श्रीयोगवाशिष्ठ पञ्चम
उपशम प्रकरण
अनुक्रम
श्रीयोगवाशिष्ठ पञ्चम
उपशम प्रकरण प्रारम्भ
बल्युपाख्याने
चित्तचिकित्सोपदेश
प्रह्लादोपाख्याने
नारायणवनोपन्यासयोग
इतना
कहकर
वाल्मीकि
बोले, हे साधो! अब
स्थितिप्रकरण
के अनन्तर
उपशम प्रकरण
कहता हूँ
जिसके जानने
से निर्वाणता
पावोगे । जब
वशिष्ठजी ने
इस प्रकार वचन
कहे तब सब सभा ऐसी
शोभित हुई
जैसे शरत्काल
के आकाश में
तारागण शोभते
हैं ।
वशिष्ठजी के
वचन परमानन्द
के कारण हैं ।
ऐसे पावन वचन
सुनके सब मौन
हो गये और
जैसे कमल की
पंक्ति कमल की
खानि में
स्थित हो तैसे
ही सभा के लोग
और राजा स्थित
हुए ।
स्त्रियाँ जो झरोखों
में बैठी थीं
उनके महाविलास
की चञ्चलता
शान्त हो गई
और घड़ियालों
के शब्द जो गृह
में होते थे
वे भी शान्त
हो गये । शीश
पर चमर
करनेवाले भी
मूर्तिवत्
अचल हो गये और
राजा से आदि
लेकर जो लोग
थे वे कथा के
सम्मुख हुए ।
रामजी बड़े
विकास को
प्राप्त हुए-जैसे
प्रातःकाल
में कमल
विकासमान
होता है और वशिष्ठजी
की कही वाणी
से राजा दशरथ ऐसा
प्रसन्न हुआ
जैसे मेघ की
वर्षा से मोर
प्रसन्न होता
है । सबके
चञ्चल
वानररूपी मन
विषय भोग से
रहित हो स्थित
हुए और
मन्त्री भी
सुनके स्थित
हो रहे और
अपने स्वरूप को
जानने लगे ।
जैसे
चन्द्रमा की
कला प्रकाशती
है तैसे ही
आत्मकला
प्रकाशित हुई
और लक्ष्मण ने
अपने
लक्षस्वरूप
को देखके
तीव्रबुद्धि
से वशिष्ठजी
के उपदेश को
जाना। शत्रुघ्न
जो शत्रुओं को
मारनेवाले थे
उनका चित्त
अति आनन्द से
पूर्ण हुआ और
जैसे पूर्णमासी
का चन्द्रमा
स्थित होता है
तैसे मन्त्रियों
के हृदय में
मित्रता हो गई
और मन शीतल और
हृदय
प्रफुल्लित
हुआ । जैसे
सूर्य के उदय
हुए कमल
तत्काल
विकासमान
होता है । और
और जो मुनि, राजा और
ब्राह्माण
स्थित थे उनके
रत्नरूपी चित्त
स्वच्छ और निर्मल
हो गये । जब
मध्याह्न काल
का समय हुआ और
बाजे बजकर
उनके ऐसे शब्द
हुए जैसे
प्रलयकाल में मेघों
के शब्द होते
हैं और उन बड़े
शब्दों से
मुनीश्वरों
का शब्द
आच्छादित हो
गया- जैसे मेघ
के शब्द से
कोकिला का
शब्द दब जाता
है तब
वशिष्ठजी चुप
होगये और एक मुहूर्त्तपर्यन्त
शब्द होता रहा
। जब घनशब्द
शान्त हुआ तब
मुनीश्वर ने
रामजी से कहा,
हे रामजी!
जो कुछ आज
मुझे कहना था
वह मैं कह
चुका अब कल
फिर कहूँगा । यह
सुन सर्वसभा
के लोग
अपने-अपने
स्थानों को गये
और वशिष्ठजी
ने राजा से
लेकर रामजी आदि
से कहा कि तुम
भी अपने-अपने
घरों में जावो
। सबने
चरणवन्दना और
नमस्कार किया और
जो नभचारी, वनचारी और
जलचारी थे उन
सबको विदाकर
आप भी अपने-अपने
स्थानों को गये
और ब्राह्मण
की
सुन्दरवाणी
को विचारते और
अपने-अपने
अधिकार की
क्रिया दिन को
करते रहे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
पूर्वदिनवर्णनन्नाम
प्रथमस्सर्गः
॥1॥
इतना
कहकर फिर
वाल्मीकिजी
बोले, हे भारद्वाज!
इस प्रकार
अपने अपने
स्थानों में
सब यथाउचित
क्रिया करने
लगे ।
वशिष्ठजी
राजा, राघव,
मुनि और
ब्राह्मणों
ने अपने-अपने स्थानों
में स्नान
आदिक क्रिया
की और गौ, सुवर्ण,
अन्न, पृथ्वी,
वस्त्र, भोजन
आदिक ब्राह्मणों
को यथायोग्य
पात्र दान
दिये । सुवर्ण
और रत्नों से
जड़े स्थानों
में आकर राजा
ने देवताओं का
पूजन किया और
कोई विष्णु का
और सदाशिव का,
कोई अग्नि
का और किसी ने
सूर्य आदिक का
पूजन किया ।
तदनन्तर पुत्र,
पौत्र, सुहृद,
मित्र, बान्धव
संयुक्त
नानाप्रकार
के उचित भोजन
किये । इतने
में दिन का
तीसरा पहर आया
तब सबने अपने
सम्बन्धियों
संयुक्त और और
क्रिया की और
जब साँझ हुई
और सूर्य अस्त
हुआ तब सायंकाल
की विधि की और
अघमर्षण
गायत्री आदिक का
जाप किया और
पाठस्त्रोत
और मनोहर कथा
मुनीश्वरों
की कही । फिर
रात्रि हुई तब
स्त्रियों ने
शय्या बिछाई
और उन पर वे विराजे
पर रामजी बिना
सबको रात्रि
एक
मुहूर्तवत्
व्यतीत हुई ।
रामजी स्थित
होकर वशिष्ठजी
के वचन की
पंक्तियों को
विचारने लगे
कि जिसका नाम
संसार है
इसमें भ्रमने का
पात्र कौन है,
नाना
प्रकार के
भूतजात कहाँ
से आते हैं, कहाँ जाते
हैं, मन का
स्वरूप क्या
है, शान्ति
कैसे होती है,
यह माया
कहाँ से उठी
है, और
कैसे निवृत्त
होती है, निवृत्त
हुए विशेषता
क्या होती है,
नष्ट किसकी
होती है, अनन्तरूप
जो विस्तृत
आत्मा है
उसमें अहंकार
कैसे होता है,
मन के क्षय
होने और
इन्द्रियों
के जीतने में
मुनीश्वरों
ने क्या कहा
है और आत्मा
के पाने में
क्या युक्ति
कही है? जीव,
चित्त, मन
और माया सब ही
एकरूप है, विस्ताररूप
संसार इसने
रचा है और
जैसे ग्राह ने
हाथी को बाँधा
था और वह कष्ट
पाता था तैसे
ही असत्रूप
संसार में
बँधकर जो जीव
कष्ट पाते हैं
उस दुःख के नाश
करने के
निमित्त कौन
औषध है ।
भोगरूपी मेघमाला
में मोहित हुई
मेरी बुद्धि
मलिन हो गई है,
इसको मैं
किस प्रकार
शुद्ध करूँ ।
यह तो भोग के
साथ तन्मय हो
गई है और मुझको
भोगों के
त्यागने की
सामर्थ्य भी
नहीं, भोगों
के त्यागने के
बिना बड़ी आपदा
है और उनके
संहारने की भी
सामर्थ्य
नहीं । बड़ा
आश्चर्य है और
हमको बड़ा कष्ट
प्राप्त हुआ
है । आत्मपद
की प्राप्ति
मन के जीतने
से होती है और
वेदशास्त्र
के कहने का
प्रयोजन भी
यही है । गुरु
के वचनों से
भ्रम नष्ट हो
जाता है-जैसे
बालक को पर छाहीं
में वैताल
भासता है- उस
भ्रम को जैसे
बुद्धिमान
दूर करता है
तैसे ही
मनरूपी भ्रम
को गुरु दूर
करते हैं । वह
कौन समय होगा
कि मैं शान्ति
पाऊँगा और
संसारभ्रम नष्ट
हो जावेगा ।
जैसे
यौवनवान्
स्त्री प्रियपति
को पाके सुख
से विश्राम
करती है, तैसे,
ही मेरी
बुद्धिआत्मा
को पाके कब
विश्रामवान्
होगी । नाना
प्रकार के
संसार के आरम्भ
मेरे कब शान्त
होंगे और कब
मैं आदि अन्त
से रहित पद
में
विश्रान्तवान्
होऊँगा मेरा
मन कब पावन
होगा और
पूर्णमासी के
चन्द्रमावत्
सम्पूर्ण कला
से सम्पन्न
होकर स्वच्छ,
शीतल और
प्रकाशरूप पद
में कब स्थित
होऊँगा । मैं
कब जगत् को
देखके
हँसूँगा और कब
मलीन कलना को
त्याग के आत्म
पद में स्थित
होऊँगा । कब
मैं मन को
संकल्प विकल्प
से रहित शान्त
रूप
देखूँगा-जैसे
तरंग से रहित
नदी शान्तरूप
दीखती है । तृष्णा
रूपी तरंग से
व्याकुल जो
संसार समुद्र
है वह मायाजाल
से पूर्ण है
और राग द्वेषरूपी
मच्छों से
संयुक्त है, उसको त्याग
के मैं
वीतज्वर कब
होऊँगा । उस
उपशम सिद्धपद
को मैं कब
पाऊँगा जो
बुद्धिमानों
ने मूढ़ता को
त्याग के पाया
है । मैं कब निर्दोष
और समदर्शी
होऊँगा और
अज्ञानरूपी ताप
मेरा कब नाश
होगा जिससे
सम्पूर्ण अंग मेरे
तपते हैं । सब
धातु
क्षोभरूप हो
गई हैं और
उनसे बड़ा
दीर्घज्वर
हुआ है इससे
कब मेरा चित्त
शान्तवान्
होगा-जैसे
वायु बिना
दीपक होता है
। कब मैं भ्रम
त्याग के प्रकाशवान्
हूँगा और कब
मैं लीला करके
इन्द्रियों
के दुःखों को
तर जाऊँगा । दुर्गन्धरूप
देह से मैं कब
न्यारा
होऊँगा और ‘अहं’ ‘त्वं’
आदिक
मिथ्याभ्रम
का नाश मैं कब
देखूँगा । जिस
पद के आगे
इन्द्रादिकों
का सुख ऐश्वर्य
मन्दारादिक
वृक्षों की सुगन्ध
और नाना
प्रकार के भोग
तृणवत् भासते
हैं वह
आत्मसुख हमको
कब प्राप्त
होगा वीतराग
मुनीश्वर ने
जो हमसे ज्ञान
की निर्बल दृष्टि
कही है उसको
पाके मन
विश्राम वान्
होता है ।
संसार तो
दुःखरूप है मन
तू किस पदार्थ
को पाकै
विश्रामवान्
हुआ है । माता,
पिता, पुत्रादिक
जो सम्बन्धी
है उनका पात्र
मैं नहीं हूँ
इनका पात्र
भोगी होता है
। बुद्धि तू
मेरी बहन है, तू मेरा ही
अर्थ भ्राता
की नाईं पूर्ण
कर कि तुम हम
दोनों दुःख से
मुक्त हों ।
मुनीश्वर के
वचनों को
विचार के
हमारी आपदा
नाश होगी, हम
भी परमपद को
प्राप्त
होंगे और
तुझको भी
शान्ति होगी ।
हे मेरी
बुद्धि! तू
ज्यों स्मरण
कर कि
वशिष्ठजी ने
क्या कहा है ।
प्रथम तो
वैराग्य कहा,
फिर
मोक्षव्यवहार
कहा है, फिर
उत्पत्ति
प्रकरण कहा है
कि संसार की
उत्पत्ति इस
क्रम से हुई
है और फिर स्थिति
प्रकरण कहा है
कि ईश्वर से
जगत् की
स्थिति है और
नाना प्रकार
के दृष्टान्तों
से उसे निरूपण
किया है ।
निदान जितने
प्रकरण कहे
हैं वे ज्ञान
विज्ञानसंयुक्त
हैं । हे
बुद्धे! जिस
प्रकार
वशिष्ठजी ने
कहा है तैसे
तू स्मरण कर
और अनेकबार
विचार कर बुद्धि
में निश्चय न
हो तो वह
क्रिया भी निष्फल
है । जैसे
शरत्काल का
मेघ बड़ा घन भी
दृष्टि आता है
परन्तु वर्षा
से रहित निष्फल
होता है तैसे
ही धारणा से
रहित विचार किया
हुआ निष्फल
होता है । जब
धारणा कीजिये
वह विचार सफल
होता है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
उपदेशानुसार
वर्णनन्नाम द्वितीयस्सर्गः
॥2॥
वाल्मीकिजी
बोले, हे भारद्वाज!
जब इस प्रकार
बड़े उदार
आत्मा रामजी
ने चित्त संयुक्त
रात्रि
व्यतीत की तो
कुछ तम
संयुक्त तारागण
हुए और दिशा
भासने लगीं । प्रातःकाल
के नगारे नौबत
बजने लगे तब
रामजी ऐसे उठे
जैसे कमलों की
खानि से कमल
उठे और भाइयों
के साथ
प्रातःकाल के
सन्ध्यादिक कर्म
करके कुछ
मनुष्यों से
संयुक्त वसिष्ठजी
के आश्रम में
आये ।
वशिष्ठजी
एकान्त समाधि
में स्थित थे
उनको दूर से
देख रामजी ने
नमस्कारसहित
चरणवन्दना की
और प्रणाम
करके हाथ
बाँधे खड़े रहे
। जब दिशा का
तम नष्ट हुआ
तब राजा और
राजपुत्र , ऋषि, ब्राह्मण
जैसे
ब्रह्मलोक
में देवता
आवें तैसे आये
। वशिष्ठजी का
आश्रम जनों से
पूर्ण हो गया
और हाथी, घोड़े,
रथ, प्यादा
चार प्रकार की
सेना से स्थान
शौभित हुआ ।
तब तत्काल
वशिष्ठजी
समाधि से उतरे
और सर्व लोगों
ने प्रणाम किया
। वशिष्ठजी ने
उन सबका
प्रणाम
यथायोग्य ग्रहण
किया और
विश्वा- -मित्र
को संग लेकर
सबसे आगे चले
। बाहर निकलकर
रथ पर आरूढ़
हुए-जैसे पद्म
में ब्रह्मा
बैठे और दशरथ
के गृह को चले
। जैसे ब्रह्माजी
बड़ी सेना से
वेष्टित
इन्द्र पुरी
को आते हैं
तैसे ही
वशिष्ठजी बड़ी
सेना से
वेष्टित दशरथ
के गृह आये और
जो विस्तृत
रमणीय सभा थी
उसमें प्रवेश
किया जैसे
राजहंस कमलों
में प्रवेश
करे । तब राजा
दशरथ ने जो
बड़े सिंहासन
पर बैठै थै
उठकर आगे जा
चरणवन्दना की
और नम्र होकर चरण
चूमे ।
वशिष्ठजी
सबके आगे होकर
शोभित हुए और
अनेक मुनि, ऋषि और ब्राह्मण
आये । दशरथ से
लेकर राजा
सर्वमन्त्री
और बन्दीजन और
रामजी से आदि
लेकर
राजपुत्र, मण्ड-
-लेश्वर, जगत् के
अधिष्ठाता और
मालव आदि सर्व
भृत्य और टहलुये
आकर यथायोग्य
अपने आपमें
आसन पर बैठे
और सबकी
दृष्टि
वशिष्ठजी की
ओर गई ।
बन्दीजन जो
स्तुति करते
थे और सर्वलोक
जो शब्द करते
थे चुप हो गये
निदान सूर्य उदय
हुआ । और
किरणों ने
झुककर झरोखों
से प्रवेश
किया, कमल
खिल आये, पुष्पों
से स्थान
पूर्ण हो गये
और उनकी
महासुगन्ध
फैली, झरोखों
में
स्त्रियाँ
चञ्चलता
त्यागकर मौन हो
बैठीं और चमरकरनेवाली
मौन होकर शीश
पर चमर करने
लगीं और सब
वशिष्ठजी की
महासुन्दर
कोमल मधुरवाणी
को स्मरणकर
आपस में
आश्चर्यवान्
होने लगे । तब
आकाश से
राजऋषि, सिद्ध,
विद्याधर
और मुनि आये
और वशिष्ठजी
को प्रणाम किया
पर गम्भीरता
से मुख से न
बोले और यथायोग्य
आसन पर बैठ
गये । पुष्पों
की सुगन्धयुक्त
वायु चली और
अगर चन्दनादि
की सभा में
बड़ी सुगन्ध
फैल गई ।
भँवरे शब्द
करते फिरते थे
और कमलों को
देखकर
प्रसन्न होते थे
। रत्न मणि
भूषण जो राजा
और
राजपुत्रों
ने पहिने थे
उन पर सूर्य
की किरणें
पड़ने से बड़ा
प्रकाश होता
था ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
सभास्थानवर्णन्नाम
तृतीयस्सर्गः
॥3॥
वाल्मीकिजी
बोले कि उस
समय दशरथजी ने
वशिष्ठजी से
कहा, हे
भगवन्! कल के
श्रम से आप
आश्रित हैं और
आपका शरीर
गरमी से अति
कृश सा हो गया
है इस निमित्त
विश्राम कीजिये
। हे मुनीश्वर!
आप जो आनन्दित
वचन कहते हैं
वे प्रकटरूप
हैं और आपके
उपदेश रूपी
अमृत की वर्षा
से हम
आनन्दवान्
हुए हैं ।
हमारे हृदय का
तम दूर होकर
शीतल चित्त
हुआ है-जैसे
चन्द्रमा की
किरणों से तम
और तपन दोनों
निवृत्त होते
हैं तैसे ही आपके
बचनों से हम
अज्ञानरूपी
तम और तपन से
रहित हुए हैं
। आपके वचन
अमृतवत्
अपूर्व रस का
आनन्द देते
हैं और ज्यों
ज्यों ग्रहण
करिये
त्यों-त्यों
विशेष रस
आनन्द आता है
। ये वचन
शोकरूपी तप्त
को दूर
करनेवाले और अमृत
की वर्षारूप
हैं ।
आत्मारूपी रत्न
को
दिखानेवाले
परमार्थरूपी
दीपक हैं, सन्तजनरूपी
वृक्ष की बेलि
हैं और दुरिच्छा
और दुष्ट आचरण
के नाश
करनेवाले हैं
। जैसे तम को दूर
करने और
शीतलता करने को
शान्तरूप
चन्द्रमा है
तैसे ही
सन्तजनरूपी
चन्द्रमा को
किरणरूपी
वचनों से
अज्ञान रूपी
तप्त का नाश
करते हैं । हे
मुनीश्वर!
तृष्णा और
लोभादिक
विकार आपकी
वाणी से ऐसे
नष्ट हो गये
हैं जैसे शरत्काल
का पवन मेघ को
नष्ट करता है
और आपके वचनों
से हम निराश
हुए हैं । आत्मदर्शन
के निमित् हम
प्रवर्त्तते
हैं । आपने
हमको परम
अञ्जन दिया है
उससे हम सचक्षु
हुए हैं और
संसाररूपी
कुहिरा हमारा
निवृत्त हुआ
है जैसे
कल्पवृक्ष की
लता और अमृत
का स्नान
आनन्द देता है
तैसे ही
उदारबुद्धि
की वाणी
आनन्ददायक
होती है । इतना
कहकर
बाल्मीकिजी
बोले कि ऐसे
वशिष्ठजी से
कहकर रामजी की
ओर मुख करके
दशरथजी ने कहा,
हे राघव! जो
काल सन्तों की
संगति में
व्यतीत होता
है वही सफल
होता है और जो
दिन सत्संग
बिना व्यतीत
होता है वह
वृथा जाता है
। हे कमलनयन, रामजी! तुम
फिर वशिष्ठजी
से कुछ पूछो
तो वे फिर
उपदेश करें-वे
हमारा कल्याण
चाहते हैं ।
बाल्मीकिजी बोले
कि जब इस
प्रकार राजा
दशरथ ने कहा
तब रामजी की
ओर मुख करके
उदार आत्मा वशिष्ठ
भगवान् बोले
कि हे राघव!
अपने कुलरूपी
आकाश के
चन्द्रमा!
मैंने जो वचन
कहे थे तुमको
स्मरण आते हैं
उन वाक्यों का
अर्थ स्मरण
में है और
पूर्व और अपर
का कुछ विचार
किया है? हे
महाबोधवान्, महाबाहो! और
अज्ञानरूपी
शत्रु के
नाशकर्ता! सात्त्विक,
राजस और
तामस गुणों के
भेद की
उत्पत्ति जो
विचित्ररूप
है वह मैंने
कही है ।
तुम्हारे
चित्त में है
सर्व भी वही
है, असर्व
भी वही है
सत्य भी वही
है और असत्य
भी वही है और
सदा शान्त
अद्वैतरूप है
। परमात्मादेव
का
विस्तृतरूप
स्मरण है । जैसे
विश्व ईश्वर
से उदय हुआ है
वह स्मरण है, यह जो
देववाणी है
इसका पात्र
शुद्ध चित्त
है, अशुद्ध
नहीं । हे
सत्यबुद्धे, रामजी! अविद्या
जो विस्तृत रूप
भासती है उसका
रूप स्मरण है?
अर्थ से
शून्य, क्षणभंगुररूप,
सम्यक्
दर्शन से रहित
निर्जीव है यह
जो लवण के
विचार द्वारा
मैंने
प्रतिपादन किया
है वह भली
भाँति स्मरण
है? और वाक्यों
का समूह जो
मैंने तुमसे
कहा है उनको रात्रि
में विचार के
हृदय में धारा
है? जब
पुरुष
बारम्बार
विचारते हैं
और तात्पर्य हृदय
में धारते हैं
तब बड़ा फल पाते
हैं और जो
अवज्ञा से
अर्थ का
विस्मरण करते
हैं तो फल
नहीं पाते ।
हे रामजी! तुम
तो इन वचनों
के पात्र हो
जैसे उत्तम
बाँस में मोती
फलीभूत होते
हैं और में
नहीं उपजते तैसे
ही जो विवेकी
उदार
आत्मचित्त
पुरुष हैं
उनके हृदय में
ये वचन फलीभूत
होते हैं ।
वाल्मीकिजी
बोले कि इस
प्रकार जब
ब्रह्माजी के
पुत्र
वशिष्ठजी ने
कहा तब महा ओजवान्
गम्भीर रामजी
अवकाश पाके
बोले, हे
भगवन्! सब
धर्मों के
वेत्ता और
आपने जो परम
उदार वचन कहे
हैं उनसे मैं
बोधवान् हुआ
हूँ और जैसे
आप कहते हैं
तैसे ही सत्य है,
अन्यथा
नहीं । हे
भगवन्! मैंने
समस्त रात्रि
आपके वाक्यों
के विचार में
व्यतीत की है
। आप तो हृदय
के
अज्ञानरूपी
तम के नाशकर्ता
पृथ्वी पर
सूर्यरूप
बिचरते हैं । हे
भगवन्! आपने
जो व्यतीत दिन
में
आनन्ददायक, प्रकाशरूपी,
रमणीय और
पवित्र वचन
कहे थे, व
मैंने सब अपने
हृदय में भली
प्रकार धरे
हैं । जैसे
समुद्र से
नाना प्रकार
के रत्न
निकलते हैं
तैसे ही आपके
वचन
कल्याणकर्ता
और बोधवान्
हैं अर्थात्
सबके सहायक और
हृदयगम्य
आनन्द का कारण
हैं । वह कौन
है जो आपकी
आज्ञा सिर पर
न धरे? जो मुमुक्षु
जीव हैं वे सब
आपकी आज्ञा
शीश पर धरते
हैं और अपने
कल्याण के
निमित्त जानते
हैं । हे
मुनीश्वर!
आपके वचनों से
मेरे संशय
निवृत्त हुए
हैं-जैसे शरत्काल
में मेघ और
कुहिरा नष्ट
हो जाता है और
निर्मल आकाश
भासता है । यह
संसार आपात रमणीय
भासता है, जब
तक पदार्थों
का विभाग नहीं
होता तब तक
सुखदायक
भासते हैं, और जब विषय
इन्द्रियों
से दूर होते
हैं तब दुःखदायक
हो जाते हैं
आपके वचन ऐसे
हैं कि जिनके
आदि में भी
यत्न कुछ नहीं
सुगम मधुर आरम्भ
है, मध्य
में सौभाग्य
मधुर है अर्थात्
कल्याण करता
है और पीछे से
अनुत्तमपद को
प्राप्त करते
हैं जिसके
समान और कोई
पद नहीं । यह
आपके
पुण्यरूप
वचनों का फल है
और आपके
वचनरूपी
पुष्प सदा कमल
समान खिले हुए
निर्मल आनन्द
के देनेवाले
हैं और उदित
फूल हैं, उनका
फल हमको
प्राप्त होगा
। सब
शास्त्रों
में जो
पुण्यरूपी जल
है उसका यह
समुद्र है, अब मैं
निष्पाप हुआ हूँ
मुझको उपदेश
करो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
राघववचनन्नाम
चतुर्थस्सर्गः
॥4॥
वशिष्ठजी
बोले, हे
सुन्दरमूर्ते,
रामजी यह
सुन्दर
सिद्धान्त जो
उपशम प्रकरण है
उसे सुनो, तुम्हारे
कल्याण के
निमित्त मैं
कहता हूँ । यह
संसार
महादीर्घ रूप
है और जैसे दृढ़थम्भ
के आश्रय गृह
होता है तैसे
ही राजसी जीवों
का आश्रय
संसार
मायारूप है । तुम
सरीखे जो
सात्त्विक
में स्थित हैं
वे शूरमे हैं,
जो वैराग, विवेक आदिक
गुणों से सम्पन्न
हैं वे लीला
करके यत्न
बिना ही संसार
माया को त्याग
देते हैं औष
जो बुद्धि मान्
सात्त्विक
जागे हुए हैं
और जो राजस और
सात्त्विक
हैं वे भी
उत्तम पुरुष
हैं । वे
पुरुष जगत् के
पूर्व अपूर्व
को विचारते हैं
। जो सन्तजन
और सत्शास्त्रों
का संग करता
है उसके
आचरणपूर्वक
वे बिचरते हैं
और उससे ईश्वर
परमात्मा के
देखने की उन्हें
बुद्धि उपजती
है और दीपकवत्
ज्ञानप्रकाश
उपजता है । हे
रामजी! जब तक
मनुष्य अपने
विचार से अपना
स्वरूप नहीं
पहिचानता तब तक
उसे ज्ञान
प्राप्त नहीं
होता । जो उत्तम
कुल, निष्पाप,
सात्त्विक-राजसी
जीव हैं
उन्हीं को
विचार उपजता
है और उस विचार
से वे अपने
आपसे आपको
पाते हैं । वे
दीर्घदर्शी
संसार के जो
नाना प्रकार
के आरम्भ हैं
उनको बिचारते
हैं और बिचार
द्वारा आत्मपद
पाते हैं और
परमानन्द सुख
में प्राप्त होते
हैं । इससे
तुम इसी को
विचारो कि
सत्य क्या है
और असत्य क्या
है? ऐसे
विचार से
असत्य का त्याग
करो और सत्य
का आश्रय करो
। जो पदार्थ
आदि में न हो
और अन्त में भी
न रहे उसे
मध्य में भी
असत्य जानिये
। जो आदि, अन्त
एकरस है उसको
सत्य जानिये
और जो आदि
अन्त में
नाशरूप है
उसमें जिसको
प्रीति है और
उसके राग से
जो रञ्जित है
वह मूढ़ पशु है,
उसको विवेक
का रंग नहीं
लगता । मन ही
उपजता है और
मनही बढ़ता है,
सम्यक्
ज्ञान के उदय
हुए मन
निर्वाण हो
जाता है ।
मनरूपी संसार
है और
आत्मसत्ता ज्यों
की त्यों है ।
रामजी ने पूछा
हे ब्रह्मन्!
जो कुछ आप
कहते हैं वह
मैंने जाना कि
यह संसार
मनरूप है और
जरा मरण आदिक
विकार का
पात्र भी मन
ही है । उसके तरने
का उपाय
निश्चय करके
कहो । हम सब
रघुवंशियों
के कुल के
अज्ञानरूपी
तम को हृदय से
दूर करने को
आप ज्ञान के
सूर्य हैं । वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! प्रथम
तो जीव को
विचारपूर्वक
वैराग कहा है
कि सन्तजनों का
संग और सत्शास्त्रों
से मन को
निर्मल करे ।
जब मन को
निर्मल करेगा
तब स्वजनता से
सम्पन्न होगा
और वैराग्य
उपजेगा । जब
वैराग
प्राप्त होगा
तब ज्ञानवान्
गुरु के निकट
जावेगा और जब
वह उपदेश
करेंगे तब
ध्यान, अर्चनादि
के क्रम से
परमपद को
प्राप्त होगा
। जब निर्मल
विचार उपजता
है तब अपने
आपको आपसे
देखता है-जैसे
पूर्णमासी का चन्द्रमा
अपने बिम्ब को
आपसे देखता है
। जब तक
विचाररूपी तट
का आश्रय नहीं
लिया तब तक
संसार में
तृणवत्
भ्रमता है और
जब विचार करके
ज्यों का
त्यों
वस्तु-जानता
है तब सब दुःख
नष्ट हो जाते
हैं । जैसे
सोमजल के नीचे
रेत जा रहती
है तैसे ही
आधी पीड़ा उसकी
निवृत्त हो
जाती है फिर
उत्पन्न नही
होती । जैसे
जब तक सुवर्ण
और राख मिली
हुई है तब तक
सोनार संशय
में रहता है
और जब सुवर्ण और
राख भिन्न हो
जाती है तब
संशय रहित
सुवर्ण को
प्रत्यक्ष
देखता है और
तभी निःसंशय
होता है, तैसे
ही अज्ञान से जीवों
को मोह
उत्पन्न होता
है और देह
इन्द्रियों
से मिला हुआ
संशय में रहता
है जब विचार
से
भिन्न-भिन्न
जाने तब मोह
नष्ट हो और तभी
संशय से रहित
शुद्ध
अविनाशीरूप आत्मा
को देखता है ।
विचार किये
मोह का अवसर नहीं
रहता-जैसे
अज्ञानी
पुरुष चिन्ता मणि
की कीमत नहीं
जान सकता, जब
उसको ज्ञान प्राप्त
होता है तब
ज्यों का
त्यों जानता है
और मोह संशय
निवृत्त हो
जाता है, तैसे
ही जीव जब तक
आत्मतत्त्व
को नहीं जानता
तब तक दुःख का
भागी होता है
और सब ज्यों
का त्यों
जानता है तब
शुद्ध शान्ति
को प्राप्त
होता है । हे
रामजी! आत्मा
देह से
मिश्रित
भासता है पर
वास्तव में
कुछ मिश्रित
नहीं, इससे
अपने स्वरूप
में शीघ्र ही
स्थित हो जावो
। निर्मल
स्वरूप जो आत्मा
है उसको
रञ्चकमात्र
भी देह से
सम्बन्ध नहीं-जैसे
सुवर्ण कीच
में मिश्रित भासता
है तो भी
सुवर्ण को कीच
का लेप नहीं
निर्लेप रहता
है तैसे ही
जीव को देह से कुछ
सम्बन्ध नहीं
निर्लेप ही
रहता है-आत्मा
भिन्न है, देह
भिन्न है ।
जैसे जल और कमल
भिन्न रहते
हैं । मैं
ऊँची भुजा
करके पुकारता
हूँ, मेरा
कहा मूर्ख
नहीं मानते कि
संकल्प से
होना परम
कल्याण है ।
यही भावना हृदय
में क्यों
नहीं करते? जब तक जड़
धर्मी है
अर्थात् विषय
भोगों में
आस्था करता है
और
आत्मतत्त्व
से शून्य रहता
है तब तक मूढ़
रहता है, जबतक
स्वरूप का
प्रमाद है
तबतक हृदय से
संसार का तम
और किसी
प्रकार दूर
नहीं होता ।
चन्द्रमा उदय
हो और अग्नि
का समूह हो वा
द्वादश सूर्य
इकट्ठे उदय हो
तो भी हृदय का
तम किंचित्मात्र
भी दूर नहीं
होता और जब
स्वरूप को
जानकर आत्मा
में स्थित हो
तब हृदय का तम
नष्ट हो
जावेगा । जैसे
सूर्य के उदय हुये
जगत् का
अन्धकार नष्ट
होता है । जब
तक आत्मपद का
बोध नहीं होता
और भोगों में
मन तद्रूप है
तबतक संसार
समुद्र में
बहे जावोगे और
दुःख का अन्त
न आवेगा ।
जैसे आकाश में
धूलि भासती है
परन्तु आकाश
को धूलि का
सम्बन्ध कुछ
नहीं और जैसे
जल में कमल
भासता है
परन्तु जल से
स्पर्श नहीं
करता, सदा
निर्लेप रहता
है, तैसे
ही आत्मा देह
से मिश्रित
भासता है
परन्तु देह से
आत्मा का कुछ
स्पर्श नहीं,
सदा
विलक्षण रहता है
जैसे सुवर्ण
कीच और मल से
अलेप रहता है
। देह जड़ है
आत्मा उससे
भिन्न है और सुख
दुःख का
अभिमान आत्मा
में भासता है
वह भ्रममात्र
असत्यरूप है ।
जैसे आकाश में
दूसरा
चन्द्रमा और
नीलता
असत्यरूप है
तैसे ही आत्मा
में सुख
दुःखादि
असत्यरूप हैं
। सुख दुःख
देह को होता
है, सबसे
अतीत आत्मा
में सुख दुःख
का अभाव है ।
यह अज्ञान करके
कल्पित है, देह के नाश
हुए आत्मा का
नाश नहीं होता,
इससे सुख
दुःख भी आत्मा
में कोई नहीं,
सर्वात्मामय
शान्तरूप है ।
यह जो विस्तृत
रूप जगत्
दृष्टि आता है
वह मायामय है,
जैसे जल में
तरंग और आकाश
में आकाश में
तरवरे भासते
हैं तैसे ही
आत्मा में जो
जगत् भासता है
सो आत्मा ही
है, न एक है,
न दो है, सब
आभास हैं और
मिथ्या दृष्टि
से आकार भासते
हैं । जैसे
मणि का प्रकाश
मणि से भिन्न
नहीं और जैसे
अपनी छाया
दृष्टि आती है
तैसे ही आत्मा
का प्रकाशरूप
जो जगत् भासता
है वह सब
ब्रह्मरूप है
। मैं और हूँ, यह जगत् और
है, इस
भ्रम को त्याग
करो, विस्तृतरूप
ब्रह्मघनसत्ता
में और कोई
कल्पना नहीं ।
जैसे जल में
तरंग कुछ
भिन्न वस्तु
नहीं जलरूप ही
है; तैसे सर्वरूप
आत्मा एक है, उसमें
द्वितीय
कल्पना कोई
नहीं । जैसे
अग्नि में बरफ
के कणके नहीं
होते, तैसे
ही ब्रह्म में
दूसरी वस्तु
कुछ नहीं ।
इससे अपने
स्वरूप की
आपही भावना
करो कि ‘मैं
चिन्मात्ररूप
हूँ’ "जगतजाल
सब मेरा ही
स्वरूप है" और
मैं ही विस्तृतरूप
हूँ’ जो
कुछ है वह देव
देवही है, न
शोक है, न
मोह है, न
जन्म है, न
देह है । ऐसे जानकर
विगतज्वर हो
जावो, तुम्हारी
स्थिरबुद्धि
है और तुम
शान्तरूप , श्रेष्ठ, मणिवत निर्मल
हो । हे राघव!
तुम
निर्द्वन्द्व
होकर
नित्यस्वरूप
में स्थित हो
जावो और सत्य
संकल्प, धैर्य
सहित हो, यथा,
प्राप्ति
में बर्तो ।
तुम वीतराग, निर्यत्न, निर्मल, वीतकल्मष
हो, न देते
हो, न लेते
हो, ग्रहण
त्याग से रहित
शान्तरुप हो ।
विश्व से
अतीति जो पद
है उसमें
प्राप्त होकर
जो पाने योग्य
पद है उसको
पाकर परि पूर्ण
समुद्रवत्
अक्षोभरूप, सन्ताप से
रहित बिचरो ।
हे रामजी!
संकल्पजाल से
मुक्त और
मायाजाल से
रहित अपने
आपसे तृप्त और
विगतज्वर हो
जावो ।
आत्मवेत्ता
का शरीर अनन्त
है और तुम भी
आदि अन्त से
रहित पर्वत के
शिखरवत् विगतज्वर
हो । हे रामजी! तुम
अपने आपसे
उदार होकर
अपने आप आनन्द
से आनन्दी
होवो । जैसे
समुद्र और पूर्णमासी
का चन्द्रमा
अपने आनन्द से
आनन्दवान् है
तैसे ही तुम
भी आनन्दवान्
हो । यह जो
प्रपञ्चरचना
भासती है सो
असत्य है, जो
ज्ञानवान्
हैं वे असत्य
जानकर इसकी ओर
नहीं धावते ।
तुम तो
ज्ञानवान् हो
असत्य कल्पना
त्याग करके
दुःख से रहित
हो और नित्य, उदित, शान्तरूप,
शुभगुण
संयुक्त
उपदेश द्वारा
चक्रवर्ती होकर
पृथ्वी का राज्य
करो, प्रजा
की पालना कर
और समदृष्टि
से बिचरो। बाहर
से यथाशास्त्र
शुभ चेष्टा करो
और राज्य की
मर्यादा
रक्खो पर हृदय
से निर्लेप
रहना । तुमको
त्याग और
ग्रहण से कुछ
प्रयोजन नहीं
और ग्रहण
त्याग में
समदृष्टि
होकर राज्य
करो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशम प्रकरणे
प्रथम उपदेशोनाम
पञ्चमस्सर्गः
॥5॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जिसकी हृदय से
वासना नष्ट
हुई है वह
पुरुष जो कार्यों
में बर्तता है
तो भी मुक्त
है । हमारे मत
में बन्धन का
कारण वासना है,
जिसकी
वासना क्षय
हुई है वह
मुक्तस्वरूप
है और जिसकी
वासना
पदार्थों में
सत्य है वह
बन्ध में है कोई
पुरुष अपने
पुरुषार्थ का
आश्रय कर
कर्तव्य भी
करते हैं और
प्रीति करके
प्रवर्त ते
हैं तो वे
अपनी वासना से
स्वर्ग में
जाते हैं और
फिर स्वर्ग को
त्यागकर दुःख
और नरक भोगते
हैं । वे अपनी
वासना से बँधे
हुए पशु आदिक
और स्थावर
योनि को
प्राप्त होते
हैं और कोई
आत्मवेत्ता
पुण्यवान्
पुरुष मन की
दशा को
विचारते हैं
और तृष्णा रूपी
बन्धनको
काटकर निर्मल
आत्मपद को
प्राप्त होते
हैं । जो
पुरुष
पूर्वजन्मों
को भोगकर इस
जन्म में
मुक्त होते
हैं वे
राजस-सात्त्विकी
होते हैं ।
जिनका यह जन्म
अन्त का होता
है वे क्रम
करके पूर्ण पद
को प्राप्त
होते हैं-जैसे
शुक्लपक्ष का चन्द्रमा
क्रम से
पूर्णमासी का
होता है और सब कलाओं
से पूर्ण होता
है । जैसे
वर्षा काल में
कण्टक वृक्ष
की मञ्जरी बढ़
जाती है तैसे
ही सौभाग्य और
लक्ष्मी उनकी बड़ती
जाती है । हे
रामजी! जिनका
यह जन्म अन्त
का होता है
उनमें निर्मल
गुण जो वेद ने
कहे हैं
अर्थात्
मैत्री, सौम्यता,
मुक्तता, ज्ञातव्यता
और आर्यता
प्रवेश करते
हैं । सब
जीवों पर दया
करनी मैत्री
है, हृदय
में सदा
समताभाव रहना
और कोई क्षोभ
न उठना
मुक्ततता
कहाता है, सदा
प्रसन्न रहना
सौम्यता है, यथा शास्त्र
आचार करना
आर्यता है और
ज्ञान का नाम
ज्ञातव्यता
है । जैसे राजा
के अन्तःपुर
में अंगना आ प्रवेश
करती हैं तैसे
ही जिसको अन्त
का यही जन्म
है सो
राजस-सात्त्विकी
है और उसके हृदय
में मैत्री
आदिक सर्वगुण
आ प्रवेश करते
हैं ।
ब्रह्मज्ञानी
सब कार्यों को
करता है
परन्तु उसके
हृदयमें लाभ
अलाभ राग
द्वेष नहीं
होता और
सर्वदाकाल समभाव
रहता है । वह न
तोषवान् होता
है और न
शोकवान् होता
है । जैसे
सूर्य के उदय
हुए तम नष्ट
हो जाता है
तैसे ही
आत्मभाव से
राग द्वेष
नष्ट हो जाते
हैं और
सर्वगुण
सिद्धता को प्राप्त
होते हैं ।
जैसे शरत्काल
का आकाश शुद्ध
होता है तैसे
ही वह कोमल और
सुन्दर होता
है और उसका
मधुर आचार
होता है, सब
जीव उसके आचार
की वाञ्छा
करते हैं और उसको
देखके मोहित
हो जाते हैं ।
जैसे मेघ की ध्वनि
से बगुले आ
प्रवेश करते
हैं तैसे ही
उस पुरुष में
सब गुण प्रवेश
करते हैं और
गुणों से
पूर्ण होकर वह
गुरु की शरण जाता
है । तब वह उसे
विवेक का
उपदेश करता है
और उस विवेक से
वह परमपद में
स्थित होता है
। हे रामजी! जो
वैराग्य और
विचार से
सम्पन्न
चित्त है वह आत्मदेव
को देखता है
उसको दुःख
स्पर्श नहीं
करता, वह
यथार्थ एक
आत्मरूप को
देखता है ।
तुम विचार का
आश्रय करके मन
को जगाओ, जिसमें
मनन ही मथन है
अर्थात् सदा
प्रपञ्च दृश्य
का मननभाव करता
है जो अन्त का
जन्मवान्
पुरुष है वह
मनरूपी मृग को
जगाता है ।
प्रथम तो साधा
रण गुणों से
जगाता है फिर
बड़े गुणों से
जगाता है और
फिर जानके
सेवन का यत्न
करता है । उस
विचार से जगत्
को आत्मरूप
देखता है और
आत्मा के
प्रकाश
(विचार) से अविद्या
मल नष्ट हो
जाता है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
क्रमोपदेशवर्णनन्नाम
षष्ठस्सर्गः
॥6॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! यह
तुमसे मैंने
क्रम कहा सो
वह सब जीवों
को समान है
इससे जो विशेष
है वह तुम
सुनो । इस
जगत् के आरम्भ
में जो
देहधारी जीव
हैं उन जीवों
का आत्मप्रकाश
से मोक्ष होता
है । एक उत्तम
क्रम है और एक
समान क्रम है
। जो गुरु के निकट
जावे और वह
उपदेश करे तो
उस उपदेश के
धारण से शनैः
शनैः एक जन्म
से अथवा अनेक जन्मों
से सिद्धता
प्राप्त होती
है और दूसरा
क्रम यही है
जो अपने आपसे
वह उत्पन्न होती
है अर्थात्
समझ लेता है ।
जैसे वृक्ष से
फल गिरे और
किसी को आ
प्राप्त हो
तैसे ही ज्ञान
प्राप्त होता
है । इसी पर
पूर्व का वृतान्त
मैं तुमसे
कहता हूँ सो
तुम सुनो । वह
महा पुरुषों
का वृत्तान्त
है शुभ अशुभ
गुणों के समूह
जिनके नष्ट
हुए हैं और
अकस्मात् फल
जिनका
प्राप्त हुआ
है उनका निर्मल
क्रम सुनो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
क्रमसूचनानाम
सप्तमस्सर्गः
॥7॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जिसकी सब
सम्पदा उदय
हुई थी और सब
आपदा नष्ट हुई
थी, ऐसा एक
उदार बुद्धि
विदेहनगर का
राजा जनक हुआ है
। वह बड़ा
धैर्यवान् था,
अर्थी का अर्थ
कल्पवृक्ष की
नाईं पूर्ण
करे, मित्ररूपी
कमलों को
सूर्यवत्
प्रफुल्लित करे,
बान्धवरूपी
पुष्पों को
वसन्त ऋतुवत्
और स्त्रियों
को कामदेववत्
था । ब्रह्मरूपी
चन्द्रमुखी
कमल का वह
शीतल चन्द्रमा
था, दुष्टरूपी
तम का
नाशकर्त्ता सूर्य
था और
स्वजनरूपी
रत्नों का
समुद्र पृथ्वी
में मानों
विष्णुसूर्य
स्थित हुआ था ऐसा
राजा जनक अरक
समय लीला करके
अपने बाग में जिसमें
मीठे फल लगे
थे और नाना प्रकार
के सुन्दर
बेलों पर
कोकिला शब्द
करती थीं इस
भाँति गया
जैसे नन्दनवन
में इन्द्र
प्रवेश करे ।
उस सुन्दर वन
में पुष्पों
से सुगन्ध फैल
रही थी राजा
अपने संग के
अनुचरों को
दूर त्यागकर
आप अकेला
कुञ्जों में
विचरने लगा ।
वहाँ शाल्मली
नामक एक वृक्ष
था उसके नीचे
राजा ने शब्द
सुना कि
अदृष्टसिद्ध
जो विरक्त चित्त
और नित्य पर्वतों
में
विचरनेवाले
हैं आत्मगीता
का उच्चारण
करते हैं
जिससे
आत्मबोध
प्राप्त होता
है । उस गीता
को राजा ने
सुना कि पहला
सिद्ध बोला, यह दृष्टा
जो पुरुष है
और दृश्य जो
जगत् है उस
दृष्टा और
दृश्य के मिलाप
में जो बुद्धि
में निश्चित
आनन्द होता है
और इष्ट के
संयोग और
अनिष्ट के
वियोग का जो
आनन्द चित्त
में दृढ़ होता
है वह आनन्द
आत्मतत्त्व
से उदय होता
है । उस आत्मा
की हम उपासना
करते हैं ।
दूसरा सिद्ध
बोला कि
दृष्टा, दर्शन
और दृश्य को
वासना सहित
त्याग करो ।
जो दर्शन से
प्रथम प्रकाशरूप
है और जिसके
प्रकाश से यह
तीनों प्रकाशते
हैं उस आत्मा
की हम उपासना
करते हैं ।
तीसरा सिद्ध
बोला जो
निराभास और
निर्मल है,जिसमें
मन का अभाव है,
अर्थात् अद्वैतरूप
है उसकी हम
उपासना करते
हैं । चौथा सिद्ध
बोला कि जो
दृष्टा, दृश्य
दोनों के मध्य
में है और
अस्ति नास्ति
दोनों पक्षों
से रहित
प्रकाशरुप
सत्ता है और
सूर्य आदिक को
भी प्रकाशता
है उस आत्मा
की हम उपासना
करते हैं ।
पञ्चम सिद्ध
बोला कि जो
ईश्वर सकार और
हकार है
अर्थात् सकार
जिसके आदि में
है और हकार
जिसके अन्त
में है सो
अन्त से रहित,
आनन्द, अनन्त,
शिव, परमात्मा
सर्वजीवों के
हृदय में
स्थित है और
निरन्तर जो
अहंकार होकर
उच्चार होता
है उस आत्मा
की हम उपासना
करते है । छठा
सिद्ध बोला कि
हृदय में
स्थित जो
ईश्वर है उसको
त्यागकर जो और
देव के पाने
का यत्न करते
हैं वे पुरुष
कौस्तुभमणि
को त्यागकर और
रत्नों की
वाञ्छा करते
हैं । सातवाँ
सिद्ध बोला कि
जो सब आशा
त्यागता है उसको
फल प्राप्त
होता है और
आशारूपी विष
की बेल वह मूल
संयुक्त नष्ट
हो जाती है अर्थात्
जन्म मरण आदिक
दुःख नष्ट हो जाते
हैं और फिर
नहीं उपजते
हैं । जो
पदार्थों को
अत्यन्त
विरसरूप
जानता है और फिर
उनमें आशा
बाँधता है वह
दुर्बुद्धि
गर्दभ है-मनुष्य
नहीं । जहाँ
जहाँ विषयों
की ओर दृष्टि
उठती है उनको
विवेक से नष्ट
करो-जैसे इन्द्र
ने वज्र से
पर्वतों को
नष्ट किया था
। जब इस
प्रकार शुद्ध
आचरण करोगे तब
समभाव को
प्राप्त होगे
और उससे मन उपशम
आत्मपद को
प्राप्त होकर
अक्षय
अविनाशी पद
पावोगे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
सिद्धगीतावर्णनन्नाम
अष्टमस्सर्गः
॥8॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
महीपति इस
प्रकार
सिद्धों की
गीता सुनकर
जैसे संग्राम में
कायर विषाद को
प्राप्त होता
है तैसे ही
विषाद को
प्राप्त हुआ
और सेना
संयुक्त अपने
गृह में आया ।
नौकर और सब
लोग किनारे
खड़े रहे और
राजा उनको
छोड़कर चौखण्डे
पर गया और
झरोखे में
संसार की
चञ्चल गति को
इधर उधर देखकर
विलाप करने लगा
कि बड़ा कष्ट
है कि मैं भी
संसार में
लोगों की
चञ्चल दशा से
आस्था बाँध
रहा हूँ ये तो
सब जीव जड़रूप
हैं, चैतन्य
कोई नहीं, जैसे
और जीव
पाषाणरूप हैं
तैसे ही मैं भी
इनमें जड़रूप
हो रहा हूँ ।
काल अन्त से
रहित अनन्त है
और उसके कुछ
अंश में मेरा जीना
है-इस जीने
में मैं आस्था
कर रहा हूँ ।
मुझको
धिक्कार है कि
मैं अधम चेतन हूँ
। ये मेरे
मन्त्री और
राज्य और जीना
सब क्षणभंगुर
हैं । ये जो
सुख हैं वे
दुःख रूप हैं,
इनसे रहित
मैं किस
प्रकार स्थित
होऊँ-जैसे महापुरुष
बुद्धिमान्
स्थित होते हैं
जीवन आदि अन्त
में तुच्छरूप
हैं और मध्य में
पैलवरूप हैं
उनमें क्या
मिथ्या आस्था
बाँधी है-जैसे
बालक चित्र के
चन्द्रमा को
देख चन्द्रमा
मानकर आस्था
बाँधे । यह
प्रपञ्रचना
इन्द्रजाल की
बाजीवत् है, बड़ा कष्ट है
इसमें मैं
क्यों मोहित
हुआ हूँ! जो
वस्तु उचित, रमणीय, उदार
और अकृत्रिम
है वह इस
संसार में
रञ्चक भी नहीं,
मेरी
बुद्धि क्यों
नष्ट हुई हुई
है । यदि पदार्थ
दूर हो और
उसके पाने का
मेरे मन में
यत्न हो तो वह
प्राप्त हो ही
जावेगा । यह
निश्चय करो
अथवा
अर्थाकार जो
संसार के
पदार्थ हैं
उनकी आस्था
मैं त्यागता
हूँ । ये लोग
सब आगमापायी
हैं अर्थात्
उदय होते और
मिट जाते हैं
और जल के
तरंगों के
दृश्य सब
पदार्थ
क्षणभंगुर
हैं । जितने
सुख दृष्टि
आते हैं वे
दुःख से मिश्रित
हैं, उनमें
मैने क्या
आस्था बाँधी
है । सुख
कदाचित् दिन,
पक्ष, मास,
वर्षा दिक
में आते हैं
और दुःख
बारम्बार आते
हैं मैं किस
सुख से जीने
की आस्था
बाँधू? जो
बड़े बड़े हुए
हैं वे सब
नष्ट हो गये
हैं और स्थिर
कोई न रहेगा ।
मैं बारम्बार विचार
कर देखता हूँ
इससे मैंने
जाना है कि इस जगत्
में सत्य
पदार्थ कोई
नहीं-सब नाश रूप
हैं । ऐसा कौन
पदार्थ है कि
जिसमें आस्था बाधे?
जो अब बड़े
ऐश्वर्यवान् विराजते
हैं सो कुछ
दिन पीछे नीचे
गिर पड़ेंगे ।
हे चित्त! बड़ा
खेद है तूने
किस बढ़ाई में
आस्था बाँधी
है और मैं
किसमें बँधा
हुआ कलंकित
हुआ हूँ? ऊँचे
पद में स्थिर
होके भी मैं
अधः को गिरा
हूँ बड़ा कष्ट
है कि मैं
आत्मा हूँ और
नाश को प्राप्त
होता हूँ ।
किस कारण
अकस्मात्
मुझको मोह आया
है और मेरी
बुद्धि को
इसने उपहत
किया है-जैसे
सूर्य के आगे
मेघ आता है और
सूर्य नहीं
भासता तैसे ही
मुझे आत्मा नहीं
भासता । भोगों
से मेरा क्या
है और बाँधवों
से मेरा क्या
है? इनमें
मैं क्यों मोहित
हुआ हूँ? देह
अभिमान से जीव
आपही
बन्धायमान
होता है । देह
में अहंकार ही
जरा मरणादिक
विचारों का
कारण होता है,
इससे इनसे
मेरा क्या
प्रयोजन है ।
इन अर्थों में
क्या बड़ाई है
और राज्य में
मैं क्यों
धैर्य करके
बैठा हूँ । ये
सब पदार्थ क्षोभ
के कारण हैं
और ये ज्यों
के त्यों रहते
हैं । इनमें न
मुझको ममता है
न संग है- ये
सर्व
असत्यरूप हैं
। संसार के
सुख विषरूप
हैं और इनमें
आस्था करनी
मिथ्या है, जो बड़े-बड़े
ऐश्वर्यवान्
और बड़े
पराक्रमी गुणवान्
हुए हैं वे सब
परिवार संयुक्त
मर गये हैं तो
वर्तमान में
क्या धैर्य
करना है ।
कहाँ वह धन और
राज और कहाँ
उस ब्रह्मा का
जगत् । कई
पुरुषों की
पंक्ति बीत गई
है हमको उनसे
क्या विश्वास है
। देवताओं के
नायक अनेक इन्द्र
नष्ट हो गये
हैं- जैसे जल
में बुदबुदे
उपजकर नष्ट हो
जाते हैं-तो
मैं क्या इस
संसार में
आस्था बाँधकर जीऊँगा
। सन्तजन
मुझको हँसेगे,
कई ब्रह्मा
हो गये हैं, कई पर्वत हो
गये हैं और कई धूल
की कणिकावत्
राजा हो गये
हैं तो मुझको
इस जीने में
क्या धैर्य है?
संसाररूपी रात्रि
में देहरूपी
शून्य दृष्टि
स्वप्ना है, उस भ्रमरूप
में जो मैंने
आस्था बाँधी है
इससे मुझको
धिक्कार है ।
यह, वह और
मैं इत्यादिक
भ्रम आत्मा
में मिथ्या कल्पना
उठी है और
अज्ञानियों
की नाईं मैं
स्थित हुआ हैं
। अहंकाररूपी
पिशाच करके
क्षण क्षण मैं
आयु व्यतीत
होती है, देखते
हुए भी नहीं
दीखती काल की
सूक्ष्मगति है
जो सबको चरण के
नीचे धरे है, सदाशिव और
विष्णु को
जिसने खेलने
का गेंद किया
है और वह सबको भोजन
करता है इससे
मुझको जीने
में क्या
आस्था बाँधनी
है? जितने
पदार्थ हैं वे
निरन्तर नाश
होते हैं, कोई
दिन में कोई पक्ष
में और कोई
वर्ष में नष्ट
हो जाता है । जो
अविनाशी
वस्तु है वह
अब तक नहीं
देखी वर्षों
व्यतीत हो गये
हैं, जीवों
की चित्त रूपी
नदी में भोगों
की
तृष्णारूपी
तरंग उछलती है,
शान्त
कदाचित नहीं
होती-जैसे
वायु से नदी
में तरंग
उछलती हैं और
सोमता से रहित
हो जाते हैं ।
जिनको चित्त
में भोगों की
अभिलाषा है
उनको
अतुच्छपद
दृष्टि नहीं
आता और वे
कष्ट से कष्ट
को प्राप्त
होते हैं और
उन्हें दुःख
से दुःखान्तर
प्राप्त होता
है। अब तक मैं
विरक्त नहीं
हुआ इससे मुझको
धिक्कार है ।
जिसका
अन्तःकरण नीच
है उसने जिस
जिस वस्तु में
कल्याणरूप जान
के आस्था
बाँधी है वह
नष्ट होती
दीखती है । यह
शरीर
अस्थि-माँस से
बना है और यदि
अन्त संयुक्त
इसका आकार है,
मध्य में
कुछ रमणीय
भासता है
परन्तु सब
अपवित्र पदार्थों
से रचा
विनाशरूप है,
स्पर्श
करने के भी
योग्य नहीं
उससे मुझको
क्या प्रयो जन
है । जिस जिस पदार्थ
से लोग आस्था
बाँधते हैं उस
उस में मैं दुःख
ही देखता हूँ और
ये जीव ऐसे जड़
मूढ़ हैं कि
सदा इसमें लगे
रहते हैं कल
यह पदार्थ
मुझको
प्राप्त होगा,
अगले दिन यह
मिलेगा । दिन
दिन पाप करते
और खेद पाते
हैं तो भी
त्याग नहीं करते
बालक अग्नि
में पूरी
मूढ़ता से
विचारते हैं,
यौवन
अवस्था
कामादि विकार
से मिश्रित है
और शेष जो
वृद्धावस्था
है उसमें चित्त
से दुःखी होता
है तो यह जड़
मूर्ख
परमार्थ कार्य
को किस काल
में साधेगा ।
ये सब जगत् के
पदार्थ
आगमापायी
विरस हैं और
विषम दशा से
दूषित हैं
अर्थात् एक
भाव में नहीं
रहते । सब
जगत् असाररूप
है और
सत्यबुद्धि से
रहित
असत्यरूप है,
सारपदार्थ
इसमें कोई
नहीं । जो
राजसूय और अश्वमेध
आदि यज्ञ करते
हैं वे
महाकल्पके
किसी अंशकाल
में स्वर्ग
पाते हैं अधिक
तो नहीं भोगते?
जो अश्वमेध
यज्ञ करता है
वह इन्द्र
होता है पर जो
ब्रह्मा का एक
दिन होता है
उसमें चतुर्दृश
इन्द्रराज्य
भोगकर नष्ट हो
जाते हैं ।
सहस्त्त
चौकड़ी युगों
की व्यतीत होती
हैं तब
ब्रह्माका एक
दिन होता है
ऐसे तीस दिनों
का एक मास और
द्वादश मास का
एक वर्ष होता
है । सौ वर्ष
की आयु है उस
आयु को भोगकर
ब्रह्माजी भी
अन्तर्धान हो जाते
हैं उसका नाम
महाप्रलय है ।
उस महाप्रलय
के अन्त में
इसने स्वर्ग
भोग किया तो असर
सुख की आस्था
क्या योग्य है?
ऐसा सुख
स्वर्ग में
कोई नहीं, न
पृथ्वी में है
और न पाताल
में है जो
आपदा और दुख
से मिश्रित न
हो । सब लोक
आपदा संयुक्त
है और सब दुःखों
का मूल चित्त
है जो
शरीररूपी
बाँबी में
सर्पवत् रहता
और आधिव्याधि
बड़े दुःख रूपी
विष देता है ।
यह जब किसी
प्रकार
निवृत्त हो तब
सुखी हो ।
इससे सब जीव
नीच प्रकृति
के हो रहे हैं,
कोई बिरला
साधु है जिसके
हृदय में
चित्तरूपी सर्वभोगों
की तृष्णारूप
विषसंयुक्त
नहीं होता ।
ये जगत् के
पदार्थ असत्य
हैं, जो
रमणीय भासता
है उसके मस्तक
पर अरमणीयता
स्थित है और
जो सुखरूप है
उसके मस्तक पर
दुःख स्थित है
जिसका मैं
आश्रय करूँ वह
दुःख से
मिश्रित है दुःख
तो दुःख से
मिश्रित क्या
कहिये वह तो
आप ही दुःख है
और जो सुख
सम्पदा हैं सो
आपदा दुःख से
मिश्रित है, फिर मैं किस का
आश्रय करूँ? ये जीव
जन्मते और
मरते हैं, इन
में कोई बिरला
दुःख से रहित
है । सुन्दर
स्त्रियाँ
जिनके नील
कमलवत् नेत्र
हैं और परम
हास्य विलास
आदिक भूषणों
से संयुक्त
हैं, इनको
देखके मुझको
हँसी आती है
कि ये तो
अस्थि-माँस की
पुतली हैं और क्षणमात्र
इनकी स्थिति
है । जिन
पुरुषों के
निमेष खोलने
से जगत् होता
है और उनमेष
मूँदने से
जगत् का अभाव
हो जाता है वे
भी नष्ट हुए
हैं तो हमारी
क्या गिनती है?
जो जो
पदार्थ बड़े
रमणीय भासते
हैं वे स्थित
रूप हैं उन
पदार्थों की
चिन्ता और
क्या इच्छा
करनी है? नाना
प्रकार की
सम्पदा
प्राप्त होती
हैं पर इनमें
जब कोई चित्त
को आ लगता है तब
सब सम्पदा
आपदारूप हो
जाती हैं और
जो बड़ी आपदा आ प्राप्त
होती है और
चित्त में
क्षोभ नहीं
होता
शान्तरूप है
तब वे ही आपदा
सम्पदारूप है?
इससे यही
सिद्ध हुआ कि
सब मन के
फुरनेमात्र
है ।
क्षणभंगुररूप
मन की वृत्ति
है अकस्मात्
जगत् में इसकी
स्थिति भई है
और अज्ञान से
अहं की कल्पना
है उसमें त्याग
और ग्रहण की
भावना मिथ्या
है । क्षीणरूप
संसार में सुख
आदि
अन्तसंयुक्त
है । जो सुख
जानकर जीव
इसकी ओर धावता
है वह सुख फिर
नष्ट हो जाता
है-तैसे पतंग
दीपशिखा को
सुखरूप जानकर
उसकी ओर धावता
है तो दग्ध हो
जाता है तैसे
ही संसार के
सुख ग्रहण
करनेवाले
तृष्णा से
दग्ध हुए हैं
। जैसे नरक की
अग्नि दग्ध
करती है पर वह
भी श्रेष्ठ है
परन्तु
क्षणभंगुर जो
संसार के सुख
हैं वे महानीच
हैं-नष्ट हुए
भी दुःख दे जाते
हैं । और
दुःखों की
सीमा हैं पर
जो इस संसारसमुद्र
में गिरते हैं
वे सुख नहीं
पाते । संसार
में दुःख
स्वाभाविक
हैं और दुःख
से मिश्रित है
। मैं भी
अज्ञानी की
नाईं काष्ठलोष्ठवत्
स्थित हो रहा
हूँ और बड़ा
खेद है कि
अज्ञानीवत्
शमादिक सुख को
त्याग करके
क्षणभंगुर
संसार के सुख निमित्त
यत्न करता हूँ
। जैसे बरफ से
अग्नि नहीं
उपजती तैसे ही
संसार सुख
नहीं उप जते, जितने जीव
हैं वे जड़
धर्मात्मक
हैं संसार रूपी
एक वृक्ष है
और सहस्त्रों अंकुर,
शाखा, पत्र,
फल, फूलों
से पूर्ण है ।
उस संसाररूपी
वृक्ष का मूल
मन है उसके संकल्परूपी
जल से विस्तार
को प्राप्त
हुआ है और
संकल्प के
उपशम हुए नष्ट
हो जाता है ।
इससे जिस
प्रकार यह
नष्ट हो वही
उपाय मैं करूँगा
। संसार में
भोग
देखनेमात्र सुन्दर
भासते हैं और
भीतर से
दुःखरूप हैं ।
मन मर्कटवत्
चञ्चल रूप है
उसने यह रचना रची
है । जब तक
इसको वास्तव
में नहीं जाना
तब तक चञ्चल
है और जब
विचार से जानता
है तब
पदार्थों की
रमणीयता सहित
मन का अभाव हो
जाता है, इसमें
मैं नाशरूप
पदार्थों में
नहीं रमता ।
संसार की
वृत्ति अनेक
फाँसियों से
मिश्रित है
उसमें गिरके
जीव फिर उछलते
हैं और शान्त
कदाचित नहीं
होते । ऐसी
संसार की
वृत्ति को
मैंने चिरकाल
पर्यन्त भोगा
है अब मैं भोग
से रहित होकर
ब्रह्म ही
होता हूँ । इस संसार
में बारम्बार
जन्म मरण होता
है और शोक ही
प्राप्त होता
है इसमें अब
संसार की वृत्ति
से रहित हो
शोच से रहित
होता हूँ अब
मैं प्रबुद्ध
और हर्षवान्
हुआ हूँ । मैंने
अपने चोर आपही
देखे हैं ।
जिनका नाम मन
है इसी को मारूँगा
। इस मन से
मुझको
चिरपर्यन्त
मारा है इतने
काल पर्यन्त मेरा
मनरूपी मोती
अबेध रहा था
अब मैंने इसको
बेधा है
अर्थात्
आत्मविचार से
रहित था सो अब
उसको
आत्मविचार
में लगाया है
और अब यह आत्मज्ञान
के योग्य है ।
मनरूपी एक बरफ
का कण जड़ता को
प्राप्त हुआ
था अब विवेकरूपी
सूर्य से गल
गया है और अब मैं
अक्षय शान्ति
को प्राप्त
हुआ हूँ ।
अनेक प्रकार
के वचनों से
साधुरूप जो
सिद्ध थे
उन्होंने
मुझको जगाया
है और अब मैं
आत्मपद को
प्राप्त हुआ
हूँ ।
परमानन्द से
अब मैं
आत्मरूपी
चिन्तामणि को
पाकर एकान्त
सुखी होकर
स्थित होऊँगा
। जैसे
शरत्काल का आकाश
निर्मल होता
है तैसे
होऊँगा । मन
रूपी शत्रु ने
मुझको भ्रम
दिखाया था वह
अब विवेक से
नाश किया है
और उपशम को
प्राप्त हुआ हूँ
। हे विवेक!
तुझको
नमस्कार है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
जनकविचारो
नाम
नवमस्सर्गः ॥9॥
वशिष्ठझी
बोले, हे रामजी ।
इस प्रकार जब
राजा चिन्तन
करता था तब तक
दासी ने राजा के
निकट आकर कहा,
हे देव! अब
उठिये और दिन
का उचित विचार
अर्थात्
स्नानादिक कीजिये
। स्नानशाला
में पुष्प
केसर और गंगाजल
आदि के कलशे
लेकर
स्त्रियाँ खड़ी
हैं और कमल
पुष्प उनमें
पड़े हैं जिन
पर भँवरे फिरते
हैं, छत्र,
चमर पड़े हैं,
स्नान का समय
है । हे देव!
पूजन के
निमित्त सब
सामग्री आई है
और रत्न और औषध
ले आये हैं। हाथों
में ब्राह्मण
स्नान करके और
पवित्रे डालकर
अघमर्षण जाप
कर रहे हैं और
आपके आग मन की
राह देखते हैं
। हाथों में
चमर लेकर
सुन्दर
कान्ता तुम्हारे
सेवन के
निमित्त खड़ी
हैं और भोजन
शाला में भोजन
सिद्ध हो रहा
है इससे शीघ्र
उठिये और जो
कार्य है वह
कीजिये, जैसा
काल होता है
उसके अनुसार
कर्म बड़े
पुरुष करते
हैं उनका
त्याग नहीं करते
। इससे काल
व्यतीत न कीजिये
। हे रामजी! जब
इस प्रकार
दासी ने कहा
तब राजा ने
कहा तब राजा
ने विचारा कि
संसार की जो विचित्र
स्थिति है वह
कितेक मात्र
है राजसुखों
से मुझको कुछ
प्रयोजन नहीं,
यह
क्षणभंगुर है,
इस
सम्पूर्ण
मिथ्या
आडम्बर को
त्यागके मैं
एकान्त जा
बैठता हूँ
जैसे समुद्र
तरंगों से
रहित
शान्तरूप
होता है तैसे
ही शान्तरूप
होऊँगा । यह
जो नाना
प्रकार के
राजभोग और
क्रिया कर्म
हैं उनमें अब
मैं तृप्त हुआ
हूँ और सब
कर्मों को
त्यागकर केवल
सुख में स्थित
होऊँगा । मेरा
चित्त जिन
भोगों से
चञ्चल था वे
भोग तो भ्रमरूप
है इनसे
शान्ति नहीं
होती और
तृष्णा बढ़ती
जाती है ।
जैसे जल पर
सेवाल बढ़ती
जाती है और जल
को ढाँप लेती
लेती है । अब
मैं इसको
त्याग करता
हूँ । हे
चित्त! तू जिस
जिस दशा में
गिरा है और जो
जो भोग भोगे
हैं वे सब
मिथ्या हैं, तृप्ति तो
किसी से न हुई?
इससे
भ्रमरूप
भोगों को जब
मैं
त्यागूँगा तब
मैं परम सुखी
होऊँगा बहुत
उचित अनुचित
भोग बारम्बार
भोगे हैं परन्तु
तृप्ति कभी न
हुई, इससे
हे चित्त!
इनको त्याग
करके परमपद के
आश्रय हो जा जैसे
बालक एक को
त्यागकर
दूसरे को
अंगीकार करता
है तैसे ही
यत्न बिना तू
भी कर । जब इन
तुच्छ भोगों
को त्यागेगा
और परमपद का आश्रय
करेगा तन
आनन्दी
तृप्ति को प्राप्त
होगा और उसको
पाकर फिर
संसारी न होगा
। हे रामजी! इस
प्रकार
चिन्तन करके जनक
तूष्णीम हो
रहा और मन की
चपलता त्याग
करके सोमाकार
से स्थित हुआ
जैसे-मूर्ति लिखी
होती है तैसे
ही हो गया और
प्रतिहारी भी भयभीत
होकर फिर कुछ
न कह सकी इसके अनन्तर
मन की समता के
निमित्त फिर
राजा ने चिन्तन
किया कि मुझको
ग्रहण और
त्याग करने
योग्य कुछ
नहीं है, किसको
मैं साधूँ और
किस वस्तु में
मैं धैर्य धारूँ,
सब पदार्थ
नाशरूप हैं
मुझको करने से
क्या प्रयोजन
है और न करने
से क्या हानि
है । जो कुछ
कर्तव्य है वह
शरीर करता है
निर्मल
अचलरूप
चैतन्य न करता
है, न
भोगता है ।
इससे मुझको
कर्त्तव्य
नहीं । जो
त्याग करूँगा
तो शरीर करने
से रहित होगा
और जो करूँगा
तो भी शरीर
करेगा, मुझको
क्या प्रयोजन
है? इससे
करने और न
करने में
मुझको लाभ
हानि कुछ नहीं
जो कुछ
प्राप्त हुआ
है उसमें
बिचरता हूँ
अप्राप्त की
मैं वाञ्चा नहीं
करता और
प्राप्त में
त्याग नहीं
करता अपने
स्वरूप में
स्थित होकर
स्वस्थ होऊँ गा
और जो कुछ
प्राप्त कर्म
है वही करता
हूँ, न कुछ
मुझको करने
में अर्थ है
और न करने में
दोष है जो
क्रिया हो सो
हो, करूँ
अथवा न करूँ
और युक्त हो
अथवा अयुक्त
हो मुझको
ग्रहण त्याग
करने योग्य
कुछ नहीं ।
इससे जो कुछ
प्राप्त करने
योग्य कर्म
हैं वे ही
करूँगा । कर्म
का करना
प्राकृत शरीर
से होता है, आत्मा को तो
कुछ कर्तव्य नहीं,
इससे मैं
इनमें
निस्संग हो
रहूँगा । जो
निःस्पन्द
चेष्टा हो तो
क्या सिद्ध हुआ
और क्या किया
। जो मन कामना
से रहित स्थित
विगतज्वर हुआ
अर्थात् हृदय
में राग द्वेष
मलीनता न उपजा
तो देह से
कर्म हो तो भी
इष्ट अनिष्ट
विषय की
प्राप्ति में तुलना
रहेगी और जो
देह से मिलकर
मन कर्म करता है
तब कर्त्ता
भोक्ता है और
इष्ट अनिष्ट
की प्राप्ति
में राग
द्वेषवान्
होता है । जब
मन का मनन
उपशम होता है
तब कर्तव्य
में भी
अकर्तव्य है ।
जैसा निश्चय
हृदय में दृढ़
होता है वह
रूप पुरुष का होता
है, जिसके
हृदय में
अहंकृत नहीं
है और बाहर
कर्म चेष्टा
करता है तो भी
उसने कुछ नहीं
किया और जिसके
हृदय में
अहंकृत अभिमान
है वह बाहर से
अकर्त्ता
भासता है तो भी
अनेक कर्म
करता है ।
इससे जैसा
निश्चय हृदय
में दृढ़ होता
है तैसा ही फल
होता है जो
बाहर कर्ता है
परन्तु हृदय
में कर्तव्य
का अभिमान
नहीं रखता तो
वह धैर्यवान् पुरुष
अनामय पद को
प्राप्त होता
है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
जनकनिश्चयवर्णनन्नाम
दशमस्सर्गः ॥10॥
वशिष्ठजी
बोले , हे राम! इस
प्रकार
विचारके राजा
यथाप्राप्त
क्रिया के
करने को उठ खड़ा
हुआ और जो
इष्ट हुआ और
जो इष्ट
अनिष्ट की वासना
थी वह चित्त
से त्याग दी । जैसे
सुषुप्तिरूप
पुरुष होता है
तैसे ही वह
जाग्रत में हो
रहा । निदान
दिन को यथा शास्त्र
किया करे और
रात्रि को
लीला करके ध्यान
में स्थित हो
। मन को समरस
कर जब रात्रि
क्षीण हुई तब
इस प्रकार
चित्त को बोध
किया कि हे
चञ्चलरुप , चित्त! परमा नन्द
स्वरूप जो
आत्मा है वह
क्या तुमको
सुखदायक नहीं
भासता जो इस
मिथ्या संसारसुख
की इच्छा करता
है । जब तेरी
इच्छा शान्त
हो जावेगी तब
तू सार सुख
आत्मपद को
प्राप्त होगा
।ज्यों-ज्यों
तू संकल्प
लीला से उठता
है त्यों
त्यों संसार
जाल विस्तार
होता जाता है
। इस दुःखरूप
संसार से
तुझको क्या
प्रयोजन है? हे मूर्ख, चित्त!
ज्यों- ज्यों
संकल्प
(इच्छा) करता
है
त्यों-त्यों
संसार का दुःख
बढ़ता जाता है
। जैसे जल सींचने
से वृक्ष की
शाखायें बढ़ती
हैं तैसे ही संसार
के सुखों से
परिणाम में
अधिक दुःख
प्राप्त होता
है । ऐसे
दुःखरूप
भोगों की इच्छा
क्यों करता है?
यह संसार
चित्त जाल से
उपजा है, जब
तू इसका त्याग
करेगा तब दुःख
मिट जावेगा । फुरने
का नाम दुःख
है इसके मिटे
से दुःख भी
कोई न रहेगा ।
यह महाचंचल
संसार देखने
में सुन्दर है
वास्तव में
कुछ नहीं । जो
तुझको इससे
कुछ सार प्राप्त
हो तो इसका
आश्रय कर पर
यह तो
क्षणभंगुर है
और दुःख की
खानि है, इसकी
आस्था त्याग,
आत्मतत्त्व
का आश्रय कर
और शुद्ध
निर्मल होकर
जगत् में विचर,
तब तुझको
दुःख स्पर्श न
करेगा । जगत्
स्थित हो अथवा
शान्त हो इसके
उदय अस्त की
वासना से इसके
गुण-अवगुण में
आसक्त मत हो । जो
अविद्यमान
असत्यरूप हो
उसकी आस्था
क्या करनी? यह असत्य
रूप है और तू
सत्यरूप है, असत्य और
सत्य का
सम्बन्ध कैसे
हो? मृतक
और जीते का
कभी सम्बन्ध
हुआ है? जो
तू कहे कि
चेतनतत्त्व
ही दृश्यरूप
होता है तो
दोनों
सत्यस्वरूप
हैं और
विस्तृत रुप
आत्मा ही हुआ
तो हर्ष विषाद
किसका करता है?
इससे तू मूढ़
मत हो, समुद्र
की नाईं अक्षोभरूप
अपने आपमें
स्थित हो और
संसार की भावना
त्याग करके
मान मोह मल को
त्याग कर । इसकी
इच्छा ही दुःख
का कारण है, इसको त्याग
करके
आत्मतत्त्व
में स्थित हो
तब पूर्ण पद
को प्राप्त
होगा । इसलिये
बल करके इसका
चञ्चलता को
त्याग ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
चित्तानुशासनन्नाम
एकादशस्सर्गः
॥11॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! इस
प्रकार विचार
करके राजा ने
सब काम किये
और आनन्दवृति में
उसका
प्रबोधवान्
मन मोह को न
प्राप्त हुआ।
वह इष्ट में
हर्षवान् न हो
और अनिष्ट में
द्वेषवान् न
हो केवल सम और
स्वच्छ अपने
स्वरूप में
स्थित हुआ और
जगत् में विच- -रने लगा, न
कुछ त्याग करे,
न कुछ ग्रहण
करे और न कुछ
अंगीकार करे,
केवल वीत शोक
होकर सन्ताप
से रहित
वर्तमान में
कार्य करे और
उसके हृदय में
कोई कल्पना
स्पर्श न करे-जैसे
आकाश को धूल
की मलीनता
स्पर्श नहीं
करती । मलीनता
से रहित अपने
स्वरूप के
अनुसंधान और
सम्यक् ज्ञान
के अनन्त
प्रकाश में
उसका मन
निश्चलता को
प्राप्त हुआ,
मन की जो
संकल्पवृत्ति
थी वह नष्ट हो
गई और महाप्रकाशरूप
चेतन आत्मा
अनामय हृदय में
प्रकाशित हुआ
। जैसे आकाश
में सूर्य
प्रकाशता है
तैसे ही अनन्त
आत्मा प्रकट
हुआ और
सम्पूर्ण
पदार्थ उसमें
प्रतिबिम्बित
देखे । जैसे
शुद्ध मणि में
प्रतिबिम्ब
भासता है तैसे
ही उसने सब
पदार्थ अपने
स्वरूप में आत्मभूत
देखे, इन्द्रियों
के इष्ट अनिष्ट
विषयों की
प्रीति में
हर्ष खेद मिट
गया और सर्वदा
समान हो
प्रकृत
व्यवहार कर के
जीवन्मुक्त
हो विचरने लगा
। हे रामजी!
जनक को
ज्ञानकी
दृढ़ता हुई
उससे लोकों के
परावर को
जानकर उसने
विदेहनगर का
राज्य किया और
जीवों की
पालना में
हर्ष विषाद को
न प्राप्त हुआ
। वह संताप से
रहित होकर कोई
अर्थ उदय हो
अथवा अस्त हो
जावे परन्तु
हर्ष शोक
कदाचित् न करे
और कार्यकर्त्ता
दृष्टि आवे
परन्तु हृदय
से कुछ न करे ।
हे रामजी!
तैसे ही तुम
भी सब कार्य
करो परन्तु
निरन्तर आत्मस्वरूप
में स्थित रहो
। तुम
जीवन्मुक्त
वपु हो । राजा
जनक की सब पदार्थ
भावना अस्त हो
गई थी, उसकी
सुषुप्तिवत्
वृत्ति हुई थी,
भविष्यत्
की इच्छा नहीं
करता था । और
व्यतीत की
चिन्तना नहीं
करता था जो
वर्तमान
कार्य
प्राप्त हो
उसको
यथाशास्त्र करे
और अपने विचार
के वश से उसने
पाने योग्य पद
पाया और इच्छा
कुछ न की । हे रामजी!
जीव आत्मपद को
तभी तक नहीं
प्राप्त होता
जब तक हृदय
में अपना
पुरुषार्थ रूपी
विचार नहीं
उपजा, जब
अपने आपमें
अपना
विचाररूप
पुरुषार्थ
जागे तब सब
दुःख मिट जावे
और परम समता
को प्राप्त हो
ऐसा पद शास्त्र
अर्थ और पुण्य
क्रिया से
नहीं प्राप्त
होता जैसा
अपने हृदय में
विचार करने से
होता है । वह
पद निर्मल और
स्वच्छ है और
हृदय की तपन
को निवृत्त
करता है ।
बुद्धि के
विचाररूपी
प्रकाश से
हृदय का अज्ञान
नष्ट हो जाता
है, और
किसी उपाय से
नहीं नष्ट
होता । जो बड़ा
आपदारूप दुःख तरने
को कठिन है वह
अपनी बुद्धि
से तरना सुगम होता
है-जैसे जहाज
से समुद्र को पार
करता है जो
बुद्धि से रहित
मूर्ख है उसको
थोड़ी आपदा भी
बड़ा दुःख देती
है-जैसे थोड़ा
पवन भी तृण को
बहुत भ्रमाता
है । जो बुद्धिमान
है उसको बड़ी
आपदा भी दुःख नहीं
देती-जैसे बड़ा
वायु भी पर्वत
को चला सकता ।
इसी कारण
प्रथम चाहिये
कि सन्तों का
संग और
सत्शास्त्रोंका
विचार करे और
बुद्धि बढ़ावे
। जब बुद्धि
सत्यमार्गकी
ओर बढ़ेगी तब
परमबोध
प्राप्त होगा
-जैसे जल के
सींचने और
रखने से फूल
फल प्राप्त
होता है तैसे
ही जब बुद्धि
सत्यमार्ग की
ओर धावती है
तब परमानन्द
प्राप्त होता
। जैसे शुक्लपक्ष
का चन्द्रमा
पूर्णमासी को
बहुत प्रकाशता
है, जितने
जीव संसार के
निमित्त यत्न
करते हैं वही
यत्न
सत्यमार्ग की
ओर करें तो
दुःख से मुक्त
हों और परम
संपदा के
भण्डार को
पावें ।
संसाररूपी
वृक्ष का बीज बुद्धि
की मूढ़ता है, इससे मूढ़ता
से रहित होना
बड़ा लाभ है ।
स्वर्ग पाताल
का राज आदिक
जो कुछ पदार्थ
प्राप्त होते
हैं सो अपने
प्रयत्न से
मिलते हैं ।
संसाररूपी
समुद्र के तरने
को अपनी
बुद्धि रुपी
जहाज है और तप
तीर्थ आदिक
शुभआचार से
जहाज चलता है ।
बोधरूपी
पुष्पलता के
बढ़ाने को दैवीसंपदा
जल है उसके
बढ़ने से
सुन्दर फल
प्राप्त होता
है । जो बोध से
रहित चल ऐश्वर्य
से बड़ा भी है
उसको तुच्छ
अज्ञान नाश कर
डालता है-जैसे
बल से रहित
सिंह को गीदड़
हरिण भी जीत
लेते हैं ।
इससे जो कुछ
प्राप्त होता
दृष्टि आता है
वह अपने
प्रयत्न से होता
है । अपनी
बोधरूपी
चिन्तामणि
हृदय में स्थित
है उससे
विवेकरूपी फल मिलता
है-जैसे
कल्पलता से जो
माँगिये वह
पाते हैं तैसे
ही सब फल बोध
से पाते हैं । जैसे
जानने वाला
केवट समुद्र
से पार करता
है अजान नहीं
उतार सकता
तैसे ही
सम्यक् बोध
संसारसमुद्र
से पार करता
है और असम्यक
बोध जड़ता में
डालता है । जो
अल्प भी बुद्धि
सत्यमार्ग की
ओर होती है तो
बड़े संकट दूर
करती है-जैसे
छोटी नाव भी
नदी से उतार
देती है । हे
रामजी! जो
पुरुष
बोधवान् है
उसको संसार के
दुःख नहीं बेध
सकते- जैसे
लोहे आदिक का
कवच पहने हो
तो उसको बाण
बेध नहीं सकते
। बुद्धि से
मनुष्य सर्वात्मपद
को प्राप्त
होता है, जिस
पद के पाने से
हर्ष, विषाद,
संपदा, आपदा
कोई नहीं रहती
। अहंकाररूपी
मेघ जब
आत्मरूपी
सूर्य के आगे
आता है तो
मायारूपी
मलीनता से
आत्मरूपी
सूर्य नहीं
भासता ।
बोधरूपी वायु
से जब वह दूर
हो तब
आत्मारूपी
सूर्य ज्यों
का त्यों
भासता है-जैसे
किसान प्रथम
हल आदिक से
पृथ्वी को
शुद्ध करता, फिर बीज
बोता है और जब
जल सींचता है
और नाश
करने-वाले
पदार्थों से
रक्षा करता है
तब फल पाता है,
तैसे ही जब
आर्जवादि
गुणों से
बुद्धि
निर्मल होती
है तब शास्त्र
का उपदेशरूपी
बीज मिलता है
और अभ्यास
वैराग करके
करता है उससे
परमपद की
प्राप्ति होती
है वह अतुलपद
है, उसके
समान और कोई
नहीं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशम प्रकरणे
प्राज्ञमहिमा
वर्णनन्नाम
द्वादशस्सर्गः
॥12॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! इस
प्रकार जनक की
नाईं अपने
आपसे आपको
विचार करो और
पीछे जो
विदितवेद
पुरुषों ने
किया है उसी
प्रकार तुम भी
करके निर्वाण
हो जाओ । जो
बुद्धि मान
पुरुष है और
जिनका यह अन्त
का जन्म है वे
राजस-सात्त्विकी
पुरुष आप ही
परमपद को प्राप्त
होते हैं । जब
तक अपने आपसे
आत्मदेव प्रसन्न
न हो तब तक
इन्द्रियरूपी
शत्रुओं के
जीतने का यत्न
करो और जब
आत्मदेव जो
सर्ववत्
परमात्मा
ईश्वरों का भी
ईश्वर है
प्रसन्न होगा तो
आप ही
स्वयंप्रकाश
देखेगा और सब
दोष दृष्टि
क्षीण हो
जायगी ।
मोहरूपी बीज
को जो मुट्ठी
भर बोता था और
नाना प्रकार
की आपदारूपी
वर्षा से
महामोह की
बेलि जो होती दृष्टि
आती थी वह
नष्ट हो जाती
है! परमात्मा
का
साक्षात्कार
होता तब
भ्रान्ति दृष्टि
नहीं आती । हे
रामजी! तुम
सदा बोध से
आत्मपद में
स्थित हो, जनकवत्
कर्मों का
आरम्भ करो और
ब्रह्म
लक्षवान्
होकर जगत् में
विचरो तब
तुमको खेद कुछ
न होगा । जब नित्य
आत्मविचार
होता है तब
परमदेव आपही
प्रसन्न होता
है और उसके
साक्षात्कार
हुए से तुम
चञ्चलरूपी
संसारीजनों
को देखकर जनक
की नाईं
हँसोगे । हे
रामजी! संसार
के भय से जो
जीव भयभीत हुए
हैं उनको अपनी
रक्षा करने को
अपना ही
प्रयत्न
चाहिये और दैव
अथवा कर्म वा
धन, बान्धवों
से रक्षा नहीं
होती । जो
पुरुष दैव को
ही निश्चय कर
रहे हैं पर
शास्त्रविरुद्ध
कर्म करते हैं
और संकल्प
विकल्प में
तत्पर होते
हैं वे मन्द बुद्धि
हैं उनके
मार्ग की ओर
तुम न जाना
उनकी बुद्धि
नाश करती है, तुम परम
विवेक का आश्रय
करो और अपने
आपको आपसे
देखो ।
बैराग्यवान्
शुद्ध बुद्धि
से संसार
समुद्र को तर
जाता है । यह
मैंने तुमसे
जनक का
वृत्तांत कहा
है-जैसे आकाश
से फल गिर पड़े
तैसे ही उसको
सिद्धों के
विचार में
ज्ञान की
प्राप्ति हुई
। यह विचार
ज्ञानरूपी
वृक्ष की मञ्जरी
है । जैसे
अपने विचार से
राजा जनक को आत्मबोध
हुआ तैसे ही
तुमको भी
प्राप्त होगा
। जैसे
सूर्यमुखी
कमल सूर्य को
देखकर प्रसन्न
होता है तैसे
ही इस विचार
से तुम्हारा
हृदय
प्रफुल्लित
हो आवेगा और
मन का मननभाव जैसे
बरफ का कणका
सूर्य से तप्त
हो गल जाता है
शान्त हो
जावेगा । जब ‘अहं’ ‘त्वं’
आदि रात्रि
विचाररूपी
सूर्य से
क्षीण हो
जावेगी तब
परमात्मा का
प्रकाश साक्षात्
होगा, भेदकल्पना
नष्ट हो
जावेगी और
अनन्तब्रह्माण्ड
में जो व्यापक
आत्मतत्त्व
है । वह
प्रकाशित
होगा । जैसे
अपने विचार से
जनक ने
अहंकाररूपी
वासना का
त्याग किया है
तैसे ही तुम
भी विचार करके
अहंकार-रूपी
वासना का
त्याग किया है
तैसे ही तुम
भी विचार करके
अहंकाररूपी
वासना का
त्याग करो
अहंकाररूपी
मेघ जब नष्ट
होगा और चित्ताकाश
निर्मल होगा
तब आत्मरूपी सूर्य
प्रकाशित
होगा । जब तक
अहंकाररूपी
मेघ आवरण है
तबतक
आत्मरूपी सूर्य
नहीं भासता ।
विचाररूपी
वायु से जब
अहंकाररूपी
मेघ नाश हो तब
आत्मरूपी सूर्य
प्रकट भासेगा
। हे रामजी!
ऐसे समझो कि
मैं हूँ न कोई
और है, न
नास्ति है, न अस्ति है, जब ऐसी
भावना दृढ़
होगी तब मन शा न्त
हो जावेगा और
हेयोपादेय
बुद्धि जो
इष्ट पदार्थों
मे होती है
उसमें न
डूबोगे । इष्ट
अनिष्ट के
ग्रहण त्याग
में जो भावना
होती है यही
मन का रूप है
और यही बन्धन
का कारण है-
इससे भिन्न
बन्धन कोई
नहीं । इससे
तुम
इन्द्रियों
के इष्ट
अनिष्ट में
हेयो पादेय
बुद्धि मत करो
और दोनों के
त्यागने से जो
शेष रहे उसमें
स्थित हो ।
इष्ट अनिष्ट
की भावना उसकी
की जाती है
जिसको हेयोपादेय
बुद्धि नहीं
होती और जबतक
हेयो पादेय
बुद्धि क्षीण
नहीं होती
तबतक समता भाव
नहीं उपजता ।
जैसे मेघ के
नष्ट हुए बिना
चन्द्रमा की
चाँदनी नहीं
भासती तैसे ही
जबतक पदार्थों
में इष्ट
अनिष्ट
बुद्धि है और
मन लोलुप होता
है तबतक समता
उदय नहीं होती
। जबतक युक्त
अयुक्त लाभ
अलाभ इच्छा
नहीं मिटती
तबतक शुद्ध
समता और
निरसता नहीं
उपजती । एक
ब्रह्मतत्त्व
जो निरामयरूप
और नानात्व से
रहित है उसमें
युक्त क्या और
अयुक्त क्या?
जब तक
इच्छा- अनिच्छा
और
वाञ्छित-अवाञ्छित
यह दोनों बातें
स्थित हैं
अर्थात्
फुरते और
क्षोभ करते हैं
तबतक
सौम्यताभाव
नहीं होता ।
जो हेयोपादेय
बुद्धि से
रहित
ज्ञानवान् है
उस पुरुष को
यह शक्ति आ
प्राप्त होती
है-जैसे राजा
के अन्तःपुर
में पटु (चतुर)
रानी स्थित
होती हैं । वह
शक्ति यह है, भोगों में
निरसता, देहाभिमान
से रहित
निर्भयता, नित्यता,
समता, पूर्णआत्मा-दृष्टि,
ज्ञाननिष्ठा,
निरिच्छता,
निरहंकारता
आपको सदा अकर्त्ता
जानना, इष्ट
अनिष्ट की
प्राप्ति में
समचित्तता, निर्विकल्पता,
सदा आनन्द- स्वरूप
रहना, धैर्य
से सदा एकरस
रहना, स्वरूप
से भिन्न
वृत्ति न
फुरना, सब
जीवों से मैत्रीभाव,
सत्यबुद्धि,
निश्चयात्मकरूप
से तुष्टता, मुदिता और
मृदुभाषणा,इतनी शक्ति हेयोपादेय
से रहित पुरुष
को आ प्राप्त
होती है । हे
रामजी! संसार
के पदार्थों
की ओर जो
चित्त धावता
है उसको
वैराग्य से
उलटाके
खैंचना-जैसे
पुल से जल के
वेग का निवारण
होता है तैसे
ही जगत् से
रोककर मन को
आत्मपद में लगाने
से आत्मभाव
प्रकाशता है ।
इससे हृदय से सब
वासना का
त्याग करो और
बाहर से सब क्रिया
में रहो । वेग
चलो, श्वास
लो और सर्वदा,
सब प्रकार चेष्टा
करो, पर
सर्वदा सब प्रकार
की वासना
त्याग करो ।
संसाररूपी
समुद्र में
वासनारूपी जल
है और
चिन्तारूपी सिवार
है, उस जल
में
तृष्णावान्
रूपी मच्छ
फँसे हैं । यह
विचार जो
तुमसे कहा है
उस विचाररूपी
शिला से
बुद्धि को
तीक्ष्ण करो
और इस जाल को
छेदो तब संसार
से मुक्त होगे
संसाररूपी
वृक्ष का मूल
बीज मन है । ये
वचन जो कहे
हैं-उनको हृदय
में धरकर
धैर्यवान हो
तब आधि
व्याधिदुःखों
से मुक्त होगे
। मन से मन को
छेदो, जो
बीती है उसका
स्मरण न करो
और भविष्यत्
की चिन्ता न
करो, क्योंकि
वह असत्यरूप
है और वर्तमान
को भी असत्य जानके
उसमें बिचरो ।
जब मन से
संसार का
विस्मरण होता है
तब मन में फिर
न फुरेगा । मन
असत्यभाव
जानके चलो, बैठो, श्वाश
लो, निश्वास
करो, उछलो,
सोवो, सब
चेष्टा करो परन्तु
भीतर सब
असत्यरूप
जानो तब खेद न
होगा । ‘अहं’
‘मम’ रूपी
मल का त्याग
करो प्राप्ति
में बिचरो
अथवा राज आ
प्राप्त हो
उसमें बिचरो
परन्तु भीतर
से इसमें
आस्था न हो ।
जैसे आकाश का
सब पदार्थों
में अन्वय है परन्तु
किसी से
स्पर्श नहीं
करता, तै से
ही बाहर कार्य
करो परन्तु मन
से किसी में बन्धायमान
न हो तुम
चेतनरूप
अजन्मा महेश्वर
पुरुष हो, तुम
से भिन्न कुछ
नहीं और सबमें
व्याप रहे हो
। जिस पुरुष
को सदा यही
निश्चय रहता
है उसको संसार
के पदार्थों चलायमान
नहीं कर सकते
और जिनको
संसार में
आसक्त भावना
है और स्वरूप
भूले हैं उनको
संसार के
पदार्थों से
विकार उपजता
है और हर्ष, शोक और भय
खींचते हैं, उससे वे
बाँधे हुए हैं
। जो ज्ञानवान्
पुरुष राग द्वेष
से रहित हैं
उनको लोहा, बट्टा, (ढेला)
पाषाण और
सुवर्ण सब एक
समान है । संसार
वासना के ही
त्यागने का
नाम मुक्ति है
। हे रामजी!
जिस पुरुष को
स्वरूप में
स्थिति हुई है
और सुख दुःख
में समता है
वह जो कुछ
करता, भोगता,
देता, लेता
इत्यादिक
क्रिया करता
है सो करता
हुअ भी कुछ
नहीं करता ।
वह यथा
प्राप्त
कार्य में
बर्तता है । और
उसे अन्तःकरण
में इष्ट
अनिष्ट की भावना
नहीं फुरती और
कार्य में
रागद्वेषवान्
होकर नहीं
डूबता । जिसको
सदा यह निश्चय
रहता है कि
सर्वचिदाकाशरूप
है और जो
भोगों के मनन
से रहित है वह
समता भाव को प्राप्त
होता है । हे
रामजी! मन
जड़रूप है और
आत्मा
चेतनरूप है, उसी चेतन की
सत्ता से जीव
पदार्थों को
ग्रहण करता है
इसमें अपनी सत्यता
कुछ नहीं ।
जैसे सिंह के
मारे हुए पशु
बिल्ली भी
खाने जाती है,
उसको अपना
बल कुछ भी
नहीं, तैसे
ही चेतन के बल
से मन दृश्य
का आश्रय करता
है, आप
असत्यरूप है
चेतन की सत्ता
पाकर जीता है,
संसार के चिन्तवन
को समर्थ होता
है और प्रमाद
से चिन्ता से
तपायमान होता
है । यह
वार्त्ता प्रसिद्ध
है कि मन जड़ है
और चेतनरूपी
दीपक से प्रकाशित
है । चेतन
सत्ता से रहित
सब समान है और
आत्म सत्ता से
रहित उठ भी
नहीं सकता ।
आत्मसत्ता को
भुलाकर जो कुछ
करता है उस
फुरने को
बुद्धिमान
कलना कहते हैं
। जब वही कलना
शुद्ध
चेतनरूप आपको जानती
है तब आत्मभाव
को प्राप्त
होता है और प्रमाद
से रहित
आत्मरूप होता
है । चित्तकला
जब चैत्य
दृश्य से
अस्फुर होती
है उसका नाम
सनातन ब्रह्म
होता है और जब चैत्य
के साथ मिलती
है तब उसका
नाम कलना होता
है, स्वरूप
से कुछ भिन्न
नहीं केवल ब्रह्मतत्त्व
स्थित है और
उसमें
भ्रान्ति से
मन आदि भासते
हैं । जब
चेतनसत्ता
दृश्य के
सम्मुख होती
है तब वही
कलनारूप होती
है और अपने
स्वरूप के
विस्मरण किये
से और संकल्प
की ओर धावने
से कलना कहाती
है । वह आपको
परिच्छिन्न
जानती है उससे
परिच्छिन्न
हो जाती है और
हेयोपादेय
धर्मिणी होती
है । हे रामजी!
चित्तसत्ता
अपने ही फुरने
से जड़ता को
प्राप्त हुई
है और जब तक विचार
करके न जगावे
तब तक स्वरूप
में नहीं
जागती इसी
कारण सत्य
शास्त्रों के
विचार और
वैराग से
इन्द्रियों
का निग्रह करके
अपनी कलना को
आप जगावो सब
जीवों की कलना
विज्ञान और सम
करके जगाने से
ब्रह्म
तत्त्व को
प्राप्त होती
है और इससे भिन्न
मार्ग से
भ्रमता रहता
है । मोहरूपी मदिरा
से जो पुरुष
उन्मत्त होता
है वह विषयरूपी
गढ़े में गिरता
है । सोई हुई
कलना आत्मबोध
से नहीं जगाते
अप्रबोध ही
रहते हैं सो
चित्त कलना जड़
रहती है, जो
भासती है तो
भी असत्यरूप
है । ऐसा
पदार्थ जगत्
में कोई नहीं
जो संकल्प से
कल्पित न हो, इससे तुम
अजड़धर्मा हो
जाओ । कलना जड़
उपलब्धरूपिणी
है और
परमार्थसत्ता
से विकासमान
होती है-जैसे
सूर्य से कमल
विकासमान
होता है ।
जैसे पाषाण की
मूर्ति से
कहिये कि तू नृत्य
कर तो वह नहीं
करती क्योंकि
जड़रूप है, तैसे
ही देह में जो
कलना है वह
चेतन कार्य
नहीं कर सकती
। जैसे मूर्ति
का लिखा हुआ
राजा गुर गुर
शब्द करके
युद्ध नहीं कर
सकता और मूर्ति
का चन्द्रमा
औषध पुष्ट
नहीं कर सकता
तैसे ही कलना
जड़ कार्य नहीं
कर सकती ।
जैसे निरवयव
अंगना से
आलिंगन नहीं होता,
संकल्प के
रचे आकाश के
वन की छाया से
नीचे कोई नहीं
बैठता और
मृगतृष्णा के जल
से कोई तृप्त
नहीं होता
तैसे ही जड़रूप
मन क्रिया
नहीं कर सकता
। जैसे सूर्य
की धूप से मृग
तृष्णा की नदी
भासती है तैसे
ही चित्तकलना
के फुरने से
जगत् भासता है
। शरीर में जो
स्पन्दशक्ति
भासती है वही
प्राणशक्ति
है और प्राणों
से ही बोलता, चलता, बैठता
है । ज्ञानरूप
संवित् जो आत्मतत्त्व
है उससे कुछ
भिन्न नहीं, जब
संकल्पकला
फुरती है तब ‘अहं’ ‘त्वं’
इत्यादिक
कलना से वही
रूप हो जाता
है और जब आत्मा
और प्राण का
फुरना इकट्ठा होता
है अर्थात्
प्राणों से
चेतन संवित्
मिलता है तब
उसका नाम जीव
होता है । और बुद्धि,
चित्त, मन,
सब उसी के
नाम है । सब
संज्ञा
अज्ञान से
कल्पित होती
हैं । अज्ञानी
को जैसे भासती
है, तैसे
ही उसको है, परमार्थ से
कुछ हुआ नहीं,
न मन है, न
बुद्धि है, न शरीर है
केवल
आत्मामात्र
अपने आप में
स्थित है-द्वैत
नहीं । सब जगत्
आत्मरूप है और
काल क्रिया भी
सब अल्परूप है,
आकाश से भी
निर्मल, अस्ति
नास्ति सब वही
रूप है और
द्वितीय
फुरने से रहित
है इस कारण है
और नहीं ऐसा
स्थित है और
सब रूप से
सत्य है । आत्मा
सब पदों से
रहित है इस
कारण असत्य की
नाईं है और
अनुभवरूप है
इससे सत्य है
और सब कलनाओं
से रहित केवल
अनुभवरूप है ।
ऐसे अनुभव का
जहाँ ज्ञान
होता है वहाँ
मन क्षीण हो
जाता है- जैसे
जहाँ सूर्य का
प्रकाश होता
है वहाँ
अन्धकार
क्षीण हो जाता
है । जब
आत्मसत्ता
में संवित्
करके इच्छा
फुरती है तो
वह संकल्प के
सम्मुख हुई थोड़ी
भी बड़े
विस्तार को
पाती है, तब
चित्तकला को
आत्मस्वरूप
विस्मरण हो
जाता है, जन्मों
की चेष्टा से
जगत् स्मरण हो
आता है और परम
पुरुष को
संकल्प से
तन्मय होने करके
चित्त नाम
कहाता है । जब
चित्तकला
संकल्प से
रहित होती है
तब मोक्षरूप
होता है ।
चित्तकला
फुरने का नाम
चित्त और मन
कहते हैं और
दूसरी वस्तु
कोई नहीं ।
एकता मात्र ही
चित्त का रूप
है और
सम्पूर्ण
संसार का बीज
मन है ।
संकल्प के
सम्मुख हो करके
चेतन संवित्
का नाम मन
होता है और
निर्विकल्प
जो
चित्तसत्ता
है वह संकल्प
करके मलीन
होती है तब
उसको कलना
कहते हैं ।
वही मन जब
घटादिक की
नाईं
परिच्छिन्न
भेद को प्राप्त
होता हे तब
क्रियाशक्ति
से अर्थात् प्राण
और ज्ञान
शक्ति से
मिलता है, उस
संयोग का नाम
संकल्प
विकल्प का
कर्त्ता मन
होता है । वही
जगत् का बीज
है और उसके लीन
करमने के दो
उपाय हैं-एक
तत्त्वज्ञान
दूसरा
प्राणों का
रोकना । जब
प्राणशक्ति का
निरोध होता है
तब भी मन लीन
हो जाता है और
जब सत्य
शास्त्रों के
द्वारा
ब्रह्म तत्त्व
का ज्ञान होता
है तो भी लीन हो
जाता है ।
प्राण किसका
नाम है और मन
किसको कहते
हैं? हृदयकोश
से निकलकर जो
बाहर आता है
और फिर बाहर
से भीतर आता
है वह प्राण
है, शरीर
बैठा है और
वासना से जो
देश देशान्तर
भ्रमताहै
उसका नाम मन
होता है, उसको
वैराग और
योगाभ्यास से
वासना से रहित
करना और
प्राणवायु को
स्थित करना ये
दोनों उपाय
हैं। हे रामजी!
जब
तत्त्वज्ञान
होता है तब मन
स्थित हो जाता
है क्योंकि प्राण
और चित्तकला
का आपस में
वियोग होता है
और जब प्राण
स्थित होता है
तब भी मन स्थिर
हो जाता है, क्योंकि
प्राण स्थित
हुए चेतनकला
से नहीं मिलते
तब मन भी
स्थित हो जाता
है और नहीं
रहता । मन
चेतनकला और
प्राण फुरने
बिना नहीं
रहता । मन को
भी अपनी
सत्ताशक्ति
कुछ नहीं, स्पन्दरूप
जो शक्ति है
वह प्राणों को
है सो चलरूप
जड़ात्मक है और
आत्मसत्ता
चेतनरूप है और
वह अपने आपमें
स्थित है ।
चेतनशक्ति और स्पन्दशक्ति
के सम्बन्ध
होनेसे मन उपजा
है सो उस मन का
उपजना भी
मिथ्या है ।
इसी का नाम
मिथ्याज्ञान
है । हे रामजी! मैंने
तुमसे
अविद्या जो
परम
अज्ञानरूप
संसाररूपी
विष के
देनेवाली है
कही है ।
चित्त शक्ति
और
स्पन्दशक्ति
का सम्बन्ध
संकल्प से कल्पित
है, जो तुम
संकल्प न उठाओ
तो मन संज्ञा
क्षीण हो
जावेगी । इससे
संसार भ्रम से
भयमान् मत हो जब
स्पन्दरूप
प्राण को चित्तसत्ता
चेतती है तब
चेतने से मन
चित्तरूप को
प्राप्त होता
है और अपने
फुरने से दुःख
प्राप्त होता
है जैसे बालक
अपनी परछाहीं
में वैताल
कल्प कर
भयवान् होता
है । अखण्ड
मण्डलाकार जो
चेतनसत्ता सर्वगत
है उसका
सम्बन्ध किस
के साथ हो और
अखण्ड शक्ति
उन्निद्ररूप
आत्मा को कोई
इकट्ठा नहीं
कर सकता इसी
कारण सम्बन्ध
का अभाव है । जो
सम्बन्ध ही
नहीं तो मिलना
किससे हो और
मिलाप न हुआ
तो मन की
सिद्धता क्या कहिये?
चित्त और
स्पन्द की
एकता मन कहाती
है मन और कोई
वस्तु नहीं ।
जैसे रथ, घोड़ा,
हस्ति
प्यादा इनके
सिवा सेना का
रूप और कुछ नहीं,
तैसे ही
चित्त स्पन्द
के सिवा मन का
रूप और कुछ
नहीं-इस कारण
दुष्टरूप मन
के समान तीनों
लोकों में कोई
नहीं सम्यक्ज्ञान
हो तब मृतकरूप
मन नष्ट हो
जाता है मिथ्या
अनर्थ का कारण
चित्त है इसको
मत धरो
अर्थात्
संकल्प का
त्याग करो ।हे
रामजी! मन का
उपजना
परमार्थ से
नहीं । संकल्प
का नाम मन है
इस कारण कुछ
है नहीं । जैसे
मृगतृष्णा की
नदी मिथ्या
भासती है तैसे
ही मन मिथ्या
है हृदयरूपी
मरुस्थल है, चेतनरूपी
सूर्य है और
मन रूपी
मृगतृष्णा का
जल भासता है ।
जब सम्यक्ज्ञान
होता है तब
इसका अभाव हो
जाता है । मन
जड़ता से निःस्वरूप
है और सर्वदा
मृतकरूप है
उसी मृतक ने
सब लोगों को
मृतक किया है
। यह बड़ा आश्चर्य
है कि अंग भी
कुछ नहीं, देह
भी नहीं और न
आधार है, न
आधेय है पर
जगत् को भक्षण
करता है और
बिना जाल के
लोगों को फँसाये
है । सामग्री
से बल, तेज,
विभूति, हस्त
पदादि रहित
लोगों को
मारता है, मानों
कमल के मारने
से मस्तक फट
जाता है । जो
जड़ मूक अधम
हैं वे पुरुष
ऐसे मानते हैं
कि हम बाँधे
हैं, मानों
पूर्णमासी के
चन्द्रमा की
किरणों से जलते
हैं । जो
शूरमा होते
हैं वे उसको
हनन करते हैं
। जो
अविद्यमान मन
है उसी ने
मिथ्या ही
जगत् को मारा
है और मिथ्या
संकल्प और उदय
और स्थित हुआ
है । ऐसा
दुष्ट है जो
किसी ने उस को देखा
नहीं । मैंने
तुमसे उसकी
शक्ति कही है
सो बड़ा
आश्चर्यरूप
विस्तृतरूप
है, चञ्चल
असत्रुप
चित्त से मैं
विस्मित हुआ
हूँ । जो
मूर्ख है वह
सब आपदा का
पात्र है कि
मन है नहीं पर
उससे वह इतना
दुःख पाता है
। बड़ा कष्ट है
कि सृष्टि
मूर्खता से चली
जाती है और सब
मन से तपते
हैं । यह मैं
मानता हूँ कि
सब जगत्
मूढ़रूप है और
तृष्णारूपी
शस्त्र से कण
कण हो गया है, पैलवरूप है
जो कमल से
विदारण हुआ है,
चन्द्रमा
की किरणों से
दग्ध हो गये
हैं, दृष्टिरूपी
शस्त्र से
बेधे हैं और
संकल्प रूपी
मन से मृतक हो
गये हैं ।
वास्तव में
कुछ नहीं, मिथ्या
कल्पना से नीच
कृपण करके लोगों
को हनन किया
है, इससे
वे मूर्ख हैं
। मूर्ख हमारे
उपदेश योग्य नहीं,
उपदेश का अधिकारी
जिज्ञासु है ।
जिसको स्वरूप
का
साक्षात्कार नहीं
हुआ पर संसार
से उपराम हुआ है,
मोक्ष की
इच्छा रखता है
और पद पदार्थ
का ज्ञाता है
वही उपदेश
करने योग्य है
। पूर्ण
ज्ञानवान् को
उपदेश नहीं
बनता और अज्ञानी
मूर्ख को भी
नहीं बनता ।
मूर्ख वीणा की
धुनि सुनकर
भयवान् होता
है और बान्धव
निद्रा में
सोया पड़ा है, उसको मृतक जानके
भयवान् होता
है और स्वप्न
में हाथी को देखकर
भय से भागता
है । इस मन ने अज्ञानियों
को वश किया है
और भोगों का
लव जो तुच्छ
सुख है उसके
निमित्त जीव
अनेक यत्न
करते हैं और
दुःख पाते हैं
हृदय में स्थित
जो अपना
स्वरूप है
उसको वे नहीं
देख सकते और प्रमाद
से अनेक कष्ट
पाते हैं ।
अज्ञानी जीव मिथ्या
ही मोहित होते
हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
मननिर्वाणवर्णनन्नाम
त्रयोदशस्सर्गः
॥13॥
वशिष्ठजी
बोले , हे रामजी!
संसाररूपी
समुद्र में
राग
द्वेषरूपी
बड़े कलोल
उठाते हैं और
उसमें वे
पुरुष बहते
हैं जो मन को
मूढ़ जड़रूप
नहीं जानते ।
उनको जो
आत्मफल है सो
नहीं प्राप्त
होता । यह
विचार और
विवेक की वाणी
मैंने तुमसे
कही है सो तुम
सरीखों के
योग्य है ।
जिन मूढ़ जड़ों
को मन के जीतने
की सामर्थ्य
नहीं है उन को
यह नहीं शोभती
और वे इन
वचनों को नहीं
ग्रहण कर सकते,
उनको कहने
से क्या प्रयोजन
है? जैसे
जन्म के अन्धे
को सुन्दर
मञ्जरी का वन
दिखाइये तो वह
निष्फल होता है,
क्योंकि वह
देख नहीं सकता
तैसे ही विवेक
वाणी का उपदेश
करना उनका
निष्फल होता है
। जो मन को जीत
नहीं सकते और
इन्द्रियों
से लोलुप हैं
उनको आत्मबोध
का उपदेश करना
कुछ कार्य
नहीं करता ।
जैसे कुष्ठ से
जिसका शरीर गल
गया है उसको
नाना प्रकार की
सुगन्ध का
उपचार
सुखदायक नहीं
होता, तैसे
ही मूढ़ को
आत्म उपदेशक
बोध सुखदायक नहीं
होता । जिसकी इन्द्रियाँ
व्याकुल और
विपर्यक हैं
और जो मदिरा
से उन्मत्त है
उसको धर्म के
निर्णय में
साक्षी करना
कोई प्रमाण
नहीं करता ।
ऐसा कुबुद्धि
कौन है जो
श्मशान में शव
की मूर्ति
पाकर उससे
चर्चा विचार
और
प्रश्नोत्तर
करे? अपने
हृदय रूपी
बाँबी में
मूकजड़
सर्पवत् मन
स्थित है जो
उसको निकाल
डाले वह पुरुष
है और जो उसको
जीत नहीं सकता
उस
दुर्बुद्धि
को उपदेश करना
व्यर्थ है ।
हे रामजी! मन
महा तुच्छ है
। जो वस्तु
कुछ नहीं उसके
जीतने में कठिनता
नहीं! जैसे
स्वप्ननगर
निकट होता है
और
चिरपर्यन्त
भी स्थित है
पर जानकर देखिये
तो कुछ नहीं, तैसे ही मन
को जो विचारकर
देखिये तो कुछ
नहीं । जिस
पुरुष ने अपने
मन को नहीं
जीता वह
दुर्बुद्धि है
और अमृत को
त्यागकर
विषपान करता
है और मर जाता
है । जो
ज्ञानी है वह
सदा आत्मा ही
देखता है ।
इन्द्रियाँ
अपने अपने धर्म
में बिचरती
हैं प्राण की
स्पन्द शक्ति
है और
परमात्मा की
ज्ञानशक्ति
है, इन्द्रियों
को अपनी शक्ति
है फिर जीव
किससे बन्धायमान
होता है? वास्तवमें
सर्वशक्ति
सर्वात्मा है
उससे कुछ
भिन्न नहीं ।
यह मन क्या है?
जिसने सब
जगत् नीच किया
है? हे
रामजी! मूढ़ को
देखकर मैं दया
करता और तपता
हूँ कि ये क्यों
खेद पाते हैं?
और वह
दुःखदायक कौन
है जिससे वे
तपते है? जैसे
उष्ट्र कण्टक
के वृक्षों की
परम्परा को प्राप्त
होता है तैसे
ही मूढ़ प्रमाद
से दुखों की
परम्परा पाता
है । और वह
दुर्बुद्धि
देह पाकर मर
जाता है ।
जैसे समुद्र में
बुद्बुदे
उपजकर मिट
जाते हैं तैसे
ही संसारसमुद्र
में उपजकर वह
नष्ट हो जाता है,
उसका शोक
करना क्या है,
वह तो तुच्छ
और पशु से भी
नीच है? तुम
देखोकि दशों दिशाओं
में पशु आदिक
होते हैं और
मरते हैं उनका
शोक कौन करता
है? मच्छरादिक
जीव नष्ट हो
जाते हैं और
जलचर जल में
जीवों को भक्षण
करते हैं उनका
विलाप कौन
करता है? आकाश
में पक्षी
मृतक होते हैं
उनका कौन शोक
करता है? इसी
प्रकार अनेक
जीव नष्ट होते
हैं उनका
विलाप कुछ
नहीं होता, तैसे ही अब
जो हैं उनका
विलाप न करना,
क्योंकि कोई
स्थित न रहेगा
सब नाशरूप और
तुच्छ हैं । सबका
प्रतियोगी
काल है और
अनेक जीवों को
भोजन करता है
। जूँ आदिकों
को मक्षिका और
मच्छर आदिक
खाते है और
मक्षिका मच्छरादिकों
को दादुर खाते
हैं, मेढ़कों
को सर्प, सर्पों
को नेवला, नेवले
को बिल्ली बिल्ली
को कुत्ते, कुत्तों को
भेड़िया, भेड़ियों
को सिंह, सिंहों
को सरभ और सरभ
को मेघ की
गर्जना नष्ट
करती है । मेघ
को वायु, वायु
को पर्वत, पर्वत
को इन्द्र का
वज्र और
इन्द्र के
वज्र को
विष्णुजी का
सुदर्शनचक्र
जीत लेता है
और विष्णु भी
अवतारों को धरके
सुख दुःख
जरामरण
संयुक्त होते
है । इसी प्रकार
निरन्तर
भूतजाति को
काल जीर्ण करता
है, परस्पर
जीव जीवों को
खाते हैं और
निरन्तर नाना
प्रकार के
भूतजात दशों दिशाओं
में उपजते हैं
। जैसे जल में
मच्छ, कच्छ,
पृथ्वी में
कीट आदि, अन्तरिक्ष
में पक्षी, बनवीथी में
सिंहादिक, मृग
स्थावर में
पिपीलिका, दर्दुर,
कीटादि, विष्टा
में कृमि और
और
नानाप्रकार
के जीवगण इसी
प्रकार निरन्तर
उपजते और मिट
जाते हैं । कोई
हर्षवान्
होता है, कोई
शोकवान् होता
है कोई रुदन
करता है और
कोई सुख और दुःख
मानते हैं ।
पापी पापों के
दुःख से निरन्तर
मरते हैं और
सृष्टि में
उपजते और नष्ट
होते हैं ।
जैसे वृक्ष से
पत्ते उपजते
हैं तैसे ही
कितने भूत
उपजकर नष्ट हो
जाते हैं, उनकी
कुछ गिनती
नहीं । जो
बोधवान्
पुरुष हैं वे
अपने आपसे आप
पर दया करके
आपको संसार समुद्र
से पार करते
हैं । हे
रामजी! और
जितने जीव हैं
वे पशुवत हैं,
मूढ़ों और पशुओं
में कुछ भेद
नहीं । और
उनको हमारी
कथा का उपदेश
नहीं । वे
पशुधर्मा इस वाणी
के योग्य नहीं,
देखनेमात्र
मनुष्य हैं
परन्तु
मनुष्य का
अर्थ उनसे कुछ
सिद्ध नहीं
होता । जैसे
उजाड़ वन में
ठूँठ वृक्ष
छाया और फल से
रहित किसी को
विश्रामदायक नहीं
होते तैसे ही
मूढ़ जीवों से
कुछ अर्थ सिद्ध
नहीं होता ।
जैसे गले में
रस्सी डाल कर
पशु को जहाँ
खैंचते हैं
वहाँ चले जाते
हैं तैसे ही
जहाँ चित्त
खैंचता है वे वहीं
चले जाते हैं
। मूढ़ जीव
पशुवत्
विषयरूपी कीच
में फँसे हैं
और उससे बड़ी
आपदा को
प्राप्त होते
हैं । उन
मूढ़ों को आपदा
में देखके
पाषाण भी रुदन
करते हैं ।
जिन मूर्खों
ने अपने चित्त
को नहीं जीता
उनको दुःखों
के समूह
प्राप्त होते
हैं और जिन्होंने
चित्त को
बन्धन से
निकाला है वे
संपदावान् है,
उनके सब
दुःख मिट जाते
हैं और वे
संसार में फिर
नहीं जन्मते ।
इससे अपने चित्त
के जीते बिना
दुःख नष्ट
नहीं होते ।
जो चित्त
जीतने से
परमसुख न
प्राप्त होता
तो
बुद्धिमान्
इसमें न
प्रवर्त्तते पर
बुद्धिमान
उसके जीतने
में
प्रवर्त्तते
है इससे
जानिये कि
चित्त भी वश होता
है और मनरूपी
भ्रम के नष्ट
हुए आत्मसुख
प्राप्त होता
है । हे रामजी!
मन भी कुछ है
नहीं मिथ्याभ्रम
से कल्पित है
। जैसे बालक
को अपनी परछाहीं
में
वैतालबुद्धि
होती है और उससे
वह भयवान्
होता है तैसे
ही भ्रमरूप मन
से जीव नष्ट
होते हैं ।
जबतक आत्म सत्ता
का विस्मरण है
तबतक मूढ़ता है
और हृदय में
मनरूप सर्प
विराजता है, जब अपना विवेकरूपी
गरुड़ उदय हो
तब वे नष्ट हो
जाते हैं । अब
तुम जगे हो और
ज्यों का
त्यों जानते
हो । हे शत्रु
नासक, रामजी!
अपने ही
संकल्प से
चित्त बढ़ता है
। इसलिए उस संकल्प
का शीघ्र ही
त्याग करो तब
चित्त शान्त होगा
। जो तुम
दृश्य का
आश्रय करोगे तो
बन्धन होगा और
अहंकार आदिक
दृश्य का
त्याग करोगे
तो मोक्षवान
होगे । यह
गुणों का
सम्बन्ध
मैंने तुमसे
कहा है कि दृश्य
का आश्रय करना
बन्धन है और
इससे रहित
होना मोक्ष है
। आगे जैसी
इच्छा हो वैसी
करो । इस
प्रकार ध्यान
करो कि न मैं हूँ
और न यह जगत्
है । मैं केवल
अचलरूप हूँ ।
ऐसे
निःसंकल्प
होने से आनन्द
चिदाकाश हृदय
में आ
प्रकाशेगा ।
आत्मा और जगत्
में जो विभाग
कलना आ उदय
हुई है वही मल
है । इस
द्वैतभाव के
त्याग किये से
जो शेष रहेगा
उसमें स्थित
हो । आत्मा और
जगत् में अन्तर
क्या है ।
द्रष्टा और
दृश्य के
अन्तर जो
दर्शन और
अनुभवसत्ता
है सर्वदा उसी
की भावना करो
और स्वाद और
अस्वाद
लेने-वाले का
त्यागकर उनके
मध्य जो
स्वादरूप है
उसमें स्थिर
हो । वही
आत्मतत्त्व
है उनमें तन्मय
हो जाओ ।
अनुभव जो
दृष्टा और दृश्य
है उसके मध्य
में जो
निरालम्ब
साक्षीरूप
आत्मा है उसी
में स्थित हो
जाओ हे रामजी!
संसार भाव
अभावरूप है
उसकी भावना को
त्याग करो और
भावरूप आत्मा
की भावना करो
वही अपना
स्वरूप है ।
प्रपञ्चदृश्य
को त्याग किये
से जो वस्तु
अपना स्वरूप
है वही रहेगा-
जो परमानन्द
स्वरूप है ।
चित्तभाव को
प्राप्त होना
अनन्त दुःख है
और चित्तरूपी
संकल्प ही
बन्धन है, उस
बन्धन को अपने
स्वरूप के
ज्ञानयुक्त
बल से काटो तब
मुक्ति होगी!
जब आत्मा को
त्यागकर जगत्
में गिरता है
तब नाना
प्रकार संकल्प
विकल्प
दुःखों में
प्राप्त होता
है । जब तुम
आत्मा को
भिन्न जानोगे
तब मन दुःख के
समूह संयुक्त
प्रकट होगा और
व्यतिरेक
भावना
त्यागने से सब
मन के दुःख
नष्ट हो
जायेंगे । यह
सर्व आत्मा
है-आत्मा से
कुछ भिन्न
नहीं, जब
यह ज्ञान उदय
हो तब चैत्य
चित्त और
चेतना-तीनों
का अभाव हो
जावेगा । मैं
आत्मा नहीं-जीव
हूँ इसी
कल्पना का नाम
चित्त है ।
इससे अनेक
दुःख प्राप्त
होते हैं । जब
यह निश्चय हुआ
कि मैं आत्मा
हूँ-जीव नहीं,
वह सत्य है
कुछ भिन्न
नहीं इसी का
नाम चित्त उपशम
है । जब यह
निश्चय हुआ कि
सब
आत्मतत्त्व
है आत्मा से कुछ
भिन्न नहीं तब
चित्त शान्त
हो जाता है इसमें
कुछ संशय नहीं
। इस प्रकार
आत्मबोध करके
मन नष्ट हो
जाता है जैसे
सूर्य के उदय
हुए तम नष्ट
हो जाता है । मन
सब शरीरों के
भीतर स्थित है,
जबतक रहता
है तबतक जीव
को बड़ा भय
होता है । यह
जो परमार्थ
योग मैंने
तुमसे कहा है
इससे मन को
काट डालो । जब
मन का त्याग
करोगे तब भय
भी न रहेगा ।
यह चित्त
भ्रममात्र
उदय है ।
चित्तरूपी
वैताल का
सम्यक् ज्ञान रूपी
मन्त्र से
अभाव हो जाता
है । हे
बलवानों में
श्रेष्ठनिष्पाप
रामजी! जब तुम्हारे
हृदयरूपी गृह
में से चित्रूपी
वैताल निकल
जावेगा तब तुम
दुःखों से रहित
और स्थित होगे
और फिर तुम्हें
भय उद्वेग कुछ
न व्यापेगा ।
अब तुम मेरे
वचनों से वैरागी
हुए और तुमने
मन को जीता है
। इस विचार विवेक
से चित्त नष्ट
और शान्त हो जाता
है और
निर्दुःख
आत्मपद को
प्राप्त होता है
। सब एषणा को
त्याग करके
शान्तरूप स्थित
हो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे चित्तचैत्यरूपवर्णनन्नाम
चतुर्दशस्सर्गः
॥14॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! इस
प्रकार तुम
देखो कि चित्त
आप
विचित्ररूप है
और संसार रूपी
बीज की कणिका
है । जीवरूपी
पक्षी के बंधन
का जाल संसार
है । जब चित्त
संवित् आत्मसत्ता
को त्यागता है
तब दृश्यभाव
को प्राप्त होता
है और जब
चित्त उपजता
है तब कलना
रूप मल धारणा
करता है । वह
चित्त बढ़कर मोह
उपजता है, मोह
संसार का कारण
होता है और
तृष्णारूपी
विष की बेल
प्रफुल्लित
होती है उससे
मूर्छित हो
जाता है और आत्मपद
की ओर सावधान
नहीं होता ।
ज्यों-ज्यों
तृष्णा उदय
होती है त्यों
त्यों मोह को
बढ़ाती है ।
तृष्णारूपी
श्यामरात्रि
अनन्त
अन्धकारको
देती है, परमार्थसत्ता
को ढाँप लेती
है और
प्रलयकाल की
अग्निवत्
जलाती है उसको
कोई संहार
नहीं सकता वह सबको
व्याकुल करती
है ।
तृष्णारूपी
तीक्ष्ण खंग
की धारा
दृष्टिमात्र
कोमल शीतल और सुन्दर
है पर स्पर्श
करने से नाश
कर डालती है और
अनेक संकट
देती है । जो
बड़े असाध्य
दुःख हैं व
जिनकी
प्राप्ति बड़े
पापों से होती
है वे
तृष्णारूपी
फूल का फल हैं
। तृष्णारूपी
कुतिया
चित्तरूपी
गृह में सदा
रहती है, क्षण
में बड़े हुलास
को प्राप्त
होती है और
क्षण में
शून्यरूप हो
जाती है और
बड़े
ऐश्वर्यसंयुक्त
है । जब
मनुष्य को तृष्णा
उपजती है तब
वह दीन हो
जाता है जो
देखने में
निर्धन कृपण
भासता है पर
हृदय में
तृष्णा से
रहित है वह
बड़ा ऐश्वर्यवान्
है । जिसके
हृदयछिद्र
में तृष्णारूपी
सर्पिणी नहीं पैठी
उसके प्राण और
शरीर स्थित
हैं और उसका
हृदय
शान्तरूप होता
है । निश्चय
जानो कि जहाँ
तृष्णारूपी
काली रात्रि
का अभाव होता
है वहाँ पुण्य
बढ़ते हैं-जैसे
शुक्लपक्ष का
चन्द्रमा
बढ़ता है । हे
रामजी! जिस
मनुष्य रूपी
वृक्ष का
तृष्णारूपी
घन ने भोजन
किया है उसकी
पुण्यरूपी
हरियाली नहीं
रहती और वह प्रफुल्लित
नहीं होता ।
तृष्णारूपी
नदी में अनन्त
कलोल आवर्त
उठते हैं और
तृष्णवत् बहती
है, जीवनरूपी
खेलने की
पुतली है और
तृष्णारूपी यन्त्री
को भ्रमावती
है और सब शरीरों
के भीतर
तृष्णारूपी
तागा है उससे
वे पिरोये हैं
और तृष्णा से
मोहित हुए
कष्ट पाते हैं
पर नहीं
समझते-जैसे
हरे तृण से
ढँपे हुए गड़े
को देखकर हरिण
का बालक चरने जाता
है और गढ़े में
गिर पड़ता है ।
हे रामजी! ऐसा
और कोई मनुष्य
के कलेजे को
नहीं काट सकता
जैसे
तृष्णारूपी
डाकिनी इसका
उत्साह और
बलरूपी कलेजा
निकाल लेती है
और उससे वह दीन
हो जाता है ।
तृष्णारूपी
अमंगल इन
जीवों के
हृदयमें
स्थित होकर
नीचता को
प्राप्त करती
है तृष्णा
करके विष्णु
भगवान्
इन्द्र के
हेतु से
अल्पमूर्ति
धारकर बलि के
द्वार गये और
जैसे
सूर्यनीति को
धरकर आकाश में
भ्रमता है
तैसे ही
तृष्णारूपी तागे
से बाँधे जीव
भ्रमते हैं ।
तृष्णारूपी
सर्पिणी
महाविष से
पूर्ण होती है
और सब जीवों
को दुःखदायक
है, इससे
इसको दूर से
त्याग करो ।
पवन तृष्णा से
चलता है, पर्वत
तृष्णा से
स्थित है, पृथ्वी
तृष्णा से
जगत् को धरती
है और तृष्णा
से ही त्रिलोकी
वेष्टित है
निदान सब लोक
तृष्णा से बाँधे
हुए हैं ।
रस्सी से
बाँधा हुआ छूटता
है परन्तु
तृष्णा से
बँधा नहीं
छूटता तृष्णावान्
कदाचित्
मुक्त नहीं
होता, तृष्णा
से रहित मुक्त
होता है । इस
कारण, हे
राघव! तुम
तृष्णा का
त्याग करो सब जगत्
मन के संकल्प
में है उस
संकल्प से
रहित हो । मन
भी कुछ और
वस्तु नहीं है
युक्ति से
निर्णय करके
देखो कि
संकल्प प्रमाद
का नाम मन है । जब
इसका नाश हो
तब सब तृष्णा
नाश हो जावे
अहं, त्वं,
इदं
इत्यादिक
चिन्तन मत करो
, यह
महामोहमय
दृष्टि है
दृष्टि है, इसको त्याग
करके एक
अद्वैत आत्मा
की भावना करो
। अनात्मा में
जो आत्मभाव है
वह दुःखों का
कारण है ।
इसके त्यागने
से
ज्ञानवानों
में प्रसिद्ध
होगे ।
अहंभावरूपी
अपवित्र
भावना है उसको
अपने स्वरूप
शलाका की
भावनारूप से
काट डालो । यह
भावना पञ्चम
भूमिका है, वहाँ संसार
का अभाव है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
तृष्णावर्णनन्नाम
पञ्चदशस्सर्गः
॥15॥
रामजी
ने पूछा,
हे
मुनीश्वर! ये
आपके वचन
गम्भीर और तोल
से रहित हैं, आप कहते हैं कि
अहंकार और
तृष्णा मत करो
। जो अहंकार
त्यागें तो
चेष्टा कैसे
होगी? तब
तो देह का भी
त्याग हो
जावेगा । जैसे
वृक्ष स्तम्भ
के आश्रय होते
हैं । स्तम्भ
के नाश हुए वृक्ष
नहीं रहते
तैसे ही देह
अहंकार धारण
कर रहा है, उससे
रहित देह गिर
जावेगी, इससे
मैं अहंकार को
त्याग करके
कैसे जीता रहूँगा?
यह अर्थ
मुझको निश्चय
करके कहिये क्योंकि
आप कहनेवालों
में श्रेष्ठ
हैं । वशिष्ठजी
बोले, हे
कमलनयन, रामजी!
सर्व ज्ञानवानों
ने वासना का
त्याग किया है
सो दो प्रकार
का है । एक का
नाम
ध्येयत्याग है
और दूसरे का
नाम नेयत्याग
है । मैं यह
पदार्थरूप
हूँ, मैं
इनसे जीता हूँ,
इन बिना मैं
नहीं जीता और
मेरे सिवा यह
भी कुछ नहीं, यह जो हृदय
में निश्चय है
उसको त्यागकर
मैंने विचार
किया है कि न
मैं पदार्थ
हूँ और न मेरे
पदार्थ है ।
ऐसी भावना करनेवाले
जो पुरुष हैं
उनका
अन्तःकरण
आत्मप्रकाश
से शीतल हो
जाता है और वे
जो कुछ क्रिया
करते हैं वह
लीलामात्र है
। जिस पुरुष ने
निश्चय करके
वासना का
त्याग किया है
वह सर्व
क्रियाओं में
सर्व आत्मा
जानता है ।
उसको कुछ
बन्धन का कारण
नहीं होता, उसके हृदय
में सर्व
वासना का
त्याग है और
बाहर
इन्द्रियों
से चेष्टा
करता है । जो पुरुष
जीवन्मुक्त
कहाता है उसने
जो वासना का त्याग
किया है उस
वासना के
त्याग का नाम
ध्येयत्याग
है और जिस
पुरुष ने
मनसंयुक्त
देहवासना का
त्याग किया है
और उस वासना
का भी त्याग
किया है वह
नेहत्याग है ।
नेहवासना के
त्याग से
विदेहमुक्त
कहाता है ।
जिस पुरुष ने
देहाभिमान का
त्याग किया है,
संसार की
वासना लीला से
त्याग की है और
स्वरूप में
स्थित होकर
क्रिया भी
करता है वह
जीवन्मुक्त
कहाता है ।
जिसकी सब वासनायें
नाश हुई हैं
और भीतर बाहर
की चेष्टा से
रहित हुआ है
अर्थात् हृदय
का संकल्प और
बाहर की
क्रिया
त्यागी है
उसका नाम नेयत्याग
है-वह
विदेहमुक्त
जानो । जिसने
ध्येयवासना
का त्याग किया
है और लीला करके
कर्त्ता हुआ
स्थित है वह
जीवन्मु क्त
महात्मा
पुरुष जनकवत्
हैं । जिसने
नेयवासना
त्यागी है और
उपशमरूप हो
गया है वह विदेहमुक्त
होकर
परमतत्त्व
में स्थित है
। परात्पर
जिसको कहते
हैं वही होता
है । हे राघव!
इन दोनों
वासनाओं को
त्यागकर
ब्रह्म में यह
हो जाता है ।
वे
विगतसन्ताप उत्तमपुरुष
दोनों
मुक्तस्वरूप
हैं और निर्मल
पद में स्थित
होते हैं । एक
की देह स्फुरणरूप
होती है और
दूसरे की
अस्फुर होती है
। वह
विदेहमुक्तरूप
देह में स्थित
होता है और
क्रिया करता
सन्ताप से
रहित जीवन्मुक्त
ज्ञान को धरता
है और फिर
दूसरी देह
त्याग के
विदेहपद में
स्थित होता है,
उसके साथ वासना
और देह दोनों
नहीं भासते । इससे
विदेहमुक्तकहाता
है ।
जीवन्मुक्त
के हृदय में
वासना का
त्याग है और
बाहर क्रिया
करता है ।
जैसे समय से
सुख दुःख
प्राप्त होता
है तैसे ही वह
निरन्तर राग द्वेष
से रहित
प्रवर्तता है
और सुख में
हर्ष नहीं
दुःख में शोक
नहीं करता वह जीवन्मुक्त
कहाता है ।
जिस पुरुष ने
संसार के इष्ट
अनिष्ट
पदार्थोंकी
इच्छा त्यागी है
सो सब कार्य
में सुषुप्ति
की नाईं अचल
वृत्ति है, वह
जीवन्मुक्त
कहाता है ।
हेयो पादेय, मैं और मेरा
इत्यादि सब
कलना जिसके
हृदय से क्षीण
हो गई हैं वह
जीवन्मुक्त कहाता
है जिसकी वृत्ति
सम्पूर्ण
पदार्थों से
सुषुप्ति की नाईं
हो गई हैं ।
जिसका चित्त
सदा जाग्रत है
और जो कलना
क्रिया संयुक्त
भी दृष्टि आता
है परन्तु
हृदय से आकाशवत्
निर्मल है वह
जीवन्मुक्त
पूजने योग्य
है । इतना
कहकर वाल्मीकिजी
बोले कि इस
प्रकार जब
वशिष्ठजी ने
कहा तब सूर्य
भगवान् अस्त
हुए, सभा
के सब लोग
स्नान के
निमित्त
परस्पर नमस्कार
करके उठे और
रात्रि
व्यतीत करके सूर्य
उदय होते ही
परस्पर
नमस्कार करके
यथायोग्य
अपने अपने आसन
पर आ बैठे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
तृष्णाचिकित्सोपदेशो
नाम
षोडशस्सर्गः
॥16॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! जो
पुरुष
विदेहमुक्त
है वह हमारी
वाणी का विषय
नहीं, इससे
तुम
जीवन्मुक्त
का ही लक्षण
सुनो । जो कुछ
प्रकृत कर्म
है उसको जो
करता है परन्तु
तृष्णा और
अहंकार से
रहित है और
निरहंकार
होकर विचरता
है वह जीवन्मुक्त
है । दृश्य
पदार्थों में
जिसकी दृढ़
भावना है वह
तृष्णा से सदा
दुःखी रहता है
और संसार के
दृढ़ बन्धन से
बन्ध कहाता है
और जिसने
निश्चय करके
हृदय से
संकल्प का
त्याग किया है
और बाहर से सब
व्यवहार करता
है वह पुरुष
जीवन्मुक्त
कहाता है । जो
बाहर जगत् में
बड़े आरम्भ
करता है और
इच्छासंयुक्त
दृष्टि आता है
पर हृदय में
सब अर्थों की
वासना और
तृष्णा से
रहित है वह
मुक्त कहाता
है । जिस पुरुष
की भोगों की
तृष्णा मिट गई
है और वर्तमान
में निरन्तर
विचरता है वह
निर्दुःख
निष्कलंक
कहाता है । हे
महाबुद्धि मान्!
जिसके हृदय
में इदं
अहंकार
निश्चय है और
जो उसको धारकर
संसार की
भावना करता है
उसको
तृष्णारूप
जंजीर से बँधा
और कलना से
कलंकित जानो ।
इससे तुम, मैं
और मेरा, सत्
और असत्य
बुद्धि संसार
के पदार्थों
का त्याग करो
और जो परम
उदार पद है सर्वदा
काल उसमें
स्थित हो जाओ
। बन्ध, मुक्त,
सत्य, असत्य
की कल्पना को
त्यागके समुद्रवत्
अक्षोभचित्त
स्थित हो, न
तुम पदार्थ
जाल हो, न
यह तुम्हारे
हैं, असत्यरूप
जानके इनका
विकल्प
त्यागो । यह
जगत् भ्रान्तिमात्र
है और इसकी
तृष्णा भी
भ्रान्ति मात्र
है, इनसे
रहित आकाश की
नाईं
सन्मात्र तुम
सत्यस्वरूप
हो और तृष्णा
मिथ्यारूप है
। तुम्हारा और
इसका क्या संग
है? हे
रामजी! जीव को
चार प्रकार का
निश्चय होता है
और वह बड़े
आकार को
प्राप्त होता
है । चरणों से
लेकर मस्तक
पर्यन्त शरीर
में आत्मबुद्धि
होना और माता
पिता से
उत्पन्न हुआ
जानना, यह
निश्चय
बन्धनरूप है
और असम्यक् दर्शन
(भ्रान्ति) से
होता है । यह
प्रथम निश्चय
है । द्वितीय
निश्चय यह है
कि मैं सब
भावों और पदार्थों
से अतीत हूँ, बाल के अग्र
से भी सूक्ष्म
हूँ और
साक्षीभूत सूक्ष्म
से
अतिसूक्ष्म
हूँ । यह निश्चय
शान्तिरूप
मोक्ष को
उपजाता है ।
जो कुछ जगत्जाल
है वह सब
पदार्थों में मैं
ही हूँ और
आत्मारूप मैं
अविनाशी हूँ ।
यह तीसरा
निश्चय है, यह भी
मोक्षदायक है चौथा
निश्चय यह है
कि मैं असत्य
हूँ और जगत् भी
असत्य है, इनसे
रहित आकाश की
नाईं सन्मात्र
है । यह भी
मोक्ष का कारण
है । हे रामजी!
ये चार प्रकार
के निश्चय जो मैंने
तुमसे कहे हैं
उनमें से
प्रथम निश्चय
बन्धन का कारण
है और बाकी
तीनों मोक्ष के
कारण हैं और
वे शुद्ध
भावना से
उपजते हैं । जो
प्रथम
निश्चयवान्
है वह
तृष्णारूप सुगन्ध
से संसार में
भ्रमता है और
बाकी तीनों भावना
शुद्ध
जीवन्मुक्त
विलासी पुरुष की
है । जिसको यह
निश्चय है कि
सर्वजगत् मैं
आत्मस्वरूप
हूँ उसको
तृष्णा और राग
द्वेष फिर
नहीं दुःख
देते । अधः, ऊर्ध्व, मध्य
में आत्मा ही
व्यापा है और
सब मैं ही हूँ,
मुझसे कुछ
भिन्न नहीं है,
जिसके हृदय
में यह निश्चय
है वह संसार
के पदार्थों में
बन्धायमान
नहीं होता ।
शून्य
प्रकृति माया,
ब्रह्मा, शिव, पुरुष,
ईश्वर सब जिसके
नाम हैं वह
विज्ञानरूप
एक आत्मा है ।
सदा सर्वदा एक
अद्वैत आत्मा
मैं हूँ, द्वैतभ्रम
चित्त में
नहीं है और
सदा विद्यमान
सत्ता व्यापक
रूप हूँ ।
ब्रह्मा से आदि
तृण पर्यन्त
जो कुछ जगत्जाल
है वह सब
परिपूर्ण
आत्मतत्त्व
बर रहा है-जैसे
समुद्र में
तरंग और
बुद्बुदे सब
जलरूप हैं तैसे
ही सब जगत्जाल
आत्मरूप ही है
। सत्यस्वरूप
आत्मा से
द्वैत कुछ
वस्तु नहीं है
जैसे
बुद्बुदे और
तरंग कुछ
समुद्र से भिन्न
भिन्न नहीं
हैं और भूषण
स्वर्ण से
भिन्न नहीं
होते तैसे ही
आत्मसत्ता से
कोई पदार्थ
भिन्न नहीं ।
द्वैत और
अद्वैत जो
जगत्रचना
में भेद है वह
परमात्मा
पुरुष की स्फुरण
शक्ति है और
वही द्वैत और
अद्वैतरूप होकर
भासती है । यह
अपना है, वह
और का है, यह
भेद जो सर्वदा
सब में रहता
है और
पदार्थों के
उपजने और
मिटने में सुख-दुःख
भासता है उनको
मत ग्रहण करो,
भावरूप अद्वैत
आत्मसत्ता का
आश्रय करो और
भ्रमद्वैत को
त्याग करके
अद्वैत
पूर्णसत्ता
हो जाओ, संसार
के जो कुछ भेद
भासते हैं
उनको मत ग्रहण
करो इस भूमिका
की भावना जो
भेदरूप है वह
दुःखदायी
जानो । जैसे
अन्धहस्ती
नदी में गिरता
है और फिर
उछलता है तैसे
ही तुम
पदार्थों में
मत गिरो ।
सर्वगत आत्मा
एक, अद्वैत,
निरन्तर, उदयरूप और
सर्वव्या पक
है । एक और
द्वैत से रहित
भी है, सर्वरूप
भी वही है और
निष्किञ्चनरूप
भी वही है । न
मैं हूँ, न
यह जगत् है, सब
अविद्यारूप
है, ऐसे
चिन्तन करो और
सबका त्याग
करो अथवा ऐसे
विचारो कि
ज्ञान स्वरूप
सत्य असत्य सब
मैं ही हूँ ।
तुम्हारा
स्वरूप सर्व का
प्रकाशक अजर,
अमर, निर्विकार,
निष्प्रिय,
निराकार और
परम अमृतरूप
हैं और निष्क लंक
जीवशक्ति का
जीवनरूप और
सर्व कलना से
रहित कारण का
कारण है ।
निरन्तर
उद्वेग रहित
ईश्वर
विस्तृतरूप
है और अनुभव
स्वरूप सबका
बीज है । सबका
अपना आप
आत्मपद उचित
स्वरूप
ब्रह्म, मैं
और मेरा भाव
से रहित है ।
इससे अहं और
इदं कलना को
त्याग करके
अपने हृदय में
यह निश्चय
धारो और
यथाप्राप्त
क्रिया करो ।
तुम तो अहंकार
से रहित
शान्तरूप हो ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
तृष्णाउपदेशो
नामसप्तदशस्सर्गः
॥17॥
वसिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
जिनका
हृदयमुक्तस्वरूप
है उन महात्मा
पुरुषों का यह
स्वभाव है कि
असम्यक्
दृष्टि और
देहाभिमान से
नहीं रहते पर
लीला से जगत्
के कार्यों में
बिचरते हैं और
जीवन्मुक्त
शान्त स्वरूप
हैं । जगत् की
गति आदि, अन्त,
मध्य में विरस
और नाशरूप है
इससे वे
शान्तरूप हैं
और सब प्रकार
अपना कार्य
करते हैं । सब वृत्तियों
में स्थित
होकर
उन्होंने
हृदय से ध्येय
से
ध्येयवासना
त्यागी है, निराल म्ब
तत्त्व का
आश्रय लिया है
और सबमें
उद्वेग से
रहित सथ अर्थ
में सन्तुष्ट
रूप हैं ।
विवेकरूपी वन
में सदा
विचरते हैं
बोधरूपी
बगीचे में
स्थित हैं और
सबसे अतीतपद का
अवलम्बन किया
है । उनका
अन्तःकरण
पूर्णमासी के
चन्द्रमावत्
शीतल भया है, संसार के
पदार्थों से
वे कदाचित्
उद्वेगवान्
नहीं होते और
उद्वेग और
असन्तुष्टत्व
दोनों से रहित
हैं । वे
संसार में
कदाचित दुःखी
नहीं होते ।
वे चाहे
शत्रुओं के
मध्य में होकर
युद्ध करें
अथवा दया वा
बड़े भयानक
कर्म करते
दृष्टि आवें
तो भी
जीवन्मुक्त हैं
। संसार में
वे न दुःखी
होते और न
किसी पदार्थ
में
आनन्दवान्
होते हैं, न
किसी में
कष्टवान् होते
हैं न किसी
पदार्थ की
इच्छा करते
हैं और न शोक
करते हैं, मौन
में स्थित
यथाप्राप्त
कार्य करते
हैं और संसार
में दुःख से
रहित सुखी
होते हैं । जो
कोई पूछता है
तो वे यथाक्रम
ज्यों का
त्यों कहते हैं
और पूछे बिना
मूकजड़
वृक्षवत् हो रहते
हैं । इच्छा
अनिच्छा से
मुक्त संसार
में दुःखी
नहीं होते और
सबसे हित करके
और कोमल उचित
वाणी से बोलते
हैं । वे
यज्ञादि कर्म
भी करते हैं
परन्तु
सांसारिक कार्यों
में नहीं
डूबते । हे
रामजी!
जीवन्मुक्त
पुरुष युक्त
अयुक्त नाना
प्रकार की उग्रदशा
संयुक्त जगत्
की वृत्ति को
हाथ में बेल-फलवत्
जानता है
परन्तु परमपद
में आरूढ़ होकर
जगत् की गति
देखता रहता है
और अपना अन्तःकरण
शीतल और जीवों
को तप्त देखता
है । वह
स्वरूप में
कुछ द्वैत नहीं
देखता है
परन्तु
व्यवहार की अपेक्षा
से उसकी महिमा
कही है । हे
राघव!
जिन्होंने
चित्त जीता है
और परमात्मा देखा
है उन महात्मा
पुरुषों की
स्वभाववृत्ति
मैंने तुमसे
कही है और जो
मूढ़ हैं और जिन्होंने
अपना चित्त
नहीं जीता और
भोगरूपी कीच
में मग्न हैं,
ऐसे
गर्दभों के
लक्षण हमसे
नहीं कहते
बनते । उनको
उन्मत्त
कहिये । उन्मत्त
इस प्रकार
होते हैं कि
महा नरक की
ज्वाला
स्त्री है और
वे उस उष्णनरक
अग्नि के
इन्धन हैं ।
उसी में जलते
हैं और नाना
प्रकार के
अर्थों के
निमित्त
अनर्थ उत्पन्न
करते हैं ।
भोगों की
अनर्थरूप दीनता
से उनके चित्त
हत हुए हैं और
संसार के आरम्भ
से दुःखी होते
हैं । नाना
प्रकार के
कर्म जो वे
करते हैं उनके
फल हृदय में
धारते हैं और
उन कर्मों के
अनुसार
सुखदुःख भोगते
हैं । ऐसे जो
भोग लम्पट हैं
उनके लक्षण हम
नहीं कह सकते
। हे रामजी! ज्ञानवान्
पुरुषों की
दृष्टि पूर्व
जो कही है उसी
का तुम आश्रय
करो । हृदय से
ध्येय वासना
को त्यागो और
जीवन्मुक्त
होकर जगत् में
विचरो । हृदय
की संपूर्ण
इच्छायें त्याग
के वीतराग और
निर्वासनिक
हो रहो । बाहर
सब आचारवान्
होकर लोगों
में विचरो और
सर्वदिशा और
अवस्था को भली
प्रकार विचारकर
उनमें जो
अतुच्छ पद है
उसका आश्रय करो
पर भीतर सब
पदार्थों से
नीरस और बाहर
इच्छा के
सम्मुख हो ।
भीतर शीतल रहो
और बाहर
तपायमान हो, बाहर से सब
कार्यों का
आरम्भ करो और
हृदय से सब
आरम्भ हो
विवर्जित हो
रहो । हे
रामजी! अब तुम
ज्ञान वान्
हुए हो और सब
पदार्थों की
भावना का
तुम्हें अभाव
हुआ है, जैसे
इच्छा हो तैसे
बिचरो । जब
इन्द्रियों
का
इष्टपदार्थ
हो आवे तब
कृत्रिम
हर्षवान्
होना और दुःख
आय प्राप्त हो
तब कृत्रिम
शोक करना ।
क्रिया का
आरम्भ करना और
हृदय में
सारभूत रहना अर्थात्
बाहर क्रिया
करो पर भीतर
अहंकार से रहित
होकर जगत् में
बिचरो और
आशारूप फाँसी
से मुक्त होकर
इष्ट अनिष्ट
से हृदय में सम
रहो और बाहर
कार्य करते
लोगों में बिचरो
। इस चेतन
पुरुष को
वास्तव में न
बन्ध है और न
मोक्ष है, मिथ्या
इन्द्रजालवत्
बन्धमोक्ष
संसार का
बर्तना है ।
सब जगत् भ्रान्तिमात्र
है पर प्रमाद
से जगत् भासता
है । जैसे
तीक्ष्ण धूप
से मरुस्थल
में जल भासता
है तैसे ही
अज्ञान से
जगत् भासता है
आत्मा अबन्ध
और
सर्वव्यापकरूप
है, उसे बन्ध
कैसे हो और जो
बन्ध नहीं तो
मुक्त कैसे कहिये
। आत्मतत्त्व
के अज्ञान से
जगत् भासता है
और
तत्त्वज्ञान
से लीन हो
जाता है- जैसे
रस्सीके
अज्ञान से
सर्प भासता है
और रस्सी के
जाने से सर्प
लीन हो जाता
है । हे रामजी!
तुम जो
ज्ञानवान्
हुए हो और
अपनी
सूक्ष्मबुद्धि
से निरहंकार
हुए हो अब आकाश
की नाईं
निर्मल स्थित
हो रहो । जो
तुम असत्यरूप
हो तो संपूर्ण
मित्र भ्रात
भी तैसे ही
हैं उनकी ममता
को त्याग करो,
क्योंकि जो
आप ही कुछ न
हुआ तो भावना किसकी
करेगा और जो
तुम सत्यरूप
हो तो अत्यन्त
सत्य आत्मा की
भावना करके
दृश्य जगत् की
कलना से रहित
हो । यह जो ‘अहं’
‘मम’ भोगवासना
जगत् में है
वह प्रमाद से
भासती है और ‘अहं’ ‘मम’ और बान्धवों
का शुभकर्म
आदिक जो जगत्जाल
भासता है इनसे
आत्मा का कुछ
संयोग नहीं
तुम क्यों
शोकवान् होते
हो? तुम
आत्मतत्त्व
की भावना करो,
तुम्हारा
सम्बन्ध किसी
से नहीं-यह
प्रपञ्च
भ्रममात्र है
। जो निराकार
अजन्मा पुरुष
हो उसको पुत्र
बान्धव दुःख
सुख का क्रम
कैसे हो? तुम
स्वतः अजन्मा,
निराकार, निर्विकार
हो तुम्हारा
सम्बन्ध किसी
से नहीं, तुम
इनका शोक काहे
को करते हो? शोक का
स्थान वह होता
है जो नाशरूप
हो सो न तो कोई जन्मता
है और न मरता
है और जो जन्म
मरण भी मानिये
तो आत्मा उसको
सत्ता
देनेवाला है
जो इस शरीर के
आगे और पीछे
भी होगा । आगे
जो तुम्हारे
बड़े
बुद्धिमान, सात्त्विकी
और गुणवान्
अनेक बान्धव
व्यतीत हुए
हैं उनका शोक
क्यों नहीं
करते? जैसे
वे थे तैसे ही
तो ये भी हैं? जो प्रथम थे
वे अब भी हैं ।
तुम शान्तरूप
हो, इस से
मोह को क्यों
प्राप्त होते
हो जो
सत्यस्वरूप
है उसका न कोई
शत्रु है और न
वह नाश होता
है । जो तुम
ऐसे मानते हो
कि मैं अब हूँ
आगे न हूँगा
तो भी वृथा
शोक क्यों करते
हो? तुम्हारा
संशय तो नष्ट
हुआ है, अपनी
प्रकृति में
हर्ष शोक से
रहित होकर बिचरो
और संसार के
सुख दुःख में
समभाव रहो । परमात्मा
व्यापकरूप
सर्वत्र
स्थित है और
उससे कुछ
भिन्न नहीं ।
तुम आत्मा
आनन्द आकाशवत्
स्वच्छ
विस्तृत और
नित्य शुद्ध प्रकाशरूप
हो जगत् के
पदार्थों के
निमित्त क्यों
शरीर सुखाते
हो? सर्व
पदार्थ जाति में
एक आत्मा
व्यापक
है-जैसे मोती
की माला में
एक तागा
व्यापक होता
है तैसे ही आत्मा--
अनुस्यूत है,
ज्ञानवानों
को सदा ऐसे ही
भासता है और
अज्ञानियों
को ऐसे नहीं
भासता । इससे
ज्ञानवान्
होकर तुम सुखी
रहो । यह जो
संसरणरूप
संसार भासता
है वह प्रमाद
से सारभूत हो
गया है । तुम
तो ज्ञानवान्
और शान्त
बुद्धि हो । दृश्य
भ्रममात्र
संसार का क्या
रूप है? भ्रम
और
स्वप्नमात्र
से कुछ भिन्न
नहीं । स्वप्न
में जो क्रम
और जो वस्तु
है, सब
मिथ्या ही है
तैसे ही यह
संसार है ।
सर्वशक्ति जो
सर्वात्मा है उसमें
जो भ्रममात्र
शक्ति उससे यह
संसारमाया
उठी है, सो
सत्य नहीं है
। वास्तव में पूछो
तो केवल
ज्ञानस्वरूप
एक आत्मसत्ता
ही स्थित है ।
जैसे सूर्य
प्रकाशता है
तो उसको न
किसी से विरोध
है और न किसी
से स्नेह है, तैसे ही वह
सर्वरूप, सर्वत्र,
सबका ईश्वर
है उस सत्ता
का आभास
संवेदन स्फूर्ति
है और उससे
नानारूप जगत्
भासता है और
भिन्न
भिन्नरूप निरन्तर
ही उत्पन्न
होते हैं । जैसे
समुद्र में
तरंग उपजते
हैं तैसे ही
देहधारी जैसी
वासना करता है
उसके अनुसार जगत्
में उपजकर
विचरता और
चक्र की नाईं
भ्रमता है ।
स्वर्ग में
स्थित जीव नरक
में जाते हैं
और जो नरक में
स्थित हैं
स्वर्ग में
जाते हैं, योनि
से योन्यन्तर
और द्वीप से
द्वीपान्तर
जाते हैं और
अज्ञानसे धैर्यवान्
कृपणता को
प्राप्त होता
है और कृपण
धैर्य को
प्राप्त होता
है । इसी
प्रकार भूत
उछलते और
गिरते हैं और
अज्ञान से
अनेक भ्रम को
प्राप्त होते
हैं पर
आत्मसत्ता
एकरूप स्थित,
स्थिर, स्वच्छ
और अग्नि में
बर्फ का कणका
नहीं पाया
जाता तैसे ही
जो आत्मसत्ता
में स्थित है
उसको दुःख
क्लेश कोई
नहीं होता ।
उसका हृदय जो
शीतल रहता है
सो आत्मसत्ता
की बड़ाई है ।
संसार की यही
दशा है कि जो
बड़े बड़े
ऐश्वर्य से
सम्पन्न
दृष्टि आते थे
वे कित नेक
दिन पीछे नष्ट
होते हैं ।
तुम और मैं
इत्यादिक
भावना आत्मा
में
मिथ्याभ्रम
से भासती हैं
। जैसे आकाश
में दूसरा
चन्द्रमा भासता
है तैसे ही ये
बान्धव हैं, ये अन्य हैं
यह मैं हूँ
इत्यादिक
मिथ्यादृष्टि
तुम्हारी अब
नष्ट हुई है ।
संसार की जो
विचार दृष्टि
है जिसे जीव
नष्ट होते हैं
उसे मूल से
काटकर तुम
जगत् में
क्रिया करो ।
जैसे ज्ञानवान्
जीवन्मुक्त
संसार में
विचरते हैं
तैसे हौ
बिचरो-भारवाहक
की नाईं भ्रम
मैं न पड़ना ।
जहाँ नाश
करनेवाली
वासना उठे
वहाँ यह विचार
करो कि यह
पदार्थ
मिथ्या है तब
वह वासना
शान्त हो
जावेगी । यह बन्ध
है, यह
मोक्ष है, यह
पदार्थ नित्य
है इत्यादिक
गिनती लघु
चित्त में
उठती हैं, उदारचित्त
में नहीं
उठतीं ।
उदारचित्त जो ज्ञानवान्
पुरुष हैं
उनके आचरण के
विचारने में
देहदृष्टि
नष्ट हो
जावेगी । ऐसे विचारो
कि जहाँ मैं
नहीं वहाँ कोई
पदार्थ नहीं
और ऐसा पदार्थ
कोई नहीं जो
मेरा नहीं, इस विचार से
देहदृष्टि
तुम्हारी
नष्ट हो जावेगी
। ऐसे
ज्ञानवान्
पुरुष संसार के
किसी पदार्थ
से
उद्वेगवान्
नहीं होते और
किसी पदार्थ
के अभाव हुए
आतुर भी नहीं होते
। वे
चिदाकाशरूप
सबको सत्य और
स्थितरूप
देखते हैं, आकाश की
नाईं आत्मा को
व्यापक देखते
हैं और भाई, बान्धव
भूतजात को
अत्यन्त
असत्यरूप
देखते हैं ।
नाना प्रकार
के अनेक
जन्मों में
भ्रम से अनेक
बान्धव हो गये
हैं-वास्तव
में त्रिलोकी
और बान्धवों में
भी बान्धव वही
है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्टे
उपशमप्रकरणे
जीवन्मुक्त
वर्णनन्नामोष्टादशस्सर्गः
॥18॥
वसिष्ठजी
बोले, हे रामजी! इस
प्रसंग पर एक
पुरातन
इतिहास है जो
बड़े भाई ने
छोटे भाई से
कहा है सो
सुनो । इसी
जम्बूदीप के
किसी स्थान
में महेन्द्र
नाम एक पर्व
है वहाँ
कल्पवृक्ष था
और उसकी छाया
के नीचे देवता
और किन्नर आकर
विश्राम करते
थे । उस पर्वत
के बड़े शिखर
बहुत ऊँचे थे
और ब्रह्मलोक
पर्यन्त गये
थे जिन पर
देवता साम वेद
की ध्वनि करते
थे । किसी ओर
जल से पूर्ण
बड़े मेघ
बिचरते थे, कहीं पुष्प
से पूर्ण लता
थीं, कहीं
जल के झरने
बहते थे और
कन्दरा के साथ
उछलते मानों
समुद्र के तरंग
उठते थे कहीं
पक्षी शब्द
करते थे, कहीं
कन्दरा में
सिंह गर्जते
थे, कहीं
कल्प और कदम्ब
वृक्ष लगे थे,
कहीं
अप्सरागण
बिचरती थीं, कहीं गंगा
का प्रवाह चला
जाता था और
किसी स्थान
में
महासुन्दर
रमणीय
रत्नमणि विराजते
थे । वहाँ
गंगा के तट पर
एक उग्र तपस्वी
स्त्रीसंयुक्त
तप करता था और
उसके महासुन्दर
दो पुत्र थे ।
जब कुछ काल व्यतीत
हुआ तो पुण्यक
नामक पुत्र
ज्ञानवान् हुआ
पर पावन
अर्घप्रबुद्ध
और लोलुप अवस्था
में रहा । जब
कालचक्र के
फिरते हुए कई वर्ष
व्यतीत हुए तो
उस
दीर्घतपस्वी
का शरीर
जर्जरीभूत हो
गया और उसने
शरीर की
क्षणभंगुर
अवस्था देखकर
चित्त की वृत्ति
देह से विरक्त
अर्थात्
विदेह होने की
इच्छा की । निदान
दीर्घतपा की
पुर्यष्टका
कलनारूप शरीर
को त्यागती भई
और जैसे सर्प
कञ्चुली को त्याग
दे तैसे ही
पर्वत की
कन्दरा में जो
आश्रय था
उसमें उसने
शरीर को उतार
दिया और कलना
से रहित
अचैत्य
चिन्मात्र सत्ता
स्वरूप में
स्थित हुआ और
राग द्वेष से
रहित जो पद है
उसमें
प्राप्त हुआ ।
जैसे धूम्र
आकाश में जा
स्थित हो तैसे
ही चिदाकाश
में स्थित हुआ
। तब मुनीश्वर
की स्त्री ने
भर्ता का शरीर
प्राणों से
रहित देखा और
जैसे दण्ड से
कमल काटा हो
तैसे ही चित्त
बिना शरीर
देखती भई ।
निदान
चिरपर्यन्त
योगकर्म कर
उसने अपना
प्राण और पवन को
वश करके त्याग
दिया और जैसे
भँवरा कमलिनी
को त्यागे
तैसे ही शरीर
त्यागकर
भर्ता के पद
को प्राप्त
हुई । जैसे
आकाश में
चन्द्रमा
अस्त होता है
और उसकी प्रभा
उसके पीछे
अदृष्ट होती
है तैसे ही
दीर्घतपा की
स्त्री दीर्घतपा
के पीछे
अदृष्ट हुई ।
जब दोनों
विदेह मुक्त
हुए तब पुण्यक
जो बड़ा पुत्र
था उनके
दैहिककर्म
में सावधान
होकर कर्म
करने लगा, पर
पावन माता
पिता बिना
दुःख को
प्राप्त हो शोक
करके उसका
चित्त व्याकुल
हो गया और
वनकुञ्जों में
भ्रमने लगा ।
पुण्यक जो
माता पिता की
देहादिक क्रिया
करता था जहाँ
पावन शोक से
विलाप करता था
आया और भाई को
शोकसंयुक्त देखकर
पुण्यक ने कहा,
हे भाई! शोक
क्यों करते हो
जो वर्षाकाल
के मेघवत् आँसुओं
का प्रवाह चला
जाता है? हे
बुद्धिमान्!
तुम किसका शोक
करते हो? तुम्हारे
पिता और माता
तो आत्मपद को
प्राप्त हुए
हैं जो मोक्षपद
है । वही सब
जीवों का
स्थान है और ज्ञानवानों
का स्वरूप है
। यद्यपि सबका
अपना आप
स्वरूप एक ही
है तो भी
ज्ञानवान् को इस
प्रकार भासता
है और अज्ञानी
को ऐसे नहीं
भासता । वे तो
ज्ञानवान् थे
और अपने स्व रूप
में प्राप्त
हुए हैं उनका
शोक तुम किस
निमित्त करते
हो? यह
क्या भावना
तुमने की है? संसार में
जो शोक
मोक्षदायक है
वह तू नहीं
करता और जो
शोक करने
योग्य नहीं वह
करता है । न वह
तेरी माता थी,
न वह तेरा
पिता था और न
तू उनका पुत्र
है, कई तेरे
माता पिता हो
गये हैं और कई
पुत्र हो गये
हैं, असंख्य
वार तू उनका
पुत्र हुआ है
और असंख्य
पुत्र
उन्होंने
उत्पन्न किये
हैं और अनेक
पुत्र, मित्र,
बान्धवों
के समूह तेरे
जन्म जन्म के
बीच गये हैं ।
जैसे ऋतु ऋतु
में बड़े
वृक्षों की
शाखाओं में फल
होते हैं और
नष्ट हो जाते
हैं तैसे ही जन्म
होते हैं, तू
काहे को पिता
माता के स्नेह
में शोक करता
है? जो
तेरे
सहस्त्रों
माता पिता
होकर बीत गये
हैं उनका शोक काहे
को नहीं करता
जो तू इस जन्म
के बान्धवों का
शोक करता है
तो उनका भी
शोक कर? हे
महाभाग! जो
प्रपञ्च
तुझको दृष्ट
आता है वह
जगत्भ्रम है
परमार्थ में न
कोई जगत् है, न कोई मित्र
है और न कोई
बान्धव है
जैसे मरुस्थल
में बड़ी नदी
भासती है
परन्तु उसमें
जल का एक बूँद
भी नहीं होता
तैसे ही वास्तव
में जगत् कुछ
नहीं । बड़े
बड़े लक्ष्मीवान्
जो छत्र
चामरों से
सम्पन्न शोभते
हैं वे
विपर्यय
होंगे
क्योंकि यह लक्ष्मी
तो
चञ्चलस्वरूप
है कोई दिनों
में अभाव हो
जाती है । हे
भाई! तू
परमार्थ दृष्टि
से विचार देख,
न तू है और न
जगत् है, यह
दृश्य
भ्रांतिरूप
है इसको हृदय
से त्याग ।
इसी माया
दृष्टि से
बार-बार उपजता
और विनशता है
। यह जगत्
अपने संकल्प से
उपजा है, इसमें
सत्पदार्थ
कोई नहीं ।
अज्ञानरूपी
मरुस्थल में
जगत्रूपी
नदी है और
उसमें शुभ
अशुभ रूपी
तरंग उपजते और
फिर नष्ट हो
जाते हैं ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
पावनबोधवर्णनन्नामैकोनविंशतितमस्सर्गः
॥19॥
पुण्यक
बोले, हे भाई! तेरे
कई माता और कई
पिता हो होकर
मिट गये हैं ।
जैसे वायु से धूल
के कणके उड़ते
हैं तैसे ही
बान्धव हैं, न कोई मित्र
है, और न
कोई शत्रु है सम्पूर्ण
जगत्
भ्रान्तिरूप
है और उसमें
जैसी भावना
फुरती है, तैसे
ही हो भासती
है । बान्धव, मित्र, पुत्र
आदिकों में जो
स्नेह होता है
सो मोह से
कल्पित है और
अपने मन से
माता पितादिक
संज्ञा कल्पी
है । जगत्
प्रपञ्च में
जैसे संज्ञा
कल्पता है
तैसे ही हो
भासती है, जहाँ
बान्धव की
भावना होती है
वहाँ बान्धव
भासता है और
जहाँ और की भावना
होती है वहाँ
और ही हो
भासता है । जो
अमृत में विष
की भावना होती
है तो अमृत भी
विष हो जाता
है सो कुछ
अमृत में विष
नहीं भावना
रूप भासता है,
तैसे ही न
कोई बान्धव है
और न कोई
शत्रु है, सर्वदाकाल
विद्यमान एक
सर्वगत
सर्वात्मा पुरुषस्थित
है उसमें अपने
और और की
कल्पना कोई
नहीं और जो कुछ
देहादि हैं वे
रक्त माँसादि
के समूह से
रचे हैं उनमें
अहं सत्ता कौन
है और अहंकार,
चित्त, बुद्धि
और मन कौन है? परमार्थदृष्टि
से यह तो कुछ
नहीं है, विचार
किये से न तू
है, न मैं
हूँ, यह सब मिथ्या
ज्ञान से
भासते हैं । एक
अनन्त
चिदाकाश
आत्मसत्ता
सर्वदा है
उसमें तेरी
माता कौन है
और पिता कौन
है, यह सब
मिथ्याभ्रम
से भासता है
वास्तव में
कुछ नहीं ।
शरीर से
देखिये तो जो
कुछ शरीर है वह
पञ्च
तत्त्वों से
रचा जड़रूप है,
उसमें
चैतन्य एकरूप
है और अपना और
पराया कौन है
। इस
भ्रमदृष्टि
को त्याग के
तत्त्व का विचार
करो, मिथ्या
भावना करके
माता पिता के
निमित्त
क्यों शोकवान
हुए हो? जो
सम्यक्दृष्टि
का आश्रय करके
उस स्नेह का
शोक करते हो
तो और जन्मों
के बान्धव और
मित्रों का
शोक क्यों
नहीं करते? अनेक
पुष्पों और
लताओं में तू
मृगपुत्र हुआ
था, उस
जन्म के तेरे
अनेक मित्र
बान्धव थे
उनका शोक क्यों
नहीं करता? अनेक कमलों
संयुक्त तालाब
में हाथी
विचरते थे
वहाँ तू हाथी
का पुत्र था, उन हस्ति
बान्धवों का
शोक क्यों
नहीं करता? एक बड़े वन
में वृक्ष लगे
थे और तेरे
साथ फूल पत्र
हुए थे और
अनेक वृक्ष तेरे
बान्धव थे
उनका शोक
क्यों नहीं करता?
फिर नदी
तालाब में तुम
मच्छ हुए थे
और उसमें मच्छयोनि
के बान्धव थे
। उनका शोक
क्यों नहीं
करता? दशार्णव
देश में तू
काक और वानर
हुआ, तुषार्णदेश
में तू राज पुत्र
हुआ और फिर
वनकाक हुआ, बंगदेश में
तू हाथी हुआ, बिराजदेश
में तू गर्दभ
हुआ, मालवदेश
में सर्प और
वृक्ष हुआ और
बंगदेश में गृद्ध
हुआ, मालवदेश
के पर्वत में पुष्पलता
हुआ और
मन्दराचल
पर्वत में
गीदड़ हुआ, कोशलदेश
में ब्राह्मण
हुआ, बंगदेश
में तीतर हुआ,
तुषारदेश
में घोड़ा हुआ,
कीट अवस्था
में हुआ, एक
नीच ग्राम में
बछरा हुआ और
पन्द्रह
महीने वहाँ
रहा, एक वन
में तड़ाग था
वहाँ
कमलपुष्प में
भ्रमरा हुआ और
जम्बूद्वीप
में तू अनेक बार
उत्पन्न हुआ
है । हे भाई! इस
प्रकार
वासनापूर्वक वृत्तान्त
मैंने कहा है
। जैसी तेरी
वासना हुई है
तैसे तूने
जन्म पाये हैं
। मैं सूक्ष्म
और
निर्मलबुद्धि
से देखता हूँ
कि ज्ञान बिना
तूने अनेक
जन्म पाये हैं
। उन जन्मों
को जानके तू
किस किस
बान्धव का शोक
करेगा और
किसका स्नेह
करेगा? जैसे
वे बान्धव थे
तैसे ही यह भी
जान ले । मेरे
भी अनेक बान्धव
हुए हैं, जिन
जिनमें मैंने पाया
है और जो जो
बीत गये हैं
तैसे ही सब
मेरे स्मरण
में आते हैं
और अब मुझको अद्वैत
ज्ञान हुआ है
। हे भाई!
त्रिरागदेश
में मैं तोता
हुआ, तड़ाग
के तट पर हंस
हुआ. पक्षियों
में काक हुआ, बेल हुआ, बंगदेश
में वृक्ष हुआ,
इस वन पर्वत
में बड़ा
उष्ट्र होकर
बिचरा, पौंडृदेश
में राजा हुआ
और सह्याचल
पर्वत की कन्दरा
में भेड़िया
हुआ जहाँ तू
मेरा बड़ा भाई
था । फिर मैं
दश वर्ष मृग
होकर रहा, पाँच
महीने तेरा
भाई होकर मृग
रहा सो तेरा
बड़ा भ्राता
हूँ । इस
प्रकार ज्ञान
से रहित वासना
कर्म के
अनुसार कितने जन्मों
में हम भ्रमते
फिरे हैं ।
मैंने तुझसे सब
कहा है और सब
मुझको स्मरण
है । इस प्रकार
जगत्काल की
स्थिति मैंने
तुझसे कही है
। तेरे और
मेरे अनेक
जन्म के माता,
पिता भाई और
मित्र हुए हैं
उनका शोक तू
क्यों नहीं
करता? यह
संसार दुःख
सुख रूप अप्रमाण
भ्रमरूप है, इस कारण
सबको त्यागकर
अपने स्वरूप
में स्थित हो
जाओ । यह सब प्रपञ्च
भ्रान्तिरूप
है, इनकी
वासना त्याग
जब अहंकार
वासना को
त्याग करोगे
तब उस पद को
प्राप्त होगे
जहाँ
ज्ञानवान्
प्राप्त होता
है । इससे हे
भाई! यह जो
जीवभाव अर्थात्
जन्म,मरण,
ऊर्ध्व
जीना और फिर
गिरना
व्यवहार है
उसमें बुद्धिमान
शोकवान् नहीं
होते, वे
दुःख की
निवृत्ति के
अर्थ अपना
स्वरूप स्मरण
करते हैं जो
भाव, अभाव और
जरा मरण बिना
नित्य शुद्ध
परमानन्द हैं
। तू उसको
स्मरणकर, और
मूढ़ मत हो, तुझको
न सुख है, न
दुःख है, न
जन्म है, न
मरण है, माता
है, न पिता
है, तू तो
एक अद्वैतरूप
आत्मा है और
किसी से
सम्बन्ध नहीं रखता,
क्योंकि
कुछ भिन्न
नहीं है, हे
साधो! यह जो
नाना प्रकार
का विषय
संयुक्त
यन्त्र है
इसको
अज्ञानरूप
नटुआ ग्रहण करता
है और इष्ट अनिष्ट
से बन्धायमान
होता है । जो
आत्मदर्शी पुरुष
हैं उनको कुछ क्रिया
स्पर्श नहीं
करती, वे
केवल सुखरूप
हैं और जो
अज्ञानी हैं
वे देह इन्द्रियों
के गुणों में
तद्रूप हो
जाते हैं और
इष्ट अनिष्ट
से सुखदुःख के
भोक्ता होते
हैं । जो
ज्ञानवान्
पुरुष हैं वे
देखनेवाले साक्षीभूत
होते हैं, करते
हुए भी
अकर्त्तारूप हैं
और इष्ट
अनिष्ट की
प्राप्ति में
राग द्वेष से
रहित हैं ।
जैसे दर्पण
में प्रति बिम्ब
आ पड़ता है
परन्तु दर्पण
भले बुरे रंग
से रञ्जित
नहीं होता
तैसे ही
ज्ञानवान् राग
द्वेष से
रञ्जित नहीं
होता । सब
इच्छा और भय
कलना से रहित
स्वच्छ
आत्मसत्ता
सदा
प्रफुल्लितरूप
है और पुत्र, कलत्र, बान्धवों
के स्नेह से
रहित है और
उसका हृदयकमल
सर्व इच्छा और
अहं मम से
रहित अपने
स्वरूप में
सन्तुष्टवान्
होता है ।
इससे मिथ्या
देहादिकों की
भावना को
त्यागकर अपने
नित्य, शुद्ध,
शान्त और
परमानन्दस्वरूप
में तू भी
स्थित हो । तू
तो परब्रह्म
और
निर्मूलरूप
है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
पावनबोधोनाम
विंशतितमस्सर्गः
॥20॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! जब
इस प्रकार
पुण्यक ने
पावन से बोध
उपदेश किया तब
पावन बोधवान्
हुआ । तब
दोनों ज्ञान
के पारगामी और
निरच्छित
आनंदित पुरुष
होकर चिरकाल पर्यन्त
बिचरते रहे और
फिर दोनों
विदेहमुक्त
निर्वाण पद को
प्राप्त हुए ।
जैसे तेल से
रहित दीपक
निर्वाण हो
जाता है तैसे
ही प्रारब्ध
कर्म के क्षीण
हुए दोनों
विदेह मुक्त
हुए । हे
रामजी! इसी
प्रकार तू भी
जान! जैसे वे
मित्र, बान्धव,
धनादिक के स्नेह
से रहित होकर
विचरे तैसे ही
तुम भी स्नेह
से रहित होकर
बिचरो और जैसे
उन्होंने
बिचार किया था
तैसे ही तुम
भी करो । इस
मिथ्यारूप
संसार में
किसकी इच्छा करें
और किसका
त्याग करें, ऐसे विचारकर
अनन्त इच्छा
और तृष्णा का
त्याग करना, यही औषध है, तृष्णारूपी
इच्छा का
पालना औषध
नहीं, क्योंकि
पालने से
पूर्ण
कदाचित्त
नहीं होती ।
जो कुछ जगत्
है वह चित्त
से उत्पन्न हुआ
है और चित्त
के नष्ट हुए
संसार-दुःख नष्ट
हो जाता है ।
जैसे काष्ठ के
पाने से अग्नि
बढ़ता जाता है
और काष्ठ से
रहित शान्त हो
जाता है तैसे
ही चित्त की
चिन्तना से
जगत् विस्तार
पाता है और
चिन्तना से रहित
शान्त हो जाता
है । हे रामजी!
ध्येय
वासनावान्
त्यागरूपी रथ
पर आरूढ़ होकर रहो,
करुणा, दया
और
उदारतासंयुक्त
होकर लोगों
में बिचरो और
इष्ट अनिष्ट
में राग द्वेष
से रहित हो ।
यह
ब्रह्मस्थिति
मैंने तुमसे कही
। निष्काम, निर्दोष और
स्वस्थ रूप को
पाकर फिर मोह
को नहीं
प्राप्त होता
। परम आकाश ही
इसका
हृदयमात्र
विवेक है और
बुद्धि इसकी
सखी है जिसके
निकट विवेक और
बुद्धि है वे
परमव्यवहार
करते भी संकट
को नहीं
प्राप्त होते,
इससे तुम
परम विवेक और
बुद्धि का संग
लेकर जगत् में
विचरोगे तब
संकट और दुःख
से मोहित न
होगे । नाना
प्रकार के
दुःख, संकट,
स्नेह आदिक
विकाररूप जो
समुद्र है
उसके तरने के
निमित्त एक
अपना
धैर्यरूपी
बेड़ा है और
कोई उपाय नहीं
सो धैर्य क्या
है- दृश्य
जगत् से
वैराग्य और
सत् शास्त्र
का विचार । इन
श्रेष्ठ
गुणों के
अभ्यास से आत्मपद
की प्राप्ति
होती है । वह
आत्मपद त्रिलोकी
के
ऐश्वर्यरूपी
रत्नों का
भण्डार है ।
जो त्रिलोकी
के ऐश्वर्य से
भी नहीं प्राप्त
होता, वह
वैराग्य, विचार,
अभ्यास और
चित्त के
स्थिर करने से
होता है । जब तक
मनुष्य जगत्
कोष में उपजता
है और मन तृष्णारूपी
ताप से रहित
नहीं होता तब
तक कष्ट है और
जब आत्मविवेक
से मन पूर्ण
होता है तब सब
अमृतरूप
भासता है ।
जैसे जूती के
पहिरने से सब
पृथ्वी चर्म
से वेष्टितसी हो
जाती है तैसे
ही पूर्णपद
इच्छा और
तृष्णा के
त्यागने से
पाता है ।
जैसे शरद्काल का
आकाश मेघों से
रहित निर्मल
होता है तैसे
ही इच्छा से
रहित पुरुष
निर्मल होता है
। जिन पुरुषों
के हृदय में
आशा फुरती है
उनके वश हुए
चित्त शून्य
हो जाता है और
जैसे अगस्त्य
मुनि ने
समुद्र को पान
किया था तब
समुद्र जल से
रहित हो गया
था तैसे ही
आत्मजल से
रहित
समुद्रवत्
चित्त शून्य
हो जाता है ।
जिस पुरुष के
चित्तरूपी वृक्ष
में
तृष्णारूपी
चञ्चल मर्कटी
रहती है उसको
वह स्थिर होने
नहीं देती और
सदा शोभायमान
होती है और
जिसका चित्त
तृष्णा से रहित
है उस पुरुष
को तीनों जगत्
कमल की कली के
समान हो जाते
हैं योजनों के
समूह गोपदवत्
सुगम हो जाते
हैं और
महाकल्प अर्धनिमेषवत्
हो जाता है ।
हे रामजी!
चन्द्रमा और
हिमालय पर्वत
भी ऐसा शीतल
नहीं और केले
का वृक्ष और
चन्दन भी ऐसा
शीतल नहीं जैसा
शीतल चित्त
तृष्णा से
रहित होता है
। पूर्णमासी
का चन्द्रमा
और
क्षीरसमुद्र भी
ऐसा सुन्दर
नहीं और
लक्ष्मी का
मुख भी ऐसा
नहीं जैसा
इच्छा से रहित
मन शोभायमान हो
जाता है ।
जैसे
चन्द्रमा की
प्रभा को मेघ
ढाँप लेता है
और शुद्ध
स्थानों को
अपवित्र लेपन
मलीन करता है
तैसे ही अहंता
रूपपिशाचिनी
पुरुषों को
मलीन करती है
। चित्तरूपी
वृक्ष के बड़े
बड़े टास दिशा
विदिशा में
फैल रहे हैं
सो आशारूपहै,
जब विवेकरूपी
कुल्हाड़े से
उनको काटेंगे
तब अचित् पद
की प्राप्ति
होगी और तभी
एक स्थान रूपी
चित्त रहेगा
अविवेक और
अधैर्य
तृष्णा शाखासंयुक्त
हैं उनकी अनेक
शाखा फिर होंगी
इसलिये
आत्मधैर्य को
धरो कि चित्त
की वृद्धि न हो
। उत्तम धैर्य
करके जब चित्त
नष्ट हो
जावेगा तब
अविनाशी पद
प्राप्त होगा
। हे रामजी!
उत्तम हृदय
क्षेत्र में
जब चित्त की
स्थिति होती
है तब आशारूपी
दृश्य नहीं
उपजने देती
केवल
ब्रह्मरूप शेष
रहता है । तब
तुम्हारा
चित्त वृत्ति
से रहित
अचित्तरूप
होगा तब
मोक्षरूप विस्तृत
पद प्राप्त
होगा ।
चित्तरूपी
उलूक पक्षी की
तृष्णारूपी
स्त्री है ।
ऐसा पक्षी
जहाँ विचरता
है तहाँ अमंगल
फैलता है । जहाँ
उलूक पक्षी
विचरे हैं
वहाँ उजाड़ होता
है विवेकादि
जिससे रहित हो
गये हैं ऐसे चित्त
की वृत्ति से
तुम रहित हो
रहो । ऐसे
होकर विचरोगे
तब अचिन्त्य
पद को प्राप्त
होगे । जैसी
जैसी वृत्ति
फुरती है तैसा
ही तैसा रूप
जीव हो जाता
है, इस
कारण चित्त
उपशम के
निमित्त तुम
वही वृत्ति
धरो जिससे
आत्मपद की
प्राप्ति हो ।
हे महात्मा पुरुष!
जिसको संसार
के पदार्थों
की इच्छा और
ईषणा उपशम हुई
है और जो भाव
अभाव से मुक्त
हुआ है वह
उत्तम पद पाता
है और जिसका
चित्त
आशारूपी
फाँसी से
बाँधा है वह
मुक्त कैसे हो?
आशासंयुक्त
कदा चित्
मुक्त नहीं
होता और सदा
बन्धायमान
रहता है ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
तृष्णाचिकित्सोपदेशोनामैक
विंशतितमस्सर्गः
॥21॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी!
मैंने जो
तुमको उपदेश
किया है उस को
बुद्धि से
विचारो । रामजी
बोले, हे
भगवन्!
सर्वधर्मों
के वेत्ता ।
तुम्हारे
प्रसाद से जो
कुछ जानने योग्य
था वह मैंने
जाना, पाने
योग्य पद पाया
और निर्मल पद
में विश्राम किया,
भ्रम रूपी
मेघ से रहित
शरत्काल के
आकाशवत् मेरा
चित्त निर्मल
हुआ है, मोहरूपी
अहंकार नष्ट
हो गया है, अमृत
से हृदय
पूर्णमासी के
चन्द्रवत्
शीतल हुआ है
और संशयरूपी
मेघ नष्ट हो
गया है, परन्तु
आपके वचनरूपी
अमृत को पान
करता मैं तृप्त
नहीं होता ।
जिस प्रकार बलि
को विज्ञानबुद्धि
भेद प्राप्त
हुआ है बोध की
वृद्धि के
निमित्त वह
मुझसे ज्यों
का त्यों
कहिये ।
नम्रभूत
शिष्यप्रति
कहते हुए बड़े
खेद नहीं
मानते ।
वशिष्ठजी
बोले, हे
राघव! बलि का
जो उत्तम
वृत्तान्त है
वह मैं कहता
हूँ सुनो, उससे
निरन्तर बोध प्राप्त
होगा । हे रामजी!
इस जगत् के
नीचे पाताल है
। वह स्थान
महाक्षीरसमुद्र
की नाईं
सुन्दर
उज्ज्वल है और
वहाँ कहीं
महासुन्दर
नागकन्या
बिराजती हैं,
कहीं विषधर सर्प,
जिनके
सहस्त्रशीश
हैं बिराजते
हैं, कहीं
दैत्यों के
पुत्र रहते और
कट कट शब्द करते
हैं, कहीं
सुख के स्थान
हैं, कहीं
जीवों के
परंपरा समूह
नरकों में
जलते हैं और कहीं
दुर्गन्ध के
स्थान हैं ।
सात पाताल हैं
उन सबमें जीव
स्थित हैं
कहीं रत्नों
से खचित स्थान
हैं, कहीं
कपिलदेवजी, जिनके
चरणकमलों पर
देवता और
दैत्य शीश
धरते हैं, विराजते
हैं और कहीं
सुगन्धित बाग
लगे हैं । ऐसी
दो भुजाओं से
पाली हुई
पृथ्वी में दानवों
में श्रेष्ठ
विरोचन का
पुत्र राजा बलि
रहता था जिसने
सर्व देवताओं
और विद्या धरों
और किन्नरों
को लीला करके
जीता था और
त्रिलोकी
अपने वश की थी
। सब देवताओं का
राजा इन्द्र
उसके चरण सेवन
की वाच्छा
करता है,त्रिलोकी
में जो
जाति-जाति के
रत्न हैं वे
सब उसके
विद्यमान
रहते हैं और
सब शरीरों की
रक्षा करने और
भावना के
धर्मों के
धरनेवाले
विष्णुदेव
द्वारपाल
हैं। ऐरावत
हाथी जिसके
गण्डस्थल से
मद झरता है
उसकी वाणी सुन
ऐसा भयवान्
होता है जैसे
मोर की वाणी
सुनकर सर्प
भयवान् होता
है उसका ऐसा
तेज था जैसे
सप्तसमुद्रों
का जल कुहीड़
शोष लेती है और
जैसे
प्रलयकाल के
द्वादश सूर्यों
से समुद्र
सूखने लगता है
। उसने ऐसे यज्ञ
करे जिसके
क्षीर घृत की
आहुति का धुँवा
मेघ बादल होकर
पर्वतों पर
विराजा । जिस की
दृढ़ दृष्टि
देखकर कुलाचल
पर्वत भी नम्रभूत
होता था ।
जैसे फूलों से
पूर्णलता
नमती है तैसे
ही लीला करके
उसने भुवनों को
विस्तार सहित
जीता और
त्रिलोकी को
जीतकर दशकोटि
वर्ष पर्यन्त
राजा बलि
राज्य करता
रहा । राजा
बलि ने युगों
के समूह
व्यतीत हुए
देखे थे और
अनेक देवता और
दैत्य भी
उपजते मिटते
अनेक बार देखे
थे और अनेक
देवता और
दैत्य भी
उपजते मिटते
अनेक बार देखे
थे । त्रिलोकी
के अनेक भोग
भी उसने भोगे
थे । निदान
उनसे उद्वेग
पाकर सुमेरु
के शिखर पर एक
ऊँचे झरोखे
में अकेला जा
बैठा और संसार
की स्थिति को
चिन्तना करने
लगा कि इस बड़े
चक्रवर्ती
राज्य से
मुझको क्या
प्रयोजन है? यद्यपि त्रिलोकी
का राज्य बड़ा
है तो भी
इसमें
आश्चर्य क्या
है । इसमें
मैं चिरकाल
भोग भोगता रहा
हूँ परन्तु
शान्ति न हुई
। ये भोग
उपजकर फिर
नष्ट हो जाते
हैं, इन
भोगों से मुझे
शान्ति सुख
प्राप्त नहीं
हुआ पर
बारम्बार मैं
वही व्यवहार
करता हूँ और
दिन रात्रि
वही क्रिया
करने में लज्जा
भी नहीं आती
वही स्त्री
आलिङ्गन करनी,
फिर भोजन
करना, पुष्पों
की शय्या पर शयन
करना और
क्रीड़ा करना,
ये कर्म
बड़ों को लज्जा
के कारण हैं ।
वही निरस व्यवहार
फिर करना जो
एक बार निरस
हुआ और उस काल
में तृप्त
करता है, फिर
बारम्बार दिन
दिन करते हैं
। यह मैं मानता
हूँ कि यह काम
बुद्धिमानों
को हँसने योग्य
और लज्जा का कारण
है । जीवों के
चित्त में
वृथा संकल्प
विकल्प उठते
हैं-जैसे
समुद्र में
तरंग उप जते
और मिटते हैं
तैसे ही यह
संकल्प और
इच्छा जाल जो
उठते और मिटते
हैं सो
उन्मत्त की
नाईं जीवों की
चेष्टा है ।
यह तो हँसी
करने योग्य
बालकों की
लीला है और
मूर्खता से
अनर्थ फैलाती
है । इसमें जो
कुछ बड़ा उदार
फल हो वह मैं
नहीं देखता
बल्कि इसमें भोगों
से भिन्न
कार्य कुछ
नहीं मिलता, इसलिये जो
कुछ इससे
रमणीय और
अविनाशी हो उसको
शीघ्र ही
चिन्तन करूँ ।
ऐसे विचारकर
कहने लगा कि
मैंने प्रथम
भगवान्
विरोचन से पूछा
था । मेरा
पिता विरोचन
आत्मतत्त्व
का ज्ञाता था
और सब लोकों
में गया था ।
उससे मैंने
प्रश्न किया
था कि हे
भगवन्, महात्मन्!
जहाँ सब
दुःखों का
अन्त हो जाता
है और सब भ्रम
शान्त हो जाता
है वह कौन
स्थान है? वह
पद मुझसे
कहिये जहाँ मन
का मोह नष्ट
हो जाता है, सब इच्छा से
मुक्त होता है
और राग
द्वेषसे रहित
जिसमें
सर्वदा विश्राम
होता है फिर
क्षोभ नहीं
रहता । हे तात!
वह कौन पद है
जिसके पाने से
और कुछ पाने
से और कुछ
पाना नहीं
रहता और जिसके
देखे से और
कुछ देखना
नहीं रहता? यद्यपि जगत्
के अत्यन्त भोग
पदार्थ हैं तो
भी सुखदायक
नहीं भासते
हैं, क्योंकि
क्षोभ करते
हैं और उनसे
योगीश्वरों के
मन भी मोहित
होकर गिर पड़ते
हैं । हे तात!
जो सुख सुन्दर
विस्तीर्ण
आनन्द है वह
मुझसे कहिये ।
उसमें स्थित
हुआ मैं सदा
विश्राम पाऊँगा
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
विरोचनवर्णनन्नाम
द्वाविंशतितमस्सर्गः
॥22॥
विरोचन
बोले, हे पुत्र! एक
अति
विस्तीर्ण
विपुल देश है
उसमें अनेक सहस्त्र
त्रिलो- कियाँ
भासती हैं ।
वहाँ समुद्र,
जल, धारा,
पर्वत, वन
तीर्थ, नदियाँ,
तालाब, पृथ्वी,
आकाश, नन्दनवन,
पवन, अग्नि,
चन्द्रमा, सूर्यलोक, देश, देवता,
दैत्य, यक्ष,
राक्षस, कमलों
की शोभा, काष्ठ,
तृण, चर,
अचर, दिशा,
ऊर्ध्व, अधः,
मध्य, प्रकाश,
तम, अहं विष्णु,
इन्द्र, रुद्रादिक
नहीं हैं, केवल
एक ही है-जो
महानता नाना
प्रकार
प्रकाश को
धरनेवाला है,
सबका
कर्त्ता, सर्वव्यापक
है और सर्वरूप
तूष्णीभाव से
स्थित है । उसने
सब
मन्त्रियों
सहित एक
मन्त्री
संकल्प किया ।
वह मन्त्री जो
न बने उसको
शीघ्र ही बना
लेता है और जो
बने उसको न
बनाने को भी
समर्थ है वह
आपसे कुछ नहीं
भोगता और सब
जानने को
समर्थ है केवल
राजा के अर्थ
वह सब कार्यों
को करता है ।
यद्यपि वह आप
यज्ञ है तो भी
राजा के बल से
तनुता से ज्ञाता
और कार्य करता
है । यह सब कार्यों
को करता है और
उसका राजा
एकता में केवल
अपने आप में
स्थित है ।
बलि ने पूछा, हे प्रभो!
आधि-व्याधि
दुःखों से
रहित जो
प्रकाशवान्
है वह देश कौन
है, उसकी प्राप्ति
किस साधन से
होती है और
आगे किसने पाया
है? ऐसा
मन्त्री कौन
है और वह महाबली
राजा कौन है
जो जगत् जाल
संयुक्त हमने भी
नहीं जीता? हे देव! यह
अपूर्व आख्यान
तुमने कहा है
जो मैंने नहीं
सुना था । मेरे
हृदयाकाश में
संशयरूपी
बादल उदय हुआ
है सो वचनरूपी
पवन से
निवृत्त करो ।
विरोचन बोले,
हे पुत्र!
उस देश का
मन्त्री
भगवान् और
अनेक कल्प के
देवता और असुर
गणों से वश
नहीं होता, सहस्त्रनेत्र
जो इन्द्र है
उसके वश भी
नहीं होता, यम, कुबेर
उसे वश कर
नहीं सकते और
देवता और
असुरों से भी जीता
नहीं जाता ।
मूसल, वज्र,
चक्र गदादिक
खङ्ग उस पर
चलाये
कुण्ठित हो
जाते हैं-जैसे
पाषाण पर
चलाने से कमल
कुण्ठित हो
जाते हैं । वह
मन्त्री
अस्त्र और
शस्त्र से वश
नहीं होता और
बड़े
युद्धकर्मों
से भी नहीं
पाया जाता ।
देवता और
दैत्य सबको
उसने वश किया
है, विष्णु
पर्यन्त
देवता और हिरण्यकशिपु
आदिक असुर
उसने डाल दिये
हैं । जैसे प्रलयकाल
का पवन सुमेरु
के कल्प वृक्ष
को गिरा देता
है । प्रमाद
से इस त्रिलोकी
को वशकर
चक्रवर्ती
राजावत् वह
स्थित है और
सुर असुरों के
समूह उससे
भासते हैं ।
यद्यपि वह
गुह्य और
गुणहीन है तो
भी दुर्मति, दुष्ट
अहंकार और
क्रोध उससे
उदय होते हैं
। देवता और
दैत्यों के
समूह फिर फिर
उपजाता है सो
इसकी क्रीड़ा
है । ऐसा
मन्त्रों से
संयुक्त
मन्त्री है ।
हे पुत्र जब
उसके राजा को
वश कीजिये तब
उसके मन्त्री
को वश करना
सुगम होता है
। राजा को वश
किये बिना
मन्त्री वश
नहीं होता, कभी भीतर
रहता है कभी
बाहर जाता है
। जिस काल में
राजा की इच्छा
होती है कि
मन्त्री अपने
को जीते तब
यत्न बिना जीत
लेता है । वह
ऐसा बली मल्ल
है जिससे
तीनों जगत्
उल्लास को
प्राप्त हुए
हैं । वह
मन्त्री
मानों सूर्य
है जिसके उदय
होने से
त्रिलोकीरूपी
कमलों की खानि
विकास को
प्राप्त होती
है और जिसके
लय होने से
जगत्रूपी
कमल लय हो
जाते हैं । हे
पुत्र! यदि
उसके जीतने की
तुझको शक्ति
है तब तो तू
पराक्रमवान्
है और यदि मोह
से रहित
एकत्रबुद्धि
हो उनमें से
एक को जीत
सकेगा तब तू
धैर्यवान् है और
तेरी सुन्दर
वृत्ति है
क्योंकि उसके
जीतने से जो
नहीं जीता उस
पर भी जीत
पाता है और जो
उसको नहीं
जीता पर और और
लोक सब जीते
हैं तो भी
जीते अजीत हो
जावेंगे । इस
कारण जो तू
अनन्त सुख
चाहता है तो
जो नित्य
अविनाशी हे
उसके जीतने के
निमित्त यत्न
से स्थित हो
और बड़े कष्ट
और चेष्टा
करके भी उसको
वश कर । देवता,
दैत्य, यक्ष,
मनुष्य, महासर्प
और किन्नरों संयुक्त
अति बली हैं
तो भी सब ओर से
यत्न करने से
वश होते हैं ।
इससे उसको वश
कर ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बलिवृत्तान्तविरोचन
गाथानाम त्रयोविंशतितस्सर्गः
॥23॥
बलि
ने पूछा,
हे भगवन्!
किस उपाय से
वह जीता जाता
है और ऐसा
महावीर्यवान्
मन्त्री कौन
है और राजा
कौन है? यह
वृत्तान्त सब
मुझको शीघ्र
ही कहिये कि
उपाय करूँ । विरोचन
बोले, हे
पुत्र! स्थित
हुआ भी
त्यागने
योग्य है ।
मन्त्री जिस
उपाय से जीतिये
सो भली प्रकार
कहता हूँ सुन
। उस युक्ति के
ग्रहण करने से
शीघ्र ही वश
होता है, युक्ति
बिना नाश नहीं
होता । जैसे
बालक को युक्ति
से वश करते
हैं तैसे ही
पुरुष युक्ति
से उस मन्त्री
को वश करता है
उसको राजा का
दर्शन होता है
और उससे परमपद
पाता है! जब
राजा का दर्शन
होता है तब
मन्त्री वश हो
जाता है और उस
मन्त्री के वश
करने से फिर
राजा का दर्शन
होता है । जब
तक राजा को न
देखा तब तक
मन्त्री वश
नहीं होता और
जब तक मन्त्री
को वश नहीं
किया तब तक राजा
का दर्शन नहीं
होता । राजा
के देखे बिना
मन्त्री का
जीतना कठिन है
और मन्त्री के
जीते बिना
राजा को देखना
कठिन है इस
कारण दोनों का
इकट्ठा
अभ्यास कर ।
राजा का दर्शन
और मन्त्री का
जीतना अपने
पुरुष प्रयत्न
और शनैः शनैः
अभ्यास से
होता है और दोनों
के सम्पादन से
मनुष्य शुभता
को प्राप्त
होता है । जब
तू अभ्यास
करेगा तब उस देश
को प्राप्त होगा,
यह अभ्यास
का फल है । हे
दैत्यराज! जब
उसको पावेगा
तब रञ्चक भी
शोक तुमको न
रहेगा और सब
यत्नों से शान्त
होकर नित्य
प्रफुल्लित
और प्रसन्न रहेगा
। जो साधुजन
हैं वे सब
संशयों से रहित
उस देश में
स्थित होते
हैं । हे
पुत्र! सुन, वह देश अब
मैं तुझसे
प्रकट करके कहता
हूँ । देश नाम
मोक्ष का है
जहाँ सब दुःख
नष्ट हो जाते
हैं और राजा
उस देश का आत्म
भगवान् है जो
सब पदों से
अतीत है । उस
महाराज ने
मन्त्री मन को
किया है सो मन परिणाम
को पाकर सर्व
ओर से
विश्वरूप हुआ
है ।जैसे
मृत्तिका का
पिण्ड घट भाव
को प्राप्त
होता है और जैसे
धूम्र बादल को
धरता है तैसे
ही मन ने विश्वरूप
धरा है । उस मन
को जीतने से
सब विश्व जीत
पाता है । मन
का जीतना कठिन
है परन्तु
युक्ति से वश
होता है । बलि
ने पूछा हे
भगवन्! उस मन
के वश करने की
युक्ति मुझसे
कहिये । विरोचन
बोले, हे
पुत्र! शब्द, स्पर्श, रूप
रस और गन्ध के
रस की सर्वदा
सब ओर से आस्था
त्यागना
अर्थात्
नाशवन्त और
भ्रमरूप जानना,
यही मन के
जीतने की परम
युक्ति है ।
मनरूपी हाथी
विषयरूपी मद
से मस्त है वह
इस युक्ति से
शीघ्र ही दमन
हो जाता है यह
युक्ति कठिन
है और अति
दुःख से
प्राप्त होती
है परन्तु
अभ्यास से
सुलभ ही प्राप्त
हो जाती है ।
ब्रह्म के
अभ्यास किये से
और विरक्तता
से यह युक्ति
सब ओर से प्रकट
होती है-जैसे
रसवान्
पृथ्वी से लता
उपजती हैं
तैसे ही जो जो
शठ जीव हैं वे इसकी
वाच्छा करते
हैं परन्तु
अभ्यास बिना
उन्हें नहीं
प्राप्त होती
और
अभ्यासवान् को
होती है ।
इससे तुम भी
अभ्यास सहित
युक्ति का
आश्रय करो ।
जब तक विषयों
से विरक्तता
नहीं उपजती तब
तक संसाररूपी
वन के दुःखों
में भ्रमता है
पर विषयों से विरक्तता
अभ्यास बिना
किसीको नहीं
प्राप्त होती
। जैसे अभ्यास
बिना नहीं
पहुँचता तैसे
ही जब आत्मा
ध्येय को
पुरुष निरन्तर
धरता है तब
अभ्यासवान्
की वृत्ति
विषयों में
अप्रीत होती
है । जैसे जल
के अभ्यास से
बेलि को
सींचते हैं तब
लता वृद्धि
होती है, ऐसे
ही पुरुषार्थ
से सब कार्यों
की प्राप्ति होती
है, अन्यथा
नहीं होती ।
यह निश्चय
किया है कि जो
क्रिया आपही
करिये उसका फल
अवश्य प्राप्त
होता है । वही
पुरुषार्थ
कहाता है । जो
अवश्य होना है
उसकी जो नीति
है वह दूर
नहीं होती उसे
ही दैवशब्द
कहिये वा नीति
कहिये पर अपने
ही पुरुषार्थ
का फल पाता
है-जैसे मरु स्थल
में जल भासता
है और सम्यक्ज्ञान
से भ्रम
निवृत्त हो
जाता है । इस
दैव और नीति को
अपने
पुरुषार्थ से
जीतो । जैसा
पुरुषार्थ से
संकल्प दृढ़
करता है तैसा
ही भासता है ।
जैसे आकाश को
नीलता ग्रहण
करती है पर वह
नीलता कुछ है
नहीं , तैसे
ही सुख दुःख
देनेवाला और
कोई नहीं, जैसा
संकल्प करता
है तैसा ही हो
भासता है और जैसी
नीति होती है
तैसा ही
संकल्प करता
है उसी नीति
से मिलकर
कदाचित् कर्म
करता है तो
उससे इस जगत्कोश
में जीव शरीर धारकर
फिरता है-जैसे
आकाश में पवन
फिरता है पर
वह कदाचित्
नीति सहित और
कदाचित् नीति
से रहित फिरता
है, तैसे
ही दोनों
सीढ़ियाँ मन
में होती हैं
। आकाशरूपी मन
में नीति
अनीतिरूपी
वायु फिरता है
इस कारण, जब
तक मन है तब तक
नीति है और
दैव है । मन से
रहित न नीति
है, न दैव
है, मन के
अस्त हुए जो
है वही रहता
है, तैसे
ही पुरुषार्थ
करके जैसा
संकल्प इस लोक
में दृढ़ होता
है सो कदाचित्
अन्यथा नहीं
होता । हे
पुत्र! अपने
पुरुषार्थ
बिना यहाँ कुछ
सिद्ध नहीं होता,
इससे परम
पुरुषार्थ
करके विषय से
विरक्त हो ।
जब तक
विरक्तता
नहीं उपजती तब
तक परम सुख के
देने वाली मोक्षपदवी
और (संसारभय
का
नाशकर्त्ता)
ज्ञान नहीं
प्राप्त होता
। जब तक
विषयों में प्रीति
है तब तक
सांसारिक दशा
डोलायमान
करती है, दुःखदायक
होती है और
सर्प की नाईं विष
फैलाती है, अभ्यास किये
बिना निवृत्त
नहीं होती ।
फिर बलि ने
पूछा कि हे सब असुरों
के ईश्वर!
चित्त में
भोगों से
विरक्तता
कैसे स्थित
होती है, जो
जीवों को दीर्घ
जीने का कारण
है? विरोचन
बोले, हे
पुत्र! जैसे
शरत्काल की
महालता में
फूल से फल
परिपक्व होता
है तैसे ही
आत्मावलोकन
करनेवाले
पुरुष को भोगों
में विरक्तता प्रकट
होती है ।
आत्मा के
देखने से
विषयी की प्रीति
निवृत्त हो
जाती है और
हृदय में शान्ति
प्राप्त होती
है । जैसे
कमलों में शोभा
होती है तैसे
ही
बीजलक्ष्मी
स्थित होती
इससे
सूक्ष्मबुद्धि
विचारवेत्ता जैसे
आत्मदेव को
देखकर विषयों
की प्रीति त्यागते
हैं ऐसे तुम
भी त्यागो ।
प्रथम दिन के
दो भाग देह के
कार्य करो, एक भाग शास्त्रों
का श्रवण
विचार करो और
एक भाग गुरु की
सेवा करो । जब
कुछ विचार
संयुक्त मन हो
तब दो भाग
वैराग्य
संयुक्त
शास्त्रों को
विचारो और दो
भाग ध्यान और
गुरु के पूजन
में रहो । इस
क्रम से जीव
ज्ञानकथा के
योग्य होता है
और क्रम से
निर्मल भाव को
ग्रहण करता है,
तब शनैः
शनैः उत्तमपद
की भावना होती
है । इस
प्रकार
शास्त्रों के
अर्थ विचार
में चित्रूपी
बालक को
परचावो । जब
परमात्मा में ज्ञान
प्राप्त होता
है तब कर्म
फाँसी से छूट
जाता है ।
जैसे चन्द्रमा
के उदय हुए चन्द्रकान्तिमणि
द्रवीभूत
होता है तैसे
ही वह शीतल हो
विराजता है ।
बुद्धि के
विचार से
सर्वदा सम और
आत्मदृष्टि
देखनी और
तृष्णा का
बन्धन
त्यागना यह
परस्पर कारण
है । परमात्मा
के देखने से
तृष्णा दूर हो
जाती है और
तृष्णा के
त्याग से
आत्मा का
दर्शन होता है
। जैसे नौका
को केवट ले
जाता है और
नौका केवट को
ले जाती है
तैसे ही परमात्मा
का दर्शन होता
है और भोगों
का त्याग होता
है । परब्रह्म
में जो अनन्त विश्रान्ति
नित्य उदय
होति है सो
मोक्षरूप आनन्द
उदय होता है
उसका अभाव
कदाचित् नहिं
होता । जीवों
को आनन्द
आत्मविश्रान्ति
के सिवा न
तपों से
प्राप्त होता
है न दानों से
प्राप्त होता
है और न
तीर्थों से
प्राप्त होता
है । जब
आत्मस्वभाव
का दर्शन होता
है तब भोगों
से विरक्ततता
उपजती है, पर
आत्मस्वभाव
का दर्शन अपने
प्रयत्न बिना
और किसी
युक्ति से
नहीं प्राप्त
होता है । हे
पुत्र! भोगों
के त्याग करने
और परमार्थ
दर्शन के यत्न
करने से ब्रह्मपद
में
विश्रान्त और
परमानन्द
मोक्ष को
प्राप्त होता
है । ब्रह्मा
से अदि
काष्ठपर्यन्त
को इस जगत्
में ऐसा आनन्द
कोई नहीं जैसा
परमात्मा में
स्थित हुए से
है । इससे तुम
पुरुष
प्रयत्न का
आश्रय करो और
दैव को दूर से
त्यागो । इस
मार्ग के
रोकने वाले
भौग हैं, उनखी
निन्दा
बुद्धिमान करते
हैं । जब
भोगों की
निन्दा दृढ़
होती है तब विचार
उपजता है-जैसे
वर्षाकाल गये से
शरत्काल की
सब दशा निर्मल
होजाती है
तैसे ही भोगों
की निन्दा से
विचार और
विचार से
भोगों की
निन्दा
परस्पर होती
हैं जैसे समुद्र
की अग्नि से
धूम्र उदय
होता है और बादलरूप
हो वर्षाकाल
फिर समुद्र को
पूर्ण करता है
और जैसे मित्र
आप से परस्पर
कार्य सिद्ध
कर देते हैं ।
इससे प्रथम तो
दैव का अनादर
करो और पुरुष
प्रयत्न करके
दाँतों को
पीसकर भोगों
की प्रीति
त्यागो और फिर
पुरुषार्थ से
प्रथम अविरोध
उपजाओ और उसको
भगवान् के
अर्पण करो और
भोगों से असंग
होकर उनकी
निन्दा करो तब
विचार उपजेगा
। फिर
शास्त्रज्ञान
को संग्रह करो
तब परमपद की प्राप्ति
होगी । हे
दैत्यराज! समय
पाकर जब तू
विषयों से
विरक्त चित्त
होगा तब विचार
के वश से परमपद
पावेगा । अपने
आप में जो
पावन पद है
उसमें तब भली
प्रकार अत्यन्त
विश्राम
पावेगा । और
फिर कल्पना दुःख
में गिरेगा ।
देशाचार के
कर्म से
अल्पधन उपजाना
फिर उसे साधु
के संग में
लगाना उनके
संग में
वैराग्य और
विचार संयुक्त
हुए तुझको
आत्मलाब होगा
।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बल्युपाख्याने
चित्तचिकित्सोपदेशोनाम
चतुर्विंशतितमस्सर्गः
॥24॥
बलि
ने विचार किया
कि इस प्रकार
मुझसे पूर्व पिता
ने कहा था । अब
मैं स्मृति
दृष्टि से
प्रसन्न हुआ
हूँ और भोगों
से विरक्तता
उपजी है कि
इसलिये शान्त
और सम, निर्मल, अमृतरूपी,शीतल सुख
में स्थित
होऊँ । धन
एकत्र होता है
और नाश हो
जाता है फिर आशा
उपजती है और
फिर धन से
पूर्ण होता है,
फिर
स्त्रियों की
वाञ्छा उपजती
है और फिर
उन्हें
अंगीकार करता
है । अब मैं
विभूति की
स्थिति से
खेदवान् हूँ ।
अहो, आश्चर्य
है कि इस
रमणीय पृथ्वी
से अब मैं सम शीतलचित्त
होता हूँ और
दुःख सुख से रहित
सर्व शान्ति
को प्राप्त
होता हूँ ।
जैसे चन्द्रमा
के मण्डल में
स्थित हुआ सम शीतल
होता है तैसे
भीतर से मैं
हर्षवान् और
शीतल होता हूँ
। दुःखरूपी
विभूति ऐश्वर्य
से रहित हो अब
मैं अक्षोभ
हूँगा । यह सब
मनरूपी बालक
की दिन दिन
प्रति कला है
। प्रथम मैं
स्त्री से
चिपटता था फिर
मोह से मेरी
प्रीति बढ़ गई
थी, जो कुछ दृष्टि
से देखने
योग्य था वह
मैंने देखा है,
जो कुछ
भोगने योग्य था
वह चिरकाल पर्यन्त
अखण्ड भोगा है
और
सर्वभूतजातों
को वश कर रहा
हूँ पर उससे
क्या शोभनीय हुआ
। फिर फिर
उनमें वही
चेष्टा से और
और देखे, इससे
चित्त अपूर्व
पदार्थ को
नहीं देखता
फिर फिर जगत्
के वही पदार्थ
हैं । इससे अपनी
बुद्धि से
इनका निश्चय
त्यागकर पूर्ण
समुद्रवत्
अपने आपसे
आपमें स्वच्छ,
स्वस्थ और
स्थित हूँ ।
पाताल, पृथ्वी
और स्वर्ग में,
जो स्त्री
और रत्न, पन्नगादिक
सार हैं वे भी
तुच्छ हैं, मय पाकर
उन्हें काल
ग्रस लेता है
। इतने काल
पर्यन्त मैं
बालक था और जो
तुच्छ पदार्थ
मन के रचे हुए हैं
उनमें आसक्त
होकर देवतों
के साथ द्वेष
करता था । उन
दुःखों के
त्यागन से
क्या अनर्थ
होगा? बड़ा
कष्ट है कि
मैंने चिरकाल
अनर्थ में
अर्थबुद्धि
की थी, अज्ञानरूपी
मद से मतवाला
था और चञ्चल
तृष्णा से इस
जगत् में क्या
नहीं किया ।
जो कार्य पीछे
ताप बढ़ाते हैं
वही मैंने
किये हैं पर
अब पूर्व तुच्छ
चिन्ता से
मुझको क्या है
। वर्तमान
चिकित्सा
पुरुषार्थ से
सफल होगी । जैसे
समुद्र मथने
से अमृत प्रकट
भया है तैसे
ही अपरिमित
आत्मा की
भावना से अब
सब ओर से सुख
होगा । मैं
कौन हूँ, और
आत्मा के
दर्शन की
युक्ति गुरु
से पूछूँगा ।
इसलिये अब मैं
अज्ञान के
नाशनिमित्त
शुक्र भग वान्
का चिन्तन
करूँ, वह
जो प्रसन्न
होकर उपदेश
करेंगे उससे
अनन्त विभव
अपने आपमें आपसे
स्थित होगा और
निष्काम
पुरुषों का
उपदेश मेरे
हृदय में
फैलेगा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बलिचिन्तासिद्धान्तोपदेशंनाम
पञ्चविंशस्सर्गः
॥ 25 ॥
अनुक्रम
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! इस
प्रकार
चिन्तन करके
बलि ने
नेत्रों को
मूँदा और
शुक्र जी
जिनका आकाश
में मन्दिर है
और जो सर्वत्र
पूर्ण
चिन्मात्र
तत्त्व के
ध्यान में स्थित
हैं आवाहनरूप
ध्यान किया, और शुक्रजी
ने जाना कि
हमारे शिष्य
बलि ने हमारा ध्यान
किया है । तब
चिदात्मस्वरूप
भार्गव अपनी
देह वहाँ ले
आये जहाँ रत्न
के झरोखे में
बलि बैठा था
और बलि
उज्ज्वल
प्रभाववाले गुरु
को देखकर उठा
और जैसे
सूर्यमुखी कमल
सूर्य को
देखकर
प्रफुल्लित
होते हैं तैसे
ही उसका चित्त
प्रफुल्लित
हो गया । तब उसने
रत्न अर्ध्य
पुष्पों से
चरण वन्दना की
और रत्नों से
अर्घ दिया और
बड़े सिंहासन पर
बैठाकर कहा, हे भगवन्
तुम्हारी
कृपा से मेरे
हृदय में जो प्रतिभा
उठती है वह स्थिर
होकर मुझको
प्रश्न में
लगाती है अब
मैं उन भोगों
से जो मोह के
देनेवाले हैं विरक्त
हुआ हूँ और
तत्त्वज्ञान
की इच्छा करता
हूँ जिससे
महामोह
निवृत्त हो ।
इस ब्रह्माण्ड
में स्थिर
वस्तु कौन है
और उसका कितना
प्रमाण है? इदं क्या है
और अहं क्या
है? मैं
कौन हूँ तुम
कौन हो और यह
लोक क्या है? इन प्रश्नों
का उत्तर कृपा
करके कहिये ।
शुक्र बोले, हे दैत्यराज!
बहुत कहने से क्या
है, मैं
आकाश में जाना
चाहता हूँ
इससे सबका सार
संक्षेप से
मैं तुमसे
कहता हूँ सो
सुनो । जो
चेतन तत्त्व
विस्तृतरूप
है वही चिन्मात्र
है और चेतन ही
व्यापक है । तू
भी
चेतनस्वरूप
है, मैं भी
चेतन हूँ और
यह लोक भी
चेतनरूप है ।
यही सबका सार
है । इस निश्चय
को हृदय में
दृढ़कर धारोगे
तब निर्मल निश्चयात्मकबुद्धि
से अपने को
आपसे देखोगे
और उससे
विश्रान्तिमान्
होगे । हे राजन्!
यदि तुम
कल्याणमूर्ति
हो तो इसी कहने
से सब
सिद्धान्त को
प्राप्त होगे
और सबका सार
जो चिदात्मा
है उसको
पावोगे और यदि
कल्याणमूर्ति
नहीं हो तो
फिर कहना भी
निरर्थक होता
है । चेतन को
जो चैत्यकला
का सम्बन्ध है
वही बन्धन है
। इससे जो
मुक्त है वही
मुक्त है ।
आत्मतत्त्व
चेतन रूप चैत्यकलना
से रहित है ।
यह सब
सिद्धान्तों
का संग्रह है
। हे राजन्! इस
निश्चय को धारो
और निर्मल
बुद्धि से
अपने आपसे
आपको देखो, यही आत्मपद
की प्राप्ति
है । सप्त ऋषियों
से देवताओं का
कोई कार्य है
उस निमित्त
मैं अब आकाश
जाता हूँ । जब
तक यह देह है
तब तक
मुक्तबुद्धि
को
यथाप्राप्त
कार्य त्यागने
योग्य नहीं ।
इतना कहकर
वशिष्ठजी बोले,
हे रामजी!
ऐसे कहकर
शुक्र बड़े वेग
से आकाश में
चले और जैसे
समुद्र से
तरंग उठकर लीन
हो जावें तैसे
ही शुक्रजी
अन्तर्धान हो
गये ।
इति
श्री
योगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बुल्युपदेशो
नाम
षटविंशस्सर्गः
॥26॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी
देवता और
दैत्यों के
पूजने योग्य
शुक्र के गये
से बलवानों में
श्रेष्ठ बलि
मन में
बिचारने लगा
कि भगवान्
शुक्र जी यह
क्या कह गये
कि त्रिलोकी चिन्मात्ररूप
है, मैं भी
चेतन हूँ, दिशा
भी चेतनरूप
हैं, परमार्थ
से आदि जो
सत्य स्वरूप
है वह भी चेतन
है उससे भिन्न
नहीं, यह
जो सूर्य है
उसमें चेतन
होने से ही सूर्यत्व
भाव भासता है
और यह जो भूमि
है उसको चेतन
न चेते तो
इसमें
भूमित्व भाव नहीं
। यह जो दशो
दिशा हैं यदि
इनको न चेते
तो दिशा में
दिशात्वभाव न
रहे, पर्वत
में पर्वतता
भी चेतन बिना
नहीं । इस
जगत् में
जगत्भाव आकाश
में आकाशता, शरीर में
लक्षण भी चेतन
बिना न
पाइयेगा, इन्द्रियाँ
भी चेतन हैं, मन भी चेतन
है, भीतर
बाहर सब चेतन
है और
चिदात्मा ही
अहं त्वं
भावरूप होकर
स्थित है ।
चेतन मैं हूँ,
सब
इन्द्रियों
संयुक्त
विषयों का
स्पर्श मैं
करता हूँ और
कदाचित् कुछ
नहीं किया ।
काष्ठ
लोष्ठतुल्य
शरीर से मेरा
क्या है? मैं
तो सम्पूर्ण
जगत् में
आत्मा चेतन
हूँ और आकाश
में भी एक मैं
आत्मा हूँ ।
सूर्य और भूत,
पिञ्जर, देवता,
दैत्य और
स्थावरजंगम
सबका चेतन
आत्मा एक अद्वैत
चेतन है और
द्वैतकलना
नहीं । सब, यदि
इस लोक में
द्वैत का
असम्भव है तो
शत्रु कौन है
और मित्र
किसको कहिये?
जिस शरीर का
नाम बलि है
उसका शिर काटा
तो आत्मा का क्या
काटा सब लोगों
में आत्मा
पूर्ण है पर
जब चित्त दुःख
चेतता है तब
दुखी होता है
चेतने बिना दुःख
नहीं पाता ।
इस कारण जो
दुःख दायक
भाव-अभाव
पदार्थ भासते
हैं वे सर्व
आत्मरूप हैं
चेतन तत्व से
भिन्न कुछ
नहीं । सब ओर से
आत्मा पूर्ण
है, आत्मा
से भिन्न जगत्
का कुछ
व्यवहार नहीं
। न कोई दुःख
है, न कोई
रोग है, न
मन है, न मन
की वृत्ति है,
एक शुद्ध
चेतनमात्र
आत्मतत्व है
और विकल्पकलना
कोई नहीं । सब
ओर से चेतन
स्वरूप, व्यापक,
नित्य, आनन्द,
अद्वैत
सबसे अतीत और
अंशाशाभाव से
रहित चेतनसत्ता
व्यापक है ।
चेतन आदिक नाम
से भी मैं
रहित हूँ वे
चेतन आदिक नाम
भी व्यवहार के
निमित्त कल्पे
हैं । चेतन जो
आत्मा की
स्फुरणशक्ति
है वही
विस्तार में
जगत्रूप
होकर भासती है,
दृष्टा
दर्शन मुक्त
केवल
अद्वैतरूप है
और प्रकाश
प्रकाशकभाव
से रहित
निराभास दृष्टा
निरामयरूप
कलना कलंक से
रहित हूँ ।
इनसे परे हूँ
और यह स्वरूप
भी मैं हूँ । यह
मेरे में
आभासमात्र है
और मैं उदित
नित्य और आभास
से भी रहित एक
प्रकाशकरूप हूँ
। स्वरूप होने
से मेरा चित्त
दृश्य के राग
से रहित
मुक्तरूप है ।
प्रत्यक्ष चेतन
जो मेरा
स्वरूप है
उसको नमस्कार
है । चित्त
दृश्य से रहित
है और युक्ति अयुक्ति
सबका
प्रकाशस्वरूप
मैं हूँ, मुझको
नमस्कार है । मैं
चित्त से रहित
चेतन हूँ, सब
ओर से
शान्तरूप हूँ,
फुरने से
रहित हूँ और
आकाश की नाईं
अनन्त
सूक्ष्म से
सूक्ष्म, दुःख
सुख से मुक्त
और संवेदन से
रहित असंवेदनरूप
हूँ ।मैं
चैत्य से रहित
चेतन हूँ, जगत्
के भाव अभाव
पदार्थ मुझको
नहीं छेद सकते
। अथवा यह
जगत् के
पदार्थ छेदते
हैं वह भी
मुझसे भिन्न
नहीं, क्योंकि
छेद मैं हूँ
और छेदनेवाला
मैं हूँ ।
स्वभाव भूत
वस्तु से वस्तु
ग्रहण होती है
अथवा नहीं
होती तो भी किससे
नाश हो, मैं
सर्वदा, सर्व
प्रकार, सर्व
शक्तिरूप हूँ,
संकल्प
विकल्प से अब क्या
है ।मैं एक ही
चेतन अजड़रूप
होकर प्रकाशता
हूँ जो कुछ
जगत्जाल है
वह मैं ही हूँ
मुझसे भिन्न
कुछ नहीं ।
इतना कह
वशिष्ठी बोले,
हे रामजी!
जब इस प्रकार
तत्त्व के
वेत्ता राजा
बलि ने विचारा
तब ओंकार की
अर्धमात्रा
तुरीयापद की
भावना से ध्यान
में स्थित हुआ
और उसके
संकल्प भली
प्रकार शांत
हो गये । वह सब
कलना और चित्त
चैत्य निःसंग
होकर स्थित
हुआ । और
ध्याता जो है
अहंकार, ध्यान
जो है मन की
वृत्ति और
ध्येय जिसको
ध्याता था
तीनों से रहित
हुआ और मन से
सब वासनाएँ
नष्ट हो गईं । जैसे
वायु से रहित
अचलरूप दीपक
प्रकाशता है तैसे
ही बलि
शान्तरूप पद
को प्राप्त
हुआ और रत्नों
के में बैठे
दीर्घ काल बीत
गया । जैसे
स्तम्भ में
पुतली हों
तैसे ही सर्व एषणा
से रहित वह
समाधि में
स्थित रहा और
सब क्षोभ, दुःख,
विघ्न से
रहित निर्मल चित्त
शरत्काल के
आकाशवत् हो
रहा ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बलिविश्रान्तिवर्णनन्नाम
सप्तविंशस्सर्गः
॥27॥
वशिष्ठजी
बोले, हे रामजी! जब
इस प्रकार
दैत्यराज
बहुत काल
पर्यन्त समाधि
में बैठा रहा
तब बान्धव, मित्र, टहलुये,
मन्त्री
रत्नों के
झरोखे में
देखने चले कि
राजा को क्या
हुआ । ऐसा
विचारकर
उन्होंने
किवाड़ों को खोला
और ऊपर चढ़े ।
यक्ष, विद्याधर
और नाग एक ओर
खड़े रहे और
रम्भा और
तिलोत्तमादिक
अप्सरागण
हाथों में चमर
ले खड़ी हुईं
और नदियाँ, समुद्र, पर्वत
आदिक मूर्ति
धारकर और रत्न
आदिक भेंट
लेकर सब प्रणाम
के निमित्त
खड़े हुए, और
त्रिलोकि के
उदरवर्ती जो
कुछ थे वे सब
आये, पर
राजा बलि
ध्यान में ऐसा
स्थित था मानो
चित्र की
मूर्ति लिखी
और पर्वतवत्
स्थित है ।
उसको देखकर सब
दैत्यों ने
प्रणाम किया,
कोई उसे
देखकर शोकवान्
हुए । कोई
आश्चर्यवान्,
कोई
आनन्दवान्
हुए और कोई भय
को प्राप्त
हुए तब
मन्त्री
विचारने लगे
कि राजा की
क्या दशा हुई
। इसलिए उसने शुक्रजी
का ध्यान किया
और
भार्गवमुनि
झरोखे में आये
। उनको देखकर
दैत्यगणों ने
पूजन किया और
बड़े सिंहासन
पर गुरु को
बैठाया । बलि
को
ध्यानस्थित
देख कर
शुक्रजी अति प्रसन्न
हुएकि जो पद
मैंने उपदेश
किया था, उसमें
इसने विश्राम
पाया है इसका
भ्रम अब नष्ट
हुआ है और
क्षीरसमुद्रवत्
प्रकाश है । ऐसे
देखकर
शुक्रजी ने
कहा बड़ा
आश्चर्य है कि
दैत्यराज ने
विचार करके
निर्मल
आत्मप्रकाश
पाया है । अब
भगवान् सिद्ध
हुआ है और
अपने स्वरूप
में जो सब
दुःखों से
रहित पद है
उसमें यह
स्थित हुआ है
और चिन्ता भ्रम
इसका क्षीण
हुआ है । अब
इसको मत जगाओ
। यह आत्मज्ञान
को प्राप्त
हुआ है और यत्न
और क्लेश इसका
दूर हो गया है
जैसे सूर्य के
उदय होने से
अन्धकार नष्ट
हो जाता है ।
अब मैं इसको
नहीं जगाता यह
आपही दिव्य
वर्षों में
जागेगा, क्योंकि
प्रारब्ध अंकुर
इसके रहता है
और उठकर अपना
राजकार्य करेगा
। अब तुम इसको
मत जगाओ अपने
राजकार्य में
जा लगो ।
वशिष्ठजी
बोले, हे
रामजी! जब इस
प्रकार
शुक्रजी ने
कहा तब सब
सुनकर सूखे
वृक्ष की
मञ्जरी ऐसे हो
गये और
शुक्रजी
अन्तर्धान हो
गये । दैत्य भी
अपने राजा
विरोचन की सभा
में जाकर अपने
अपने व्यवहार
में लगे और
खेचर, भूचर
और पातालवासी
अपने अपने
स्थान में गये
और देवता, दिशा,
पर्वत, समुद्र
नाग, किन्नर
गन्धर्व सब
अपने अपने
व्यवहार में
जा लगे ।
इति
श्रीयोगवाशिष्ठे
उपशमप्रकरणे
बलिविज्ञान
प्राप्तिर्नामाष्टाविंशतितमस्सर्गः
॥28॥
अनुक्रम
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब सहस्त्र दिव्य वर्ष व्यतीत हुए तब दैत्यराज समाधि से उतरे, नौबत नगारे बाजने लगे, देवता और दैत्य बड़े जय जय शब्द करने लगे नगरवासी देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जैसे सूर्य उदय हुए कमल खिल आते हैं तैसे ही खिल आये । जब तक दैत्य न आये थे तब तक राजा ने विचारा कि बड़ा आश्चर्य है कि परमपद जो ऐसा रमणीय, शान्तरूप और शीतल पद है उसमें स्थित होकर मैंने परम विश्राम पाया है । इससे फिर उसी पद का आश्रय करूँ और उसी में स्थित होऊँ, राज्य विभूति से मेरा क्या प्रयो जन है । ऐसा आनन्द शीतल चन्द्रमा के मण्डल में भी नहीं होता जैसा अनुभव में स्थित होने से पाया जाता है । हे रामजी! इस प्रकार चिन्तना कर वह फिर समाधि करने लगा कि जिससे गलित मन हो । तब दैत्यों की सेना, मन्त्री, भृत्य, बान्धवों ने आनकर उनको घेर लिया और जैसे चन्द्रमा को मेघ घेर लेता है तैसे ही घेर करके प्रणाम करने लगे । बलिराज ने मन में विचारा कि मुझको त्यागने और ग्रहण करने योग्य क्या है, त्याग उसका करना चाहिये जो अनिष्ट और दुःखदायक हो और ग्रहण उसका कीजिये जो आगे न हो पर आत्मा से व्यतिरेक कुछ नहीं उसमें ग्रहण और त्याग किसका करूँ । मोक्ष की इच्छा भी मैं किस कारण करूँ क्योंकि जो बन्ध होता है तो मोक्ष की इच्छा करता है सो जब बन्ध ही नहीं तो मोक्ष की इच्छा कैसे हो? यह बन्ध और मोक्ष बालकों की क्रीड़ा कही है वास्तव में न बन्ध है न मोक्ष है । यह कल्पना भी मूढ़ता में है सो मूढ़ता तो मेरी नष्ट हुई है, अब मुझको ध्यान विलास से क्या प्रयोजन है और ध्यान से क्या है । अब मुझको न परमतत्त्व की इच्छा है और न कुछ ध्यान से प्रयोजन है अर्थात् न विदेहमुक्त की इच्छा है, न जगत् में स्थित् रहने की इच्छा है, न मैं मरता हूँ, न जीता हूँ, न सत्य हूँ, न असत्य हूँ, न सम हूँ, न विषम हूँ, न कोई मेरा है और न कोई और है अद्वैतरूप मैं एक आत्मा हूँ सो मुझको नमस्कार है इस राजक्रिया में मैं स्थित हूँ तो भी आत्मपद कार्य में स्थित हूँ, और सदा शीतल हूँ । ध्यान दिशा से मुझको सिद्धता नहीं और न राजकार्य विभूति से कुछ सिद्ध होना है । इससे राजकार्य से मेरा कुछ प्रयोजन नहीं, मैं आकाशवत् ही रहता हूँ । मैं न कुछ इच्छा करूँगा न राज्य करूँगा तो भी मेरा कुछ सिद्ध नहीं होता इससे जो कुछ प्रकृत आचार है उसी को मैं करूँ । बन्धन का कारण अज्ञान है सो नष्ट हुआ है अब कोई क्रिया मुझको बन्धनरूप नहीं । हे रामजी! इसी प्रकार निर्णय करके बलि ने दैत्यों की ओर देखा तब देवता और दैत्यों ने शीश से प्रणाम वन्दना अङ्गीकार की । तब राजा बलि ने ध्येयवासना को मन से त्याग किया और राज्य के कार्य करने लगा । ब्राह्मण, देवता और गुरु का पूर्ववत् पूजन किया, जो कोई अर्थी और मित्र, बान्धव, टहलुये थे उनका अर्थ पूर्ण किया, स्त्रियों को नाना प्रकार के वस्त्र आभूषण दिये और जो दण्ड देने योग्य थे उनको दण्ड दिया । फिर उसने यज्ञ का आरम्भ करके सुरगणों का पूजन किया और शुक्रजी से आदि ले मुख्य-मुख्य देवता यज्ञ कराने के निमित्त बैठे । फिर विष्णु भगवान् ने इन्द्र के अर्थ सिद्ध करने के निमित् छल करके बलिराज को वञ्चित कर लिया और बाँधकर पाताल में स्थित किया । वह आगे इन्द्र होगा अब जीवनमुक्त, स्वस्थवपु, सदा ध्यानस्थित और ऐषणा से रहित पुरुष पाताल में है । हे रामजी! जीवन्मुक्त पुरुष राजा बलि सम्पदा और आपदा में समचित्त बिचरता है, वह सम्पदा में हर्ष नहीं करता और आपदा में शोक नहीं करता । अनेक जीवों का उपजना और लय होना बलि ने देखा है, दश करोड़ वर्ष पर्यन्त तीनों लोकों का कार्य किया और बड़े विषयभोग भोगे हैं । अन्त में भोगों को विरस जानकर उसका मन विरस हुआ, विचार करने से तृष्णा नष्ट हो गई और मन उपशम हुआ । हेयोपादेय की नाना प्रकार की चेष्टा बलि ने देखीं पर पदार्थों के भाव अभाव में मन शान्ति को ही प्राप्त हुआ । अब भोगों की अभिलाषा त्याग आत्मारामी हो नित्य स्वरूप में स्थित पाताल में विराजता है । हे रामजी! इस बलि को फिर इस जगत् का इन्द्र होना और सम्पूर्ण जगत् का कार्य करना है वह अनेक वर्ष आज्ञा चलावेगा परन्तु इन्द्रपद को पाकर भी तुष्टवान् न होगा और अपने ऐश्वर्य पद के गिरने से खेदवान् भी न होगा और सब पदार्थों और विभूतियों के उदय और अस्त में अमर होगा । वह बलि की विज्ञान प्राप्ति का क्रम वृत्तान्त कहा है । इसी दृष्टि का आश्रय करके तुम भी स्थित हो और बलि की नाईं अपने विवेक से नित्य तृप्ति आत्मनिश्चय को धारो कि सब मैं ही हूँ । इस निश्चय से निर्द्वन्द्व और परमपद प्राप्त होगा । हे रामजी! दस करोड़ वर्ष तीनों लोकों का राज्य बलि ने भोगा è