है
। एक अल्प मोह
को प्राप्त
होकर फिर
ब्रह्मसमुद्र
में लीन हुए
है, कोई
अन्त र्गत
ब्रह्मसमुद्र
को जानके
स्थित हुए हैं
और तम अज्ञान
से तरे हैं, कोई अनेक
कोटि जन्म में
प्राप्त होते
हैं और अधः से
ऊर्ध्व को चले
जाते हैं । और
फिर ऊर्ध्व से
अधः को चले
आते हैं । इसी
प्रकार
प्रमाद से जीव
अनेक योनि
दुःख भोगते
हैं । जब आत्मज्ञान
होता है तब आपदा
से छूट के
शान्तिमान
होते हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
उत्पत्तिविस्तारवर्णनन्नाम
द्वादशस्सर्गः
॥12॥
काल
बोले हे साधो!
ये जितने जगत्
भूतजाति
विस्तार हैं
वे सब आत्मरूप
समुद्र के तरंग
हैं-एक ही
अनेक विचित्र
विस्तार को
प्राप्त हुआ
है । जैसे वसन्त
ऋतु में एक ही रस
अनेक प्रकार
के फल फूलों
को धारता है
इन जीवों में
जिसने मन को
जीतकर
सर्वात्मा ब्रह्म
का दर्शन किया
है वह
जीवन्मुक्त
हुआ है ।
मनुष्य देवता, यक्ष,
किन्नर, गन्धर्वादिक
सब भ्रमते हैं,
इनसे इतर
स्थावर मूढ़
अवस्था में
हैं उनकी क्या
बात करनी है ।
लोकों में तीन
प्रकार के जीव
हैं-एक अज्ञानी
जो महामूढ़ हैं
दूसरे जिज्ञासु
हैं और तीसरे
ज्ञानवान्
।जो मूढ़ है उनको
शास्त्र में
श्रवण और
विचार में कुछ
रुचि नहीं
होती और जो
जिज्ञासु हैं
उनके निमित्त
ज्ञानवानों
ने शास्त्र
रचे हैं जिस
जिस मार्ग से
वे प्रबुध
आत्मा हुए हैं
उस उस प्रकार
के उन्होंने
शास्त्र रचे हैं
और उससे और
जीव भी
मोक्षभागी
होते हैं । हे
मुनीश्वर!
सत्शास्त्र
जो ज्ञान वानों
ने रचे हैं
उनको जब
निष्पाप
पुरुष विचारता
है तब उसको
निर्मल बोध
उपजकर मोह
निवृत्त होता
है और जब
निर्मल
बुद्धि होती
है तब सूर्य के
प्रकाश से तम
नष्ट होता है
तैसे ही सत्शास्त्र
के अभ्यास से
मोह नष्ट होता
है । जो मूढ़
अज्ञानी हैं वे
आत्मा में
प्रमाद और
विषय की
तृष्णा से मोह
को प्राप्त
होते हैं ।
जैसे अँधेरी रात्रि
हो और ऊपर से
कुहिरा भी
गिरता हो तब
तम से तम होता
है तैसे ही
मूढ़ मोह से
मोह को
प्राप्त होते
हैं और अपने
संकल्प से आप
ही दुःखी होते
हैं । जैसे
बालक अपनी
परछाईं में
वैताल कल्पकर
आप ही दुःखी
होता है इससे
जितने भूतजात हैं
उन सबके
सुख-दुःख का
कारण मन रूपी
शरीर है, जैसे
वह फुरता है
तैसीगति को प्राप्त
होता है ।
माँसमय शरीर
का किया कुछ
सफल नहीं होता
और असत् माँस
आदिक का मिला
हुआ जो
आधिभौतिक
शरीर है वह मन
के संकल्प से
रचा है-वास्तव
में कुछ नहीं
। संकल्प की
दृढ़ता से जो
आधिभौतिक
भासने लगा है वह
स्वप्न शरीर
की नाईं है ।
मन रूपी शरीर
से जो तेरे पुत्र
ने किया है
उसी गति को वह
प्राप्त हुआ
है । इसमें
हमारा कुछ अपराध
नहीं है । हे
मुनीश्वर!
अपनी वासना के
अनुसार जैसा
कोई कर्म करता
है तैसे ही फल
को प्राप्त
होता है ।
माँसमय शरीर
से कुछ नहीं
होता ।
जैसी-जैसी
तीव्र भावना
से तेरे पुत्र
का मन फुरता
गया है तैसी-तैसी
गति वह पाता
गया है । बहुत
कहने से क्या है,
उठो अब वहाँ
चलो जहाँ वह
ब्राह्मण का
पुत्र होकर
गंगा के तट पर
तप करने लगा है
। इतना कहकर
वाल्मीकिजी
बोले, हे
भारद्वाज! इस
प्रकार जब काल
भगवान् ने कहा
तब दोनों जगत्
की गति को
हँसके उठ खड़े
हुए और हाथ से
हाथ पकड़के
कहने लगे कि
ईश्वर की नीति
आश्चर्यरूप
है जो जीवों
को बड़े भ्रम दिखाती
है । जैसे
उदयाचल पर्वत
से सूर्य उदय
होकर
आकाशमार्ग
में चलता है
तैसे ही
प्रकाश की
निधि उदार
आत्मा दोनों चले
। इस प्रकार
जब वशिष्ठजी
ने रामजी से
कहा तब सूर्य
अस्त हुआ और
सर्व सभा अपने
अपने स्थानको
गई । दिन हुए
फिर अपने अपने
आसन पर आन
बैठे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भृगुआसनन्नाम
त्रयोदशस्सर्गः
॥13॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
काल और भृगुजी
दोनों
मन्दराचल
पर्वत से भूमि
पर उतरे और देवताओं
के महासुन्दर
स्थानों को
लाँघते लाँघते
वहाँ गये जहाँ
ब्राह्मण
शरीर से गंगा
के किनारे
शुक्र समाधि
में लगा था
उसका मन रूपी
मृग अचल होकर
विश्राम को प्राप्त
हुआ था । जैसे
चिरकाल का थका
चिरकाल पर्यन्त
विश्राम करता
है तैसे ही
उसने विश्राम
पाया । वह अनेक
जन्मों की
चिन्तना में
भटकता भटकता
अब तप में लगा
था और राग-द्वेष
से रहित होकर
परमानन्दपद
में स्थित था
। उसको देख के
काल ने बड़े
शब्द से कहा, हे भृगो! देख,
यह समाधि
में स्थित है
अब इसे जगाइये
। तब उसकी
कलना फुरने से
और बाहर शब्द से,
जैसे मेघ के
शब्द से मोर जागे
तैसे ही
शुक्रजी जागे
और
अर्धोन्मीलित
नेत्र खोलके
काल और भृगु
को अपने आगे
देखा पर पहिचाना
नहीं । उसने
देखा कि दोनों
के श्याम आकार
और बड़े
प्रकाशरूप
हैं-मानों साक्षात्
विष्णु और
सदाशिवजी हैं
। उन्हें देख
वह उठ खड़ा हुआ
और
प्रीतिपूर्वक
चरण वन्दना और
नम्रतासहित
आदर करके कहा
कि मेरे बड़े
भाग्य हैं जो
प्रभु के चरण
इस स्थान में
आये । वहाँ एक
शिला पड़ी थी
उस पर वे दोनों
बैठ गये तब
वसुदेव नाम
शुक्र, जिसका
तप के संयोग
से पीछे
सातातप नाम
हुआ था उस
शान्त हृदय
तपसी ने अगम
वचन काल और
भृगु से कहे ।
वह बोला, हे
प्रभु! मैं
तुम्हारे
दर्शन से
शान्तिमान्
हुआ हूँ । तुम
सूर्य और
चन्द्रमा
इकट्ठे मेरे
आश्रम में आये
हो और
तुम्हारे आने
से मेरे मन का
मोह नष्ट हो
गया जो
शास्त्रों और
तप से भी
निवृत्त होना
कठिन है । हे
साधो! जैसा
सुख
महापुरुषों
के दर्शन से
होता है वैसा
किसी ऐश्वर्य
और अमृत की
वर्षा से भी नहीं
होता । तुम
ज्ञान के
सूर्य और
चन्द्रमा हो ।
हे ऋषिश्वरों!
तुमने हमारा
स्थान पवित्र
किया और मैं
शान्तात्मा
हुआ । तुम कौन हो
जो प्रकाशरूप,
उदार आत्मा
मेरे स्थान पर
आये हो? जब
इस प्रकार
जन्मान्तर के
पुत्र ने
भृगुजी से
पूछा तब
भृगुजी ने कहा,
हे साधो! तू
आपको स्मरण कर
कि कौन है? अज्ञानी
तो नहीं, तू
तो प्रबोध
आत्मा है । जब
इस प्रकार
भृगुजी ने कहा
तब नेत्र मूँदकर
शुक्र ध्यान
में लगा और एक मुहूर्त्त
में अपना सब
वृत्तान्त
देखके नेत्र
खोले और
विस्मय होकर
कहने लगा कि ईश्वर
की गति
विचित्ररूप
है इसके वश
होकर मैंने
बड़े भ्रम देखे
हैं और जगत् रूपी
चक्र पर आरूढ़
हुआ मैं
अनन्तजन्म
भ्रमा हूँ । उन
सबको स्मरण
करके मैं
आश्चर्यवान् होता
हूँ कि मैंने
बहुत दुःख और
अनेक अवस्थाएँ
भोगी हैं ।
स्वर्ग और
मन्दार, कल्प
वृक्ष, सुमेरु,कैलाश आदिक
वनकुञ्जों
में मैं रहा
और ऐसा कोई
पदार्थ नहीं
जो मैंने नहीं
पाया, ऐसा
कोई कार्य
नहीं जो मैंने
नहीं किया और
ऐसा कोई इष्ट
अनिष्ट
नरक-स्वर्ग
नहीं जो मैंने
नहीं देखा ।
जो कुछ जानने
योग्य है वह क्या
है? अब मैं
आत्मतत्त्व
मैं विश्रामवान्
हुआ हूँ और
संकल्प भ्रम
मेरा नष्ट हो
गया है । अब आप
वहाँ चलिये
जहाँ मन्दराचल
पर्वत पर मेरा
शरीर पड़ा है ।
हे भगवन्! अब
मुझको कुछ
इच्छा नहीं है
। यद्यपि
हेयोपादेय
मुझको कुछ
नहीं रहा
तथापि नीति की
रचना देखके
कहता हूँ । जो
बोध वान् हैं
वह प्रकृत
आचार में
विचरते हैं, आगे जैसी
इच्छा हो तैसे
कीजिये ।
बोधवान् उसी आचार
को अंगीकार
करते हैं ।
इससे अपने
प्रकृत आचार
को ग्रहण करके
व्यवहार में विचरे
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवजन्मातरवर्णनन्नाम
चतुर्द्दशस्सर्गः
॥14॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इस प्रकार विचार
करके तीनों
आकाश मार्ग को
चले और शीघ्र ही
मेघमण्डल को
उल्लंघ के
सिद्धों के
मार्ग से
मन्दराचल
पर्वत पर
स्वर्ण की
कन्दरा में
पहुँचे और
पूर्व शरीर को
देख शुक्र ने
कहा, हे
तात! मेरे
पूर्व शरीर को
देखो, जिसे
तुमने बहुत
पालन किया था
। जो शरीर
कपूरसुगन्ध
से शोभित था
और फूलों की
शय्या पर शयन
करता था, वह
अब माटी में
लपटा पड़ा है
और सूख गया है
। जिस शरीर को
देख के देव
स्त्रियाँ
मोहित होती
थीं और कण्ठ
में मुक्त
माला ऐसी
शोभित थीं
मानों तारों की
पंक्ति हैं वह
शरीर अब
पृथ्वी पर गिर
पड़ा है ।
नन्दन वन में
इसने अनेक भोग
भोगे हैं और
आत्मरूप जान
के इसको मैं
पुष्ट करता था
अब मुझको
भयानक भासता
है । जो शरीर
देवाङ्गनाओं
से मिलता और
रागवान् होता था
वह अब उन की
चिन्ता में
सूख गया है ।
जिन जिन
विलासों को
चाहता था उनको
वह करता था और
अब वही चित्त
से रहित महाअभागी
हुआ धूप से
सूख गया है और
महाविकराल
भयानक सा
भासता है ।
जिसको मैं आत्मरूप
जानता था, जिसमें
अहंकार से
विलास करता था
और जिसमें फूल
कमल पड़ते और तारागण
प्रकाशते थे
उसमें अब
चींटियाँ
फिरती हैं ।
जो शरीर द्रव
स्वर्णवत्
सुन्दर प्रकाशरूप
था वह अब धूप
से सूखा भयानक
भासता है और
सब गुण इसको
छोड़ गये हैं- मानों
विरक्त आत्मा
हुआ और विषय
से मुक्त निर्विकल्प
समाधि में
स्थित हुआ है
। हे शरीर! तू
अदृष्टि तन को
प्राप्त हुआ
है, अब
तेरे में कोई
क्षोभ नहीं
रहा । अब चित्तरूपी
वैताल तेरे
में शान्त हो
गया है और आने जाने
से रहित
विश्रामवान्
हुआ है, सब
कल्पना तेरी
नष्ट हुई है
और सुख से
सोया है । चित्तरूपी
मर्कट से रहित
शरीररूपी
वृक्ष ठहर गया
है और अब
अनर्थ से रहित
पहाड़ की नाईं
अचल हुआ है ।
यह देह अब
सर्वदुःख से
रहित परमानन्द
में स्थित है
। हे साधो! सब
अनर्थों का
कारण चित्त है
। जब तक चित्त
शान्तिमान्
नहीं होता तब
तक जीव को आनन्द
नहीं मिलता ।
जब अमन
शक्तिपद को
प्राप्त होता
है तब महा आधि
व्याधि जगत् के
दुःखों को तर
के विगत
परमानन्द को
प्राप्त होता
है । रामजी ने
पूछा, हे
भगवन्! सर्व
धर्मों के
वेत्ताभृगु
का जो शुक्र
पुत्र था उसने
तो अनेक शरीर
धरे थे और
बहुत भोग भोगे
थे तो भृगु से
जो शरीर
उत्पन्न था
तिसको देख
बहुत शोच किया
और देहों का चिन्तन
क्यों न किया?
इसका क्या
कारण है? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! शुक्र
की संवेदन
कलना जो
जीवभाव को
प्राप्त हुई
थी सो कर्मात्मक
होकर भृगु से
उपजी । सुनो, आदि
परमात्मतत्त्व
से चित्तकला
फुरकर
भूताकाश को
प्राप्त हुई
और वही वातकला
में स्थित
होकर प्राण, अपान के
मार्ग से भृगु
के हृदय में
प्रवेश कर गई
और वीर्य के स्थान
को प्राप्त
होकर
गर्भमार्ग से
उत्पन्न हो
क्रम करके बड़ी
हुई जिससे
विद्या और गुणसम्पन्न
शुक्र का शरीर
हुआ । उस शरीर
को जो उसने
चिरकाल सेवन
किया था इससे उसका
शोचकिया ।
यद्यपि वह
वीतराग और
निरिच्छित था
तो भी चिरकाल
जो अभ्यास
किया था वही
फुर आया । हे
रामजी! ज्ञानी
हो अथवा
अज्ञानी, व्यवहार
दोनों का
तुल्य होता है
परन्तु शक्ति
अशक्ति का भेद
है । ज्ञानवान्
असंशक्त
निर्लेप रहता
है और अज्ञानी
क्रिया में
बन्धवान्
होता है ।
ज्ञानवान् मोक्षरूप
है और अज्ञानी
दरिद्र है ।
जैसे वन में
जाल से पक्षी
फँसता है तैसे
ही अज्ञानी
लोकव्यवहार
में बन्धवान्
होता है । व्यवहार
जैसे ज्ञानी
करता है तैसे
ही अज्ञानी
करता है । जो
वासना रहित है
वह निर्बन्ध
है, वासनासहित
बन्ध है इससे
वासनामात्र
भेद है । जब तक
शरीर है तब तक
सुखदुःख भी
होता है परन्तु
ज्ञानवान्
दोनों में
शान्तबुद्धि रहता
है और अज्ञानी
हर्ष शोक से
तपायमान होता है
। जैसे थम्भे
का
प्रतिबिम्ब
जल के हिलने
से थम्भ हिलता
भासता है
परन्तु
स्वरूप में
स्थित ही है
तैसे ही
अज्ञान में सुख-दुःख
से सुखी-दुःखी
भासता है, परन्तु
स्वरूप ज्यों
का त्यों है ।
जैसे सूर्य का
प्रतिबिम्ब
जल के हिलने
से हिलता
भासता है परन्तु
स्वरूप से
ज्यों का
त्यों है तैसे
ही ज्ञानवान्
इन्द्रियों
से सुखी-दुःखी
भासता है पर
स्वरूप से
ज्यों का
त्यों है । अज्ञानी
बाहर से
क्रिया का
त्याग करता है
तो भी बन्ध
रहता है और
ज्ञानवान्
क्रिया करता
है तो भी
मोक्षरूप है ।
अन्तर में जो
अनात्मधर्म
में बन्धवान्
है वह बाहर
कर्म इन्द्रिय
से मुक्त है
तो भी बन्धन
में है और जो
अन्तर से
मुक्त है वह
कर्मइन्द्रिय
से बन्धन भासता
है तो भी
मुक्तरूप है ।
जो सब क्रीड़ा
को त्याग बैठा
है और हृदय
में जगत् की
सत्यता रखता
है वह चाहे
कुछ करे वा न करे
तो भी बन्धन
में है और जो
बाहर चाहे
जैसा व्यवहार
करता है पर
हृदय में
अद्वैत ज्ञान
है तो
मुक्तरूप है-
उसको कर्म बन्धन
नहीं करता ।
इससे हे रामजी!
सब कार्य करो
पर अन्तर से
शून्य रहकर
सर्व एषणा से
रहित आत्मपद
में स्थित हो
जाओ और अपने
प्रकृत
व्यवहार को
करो । यह
संसार रूपी
समुद्र है
जिसमें आदि
व्याधि अहं
ममतारूपी गढ़ा
है जो उसमें
गिरता है वह ऊर्ध्व
से अधः को
जाता है ।
इससे संसार के
भाव में मत
स्थित हो और
शुद्ध बुद्ध
आत्म स्वभाव
में स्थित हो
। जो ब्रह्म
शुद्ध, सर्वात्मा,
निर्विकार,
निराकार
आत्मपद में स्थित
हैं उनको
नमस्कार है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
शुक्रप्रथमजीवनन्नाम
पञ्चदशस्सर्गः
॥15॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इस प्रकार जब
शुक्र ने शरीर
का वर्णन किया
और विकरालरूप देख
के उसमें
त्याग बुद्धि
की तब काल
भगवान् शुक्र
के वचन को न
मान के गम्भीर
वाणी से बोले,
हे शुक्र!
तू इस तपरूपी
शरीर को
त्यागकर भृगु
के पुत्र का
जो शरीर है उसको
अंगीकार कर ।
जैसे राजा
देशदेशान्तर
को भ्रमता
भ्रमता अपने
नगर में आता
है तैसे ही तू
भी इस शरीर
में प्रवेश कर,
क्योंकि
भार्गव तन से
तुझे असुरों
का गुरु होना
है । यह आदि
परमात्मा की
नीति है, महाकल्पपर्यन्त
तेरी आयु है ।
जब महाकाल का
अन्त होगा तब
भार्गव तन
नष्ट होगा और फिर
तुझको शरीर का
ग्रहण न होगा
। जैसे रस सूखे
से पुष्प गिर
पड़ता है तैसे
ही प्रारब्ध
वेग के पूर्ण
होने से तेरा
शरीर गिर पड़ेगा
और शरीर के
होते
जीवन्मुक्त
को प्राप्त
हुआ प्राकृत
आचार में
विचरेगा । इससे
इस शरीर को
त्यागकर
भार्गव शरीर
में प्रवेश कर
।अब हम जाते
हैं, तुम
दोनों का
कल्याण हो और
तुमको
वाञ्छित फल मिले
। इतना कहकर
वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! काल
भगवान् ऐसे
कहकर और दोनों
पर पुष्प डालकर
अन्तर्धान हो
गये । तब वह
तपसी नीति को विचारने
लगा कि क्या
होना है । विचारकर
देखा तो विदित
हुआ कि जैसे
काल भगवान् ने
कहा है तैसे
ही होना है ।
ऐसे विचार के
महाकृशरूप जो
शरीर था उसमें
प्रवेश किया
और तपस्वी
ब्राह्मण का
देह त्याग दिया
। तब उस शरीर
की शोभा जाती
रही और कम्पकम्प
के पृथ्वी पर
गिर पड़ा ।
जैसे मूल के
काटे से बेलि
गिर पड़ती है
तैसे ही वह देह
गिरा और
शुक्रदेह
जीवकला संयुक्त
हो आया ।तब
भृगुजी उस कृश
देह को जीवकला
संयुक्त
देखके उठ खड़े
हुए और हाथ
में जल का
कमण्डलु ले
मन्त्रविद्या
से जो पुष्टिशक्ति
है पाठकर
पुत्र के शरीर
पर जल डाला और
उसके पड़ने से
शरीर की सब
नाड़ियाँ पुष्ट
हो गईं । जैसे
वसन्तऋतु में
कम लिनी
प्रफुल्लित
होती हैं तैसे
ही उसका शरीर
प्रफुल्लित
हो आया और
स्वास
आने-जाने लगे
। तब शुक्र
पिता के
सन्मुख आया और
जैसे मेघ जल
से पूर्ण होकर
पर्वत के आगे
नमता है तैसे
ही
विधिसंयुक्त
नमस्कार करके
शिर नवाया और
स्नेह से
नेत्रों में
जल चलने लगा ।
तब पुत्र को
देखके भृगुजी
ने उसे कण्ठ
लगाया कि यह
मेरा पुत्र है
। ऐसे स्नेह से
पूर्ण हो गया
। हे रामजी! जब
तक देह है तब
तक देह के
धर्म फुर आते
हैं । इसी प्रकार
भृगु ज्ञानी
को भी ममता
स्नेह फुर आया
तो और की क्या
बात है? पिता
और पुत्र दोनों
बैठ गये और एक
मुहूर्त्त
पर्यन्त कथा वार्ता
करते रहे । फिर
उठकर
उन्होंने उस तपस्वी
शरीर को जलाया,
क्योंकि
बुद्धिमान्
शास्त्राचार
में स्थित
होते हैं ।
इसके अनन्तर
जिनका वपु तप
से प्रकाशता
है और जिनकी
श्यामकान्ति
है ऐसे जीवन्मुक्त
उदारात्मा
होकर वहाँ रहे
और समय पा
करके शुक्रजी
दैत्यों का
गुरु होगा और भृगुजी
समाधि में
स्थित होंगे ।
इससे जो सब
विकार से रहित
जीवन्मुक्त
पुरुष जगत्गुरु
हैं वह सबके
पूजने योग्य
हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवजन्मान्तर
वर्णनन्नाम षोडशस्सर्गः
॥16॥
रामजी
बोले, हे भगवन्!
जैसे भृगु के
पुत्र को यह
प्रतिभा
फुरती गई और
सिद्ध होती गई
तैसी ही और
जीवों को
क्यों नहीं
सिद्ध होती? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! शुक्र का
जो
ब्रह्मतत्त्व
से फुरना हुआ
वही भार्गव जन्म
हुआ और जन्म
से कलंकित
नहीं हुआ वह
सर्व एषणा से
रहित शुद्ध
चैतन्य था । निर्मल
हृदय को जैसी
स्फूर्ति
होती है तैसे ही
सिद्ध हो जाती
है और मलिन
हृदयवान् का
संकल्प शीघ्र
ही सिद्ध नहीं
होता जैसे भृगु
के पुत्र को
मनोराज हुआ और
भ्रमता फिरा तैसे
ही सब ही
स्वरूप के
प्रमाद से भ्रमते
हैं । जब तक
स्वरूप का
साक्षात्कार
नहीं होता तब
तक शान्ति
प्राप्त नहीं होती
। यह मैंने
भृगु के पुत्र
का वृत्तान्त
मनोराज की
दृढ़ता के लिए
तुमको सुनाया है
। जैसे बीज ही
अंकुर, फूल,
फल अनेक भाव
को प्राप्त
होता है तैसे
ही सब भूतजात को
मन का भ्रमना
अनेक भ्रम को
प्राप्त करता
है । जो कुछ
जगत् तुमको
भासता है वह सब
मन के फुरने
रूप है, मिथ्याभ्रम
से नानात्व
भासता है और
कुछ नहीं है
एक-एक ऐसा प्रति
भ्रम है और सब
संस्करणमात्र
है, न कुछ
उदय होता और न
अस्त होता सब
मिथ्यारूप मायामात्र
है । जैसे
स्वप्नपुर और
संकल्पनगर
भासता है तैसे
ही परस्पर
व्यवहार दृष्टि
आते हैं पर
कुछ नहीं है
तैसे ही वह
जाग्रतभ्रम
भी अज्ञान से
दृष्टि आता है
। भूत, पिशाच
आदिक जितने
जीव हैं उनका
भी संकल्पमात्र
शरीर है, जैसे
उनको सुख
दुःखों का भोग
होता है तैसे
ही तुम हमको
भी होता है । जैसे
यह जगत् है
तैसे ही अनन्त
जगत् बसते हैं
और एक दूसरे
को नहीं जानता
। जैसे एक
स्थान में
बहुत पुरुष
शयन करते हों
तो उनको
मनोराज और
स्वप्नभ्रम
परस्पर अज्ञान
होता है तैसे
ही यह जगत् है,
वास्तव में
कुछ नहीं केवल
ब्रह्मसत्ता
अपने आप में
स्थित है । जो
इस जगत् को
सत् जानता है
पुरुषार्थ
नष्ट होता है
जो वस्तु भ्रान्ति
से भासती है
उसका सम्यक
ज्ञान से अभाव
हो जाता है ।
यह जाग्रत्
जगत् भी दीर्घ
स्वप्नाहै ।
चित्तरूपी
हस्ती को बन्धन
है और
चित्तसत्ता
से जगत् सत्
भासता है और
जगत् सत्ता से
चित्त है । एक
के नाश होने
से दोनों का
नाश हो जाता
है । जो जगत् का
सत्भाव नष्ट
होता है तब
चित्त नहीं
रहता और जब
चित्त उपशम
होता है तब
जगत् शान्त होता
है । इस
प्रकार एक के
नाश होने से
दोनों का नाश
होता है ।
दोनों का नाश
आत्म विचार से
होता है ।
जैसे उज्ज्वल
वस्त्र पर केशर
का रंग शीघ्र
ही चढ़ जाता है,
मलिन वस्त्र
पर नहीं चढ़ता
तैसे ही जिसका
निर्मल हृदय
होता है उसको
विचार उपजता
है । हृदय तब
निर्मल होता
है जब शास्त्र
के अनुसार क्रिया
करता है । हे
रामजी! एक एक जीव
के हृदय में
अपनी-अपनी
सृष्टि है ।
पर मलीन चित्त
से एक को
दूसरा नहीं
जानता । जब
चित्त शुद्ध
होता है तब और
की सृष्टि को
भी जान लेता
है । जैसे
शुद्ध धातु परस्पर
मिल जाती है ।
जब दृढ़ अभ्यास
होता है तब
चिरपर्यन्त
सब कुछ भासने
लगता है, क्योंकि
सबका
अधिष्ठाता एक
आत्मा है
उसमें स्थित
होने से सबका
ज्ञान होता है
। रामजी ने
पूछा, हे
भगवन्! शुक्र
को
प्रतिभामात्र
आभास हुआ था
उससे देश, काल,
क्रिया, द्रव्य
उसको दृढ़ होकर
कैसे भासे? वशिष्ठजी
बोले, हेरामजी!
शुक्र ने अपने
अनुभवरूपी
भण्डार में मन
से जगत् देखा
। जैसे मोर के
अण्डे से अनेक
रंग निकलते
हैं तैसे ही
उसको अपने
हृदय में भ्रम
भासित हुआ । जैसे
बीज से पत्र
टास, फूल, फल निकलते हैं
तैसे ही जीव
को अपने अपने
अनुभव में
संसार खण्ड
फुरते हैं
यहाँ स्वप्न दृष्टान्त
प्रत्यक्ष है
। जैसे एक एक
के स्वप्ने
में जगत् होता
है तैसे ही यह
जगत् है ।
दीर्घ
स्वप्ना
जाग्रत् हो
भासता है और
जैसा दृढ़ होता
है तैसा ही
भासने लगता है
। फिर रामजी
ने पूछा; हे
भगवन्! सृष्टि
के समूह
परस्पर मिलते
कैसे हैं और
नहीं कैसे
मिलते? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! मलीन
चित्त परस्पर
नहीं मिलता, शुद्ध मिलता
है-जैसे शुद्ध
धातु मिल जाती
है ।
सुषुप्तिरूप
आत्मा से सब
फुरते हैं सो
तन्मयरूप हैं,
जिसको
उसमें
विश्राम होता
है सो
ज्ञानदृष्टि
से सबसे मिल
जाता है ।
जैसे जल से जल
मिल जाता है
तैसे ही वह
सबसे मिलकर
सबको जानता है,
अन्य नहीं
जानता ।
इति
श्री
योगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
मनोराजसम्मिलन
वर्णनन्नाम
सप्तदशस्सर्गः
॥17॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जो कुछ
संसारखण्ड है
उन सबका
बीजरूप आत्मा
है और सब आत्मा
का आभास है ।
आभास के उदय
अस्त होने में
आत्मसत्ता
ज्यों की
त्यों है, अपने
स्वभाव के
त्याग से रहित
है, सर्वजीवों
का अपना आप
वास्तवरूप है
और सुषुप्ति
की नाईं अफुर
है । उसी
सत्ता में जीव
फुरते हैं तब
स्वप्नवत्
जगत् भ्रम
देखते हैं । जीव
जीव प्रति
अपनी अपनी
सृष्टि स्थित
है, जो
पुरुष उलट के
आत्म परायण
होता है वह आत्मपद
में प्राप्त
होता है । जिस
पुरुष को आत्मब्रह्म
से एकता हुई
है उसको
परस्पर और की
सृष्टि भासती
है । अन्तःकरण
में सृष्टि होती
है सो उसका
अन्तःकरण
मिलता है और
उस अन्तःकरण
जीवकला के
मिले से
परस्पर सृष्टि
भास आती है
सबका अपना आप सन्मात्र
सत्ता है, उसमें
सब सृष्टि
स्थित होती है
। जैसे कपूर
का पर्वत हो
तो उसके अणु-अणु
में सुगन्ध
होती है और
सर्वअणु
सुगन्ध पर्वत
में एकता होती
है तैसे ही सब जीवों
का अधिष्ठान
आत्मसत्ता है
। जैसे सब नदियों
के जल का
अधिष्ठान समुद्र
है तैसे ही सब
जीवों का
अधिष्ठान
आत्मा है ।
सृष्टि कहीं
परस्पर मिलती
है और कहीं
भिन्न भिन्न
स्थित है ।
जहाँ
चेतनमात्र
सत्ता से एकता
है वहाँ चित्त
की वृत्ति
जिसके साथ मिलनी
चाहे उसको मिल
जाती है पर
मलीन चित्तवाला
नहीं मिल सकता
। एक एक जीव में
सहस्त्रों
सृष्टि
परस्पर गुप्त
होती हैं ।
जहाँ जैसा फुरनादृढ़
होता है वहाँ वैसा
ही भासता है, जहाँ मन का
फुरना कोमल
होता है सो
सफल नहीं होता
और जहाँ दृढ़ होता
है सो भासने
लगता है । हे
रामजी! जब देह
की भावना मिट
जाती है तो
प्राण पवन ही
स्थित करने से
चित्त की
वृत्ति स्वभाव
में स्थित
होती है और तब
और के चित्त
की चेष्टा
अपने चित्त
में फुर आती
है । और जब तक
चित्त मलीन
होता है और
देह की भावना
को नहीं
त्यागता तब तक
किसी पदार्थ
से एकता नहीं
होती । जिसका
चित्त निर्मल
होता है उसको
जैसे और के
चित्त का ज्ञान
हो आता है
तैसे ही और सृष्टि
में मिलने की
भी शक्ति होती
है, अशुद्ध
को नहीं होती
। सर्व जीवों
की तीन अवस्था
होती हैं-जाग्रत
और सुषुप्ति
यह तीनों ही
अवस्था आत्मा
में जीवित का
लक्षण है ।
जैसे
मृगतृष्णा की
नदी के तरंग
सूर्य की
किरणों में हैं
वास्तव में
उनका अभाव है
तैसे ही जीव
को आत्मा में
प्रमाद है
उससे तीनों
अवस्था ओं में
भटकता है । जब
चित्तकला
तुरीया में
स्थित होती है
तब
जीवन्मुक्त
होता है । आत्मसत्ता
स्वभाव में
स्थित हुए से
आत्मा से एकता
को प्राप्त
होता है और
सबजीव से सुहृद्भाव
होता है । जब
अज्ञानी
पुरुष सुषुप्तिरूप
आत्मसत्ता से जागता
है अर्थात् संसार
को चितवता है
तब संसार को
प्राप्त होता है
वह संसार में
और संसार
उसमें, इस प्रकार
प्रमाद करके
अनेक सृष्टि
देखता है । जैसे
केले के थम्भ
से पत्र का
समूह निकल आता
है तैसे ही वह
सृष्टि से
सृष्टि को
देखता है, शान्ति
नहीं पाता और
जब उलटके अपने
स्वभाव में
स्थित होता है
तब
नानात्वभाव मिट
जाता है और
शान्तरूप
होता है-जैसे केले
के भीतर शीतल
होता है । हे
रामजी! जगत्
के समूह भासते
हैं तो भी
आत्मा में द्वैत
नहीं जैसे
केले के भीतर
पत्रों से
भिन्न कुछ
नहीं निकलता
तैसे ही आत्मा
से जगत् भिन्न
नहीं । जैसे
बीज ही फूलभाव
को प्राप्त
होता है और
फूल से फिर
बीज होता है
तैसे ही
ब्रह्म से मन
होता है और
बुद्धि से
ब्रह्म होता
है। जीव का
कारण रस है, आत्मा के
कारण कुछ नहीं
बनता, वह
तो अद्वैत
अचिन्त्यरूप
है । आदि
परमात्मा अकारणरूप
है, वही
विचारने
योग्य है और
से क्या प्रयोजन
है? बीज जब
अपने भाव को त्यागता
है तब फूलभाव
को प्राप्त
होता है ब्रह्मसत्ता
अपने स्वभाव
को कदाचित
नहीं त्यागती
। बीज परिणाम
से आकाररूप
होता है आत्मा
अकृत्रिम
निराकार और
अच्युतरूप है,
इस कारण
आत्मा बीज की
नाईं भी नहीं
कहा जा सकता ।
आकाश से आकाश
नहीं उपजता और
अभिन्नरूप है,
न कोई उपजा
है, न किसी
को उपजाया है,
केवल
ब्रह्म आकाश
अपने आप में
स्थित है । जब
दृष्टा पुरुष
को देखता है
तब आपको नहीं
देख सकता, क्योंकि
जब मनोराज का
परिणाम जगत्
में जाता है
तब विद्यमान
वस्तु की
सँभाल नहीं
रहती ।
देहादिक में
आत्म-अभिमान होता
है । जो पुरुष
आत्मसत्ता को
देखता है उसको
जगत्भाव नहीं
रहता और जो
जगत् को देखता
है उसको
आत्मसत्ता
नहीं भासती ।
जैसे जो मृग
तृष्णा की नदी
को झूठ जानता
है उसको जल
भाव नहीं रहता
और जो जल
जानता है उसको
अस्तबुद्धि
नहीं होती ।
आकाश की नाईं
पूर्ण पुरुष
द्रष्टा है वह
जब इस दृश्य
की ओर जाता है
तब आप को नहीं देख
सकता । आकाश
की नाईं
ब्रह्मसत्ता
सब ठौर पूर्ण
है सो अज्ञानी
को नहीं भासती,
उसे जो दृश्य
का
अत्यन्ताभाव
है वही भासता
है, अनुभव
का भासना दूर
हो गया है । हे
रामजी! स्थूलपदार्थ
के आगे पटल
आता है तब वह
नहीं भासता तो
जो सूक्ष्म
निराकार
दृष्टा पुरु ष
है उसके आगे
आवरण आवे तब
वह कैसे भासे?
जो दृष्टा
पुरुष है वह
अपने ही भाव
में स्थित है
दृश्यभाव को
नहीं प्राप्त
होता, दृश्य
भासता है तब
दृष्टा नहीं
दीखता और दृश्य
कुछ वस्तु है
नहीं । इससे
दृष्टा एक परमात्मा
ही अपने आप में
स्थित है, जो
आत्मरूप
सर्वशक्तिमान्
देव है । जैसा
फुरना उसमें
होता है वैसा
ही शीघ्र भास
आता है । जैसे
वसन्त ऋतु में
एक रस अनेक
रूपों को धारता
है और उससे
टास, फल
फूल होते हैं
तैसे ही एक
आत्मसत्ता
अनेक जीव देह
होके भासती है
। जैसे अपने
ही भीतर अनेक
स्वप्नभ्रम
देखता है तैसे
ही अहं आदिक
जगत् दृश्य
भ्रम का अनुभव
ही प्राप्त होता
है और स्वरूप
से और कुछ
नहीं हुआ ।
जैसे एकबीज के
भीतर पत्र, टास, फूल,
फल अनेक
होते हैं और
उसमें और बीज
होता है, बीज
के भीतर और
वृक्ष और उसके
भीतर और बीज
होता है इसी
प्रकार एक बीज
के भीतर अनेक
वृक्ष होते
हैं, तैसे
ही एक आत्मा
में और अनेक
चिद्अणु
फुरते हैं, उनके भीतर
सृष्टि होती
है और फिर उन सृष्टियों
के भीतर चिद्अणु,
फिर चिद्अणु
के भी सृष्टि,
इसी प्रकार
अनेक
सृष्टिरूप ब्रह्माण्ड
हैं उनकी
संख्या कुछ
कही नहीं जाती
वे सब अपने आप
से फुरते हैं
और आप ही
स्वाद लेता है
। जैसे तिल
में तेल है
तैसे ही चिद्अणु
में आकाश, पवन
आदिक अनेक सृष्टि
स्थित है ।
आकाश में पवन,
अग्नि में
जल, सर्वभूतों
में पृथ्वी
सृष्टि स्थित हैं
। ऐसा कोई
पदार्थ नहीं
जो चित्त से
सत्तारहित हो,
जहाँ चित्त
है वहाँ उसका
आभास रूप दृष्टा
भी स्थित है ।
जैसे डब्बे
में लौंग होते
हैं तो उनके
नष्ट होने से
डब्बा नहीं
होता । जैसा
जैसा उसमें
फुरना होता है
तैसा ही तैसा
स्थित होता है
। सबका अधिष्ठानरूप
आत्मा है, जैसे
कमल को पूर्ण
करनेवाला जल
है उससे सब
स्फूर्ति
होते और प्रकाशते
हैं तैसे ही
सब सृष्टि को
सत्ता
देनेवाला और
आश्रयरूप
आत्मतत्त्व
है । यह जगत्
दीर्घ
स्वप्नरूप
अपने अनुभव से
उदय हुआ है सो
बाह्यरूप
होकर भासता है,
उस स्वप्न
से और
स्वप्नान्तर
होता है उसके
आगे और
स्वप्ना होता
है, इसी
प्रकार
सृष्टि की
स्थिति हुई है
। जैसे एक बीज
से अनेक वृक्ष
होते हैं तैसे
ही एक चिद्अणु
में अनेक
सृष्टि स्थित
हैं । जैसे जल
में अनेक तरंग
भासते हैं
तैसे ही
आत्मअनुभव
में अनेक जगत्
भासते है और
अभिन्नरूप
हैं । इससे द्वैतभ्रम
को तुम त्याग
दो, न कोई देश
है न काल
क्रिया है, केवल एक
अद्वैत
आत्मसत्ता
अपने आप में
स्थित है ।
जैसे आकाश में
आकाश स्थित है
तैसे ही
आत्मसत्ता अपने
आप में स्थित
है । ब्रह्मा
से कीट पर्यन्त
जो जगत् भासता
है सो एक
परमात्मा ही अपने
आप में
किंचनरूप
होता है ।
जैसे एक
रससत्ता ही
कहीं फल और
सुगन्ध सहित
भासती है और
कहीं
काष्ठरूप को
प्राप्त होती है
तैसे ही एक
परमात्मसत्ता
कहीं चैतन्य
और कहीं जड़रूप
होकर दिखाई
देती है । जो सर्वगत
अविनाशी
आत्मा है वही
सबका बीजरूप
है और उसी के
भीतर सब जगत्
स्थित है । पर
जिसको आत्मा
का प्रमाद है
उसको नानारूप
भासता है ।
जैसे कोई जल
में डूबे और
फिर निकले, फिर डूबे, फिर निकले
और जैसे
स्वप्न में और
स्वप्न होता
है, तैसे
ही प्रमाद दोष
से भ्रम से
भ्रमान्तर
नाना प्रकार
के जगत् जीव
देखता है ।
जगत् और आत्मा
में कुछ भेद
नहीं है, क्योंकि
जगत् कुछ है
नहीं, आत्मा
हो जगत् सा हो
भासता है । जैसे
विचार रहित को
सुवर्ण में
भूषण बुद्धि होती
है और विचार
किये से
भूषणबुद्धि नष्ट
हो जाती है, सुवर्ण ही
भासता है, तैसे
ही जो विचार
से रहित है
उसको यह जगत् पदार्थ
भासते हैं कि
यह मैं हूँ यह
जगत् है यह उपजा
है और यह लीन
होता है, और
जिसको सत्संग
और शास्त्र के
संयोग से विचार
उपजा है उसको
दिन प्रतिदिन
भोग की तृष्णा
घटती जाती है
और आत्मविचार
दृढ़ होता जाता
है । जैसे
किसी को ताप
आता हो तो औषध
करके निवृत्त
हो जाती है, दूसरे शरीर
से तपन
निवृत्त हो
जाती है और
शीतलता प्रकट
होती है तैसे
ही ज्यों
ज्यों दृढ़
होता है त्यों
त्यों
इन्द्रियों
को जीतता है
सन्तोष से
हृदय शीतल
होता है और
सर्व आत्मा ही
भासता है । यह
विवेक का फल
है । हे रामजी!
जैसे अग्नि के
लिखे चित्र से
कुछ कार्य
नहीं सिद्ध
होता तैसे ही
निश्चय से
रहित वचन का
विवेक दुःख की
निवृत्ति
नहीं करते और
शान्ति
प्राप्त नहीं
होती । जैसे
जब पवन चलता
है तब पत्र और
वृक्ष हिलते हैं
और उसका लक्षण
भासता है पर
वाणी से कहिये
तो नहीं हिलते
तैसे ही जब
विवेक हृदय
में आता है तब
भोग की तृष्णा
घट जाती है, मुख के कहने
से तृष्णा
घटती नहीं ।
जैसे अमृत का
लिखा चित्र
पान करने से
अमर होने का
कार्य नहीं
करता, चित्र
की लिखी अग्नि
शीत नहीं
निवृत्त करती
और स्त्री के चित्र
के स्पर्श से
सन्तान उपजने
का कार्य नहीं
होता तैसे ही
मुख का विवेक
वाणी विलास है
और भोग की
तृष्णा को
निवृत्त करके
शान्ति को
नहीं प्राप्त
करता । जैसे चित्र
देखने ही
मात्र होता है
तैसे ही वह
विवेक
वाग्विलास है
। हे रामजी!
प्रथम जब विवेक
आता है तब
राग-द्वेष को
नाश करता है
और ब्रह्मलोक
पर्यन्त जो
कुछ विषय भोग रूप
है उनसे
तृष्णा और
वैरभाव को
नष्ट करता है
। जैसे सूर्य
के उदय होने
से अन्धकार नष्ट
होता है तैसे
ही विवेक उदय
होने से अज्ञान
नष्ट हो जाता
है और पावन पद
की प्राप्ति
होती है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
जीवपदवर्णनन्नाम
अष्टादशस्सर्गः
॥18॥
वशिष्ठजी
बोले हे रामजी!
सर्वजीवों का
बीज परमात्मा
है और वह सर्व
ओर से आकाश की नाईं
स्थित है ।
उसके फुरने का
नाम जीव है और
उस जीव के
भीतर जगत् है
उसके आगे और
नाना प्रकार
की रचना है, पर
वास्तव में
चिद्घन जीव के
रूप से भीतर
स्थित हुआ है इससे
सब जीव
चिद्घनरूप
हैं । जैसे
केले के थम्भ
में पत्र होते
हैं तैसे ही
आत्म सत्ता के
भीतर जीव
स्थित हैं ।
जैसे शरीर के
भीतर कीट होते
हैं तैसे ही
आत्मा के भीतर
जीवराशि हैं
और जैसे
प्रस्वेद से
जूँ और लीख
आदिक जीव
उपजते हैं और
दूसरे पदार्थ
में कीट उपज
आते हैं तैसे
ही आत्मा में
चित्तकला के
फुरने से जीव
के समूह फुर
आते हैं ।फिर
जीव जैसी जैसी
सिद्धि के निमित्त
यत्न उपासना
करते हैं तैसी
तैसी गति पाते
हैं । जो
देवता की
उपासना करते
हैं वह देवता
को प्राप्त
होते हैं और
यज्ञ के उपासक
यज्ञ को
प्राप्त होते
हैं इसी प्रकार
जिसकी जो
उपासना करते
हैं उसी को वे
प्राप्त होते
हैं । ब्रह्म
के उपासक
ब्रह्म को ही
प्राप्त होते
हैं । इससे जो अतुच्छपद
है उस महत्पद
का तुम आश्रय
करो । जैसे
शुक्र जब
दृश्य के ओर
लगा तब उसने अनेक
प्रकार के
दृश्य भ्रम को
देखा और जब
शुद्धबुद्धि
की ओर आया तब
निर्मल बोध को
प्राप्त हुआ
तैसे ही जिस
की कोई उपासना
करता है उसी
को वह प्राप्त
होता है, अन्य
को नहीं
प्राप्त होता
। रामजी ने
पूछा, हे
भगवन्! जाग्रत
और स्वप्न का
भेद कहिये कि जाग्रत
क्या है और
स्वप्न क्या
है? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! स्थिर
प्रतीति का नाम
जाग्रत् है
अस्थिर
प्रतीत का नाम
स्वप्न है जो
चिरकाल रहता
है उसका नाम
स्थिर है और
जो अल्पकाल
रहे उसका नाम
अस्थिर है
अर्थात्
दीर्घकाल
प्रतीति का
नाम जाग्रत है
और अल्पकाल का
नाम स्वप्न है
। इनमें कोई विशेष
भेद नहीं है, दोनों का
अनुभव सम होता
है । शरीर के
भीतर स्थित
होकर जो
शरीरको जिवाता
है उसका नाम
जीव है । वह
तेज और बीजरूप
है । जीव धातु
है यह सब उसके
नाम हैं । जब
जीवधातु
स्पन्दरूप
होता है तब वह
शरीर के रन्ध्रो
में फैलता है,
मन, वाणी
और देह से सब
व्यवहार होता
है और रन्ध्र खुल
जाते हैं तब
उसको जाग्रत्
कहते हैं । जब
चित्तकला
जाग्रत
व्यवहार में
स्पष्टरूप होती
है और भीतर
होकर फुरती है
तब उसके भीतर
जगत् भ्रम
भासने लगता है,
वह स्वप्ना कहाता
है । अब
सुषुप्ति का क्रम
सुनो । मन, वाणी
और शरीर से
जहाँ कोई
क्षोभ नहीं और
स्वच्छ वृत्ति
जीवधातु भीतर
स्थित है, हृदयकोश
में
प्राणवायु से
क्षोभ नहीं
होता और नाड़ी रस
से पूर्ण होती
है उस मार्ग
से प्राण आने
जाने से रहित
होते हैं और
क्षोभ से रहित
सम वायु चलता
है उसका नाम
सुषुप्ति है ।
जैसे वायु से
रहित एकान्त
गृह में दीपक उज्ज्वल
प्रकाशता है
तैसे ही वहाँ
संवित्सत्ता
अपने आपका
अनुभव लेती है
। जैसे तिलो में
तेल स्थित
होता है तैसे
ही जीव संवित्
कलना से जो
कल्पता है सो
उस काल में
अपने आप में
स्थित होता है
। जैसे बरफ
में शीतलता और
घृत में
चिकनाई होती
है तैसे ही वहाँ
संवित्सत्ता
स्थित होती है,
उसका नाम
सुषुप्ति
अवस्था है ।
जड़रूप उस सुषुप्ति
अवस्था से
जागकर
दृश्यभाव को न
प्राप्त हो और
निर्विकल्प
प्रकाश में
स्थित हो सो ज्ञानरूप
तुरीय है । तब
यह व्यवहार
करे तो भी जीवन्मुक्त
है, वह
जाग्रत, स्वप्न
और सुषुप्ति
में बन्धवान्
नहीं होता ।
हे रामजी!
आत्मसत्ता से
फुरना होकर
स्वरूप विस्मरण
हो जाता है और
फुरना दृढ़
होकर स्थित होता
है इसी का नाम
जाग्रत है । स्वरूप
से प्रमाद दोष
करके फुरे और
जो जगत् भासे
उसको सत्रूप
जाने और यह
प्रतीत थोड़े
काल रहकर फिर
निवृत्त
होजावे इसका
नाम स्वप्न है
। दृश्य के फुरने
का अभाव हो जावे
और
अज्ञानवृत्ति
जड़तारूप रहे
उसका नाम सुषुप्ति
है । अनुभव
में ज्ञान
स्थित रहे और
जाग्रत, स्वप्न,
सुषुप्ति
का व्यवहार हो,
पर निश्चय
में इनका
सद्भाव रञ्चक भी
न हो, केवल
ज्ञान में
अहंप्रतीति
हो और वृत्ति
उससे चलायमान
न हो उसका नाम तुरीया
पद है उसमें
स्थित हुआ
जीवन्मुक्त
होता है ।
जाग्रत, स्वप्न
और सुषुप्ति अवस्थाओं
में जीव स्थित
होते हैं । जब
नाड़ी अन्न के
रस से पूर्ण
हो जाती है और प्राणवायु
हृदय नाम्नी
नाड़ी में नहीं
आता तब चित्तसंवित
अक्षोभरूप
सुषुप्ति
होता है । जब
अन्न उस नाड़ी
से पचता है और
प्राणवायु चलने
लगता है तब
चित्तसंवित
क्षोभ रूप
फुरने लगता है
और उस फुरने
से अपने भीतर
हो बड़े जगत्
भ्रम देखता है,
बीज से
वृक्ष होता है
जब वायु का रस
नाड़ी में बहुत
होता है तब
चित्त सत्ता
आकाश में उड़ना
वायु, अँधेरी
आदिक
पदार्थों को
देखता है, जब
कफ का रस नाड़ी
में अधिक होता
है तब फूल, बेल,
बावलियाँ, जल, मेघ, बगीचे आदिक
पदार्थ भासते
हैं और जब पित्त
की अधिकता
होती है तब
उष्णरुप
अग्नि, रक्त,
वस्त्र
आदिक भासने
लगते हैं । इस प्रकार
वासना के
अनुसार जगत्भ्रम
देखता है और
जैसी भावना
दृढ़ होती है
तैसा ही पदार्थ
दृढ़ हो भासता
है जब पवन
क्षोभायमान
होता है तब
चित्तसंवित्
नेत्र आदिक द्वार
के बाहर
निकलकर
रूपादिक का
अनुभव करता है
। चिरपर्यन्त
सत् जानने का
नाम जाग्रत है
। वासना के
अनुसार
मनरूपी शरीर
से जीव नेत्र,
जिह्वादिक
बिना जो रूप रसादिक
का अनुभव होता
है उसका नाम
स्वप्न है पर
स्वरूप से न
कोई स्वप्ना
है, न जाग्रत
है और न
सुषुप्ति है,
केवल सत्ता
अपने आप में
स्थित है, उसी
के फुरने का
नाम जाग्रत
स्वप्न और
सुषुप्ति है ।
चिरकाल फुरने
का नाम जाग्रत
है और अल्पकाल
फुरने का नाम
स्वप्ना है सो
केवल प्रतीति
का भेद है ।
वास्तव में
कुछ भेद नहीं
और जो वास्तव में
भेद न हुआ तो
जगत्
स्वप्नरूप
हुआ । इससे यही
भावना दृढ़ करो
कि जगत् असत्रूप
स्वप्नवत् है
इसमें सत्भावना
करनी दुःख का
कारण है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयारूप
वर्णनन्नामैकोनविंशतितमस्सर्गः
॥19॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
यह मैंने
तुमको मन का
रूप निरूपण
करके दिखाया
है और अवस्थाओं
का निरूपण भी
इसी निमित्त
किया है, और
प्रयोजन कुछ
नहीं । इससे
जैसा निश्चय चित्त
में होता है
तैसा ही हो
भासता है ।
जैसे अग्नि
में लोहा
डालिये तो अग्निरूप
हो जाता है
तैसे ही मन
जिस पदार्थ से
लगता है उसी
का रूप हो
जाता है । भाव अभाव,
ग्रहण, त्याग,
सब मन ही से
होते हैं, न
कोई सत् है न
असत् है केवल
मन की चपलतासे
सब फुरते हैं
। मन के मोह से
ही जगत् भासता
है और मन के
नष्ट होने से नष्ट
हो जाता है ।
जो मलीन मन है
सो अपने फुरने
से जगत् को
रचता है यह मन
ही पुरुष है
इसको तुम
अशुभमार्ग
में न लगाना । जब
मन को जीतोगे
तब सब जगत्
में तुम्हारी
जय होगी । मन
के जीते से सब
जगत् जीता है
और तब बड़ी
विभूति
प्राप्त होती
है । जो शरीर
का नाम पुरुष
होता तो शुक्र
का शरीर पड़ा
था, वह
दूसरा शरीर न
रचता पर उसका
शरीर तो वहाँ
पड़ा रहा और मन
अन्य शरीर को
रचता फिरा, इससे शरीर
का नाम पुरुष
नहीं मन ही का
नाम पुरुष है
। शरीर चित्त
का किया होता
है, शरीर
का किया चित्त
नहीं होता ।
जिस ओर चित्त
जा लगता है उसी
पदार्थ की
प्राप्ति
होती है, इसमें
संशय नहीं ।
इससे यह
अतितुच्छ पद
है । आत्म सत्ता
का चित्तमें
सदा अभ्यास
करो और भ्रम
को त्याग दो ।
जब मन दृश्य
की ओर संसरता है
तब अनेक जन्म
के दुःखों को
प्राप्त होता
है और जब
आत्मा की ओर
इसका प्रवाह
होता है तब
परमपद को
प्राप्त होता
है । इससे
दृश्यभ्रम को
त्यागके
आत्मपद में
स्थित करो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
भार्गवोपाख्यानसमाप्तिवर्णनन्नाम
विंशतितमस्सर्गः
॥20॥
रामजी
ने पूछा,हे भगवन्!
सर्वधर्मों
के वेत्ता!
जैसे समुद्र
में तरंग
उपजके फैल जाता
है तैसे ही
मेरे हृदय में
एक बड़ा संशय
उत्पन्न होकर
फैल गया है कि
देश,काल और
वस्तु के
परिच्छेद से
रहित नित्य,निर्मल, विस्तृत
और निरामय
आत्मसत्ता
में मलीन संवित
मन नामक कहाँ
से आया और
कैसे स्थित
हुआ? जिससे
भिन्न कुछ
वस्तु नहीं और
न आगे होगी
उसमें कलंकता
कहाँ से आई? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! तुमने
भला प्रश्न
किया । अब
तुम्हारी
बुद्धि
मोक्षभागी
हुई है जैसे
नन्दनवन के
कल्पवृक्ष में
कल्पमञ्जरी
लगती है तैसे
ही तुम्हारी
बुद्धि पूर्व
अपर के विचार
से जारी है । अब
तुम उस पद को
प्राप्त होगे
जिस पद को
शुक्र आदिक
प्राप्त हुए
हैं ।
तुम्हारे इस प्रश्न
का उत्तर मैं
सिद्धान्त
काल में दूँगा
और उस काल में
तुमको आत्मपद
हस्तामल कवत्
भासेगा । हे
रामजी!
सिद्धान्त का
प्रश्नोत्तर
सिद्धान्तकाल
में सोहता है
और जिज्ञासु
का प्रश्नोत्तर
जिज्ञासुकाल
में सोहता है
। जैसे वर्षाकाल
में मोर की
वाणी शोभती है
और शरद्काल
में हंस की
वाणी शोभती है
और जैसे वर्षा
काल के नष्ट
हुए स्वाभाविक
ही आकाश की
नीलता भासती
है और
वर्षाकाल में
मेघ की घटा
शोभती है तैसे
ही प्रश्नोत्तर
भी हैं । जैसा
समय हो तैसा
ही शोभता है ।
हे रामजी! मैं
तुमको मन का
स्वरूप अनेक
प्रकार के
दृष्टांतों और
युक्तियों से
कहूँगा और जिस
प्रकार यह निवृत्त
होता है वह भी
क्रम से बहुत प्रकार
कहूँगा । मन
की शान्ति के
उपाय जो वेदों
ने निर्णय
किये हैं और
शास्त्रकारों
ने कहे हैं
उनके लक्षण
तुम सुनो ।
चञ्चल मन जैसा
जैसा भाव
अंगीकार करता
है तैसा ही तैसा
रूप होकर
भासने लगता है
। जैसे पवन
जैसी सुगन्ध
से मिलता है
तैसा ही उसका स्वभाव
हो जाता है और
जैसे जल जिस
रूप से मिलता
है तैसा ही
रूप हो भासता
है तैसे ही मन जिस
पदार्थ से
मिलता है उसका
रूप हो जाता
है । मन से
रहित जो शरीर
से क्रिया करता
है उसका फल
कुछ नहीं होता
और मनसे करता
है उसका पूर्ण
फल होता है ।
जिस ओर मन
जाता है उसी
ओर शरीर भी लग
जाता है ।
बुद्धि
इन्द्रिय जो
मनरूप हैं वे
यदि क्षोभ को
प्राप्त हों
और देह
इन्द्रिय
स्थिर हों तो
भी कार्य होता
है पर यदि मन क्षोभित
न हो और
कर्मेन्द्रि
क्षोभित हों
तो कार्य नहीं
होता । जैसे
धूल
क्षोभायमान हो
तो पवन बिना
आकाश को उड़
नहीं सकती और
पवन क्षोभायमान
हो तो चाहे
जैसी धूल स्थित
हो उसको उड़ा
ले जाती है, तैसे ही देह
पड़ा रहता है
मन अपने फुरने
से स्वप्न में
अनेक अवस्था
को प्राप्त
होता है और
जाग्रत् में
भी जिस ओर मन फुरता
है देह को भी
वहीं ले जाता
है । इससे सब
कार्यों का
बीज मन ही है
और मन से ही सब
कर्म होते हैं
। मन और कर्म
परस्पर
अभिन्नरूप
हैं । जैसे
फूल और सुगन्ध
अभिन्नरूप
हैं तैसे ही
मन और कर्म
हैं । जिस
कर्म का
अभ्यास मन में
दृढ़ होता है
उसी की शाखा फैलती
है, उसी फल
को प्राप्त
होता है और
उसी स्वाद का
अनुभव करता है
। जिस जिस भाव
को चित्त
ग्रहण करता है
उसी उसी भाव
को प्राप्त
होता है और
उसी को कल्पना
मानता है ।
धर्म, अर्थ,
काम मोक्ष
ये चार पदार्थ
हैं, उनमें
जिसकी दृढ़
भावना मन करता
है उसी को
सिद्ध करता
है। कपिलदेव
ने सब शास्त्र
अपने मन की
सत्ता ही
बनाये हैं ।
उसने निर्णय
किया है कि
प्रकृति
अर्थात् माया
के दो स्वभाव
हैं-एक अनुलोम
परिणाम और दूसरा
प्रतिलोम
परिणाम । जब
प्रतिलोम
परिणाम होता
है तब
दृश्यभाव प्राप्त
होता है और
अनुलोम
परिणाम से अन्तर्मुख
आत्मा की ओर
आता है आत्मा
शुद्धरूप है
इससे आत्मा की
ओर अनुलोम परिणाम
ही मोक्ष का
कारण है और
कोई उपाय नहीं
।
वेदान्तवादियों
ने यह निश्चय
किया है कि यह
ब्रह्म ही है
। शम दम आदिक
से जब मन सम्पन्न
होता है तब यह
निश्चय होता है
कि सर्व
ब्रह्म है ।
उनके चित्त
में यही
निश्चय है
ब्रह्मज्ञान
के सिवाय और किसी
यत्न से मोक्ष
नहीं होता ।
विज्ञानवादी कहते
हैं कि जब तक
बुद्धि फुरती
है तब तक
संसार है और
जब यह अपने
स्वभाव में
फुरती है तब
उस काल में
स्वरूप में
स्थिति होती
है । जब वह काल
आवेगा तब
मोक्ष की प्राप्ति
होगी ।
अर्हन्तजी जो
बड़े हैं उनको अपने
निश्चयानुसार
भासता है ।
मीमांसा, पातञ्जल,
वैशैषिक और
न्यायादिक
शास्त्रकार अपनी-अपनीबुद्धि
से जैसा-जैसा
निश्चय धरते हैं
तैसा ही तैसा
उनको भासता है,
स्वरूप में
न कोई मत् है
और न शास्त्र
है । इसका
कारण मन है, मन को ही
अंगीकार करके
सब मत डूबे
हैं । न नींब
कड़ुआ है, न
मधु मीठा है, न अग्नि
उष्ण है और न
चन्द्रमा
शीतल है, जैसा-जैसा
जिसके मन में
निश्चय होता
है तैसा ही
उसको भासता है
। किसी को
नींब प्यारी
होती है और
मधु कटु लगता
है । नींब के कीट
को मधु नहीं
रुचता तो क्या
मधु कटुक हो
गया? विरहिणी
स्त्री को
चन्द्रमा
अग्निवत्
भासता है और
चकोर अग्निको
भक्षण कर लेता
है । निदान
जैसी-जैसी
भावना पदार्थ
में होती है
तैसा ही तैसा
हो भासता है । सब
जगत्
भावना-मात्र
है, जिस
पुरुष को
दृश्य में
भावना है वह
अनेक दुःख और
भ्रम देखता है
और जिसको शम
दमादिक साधन
से
अकृत्रिमपद
की प्राप्ति होती
है और मन तदाकार
हुआ है वह
शान्तिमान्
होता है, दूसरा
उस सुख को
नहीं प्राप्त
होता है । हे रामजी!
यह जगत् दृश्य
तुम्हारे मन
के स्मरण में
स्थित हुआ है
तो तुच्छरूप
है । इसको मन
से त्याग करो
। ये सुख-दुःख
आदिक महाभ्रम
देने वाले हैं
और यह संसार अपवित्र
और असत् तथा
मोहरूप महाभय
का कारण है । आभास
मायामात्र और
अविद्यारूप
है । इसकी भावना
भय का कारण है
। सब जगत् के साथ
संवित् की
तन्मयता होती
है तब उसका
नाम कर्म
बुद्धीश्वर
कहते हैं । जब
दृष्टा को
दृश्य से
संयोग होता है
तब बड़े मोह को
प्राप्त होता
है, दृश्य
से मिल के
भ्रम अनात्म
में
आत्माभिमान
करता है और
देहादिक को
अपना आप जानता
है । संसाररूप
मद से जीव
उन्मत्त हो
जाता है और
स्वरूप की
सँभाल इसको
नहीं
रहती-इसीका
नाम अविद्या बुद्धीश्वर
कहते हैं । जो
दृश्य से मिला
है उसका
कल्याण नहीं
होता और जिसके
आगे मन का पटल
है उसको
स्वरूप का भान
नहीं होता ।
जैसे सूर्य के
आगे जब मेघ का
आवरण आता है
तब वह नहीं
होता भासता
तैसे ही मन के
आवरण से आत्मा
नहीं भासता ।
इससे मनरूपी आवरण
को दूर करो ।
मन का रूप
फुरना है, उसको
संकल्प कहते
हैं । जो-जो
संकल्प फुरें
उनको त्याग
करो, असंकल्प
होने से मन
नष्ट हो
जावेगा । हे
रामजी! जब तुम
सर्व भाव और
सर्व
पदार्थोंमें
असंग होगे तब
दृष्टा पुरुष
प्रसन्न होगा
और उससे तुमको
निर्विकल्प
चिदात्मा की
प्राप्ति
होगी जहाँ न
जगत् की सत्ता
हैं, न सुख
है और न दुःख
है केवल
अद्वैत भाव है
जो अपने आप
में प्रकाशता
है । जब संसार
की भावना तुम्हारे
हृदय से उठ
जावेगी तब तुम
निर्मल स्वरूप
में स्थित
होगे और तब
दृश्यभ्रम निवृत्त
हो जावेगा ।
जैसे रस्सी के
सम्यक् ज्ञान
से
सर्पभ्रमनष्ट
हो जाता है
तैसे ही
चिदात्मा के
सम्यक्ज्ञान
से जगद्भ्रम
नष्ट हो
जावेगा । इससे
तुम
दृश्यभावना
को त्याग के
चिदात्मा की
भावना करो, जैसी भावना
होती है तैसे
ही भासता है ।
यदि प्रथम
भावना को
त्याग के और
भावना करता है
तो प्रथम का
अभाव हो जाता
है । जैसे दिन
हुए से रात्रि
का अभाव हो
जाता है । जैसे
दिन हुए से
रात्रि का
अभाव हो जाता
है तैसे ही
आत्मभावना से
दृश्यभावना
का अभाव हो
जाता है ।
जैसे लोहे को
लोहा काटता है
तैसे ही भावना
को भावना
काटती है । इससे
अतुच्छ
निरुपाधि और
निःसंशय पदका आश्रय
करो । जब उसकी
भावना दृढ़
होगी तब तुम
भ्रम से रहित
सिद्धपद को
प्राप्त होगे
।हे रामजी!
तुम्हारा
आत्मस्वरूप
है, तुम
बुद्धि आदिक
की कल्पना मत
करो । जैसे
बालक से कहिये
कि शून्य में
सिंह है तो वह
भयवान् होता
है तैसे ही जब
शून्य शरीरादिकों
में विचार से
बुद्धिनहीं
आती और ‘यह
मैं हूँ, ‘यह
और है’ इत्यादिक
जो कल्पना
होती हैं सो
ऐसी हैं जैसे
बालक को अपनी
परछाहीं में
वैताल कल्पना
होती है । जो
कि अपनी
कल्पना के वश
से भाव, अभाव,
शुभ, अशुभ
क्षण क्षण में
प्राप्त होते
हैं । और कोई
सत्रूप, कोई
असत्रूप
भासते हैं ।
जैसे जैसी
भावना होती है
तैसा ही तैसा भासता
है, पर
स्त्री में जब
कामबुद्धि
होती है तब
स्पर्श से
स्त्रीवत्
आनन्ददायक होती
है और जो
स्त्री में
माता की भावना
करता है तो
उससे
कामबुद्धि
जाती रहती है
। इससे देखो
जैसी जैसी
भावना होती है
तैसा ही तैसा
हो भासता है ।
भावना के
अनुसार फल होता
है और तत्काल
उसी आकार को
देखता है ऐसा
पदार्थ कोई
नहीं जो सत्
नहीं और ऐसा कोई
नहीं जो असत्
नहीं । जैसा
जैसा किसी ने
निर्णय किया
है तैसा ही
तैसा उसको
भासता है ।
इससे इस संसार
की भावना को
त्याग के स्वरूप
में स्थित हो
। हे रामजी!
मणि में जो
प्रतिबिम्ब
पड़ता है उसको
मणि दूर नहीं
कर सकती पर
तुम तो मणिवत्
जड़ नहीं हो, तुम
चैतन्यरुप
आत्मा हो, तुम्हारे
में जो दृश्य
का
प्रतिबिम्ब
पड़ता है तुम
उसको त्याग
करो । जो
संकल्प दृश्य
का उठे उसको
असत्रूप
उसको असत्रूप
जान के त्याग दो
और प्रकृत
व्यवहार जो
प्राप्त हों
उनको करो और
मणि की नाईं
भीतर से
रञ्चित से रहित
हो रहो । जैसे
मणि में
प्रतिबिम्ब
वहिर्दृष्टि
आता है और
भीतर रंग नहीं
चढ़ता तैसे ही
वहिर्दृष्टि
व्यवहार
तुम्हारे में भासे,
पर हृदय में
राग-द्वेष
स्पर्श न करे
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितप्र0
विज्ञानवादोनामैकविंशतितमस्सर्गः
॥21॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जब जीव को
सन्तों के संग
ओर सत्शास्त्रों
के विचार से विचार
उपजता है तब
दूसरी ओर से
वृत्ति
निवृत्त होती
है और संसार
का मनन भी
निवृत्त हो
जाता है तब
विवेकरूपी
बुद्धि उदय
होती है और
संसार (दृश्य)
में त्याग
बुद्धि होती
है । तथा
दृष्टा आत्मा
में अंगीकार
बुद्धि होता
है । दृष्टा
पुरुष प्रकट
होता है और
दृश्य
अदृश्यता को
प्राप्त होता
है अर्थात्
दृष्टा के
लक्ष्य से
दृश्य को असत्रूप
जानता है । जब
यह पुरुष
ज्ञात ज्ञेय
होता है तब
परमतत्त्व
में जागता है
और संसार की
ओर से धन सुषुप्ति,
मृतक की
नाईं हो जाता
है और संसार
की ओर से
वैराग्य, भोग
में अभोग और
रस में
निरसबुद्धि
उपजती है । जब
ऐसी बुद्धि
होती है तब मन
अपनी सत्ता को
त्यागकर आत्म रूप
होता है ।
जैसे बरफ का
पुतला सूर्य
के तेज से
जलरूप हो जाता
है तैसे ही जब
मन में संसार
की सत्यता
होती है तब उस
फुरने से जड़
हो जाता है जब
विवेकरूपी
सूर्य उदय होता
है तब मन गलके
आत्म-रूप हो
जाता है जैसे
जब तक मरुस्थल
में धूप होती
है तब तक वहाँ
से मृगतृष्णा
की नदी नष्ट
नहीं होती और
जब वर्षा होती
है तब नष्ट हो
जाती है तैसे
ही जब तक
संसार की
सत्यता होती
तब तक मन नष्ट
होता और जब
ज्ञान की
वर्षा होती है
तब दृश्यसहित
मन नष्ट हो
जाता है । हे रामजी!
संसाररूपी
वासना के जाल
में जीवरूपी
पक्षी फँसे
हैं, जब
वैराग्यरूपी
चूहा इसको
कतरे तब जीव
निर्बन्ध हो ।
जैसे मलीन जल
निर्मल होता
है तैसे ही
वैराग्य के वश
से जीव का
स्वभाव
निर्मल हो
जाता है । जब
जीव निराग
निरुपाधि के
संग और राग
द्वेष और मोह
से रहित होता
है तब जैसे पिंजरे
के टूटे पक्षी
निर्बन्ध हो
जाता है, सन्देह
दुर्मति
शान्त हो जाती
है । जगत् भ्रम
नष्ट होजाता
है और हृदय
पूर्ण हो जाता
है । जैसे
पूर्णमासी का
चन्द्रमा
होता है तैसे
ही ज्ञानवान्
शोभता है सबसे
उत्तम
सौन्दर्यता
को प्राप्त
होता है और
उसका उदय अस्त
राग द्वेष
नष्ट हो जाता
है, सर्व
समताभाव
वर्त्तता है
और न्यूनता और
विशेषताभाव
नष्ट हो जाता
है । जैसे पवन
से रहित
सोमसमुद्र
अचल होता है
तैसे ही असंग
पुर मूक जड़
अन्धकर्म की
वासना से रहित
अचल हो जाता
है और वह सब
चेतन प्रकाश
देखता है, उसकी
बुद्धि विवेक
से
प्रफुल्लित
हो जाती है ।
जैसे सूर्य के
उदय हुए
सूर्यमुखी
कमल
प्रफुल्लित
हो आते हैं तैसे
ही वह पुरुष
पूर्णिमा के
चन्द्रमावत् दैवी
गुणों से
शोभता है ।
बहुत कहने से
क्या है ज्ञात
ज्ञेय पुरुष
आकाशवत् हो
जाता है,वह
न उदय होता है
और न अस्त
होता है । विचार
करके जिसने
आत्मतत्त्व
को जाना है वह
उस पद को
प्राप्त होते
हैं जहाँ
ब्रह्मा विष्णु
और रुद्र
स्थित हैं और
सब ही उस पर
प्रसन्न होते
हैं । प्रकट
आकार उसका भासता
है पर हृदय
अहंकार से
रहित है और
विकल्पके
समूह उसको नहीं
खींच
सकते-जैसे जल के
अभाव
जाननेवाले को
मृगतृष्णा की
नदी खींच सकती
। हे रामजी!
आविर्भाव और
तिरोभाव रूप
जो संसार है
उसको
रमणीयरूप जान
के ज्ञानवान्
खेद नहीं पाता,
देह के नाश
में वह अपना
नाश नहीं
मानता और
उपजने में
उपजना नहीं मानता
। जैसे घट
उपजे से आकाश
नहीं उपजता, क्योंकि आगे
सिद्ध है और
घट के अभाव से
आकाश का अभाव
नहीं होता, तैसे ही देह के
उपजे से आत्मा
नहीं उपजता और
देह के नष्ट हुए
नष्ट नहीं
होता । जब ऐसा
विवेक उदय होता
है तब
वासना-जाल
नष्ट हो जाता
है और कोई भ्रम
नही रहता ।
जैसे
मृगतृष्णा की नदी
का ज्ञान से
अभाव हो जाता
है जब तक जीव
को यह विचार
नहीं उपजता कि
मैं कौन हूँ और
जगत क्या है, तब तक
संसाररूपी
अन्धकार रहता
है । जो पुरुष
ऐसे जानता है
कि संसार भ्रम
मिथ्या उदय
हुआ है और परम
आपदा का कारण
देह
अनात्मरूप है,
आत्मा से यह
जगत् भिन्न
नहीं और सब
आत्मसत्ता
करके स्थित है
वही पदार्थ
देखता है । सब
चैतन्यसत्ता है,
मैं अनन्त
चिदाकाशरूप
हूँ और देश, काल, वस्तु
के परिच्छेद
से रहित हूँ ।
और आधि , व्याधि,
भय, उद्वेग,
जरा-मरण, जन्म आदिक
संयुक्त मैं
नहीं, ऐसे
जो देखता है, वही पदार्थ
देखता है ।
बाल के अग्र
का लक्षभाग
करिये और फिर
एक भाग के
कोटिभाग
करिये ऐसा
सूक्ष्म
सर्वव्यापी
है, ऐसे जो
देखता है, वही
यथार्थ देखता
है । मैं
सर्वशक्ति मान्
अनन्त आत्मा
हूँ, सर्वपदार्थों
में स्थित और
अद्वैत
चिदादित्य
हूँ, ऐसे
जो देखता है
वही यथार्थ
देखता है ।
अधः ऊर्ध्व मध्य
और सब में मैं
व्यापा हूँ, मुझसे भिन्न
द्वैत कुछ
नहीं, ऐसे
जो देखता है
वही यथार्थ
देखता है जैसे
तागे में माला
के दाने
पिरोये होते
है तैसे ही सब
मुझमें पिरोये
हैं, ऐसे
जो देखता है
वही यथार्थ देखता
है । न मैं हूँ
न यह जगत् है, केवल
ब्रह्मसत्ता
स्थित है, सत्
असत् के मध्य में
जो एक देव
प्रकाशक है और
त्रिलोकी में
जो एक है वही मैं
एक अविनाशी
पुरुष हूँ । जैसे
समुद्र में
तरंग फुरते
हैं और लीन हो
जाते हैं तैसे
ही मेरे में
जगत् फुरते हैं
और लीन होते
हैं । अथवा
प्रथम अहं है,
तब दृश्य
जगत् होता है,
सो न मैं हूँ,
न जगत् है, केवल एक
आत्मसत्ता है
। अहं और मम
उसमें कोई
नहीं, ऐसे
जो देखता है
सो यथार्थ
देखता है ।
दृश्य से रहित
मैं
चैतन्यरूप
भाव अपार हूँ
और मैं ही जगत्जाल
को पूर्ण कर
रहा हूँ । जो
पुरुष
ज्ञानवान्
हैं वे
सुख-दुःख और
भाव अभाव में
चलायमान नहीं
होते वे केवल
ब्रह्मरूप में
स्थित हैं और
जगत् के
भाव-अभाव से रहित
अनाभाव
सन्मात्ररूप
है । जो
हेयोपादेयबुद्धि
से रहित
आकाशवत्
सर्वात्मभाव
में स्थित हुआ
है उसको जगत्
का कोई पदार्थ
अपने वश नहीं
कर सकता, वह
महात्मा पुरुष
महेश्वर, तमप्रकाश
से रहित, सब
कल्पनाओंसे
मुक्त, सम
और स्वच्छरूप
है और उदय अस्ति
से रहित
समवृक्ष है ।
जो ऐसी परमबोध
अनन्त सत्ता
में स्थित है
उसको मेरा नमस्कार
है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
अनुत्तमविश्रामवर्णनन्नाम
द्वाविंशतितमस्सर्गः
॥22॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जिसने उत्तम पद
का आश्रय किया
है ऐसे
जीवन्मुक्त
पुरुष का
कुम्हार के
चक्र की नाईं
प्रारब्ध शेष
रहा है । वह
पुरुष
शरीररूपी नगर
में राज्य करता
है और
लेपायमान
नहीं होता ।
उसको भोग और मोक्ष
दोनों सिद्ध
होते हैं ।
जैसे इन्द्र
का वन सुखरूप
है तैसे ही
उसका शरीररूपी
नगर सुखरूप होता
है । शरीर के
सुख से वह
सुखी नहीं
होता और दुःख
से दुःखी नहीं
होता, अपने
स्वरूप में
स्थित रहता है
। रामजी ने
पूछा, हे
मुनीश्वर!
शरीररूपी नगर
कैसा है, उसमें
रहके योगिराज
क्या करता है
और सुख कैसे
भोगता है? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! ज्ञानी
का शरीररूपी
नगर रमणीय होता
है और
सर्वगुणसंयुक्त
ज्ञानवानों
को अनन्त
आनन्द विलास
दिखाता है, जैसे सूर्य प्रकाश
को उदय करता
है । उस
शरीररूपी नगर
में गाँठें
ईंटें हैं, रुधिर और
माँस गारा है,
अस्थि थम्भ
हैं, किवाड़
पटहैं, रोम
वनस्पति हैं,
उदर खाई है,
छाती चाक है
नव द्वार हैं
और उनमें
नेत्र झरोखे
हैं, उन
द्वारों से
त्रिलोकी का
प्रकाश होता
है , हाथ
गली हैं, जिनसे
लेता देता है,
मुख बड़ी
कन्दरा है, ग्रीवा और
शीश बड़े
मन्दिर हैं और
रेखा माला है
जो भिन्न
भिन्न लगी हुई
हैं, नाड़ी
विभाग करने के
स्थान हैं और
प्राणवायु आदिक
से नाड़ी में
जीव विचरते
हैं, चिन्तामणिरूपी
आत्मा में
श्रेष्ठ
बुद्धिरूपी
स्त्री रहती
है जिसने इन्द्रियरूपी
वानर बाँध
रक्खे हैं, और जिसके
हास्य में
महासुन्दर
फूल हैं । ऐसा शरीररूपी
पुर
ज्ञानवान् को
महासुखका
निमित्त है और
सौभाग्य
सुन्दररूप है
। उस शरीर के
सुख दुःख से
ज्ञानवान् सुखी
दुःखी नहीं
होता । हे
रामजी! जो
अज्ञानी हैं
उनको शरीररूपी
नगर अनन्त
दुःख का
भण्डार है, क्योंकि
अज्ञान से वे
शरीर के नष्ट
हुए आपको नष्ट
हुआ मानते हैं
और ज्ञानवान्
इसके नाश हुए
अपना नाश नहीं
मानते । वे जब
तक रहते हैं
तब तक शब्द, स्पर्श, रूप,
रस, गन्ध
इनको ग्रहण
करते हैं, वे
इष्टरूप होके
भासते हैं और
शरीररूपी नगर
में भ्रम से
रहित निष्कण्टक
राज्य करते
हैं । वे लोभ
से रहित हैं, इस कारण
शत्रु कुछ
नहीं लेते और
उनको अपने स्थान
में आने नहीं
देते । वे
शत्रु काम, क्रोध, मान,
मोहादिक
अज्ञान रूप
हैं, उनमें
वे आप प्रवेश
नहीं करते और
अपने देश में
उनको आने नहीं
देते, सावधान
ही रहते हैं ।
उनके देश, उदारता,
धीरज, सन्तोष,
वैराग्य, समता, मित्रता,
मुदिता और
उपेक्षा हैं,
उनमें
अज्ञान नहीं
प्रवेश करने पाता
और आप
ध्यानरूपी
नगर में रहता
है, सत्यता
और एकता दोनों
स्त्रियों को
साथ रखता है
और उनसे सदा
शोभायमान
रहता है जैसे
चन्द्रमा
चित्रा और
विशाखा दोनों
स्त्रियों से
शोभता है तैसे
ही ज्ञानवान्
सत्यता और एकता
से शोभता है ।
वह मनरूपी
घोड़े पर आरूढ़
होके और
विचाररूपी
लगाम उसके
लगाकर जीव ब्रह्म
की एकतारूपी
संगम तीर्थ
में स्नान
करने जाता है जिससे
सदा आनन्दवान
रहता है और
भोग और मोक्ष
दोनों से
सम्पन्न होता
है । जैसे
इन्द्र अपने
पुर में शोभता
है तैसे ही
ज्ञानवान्
देह में शोभता
है और जैसे घट
के फूटे से
आकाश की कुछ
न्यूनता नहीं
होती तैसे ही
देह के नाश
हुए ज्ञानी की
कुछ हानि नहीं
होती वह ज्यों
का त्यों ही
रहता है ।
यद्यपि उसके
देह होती है
तो भी वह उससे
स्पर्श नहीं
करता- जैसे घट
से आकाश
स्पर्श नहीं
करता और सब
क्रिया को
करता भोक्ता
है, परन्तु
किसी में लिप्त
नहीं होता सदा
एक रस भगवान
आत्मदेव में रहता
है । जब वह
विमान पर आरुढ़
होके शरीररूपी
नगर में विचरता
है तब
मैत्रीरूपी
नेत्रों से
सबको देखता है,
मैत्रीभाव उसमें
सदा रहता है
और सत्यता और
एकता सदा उसके
पास है उससे
शोभता है और
सदा आनन्दवान्
विचरता है ।
वह जीवों को
दुःखरूपी आरे
से कटते देखता
है जैसे कोई
पहाड़ पर चढ़के
पृथ्वी में
लोगों को जलता
देखे और आप आनन्दवान्
हो, जैसे
वह ज्ञानवान् जीवों
को दुःखी
देखता है । और
आप आनन्दवान्
है । उसकी
दृष्टि में तो
सदा
अद्वैतरुप है
और आत्मानन्द
की अपेक्षा से
अनात्म धर्म को
दुःखी देखता
है, उसके
निश्चय में जगत्
जीव कोई नहीं
और वह चारों
प्रयोजन धर्म,
अर्थ, काम,
मोक्ष की
पूर्णता को प्राप्त
होता है ।
किसी ओर से
उसको न्यूनता
नहीं, वह
सर्व सम्पदा
सम्पन्न
विराजमान होता
है । जैसे
पूर्ण-मासी का
चन्द्रमा
न्यूनता से
रहित विराजता
है तैसे ही
यद्यपि वह
भोगों को
सेवता है तो
भी उसको वे
दुःखदायक नहीं
होते । जैसे
कालकूट विष को
सदा शिव ने
पान किया था
परन्तु उनको
वह दुःखदायक न
हुआ, तैसे
ही वह भी
समर्थ है ।
जैसे चोर को
जानके जब उसे
अपने वशवर्ती
किया तब मित्रभाव
हो जाता है
तैसे ही भोग
उसको दुःख
नहीं देते ।
जब जीव भोगों
को जानता है
कि ये कुछ
वस्तु नहीं
हैं तब वे सुख
के कारण होते
हैं और जब तक
इनको सत्त जानके
आसक्त होता है
तब तक दुःख के
कारण होते हैं
। हे रामजी!
जैसे यात्रा
में अनेक
स्त्री पुरुष
मिलते हैं और
परस्पर
इकट्ठे बैठते
और चलते फिरते
हैं परन्तु
आपस में आसक्त
नहीं होते-
आगे पीछे चले
जाते हैं- तैसे
ही ज्ञानवान्
संसार के
पदार्थों में
चित्त को नहीं
लगाते । जैसे
कोई कासिद किसी
देश में जाता
है और मार्ग
में कोई
सुन्दर रमणीय
स्थान दृष्टि
आते और कोई
मलीन कष्ट के
स्थान भासते
हैं परन्तु वह
राग-द्वेष किसी
में नहीं करता
जैसे तैसे
देखता चला
जाता है, तैसे
ही ज्ञानवान्
भोगक्रिया
में राग-द्वेष
से बन्धवान्
नहीं होता । उसके
सर्वसंशय
सम्यक्ज्ञान
से शान्त हो
जाते हैं, कोई
आश्चर्य
पदार्थ उसको
नहीं दिखाई
देते, उसके
वासना के समूह
नष्ट हो जाते
हैं, चक्रवर्ती
राजा की नाईं
शोभता है और
परिपूर्ण
होके स्थित
होता है ।
जैसे क्षीर समुद्र
अपने आपमें
पूर्ण नहीं
समाता तैसे ही
ज्ञानी अपने
आपमें पूर्ण
नहीं समाता । हे
रामजी! इन
जीवों को भोग
की इच्छा ही
दीन करती है
जिससे वे
आत्मपद से
गिरते हैं और
अनात्म में
प्राप्त हो
कृपण हो जाते
हैं । उनको
देखके उत्तम
आत्मपद
आलम्बी हँसते हैं
कि ये मिथ्या
दीनभाव को
प्राप्त हुए
हैं । जैसे
कोई स्वामी
होकर स्त्री
के वश हो और
स्त्री
स्वामी की
नाईं हो तो
उसको देखके
लोग हँसते हैं,
तैसे ही
ज्ञानवान् भोग
की
तृष्णावाले
को दीन देखके
हँसते हैं चञ्चल
मन ही परम
सिद्धान्त
सुख से जीवों को
गिराता है, इससे तुम
मनरूपी हस्ती
को बिचाररूपी
कुन्दे से वश
करो तब
सिद्धपद को प्राप्त
होगे । जिसका
मन विषयों की
ओर धावता है
वह संसार रूपी
विष का बीज
बोता है, इससे
प्रथम इस मन
को ताड़न करो
तब शान्ति को
प्राप्त होगे
। जो मानी
होता है और
कोई उसका मान
करता है तो वह
उपकार कुछ
नहीं मानता पर
जब प्रथम उसको
ताड़न करके
थोड़े ही उपकार
किये से
प्रसन्न होता
है । जैसे
धान्य जल से
पूर्ण होते
हैं तब जल के सींचने
से उनमें
उपकार नहीं
होता और जो
ज्येष्ठ आषाढ़
की धूप से
तप्त होते हैं
तो थोड़ा जल
सींचने से भी
उनको अमृतवत्
होता है, तैसे
ही जो प्रथम
मन का सन्मान
करिये तो
मित्रभाव
नहीं होता और
यदि ताड़न करके
पीछे सन्मान
कीजिये तो
उपकार मानके
मित्र भाव
रक्खेगा ।
ताड़न करना
विषय से संयम
करना है जब
संयम करके
निर्वाण हो तब
यह सन्मान
करना चाहिये
कि संसार के
पदार्थों में
बर्त्ताना ।
तब वह
शत्रुभाव को
त्याग के
मित्र हो जाता
है, जैसे
वर्षाकाल में
जब नदी जल से
पूर्ण होती है
तब उसमें जल
का उपकार नहीं
होता पर
शरद्काल में
जल का उपकार होता
है । जैसे
राजा को और
देश का राज्य
प्राप्त हो तो
वह कुछ
प्रसन्न नहीं
होता पर यदि
प्रथम उसे
बन्दीखाने
में डालिये और
फिर थोड़े
ग्राम दीजिये
तो उससे प्रसन्नहोतअ
है, तैसे
ही जब प्रथम
मन को ताड़न
कीजिये तब
थोड़े सन्मान
से भी सुखदायक
होता है । इससे
तुम हाथ से
हाथ दबाके, दाँतों से
दाँत मिलाके
और अंग से अंग
रोक के इन्द्रियों
को जीत लो ।
मनुष्य के
हृदय में
मनरूपी सर्प कुण्डल
मारके बैठा है
और कल्परूपी
विष से पूर्ण
है । जिसने
उसका मर्दन
किया है उसको मेरा
नमस्कार है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
शरीरनगर
वर्णनन्नाम
त्रयोविंशतितमस्सर्गः
॥23॥
वसिष्ठजी
बोले कि हे
रामजी!
अज्ञानी जीव
महानरक को
प्राप्त होता
है । आशारूपी
बाण की शलाका
उसको लगी है
और
इन्द्रियरूपी
शत्रु मारते
हैं
इन्द्रियाँ
दुष्ट बड़ी कृतघ्न
हैं,
जिस देह के
आश्रय रहती
हैं उसको शोक
और इच्छा से
पूर्ण करती
हैं । ये महादुष्ट
और दुःखदायक
भण्डार हैं, इनको तुम
जीतो ।
इन्द्रियाँ
और मनरूपी चील
पक्षी हैं, जब इनको
विषय भोग नहीं
होते तब
ऊर्ध्व को
उड़ते हैं और जब
विषय प्राप्त
होते हैं तब
नीचे को आ
गिरते हैं ।
जिस पुरुष ने
विवेकरूपी
जाल से इनको
बाँधा है उसको
ये भोजन नहीं
कर सकते
जैसे-पाषाण के
कमल को हाथी
भोजन नहीं कर
सकता । हे राम जी!
ये भोग
आपातरमणीय और
अत्यन्त विरस
हैं, जो
पुरुष इनमें
रमण करता है
वह नरक को
प्राप्त होगा
और जो पुरुष
ज्ञान के धन
से सम्पन्न है
और देहरूपी
देश में रहता
है वह परम
शोभा पाता है
और आनन्दवान्
होता है, क्योंकि
बड़े ऐश्वर्य
से उसने
इन्द्रिय रूपी
शत्रु जीते
हैं । हे
रामजी! सुवर्ण
के मन्दिर में
रहने से ऐसा
सुख नहीं मिलता
जैसा
निर्वासनिक
ज्ञानवान् को
होता है । जिस
पुरुष ने
इन्द्रियों
और असत्रूपी शत्रु
को जीता है वह
परम शोभा से
शोभता है-जैसे
हिमऋतु को
जीतके
वसन्तऋतु में मञ्जरी
शोभती हैं ।
जिस पुरुष के
चित्त का गर्व
नष्ट हुआ है
और जिसने
इन्द्रियरूपी
शत्रु जीते
हैं उसकी भोग
वासना नष्ट हो
जाती हैं-जैसे
शीतकाल में
पद्मिनियाँ
नष्ट हो जाती
हैं । हे
रामजी!
वासनारूपी
वैताल निशाचर
तब तक विचरते
हैं जब तक एक तत्त्व
का दृढ़ अभ्यास
करके मन को
नहीं जीतते, जब
विवेक-रूपी
सूर्य उदय
होता है तब अन्धकार
नष्ट हो जाता
है । जब विवेक
से मनुष्य मन
को वश करता है
तब इन्द्रियाँ
भृत्य
(टहलुये) हो
जाती हैं, मन
रूपी सब मित्र
हो जाते हैं
और आप राजा
होके स्वरूपराज
को भोगता है ।
हे रामजी! विवेक
की
इन्द्रियाँ
पतिव्रता
स्त्रीवत् हो
जाती हैं मन
माता की नाईं
पालना करने वाला
होता है और
चित्त सुहृद
हो जाता है ।
जब निश्चयवान्
पुरुष
सत्शास्त्र
को विचारता है
तब परम
सिद्धान्त को
प्राप्त होता
है और मन अपने
मननभाव को
त्याग के शान्तरूप
पितावत्
प्रतिपालक हो
जाता है । इससे
तुम मन को
विवेक से वश
करो । मनरूपी मनि
को आत्मविचार
शिला से घिसो,
विराग-जल से
उज्ज्वल करो
अभ्यासरूपी
छेद करके
विवेक रूपी
तागे से पिरोय
कण्ठ में
पहिनो तो शोभा
देती है । जन्मरूपी
वृक्ष को
विवेकरूपी कुल्हाड़ा
काट डालता है
और मनरूपी
शत्रु को विवेकरूपी
मित्र नष्ट
करता है और
सदा शुभकर्म
कराता है और
विषय के
परिणामिक
दुःख को निकट
नहीं आने देता
। इससे मन को वश
करना ही आनन्द
का कारण है ।
जब तक मन वश
नहीं होता तब
तक दुःख देता
है और जबवश
होता हे तब
सुखदायक होता
है । हे रामजी!
मन रूपी मणि
भोग की तृष्णा
से कलंकित हुई
है, जब जब
विवेकरूपी जल
से इसको शुद्ध
करे तब शोभायमान
होगी । यह
संसार महाभय का
देनेवाला है ।
अल्प
विवेकवान्
पुरुष भी मायारूपी
संसार में गिर
पड़ते हैं, तुम
और जीवों की
नाईं इसमें मत
गिरो । यह
संसार मायारूप
है और अनेक
अर्थों की
जंजीर संयुक्त
है
महामोहरूपी
कुहिरे से जीव
अन्धे हो गये
हैं, इससे
तुम विवेकपद
का आश्रय करके
बोध से सत् का
अवलोकन करो और
इन्द्रियों से
वेरागरूपी
नौका से
संसारसमुद्र को
तर जाओ । शरीर
भी असत् है और
इसमें सुख और
दुःख भी असत्
हैं । तुम दाम,
ब्याल, और
कट की नाईं मत
हो, पर भीम,
भास और दट
की स्थिति को
ग्रहण करके
विशोक हो । `अहं’ ममादिक’
निश्चय
वृथा है, उसको
त्याग के
तत्पद का
आश्रय करो ।
चलते, बैठते,
खाते, पीते
मन में मनन का अभाव
हो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थिति
प्रकरणे मनस्विसत्यताप्रतिपादनन्नाम
चतुर्विंशतितमस्सर्गः
॥24॥
रामजी
ने पूछा, हे भगवन्!
आप संसार के
दूर करनेवाले
हैं यह आपने
क्या कहा? इसको
खोलकर कहो कि
दाम, ब्याल
और कट की नाईं
कैसे और भीम, भास, दट
की स्थिति
कैसे हैं? जैसे
वर्षाकाल के
मेघ पन को दूर
करते हैं और मोर
को शब्द करके
जगाते हैं
तैसे ही तुम
अपनी कृपा से
जगावो ।
वशिष्ठजी
बोले,हे
रामजी! प्रथम
इसकी नाईं
स्थित हो, पीछे
जो इष्ट हो
उसमें विचरना
। पाताल में सम्बरनाम
का एक दैत्य
राजा मायावी
और सर्व आश्चर्यरूप
मन के
मोहनेवाला था
। उस दैत्य ने अपनी
माया से आकाश
में एक नगर
रचा और उसमें
बाग, दैत्यों
के मन्दिर, सूर्य, चन्द्रमा
और अनन्त
ऐश्वर्य से
सम्पन्न दैत्यों
और रत्नों की
स्त्रियाँ
रचीं, जो
गान करतीं थीं
और जिन्होंने
देवताओं की स्त्रियाँ
भी जीतीं।
उसने वृक्ष
बनाये जिनमें
चन्द्रवत् फल
लगे और श्वेत
पीत रत्नों की
कमलिनी और
सुवर्ण के हंस,
सारस और कमल
सुवर्ण के
वृक्षों की
बड़ी शाखों पर
बैठै हुए
बनाये और कञ्ज
के वृक्ष
जिनमें कमल
वृक्ष के फूल
लगाये और
रत्नों से जड़े
हुए सुन्दर
स्थान, बरफ
की नाईं शीतल
बगीचे, वनस्थान
चन्दन के रचे
। इन्द्र का
नन्दन वन किन्तु
उससे विशेष और
सर्वऋतु के
फूल लगाये, उनमें
देत्यों की
स्त्रियाँ
क्रीड़ा करती
थीं और बड़े
ऐश्वर्य रचे
थे । विष्णु
और सदाशिव के
सदृश
ऐश्वर्यसंयुक्त
उसने अपना नगर
किया और बड़े प्रकाश
संयुक्त
रत्नों के
तारागण रचे ।
जब रात्रि हो
तब वे चन्द्रमा
के साथ उदय
हों पुतलियाँ
गान करें । माया
के हाथी ऐसे
रचे जो इन्द्र
के ऐरावत को
जीत लेवें ।
इसी प्रकार
त्रिलोकी की विभूति
से उत्तम
विभूति उसने
रची और भीतर
बाहर सर्व
सम्पदाओं से
पूर्ण किया ।
सब दैत्य
मणडलेश्वर
वन्दना करते
थे, आप सब दैत्यों
का राजा शासन
करने वाला हुआ
और सब उसकी
आज्ञा में
चलते थे । बड़ी
भुजावाले दैत्य
उस नगर में
विश्राम करते
थे । निदान जब सम्बर
दैत्य शयन करे
अथवा
देशान्तर में
जाय तब अवकाश
देखके
देवताओं के
नायक उसकी सेना
को मार जावें
और नगर लूट ले जावें
। तब सम्बर ने
रक्षा
करनेवाले
सेनापति रचे,
पर समय
देखके देवता
उनको भी मार गये
। सम्बर ने यह
सुनके बड़ा कोप
किया और जी से ठाना
कि इनको मारूँ
। ऐसे विचार
के वह अमरपुरी
पर चढ़ गया और
देवता भयभीत
होके सुमेरु
पर्वत में
भवानी शंकर के
पास अथवा वन
कुञ्ज और
समुद्र में जा
छिपे । जैसे
प्रलयकाल में
सब दिशाएँ शून्य
हो गया । तब
दैत्यराज
अमरपुरी को
शून्य देख के
और भी कोपवान्
हुआ और उसमें अग्निजलाकर
लोकपालों के
सब पुर जला
दिये और देवताओं
को ढूँढ़ता रहा
परन्तु वे
कहीं न
दीखे-जैसे
पापी पुण्य को
देखे और वे कहीं
दृष्ट न आवें
तैसे ही देवता
कहीं दृष्ट न
आये । तब
सम्बर ने
कुपित होके
ऐसे बड़े बली
तीन राक्षस
सेना की रक्षा
के निमित्त माया
से रचे कि वे
मानो काल की
मूर्ति थे और
उनके बड़े आकार
ऐसे हिलते थे
मानो पंखों से
संयुक्त
पर्वत हिलते
हैं-उन्हीं के
नाम, दाम, व्याल, कट
हैं वे अपने
हाथों में
कल्पवृक्ष की
नाईं बड़े-बड़े
शस्त्र और भुजा
लिये यथा
प्राप्त कर्म
में लगे रहें
। उनको धर्म
और कर्म का
अभाव था, क्योंकि
पूर्व वासना
कर्म उनको न
था और निर्विकल्प
चिन्मात्र
उनका स्वरूप
था। वे अपने
स्थूल शरीर के
स्वभावसत्ता
में स्थित न
थे और
अनात्मभाव को
भी नहीं
प्राप्त भये
थे । एक स्पन्दमात्र
कर्मरूप
चेतना उनमें थी
। वही कर्म का
बीज
चित्तकलना
स्पन्दरूप हुई
थी । वे
मननात्मक
शस्त्र
प्रहार को रचे
थे और उसी को
करते, परन्तु
हृदय में
स्पष्टवासना
उनको कोई न
फुरती थी केवल
अवकाशमात्र
स्वभाव से
उनकी क्रिया
हो । जैसे
अर्धसुषुप्त
बालक अपने अंग
को स्वा भाविक
हिलाता है
तैसे ही वह
वासना बिना
चेष्टा करें ।
वे गिरना और
गिराना कुछ न जानते
थे और न यही
जानते थे कि
हम किसी को
मारते हैं
अथवा हमीं
मरते हैं । वे न
भागना जानें
और न जानें कि
हम जीते हैं व
मरते हैं ।
जीत-हार को वे
कुछ न जानें केवल
शस्त्र का
प्रहार करें ।
जैसे यन्त्री
की पुतली तागे
से चेष्टा
बिना संवेदन
कर ती है तैसे
ही दाम, ब्याल
और कट चेष्टा
करें । वे ऐसे
महाबली थे कि
जिनके प्रहार
से पहाड़ भी
चूर्ण हो
जावें । उनको
देख के सम्बर
प्रसन्न हुआ
कि सेनाकी रक्षा
को बड़े बली
हैं और इनका
नाश भी उनसे न
होगा, क्योंकि
इनको
इष्ट-अनिष्ट
कुछ नहीं है
जिनको इष्ट-अनिष्टका
ज्ञान और
वासना नहीं है
उनका नाश कैसे
हो और वे कैसे
भागें । जैसे
देवता के हाथी
बड़े बली होके
भी सुमेरु को
नहीं उखाड़
सकते तेसे ही
देवता बड़े बली
भी हैं परन्तु
इनको न मार
सकेंगे । ये बड़े
बली रक्षक हैं
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दामब्यालकटोत्पत्ति
वर्णनन्नाम
पञ्चविंशतितमस्सर्गः
॥25॥
वशिष्ठजी
बोले कि हे
रामजी । इस
प्रकार जब निर्णय
करके सम्बर ने
दाम,
ब्याल, कट
स्थापन किये
तो जब देवताओं
की सेना भूतल
में आती थी और
सम्बर चढ़ता था
तब वे भाग जाते
थे । निदान
सम्बर की सेना
को देखके
देवता भी
समुद्र और
पहाड़ से उछल
के निकल दोनों
बड़ी सेना सहित
युद्ध करने
लगे । जैसे प्रलयकाल
के समुद्र
क्षोभते हैं
और सब जलमय
होजाता है
तैसे ही देवता
और दैत्य सब
ओर से पूर्ण
हो गये और बड़े
बाणोंसे युद्ध
करने लगे ।
शंखध्वनि
करके जो
शस्त्र चलते
थे उनसे शब्द
हों और अग्नि
निकले और तारों
की नाईं
चमत्कार हो ।
शरीरों से शिर
कटें और धड़
काँप-काँप के
गिर पड़े और दोनों
ओर से शस्त्र
चलें पर दाम, व्याल, कट
न भागें, मारते
ही जावें, जिनके
प्रहार से
पहाड़ चूर्ण
हों सब दिशाओं
में शस्त्र
पूर्ण हो गये
और रुधिर के
ऐसे प्रवाह
चले कि उनमें
देवता दैत्य
मरे हुए बहते
जावें और महाप्रलय
की नाईं भय
उदय हुआ । एक एक
अस्त्र ऐसा
चले जिससे
शस्त्रों की
नदियाँ निकल पड़ें
। कोई
अग्निरूप , कोई तमरूप अस्त्र
चलावे, दूसरे
प्रकाशरूप, कोई
निद्रारूप, कोई
प्रबोधरूप, कोई सर्परूप
और कोई गरुड़रूप
अस्त्र
चलावें । इस
प्रकार वे
परस्पर युद्ध
करें और
ब्रह्मास्त्र
चलावें और
शिला की वर्षा
करें । सब
पृथ्वी रक्त
और माँस से
पूर्ण हो गई
और अनेक जीवों
के धड़ और शीश
गिर पड़े जैसे
वृक्ष से फल
गिरते हैं तैसे
ही देवता और
दैत्य गिरे और
बड़ा घोर युद्ध
हुआ । बहुत से
गन्धर्व, किन्नर
और देवता नष्ट
हुए और दैत्य
भी बहुत मारे
गये परन्तु
दैत्यों की ही
कुछ जीत रही । इस
प्रकार
मायावी सम्बर
की सेना और देवताओं
का युद्ध हुआ
। जैसे वर्षा
काल में आकाश
में मेघ घटा
पूर्ण हो जाती
है तैसे ही
देवता और
दैत्यों की सेना
इकट्ठी हो गई
और दिशा
विदिशा सब
स्थान पूर्ण
हो गये ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितप्रकरणे
दामव्यालकटकसंग्रामवर्णनन्नाम
षड्विंशतितमस्सर्गः
॥26॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
इस प्रकार घोर
संग्राम हुआ
कि देवता और
दैत्यों के
शरीर ऐसे गिरे
जैसे पंख टूटे
से पर्वत गिरते
हैं । रुधिर
के प्रवाह
चलते थे और
बड़े शब्द होते
थे जिससे आकाश
और पृथ्वी पूर्ण
हो गई । दाम ने
देवताओं के
समूहों को घेर
लिया और व्याल
ने पकड़ के
पहाड़ में पीस
डाला । कट ने
देवताओं के
समूह चूर्ण किये
उनके स्थान
तोड़ डाले और
बड़ा क्रूर
संग्राम किया
। देवताओं का
हाथी जो मद से मस्त
था वह ताड़ने
से क्षीण हो
गया तो वहाँ
से भयभीत होकर
भागा और देवता
भी भागे । जैसे
मध्याह्न के
सूर्य का बड़ा
प्रकाश होता है
तैसे ही दैत्य
प्रकाशवान्
हुए और जैसे
बाँध के टूटने
से जल का
प्रवाह
तीक्ष्ण वेग
से चलता है
तैसे ही देवता
तीक्ष्ण वेग
से भागे । जल
के प्रवाहवत्
मर्यादा छूट
गई और दाम, व्याल,
कट की सेना
जीत गई । तब तो
वे देवताओं के
पीछे लग के
मारते जावें ।
निदान जैसे
काष्ठ से रहित
अग्नि अन्त र्धान
हो जाती है
तैसे ही
बलवान् देवता
बल से हीन
होकर
अन्तर्धान हो
गये और दैत्य उनको
ढूँढ़ते फिरें,
परन्तु
जैसे जाल से
निकले पक्षी
और बन्धन से छूटे
मृग नहीं आते तैसे
ही देवता भी
हाथ न आये तब
दाम, व्याल
कट तीनों सेना
सहित पाताल
में अपने स्वामी
सम्बर के पास
उसकी
प्रसन्नता के
लिये आये । जब
देवताओं ने
सुना कि दैत्य
पाताल में गये
हैं तब वे
विचार करने
लगे कि किसी
प्रकार इससे
ईश्वर हमारी
रक्षा करे ।
ऐसी चिन्ता से
आतुर हुए
देवताओं को
देख ब्रह्माजी
जिनका अमित
तेज है और सुन्दर
रक्त पहिने
हैं देवताओं
के निकट आये और
जैसे
संध्याकाल
में रक्तवर्ण
बादल में
चन्द्रमा
शोभता है तैसे
ही
प्रकाशवान् ब्रह्माजी
को देखके
इन्द्रादिक
देवताओं ने
प्रणाम किया
और सम्बर
दैत्य की
शत्रुता से कहा
कि हे
त्रिलोकी के
ईश्वर! हम आपकी
शरण आये हैं, हमारी रक्षा
करो । सम्बर
दैत्य ने हमको
बहुत दुःख
दिया है और
उसके सेनापति
दाम, व्याल,
कट जो बड़े दैत्य
हैं किसी
प्रकार हमसे
नहीं मारे
जाते । उन्होंने
हमारी सेना
बहुत चूर्ण की
है इस निमित्त
आप इनके मारने
का उपाय हमसे
कहिये । तब
संपूर्ण जगत्
पर दया करनेवाले
ब्रह्माजी ने
शान्ति के
कारण वचन कहे
। हे अमरेश! ये
दैत्य अभी तो
नष्ट न होंगे,
जब इनको
अहंकार
उपजेगा तब ये
मरेंगे और
तुमही इनको
जीतोगे ।
मैंने इनकी
भविष्यत् देखी
है, ये
दैत्य युद्ध
में भागना
नहीं जानते और
मरने, मारने
का ज्ञान भी
इनको नहीं है
ये सम्बर दैत्य
की माया से
रचे हैं इसका
नाश कैसे हो ।
जिसको ‘अहं’
‘मम’ का
अभिमान हो उसी
का नाश भी
होता है, पर
ये तो ‘अहं’
‘ममादिक’ शत्रुओं को
जानते ही नहीं
इनका नाश
कदाचित् न
होगा । जब
इनको अहंकार
उपजेगा तब
इनका नाश होगा
इसलिये
अहंकार
उपजाने का
उपाय मैं
तुमसे कहता हूँ
। तुम उनके
साथ युद्ध
करते रहो और
इस प्रकार
युद्ध करो कि
कभी उनके
सम्मुख रहो, कभी दाहिने
रहो, कभी
बाँये रहो और
कभी भाग जावो
। इस प्रकार
जब तुम
बारम्बार करोगे
तब उनके युद्ध
के अभ्यासवश से
अहंकार का
अंकुर उपजेगा
और जब अहंकार
का चमत्कार
हृदय में उपजा
तब उसका प्रति
बिम्ब भी
देखेंगे
जिससे यह
वासना भी फुर
आवेगी कि हम
यह हैं, हमको
यह कर्त्तव्य
है, यह
ग्रहण करने
योग्य है और
यह त्यागने
योग्य है । तब
वे आपको दाम, व्याल, कट
जानेंगे और
तुम उनको वश
कर लोगे और
तुम्हारी जय
होगी । जैसे
जाल में फँसा
हुआ पक्षी वश
होता है तैसे
ही वे भी
अहंकार करके
वश होंगे अभी
वश नहीं होते
। वे तो सुख
दुःख से रहित
बड़े
धैर्यवान्
हैं अभी उनका
जीतना कठिन है
। हे साधो! जो
पुरुष वासना
की ताँत से
बँधे हुए हैं
और पेट के
कार्यों के वश
हैं वे इस लोक
में वश हो
जाते हैं और जो
बुद्धिमान्
पुरुष
निर्वासनिक
हैं और जिनकी
सर्वत्र
असंसक्त
बुद्धि है जो किसी
से जीते नहीं
जाते । जिनके
हृदय में
वासना है वे इसी
रस्सी से बँधे
हुए हैं ।
जिनको देह में
अभिमान है वे
चाहे
सर्वशास्त्रों
के वेत्ता भी
हों तो भी
उनको एक बालक
भी जीत लेवे, सब आपदाओं
के पात्र हैं
। यह देहमात्र
परिच्छिन्नरूप
है, जो
पुरुष उसे
अपना जानता है
और उसमें
सत्भावना
करता है वह
कदाचित्
सर्वज्ञ हो तो
भी कृपणता को
प्राप्त होता
है-उसमें
उदारता कहाँ है
। सबका अपना
स्वरूप अनन्त
आत्मा
अप्रमेय है, जिसको
देहादिक में
आत्माभिमान हुआ
है उसने आपको
आप ही दीन
किया है । जब
तक
आत्मतत्त्व
से भिन्न
त्रिलोकी में कुछभी
सत् भासता है
तब तक उपादेय
बुद्धि होती है
और भावना से
बाँधा रहता है
। संसार में
सत्भावना
करनी अनन्त
दुःखों का कारण
है और संसार
में असत्बुद्धि
सुख का कारण
है । हे साधो!
जब तक दाम, व्याल,
कट की जगत्
के पदार्थों
में आस्थाभाव
नहीं होती तब
तक तुम उनको
जैसी मक्खी
वायु को नहीं जीत
सकती तैसे ही
न जीत सकोगे । जिसको
देह में अहं
भावना और जगत्
में सत्बुद्धि
होती है वह
जीव है और वही
दीनता को प्राप्त
होता है । वह
चाहे कैसा बली
हो उसको जीतना
सुगम है
क्योंकि वह तो
तुच्छ कृपण है
। जिसके
अन्तःकरण में
वासना नहीं है
और मक्षिकावत्
है तो भी
सुमेरु की
नाईं दृढ़
(भारी) हो जाता
है । हे
देवताओं! जो
वासनासंयुक्त
है वह कृपणता
को प्राप्त होता
है-वही गुणी
से बँध जाता
है । जैसे
माला के दाने
में छिद्र
होता है तो
तागे से पिरोया
जाता है और जो
छिद्र से रहित
है वह पिरोया
नहीं जाता
तैसे ही जिसका
हृदय वासना से
बिंध गया है
उसके हृदय में
गुण-अवगुण
प्रवेश करते
हैं और जो
निर्बोध है उसके
भीतर प्रवेश
नहीं करते ।
इससे जिस
प्रकार ‘अहं’
‘इदं’ आदिक
वासना दाम, व्याल, कट
के भीतर उपजे
वही उपाय करो
तब तुम्हारी
जय होगी । जिस
जिस इष्ट
अनिष्ट के
भाव- अभाव को
जीव प्राप्त
होते हैं वहीं
तृष्णारूपी
कञ्ज (काँटों)
का वृक्ष है, उसी से आपदा
जो प्राप्त
होते हैं ।
इससे रहित
आपदा का
अभावहो जाता
है । जो
वासनारूपी
ताँत से बँधे
हुए हैं वह
अनेक जन्म
दुःख पावेंगे,
जो बलवान्
और सर्वज्ञ कुल
का बड़ा है वह
भी जो तृष्णा
संयुक्त है तो
बँधा है ।
जैसे सिंह
जंजीर से
पिंजड़ेमें
बँधा है तो उसका
बल और बड़ाई
किसी काम नहीं
आती तैसे ही
जो तृष्णा से
बँधा है सो
तुच्छ है । जिसको
देहमात्र में
अहंभाव है और
जिसके हृदय में
तृष्णा
उत्पन्न होती
है वह पुरुष ऐसा
है जैसा पक्षी
तागे से बँधा
हो और उसको
बालक भी खींच
ले । यम भी उसी
को वश करते हैं
जो
निर्वासनिक
पुरुष है ।
उसको कोई नहीं
मार सकता-जैसे
आकाश में उड़ते
पक्षी को कोई
नहीं पकड़ सकता
। इससे
शस्त्रयुद्ध
को त्यागो और
उनको वासना
उपजाओ तब वे
वश होंगे । हे
इन्द्र! जिसको
‘अहं’ ‘मम’
‘इदं’ आदिक
वासना नहीं है
और रागद्वेष
से जिसका
अन्तःकरण
क्षोभवान्
नहीं होता
उसको शस्त्र
और अस्त्र से
कोई नहीं जीत
सकता । इससे
दाम, व्याल,
कट को और
किसी उपाय से
न जीत सकोगे ।
युद्ध के अभ्यास
से जब उनको
अहंकार
उपजाओगे तब वह
तुम्हारे वश
होंगे । हे साधो!
ये तो सम्बर
दैत्य के रचे हुए
यन्त्रपुरुष
हैं इनके हृदय
में कोई वासना
नहीं है, जैसे
उसने रचे हैं
तैसे ही ये
निर्वासनिक
पुरुष हैं ।
जब इनको युद्ध
का अभ्यास
कराओगे तब
इनको अहंकार
वासना उपज
आवेगी । यह
तुमको मैंने
वश करने की
परम युक्ति
कही है । जब तक
उनके अन्तःकरण
में वासना
नहीं फुरती तब
तक तुमसे वे
अजीत हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दामोपाख्यान
ब्रह्मवाक्य
वर्णनन्नाम सप्तविंशतितमस्सर्गः
॥27॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जैसे समुद्र
में तरंग
उपजके और
शब्दकरके लीन
होता है तैसे
ही ब्रह्मा
कहके जब
अन्तर्धान हो
गये तब देवता
अपनी वाञ्छित
दिशाओं को गये
और कई दिन
अपने स्थान
में रहे । फिर
अपने कल्याण के
निमित्त उनके
नाश करने को
उठके युद्ध को
चले । प्रथम
उन्होंने शंख
बजाये जिनसे
प्रलयकाल के
मेघों के
गर्जने के समान
शब्द से सब
स्थान पूर्ण
हो गये ।
निदान पातालछिद्र
से शब्द सुनके
दैत्य निकले और
आकाशमार्ग से
देवता आये और
युद्ध होने
लगा । बरछी, बाण, मुद्गर,
गदा, चक्र
पहाड़, वृक्ष,
सर्प, अग्नि
आदिक शस्त्र
अस्त्र
परस्पर चलने
लगे । चक्र, मुसल, त्रिसूल
आदिक शस्त्र
ऐसे चले जैसे
गंगा का
प्रवाह चलता
है । देवताओं
और दैत्यों के
समूह नष्ट
होते गये, अंग
फट गये, शीश-भुजा
कट गये और
जैसे समुद्र
के उछलने से पृथ्वी
जल से पूर्ण
हो जाती है
तैसे ही रुधिर
से पृथ्वी
पूर्ण हो गई
और आकाशदिशा
में अग्नि का
तेज ऐसा बढ़
गया जैसे
प्रलय काल में
द्वादश सूर्य
का तेज होता
है । बड़े
पहाड़ों की वर्षा
होने लगी और
रुधिर के प्रवाह
में पहाड़ ऐसे
फिरते थे जैसे
समुद्र में
तरंग और भँवर
फिरते हैं ।
हे रामजी ऐसा
युद्ध हुआ कि
क्षण में पहाड़
और शस्त्र के प्रवाह,
क्षण में
सर्प, क्षण
में गरुड़
दीखें और
अप्सरागण
अन्तरिक्ष
में भासें, क्षण में
जलमय हो जावें,
क्षण में सब
स्थान अग्नि
से पूर्ण हो
जावे, क्षण
में सूर्य का
प्रकाश भासे
और क्षण में
सर्व ओर से
अन्धकार भासे
। निदान
महाभयानक
युद्ध होने
लगा । दैत्य
आकाश में
उड़-उड़के युद्ध
करें और देवता
वज्र आदिक
शस्त्र
चलावें और जैसे
पंख से रहित
पहाड़ गिरते
हैं तैसे ही
दैत्यों के
अनेक समूह
गिरके
भूमिलोक में आ
पड़े और उनमें
किसी का शिर, किसी की भुजा
और किसी के
हाथ-पैर कटे
हैं । वृक्षों
और पहड़ों के
समान उनके
शरीर गिर-गिर पड़े
और अनेक संकट
को देवता और
दैत्य
प्राप्त हुए ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
सुरासुरयुद्धवर्णनन्नाम
अष्टाविंशतितमस्सर्गः
॥28॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
देवताओं का
धैर्य नष्ट हो
गया और युद्ध
त्याग के अन्तर्धान
हुए और पैंतीस
वर्षके
उपरान्त फिर
युद्ध करने
लगे । कभी
पाँच व सात, कभी आठ दिन
के उपरान्त
युद्ध करते थे
और फिर छिप जाते
थे । ऐसे
विचारकर छल से
ये उनसे युद्ध
करें कभी दाम,
व्याल, कट
के निकट जावें,
कभी दाहिने,
कभी बायें,
कभी आगे और कभी
पीछे दौड़ने
लगे और
इधर-उधर देखके
मारने लगे ।
इस प्रकार जब
देवताओं ने
बहुत उपाय
किया तब युद्ध
के अभ्यास से
दाम, व्याल,
कट भी
देवताओं के
पीछे दौड़ने
लगे और इधर-उधर
देखने लगे और
अपने देहादिक
में उनको अहंकार
फुर आया । हे
रामजी! जैसे निकटता
से दर्पण में
प्रतिबिम्ब
पड़ता है दूर का
नहीं पड़ता, तैसे ही
अतिशय अभ्यास से
अहंकार फुर
आता है अन्यथा
नहीं फुरता ।
जब अहंकार
उनको फुरा तब
पदार्थों की वासना
भी फुर आई और
फिर यह फुरा
कि हम दाम, व्याल,
कट हैं किसी
प्रकार जीते
रहें, इस
इच्छा से वे
दीनभाव को
प्राप्त हुए
और भय पाने
लगे कि इस
प्रकार हमारा
नाश होगा, इस
प्रकार हमारी
रक्षा होगी, वही उपाय
करें जिससे हम
जीते रहें ।
इस प्रकार आशा
की फाँस में
बँधे हुए वे
दीन भाव को
प्राप्त हुए और
आपको
देहमात्र में
आस्था करने
लगे कि
देहरूपी लता
हमारी स्थिर
रहे, हम
सुखी हों, इस
वासनासंयुक्त
हो और पूर्व
का धैर्य
त्याग के वे
जानने लगे कि
यह हमारे शत्रु
नाशकर्ता हैं,
इनसे किसी
प्रकार बचें ।
उनका धैर्य
नष्ट हो गया
और जैसे जल
बिना कमल की
शोभा जाती
रहती है तैसे
ही इनकी शोभा
जाती रही, खाने
पीने की वासना
फुर आई और
संसार की
भयानक गति को
प्राप्त हुए ।
तब वे आश्रय
लेकर युद्ध करने
लगे और ढाल
आदिक आगे
रक्खे । वे अहंकार
से ऐसे भयभीत
हुए कि ये
हमको मारते
हैं, हम
इनको मारते
हैं । इस
चिन्ता में इन
सबके हृदय फँस
गये और शनैः
शनैः युद्ध
करने लगे । जब
देवता शस्त्र
चलावें तब वे बच
जावें और
भयभीत होकर
भागें ।
अहंकार के उदय
होने से उनके
मस्तक पर आपदा
ने चरण रक्खा
और वे महादीन
हो गये और ऐसे
हो गये कि यदि
कोई उनके आगे
आ पड़े तो भी उसको
न मार सकें ।
जैसे काष्ठ से
रहित अग्नि क्षीर
को नहीं भक्षण
करती तैसे ही
वे निर्बल हो
गये । उनके
अंग काटे
जावें तो वे
भाग जावें और
जैसे समान शूर
युद्ध करते हैं
तैसे ही युद्ध
करने लगे । हे
रामजी! कहाँ
तक कहूँ वे
मरने से डरने
लगे और युद्ध
न कर सके । तब
देवता वज्र
आदिक से प्रहार
करने लगे
जिनसे वे
चूर्ण हो गये
और भयभीत होकर
भागे । निदान
दैत्यों की सब
सेना भागी और
जो देश
देशान्तर से
आये थे वह भी
सब भागे, कोई
किसी देश को
कोई किसी देश
को पहाड़, कन्दरा
और जल में चले
गये और जहाँ
जहाँ स्थान
देखा वहाँ
वहाँ चले गये
। निदान जब
दैत्य भयभीत
होकर हारे और
देवता ओं की
जीत हुई तो
दैत्य भागके
पाताल में जा
छिपे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दामव्यालकटोपाख्यानेऽसुरहननन्नाम
एकोनत्रिंशत्तमस्सर्गः
॥29॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
तब देवता
प्रसन्न हुए
और देवताओं का
भय पाके दाम, व्याल, कट
पाताल में गये
और सम्बर से
भी डरे ।
सम्बर प्रलयकाल
की प्रज्वलित
अग्नि का रूप था
उसका भय करके
दाम ब्याल. कट
सातवें पाताल
में गये और
दैत्यों के
मण्डल को छेदके
जहाँ यमकिंकर
रहते हैं
उसमें कुकुहा
नाम होकर जा
रहे । नरकरूपी
समुद्र के पालक
यमकिंकरी ने
दया करके इनको
बैठाया जैसे पापी
को चिन्ता
प्राप्त होती
है तैसे ही
इनको
स्त्रियाँ
प्राप्त हुईं
उनके साथ सातवें
पाताल में रहे
। फिर इनके
पुत्र पौत्रादिक
बड़ी सन्तानें
हुईं और
उन्होंने
सहस्त्र वर्ष
वहाँ व्यतीत
किये । वहाँ उनको
यह वासना दृढ़
हो गई कि ‘यह
मैं हूँ’ ‘यह
मेरी स्त्री
है’ और
पुत्र कलत्र बान्धवों
में बहुत
स्नेह हो गया
। एक काल में वहाँ
अपनी इच्छा से
धर्मराज नरक
के कुछ काम के
लिये आया और
उसको देखके सब
किंकर उठ खड़े
हुए और प्रणाम
किया, पर दाम,
ब्याल, कट
ने जो उसकी
बड़ाई न जानते
थे उसे किंकर
समान जानके
प्रणाम न किया
। तब यमराज ने
क्रोध किया और
समझा कि ये
दुष्ट मानी
हैं इनको
शासना देनी
चाहिये । इस प्रकार
विचार करके यम
ने किंकरों को
सैन की कि
इनको
परिवारसंयुक्त
अग्नि की खाई
में डाल दो ।
यह सुन वे
रुदन करने और
पुकारने लगे पर
इनको
उन्होंने डाल
दिया और
परिवार संयुक्त
नरक की अग्नि
में वे ऐसे
जले जैसे दावाग्नि
में पत्र, टास,
फूल, फल
संयुक्त वृक्ष
जल जाता है ।
तब मलीन वासना
से वे क्रान्त
देश के राजा
के धीवर हुए
और जीवों की
हिंसा करते
रहे । जब धीवर
का शरीर छूटा
तब हाथी हुए, फिर चील हुए,
बगुले हुए,
फिर
त्रिगर्त देश
में धीवर हुए
और फिर बर्बरदेश
में मच्छर हुए
और मगध देश
में कीट हुए ।
हे रामजी! इस
प्रकार दाम, व्याल, कट,
तीनों ने
वासना से अनेक
जन्म पाये और
फिर काश्मीर
देश में एक ताल
है उसमें
तीनों मच्छ
हुए हैं । वन
में अग्नि लगी
थी इसलिये
उसका जल भी
सूख गया है, अल्प जल
उष्ण रहा है
उसमें रहते
हैं और वही जल पान
करते हैं, मरते
हैं न जीते
हैं, उनको
जो सम्पदा है
उसको भी नहीं
भोग सकते, चिन्ता
से जलते हैं । हे
रामजी! अज्ञान
से जीव अनेक बार
जन्मते हैं
जैसे समुद्र
में तरंग
उपजते और मिटते
हैं और जल के
भँवर में तृण
भ्रमता है
तैसे ही वासना
भ्रम से वे
फिरें । अब तक
उनको शान्ति
नहीं प्राप्त
हुई । अहंकार
वासना महादुख
का कारण है, इसके त्याग
से सुख है अन्यथा
सुख कदाचित्
नहीं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दामव्यालकटजन्मांतर
वर्णनन्नाम त्रिंशत्तमस्सर्गः
॥30॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
तुम्हारे
प्रबोध के
निमित्त
मैंने तुमको
दाम, व्याल,
कट का न्याय
कहा है, उनकी
नाईं तुम ,मत
होना ।
अविवेकी का
निश्चय ऐसा है
कि अनेक आपदा
को प्राप्त
करता है और
अनन्त दुःख
भुगाता है, कहाँ सम्बर
दैत्य की सेना
के नाथ और
देवताओं के
नाशकर्त्ता
और कहाँतो जल
के मच्छ हो
जर्जरीभाव को
प्राप्त हुए,
कहाँ वह
धैर्य और बल
जिससे
देवताओं को
नाश करना और भगाना
और आप चलायमान
न होना और
कहाँ क्रान्त
देश के राजा
के किंकर धीवर
होना! कहाँ वह
निरहंकाररचित्त,
शान्ति, उदारता
और धैर्य और
कहाँ वासना से
मिथ्या अहंकार
से संयुक्त
होना । इतना
दुःख और आपदा
केवल अहंकार
से हुए अहंकार
से संसाररूपी
विष की मंजरी
शाखा
प्रतिशाखा
बढ़ती है ।
संसाररूपी
वृक्ष का बीज अहंकार
है । जब तक
अहंकार है तब
तक अनेक दुःख
और आपदा
प्राप्त होती
हैं, इससे
तुम अहंकार को
यत्न करके
मार्जन करो ।
मार्जन करना
यह है कि
अहंवृत्ति को
असत्रूप
जानो कि ‘मैं
कुछ नहीं’ ।
इस मार्जन से
सुखी होगे ।
हे रामजी!
आत्मरूपी
अमृत का
चन्द्रमा है
और शीतल और शान्तरूप
उसका अंग है, अहंकार रूपी
मेघ से वह
अदृष्ट हुआ
नहीं भासता ।
जब विवेकरूपी
पवन चले तब
अहंकाररूपी
बादल नष्ट हो
और आत्मरूपी
चन्द्रमा
प्रत्यक्ष भासे
जब
अहंकाररूपी
पिशाच उपजा तब
तो दाम, व्याल,
कट तीनों
मायारूप दानव
सत् होके अनेक
आपदाओं को
भोगते हैं ।
अब तक वे काश्मीर
के ताल में
मच्छरूप से
पड़े हैं और
सिवाल के भोजन
करने को यत्न
करते हैं, जो
अहंकार न होता
तो इतनी आपदा
क्यों पाते? रामजी बोले,
हे भगवन्!
सत् का अभाव नहीं
होता और असत्
का भाव नहीं
होता । असत्
दाम, व्याल,
कट, सत्
कैसे हुए? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! इस
प्रकार है कि
जो सत् नहीं
सो भान नहीं
होता परन्तु
कोई सत् को असत्
देखता है और
कोई असत् को
सत् देखता
है-जो स्थित
है । इसी
युक्ति से
तुमको प्रबोध
करूँगा ।
रामजी ने पूछा,
हे भगवन्!
हम, तुम जो
ये सब हैं वे
सत्यरूप हैं
और दामादिक मायामात्र
असत्रूप थे
वे सत् कैसे
हुए, यह
कहिये? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! जैसे
दामादिक
मायारूप मृग तृष्णा
के जलवत् असत्
से स्थित हुए
थे तैसे ही
तुम, हम, देवता, दानव
सम्पूर्ण
संसार असत्
मायामात्र
सत् होके
भासता है
वास्तव में
कुछ नहीं ।
जैसे स्वप्न
में जो अपना मरना
भासता है वह
असत्रूप है
तैसे ही हम, तुम आदिक यह
जगत् असत्रूप
है । जैसे स्वप्न
मे जो अपने
मरे बान्धव आन
मिलते हैं और
प्रत्यक्ष
चर्चा करते
भासते हैं वे असत्रूप
होते हैं, तैसे
ही यह जगत् भी
असत्रूप है ।
ये मेरे वचन
मूढ़ों का विषय
नहीं, उनको
नहीं शोभते
क्योंकि उनके
हृदय में संसार
का सद्भाव दृढ़
हो गया है और अभ्यास
बिना इस
निश्चय का
अभाव नहीं
होता । जैसा
निश्चय किसी
के हृदय में
दृढ़ हो रहा है
वह दृढ़ अभ्यास
के यत्न बिना
कदाचित् दूर
नहीं होता ।
जिसको यह
निश्चय है कि
जगत् सत् है
वह मूर्ख
उन्मत्त है और
जिसके हृदय
में जगत् का
सद्भाव नहीं
होता वह ज्ञानवान्
है, उसे
केवल
ब्रह्मसत्ता
का भाव होता
है और अज्ञानी
को जगत् भासता
है । अज्ञानी
के निश्चय को
ज्ञानी नहीं
जानता और ज्ञानी
के निश्चय को
अज्ञानी नहीं जानता
। जैसे मदमत्त
के निश्चय को
अमत्त नहीं जानता
और अमत्त के
निश्चय को
मत्त नहीं
जानता, तैसे
ही ज्ञानी और
अज्ञानी का
निश्चय
इकट्ठा नहीं
होता । जैसे
प्रकाश और
अन्धकार और
धूप और छाया
इकट्ठी नहीं
होती तैसे ही
ज्ञानी और
अज्ञानी का
निश्चय एक
नहीं होता ।
जिसके चित्त
में जो निश्चय
है उसको जब
वही अभ्यास और
यत्न करके दूर
करे तब दूर
होता है
अन्यथा नहीं
होता । ज्ञानी
भी अज्ञानी के
निश्चय को दूर
नहीं कर सकता,
जैसे मृतक
की जीवकला को
मनुष्य ग्रहण
नहीं कर सकते
कि उसके
निश्चय में क्या
है? जो
ज्ञानवान् है
उसके निश्चय
में सर्व
ब्रह्म का भान
होता है और
उसे जगत् द्वैत
नहीं भासता और
उसी को मेरे
वचन शोभते हैं
। आत्म अनुभव
सर्वदा सत्रूप
है और सब असत्
पदार्थ हैं ।
ये वचन प्रबुध
के विषय हैं और
उसी को शोभते
हैं । अज्ञानी
को जगत् सत्
भासता है इससे
ब्रह्मवाणी
उसको शोभा नहीं
देती । ज्ञानी
को यह निश्चय
होता है कि जगत्
रञ्चमात्र भी
सत्य नहीं, एक ब्रह्म
ही सत्य है ।
यह अनुभव बोधवान्
का है, उसके
निश्चय को कोई
दूर नहीं कर
सकता कि
परमात्मा के
व्यतिरेक
(भिन्न) कुछ
नहीं । जैसे
सुवर्ण में
भूषण भाव नहीं
तैसे ही आत्मा
में
सृष्टिभाव
नहीं अज्ञानी
को पञ्चभूत से
व्यतिरेक कुछ
नहीं भासता, जैसे सुवर्ण
में भूषण
नाममात्र है
तैसे ही वह
आपको नाम मात्र
जानता है, सम्यक्दर्शी
को इसके
विपरीत भासता
है । जो पुरुष
होके कहे, ‘मैं
घट हूँ’ तो
जैसे यह
निश्चय
उन्मत्त है
तैसे ही हम
तुम आदिक भी
असत्रूप हैं,
सत् वही है
जो शुद्ध, संवित्बोध,
निरञ्जन, सर्वगत, शान्तरूप,
उदय व अस्त
से रहित है ।
जैसे नेत्र
दूषणवाले को
आकाश में
तरवरे भासते
हैं तैसे ही
अज्ञानी को
जगत् सत्रूप
भासता है ।
आत्मसत्ता
में जैसा-जैसा
किसी को
निश्चय हो गया
है तैसा ही
तत्काल हो भासता
है, वास्तव
में जैसे
दामादिक थे तैसे
ही तुम हम
आदिक जगत् हैं
और अनन्त चेतन
आकाश सर्वगत
निराकारमें
स्फूर्ति है वही
देहाकार हो
भासती है ।
जैसे संवित्
का किंचन दामादिक
निश्चय से
आकारवान् हो भासे
तैसे ही हम
तुम भी फुरने
मात्र हैं और
संवेदन के
फुरने से ही
स्थित हुए हैं
। जैसे स्वप्न
नगर और
मृगतृष्णा की
नदी भासती है
तैसे ही हम
तुम आदिक जगत्
आत्म रूप
भासते हैं ।
प्रबुध को सब
चिदाकाश ही
भासता है और
सब मृगतृष्णा
और स्वप्ननगर वत्
भासता है । जो
आत्मा की ओर
जागे हैं और
जगत् की ओर
सोये हैं,वे
मोक्षरूप हैं
और जो आत्मा
की ओर से सोये
और जगत् की ओर
से जागे हैं
वे अज्ञानी
बन्धरूप हैं ।
पर वास्तव में
न कोई सोये
हैं, न
जागे हैं, न
बँधे हैं, न
मोक्ष हैं, केवल
चिदाकाश जगत्रूप
होके भासता है
। निर्वाण
सत्ता ही जगत्
लक्ष्मी होकर
स्थित हुई है
और जगत् निर्वाणरूप
है-दोनों एक
वस्तु के
पर्याय हैं ।
जैसे तरु और
विटप एक ही
वस्तु के दो नाम
हैं तैसे ही
ब्रह्म और
जगत् एक ही
वस्तु के
पर्याय हैं । जैसे
आकाश में
तरवरे भासते
हैं और हैं
नहीं, केवल
आकाश ही है, तैसे ही अज्ञानी
को ब्रह्म में
जो जगत् भासते
हैं वे हैं
नहीं, ब्रह्म
ही है । जैसे
नेत्र में
तिमिर
रोगवाले को जो
तरवरे भासते
हैं वे तरवरे
नेत्ररोग से
भिन्न नहीं
तैसे ही अज्ञानी
को अपना आप
चिदाकाश ही
अन्यरूप हो
भासता है वह
चिदाकाश सर्व
और व्यापकरूप है
और उससे भिन्न
जगत् असत् है
। सत्यरूप, एक, विस्तृत
आकार, महाशिलावत्,
घनस्वच्छ निःस्पन्द,
उदय-अस्त से
रहित वही
सत्ता है
इसलिये
सर्वकलना को
त्यागकर उसी
अपने आप में
स्थित हो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
निर्वाणोपदेशोनाम
एकत्रिंशत्तमस्सर्गः
॥31॥
अनुक्रम
रामजी
ने पूछा, हे भगवन्!
असत् सत् की
नाईं होके जो
स्थित हुआ है
वह बालक को
अपनी परछाहीं
में वैतालवत्
भासता है सो
जैसे हुआ तैसे
हुआ, आप यह
कहिये कि दाम,
व्याल, कट
के दुःख का
अन्त कैसे
होगा? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! जब
उनको यमराज ने
अग्नि में
भस्म कराया तब
यमराज से
किंकरों ने
पूछा कि हे
प्रभो! इनका
उद्धार कब
होगा? तब
यमराज ने कहा,
हे किंकरों!
अब ये तीनों
आपस में बिछुर
जावेंगे और
अपनी सम्पूर्ण
कथा सुनेंगे
तब निःसंदेह
होके मुक्त
होंगे, यही
नीति है ।
रामजी ने फिर
पूछा, हे भगवन्!
वह वृत्तान्त
कहाँ सुनेंगे,
कब सुनेंगे
और कौन निरूपण
करेगा? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी!
काश्मीर देश
में कमलों से
पूर्ण एक बड़ा
ताल है और
उसके निकट एक छोटा
ताल है उसमें
वे
चिरपर्यन्त
बारम्बार
मच्छ होंगे और
मच्छ का शरीर
त्याग करके सारस
पक्षी होके
कमलों के ताल
पर रहकर कमल, कमलिनी और
उत्पलादिक
फूलों में
विचरेंगे और
सुगन्ध को
लेते चिरकाल
व्यतीत
करेंगे । दैवसंयोग
से उनके पाप
नष्ट होंगे और
बुद्धि
निर्मल हो
आवेगी तब
तीनों आपमें
बिछुर
जावेंगे और
युक्ति से
मुक्ति
पावेंगे जैसे
राजस, तामस,
सात्त्विक
गुण आपस में
स्वेच्छित
बिछुर जाते
हैं तैसे ही
वे भी स्वेच्छित
बिछुर
जावेंगे । काश्मीर
में एक पहाड़
है उसके शिखर
पर एक नगर बसेगा
तिसका नाम
प्रद्युम्न
और उस शिखर पर
कमलों से
पूर्ण एक ताल
होगा जहाँ
राजा का एक
स्थान होगा और
ईशान कोण की ओर
उसका मन्दिर
होगा । उस
मन्दिर के
छिद्र में
व्याल नामक
दैत्यआलय बना
चिड़िया होकर
रहेगा और
निरर्थक शब्द
करेगा । उस
काल में
श्रीशंकर नाम
राजा गुण और
भूति से सम्पन्न
मानो दूसरा
इन्द्र होगा
और उसके मन्दिर
के छत की कड़ी
के छिद्र में
दाम नाम दैत्य
मच्छर होकर
भूँ भूँ शब्द
करता बिचरेगा ।
कट नाम दैत्य
वहाँ क्रीड़ा
का पक्षी होगा
और रत्नों से
जड़े हुए
पिंजड़े में
रहेगा । उस
राजा का
नरसिंह नाम
मन्त्री बुद्धिमान्
होगा । जैसे
हाथ में आँवला
होता है तैसे
ही उस मन्त्री
को बन्ध और मुक्ति
का ज्ञान
प्रसिद्ध
होगा । वह
मन्त्री राजा
के आगे दाम, व्याल, कट
की कथा श्लोक
बाँधकर कहेगा
। तब वह करकर
नाम पक्षी अर्थात्
कट दैत्य को
पिंजड़े में
सुनने से अपना
वृत्तान्त सब
स्मरण होगा और
उसको विचारेगा
। तब उसका
मिथ्या
अहंकार शान्त होगा
और वह परम
निर्वाण
सत्ता को
प्राप्त होगा
। इसी प्रकार
राजा के
मन्दिर में चिड़िया
हुआ व्याल नाम
दैत्य भी
सुनकर परम निर्वाण
सत्ता को
प्राप्त होगा
और लकड़ी के
छिद्र में
मच्छर हुआ दाम
नाम दैत्य भी
मुक्त होगा ।
हे रामजी! यह
सम्पूर्ण
क्रम मैंने
तुमसे कहा है
। यह संसार
भ्रम मायामय
है और अत्यन्त
भास्वर (प्रकाशरूप)
भासता है, पर
महाशून्य और
अविचार सिद्ध
है । विचार
करके ज्ञान
हुए से शान्त
होजाता है- जैसे
मृगतृष्णा का
जल भली प्रकार
देखे से शान्त
हो जाता है ।
यद्यपि
अज्ञानी बड़े पद
को प्राप्त
होता है तो भी
मोह से अधो से
अधो चला जाता
है-जैसे दाम, व्याल, कट
महाजाल में
पड़े थे । कहाँ
तो वह बल भौंह
टेढ़ी करने से
सुमेरु और
मन्दराचल से पर्वत
गिर जावें और
कहाँ राजा के
गृह में काष्ठ
के छिद्र में
मच्छर हुए, कहाँ वह बल जिसके
हाथ की चपेट
से सूर्य और
चन्द्रमा गिर
पड़ें और कहाँ
प्रद्युम्न
पहाड़ के गृह छिद्र
में चिड़िया
होना, कहाँ
वह बल जो
सुमेरु पर्वत
को पीले फूल
की नाईं लीला
करके उठा लेना
और कहाँ पहाड़
के शिखर पर
गृह में पक्षी
होना । एक
अज्ञानरूपी
अहंकार से
इतनी लघुता को
जीव प्राप्त
होते हैं और
अज्ञान से
रञ्चित हुए
मिथ्या भ्रम
देखते हैं ।
प्रकाशरूप
चिदाकाश सत्
बिना इनको
भासता है और
अपनी वासना की
कल्पना से
जगत् सत्रूप
भासता है ।
जैसे
मृगतृष्णा का
जल भ्रम से सत्
भासता है तैसे
ही अपनी
कल्पना से
जगत् सत् भासता
है । इस संसार
समुद्र को कोई
नहीं तर सकता
जो पुरुष
शास्त्र के
विचारद्वारा
निर्वासनिक
हुआ है और जो
संसार निरूपण शास्त्र
का, जिसका
प्रकाशरूप
शब्द है, आश्रय
करता है यह
संसार के
पदार्थों को
शुभ रूप जानता
है, इससे
नीचे गिरता
है-जैसे कोई
गढ़े को जलरूप
जानके स्नान
के निमित्त जावे
और गिर पड़े ।
हे रामजी!
अपने
अनुभवरूपी
प्रसिद्ध
मार्ग में जो
प्राप्त हुए हैं
उनका नाश नहीं
होता वे सुख
से स्वच्छन्द
चले जाते
हैं-जैसे पथिक
सूधे मार्ग
में चला जाता
है ।
ब्रह्मनिरूपकशास्त्र
निर्वेदमार्ग
है और
संसारनिरूपकशास्त्र
दुःखदायक मार्ग
हैं । यह जगत्
असत्रूप और
भ्रान्तिमात्र
है, जिसकी
बुद्धि इसी
में है कि ये पदार्थ
और ये मुख
मुझको
प्राप्त हों
वे इस प्रकार
संसार के विषय
की तृष्णा
करते हैं और
वे अभागी हैं
और जो
ज्ञानवान्
पुरुष हैं उनको
जगत् घास और
तृण की नाईं
तुच्छ भासता
है । जिस
पुरुष के हृदय
में परमात्मा
का चमत्कार
हुआ है वह
ब्रह्माण्ड
खण्ड लोक और
लोकपालों को
तृणवत् देखता
है । जैसे जीव
आपदा को
त्यागता है
तैसे ही उसके हृदय
में ऐश्वर्य
भी आपदारूप
त्यागने
योग्य है ।
इससे हृदय से
निश्चयात्मक
तत्त्व में
रहो और बाहर
जैसा अपना
आचार है तैसा
करो । आचार का
व्यतिक्रम न
करना क्योंकि व्यतिक्रम
करने से शुभ
कार्य भी अशुभ
हो जाता है-जैसे
राहु दैत्य ने
अमृतपान करने का
यत्न किया था
पर व्यतिक्रम
करने से शरीर
कटा । इससे
शास्त्रानुसार
चेष्टा करनी कल्याण
का कारण है ।
सन्तजनों की
संगति और सत्शास्त्रों
के विचार से
बड़ा प्रकाश प्राप्त
होता है । जो
पुरुष इनको
सेवता है वह मोह
अन्धकूप में
नहीं गिरता ।
हे राम जी!वैराग्य
धैर्य संतोष,
उदारता आदिक
गुण जिसके
हृदय में
प्रवेश करते
हैं वह पुरुष परम
सम्पदावान्
होता और आपदा
को नष्ट करता
है । जो पुरुष
शुभगुणों से
सन्तुष्ट है
और सत्शास्त्र
के श्रवण राग
में राग है और
जिसे सत् की
वासना है वही
पुरुष है, और
सब पशु हैं ।
जिसमें
वैराग्य, सन्तोष,
धैर्य आदि गुणों
से चाँदनी
फैलती है और
हृदयरूपी
आकाश में विवेकरूपी
चन्द्रमा
प्रकाशता है
वह पुरुष शरीर
नहीं मानों
क्षीरसमुद्र
है, उसके
हृदय में
विष्णु
विराजते हैं ।
जो कुछ उसको
भोगना था वह
उसने भोगा और
जो कुछ देखना
था वह देखा, फिर उसे
भोगने और
देखने की तृष्णा
नहीं रहती ।
जिस पुरुष का
यथाक्रम और
यथाशास्त्र
आचार और
निश्चय है
उसको भोग की
तृष्णा
निवृत्त हो
जाती है और उस
पुरुष के गुण
आकाश में
सिद्ध देवता
और अप्सरा गानकरते
हैं और वही
मृत्यु से
तरता है भोग
की तृष्णावाले
कदाचित् नहीं
तरते । हे रामजी!
जिन पुरुषों
के गुण
चन्द्रमा की
नाईं शीतल हैं
और सिद्ध और
अप्सरा जिनका गान
करते हैं वे
ही पुरुष जीते
हैं और सब
मृतक हैं ।
इससे तुम परम
पुरुषार्थ का आश्रय
करो तब परम
सिद्धता को
प्राप्त होगे
। वह कौन
वस्तु है जो
शास्त्र
अनुसार अनुद्वेग
होकर
पुरुषार्थ
करने से
प्राप्त न हो?
कोई वस्तु
क्यों न हो
अवश्यमेव प्राप्त
होती है । यदि
चिरकालव्यतीत
हो जावे और
सिद्ध न हो तो
भी उद्वेग न
करे तो वह फल
परिपक्व होकर
प्राप्त
होगा-जैसे
वृक्ष से जब
परिपक्व होके
फल उतरता है
तब अधिक मिष्ट
और सुखदायक
होता है । यथा
शास्त्र व्यवहार
करनेवाला उस
पद को प्राप्त
होता है जहाँ
शोक, भय और
यत्न सब नष्ट
हो जाते हैं
और
शान्तिमान्
होता है । हे रामजी!
मूर्ख जीवों
की नाईं
संसारकूप में
मत गिरो । यह
संसार मिथ्या
है । तुम उदार आत्मा
हो, उठ खड़े
हो और अपने
पुरुषार्थ क
आश्रय करो और
इस शास्त्र को
विचारो । जैसे
शूर रण में
प्राण निकलने
लगे तो भी
नहीं भागता और
शस्त्र को पकड़
के युद्ध करता
है कि अमरपद
प्राप्त हो, तैसे ही
संसार में
शास्त्र का
विचार
पुरुषार्थ है,
यही
पुरुषार्थ
करो और
शास्त्र को
विचारो कि कर्त्तव्य
क्या है । जो
विचार से रहित
है वह
दुर्भागी
दीनता और अशुभ
को प्राप्त
होता है । महामोहरूपी
घन निद्रा को
त्याग करके
जागो और
पुरुषार्थ को
अंगीकार करो
जो जरा-मृत्यु
के शान्ति का
कारण है और जो
कुछ अर्थ है
वह सब
अनर्थरूप है,
भोग सब रोग
के समान हैं
और सम्पदा सब
आपदारूप हैं,
ये सब
त्यागने
योग्य हैं । इसलिये
सत्मार्ग को
अंगीकार करके
अपने प्रकृत
आचार में
विचारो और
शास्त्र और
लोक मर्यादा
के अनुसार
व्यवहार करो,
क्योंकि
शास्त्र के
अनुसार कर्म
का करना सुखदायक
होता है । जिस
पुरुष का
शास्त्र के
अनुसार व्यवहार
है उसका
संसारनष्ट हो
जाता है और आयु,
यश, गुण
और लक्ष्मी की
वृद्धि होती
है । जैसे
वसन्तऋतु की मञ्जरी
प्रफुल्लित होती
है तैसे ही वह
प्रफुल्लित
होता है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दामव्यालकटोपाख्याने
देशाचारवर्णनन्नाम
द्वात्रिंशत्तमस्सर्गः
॥32॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
सर्व दुःख का
देनेवाला और
सब सुख का फल, सब ठौर, सब
काल में, सबको
अपने कर्म के
अनुसार होता
है । एक दिन नन्दीगण
ने एक सरोवर
पर जाके सदा शिव
का आराधन किया
और सदाशिव
प्रसन्न हुए
तो उसने
मृत्यु को
जीता, प्रथम
नन्दी था सो
नन्दीगण नाम
हुआ और मित्र
बाँधव सबको
सुख देनेवाला
अपने स्वभाव
से यत्न करके हुआ
। शास्त्र के
अनुसार यत्न
करने से दैत्य
क्रम से
देवताओं को जो
सबसे
उत्कृष्ट हैं,
मारते हैं ।
मरुत राजा के
यज्ञ में
संवृत नामक एक
महाऋषि आया और
उसने देवता, दैत्य , मनुष्य
आदिक अपनी
सृष्टि अपने
पुरुषार्थ से रची-मानों
दूसरा
ब्रह्मा था और
विश्वामित्र
ने बारम्बार
तप किया और तप
की अधिकता और
अपने ही
शुद्धाचार से
राजर्षि से
ब्रह्मर्षि
हुए । हे
रामजी!
उपमन्यु नाम
एक दुर्भागी
ब्राह्मण था
और उसको अपने गृह
में भोजन की
सामग्री ना
प्राप्त होती
थी । निदान एक
दिन उसने एक
गृहस्थ के घर पिता
के साथ दूध, चावल और
शर्करा सहित
भोजन किया और
अपने गृह में
आ पिता से कहने
लगा मुझको वही
भोजन दो जो
खाया था ।
पिता ने साँव
के चाँवल और
आटे का दूध
घोलके दिया और
जब उसने भोजन
किया तब वैसा स्वाद
न लगा, तो
फिर पिता से
बोला कि मुझको
वही भोजन दो
जो वहाँ पर
खाया था । पिता
ने कहा, हे
पुत्र! वह
भोजन हमारे पास
नहीं, सदाशिव
के पास है, जो
वे देवें तो
हम खवावें । तब
वह ब्राह्मण
सदाशिव की
उपासना करने
लगा और ऐसा तप
किया कि शरीर
अस्थिमात्र
हो रहा और
रक्त-माँस सब
सूख गया । तब
शिवजी ने प्रसन्न
होकर दर्शन
दिया और कहा
हे, ब्राह्मण!
जो तुम को
इच्छा है वह
वर माँगो ।
ब्राह्मण ने
कहा, दूध
और चाँवल दो । तब
सदाशिव ने कहा
दूध और चावल
क्या, कुछ
और माँग, पर
जो तूने कहा
है तो यही भोजन
किया कर । तब
उसकी वही भोजन
प्राप्त हुआ और
शिवजी ने कहा
जब तू चिन्तन करेगा
तब मैं दर्शन
दूँगा । हे
रामजी! यह भी
अपना
पुरुषार्थ
हुआ ।
त्रिलोकी की पालना
करने वाले
विष्णु को भी
काल तृण की
नाईं मर्दन
करता है, पर
उस काल को श्वेत
ने उद्यम करके
जीता है और
सावित्री का भर्त्ता
मृतक हुआ था,पर वह
पतिव्रता थी उसने
स्तुति और
नमस्कार करके
यम को प्रसन्न
किया और
भर्त्ता को
परलोक से ले आईं-
यह भी अपना ही
पुरुषार्थ है
। श्वेत नाम
एक ऋषिश्वर था
उसने अपने
पुरुषार्थ से
काल को जीतके
मृत्युञ्जय
नाम पाया ।
इससे ऐसा कोई पदार्थ
नहीं जो
यथाशास्त्र
उद्यम किये से
प्राप्त न हो
।अपने पुरुष
प्रयत्न का
त्याग न करना
चाहिये, इससे
सुख, फल और
सर्व की
प्राप्ति
होती है । जो
अविनाशी सुख
की इच्छा हो
तो आत्मबोध का
अभ्यास करो ।
और जो कुछ
संसार के सुख
हैं वे दुःख
से मिले हैं और
आत्मसुख सब
दुःख का
नाशकर्ता है किसी
से मिले हुए
हैं और
आत्मसुख सब
दुःख का नाशकर्त्ता
है किसी दुःख
से नहीं मिला वास्तव
कहिये तो सम
असम सर्व ब्रह्म
ही है पर तो भी
सम परम कल्याण
का कर्त्ता है
। इससे अभिमान
का त्याग करके
सम का आश्रय
करो और
निरन्तर
बुद्धि से
विचार करो । जब
यत्न करके
सन्तों का संग
करोगे तब
परमपद को
प्राप्त होगे
। हे रामजी!
संसार समुद्र
के पार करने
को ऐसा समर्थ
कोई तप नहीं और
न तीर्थ है ।
सामान्य
शास्त्रों से भी
नहीं तर सकता,
केवल
सन्तजनों के
संग से भवसागर
को सुख से तरता
है । जिस पुरुष
के लोभ, मोह,क्रोध आदिक
विकार दिन
प्रति दिन
क्षीण होते जाते
हैं और यथा शास्त्र
जिसके कर्म
हैं ऐसे पुरुष
को सन्त और आचार्य
कहते हैं ।
उसकी संगति
संसार के
पापकर्मों से
निवृत्त करती
है और शुभ में
लगाती है ।
आत्मवेत्ता
पुरुष की
संगति से
बुद्धि में
संसार का
अत्यन्त अभाव
हो जाता है । जब
दृश्य का
अत्यन्त अभाव
हुआ तब आत्मा
शेष रहता है ।
इस क्रम से
जीव का जीवत्व
भाव निवृत्त
हो जाता है और
बोधतत्त्व शेष
रहता है । जगत्
न उपजता है न आगे
होगा और न अब
वर्त्तमान
में है । इस
प्रकार मैंने
तुमसे अनन्त
युक्ति से कहा
है और कहूँगा
। ज्ञानवान्
को सर्वदा ऐसा
ही मनन होता
है । अचल
चिदात्मा में
चञ्चल चित्त
फुरा है और
उसी ने जगत्
आभास रचा है ।
जैसे जैसे वह
फुरता है तैसे
ही तैसे भासता
है और वास्तव
में कुछ नहीं
। जैसे सूर्य
और किरणों में
कुछ भेद नहीं
। तैसे ही
जगत् और आत्मा
में कुछ भेद
नहीं । अहंरूप
आत्मा में
आपको न जानना
ही आत्माकाश में
मेघरूपी
मलीनता है ।
जब परमार्थ
में अहंभाव को
जानेगा तब
अनात्म में
अहंभाव लीन हो
जावेगा और तभी
चिदाकाश से
जीव की
अत्यन्त एकता
होती है ।
जैसे घट के
फुटे से घटा काश
की महाकाश से
एकता होती है
। निश्चय करके
जानो कि
अहंआदिक
दृश्य वास्तव
में कुछ नहीं
है विचार किये
से नहीं रहता
। जैसे बालक की
परछाहीं में
पिशाच भासता
है सो भ्रान्तिमात्र
होता है तैसे
ही यह जगत् भ्रान्ति
सिद्ध है, अपनी
कल्पना से
भासता है और
दुःखदायक
होता है पर
विचार किये से
नष्ट हो जाता
है । हे रामजी!
आत्मरूपी चन्द्रमा
सदा प्रकाशित
है और
अहंकाररूपी
बादल उसके आगे
आता है उससे
परमार्थ बुद्धिरूपी
कमलिनी विकास
को नहीं
प्राप्त होती,
इससे
विवेकरूपी
वायु से उसको
नष्ट करो ।
नरक, स्वर्ग,
बन्ध, मोक्ष,
तृष्णा, ग्रहण,
त्याग आदिक
सब अहंकार से
फुरते हैं ।
हृदयरूपी
आकाश में
अहंकाररूपी
मेघ जब तक
गरजता और
वर्षा करता है
तब तक तृष्णारूपी
कण्टक मञ्जरी
बढ़ती जाती है
। जब तक
अहंकाररूपी
बादल
आत्मारूपी
सूर्य को आक्रमण
करता है तब तक
जड़ता और
अन्धकार है और
प्रकाश उदय
नहीं होता ।
अहंकाररूप वृक्ष
की अनन्त शाखा
फैलती हैं । ‘अहं’ ‘मम’ आदिक
विस्तार अनेक
अर्थों को
प्राप्त करता
है । जो कुछ
संसार में सुख
दुःख आदिक प्राप्त
होता है वह
अहंकार से
प्राप्त होता
है ।
संसाररूपी
चक्र की
अहंकार नाभि
है जिससे
भ्रमता है और ‘अहं’ ‘मम’ रूपी बीज से
अनेक
जन्मरूपी
वृक्ष की
परम्परा उदय और
क्षय होती है
और कभी नष्ट
नहीं होती । इससे
यत्न करके
इसका नाश करो
। जब तक
अहंकाररूपी
अन्धकार है तब
तक
चिन्तारूपी पिशाचिनी
विचरती है और
अहंकाररूपी
पिशाच ने जिसको
ग्रहण किया है
उस नीच पुरुष
को मन्त्र
तन्त्र भी
दीनता से छुड़ा
नहीं सकते । रामजी
ने पूछा, हे
भगवन्! निर्मल
चिन्मात्र
आत्मसत्ता जो
अपने आप में
स्थित है
उसमें
अहंकाररूपी
मलीनता कहाँ
से प्रतिबिम्बित
हुई? वशिष्ठजी
बोले, हे
राघव! अहंकार
चमत्कार जो
भासता है वह
वास्तव धर्म नहीं
मिथ्या है
वासना भ्रम से
हुआ है और
पुरुष
प्रयत्न करके
नष्ट हो जाता
है, न मैं
हूँ, न
मेरा कोई है ‘अहं’ ’मम’ में कुछ सार
नहीं । जब
अहंकार शान्त
होगा तब दुःख
भी कोई न
रहेगा । जब
ऐसी भावना का
निश्चय दृढ़
होगा तब
अहंकार नष्ट
हो जावेगा और
जब अहंकार
नष्ट हुआ तब
हेयोपादेय
बुद्धि भी
शान्त हो
जावेगी और समता
आदिक प्रसन्नता
उदय होगी ।
अहंकार की
प्रवृत्ति ही
दुःख का कारण
है । रामजी ने
पूछा, हे प्रभो!
अहंकार और रूप
क्या है, त्याग
कैसे होता है,
शरीर से
रहित कब होता
है और इसके
त्याग से क्या
फल होता है? वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! अहंकार
तीन प्रकार का
है । दो
प्रकार का
श्रेष्ठ
अहंकार
अंगीकार करने
योग्य है और
तीसरा
त्यागने
योग्य है ।
इसका त्याग
शरीर सहित
होता है ।‘यह
सब दृश्य मैं
ही हूँ और
परमात्मा
अद्वैतरूप हूँ
मुझसे भिन्न
नहीं’ यह
निश्चय परम
अहंकार है और
मोक्ष देने
वाला है-बन्धन
का कारण नहीं,
इससे
जीवनमुक्त
विचरते हैं ।
यह अहंकार भी
मैंने तुमको
उपदेश के
निमित्त कल्प
के कहा है
वास्तव में यह
भी नहीं है
केवल अचेत
चिन्मात्रसत्ता
है । दूसरा
अहं कार यह है
कि मैं सबसे
व्यतिरेक
(भिन्न) हूँ और बाल
के अग्रभाग का
सौंवा भाग सूक्ष्म
हूँ’ ऐसा
निश्चय भी
जीवन्मुक्ति
है और
मोक्षदायक है-
बन्धन का कारण
नहीं । यह
अहंकार भी
मैंने तुमसे
कल्प के कहा
है, वास्तव
में यह कहना
भी नहीं है । तीसरा
अहंकार यह है
कि हाथ, पाँव
आदि इतना
मात्र आपको
जानना, इसमें
जिसका निश्चय
है वह तुच्छ
है और अपने
बन्धन का कारण
है । इसको
त्याग करो, यह दुष्टरूप
परम शत्रु है,
इसमें जो
जीव मरते हैं
वे परमार्थ की
ओर नहीं आते ।
यह
अहंकाररूपी
चतुर शत्रु बड़ा
बली है और
नाना प्रकार
के जन्म और
मानसी दुःख
काम, क्रोध,
राग, द्वेष
आदिक का देनेवाला
है । यह सब
जीवों को नीच
करता है और संकट
में डालता है
। इस दुष्ट
अहंकार के
त्याग के पीछे
जो शेष रहता
है वह आत्म
भगवान्
मुक्तरूप
सत्ता है । हे
रामजी! लोक
में जो वपु की
अहंकार भावना
है कि ‘मैं
यह हूँ, ‘इतना
हूँ’ यही
दुःख का कारण है
। इसको
महापुरुषों
ने त्याग किया
है, वे
जानते है, कि
हम देह नहीं
हैं, शुद्ध
चिदानन्दस्वरूप
हैं। प्रथम जो
दो अहंकार मैंने
तुमको कहे हैं
वह अंगीकार
करने योग्य और
मोक्षदायक
हैं और तीसरा
अहंकार
त्यागने योग्य
है, क्योंकि
दुःख का कारण
है । इसी अहंकार
को ग्रहण करके
दाम, व्याल,
कट आपदा को
प्राप्त हुए
जो महाभयदायक
है और कहने
में नहीं आती
और जिन्होंने
भोगी है उनकी
क्या कहना है,
वह जानते ही
हैं । रामजी
ने पूछा, हे
भगवन्! तीसरा
अहंकार जो
आपने कहा है
उसका त्याग
किये से पुरुष
का क्या भाव
रहता है और
उसको क्या
विशेषता प्राप्त
होती है? वशिष्ठजी
बोले, हे
राम जी! जब जीव
अनात्मा के
अहंकार को
त्याग करता है
तब परम पद को
प्राप्त होता
है । जितना
जितना वह
त्याग करता है
उतना ही उतना
दुःख से मुक्त
होता है, इससे
इसको त्याग करके
आनन्दवान् हो
। इसको त्याग
के महापुरुष शोभता
है । जब तुम
इसको
त्यागोगे तब ऊँचे
पदको प्राप्त
होगे ।
सर्वकाल सर्व
यत्न करके
दुष्ट अहंकार
को नष्ट करो, परमा नन्द
बोध के आगे
आवरण यही है, इसके त्याग
से बोधवान्
होते हैं । जब
यह अहंकार निवृत्त
होता है तब
शरीर
पुण्यरूपी हो
जाता है और
परमसार के
आश्रय को
प्राप्त होता है
। यही परमपद
है । जब
मनुष्य स्थूल
अहंकार का
त्याग करता है
तब सर्व
व्यवहार चेष्टा
में
आनन्दवान्
होता है । जिस
पुरुष का
अहंकार शान्त
हुआ है उसको
भोग और रोग
दोनों स्वाद
नहीं
देते-जैसे
अमृत से जो तृप्त
हुआ है उसको
खट्टा और मीठा
दोनों स्वाद
नहीं देते । अर्थात्
राग-द्वेष से
चलायमान नहीं
होता एकरस
रहता है जिसका
अनात्मा में
अहंभाव नष्ट
हुआ है उसको
भोगों में राग
नहीं होता और
तृष्णा, राग,
द्वेष नष्ट
हो जाता है । जैसे
सूर्य के उदय
हुए अन्धकार
नष्ट हो जाता
है तैसे ही
अपने दृढ़
पुरुषार्थ से
जिस के हृदय
से अहंकार का
अनुसंधान
नष्ट होता है
वह
संसारसमुद्र
को तर जाता है
। इससे यही
निश्चय धारण
करो कि ‘न मैं
हूँ’ न कोई
मेरा है’ अथवा
‘सर्व मैं
ही हूँ’ ‘मुझसे
भिन्न कुछ
वस्तु नहीं’ यह निश्चय
जब दृढ़ होगा
तब संसार की
द्वैत भावना
मिट जावेगी और
केवल
आत्मतत्त्व
का सर्वदा मान
होगा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
स्थितिप्रकरणे
दाम,
व्याल, कटोपाख्यानंनाम
त्रयस्त्रिंशत्तमस्सर्गः
॥33॥
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब दाम, व्याल, कट युद्ध करते-करते भाग गये तब सम्बर के नगर की जो अवस्था हुई सो सुनो । पहाड़ के समान नगर में जब सम्बर की जितनी कुछ सेना थी वह सब नष्ट हो गई तब देवता जीतकर अपने अपने स्थानों में जा बैठे और सम्बर भी क्षोभ को पाके बैठ रहा । जब कुछ वर्ष व्यतीत हुए तब देवताओं के मारने के निमित्त सम्बर फिर युक्ति विचारने लगा कि दामादिक जो माया से रचे थे सो मूर्ख और बलवान् थे परन्तु मिथ्या अहंकार का बीज अज्ञान उनको मिथ्या अहंकार आन फुरा जिससे वे नष्ट हुए और भागे । अब मैं ऐसे योद्धा रचूँ जो आत्मवेत्ता ज्ञानवान् और निरहंकार हों और जिनको कदाचित अहंकार न उत्पन्न हो तो उनको कोई जीत भी न सकेगा और वे सब देवताओं की सेना मारेंगे । हे रामजी! इस प्रकार चिन्तन करके सम्बर ने माया से इस भाँति दैत्य रचे जैसे समुद्र अपने बुद्बुदे रच ले । वे सर्वज्ञ, विद्या के वेत्ता और वीत राग आत्मा थे और यथाप्राप्त काम करते थे । उनको आत्मभाव का निश्चय था और आत्मरूप उत्तमपुरुष उपजे । भीम, भास और दट उनके नाम थे । वे तीनों सम्पूर्ण जगत् को तृणवत् जानते थे और परम पवित्र उनके हृदय थे । वे गरजने और महाबल से शब्द करने लगे जिससे आकाश पूर्ण हो गया तब इन्द्रादिक देवता स्वर्ग में शब्द सुनके बड़ी सेना संग लेकर आये और यह बड़े बली भी बिजलीवत् चमत्कार करने लगे । दोनों ओर से युद्ध होने लगे और शस्त्रों की नदियों का प्रवाह चला, पर भीम, भास, दट धैर्य से खड़े रहे । कभी कोई शस्त्र का प्रहार लगे तब युद्ध के अभ्यास से देह का मोह आन फुरे पर फिर विचार में सावधान हों कि हम तो अशरीर हैं और चैतन्यमय, निराकार, निर्विकार, अद्वैत, अच्युतरूप हैं, हमारे शरीर कहाँ है । जब जब मोह आवे तब ऐसे विचार करें और जरा मरण उनको कुछ न भासे । वे निर्भय होकर वासना जाल से मुक्त हुए शत्रु को मारते और युद्ध करते थे और हेयोपादेय से रहित समदृष्टि हो युद्धकार्य को करते रहे । निदान दृढ़ युद्ध हुआ तब देवताओं की सेना मारी गई और जो कुछ शेष रहे सो भीम, भास, दट के भय से भागे । जैसे जल पर्वत से उतरता है और तीक्ष्ण वेग से चलता है तैसे ही देवता त