'बाल
संस्कार
केन्द्र'
पाठ्यक्रम
जिस प्रकार
की नींव होती
है उसी के
अनुरूप उस पर
खड़े भवन की
मजबूती भी
होती है। यदि
नींव ही कमजोर
हो तो उस पर
भव्य भवन का
निर्माण कैसे हो
सकता है ? बच्चे
भावी समाज की
नींव होते
हैं। लेकिन आज
के दूषित
वातावरण में
बच्चों पर
ऐसे-ऐसे गलत
संस्कार पड़
रहे हैं कि उनका
जीवन पतन की
ओर जा रहा है।
बालकरूपी
नींव ही कच्ची
हो तो सुदृढ़
नागरिकों से
युक्त समाज कहाँ
से बनेगा ?
किसी भी परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का भविष्य उसके बालकों पर निर्भर होता है। उज्जवल भविष्य के लिए हमें बालकों को सुसंस्कारित करना होगा। बालकों को भारतीय संस्कृति के अनुरूप शिक्षा देकर हम एक आदर्श राष्ट्र के निर्माण में सहभागी हो सकते हैं।
ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आसारामजी बापू के मार्गदर्शन में हो रही बाल विकास की विभिन्न सेवा-प्रवृत्तियों द्वारा बच्चों को ओजस्वी, तेजस्वी, यशस्वी बनाने हेतु भारतीय संस्कृति की अनमोल कुंजियाँ प्रदान की जा रही हैं। इन्हीं सत्प्रवृत्तियों में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं देश में व्यापक स्तर पर चल रहे 'बाल संस्कार केन्द्र'।
इन केन्द्रों में विभिन्न महापुरूषों के जीवन चरित्र पर आधारित प्रसंगों के माध्यम से विद्यार्थियों में ससंस्कारों का सिंचन किया जाता है। उनमें हमारी दिव्य संस्कृति, जीवन जीने की उत्तम कला सिखाने वाले महापुरूषों तथा माता-पिता एवं गुरूजनों के प्रति श्रद्धाभाव जगे, ऐसे कथा-प्रसंग बताये जाते हैं।
बाल संस्कार केन्द्र संचालन निर्देशिका में दी हुई 2 घँटे की कार्यप्रणाली में से पर्व महिमा, ऋतुचर्या, कथा-प्रसंग एवं अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रति सप्ताह विस्तृत पाठ्यक्रम के रूप में यह पुस्तिका प्रस्तुत की जा रही है। देशभर में चल रहे सभी केन्द्रों में एकरूपता व सामंजस्यता स्थापित हो यह इस पुस्तिका के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य है।
बाल संस्कार केन्द्र संचालक इस बात ध्यान रखें कि जिस माह से वे इस पुस्तक के अनुसार पढ़ाना शुरू करें, उस माह के त्यौहार, जयंतियाँ, ऋतुचर्या कैलेण्डर में देखें। फिर इस पुस्तक की अनुक्रमणिका में उससे सम्बन्धित लेख देखकर उससे सम्बन्धित सत्र से पढ़ाना शुरू करें। पुस्तक में दिया हुआ पहला सत्र जनवरी के प्रथम सप्ताह में पढ़ाने के लिए है।
यह पाठ्यक्रम वर्ष भर में आने वाले व्रत, त्यौहार तथा महापुरूषों की जयंतियों आदि के आधार पर बनाया गया है। केन्द्र संचालकों से निवेदन है कि अन्य वर्षों में व्रत त्यौहार, महापुरूषों की जयंति-तिथियों, तारीखों के अनुसार विषयों को बदल कर पढ़ा सकते हैं।
सत्र 1 से 52 तक का अभिप्रायः वर्ष के 52 सप्ताहों से है। प्रत्येक वर्ष सत्र 1 जनवरी के प्रथम सप्ताह से शुरू होगा।
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माता-पिता-गुरू
की सेवा का महत्त्व
धर्म की वेदी
पर बलिदान देने
वाले चार अमर शहीद
तिलकः बुद्धिबल
एवं सत्त्वबलवर्धक
सबमें गुरू का
ही स्वरूप नजर
आता है
शरीर से हिन्दुस्तानी
परंतु दिमाग से
अंग्रेज
भारतीय संस्कृति
की गरिमा के रक्षकः
स्वामी विवेकानंद
'हाय-हेलो' से बड़ों का
अपमान न करें......
शिवजी का
अनोखा वेशः देता
है दिव्य संदेश
अपने नौ-जवानों
को बचाने का प्रयास
करें
भेद में अभेद
के दर्शन कराता
हैः होलिकोत्सव
वास्कोडिगामा
ने भारत खोजा नहीं
अपितु लूटा था
जरूरत है
लगन और दृढ़ता
की.......
विद्यार्थी
छुट्टियाँ कैसे
मनायें ?
बाल्यकाल
से ही भक्ति का
प्रारंभ
महापुरूषों
के मार्गदर्शन
से सँभल जाता है
जीवन
सात्त्विक,
राजसिक
तथा तामसिक भोजन
से होता है
तदनुसार स्वभाव
का निर्माण
सौन्दर्य
प्रसाधन हैं सौन्दर्य
के शत्रु
मम्मी डैडी
कहने से माता-पिता
का आदर या हत्या
?
ममी (Mummy) अर्थात्
वर्षों पुराना
शव
डैडी बनाम
डेड (Dead) अर्थात्
मृत व्यक्ति
गुरू तेग
बहादुरः धर्म की
रक्षा के लिए किया
प्राणों का बलिदान
हे विद्यार्थियो
! जिज्ञासु बनो
भगवद् आराधना,
नामसंकीर्तन
का फल
मनोनिग्रह
की अदभुत साधनाः
एकादशी व्रत
वर्षा ऋतु में
स्वास्थ्य-रक्षा
के कुछ आवश्यक
नियम
संत निंदा जिसके
घर, वह घर
नहीं, यम का दर
असीम करूणा के
धनीः संत एकनाथ
जी महाराज
नेता जी सुभाषचन्द्र
बोस की महानता
का रहस्य
भगवान स्वयं अवतार
क्यों लेते हैं
?
कितने सुरक्षित
हैं क्रीम तथा
टेलकम पाउडर ?
सौन्दर्य प्रसाधनों
में छिपी हैं कई
मूक चीखें
कैन्सर का
खतरा बढ़ा रहे
हैं झागवाले शैम्पू
धर्मांतरण
के विरूद्ध किया
उग्र आन्दोलन
पीनियल ग्रन्थि
(योग में-आज्ञाचक्र)
की क्रियाशीलता
का महत्त्व
शुभ संकल्पों
का पर्व रक्षाबंधन
प्रेमावतार
का प्रागट्य-दिवसः
जन्माष्टमी
अभ्यास में
रूचि क्यों नहीं
होती ?
आप चाकलेट
खा रहे हैं या निर्दोष
बछड़ों का मांस
?
असफल विद्यार्थियों
को सफल बनाने के
नुस्खे
गणपति जी
का श्रीविग्रहः
मुखिया का आदर्श
कोलस्टरोल
नियंत्रित करने
का आयुर्वैदिक
उपचार
मांसाहारः
गंभीर बीमारियों
को बुलावा
मांसाहारी
मांस खाता है परंतु मांस
उसकी हड्डियों
को ही खा जाता है
!
पौष्टिकता
की दृष्टि से शाकाहारी
सब्जियों से अण्डे
की तुलना
आध्यात्मिक
दृष्टि से मानव
जीवन पर अण्डा
सेवन का दुष्प्रभाव
कहीं आप भी
सॉफ्टड्रिंक पीकर
मांसाहार तो नहीं
कर रहे हैं ?
आरतीः मानव
जीवन को दिव्य
बनाने की वैज्ञानिक
परम्परा
आरती को कैसे
व कितनी बार घुमायें
?
नवरात्रि
में सारस्वत्य
मंत्र अनुष्ठान
से चमत्कारिक लाभ
सारस्वत्य
मंत्र का चमत्कारः
वैज्ञानिक भी चकित
विजयादशमीः
दसों इन्द्रियों
पर विजय
अधिकांश
टुथपेस्टों में
पाया जाने वाला
फ्लोराइड कैंसर
को आमंत्रण देता
है....
पेप्सोडेंट
के प्रयोग से सड़ने
लगे हैं दाँत
भारत का कुत्ता
भी भक्ति की प्रेरणा
देता है
गुटखा-पानमसाला
खाने वाले सावधान
!
गुटखा खाने
का शौक कितना महँगा
पड़ा !
मौत का दूसरा
नामः गुटखा-पान
मसाला
विविध रोगों
में आभूषण-चिकित्सा
स्वास्थ्य
के लिए हानिकारक
ऊँची एड़ी के सेंडिल
असाध्य बीमारियों
में औषध के साथ प्रार्थना
और ध्यान भी अत्यन्त
आवश्यक है
तेजस्वी
जीवन की कुंजीः
त्रिकाल-संध्या
मैदे से बनी
डबल रोटी (ब्रेड)
खाने वाले सावधान
!
टूथपेस्ट
करने वालों के
लिए दंतरोग विशेषज्ञों
की विशेष सलाह
भैंस के खून
से भी बनते हैं
टॉनिक
फास्ट फूड
खाने से रोग भी
फास्ट (जल्दी) होते
हैं
जागिये –
प्रातः
ब्राह्ममुहूर्त
में
दृढ़ संकल्प
सफलता का प्रथम
सोपान
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संचालक
पाठ्यक्रम
(सत्र 1)
युधिष्ठिर ने पूछाः "भारत ! धर्म का यह मार्ग बहुत बड़ा है तथा इसकी बहुत सी शाखाएँ हैं। इन धर्मों से आप किसको विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं ? सब धर्मों में से आप किसको विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं ? सब धर्मों में कौन-सा कार्य आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोक में भी परम धर्म का फल प्राप्त कर सकूँ ?"
भीष्म जी ने कहाः "राजन ! मुझे तो माता-पिता तथा गुरूजनों की पूजा ही अधिक महत्त्व की वस्तु जान पड़ती है। इस लोक में इस पुण्यकार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है।
तात् युधिष्ठिर ! भलिभाँति पूजित हुए वे माता-पिता और गुरूजन किस काम के लिए आज्ञा दें, उसका पालन करना ही चाहिए।
जो उनकी आज्ञा के पालन में संलग्न है, उसके लिए दूसरे किसी धर्म के आचरण की आवश्यकता नहीं है। जिस कार्य के लिए वे आज्ञा दें, वही धर्म है, ऐसा धर्मात्माओं का निश्चय है।
माता-पिता और गुरूजन ही तीनों लोक हैं, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं तथा ये ही तीनों अग्नियाँ हैं।
पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, माता दक्षिणाग्नि मानी गयी हैं और गुरू आहवनीय अग्नि का स्वरूप हैं। लौकिक अग्नियों की अपेक्षा माता-पिता आदि त्रिविध अग्नियों का गौरव अधिक है।
यदि तुम इन तीनों की सेवा में कोई भूल नहीं करोगे तो तीनों लोकों को जीत लोगे। पिता की सेवा से इस लोक को, माता की सेवा से परलोक को तथा नियमपूर्वक गुरू की सेवा से ब्रह्मलोक को भी लाँघ जाओगे।
भरतनन्दन ! इसलिए तुम त्रिविध लोकस्वरूप इन तीनों के प्रति उत्तम बर्ताव करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा करने से तुम्हें यश और महान फल देने वाले धर्म की प्राप्ति होगी।
इन तीनों की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करना, इनको भोजन कराने के पहले स्वयं भोजन न करना, इन पर कोई दोषारोपण न करना और सदा इनकी सेवा में संलग्न रहना, यही सबसे उत्तम पुण्यकर्म है। नृपश्रेष्ठ ! इनकी सेवा से तुम कीर्ति, पवित्र यश और उत्तम लोक सब कुछ प्राप्त कर लोगे।
जिसने इन तीनों का आदर कर लिया, उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया, उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये।
शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! जिसने इन तीनों गुरूजनों का सदा अपमान ही किया है, उसके लिए न तो यह लोक सुखद है और न परलोक। न इस लोक में और न ही परलोक में ही उसका यश प्रकाशित होता है। परलोक में जो अन्य कल्याणमय सुख की प्राप्ति बतायी गयी है, वह भी उसे सुलभ नहीं होती है।
मैं तो सारा शुभ कर्म करके इन तीनों गुरूजनों को ही समर्पित कर देता था। इससे मेरे उन सभी शुभ कर्मों का पुण्य सौगुना और हजारगुना बढ़ गया है। युधिष्ठिर ! इसी से तीनों लोक मेरी दृष्टि के सामने प्रकाशित हो रहे हैं।
आचार्य यानी शास्त्रों के अनुसार आचरण बताने वाला सदा दस श्रोत्रियों यानी शास्त्रों की कथा करने वाले से बढ़कर है। उपाध्याय यानी विद्यागुरू दस आचार्यों से अधिक महत्त्व रखता है। पिता दस उपाध्यायों से बढ़कर है और माता का महत्त्व दस पिताओं से भी अधिक है। वह अकेली ही अपने गौरव के द्वारा सारी पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माता के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है।
......परंतु मेरा विश्वास यह है कि ब्रह्मवेत्ता सदगुरू का पद पिता और माता से भी बढ़कर है, क्योंकि माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं जबकि सदगुरू जीव के चिन्मय वपु को जन्म देते हैं।
भारत ! पिता और माता के द्वारा स्थूल शरीर का जन्म होता है परंतु सदगुरू का उपदेश प्राप्त करके जीव को जो द्वितीय जन्म उपलब्ध होता है, वह दिव्य है, अजर-अमर है।
माता-पिता यदि कोई अपराध करें तो भी वे सदा अवध्य ही हैं, क्योंकि पुत्र या शिष्य माता-पिता और गुरू के प्रति अपराध करके भी उनकी दृष्टि में दूषित नहीं होते हैं। वे गुरूजन पुत्र या शिष्य पर स्नेहवश दोषारोपण नहीं करते हैं बल्कि सदा उसे धर्म के मार्ग पर ही ले जाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे माता-पिता आदि गुरूजनों का महत्त्व महर्षियों सहित देवता ही जानते हैं।
जो सत्कर्म और यथार्थ उपदेश के द्वारा पुत्र या शिष्य को कवच की भाँति ढँक लेते हैं, सत्यस्वरूप वेद का उपदेश देते हैं और असत्य की रोक-थाम करते हैं, उन गुरू को ही पिता और माता समझें और उनके उपकार को जानकर कभी उनसे द्रोह न करें।
जो लोग विद्या पढ़कर गुरू का आदर नहीं करते, निकट रहकर मन, वाणी और क्रिया द्वारा गुरू की सेवा नहीं करते, उन्हें गर्भ के बालक की हत्या से भी बढ़कर पाप लगता है। संसार में उनसे बड़ा पापी दूसरा कोई नहीं है। जैसे, गुरूओं का कर्त्तव्य है शिष्य को आत्मोन्नति के पथ पर पहुँचाना, उसी तरह शिष्यों का धर्म है गुरूओं का पूजन करना।
अतः जो पुरातन धर्म का फल पाना चाहते हैं, उन्हें चाहिए की वे गुरूओं की पूजा-अर्चना करें और प्रयत्नपूर्वक उन्हें आवश्यक वस्तुएँ समर्पित करें।
मनुष्य जिस कर्म से पिता को प्रसन्न करता है, उसी के द्वारा प्रजापति ब्रह्माजी भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्ताव से वह माता को प्रसन्न कर लेता है, उसी के द्वारा समूची पृथ्वी की भी पूजा हो जाती है।
जिस कर्म से शिष्य गुरू को प्रसन्न करता है, उसी के द्वारा परब्रह्म परमात्मा की पूजा सम्पन्न हो जाती है। अतः माता-पिता से भी अधिक पूजनीय गुरू हैं।
गुरूओं के पूजित होने पर पितरों सहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं, इसलिए गुरू परम पूजनीय हैं।
किसी भी बर्ताव के कारण गुरू अपमान के योग्य नहीं होते। इसी तरह माता और पिता भी अनादर के योग्य नहीं हैं। जैसे, गुरू माननीय हैं वैसे ही माता-पिता भी माननीय हैं।
वे तीनों कदापि अपमान के योग्य नहीं है। उनके लिए किये हुए किसी भी कार्य की निन्दा नहीं करनी चाहिए। गुरूजनों के इस सत्कार को देवता और महर्षि भी अपना सत्कार मानते हैं।
गुरू, पिता और माता के प्रति जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा द्रोह करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्या से भी बढ़कर महान पाप लगता है। संसार में उनसे बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं है।
जो पिता-माता का दत्तक पुत्र है, पाल पोसकर बड़ा कर दिया गया है, वह यदि अपने माता-पिता का भरण-पोषण नहीं करता है तो उसे भ्रूणहत्या से भी बढ़कर पाप लगता है और जगत में उससे बड़ा पापात्मा दूसरा कोई नहीं है।
मित्रद्रोही, कृतघ्न, स्त्रीहत्यारे और गुरूघाती, इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है।
इस जगत में पुरूष के द्वारा जो पालनीय हैं, वे सारी बातें यहाँ विस्तार के साथ बतायी गयी हैं। यही कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्त्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मों का अनुसरण करके यहाँ सबका सार बताया गया है।
(महाभारत शांतिपर्व)
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धर्म की पवित्र यज्ञवेदी में बलिदान देने वालों की परम्परा में गुरू गोविन्द सिंह के चार लाड़लों को, अमर शहीदों को भारत भुला सकता है ? नहीं, कदापि नहीं। अपने पितामह गुरूतेगबहादुर की कुर्बानी और भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत पिता गुरू गोविन्दसिंह ही उनके आदर्श थे। तभी तो इस नन्हीं सी 8-10 वर्ष की अवस्था में उन्होंने वीरता और धर्मपरायणता का जो प्रदर्शन किया उसे देखकर भारतवासी उनके लिये श्रद्धा से नतमस्तक हो उठते हैं।
गुरू गोविन्दसिंह की बढ़ती हुई शक्ति और शूरता को देखकर औरंगजेब झुंझलाया हुआ था। उसने शाही फरमान निकाला किः "पंजाब के सभी सूबों के हाकिम और सरदार तथा पहाड़ी क्षेत्रों के राजा मिलकर आनन्दपुर को बर्बाद कर डालो और गुरू गोविन्दसिंह को जिन्दा गिरफ्तार करो या उनका सिर काटकर शाही दरबार में हाजिर करो।"
बस, फिर क्या था ? मुगल सेना द्वारा आनंदपुर पर आक्रमण कर दिया गया। आनंदपुर किले में उपस्थित मुट्ठी भऱ सिक्ख सरदारों की सेना ने विशाल मुगल सेना को भी त्रस्त कर दिया। किन्तु धीरे-धीरे किले में रसद-सामान घटने लगा और सिक्ख सेना भूख से व्याकुल हो उठी। आखिरकार अपने साथियों की सलाह से बाध्य हो अनुकूल अवसर पाकर गुरू गोविन्द सिंह ने आधी रात में सपरिवार किला छोड़ दिया।
.....किन्तु न जाने कहाँ से यवनों को इसकी भनक लग गयी और दोनों सेनाओं में हलचल मच गयी। इसी भाग-दौड़ में गुरूगोविन्दसिंह के परिवार वाले अलग-अलग होकर भटक गये। गुरू गोविन्दसिंह की माता अपने दो छोटे-छोटे पौत्रों – जोरावरसिंह तथा फतेह सिंह के साथ दूसरी ओर निकल पड़ीं। उनके साथ रहने वाले रसोइये के विश्वासघात के कारण ये लोग विपक्षियों द्वारा गिरफ्तार किये गये और सरहिंद भेज दिये गये। सरहिंद सूबा के सरदार वजीद खाँ ने गुरू गोविन्दसिंह के हृदय को आघात पहुँचाने के ख्याल से उनके दोनों छोटे बच्चों को मुसलमान बनाने का निश्चय किया।
भरे दरबार में गुरू गोविन्दसिंह के इन दोनों पुत्रों से उसने पूछाः
"ऐ बच्चो ! तुम लोगों को इस्लाम धर्म की गोद में आना मंजूर है या कत्ल होना ?"
दो तीन बार पूछने पर जोरावरसिंह ने जवाब दियाः
"हमें कत्ल होना मंजूर है।"
कैसी दिलेरी है ! कितनी निर्भीकता ! जिस उम्र में बच्चे खिलौनों से खेलते रहते हैं, उस नन्हीं सी सुकुमार अवस्था में भी धर्म के प्रति इन बालकों की कितनी निष्ठा है !"
वजीद खाँ बोलाः "बच्चों ! इस्लाम धर्म में आकर सुख से जीवन व्यतीत करो। अभी तो तुम्हारा फलने-फूलने का समय है। मृत्यु से भी इस्लाम धर्म को बुरा समझते हो ? जरा सोचो ! अपनी जिंदगी व्यर्थ क्यों गँवा रहे हो ?"
गुरू गोविन्दसिंह के लाड़ले वे वीर पुत्र..... मानों गीता के इस ज्ञान को उन्होंने पूरी तरह आत्मसात् कर लिया थाः स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह। मरने से बढ़कर सुख देने वाला दुनिया में कोई काम नहीं। अपने धर्म की मर्यादा पर मिटना तो हमारे कुल की रीति है। हम लोग इस क्षणभंगुर जीवन की परवाह नहीं करते। मर-मिटकर भी धर्म की रक्षा करना ही हमारा अंतिम ध्येय है। चाहे तुम कत्ल करो या तुम्हारी जो इच्छा हो, करो।"
गुरू
गोविन्दसिंह
के पुत्र महान
न छोड़ा धर्म
हुए कुर्बान.......
इसी प्रकार फतेहसिंह ने भी बड़ी निर्भीकतापूर्वक धर्म को न त्यागकर मृत्यु का वरण श्रेयस्कर समझा। शाही दरबार आश्चर्यचकित हो उठा किः "इस नन्हीं-सी आयु में भी अपने धर्म के प्रति कितनी अडिगता है ! इन नन्हें-नन्हें सुकुमार बालकों में कितनी निर्भीकता है !" किन्तु अन्यायी शासक को भला यह कैसे सहन होता ? काजियों एवं मुल्लाओं की राय से इन्हें जीते जी दीवार में चिनवाने का फरमान जारी कर दिया गया।
कुछ ही दूरी पर दोनों भाई दीवार में चिने जाने लगे, तब धर्मांध सूबेदार ने कहाः
"ऐ बालकों ! अभी भी चाहो तो तुम्हारे प्राण बच सकते हैं। तुम लोग कलमा पढ़कर मुसलमान धर्म स्वीकार कर लो। मैं तुम्हें नेक सलाह देता हूँ।"
यह सुनकर वीर जोरावरसिंह गरज उठाः
"अरे अत्याचारी नराधम ! तू क्या बकता है ? मुझे तो खुशी है कि पंचम गुरू अर्जुनदेव और दादागुरू तेगबहादुर के आदर्शों को पूरा करने के लिए मैं अपनी कुर्बानी दे रहा हूँ। तेरे जैसे अत्याचारियों से यह धर्म मिटने वाला नहीं, बल्कि हमारे खून से वह सींचा जा रहा है और आत्मा तो अमर है, इसे कौन मार सकता है ?" दीवार शरीर को ढँकती हुई ऊपर बढ़ती जा रही थी। छोटे भाई फतेहसिंह की गर्दन तक दीवार आ गई थी। वह पहले ही आँखों से ओझल हो जाने वाला था। यह देखकर जोरावरसिंह की आँखों में आँसू आ गये। सूबेदार को लगा कि अब मुलजिम मृत्यु से भयभीत हो रहा है। अतः मन ही मन प्रसन्न होकर बोलाः "जोरावर ! अब भी बता दो तुम्हारी क्या इच्छा है ? रोने से क्या होगा ?"
जोरावरसिंहः "मैं बड़ा अभागा हूँ कि अपने छोटे भाई से पहले मैंने जन्म धारण किया, माता का दूध और जन्मभूमि का अन्न-जल ग्रहण किया, धर्म की शिक्षा पाई किन्तु धर्म के निमित्त जीवन-दान देने का सौभाग्य मेरे से पहले मेरे छोटे भाई फतेह को प्राप्त हो रहा है। इसीलिए मुझे आज खेद हो रहा है कि मुझसे पहले मेरा छोटा भाई कुर्बानी दे रहा है।"
लोग दंग रह गये कि कितने साहसी हैं ये बालक ! जो प्रलोभनों और जुल्मियों द्वारा अत्याचार किये जाने पर भी वीरतापूर्वक स्वधर्म में डटे रहे।
उधर गुरू गोविन्दसिंह की पूरी सेना युद्ध में काम आ गई। यह देखकर उनके बड़े पुत्र अजीतसिंह से नहीं रहा गया और वे पिता के पास आकर बोल उठेः
"पिता जी ! जीते जी बन्दी होना कायरता है, भागना बुजदिली है। इससे अच्छा है लड़कर मरना। आप आज्ञा करें, इन यवनों के छक्के छुड़ा दूँ या मृत्यु का आलिंगन करूँ।"
वीर पुत्र अजीतसिंह की बात सुनकर गुरू गोविन्दसिंह का हृदय प्रसन्न हो उठा और वे बोलेः
"शाबाश ! धन्य हो, पत्र ! जाओ, स्वदेश और स्वधर्म के निमित्त अपना कर्त्तव्यपालन करो। हिन्दू धर्म को तुम्हारे जैसे वीर बालकों की कुर्बानी की आवश्यकता है।
पिता की आज्ञा पाकर अत्यंत प्रसन्नता एवं जोश के साथ अजीतसिंह आठ-दस सिक्खों के साथ युद्ध-स्थल में जा धमका और देखते ही देखते यवन सेना के बड़े-बड़े सरदारों को मौत के घाट उतारते हुए खुद भी शहीद हो गया।
ऐसे वीर बालकों की गाथा से ही भारतीय इतिहास अमर हो रहा है।
अपने बड़े भाइयों को वीरगति प्राप्त करते देखकर उनसे छोटा भाई जुझारसिंह भला कैसे चुप बैठता ? वह भी अपने पिता गुरू गोविन्दसिंह के पास जा पहुँचा और बोलाः
"पिता जी ! बड़े भैया तो वीरगति को प्राप्त हो गये इसलिए मुझे भी भैया का अनुगामी बनने की आज्ञा दीजिए।" गुरू गोविन्दसिंह का हृदय भर आया और उन्होंने जुझार को गले लगा लिया। वे बोलेः "जाओ, बेटा ! तुम भी अमरपद प्राप्त करो, देवता तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।"
धन्य है पुत्र की वीरता और धन्य है पिता की कुर्बानी ! अपने तीन पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् स्वदेश एवं स्वधर्म-पालन के निमित्त अपने चौथे एवं अंतिम पुत्र को भी प्रसन्नता से धर्म एवं स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर चढ़ने के निमित्त स्वीकृति प्रदान कर दी !
वीर जुझारसिंह 'सत् श्री अकाल' कहकर उछल पड़ा। उसका रोम-रोम शत्रु को परास्त करने के लिए फड़काने लगा। स्वयं पिता ने उसे वीरों के वेश से सुसज्जित करके आशीर्वाद दिया और वीर जुझार पिता को प्रणाम करके अपने कुछ सरदार साथियों के साथ निकल पड़ा युद्धभूमि की ओर। जिस ओर जुझार गया उस ओर दुश्मनों का तीव्रता से सफाया होने लगा और ऐसा लगने लगा मानों महाकाल की लपलपाती जिह्वा सेनाओं को चाट रही है। देखते-देखते मैदान साफ हो गया। अंत में शत्रुओं से जूझते वह वीर बालक भी मृत्यु की भेंट चढ़ गया। देखने वाले दुश्मन भी उसकी प्रशंसा किये बिना न रह सके।
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सत्र 2
ललाट पर दोनों भौहों के बीच विचारशक्ति का केन्द्र है। योगी इसे आज्ञाचक्र कहते हैं। इसे शिवनेत्र अर्थात् कल्याणकारी विचारों का केन्द्र भी कहा जाता है।
यहाँ किया गया चन्दन अथवा सिन्दूर आदि का तिलक विचारशक्ति एवं आज्ञाशक्ति को विकसित करता है। इसलिए हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ कार्य करते समय ललाट पर तिलक किया जाता है।
पूज्यपाद संत श्री आसाराम बापू को चन्दन का तिलक लगाकर सत्संग करते हुए लाखों-करोड़ों लोगों ने देखा है। वे लोगों को भी तिलक करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। भाव प्रधान, श्रद्धाप्रधान केन्द्रों में जीने वाली महिलाओं की समझ बढ़ाने के उद्देश्य से ऋषियों ने तिलक की परम्परा शुरू की। अधिकांश स्त्रियों का मन स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर केन्द्र में ही रहता है। इन केन्द्रों में भय, भाव और कल्पना की अधिकता होती है। वे भावना एवं कल्पनाओं में बह न जायें, उनका शिवनेत्र, विचारशक्ति का केन्द्र विकसित होता हो इस उद्देश्य से ऋषियों ने स्त्रियों के लिए बिन्दी लगाने का विधान रखा है।
गार्गी, शाण्डिली, अनुसूया एवं अन्य कई महान नारियाँ इस हिन्दू धर्म में प्रगट हुई हैं। महान वीरों, महान पुरूषों, महान विचारकों तथा परमात्मा के दर्शन कराने का सामर्थ्य रखने वाले संतों को जन्म देने वाली मातृशक्ति को आज कई मिशनरी स्कूलों में तिलक करने से रोका जाता है। इस तरह का अत्याचार हिन्दुस्तानी कहाँ तक सहते रहेंगे ? मिशनरियों के षडयंत्रों का शिकार कब तक बनते रहेंगे ?
सरकार में घुसे मिशनरियों के दलाल, चमचे और धन लोलुप अखबार वाले जो ग्रीस व रोम की तरह इस भारत देश को तबाह करने पर उतारू हैं, उन धिक्कार के पात्रों को खुले आम सबक सिखाओ।
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जनवरी माह की 12 से 14 तारीख के बीच मकर सक्रान्ति का पर्व आता है। इस समय सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, इसीलिए इसे मकर सक्रान्ति कहते हैं। खगोलशास्त्रियों ने 14 जनवरी को मकर सक्रान्ति का दिवस तय कर लिया है। बाकी तो सूर्य का मकर राशि में प्रवेश कभी 12 से होता है, कभी 13 से तो कभी 14 तारीख से। ऐसा भी कहते हैं कि इस दिन से सूर्य का रथ उत्तर दिशा की ओर चलता है, अतः इसे उत्तरायण कहते हैं।
हमारे छः महीने बीतते है तब देवताओं की एक रात होती है और छः महीने का एक दिन। मकर सक्रान्ति के दिन देवता लोग भी जागते हैं। हम पर उन देवताओं की कृपा बरसे, इस भाव से भी यह पर्व मनाया जाता है। कहते हैं कि इस दिन यज्ञ में दिये गये द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वसुंधरा पर देवता अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्मा पुरूष शरीर छोड़कर स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश करते हैं, इसलिए यह आलोक का अवसर माना गया है। धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यंत महत्त्व है। इस अवसर पर दिया हुआ दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना होकर प्राप्त होता है।
यह प्राकृतिक उत्सव है, प्रकृति से तालमेल कराने वाला उत्सव है। दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी दिन से होती है। वहाँ यह पर्व 'थई पोंगल' के नाम से जाना जाता है। सिंधी लोग इस पर्व को 'तिरमौरी' कहते है। उत्तर भारत में यह पर्व 'मकर सक्रान्ति के नाम से और गुजरात में 'उत्तरायण' नाम से जाना जाता है।
आज का दिवस विशेष पुण्य अर्जित करने का दिवस है। आज के दिन शिवजी ने अपने साधकों पर, ऋषियों पर विशेष कृपा की थी। ऐसा भी माना जाता है आज के दिन भगवान शिव ने विष्णु जी को आत्मज्ञान का दान दिया था। तैत्तीरीय उपनिषद् में आता हैः एकं वा एतद् देवानाहंयत्संवत्सरः। देवों का संवत्सर गिनने का यह एक ही दिन है। विक्रम संवत्सर के पूर्व इसी दिन से संवत्सर की शुरूआत मानी जाती थी, ऐसा भी वर्णन आता है।
मकर सक्रान्ति के दिन किये गये सत्कर्म विशेष फल देते हैं। आज के दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल-हवन, तिल-भोजन तथा तिल-दान सभी पापनाशक प्रयोग हैं। इसलिए इस दिन तिल और गुड़ या तिल और चीनी से बने लड्डू खाने तथा दान देने का अपार महत्त्व है। तिल के लड्डू खाने से मधुरता और स्निग्धता प्राप्त होती है तथा शरीर पुष्ट होता है। शीतकाल में इनका सेवन लाभप्रद है। महाराष्ट्र में आज के दिन एक-दूसरे को तिल-गुड़ देकर मधुरता का, सामर्थ्य का, परस्पर आंतरिक प्रेमवृद्धि का और आरोग्यता का संकल्प किया जाता है। वहाँ के लोग परस्पर तिल-गुड़ प्रदान करके कहते हैं- तिळ गुड़ घ्या गोड गोड बोला। अर्थात् तिल-गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।
यह तो हुआ लौकिक रूप से संक्रांति मनाना किंतु मकर सक्रांति का आध्यात्मिक तात्पर्य है जीवन में सम्यक् क्रान्ति। अपने चित्त को विषय विकारों से हटाकर निर्विकारी नारायण में लगाने का और सम्यक् क्रांति का संकल्प करने का यह दिन है। अपने जीवन को परमात्म-ध्यान, परमात्म-ज्ञान और परमात्म प्राप्ति की ओर ले जाने संकल्प का बढ़िया से बढ़िया जो दिन है, वही संक्रांति का दिन है।
मानव सदा ही सुख का प्यासा रहा है। उसे सम्यक् सुख नहीं मिलता है तो अपने को असम्यक् सुख में खपा-खपा कर कई जन्मों तक जन्मता-मरता रहता है। अतः अपने जीवन में सम्यक् सुख पाने के लिए पुरूषार्थ करना चाहिए। वास्तविक सुख क्या है ? परमात्मा-प्राप्ति। अतः उस परमात्म-प्राप्ति का सुख पाने के लिए कटिबद्ध होने का दिवस ही है सक्रांति। संक्रांति का पर्व हमें सिखाता है कि हमारे जीवन में भी सम्यक् क्रान्ति आ जाये। हमारा जीवन निर्भयता और प्रेम से परिपूर्ण हो जाय। तिल-गुड़ का आदान-प्रदान परस्पर प्रेमवृद्धि का ही तो द्योतक है !
संक्रांति के दिन दान का विशेष महत्त्व है। अतः जितना संभव हो सके, उतना किसी गरीब को अन्नदान करें। तिल के लड्डू भी दान किये जाते हैं। आज के दिन सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। तुम यह सब न कर सको तो भी कोई हर्ज नहीं किन्तु हरिनाम का रस तो जरूर पिलाना। अच्छे में अच्छा तो परमात्मा है। उसका नाम लेते लेते यदि अपने अहं को सदगुरू के चरणों में, संतों के चरणों में अर्पित कर दो तो फायदा ही फायदा है।...... और अहंदान से बढ़कर तो कोई दान नहीं है। अगर अपना आपा संतों के चरणों में, सदगुरू के चरणों में दान कर दिया जाय तो फिर चौरासी का चक्कर सदा के लिए मिट जाय।
संक्रान्ति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर प्रयाण करता है। उसी तरह तुम भी इस मकर संक्रांति के पर्व पर संकल्प कर लो कि अब हम अपने जीवन को उत्तर की ओर अर्थात् उत्थान की ओर ले जायेंगे। अपने विचारों को उत्थान की तरफ मोड़ंगे। यदि ऐसा कर सको तो आज का दिन तुम्हारे लिए परम मांगलिक दिन हो जायेगा। पहले के जमाने में आज के दिन लोग अपने तुच्छ जीवन को बदलकर महान बनाने का संकल्प करते थे।
हे साधक ! तू भी आज संकल्प कर कि अपने जीवन में सम्यक् क्रान्ति-संक्रांति लाऊँगा। अपनी तुच्छ, गंदी आदतों को कुचल दूँगा और दिव्य जीवन बिताऊँगा। प्रतिदिन प्रार्थना करूँगा, जप ध्यान करूँगा, स्वाध्याय करूँगा और अपने जीवन को महान बनाकर ही रहूँगा। प्राणिमात्र के जो परम हितैषी हैं, उन परमात्मा की लीला में प्रसन्न रहूँगा। चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे सुख मिले चाहे दुःख, किंतु सबके पीछे देने वाले के करूणामय हाथों को ही देखूँगा। प्रत्येक परिस्थिति में सम रहकर अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी और दिव्य बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा।
हरि
ॐ....ॐ......ॐ......ॐ......
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सत्र 3
शास्त्रों
में आता है कि
जिसने
माता-पिता तथा
गुरू का आदर
कर लिया उसके
द्वारा
संपूर्ण लोकों
का आदर हो गया
और जिसने इनका
अनादर कर दिया
उसके संपूर्ण
शुभ कर्म
निष्फल हो
गये। वे बड़े
ही भाग्यशाली
हैं,
जिन्होंने
माता-पिता और
गुरू की सेवा
के महत्त्व को
समझा तथा उनकी
सेवा में अपना
जीवन सफल
किया। ऐसा ही
एक भाग्यशाली
सपूत था - पुण्डलिक।
पुण्डलिक
अपनी
युवावस्था
में
तीर्थयात्रा करने
के लिए निकला।
यात्रा
करते-करते
काशी पहुँचा।
काशी में
भगवान
विश्वनाथ के दर्शन
करने के बाद
उसने लोगों से
पूछाः क्या यहाँ
कोई पहुँचे
हुए महात्मा
हैं, जिनके
दर्शन करने से
हृदय को शांति
मिले और ज्ञान
प्राप्त हो?
लोगों
ने कहाः हाँ
हैं। गंगापर
कुक्कुर मुनि का
आश्रम है। वे
पहुँचे हुए
आत्मज्ञान
संत हैं। वे
सदा परोपकार
में लगे रहते
हैं। वे इतनी
उँची कमाई के
धनी हैं कि
साक्षात माँ गंगा,
माँ यमुना और
माँ सरस्वती
उनके आश्रम में
रसोईघर की
सेवा के लिए
प्रस्तुत हो
जाती हैं। पुण्डलिक
के मन में
कुक्कुर मुनि
से मिलने की जिज्ञासा
तीव्र हो उठी।
पता
पूछते-पूछते
वह पहुँच गया
कुक्कुर मुनि
के आश्रम में।
मुनि के देखकर
पुण्डलिक ने
मन ही मन
प्रणाम किया
और सत्संग वचन
सुने। इसके
पश्चात पुण्डलिक
मौका पाकर
एकांत में
मुनि से मिलने
गया। मुनि ने
पूछाः वत्स!
तुम कहाँ से आ
रहे हो?
पुण्डलिकः
मैं पंढरपुर
(महाराष्ट्र)
से आया हूँ।
तुम्हारे
माता-पिता
जीवित हैं?
हाँ
हैं।
तुम्हारे
गुरू हैं?
हाँ,
हमारे गुरू
ब्रह्मज्ञानी
हैं।
कुक्कुर
मुनि रूष्ट
होकर बोलेः
पुण्डलिक! तू बड़ा
मूर्ख है।
माता-पिता
विद्यमान हैं,
ब्रह्मज्ञानी
गुरू हैं फिर
भी तीर्थ करने
के लिए भटक
रहा है? अरे
पुण्डलिक!
मैंने जो कथा
सुनी थी उससे
तो मेरा जीवन
बदल गया। मैं
तुझे वही कथा
सुनाता हूँ।
तू ध्यान से
सुन।
एक
बार भगवान
शंकर के यहाँ
उनके दोनों
पुत्रों में
होड़ लगी कि,
कौन बड़ा?
निर्णय
लेने के लिए
दोनों गय़े
शिव-पार्वती
के पास।
शिव-पार्वती
ने कहाः जो
संपूर्ण
पृथ्वी की
परिक्रमा
करके पहले
पहुँचेगा, उसी
का बड़प्पन
माना जाएगा।
कार्तिकेय
तुरन्त अपने
वाहन मयूर पर
निकल गये
पृथ्वी की
परिक्रमा
करने। गणपति
जी चुपके-से
एकांत में चले
गये। थोड़ी
देर शांत होकर
उपाय खोजा तो
झट से उन्हें
उपाय मिल गया।
जो ध्यान करते
हैं, शांत
बैठते हैं
उन्हें
अंतर्यामी परमात्मा
सत्प्रेरणा
देते हैं। अतः
किसी कठिनाई
के समय घबराना
नहीं चाहिए बल्कि
भगवान का
ध्यान करके
थोड़ी देर
शांत बैठो तो
आपको जल्द ही
उस समस्या का
समाधान मिल
जायेगा।
फिर
गणपति जी आये
शिव-पार्वती
के पास।
माता-पिता का
हाथ पकड़ कर
दोनों को ऊँचे
आसन पर बिठाया,
पत्र-पुष्प से
उनके
श्रीचरणों की
पूजा की और
प्रदक्षिणा
करने लगे। एक
चक्कर पूरा
हुआ तो प्रणाम
किया.... दूसरा
चक्कर लगाकर प्रणाम
किया.... इस
प्रकार
माता-पिता की
सात प्रदक्षिणा
कर ली।
शिव-पार्वती
ने पूछाः
वत्स! ये
प्रदक्षिणाएँ
क्यों की?
गणपतिजीः
सर्वतीर्थमयी
माता...
सर्वदेवमयो
पिता... सारी
पृथ्वी की
प्रदक्षिणा
करने से जो
पुण्य होता है,
वही पुण्य
माता की
प्रदक्षिणा
करने से हो जाता
है, यह
शास्त्रवचन
है। पिता का
पूजन करने से
सब देवताओं का
पूजन हो जाता
है। पिता देवस्वरूप
हैं। अतः आपकी
परिक्रमा
करके मैंने संपूर्ण
पृथ्वी की सात
परिक्रमाएँ
कर लीं हैं।
तब से गणपति
जी प्रथम
पूज्य हो गये।
शिव-पुराण
में आता हैः
पित्रोश्च
पूजनं कृत्वा
प्रक्रान्तिं
च करोति यः।
तस्य वै
पृथिवीजन्यफलं
भवति निश्चितम्।
अपहाय
गृहे यो वै
पितरौ
तीर्थमाव्रजेत्।
तस्य पापं तथा
प्रोक्तं
हनने च
तयोर्यथा।।
पुत्रस्य
च महत्तीर्थं
पित्रोश्चरणपंकजम्।
अन्यतीर्थं
तु दूरे वै
गत्वा सम्प्राप्यते
पुनः।।
इदं
संनिहितं
तीर्थं सुलभं
धर्मसाधनम्।
पुत्रस्य य
स्त्रियाश्चैव
तीर्थं गेहे
सुशोभनम्।।
जो
पुत्र
माता-पिता की
पूजा करके
उनकी प्रदक्षिणा
करता है, उसे
पृथ्वी-परिक्रमाजनित
फल सुलभ हो
जाता है। जो
माता-पिता को
घर पर छोड़ कर
तीर्थयात्रा
के लिए जाता
है, वह
माता-पिता की
हत्या से
मिलने वाले
पाप का भागी
होता है
क्योंकि
पुत्र के लिए
माता-पिता के
चरण-सरोज ही
महान तीर्थ
हैं। अन्य
तीर्थ तो दूर
जाने पर
प्राप्त होते
हैं परंतु
धर्म का
साधनभूत यह
तीर्थ तो पास
में ही सुलभ
है। पुत्र के
लिए
(माता-पिता) और
स्त्री के लिए
(पति) सुंदर
तीर्थ घर में
ही विद्यमान
हैं।
(शिव पुराण, रूद्र सं..
कु खं.. - 20)
पुण्डलिक
मैंने यह कथा
सुनी और अपने
माता-पिता की
आज्ञा का पालन
किया। यदि
मेरे
माता-पिता में
कभी कोई कमी
दिखती थी तो
मैं उस कमी को
अपने जीवन में
नहीं लाता था
और अपनी
श्रद्धा को भी
कम नहीं होने
देता था। मेरे
माता-पिता प्रसन्न
हुए। उनका
आशीर्वाद मुझ
पर बरसा। फिर
मुझ पर मेरे
गुरूदेव की
कृपा बरसी
इसीलिए मेरी
ब्रह्मज्ञा
में स्थिति
हुई और मुझे
योग में भी
सफलता मिली।
माता-पिता की
सेवा के कारण
मेरा हृदय
भक्तिभाव से
भरा है। मुझे
किसी अन्य
इष्टदेव की
भक्ति करने की
कोई मेहनत नहीं
करनी पड़ी।
मातृदेवो
भव। पितृदेवो
भव।
आचार्यदवो
भव।
मंदिर
में तो पत्थर
की मूर्ति में
भगवान की कामना
की जाती है
जबकि
माता-पिता तथा
गुरूदेव में
तो सचमुच
परमात्मदेव
हैं, ऐसा
मानकर मैंने
उनकी
प्रसन्नता
प्राप्त की।
फिर तो मुझे न
वर्षों तक तप
करना पड़ा, न
ही अन्य
विधि-विधानों
की कोई मेहनत
करनी पड़ी।
तुझे भी पता
है कि यहाँ के
रसोईघर में
स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती
आती हैं।
तीर्थ भी
ब्रह्मज्ञानी
के द्वार पर
पावन होने के
लिए आते हैं।
ऐसा
ब्रह्मज्ञान
माता-पिता की
सेवा और ब्रह्मज्ञानी
गुरू की कृपा
से मुझे मिला
है।
पुण्डलिक
तेरे
माता-पिता
जीवित हैं और
तू तीर्थों
में भटक रहा
है?
पुण्डलिक
को अपनी गल्ती
का एहसास हुआ।
उसने कुक्कुर
मुनि को
प्रणाम किया
और पंढरपुर
आकर माता-पिता
की सेवा में
लग गया।
माता-पिता
की सेवा ही
उसने प्रभु की
सेवा मान ली।
माता-पिता के
प्रति उसकी
सेवानिष्ठा
देखकर भगवान
नारायण बड़े
प्रसन्न हुए
और स्वयं उसके
समक्ष प्रकट
हुए।
पुण्डलिक उस
समय माता-पिता
की सेवा में
व्यस्त था।
उसने भगवान को
बैठने के लिए
एक ईंट दी।
अभी
भी पंढरपुर
में पुण्डलिक
की दी हुई ईंट
पर भगवान
विष्णु खड़े
हैं और
पुण्डलिक की
मातृ-पितृभक्ति
की खबर दे रहा
है पंढरपुर
तीर्थ।
यह
भी देखा गया
है कि
जिन्होंने
अपने माता-पिता
तथा
ब्रह्मज्ञानी
गुरू को रिझा
लिया है, वे भगवान
के तुल्य पूजे
जाते हैं।
उनको रिझाने के
लिए पूरी
दुनिया
लालायित रहती
है। वे
मातृ-पितृभक्ति
से और
गुरूभक्ति से
इतने महान हो
जाते हैं।
जो
माता-पिता,
स्वजन, पति
आदि सत्संग या
भगवान के
रास्ते, ईश्वर
के रास्ते
जाने से रोकते
हैं तो उनकी
बात नहीं
माननी चाहिए।
जैसे, मीरा ने पति
की बात ठुकरा
दी और
प्रह्लाद ने पिता
की।
गोस्वामी
जी के वचन हैं
किः
जाके
प्रिय न राम
बैदेही, तजिए
ताहि कोटि
बैरी सम, जद्यपि
परम सनेही।
भागवत
में भी कहा
हैः
गुरूर्न स
स्यात्स्वजनो
न स स्यात्
पिता न स स्याज्जननी
न सा स्यात्।
देवं न
तत्स्यान्न
पतिश्च स
स्यान्न
मोचयेद्यः
समुपेतमृत्युम्।।
'जो अपने
प्रिय
सम्बन्धी को
भगवद् भक्ति
का उपदेश देकर
मृत्यु की
फाँसी से नहीं
छुड़ाता, वह गुरू
नहीं है,
स्वजन स्वजन
नहीं है, पिता
पिता नहीं है,
माता माता
नहीं है,
इष्टदेव
इष्टदेव नहीं
है और पति पति
नहीं है।'
(श्रीमद्
भागवतः 5.5.18)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरू
गोविन्दसिंह
का शिष्य
कन्हैया
युद्ध के
मैदान में
पानी की प्याऊ
लगाकर सभी
सैनिकों को
पानी पिलाता
था। कभी-कभी
मुगलों के
सैनिक भी आ
जाते थे पानी
पीने के लिए।
यह देखकर
सिक्खों ने गुरू
गोविन्दसिंह
से कहाः "गुरूजी ! यह कन्हैया
अपने सैनिकों
को तो जल
पिलाता ही है
किन्तु
दुश्मन
सैनिकों को भी
पिलाता है। दुश्मनों
को तो तड़पने
देना चाहिए न ?"
गुरू
गोविन्दसिंह
ने कन्हैया को
बुलाकर पूछाः "क्यों भाई ! दुश्मनों
को भी पानी
पिलाता है ? अपनी ही फौज
को पानी
पिलाना चाहिए
न ?"
कन्हैयाः "गुरू जी ! जब से आपकी
कृपा हुई है
तब से मुझे
सबमें आपका ही
स्वरूप दिखता
है।
अपने-पराये
सबमें मुझे तो
गुरूदेव ही
लीला करते नजर
आते हैं। मैं
अपने गुरूदेव
को देखकर कैसे
इन्कार करूँ ?"
तब गुरू
गोविन्दसिंह
ने कहाः "सैनिकों ! कन्हैया ने
जितना मुझे
समझा है, इतना
मुझे किसी ने
नहीं समझा।
कन्हैया को
अपना काम करने
दो।"
जिन्हें
परमात्मतत्त्व
का,
गुरूतत्त्व
का बोध हो
जाता है, उनके
चित्त से
शत्रुता,
घृणा, ग्लानि,
भय, शोक,
प्रलोभन,
लोलुपता,
अपना-पराया आदि
की सत्यता, ये
सब विदा हो
जाते हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 4
वर्त्तमान
समय में
अंग्रेजी
भाषा का
प्रचलन इस कदर
हमारे बीच में
फैल गया कि
हमारी संस्कृति
का दम घुट रहा
है और हमें
पता ही नहीं
कि हमारे
बोलने से,
खाने पीने से,
उठने बैठने से
और परस्पर
व्यवहार से आज
अंग्रजीयत की
बू आती है। इसमें
अंग्रेजी
भाषा तो इस
प्रकार छा गई
है कि उसके
बिना कोई काम
ही नहीं होता ! पाश्चात्य
शिक्षा
पद्धति ने
हमको हमारी
भारतीय
संस्कृति से
कोसों दूर
लाकर खड़ा कर
दिया है। अंग्रेजों
के द्वारा
लायी गयी इस
शिक्षा पद्धति
के पीछे हमारा
कितना बड़ा
पतन छिपा है
इसको हमने
जानने की कभी
कोशिश ही नहीं
की।
अंग्रेजों
का 1858 में 'इंडियन
एजुकेशन एक्ट' बनाने के
पीछे लार्ड
मैकाले की
कितनी घिनौनी योजना
थी, उससे हम
अपरिचित तो
नहीं हैं, फिर
भी हमने कभी
इस ओर ध्यान
देने की जरूरत
ही नहीं समझी।
लार्ड मैकाले
कहा करता थाः 'यदि इस देश
को हमेशा के
लिए गुलाम
बनाना चाहते
हो तो
हिन्दुस्तान
की स्वदेशी
शिक्षा पद्धति
को समाप्त कर
उसके स्थान पर
अंग्रजी
शिक्षा पद्धति
लाओ। फिर इस
देश में शरीर
से तो हिन्दुस्तानी
लेकिन दिमाग
से अंग्रेज
पैदा होंगे।
जब वे लोग इस
देश के
विश्वविद्यालय
से निकलकर
शासन करेंगे
तो वह शासन
हमारे हित में
होगा।' यह थी लार्ड
मैकाले की
शिक्षा
पद्धति।
परंतु हम
समझते हैं कि
इसी पद्धति से
हम आगे बढ़े
हैं लेकिन
वास्तव में
आगे बढ़ने का
दिखावा मात्र करते
हुए आज हम
इतने पीछे चले
गये कि हम
कहाँ से चले
थे वह स्थान
ही भूल गये।
मैकाले का
वह घिनौना
षडयंत्र आज हम
सबके सामने
अपनी जड़ें
फैला रहा है
और हम उसे खाद
पानी देते जा
रहे हैं। आज
विद्यालयों
में फैल रही
अनैतिकता,
अपराधीकरण
तथा
विद्यार्थियों
के मानसिक असंतुलन
का कारण यही
लार्ड मैकाले
की शिक्षा पद्धति
है जिसने
हिन्दुस्तान
को काले
अंग्रेजों का
देश बनाने में
लगभग सफलता
हासिल कर ली
है। आज के
हिन्दुस्तान
को काले
अंग्रेजों का
देश बनाने में
लगभग सफलता
हासिल कर ली
है। आज के हिन्दुस्तान
को कोई देखे
तो यह अनुमान
नहीं लगा सकता
कि इस देश में
कभी
श्रीकृष्ण,
श्रीराम व
युधिष्ठिर
जैसे महान
राजाओं को
जन्म देने
वाली गुरूकुल
शिक्षा
पद्धति रही
होगी।
गाँधीजी व
स्वामी
विवेकानन्द
के जीवन को
अगर देखें तो
मैकाले
शिक्षा
पद्धति की
असलियत साफ
नजर आती है।
मैकाले
पद्धति से
ऊँची शिक्षा प्राप्त
करके भी जब
अपने जीवन को
नीरस जाना तो गाँधी
जी ने भारतीय
शास्त्रों व
विवेकानंदजी
ने सदगुरू की
शरण ली तथा
अंग्रेजों की
इस पद्धति का
जोरदार विरोध
किया और अपने
पूरे जीवन को
अंग्रजियत के
खिलाफ
संग्राम करने
में लगा दिया।
इन्डियन
ऐजुकेशन नाम
का यह एक्ट
जिसे हम अपनी
भारतीय
संस्कृति पर
बदनुमा दाग भी
कह सकते हैं
को 1858 में
अंग्रेजी
सरकार ने लागू
किया। इसके
बाद कलकत्ता,
मुंबई तथा
मद्रास विश्वविद्यालय
की स्थापना
हुई। इनमें जो
कानून 1858 में
चलता था वही
आज भी चलता
है। ये तीनों
विश्वविद्यालय
हमारी गुलामी
के प्रतीक के
रूप में इस
देश में खड़े
हैं और हमको
इन विश्वविद्यालयों
में पढ़ने का
अभिमान होता
है। कितनी
गुलामी भर गयी
है हमारे जीवन
में ! अगर अपने
जीवन को
टटोलकर देखें
तो हम आज भी वही
गुलामी की
जिन्दगी जी
रहे हैं जो 50
वर्ष पहले जी
रहे थे। हम
भले अपने आपको
कितना भी आगे
बढ़ा हुआ
समझने का ढोंग
करते हों
किन्तु यदि
ठीक से देखें,
स्वतंत्रता
की दृष्टि से
देखें तो हम
अब वहाँ भी
नहीं हैं जहाँ
हम पहले थे।
हम उससे भी
लाखों कोस
पीछे जा चुके
हैं। हम आज 50
वर्ष पुरानी
गुलामी से भी
बदतर गुलामी
का जीवन जी
रहे हैं।
क्योंकि 50
वर्ष पहले
अंग्रेजों ने
गोलियों के बल
से हमारे शरीर
को गुलाम
बनाया था
लेकिन आज हम
स्वेच्छा से
अपने मन व
सम्पूर्ण
जीवन को
अंग्रेजियत
का गुलाम बना
चुके हैं।
इस गंभीर
स्थिति में
हमें चाहिए कि
हम अपनी मधुर
व हितभरी
स्वदेशी भाषा
का इस्तेमाल
करें। अपने
गुरूओं के
द्वारा चलायी
गयी गुरूकुल
पद्धति
द्वारा
भारतीय संस्कृति
के उच्च
संस्कारों से
विद्यार्थी के
जीवन को
सिंचित कर उसे
महान एवं
तेजस्वी नागरिक
बनायें। उसे
गुलाम नहीं
वरन्
स्वतंत्र देश
का सम्मानीय
स्वतंत्र
पुरूष बनायें
जिससे हम अपने
देश के खोये
गौरव को पुनः
प्राप्त कर सकें।
हम अपने
बच्चों को
अपनी
राष्ट्रभाषा,
मातृभाषा का
प्रयोग
सिखाएँ।
उन्हें
पाश्चात्य
संस्कृति के
मोहजाल में
फँसने से
बचाएँ। उन्हें
कान्वेंट
स्कूलों में न
पढ़कर भारतीय पद्धति
के अनुसार
गुरूओं की
पद्धति
द्वारा जैसे
विवेकानन्द
महान बने उस
पद्धति
द्वारा संयम और
सदाचार का
जीवन जीना
सिखाएँ ताकि
उनके द्वारा
भी हमें
हजारों
विवेकानंद,
रामतीर्थ, रामकृष्ण,
गुरूनानक
जैसे रत्न
प्राप्त हो
सकें व अपनी
मातृभूमि के
गौरव को चार
चाँद लगा
सकें।
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आज से 104 वर्ष पूर्व सन् 1893 में शिकागो में जब विश्वधर्म परिषद (World Religious Parliament) का आयोजन हुआ था तब भारत के धर्मप्रतिनिधि के रूप में स्वामी विवेकानंद वहाँ गये थे। विश्वधर्म परिषद वाले मानते थे कि ये तो भारत के कोई मामूली साधू हैं। इन्हें तो प्रवचन के लिए पाँच मिनट भी देंगे तो भी शायद कुछ नहीं बोल पाएँगे....
उन्होंने स्वामी विवेकानंद के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया और उनका मखौल उड़ाते हुए कहाः "सब धर्मग्रन्थों में आपका ग्रंथ सबसे नीचे है, अतः आप शून्य पर बोलें।"
प्रवचन की शुरूआत में स्वामी विवेकानंद द्वारा किये गये उदबोधन 'मेरे प्यारे अमेरिका के भाइयों और बहनों !' को सुनते ही श्रोताओं में इतना उल्लास छा गया कि दो मिनट तक तो तालियों की गड़गड़ाहट ही गूँजती रही। तत्पश्चात स्वामी विवेकानंद ने मानो सिंहगर्जना करते हुए कहाः
"हमारा धर्मग्रंथ सबसे नीचे है। उसका अर्थ यह नहीं है कि वह सबसे छोटा है अपितु सबकी संस्कृति का मूलरूप, सब धर्मों का आधार हमारा धर्मग्रंथ ही है। यदि मैं उस धर्मग्रंथ को हटा लूँ तो आपके सभी ग्रंथ गिर जाएँगे। भारतीय संस्कृति ही महान है तथा सर्व संस्कृतियों का आधार है। नेति.... नेति.... करते हुए वेद जिसका वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते है उस चैतन्य तत्त्व का ज्ञान पाना यही भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का बीज मंत्र है और इसीलिए भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वोच्च है, सर्वोपरि है।"
हिंदू धर्म को ऊपर-ऊपर से देखकर टीका करने वालों के समक्ष गंभीरता एवं सामर्थ्य से सच्चाई पेश करने में उन्होंने कीर्ति-अपकीर्ति के प्रश्न की परवाह नहीं की। परिषद में अपने प्रवचन के दौरान उन्होंने सभा को ललकारते हुए कहाः
"जिन्होंने स्वयं हिंदू धर्म के शास्त्र पढ़कर, इस धर्म का ज्ञान प्राप्त किया हो – ऐसे लोग हाथ ऊपर उठायें।"
......और उस विशाल सभा में कितने हाथ ऊपर उठे ? बस, केवल तीन-चार। देश-विदेश के धर्माध्यक्ष एवं सरकारी पुरूषों की सभा में हिंदू धर्म का ज्ञान रखने वाले केवल तीन-चार व्यक्ति ही थे।
तत्त्पश्चात् सभाजनों पर मधुर कटाक्ष करते हुए विवेकानन्द ने कहाः
".....और इसके बावजूद भी आप हमारा मूल्यांकन करने की धृष्टता कर रहे हो ?"
उस धर्मपरिषद में विवेकानंद को प्रवचन के लिए पाँच मिनट देने में भी जिन्हें तकलीफ होती थी, वे ही आयोजक उनके प्रवचनों के लिए श्रोताओं की ओर से प्राप्त सम्मान को देखकर विमूढ़ हो रहे थे।
विश्वधर्मपरिषद के विज्ञान शाखा के ऑनरेबल मेरविन-मेरी-स्नेल ने लिखा हैः "धर्मपरिषद पर एवं अधिकांश अमेरिकन लोगों पर हिन्दू धर्म ने जितना प्रभाव अंकित किया उतना अन्य किसी धर्म ने अंकित नहीं किया।"
ऐसी महान संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने की बजाय हम पश्चिम की संस्कृति का अंधानुकरण करने से मुक्त नहीं हो रहे हैं यह हमारे समाज और देश के लिए कितनी शर्मजनक बात है !
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सत्र 5
मार्गरेट नोबल आयरलैण्ड की एक महिला थी जो बाद में स्वामी विवेकानन्द की शिष्या बनी और भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुई।
मिदनापुर में स्वामी जी का भाषण चल रहा था। सब मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। कुछ युवकों ने हर्ष से 'हिप-हिप-हुर्रे.....' का उदघोष किया।
इस पर स्वामी जी ने भाषण बीच में रोककर उन्हें डाँटते हुए कहाः "चुप रहो। लज्जा आनी चाहिए तुम्हें। क्या तुम्हें अपनी भाषा का तनिक भी गर्व नहीं ? क्या तुम्हारे पिता अंग्रेज थे ? क्या तुम्हारी माँ गोरी चमड़ी की यूरोपियन थी ? अंग्रेजों की नकल क्या तुम्हें शोभा देती है ?"
यह सुनकर युवक स्तब्ध रह गये। सबके सिर झुक गये। फिर भगिनी निवेदिता ने कहा किः "भाषण की कोई बात अच्छी लगे तो स्वभाषा में बोला करो। सच्चिदानंद परमात्मा की जय..... भारत माता की जय.... सदगुरू की जय......" युवकों ने तत्काल उस निर्दश का पालन किया।
भारत में प्राचीन काल से ही प्रसन्नता के ऐसे अवसरों पर 'साधो-साधो' कहने की प्रथा थी जो पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण से लुप्त हो गयी। अंग्रेज तो चले गये, पर अंग्रेजी नहीं गई। अंग्रेजों की गुलामी से तो मुक्त हुए, पर अंग्रेजी के गुलाम हो गये।
अतः स्वतंत्र भारत के परतंत्र नागरिकों से निवेदन है कि वे भगिनी निवेदिता के वचनों को याद रखें, स्वभाषा का प्रयोग करें।
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हमारी सनातन संस्कृति में माता-पिता तथा गुरूजनों को नित्य चरणस्पर्श करके प्रणाम करने का विधान है। चरणस्पर्श करके प्रणाम न कर सकें तो दोनों हाथ जोड़कर ही नमस्कार करें। कन्याओं को तो किसी भी पुरूष के पैर छूकर प्रणाम करना ही नहीं चाहिए। शास्त्रों में आता हैः
अभिवादनशीलस्य
नित्यं
वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य
वर्द्धन्ते
आयुर्विद्या
यशो बलम्।।
'जो नम्रताशील हैं तथा नित्य बड़ों की सेवा करता है उसके आयु, विद्या, यश एवं बल ये चारों बढ़ते हैं।'
हमारी संस्कृति में अभिवादन करना 'गुड मार्निंग', 'गुड इवनिंग' अथवा 'हेलो-हाय' की भाँति एक निरर्थक व्यापार नहीं है जिसमें लाभ तो कुछ होता नहीं अपितु व्यर्थ की वाणी नष्ट होती है और चंचलता आती है। मनु आदि महर्षियों ने हमारी संस्कृति की अभिवादन पद्धति के चार लाभ बताये हैं – आयुवृद्धि, विद्यावृद्धि, यशवृद्धि एवं बलवृद्धि। यही चार वस्तुएँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। अर्थात् बड़ों के चरणस्पर्श करने से पुरूषार्थ चातुष्टय साधने में सहायता मिलती है।
यह मात्र कल्पना नहीं अपितु एक ऐसा कठोर सत्य है जिसे स्वीकार करने के लिए आज का विज्ञान भी मजबूर हो गया है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युतधारायें सतत प्रवाहित होती रहती हैं। शरीर के दायें भाग में धनात्मक एवं बायें हिस्से में ऋणात्मक विद्युतधाराओं की अधिकता होती है।
इस सिद्धान्त को हम पक्षाघात रोग के द्वारा भी समझ सकते हैं। इस रोग में व्यक्ति के शरीर का एक हिस्सा जड़ हो जाता है जबकि दूसरा हिस्सा पूर्ववत् क्रियाशील बना रहता है। अतः मानव शरीर एक होने के बावजूद भी उसके दो हिस्सों में दो अलग-अलग प्रकार की विद्युतधारायें बहती रहती हैं।
जब हम माता-पिता तथा गुरूजनों को प्रणाम करते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारे दायें-बायें अंग उनके दायें-बायें अंगों से विपरीत होते हैं। जब हम अपनी ऋषिपरम्परा के अनुसार अपने हाथों से चौकड़ी (X) का चिन्ह बनाते हुए अपने दायें हाथ से उनका दायाँ चरण तथा बायें हाथ से बायाँ चरण छूते हैं तो हमारे तथा उनके शरीर की धनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युतधाराएँ आपस में मिल जाती हैं जिसे वैज्ञानिक लोग औरा (Aura) बोलते हैं।
इसके बाद जब वे आदरणीय प्रणाम करने वाले के सिर, कंधों अथवा पीठ पर अपना हाथ रखते हैं तो इस स्थिति में दोनों शरीरों में बहने वाली विद्युत का एक आवर्त (वलय) बन जाता है। आज कल विशिष्ट प्रकार के कैमरा निकले हैं जो उस तेजोवलय का चित्र भी खींचते हैं।
यहाँ पर यह बताना भी आवश्यक होगा कि ये विद्युतधाराएँ मात्र शरीर में ही नहीं बहती हैं अपितु इनकी सूक्ष्म तरंगे शरीर के रोमकूपों तथा नुकीले मार्गों से बाहर भी निकलती हैं। इन्हीं तरंगों को हमारे ऋषियों ने 'तेजोवलय' का नाम दिया है।
शरीर द्वारा होने वाली चेष्टाओं का मूल केन्द्र मस्तिष्क है। किसी भी कार्य द्वारा निर्णय करने के पश्चात उसकी आज्ञानुसार शरीर के सभी अंग अपना-अपना कार्य करते हैं। मस्तिष्क के विचारों के पूरे शरीर तक पहुँचाने में इस विद्युतशक्ति का बड़ा योगदान होता है। नारी अपने मस्तक पर भ्रूमध्य में तिलक करे। कन्याओं के लिए भी तिलक आत्मबलवर्धक है।
मनोविज्ञान के अनुसार जब कोई व्यक्ति क्रोध अथवा किसी बुरे विचार से उद्विग्न होता है तो उसके शरीर से निकलने वाले विद्युत कणों के सम्पर्क में आने वाला दूसरा व्यक्ति भी उद्विग्न सा हो जाता है। वह उसके नजदीक नहीं रहना चाहता या अपनी सामान्य मनःस्थिति से विचलित हो जाता है।
कहने का तात्पर्य है कि हमारे मस्तिष्क के विचार विद्युतशक्ति के द्वारा शरीर में फैलते हैं तथा यही विद्युतशक्ति जब तेजोवलय के रूप में शरीर से बाहर निकलती है तो उसमें उन विचारों का समावेश भी होता है इसीलिए उसके तेजोवलय के सम्पर्क में आनेवाले व्यक्ति को भी उसके विचार प्रभावित कर देते हैं।
जब हम अपने आदरणीय जनों के चरण स्पर्श करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में प्रसन्नता के साथ-साथ उनके प्रति आदर, सम्मान एवं कृतज्ञता के विचार उत्पन्न होते हैं। जब दोनों की विद्युतधाराएँ आपस में मिलती हैं तो दोनों में भावनाओं का आदान प्रदान होता है। इस प्रकार आदरणीयजनों की ऊँची भावनायें जब विद्युत तरंगों के माध्यम से हमारे मस्तिष्क तक पहुँचती है तो वह अपनी ग्रहणशील प्रकृति के अनुसार उन्हें संस्कारों के रूप में संचित कर लेता है। ये संस्कार ही मनुष्य को उत्थान अथवा पतन की ओर ले जाते हैं।
इस सिद्धान्त का एक व्यावहारिक उदाहरण है कि जब एक व्यक्ति परदेश से आकर अपने मित्रों से मिलता है तो वह प्रसन्न होकर हँसी-मजाक करता है। परन्तु जैसे ही वह अपने माता पिता एवं गुरूजनों को प्रणाम करता है उसके विचार स्वाभाविक ही गम्भीर हो जाते हैं। उसके मस्तिष्क में उन्नत होने के कुछ विचार उत्पन्न होते हैं।
जैसे जले हुए दीपक के संपर्क में आने पर दूसरा दीपक भी उसके प्रकाश आदि समस्त गुणों को ग्रहण कर लेता है परन्तु इससे उस जले हुए दीपक को कुछ हानि नहीं होती, इसी प्रकार गुरूजनों के दैवी गुण प्रणाम-पद्धति के अनुसार प्रणामकर्ता में आ जाते हैं परन्तु प्रणम्य गुरूजनों की शक्ति में इससे कोई कमी नहीं होती।
साधारण सी दिखने वाली हमारी अभिवादन-पद्धति में हमारे ऋषियों ने कितनी महान उन्नति संजोयी है परन्तु उन्हीं ऋषियों की हम सन्तानें पश्चिमवासियों का अंधानुकरण करके 'हाय-हेलो' कहकर अपने आदरणीयजनों की जीवनशैली एवं महान पूर्वजों का अपमान करते हैं।
जिससे हमारा जीवन ऊर्ध्वगामी एवं महान बने ऐसी सनातन अभिवादन पद्धति को छोड़कर 'गुड-मार्निंग' अथवा 'हाय-हेलो' कहना कौवे की काँव-काँव तथा तोते की टें-टें से किसी भी प्रकार भी बड़ा नहीं है।
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मतंग ऋषि अपनी एकाग्रता से, तप से, योग से, विद्या से, शास्त्रज्ञान से ऋषि-मुनियों के जगत में सुप्रसिद्ध थे। शबरी ने उन्हें गुरू मानकर उनके आश्रम में तप किया था। उनके आश्रम में दूर-दूर से भक्त आकर एकांतवास का लाभ लेते थे। मतंग ऋषि के आश्रम बारिश के आने से पहले ही इंधन एकत्रित कर दिया जाता था, परंतु एक वर्ष ऐसा आया कि इंधन एकत्रित करने वाले साधक नहीं आये और किसी को याद नहीं रहा। मतंग ऋषि को याद आया कि वह टुकड़ी तो नहीं आयी जो इंधन एकत्रित करती थी। मतंग ऋषि ने उठाया कुल्हाड़ा। कौन जाने कब बारिश आ जाये? वे लकड़ियाँ इकट्ठी करने के लिए जंगल की ओर चल पड़े। उनका कुल्हाड़ा उठाना था कि सब साधक अपना-अपना साधन छोड़कर गुरू के पीछे हो लिये। वे सब दोपहर तक लकड़ियाँ काटते रहे। अपने-अपने बल के अनुसार लकड़ियों का एक गट्ठर उठाया। साधकों ने भी अपने-अपने बल के अनुसार लकड़ियों के गट्ठर उठा लिये। नीचे धरती तवे जैसी तपी हुई थी और ऊपर भगवान भास्कर ! गर्मियों के आखिरी दिन थे, बारिश आने सा समय था, साधकों का शरीर पसीने से तरबतर हो रहा था। पसीने की बूँदें टपक टपककर जमीन पर गिर रही थीं। कैसे भी करके सब आश्रम में पहुँचे और स्नानादि करके अपना-अपना नित्य नियम किया।
चार-छः दिन बीते। मतंग ऋषि सरोवर पर स्नान करने गये तो देखा कि बड़ी सुगंध आ रही है! मगर सुगंध कहां से आ रही है?
"देखो जरा, हवा में ऐसी जोरदार सुगंध कहाँ से आ रही है?"
शिष्यों ने पता लगाकर बताया कि "चार-छः दिन पहले हम लकड़ियाँ लेकर जिस रास्ते से आ रहे थे, उस रास्ते पर जहाँ-जहाँ हमारे पसीने की बूँदे गिरीं, वहाँ-वहाँ फूलों के पौधे उग गये हैं और उन फूलों की महक पूरे वातावरण को महका रही है।
जब साधक के पसीने की बूँदें कहीं गिरती हैं तो वह पुष्पवाटिका बन जाती है तो ऐसा साधक अपनी योग्यता तुच्छ बातों में और राग-द्वेष के वातावरण में न खपाकर मेहनती हो जाय, एकाग्र हो जाय तो उसकी योग्यता और अधिक निखरती है। एकाग्रता के कई योग्यताएँ विकसित होती है। तुम्हारे उस सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में तो अनुपम रस से भरा है। तुम्हारे अंदर सबको रस देने वाला रसस्वरूप परमात्मा है, चित्त की विषमता के कारण उस रस देनेवाला रसस्वरूप परमात्मा है, चित्त की विषमता के कारण उस रस का अनुभव नहीं होता।
अतः विषमता मिटाने और समता के सिंहासन पर पहुँचाने वाले सत्संग साधन स्मरण में तत्परता से लग जायें।
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संतों ने ठीक ही कहा हैः
सत्य समान
तप नहीं, झूठ
समान नहीं
पाप। उसके
हिरदे साँच है, ताके हिरदे
आप।।
'सत्य के समान कोई तप नहीं है एवं झूठ के समान कोई पाप नहीं है। जिसके हृदय में सच्चाई है, उसके हृदय में स्वयं परमात्मा निवास करते हैं।'
गोस्वामी
तुलसीदास जी
ने भी कहा हैः धरम न
दूसरा सत्य
समाना।
सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है।
मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने अपने विद्यार्थी काल में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र नामक नाटक देखा। उनके जीवन पर इसका इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने दृढ़ निर्णय कर लियाः 'कुछ भी हो जाय, मैं सदैव सत्य ही बोलूँगा।
उन्होंने सत्य को ही अपना जीवनमंत्र बना लिया।
एक बार पाठशाला में खेलकूद का कार्यक्रम चल रहा था। उनकी खेलकूद में रूचि नहीं थी, अतः उपस्थिति देने के लिए वे जरा देर से आये। देर से आया देखकर शिक्षक ने पूछाः "इतनी देर से क्यों आये ?"
मोहनलालः "खेलकूद में मेरी रूचि नहीं है और घर पर थोड़ा काम भी था, इसलिए देर से आया।"
शिक्षकः "तुम्हें एक आने का अर्थदण्ड देना पड़ेगा।"
दण्ड सुनकर मोहनलाल रोने लगे। शिक्षक ने उन्हें रोते देखकर कहाः
"तुम्हारे पिता करमचंद गाँधी तो धनवान आदमी हैं। एक आना दण्ड के लिए क्यों रोते हो ?"
मोहनलालः "एक आने के लिए नहीं रोता किन्तु मैंने आपको सच-सच बता दिया, फिर भी आप मुझ पर विश्वास नहीं करते। मैंने बहाना नहीं बनाया है, फिर भी आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होता इसीलिए मुझे रोना आ गया।"
मोहनलाल की सच्चाई देखकर शिक्षक ने उन्हें माफ कर दिया। ये ही विद्यार्थी मोहन लाल आगे चलकर महात्मा गाँधी के रूप में करोड़ों-करोड़ों लोगों के दिलों-दिमाग पर छा गये।
एक बार स्कूल में विद्यार्थियों के अंग्रेजी ज्ञान की परीक्षा के लिए शिक्षा विभाग के कुछ अंग्रेज इन्सपैक्टर आये हुए थे। उन्होंने कक्षा के समस्त विद्यार्थियों को एक-एक कर पाँच शब्द लिखवाये। अचानक कक्षा के अध्यापक ने एक बालक की कापी देखी जिसमें एक शब्द गल्त लिखा था। अध्यापक ने उस बालक को अपना पैर छुआकर इशारा किया कि वह पास के लड़के की कापी से अपना गलत शब्द ठीक कर ले। ऐसे ही उन्होंने दूसरे बालकों को भी इशारा करके समझा दिया और सबने अपने शब्द ठीक कर लिये, पर उस बालक ने कुछ न किया।
इन्सपैक्टरों के चले जाने पर अध्यापक ने भरी कक्षा में उसे डाँटा और झिड़कते हुए कहा कि इशारा करने पर भी अपना शब्द ठीक नहीं किया ? कितना मूर्ख है !
इस पर बालक ने कहाः "अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर दूसरे की नकल करना सच्चाई नहीं है।"
अध्यापकः "तुमने सत्य का व्रत कब लिया और कैसे लिया ?"
बालक ने उत्तर दियाः "राजा हरिश्चन्द्र के नाटक को देखकर, जिन्होंने सत्य की रक्षा के लिए अपनी पत्नी, पुत्र और स्वयं को बेचकर अपार कष्ट सहते हुए भी सत्य की रक्षा की थी।"
तब मित्रगण बोल उठेः "भाई ! नाटक तो नाटक होता है। उसमें प्रदर्शित किसी आदर्श से बँधकर उसे जीवन में घटाना ठीक नहीं।"
इस पर बालक ने कहाः "ऐसा न कहो मित्र ! पक्के इरादे से सब कुछ हो सकता है। मैंने उसी नाटक को देखकर जीवन में सत्य पर चलने का निश्चय किया है। अतः मैं सत्य की अपनी टेक कैसे छोड़ दूँ ?"
यह बालक कोई ओर नहीं बल्कि मोहनलाल करमचन्द गाँधी ही थे।
सत्य के आचरण से अंतर्यामी ईश्वर प्रसन्न होते हैं, सत्यनिष्ठा दृढ़ होती है एवं हृदय में ईश्वरीय शक्ति प्रगट हो जाती है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति के सामने फिर चाहे कैसी भी विपत्ति आ जाय, वह सत्य का त्याग नहीं करता।
सब धर्म
अपने पूर्ण कर, छोटे-बड़े
से या बड़े।
मत सत्य से तू
डिग कभी, आपत्ति
कैसी ही पड़े ?
सत्य का
आचरण करने
वाला निर्भय
रहता है। उसका
आत्मबल बढ़ता
है। असत्य से
सत्य
अनंतगुना बलनान
है। जो बात
बात में झूठ
बोल देते है,
उनका विश्वास
कोई नहीं करता
है। फिर एक
झूठ को छिपाने
के लिए सौ बार
झूठ भी बोलना
पड़ता है। अतः
इन सब बातों
से बचने के
लिए पहले से
ही सत्य का
आचरण करना
चाहिए। सत्य
का आचरण करने
वाला सदैव
सबका प्रिय हो
जाता है। शास्त्रों
में भी आता
हैः सत्यं
वद। धर्में
चर।
सत्य बोलो। धर्म का आचरण करो। जीवन की वास्तिवक उन्नति सत्य में ही निहित है।
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सत्र 7
नरकेसरी वीर शिवाजी आजीवन अपनी मातृभूमि भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते रहे। वे न तो स्वयं कभी प्रमादी हुए और न ही उन्होंने दुश्मनों को चैन से सोने दिया। वे कुशल राजनीतिज्ञ तो थे ही साथ ही उनका बुद्धि चातुर्य भी अदभुत था। वीरता के साथ विद्वता का संगम यश देने वाला होता है।
शिवाजी के जीवन में कई ऐसे प्रसंग आये जिनमें उनके इन गुणों का संगम देखने को मिला। इसमें से एक मुख्य प्रसंग है – आदिलशाह के सेनापति अफजल खाँ के विनाश का।
शिवाजी के साथ युद्ध करके उन्हें जीवित पकड़ लेने के उद्देश्य से इस खान सरदार ने बहुत बड़ी सेना को साथ में लिया था। तीन साल चले इतनी युद्ध-सामग्री लेकर वह बीजापुर से निकला था। इतनी विशाल सेना के सामने टक्कर लेने हेतु शिवाजी के पास इतना बड़ा सैन्य बल न था।
शिवाजी ने खान के पास संदेश भिजवायाः
'मुझे आपके साथ नहीं लड़ना है। मेरे व्यवहार से आदिलशाह को बुरा लगा हो तो आप उनसे मुझे माफी दिलवा दीजिए। मैं आपका आभार मानूँगा और मेरे अधिकार में आनेवाला मुल्क भी मैं आदिलशाह को खुशी से सौंप दूँगा।'
अफजल खान समझ गया कि शिवाजी मेरी सेना देखकर ही डर गया है। उसने अपने वकील कृष्ण भास्कर को शिवाजी के साथ बातचीत करने के लिए भेजा। शिवाजी ने कृष्ण भास्कर का सत्कार किया और उसके द्वारा कहलवा भेजाः
'मुझे आपसे मिलने आना तो चाहिए लेकिन मुझे आपसे डर लगता है। इसलिए मैं नहीं आ सकता हूँ।'
इस संदेश को सुनकर कृष्ण भास्कर की सलाह से ही खान ने स्वयं शिवाजी से मिलने का विचार किया और इसके लिए शिवाजी के पास संदेश भी भिजवा दिया।
शिवाजी ने इस मुलाकात के लिए खान का आभार माना और उसके सत्कार के लिए बड़ी तैयारी की। जावली के किले के आस पास की झाड़ियाँ कटवाकर रास्ता बनाया तथा जगह-जगह पर मंडप बाँधे। अफजलखान जब अपने सरदारों के साथ आया तब शिवाजी ने पुनः कहला भेजाः
'मुझे अब भी भय लगता है। अपने साथ दो सेवक ही रखियेगा। नहीं तो आपसे मिलने की मेरी हिम्मत नहीं होगी।'
खान ने संदेश स्वीकार कर लिया और अपने साथ के सरदारों को दूर रखकर केवल दो तलवारधारी सेवकों के साथ मुलाकात के लिए बनाये गये तंबू में गया। शिवाजी को तो पहले से ही खान के कपट की गंध आ गयी थी, अतः अपनी स्वरक्षा के लिए उन्होंने अपने अँगरखे की दायीं तरफ खंजर छुपाकर रख लिया था और बायें हाथ में बाघनखा पहनकर मिलने के लिए तैयार खड़े रहे।
जैसेही खान दोनों हाथ लंबे करके शिवाजी को आलिंगन करने गया, त्यों ही उसने शिवाजी के मस्तक को बगल में दबा लिया। शिवाजी सावधान हो गये। उन्होंने तुरंत खान के पार्श्व में खंजर भोंक दिया और बाघनखे से पेट चीर डाला।
खान के दगा... दगा... की चीख सुनकर उसके सरदार तंबू में घुस आये। शिवाजी एवं उनके सेवकों ने उन्हें सँभाल लिया। फिर तो दोनों ओर से घमासान युद्ध छिड़ गया।
जब खान के शव को पालकी में लेकर उसके सैनिक जा रहे थे, तब उनके साथ लड़कर शिवाजी के सैनिकों ने मुर्दे का सिर काट लिया और धड़ को जाने दिया !
खान का पुत्र फाजल खान भी घायल हो गया। खान की सेवा की बड़ी बुरी हालत हो गयी एवं शिवाजी की सेना जीत गयी।
इस युद्ध में शिवाजी को करीब 75 हाथी, 7000 घोड़े, 1000-1200 के करीब ऊँट, बड़ा तोपखाना, 2-3 हजार बैल, 10-12 लाख सोने की मुहरें, 2000 गाड़ी भरकर कपड़े एवं तंबू वगैरह का सामान मिल गया था।
यह शिवाजी की वीरता एवं बुद्धिचातुर्य का ही परिणाम था। जो काम बल से असंभव था उसे उन्होंने युक्ति से कर लिया !
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मीन एवं मेष राशी के सूर्य का समय वसंत ऋतु कहा जा सकता है।
वसंत ऋतु की महिमा के विषय में कवियों ने खूब लिखा है। गुजराती कवि दलपतराम ने कहा हैः
रूड़ो
जुओ आ ऋतुराज
आव्यो। मुकाम
तेणे वनमां जमाव्यो।।
अर्थात्
देखो, सुंदर यह
ऋतुराज आया।
आवास उसने वन
को बनाया।।
वसंत का असली आनंद जब वन में से गुजरते हैं तब उठाया जा सकता है। रंग बिरंगे पुष्पों से आच्छादित वृक्ष.... मंद-मंद एवं शीतल बहती वायु..... प्रकृति मानो, पूरे बहार में होती है। ऐसे में सहज ही मे प्रभु का स्मरण हो जाता है, सहज ही में ध्यानावस्था में पहुँचा जा सकता है।
ऐसी सुंदर ऋतु में आयुर्वेद ने खान पान में संयम की बात कहकर व्यक्ति एवं समाज की नीरोगता का ध्यान रखा है। शीतऋतु में मेथीपाक, सूखे मेवे खाने से स्वाभाविक ही मधुर रसवाले तथा बल-पुष्टिवर्धक पदार्थ खाने के कारण शरीर में स्वाभाविक ही कफ का संचय हो जाता है। यह संचित कफ वसंत ऋतु में सूर्य किरणों के सीधे ही पड़ने के कारण पिघलने लगता है। इसके फलस्वरूप कफजन्य रोग जैसे कि सर्दी, खाँसी, बुखार, खसरा, चेचक, दस्त, उलटी, गले में खराश, टान्सिल्स का बढ़ना, सिर भारी-भारी लगना, सुस्ती, आलस्य वगैरह होने लगता है।
जिस प्रकार पानी अग्नि को बुझा देता है वैसे ही पिघला हुआ कफ जठराग्नि को मंद कर देता है। इसीलिए इस ऋतु में लाई, भूने हुए चने, ताजी हल्दी, ताजी मूली, अदरक, पुरानी जौ, पुराने गेहूँ की चीजें खाने के लिए कहा गया है। इसके अलावा मूँग बनाकर खाना भी उत्तम है।
देखो, आयुर्वेद विज्ञान की दृष्टि कितनी सूक्षम है ! मन को प्रसन्न करे एवं हृदय के लिए हितकारी हो ऐसे आसव, अरिष्ट जैसे कि मध्वारिष्ट, द्राक्षारिष्ट, गन्ने का रस, सिरका वगैरह पीना इस ऋतु में लाभदायक है।
नागरमोथ अथवा सौंठ का उबाला हुआ पानी पीने से कफ का नाश होता है।
वसंत ऋतु में आने वाला होली का त्योहार इस ओर संकेत करता है कि शरीर को थोड़ा सूखा सेंक देना चाहिए जिससे कफ पिघलकर बाहर निकल जाय। सुबह जल्दी उठकर थोड़ा व्यायाम करना, दौड़ना अथवा गुलाटियाँ खाने का अभ्यास लाभदायक होता है।
मालिश करके सूखे द्रव्य, आँवले, त्रिफला अथवा चने के आटे आदि का उबटन लगाकर गर्म पानी से स्नान करना हितकर है। आसन, प्राणायाम एवं टंकविद्या की मुद्रा विशेष रूप से करनी चाहिए।
दिन में सोना नहीं चाहिए। दिन में सोने से कफ कुपित होता है। जिन्हें रात्रि में जागना आवश्यक है वे थोड़ा सोयें तो ठीक है। इस ऋतु में रात्रि जागरण भी नहीं करना चाहिए।
वसंत ऋतु में सुबह खाली पेट हरड़े के चूर्ण को शहद के साथ सेवन करने से लाभ होता है। वसंत ऋतु में कड़वे नीम में नयी कोंपलें फूटती है। नीम की 15-20 कोंपलों को 2-3 काली मिर्च के साथ खूब चबाकर खाना चाहिए। 15-20 दिन यह प्रयोग करने से आरोग्यता की रक्षा होती है। इसके अलावा कड़वे नीम के फूलों का रस 7 से 15 दिन तक पीने से त्वचा के रोग एवं मलेरिया जैसे ज्वर से भी बचाव होता है।
मधुर रसवाले पौष्टिक पदार्थ एंव खट्टे-मीठे रसवाले फल वगैरह पदार्थ जो कि शीत ऋतु में खाये जाते हैं उन्हें खाना बंद कर देना चाहिए। वसंत ऋतु के कारण स्वाभाविक ही पाचन शक्ति कम हो जाती है अतः पचने में भारी पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ठंडे पेय, आइसक्रीम, बर्फ के गोले, चाकलेट, मैदे की चीजें, खमीरवाली चीजें, दही वगैरह पदार्थ बिल्कुल त्याग देना चाहिए।
धार्मिक ग्रन्थों के वर्णनानुसार 'अलौने व्रत (बिना नमक के व्रत) चैत्र मास के दौरान करने से रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है एवं त्वचा के रोग, हृदय के रोग, हाई.बी.पी., किडनी आदि के रोग नहीं होते हैं।
यदि कफ ज्यादा हो तो रोग होने से पूर्व 'वमन कर्म' द्वारा कफ को निकाल देना चाहिए किन्तु वमन कर्म किसी योग्य वैद्य की निगरानी में करना ही हितावह है। सामान्य उलटी करनी हो तो आश्रम से प्रकाशित योगासन पुस्तक में बतायी गयी विधि के अनुसार गजकरणी की जा सकती है। इससे अनेक रोगों से बचाव हो सकता है।
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सत्र 8
किसी ने कहा हैः
अगर तुम
ठान लो, तारे
गगन के तोड़
सकते हो। अगर
तुम ठान लो, तूफान का
मुख मोड़ सकते
हो।।
यह कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन में ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे मानव न कर सके। जीवन में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो।
जीवन में संयम, सदाचार, प्रेम, सहिष्णुता, निर्भयता, पवित्रता, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्तम संग हो तो विद्यार्थी के लिए अपना लक्ष्य प्राप्त करना आसान हो जाता है।
यदि विद्यार्थी बौद्धिक-विकास के कुछ प्रयोगों को समझ लें, जैसे कि सूर्य को अर्घ्य देना, भ्रामरी प्राणायाम करना, तुलसी के पत्तों का सेवन, त्राटक करना, सारस्वत्य मंत्र का जप करना आदि तो परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना विद्यार्थियों के लिए आसान हो जायगा।
विद्यार्थी को चाहिए कि रोज सुबह सूर्योदय से पहले उठकर सबसे पहले अपने इष्ट का, गुरू का स्मरण करे। फिर स्नानादि करके पूजा कक्ष में बैठकर गुरूमंत्र, इष्टमंत्र अथवा सारस्वत्य मंत्र का जाप करे। अपने गुरू या इष्ट की मूर्ति की ओर एकटक निहारते हुए त्राटक करे। अपने श्वासोच्छवास की गति पर ध्यान देते हुए मन को एकाग्र करे। भ्रामरी प्राणायाम करे जो विद्यार्थी तेजस्वी तालीम शिविर में सिखाया जाता है।
प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य दे एवं तुलसी के 5-7 पत्तों को चबाकर 2-4 घूँट पानी पिये।
रात को देर तक न पढ़े वरन् सुबह जल्दी उठकर उपरोक्त नियमों को करके अध्ययन करे तो इससे पढ़ा हुआ शीघ्र याद हो जाता है।
जब परीक्षा देने जाये तो तनाव चिन्ता से युक्त होकर नहीं वरन् इष्ट गुरू का स्मरण करके, प्रसन्न होकर जाये।
प्रश्न पत्र आने पर उसे एक बार पूरा पढ़ लेना चाहिए एवं जो प्रश्न आता है उसे पहले करे। ऐसा नहीं कि जो नहीं आता उसे देखकर घबरा जाये। घबराने से तो जो प्रश्न आता है वह भी भूल जायेगा।
जो प्रश्न आते हैं उन्हें हल करने के बाद जो नहीं आते उनकी ओर ध्यान दें। अंदर दृढ़ विश्वास रखे कि मुझे ये भी आ जायेंगे। अंदर से निर्भय रहे एवं भगवत्स्मरण करके एकाध मिनट शान्त हो जाये, फिर लिखना शुरू करे। धीरे-धीरे उन प्रश्नों के उत्तर भी मिल जायेंगे।
मुख्य बात यह है कि किसी भी कीमत पर धैर्य न खोये। निर्भयता एवं दृढ़ आत्मविश्वास बनाये रखें।
विद्यार्थियों को अपने जीवन को सदैव बुरे संग से बचाना चाहिए। न तो वह स्वयं धूम्रपानादि करे न ही ऐसे मित्रों का संग करे। व्यसनों से मनुष्य की स्मरणशक्ति पर बड़ा खराब प्रभाव पड़ता है।
व्यसन की तरह चलचित्र भी विद्यार्थी की जीवन शक्ति को क्षीण कर देते हैं। आँखों की रोशनी को कम करने के साथ ही मन एवं दिमाग को भी कुप्रभावित करने वाले चलचित्रों से विद्यार्थियों को सदैव सावधान रहना चाहिए। आँखों के द्वारा बुरे दृश्य अंदर घुस जाते हैं एवं वे मन को भी कुपथ पर ले जाते हैं। इसकी अपेक्षा तो सत्संग में जाना, सत्शास्त्रों का अध्ययन करना अनंतगुना हितकारी है। यदि विद्यार्थी ने अपना विद्यार्थी जीवन सँभाल लिया तो उसका भावी जीवन भी सँभल जाता है क्योंकि विद्यार्थी जीवन ही भावी जीवन की आधार शिला है। विद्यार्थी काल में वह जितना संयमी, सदाचारी, निर्भय एवं सहिष्णु होगा, बुरे संग एवं व्यसनों को त्याग कर सत्संग का आश्रय लेगा, प्राणायाम आसनादि को सुचारू रूप से करेगा उतना ही उसका जीवन समुन्नत होगा। यदि नींव सुदृढ़ होती है तो उस पर बना विशाल भवन भी दृढ़ एवं स्थायी होता है। विद्यार्थीकाल मानव-जीवन की नींव के समान है अतः उसको सुदृढ़ बनाना चाहिए।
इन बातों को समझकर उन पर अमल किया जाय तो केवल लौकिक शिक्षा में ही सफलता प्राप्त होगी ऐसी बात नहीं है वरन् जीवन की हर परीक्षा में विद्यार्थी सफल हो सकता है।
हे विद्यार्थी ! उठो....जागो..... कमर कसो। दृढ़ता एवं निर्भयता से जुट पड़ो। बुरे संग एवं व्यसनों को त्यागकर, संतों-सदगुरूओं के मार्गदर्शन के अनुसार चल पड़ो..... सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
धन्य हैं वे लोग जिनमें ये छः गुण हैं ! अन्तर्यामी देव सदैव उनकी सहायता करते हैं।
उद्यमः
साहसं धैर्यं
बुद्धि शक्ति
पराक्रमः।
षडेते
यत्र
वर्तन्ते
तत्र देवः
सहायकृत्।।
'उद्योग, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – ये छः गुण जिस व्यक्ति के जीवन में हैं, देव उसकी सहायता करते है।'
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कुछ मनचले छात्रों ने आपस में तय किया कि आज मास्टर को स्कूल से वापस करना है। जब वे कक्ष में आये, तब एक ने कहाः "सर ! आज आपकी आँखें थोड़ी अंदर धँस गयी हैं।"
दूसरे छात्र ने 'सर' की नाड़ी पकड़ी, फिर बोलाः "सर ! आपको रात को बुखार आया था क्या ? अभी भी शरीर थोड़ा गर्म है।"
सरः "नहीं तो !"
तीसरा छात्रः "सर ! आपको अपनी सेहत का कुछ पता नहीं है। आप काम में व्यस्त रहते हैं और अपने शरीर का बिल्कुल ख्याल नहीं रखते हैं। सचमुच ! आपको बुखार है।"
चौथा छात्रः "वाकई सर ! आपको बुखार है।"
पाँचवाँ छात्रः "सर ! यदि आप बुखार में काम करते रहेंगे तो हो सकता है ज्यादा बीमार पड़ जायें। अगर आपको न्यूमोनिया हो जायेगा तो ? कृपया, आराम करिये। आप थके हुए हैं और बुखार का असर भी है।"
छठवाँ छात्रः "अभी दो महीने बाद परीक्षाएँ भी होने वाली हैं। अगर आप जबरदस्ती पढ़ायेंगे तो हो सकता है परीक्षाओं के दिनों में आपको न्यूमोनिया हो जाये। क्षमा करें सर ! आप आराम करें।"
देखते ही देखते मास्टक का सिर दर्द से फटने लगा और पैर काँपने लगे। उनको बुखार आ गया। वे जल्दी-जल्दी घर पहुँचे एवं रजाई ओढ़कर सो गये।
.....तो मानना पड़ेगा कि मन का असर तन पर पड़े बिना नहीं रहता। आपके दो शरीर होते हैं – एक अन्नमय और दूसरा मनोमय। मनोमय शरीर जैसा सोचता और निर्णय करता है, अन्नमय शरीर में वैसे ही परिवर्तन होने लगते हैं।
मन जितना सूक्ष्म होता है, शरीर पर उसका प्रभाव उतना ही गहरा पड़ता है। केवल अपने शरीर पर प्रभाव पड़ता है ऐसी बात नहीं है बल्कि दूसरों के शरीर पर भी आपके सूक्ष्म मन का प्रभाव पड़ सकता है। संकल्प में इतनी शक्ति होती है !
एक घटित घटना हैः
एक लड़का भगवान शंकर का बड़ा भक्त था। नर्मदा किनारे रहता था एवं ॐ नमः शिवाय मंत्र का जप करता था। उसे सारा दिन शिवभक्ति करते देख उसके घरवाले परेशान रहते थे।
शिवरात्रि के दिन उसके बड़े भाई ने उसकी पिटाई की और उसे एक कमरे में बंद कर दिया। घर के लोग निश्चिन्त होकर सो गये किः अब कैसे जा पायेगा मंदिर में ?
......लेकिन भक्त को तो रात्रि जागरण करना था। उसने शिवभक्ति न छोड़ी। वह बन्द कमरे में ही शिवजी की मानसपूजा करते-करते इतना मग्न हो गया कि उसका शरीर मंदिर में पहुँच गया !
सुबह लोगों ने खिड़की से देखा तो लड़का कमरा में नहीं है और बाहर से ताला लगा है ! उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ! जिस मंदिर में वह लड़का जाता था उसी मंदिर में जाकर उन लोगों ने देखा तो वह शिवजी का आलिंगन करके बैठा हुआ मिला। पूछाः "तू यहाँ कैसे आया ?"
लड़के ने कहाः "मुझे कुछ पता नहीं। शिवजी लाये होंगे तो आ गया।"
शिवजी उठाकर मंदिर में नहीं लाये होंगे। यह तो उसके तीव्र चिन्तन का प्रभाव था उसका तन भी शिवालय में पहुँच गया।
ऐसे ही दूसरी एक घटना हैः बड़ौदा के आगे ताजपुरा है। ताजपुरा में मेरे मित्र संत नारायण स्वामी रहते हैं। उनके आश्रम का नाम है नारायण धाम। जब नारायण धाम नहीं बना था और वे साधना करते थे तब वहाँ एक छोटा सा मंदिर था। उस मंदिर का पुजारी रजनी कला स्नातक था। उसने मुझसे कहाः
"बापू ! बापू (नारायण स्वामी) का तो कुछ कहा नहीं जा सकता।"
मैंने पूछाः "क्या हुआ ? जरा बताओ।"
पुजारीः "मैं एक दिन पूजा वगैरह करके शटर को दो ताले लगाकर घर चला गया क्योंकि जंगल का मामला था और तब आश्रम इतना विकसित नहीं था। सुबह जब शटर खोला तो देखा कि मंदिर के अंदर बापू (नारायण स्वामी) शिवलिंग को आलिंगन करके बैठे हुए थे ! मैं तो यह देखकर चकित रह गया कि बापू मंदिर के अंदर कैसे ? मैंने अंदर एक बिल्वपत्र और फूल तक नहीं रखा था। फिर बापू को अंदर बंद करके कैसे चला गया, मुझे कुछ पता नहीं है।"
मैंने कहाः "ऐसा नहीं होगा, कुछ राज होगा।"
पुजारीः "कुछ राज ही है। मैं तो मंदिर की सफाई करने के बाद ताला लगाकर घर चला गया था।"
वे तो मेरे मित्र संत हैं। मैंने उनसे पूछाः "यह सब कैसे हुआ था ? आप संकल्प करके शिवालय में पहुँचे थे कि आपने योग का उपयोग किया था ? आप ऋद्धि-सिद्धि के बल वहाँ पहुँचे थे या भगवान शंकर स्वयं आपको पकड़कर अंदर डाल गये थे ? सच बताओ।"
नारायण
स्वामी ने
कहाः "यह
तो मुझे पता
नहीं लेकिन
प्रभु का ऐसा
तीव्र चिन्तन
हुआ कि मैं
नहीं रहा। जब
सुबह हुई और
पुजारी ने
मंदिर खोला तब
मुझे भान हुआ
किः "मैं इधर
कैसे ?"
फिर तो मैं
प्रभु.....!
प्रभु....... !! करके एक
मील तक दौड़ता
चला गया।"
.....तो मानना पड़ेगा कि आपका मन जिसका तीव्रता से चिन्तन करता है वहीं आपका तन भी पहुँच जाता है। जब आपका मन किसी चीज का इतना तीव्र चिन्तन करता है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, दर्प, अहंकार सब छूट जाते हैं तब आपका तन भी वहाँ प्रकट हो जाता है और अपने स्थान से गायब हो जाता है। यही बात 'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' वशिष्ठ जी महाराज भी कहते हैं किः "हे राम जी ! जीव का जो शरीर दिखता है वह वास्तविक नहीं है। वास्तविक शरीर तो मनोमय शरीर है। मनोमय शरीर का किया हुआ सब होता है।"
जैसे, कार दिखती है तो उसमें दो चीजें हैं- कार का बाह्य ढाँचा और अंदर का इंजन, गियर बाक्स आदि। कार भागती हुई दिखती है लेकिन उसका मूल कारण अंदर के पुर्जे हैं। कार आगे पीछे भी चलाई जाती है, धीरे भी चलती है, तेजी से भी चलती हुई दिखती है और चलाने वाला भी दिखता है। कार को ड्राइवर चलाता है और ड्राइवर को उसके अंदर का संकल्प चलाता है। कार और ड्राइवर दोनों का संचालन करने वाली सूक्ष्म सत्ताएँ हैं।
आपको गाड़ी दिखेगी, अंदर का गियर बाक्स नहीं दिखेगा। ऐसे ही ड्राइवर के हाथ दिखेंगे, उसके अंदर का संकल्प नहीं दिखेगा। जो दिखेगा उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। चलाने वाली सत्ता कोई और होती है। उसी सत्ता के बल पर सब कार्य होते हैं। उस सत्ता के मूल को जान लो तो बेड़ा पार हो जाये। स्नेह सहित उस सत्ता के मूल का स्मरण और उस सत्ता के मूल में शांति व आनंद पाने में लग जाओ। सारी सत्ताओं का मूल है आत्मा-परमात्मा।
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सत्र 9
'शिव' अर्थात् कल्याण स्वरूप। भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याण कारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को एक मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है।
शिवजी का निवास-स्थान है कैलास शिखर। ज्ञान हमेशा धवल शिखर पर रहता है अर्थात् ऊँचे केन्द्रों पर रहता है जबकि अज्ञान नीचे के केन्द्रों में रहता है। काम, क्रोध, भय आदि के समय मन प्राण नीचे के केन्द्र में, मूलाधार केन्द्र में रहते हैं। मन और प्राण अगर ऊपर के केन्द्रों में हों तो वहाँ काम टिक नहीं सकता। शिवजी को काम ने बाण मारा लेकिन शिवजी की निगाहमात्र से ही काम जलकर भस्म हो गया। आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाये तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके।
कैलास शिखर धवल है, हिमशिखर धवल है और वहाँ शिवजी निवास करते हैं। ऐसे ही जहाँ सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, वहीं आत्मशिव रहता है।
शिवजी की जटाओं से गंगा जी निकलती हैं अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञानगंगा बहती है। उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं कि जिनसे जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान भी अत्यंत सरलता से हँसते-हँसते हो जाता है।
शिवजी के मस्तक पर द्वितीया का चाँद सुशोभित होता है अर्थात् जो ज्ञानी है वे दूसरों का नन्हा-सा प्रकाश, छोटा-सा गुण भी शिरोधार्य करते हैं। शिवजी ज्ञान के निधि हैं, भण्डार हैं, इसीलिए तो किसी के भी ज्ञान का अनादर नहीं करते हैं वरन् आदर ही करते हैं।
शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण की है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये मुण्ड किसी साधारण व्यक्ति के मुण्ड नहीं, वरन् ज्ञानवानों के मुण्ड हैं। जिनके मस्तिष्क में जीवनभर के ज्ञान के विचार ही रहे हैं, ऐसे ज्ञानवानों की स्मृति ताजी करने के लिए उन्होंने मुण्डमाला धारण की है। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण करके हमें बताया है कि गरीब हो चाहे धनवान, पठित हो चाहे अपठित, माई हो चाहे भाई लेकिन अंत समय में सब खोपड़ी छोड़कर जाते हैं। आप अपनी खोपड़ी में चाहे कुछ भी भरो, आखिर वह यहीं रह जाती हैं।
भगवान शंकर देह पर भभूत रमाये हुए हैं क्योंकि वे शिव हैं, कल्याणस्वरूप हैं। लोगों को याद दिलाते हैं कि चाहे तुमने कितना ही पद प्रतिष्ठावाला, गर्व भरा जीवन बिताया हो, अंत में तुम्हारी देह का क्या होने वाला है, वह मेरी देह पर लगायी हुई भभूत बताती है। अतः इस चिताभस्म को याद करके आप भी मोह ममता और गर्व को छोड़कर अंतर्मुख हो जाया करो।
शिवजी के अन्य आभूषण हैं बड़े विकराल सर्प। अकेला सर्प होता है तो मारा जाता है लेकिन यदि वही सर्प शिवजी के गले में, उनते हाथ पर होता है तो पूजा जाता है। ऐसे ही आप संसार का व्यवहार केवल अकेले करोगे तो मारे जाओगे लेकिन शिवतत्त्व में डुबकी मारकर संसार का व्यवहार करोगे तो आपका व्यवहार भी आदर्श व्यवहार बन जायेगा।
शिवजी के हाथों में त्रिशूल एवं डमरू सुशोभित है। इसका तात्पर्य यह है कि वे सत्त्व, रज एवं तम – इन तीन गुणों के आधीन नहीं होते, वरन् उन्हें अपने आधीन रखते हैं और जब प्रसन्न होते हैं तब डमरू लेकर नाचते हैं।
कई लोग कहते हैं कि शिवजी को भाँग का व्यसन है। वास्तव में तो उन्हें भुवन भंग करने का यानी सृष्टि का संहार करने का व्यसन है, भाँग पीने का नहीं। किन्तु भँगेड़ियों ने 'भुवन भंग' में से अकेले 'भंग' शब्द का अर्थ 'भाँग' लगा लिया और भाँग पीने की छूट ले ली।
उत्तम माली वही है जो आवश्यकता के अनुसार बगीचे में काट-छाँट करता रहता है, तभी बगीचा सजा धजा रहता है। अगर वह बगीचे में काट छाँट न करे तो बगीचा जंगल में बदल जाये। ऐसे ही भगवान शिव इस संसार के उत्तम माली हैं, जिन्हें भुवनों को भंग करने का व्यसन है।
शिवजी के यहाँ बैल-सिंह, मोर-साँप-चूहा आदि परस्पर विपरीत स्वभाव के प्राणी भी मजे से एक साथ निर्विघ्न रह लेते हैं। क्यों ? शिवजी की समता के प्रभाव से। ऐसे ही जिसके जीवन में समता है वह विरोधी वातावरण में, विरोधी विचारों में भी बड़े मजे से जी लेता है।
जैसे, आपने देखा होगा कि गुलाब के फूल को देखकर बुद्धिमान व्यक्ति प्रसन्न होता है किः 'काँटों के बीच भी वह कैसे महक रहा है ! जबकि फरियादी व्यक्ति बोलता है किः 'एक फूल और इतने सारे काँटे ! क्या यही संसार है, कि जिसमें जरा सा सुख और कितने सारे दुःख !'
जो बुद्धिमान है, शिवतत्त्व का जानकार है, जिसके जीवन में समता है, वह सोचता है कि जिस सत्ता से फूल खिला है, उसी सत्ता ने काँटों को भी जन्म दिया है। जिस सत्ता ने सुख दिया है, उसी सत्ता ने दुःख को भी जन्म दिया है। सुख दुःख को देखकर जो उसके मूल में पहुँचता है, वह मूलों के मूल महादेव को भी पा लेता है।
इस प्रकार शिवतत्त्व में जो जगे हुए हैं उन महापुरूषों की तो बात ही निराली है लेकिन जो शिवजी के बाह्य रूप को ही निहारते हैं वे भी अपने जीवन में उपरोक्त दृष्टि ले आयें तो उनकी भी असली शिवरात्रि, कल्याणमयी रात्रि हो जाये.....
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फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् महाशिवरात्रि। पृथ्वी पर शिवलिंग के स्थापन का जो दिवस है, भगवान शिव के विवाह का जो दिवस है और प्राकृतिक नियम के अनुसार जीव-शिव के एकत्व में मदद करने वाले ग्रह-नक्षत्रों के योग का जो दिवस है – वही है महाशिवरात्रि का पावन दिवस। यह रात्रि-जागरण करने की रात्रि, सजाग रहने की रात्रि, ईश्वर की आराधना-उपासना करने की रात्रि है।
शिवजी की आराधना निष्काम भाव से कहीं भी की जा सकती है किंतु सकाम भाव से आराधना विधि-विधानपूर्वक की जाती है। जिन्हें संसार से सुख-वैभव प्राप्त करनी होती है, वे भी शिवजी की आराधना करते हैं।
शिवजी की पूजा का विधान यह है कि पहले जहाँ शिवजी की स्थापना की जाती है वहाँ से फिर उनका स्थानांतर नहीं होता, उनकी जगह नहीं बदली जाती। शिवजी की पूजा के निर्माल्य (पत्र-पुष्प, पंचामृतादि) का उल्लंघन नहीं किया जाता। इसीलिए शिवजी के मंदिर की पूरी प्रदक्षिणा नहीं होती क्योंकि पूरी प्रदक्षिणा करने से निर्माल्य उल्लंघित हो जाता है।
शिवलिंग विविध द्रव्यों से बनाये जाते हैं। अलग-अलग द्रव्यों से बने शिवलिंगों के पूजन के फल भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं। जैसे, ताँबे के शिवलिंग के पूजन से आरोग्य-प्राप्ति होती है। पीतल के शिवलिंग के पूजन से यश, आरोग्य-प्राप्ति एवं शत्रुनाश होता है। चाँदी के शिवजी बनाकर उनकी पूजा करने से पितरों का कल्याण होता है। सुवर्ण के शिवजी बनाकर उनकी पूजा करने से तीन पीढ़ियों तक घर में धन-धान्य बना रहता है। मणि-माणेक का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने से बुद्धि, आयुष्य, धन, ओज-तेज बढ़ता है लेकिन ब्रह्मचिंतन करने से, शिवतत्त्व का चिंतन करने से ये चीजें स्वाभाविक ही प्रगट होने लगती हैं। परमात्मतत्त्व में, शिवतत्त्व में डुबकी मारने से बुद्धि का प्रकाश बढ़ने लगता है, पितरों का उद्धार होने लगता है, चित्त की चंचलता मिटने लगती है, दिल की दरिद्रता दूर होने लगती है एवं मन में शांति आने लगती है। शिवपूजन का महा फल यही है कि मनुष्य शिवतत्त्व को प्राप्त हो जाये।
शिवरात्रि को भक्तिभाव से रात्रि-जागरण किया जाता है। जल, पंचामृत, फल-फूल एवं बिल्वपत्र से शिवजी का पूजन करते है। बिल्वपत्र में तीन पत्ते होते हैं जो सत्त्व, रज एवं तमोगुण के प्रतीक हैं। हम अपने ये तीनों गुण शिवार्पण करके गुणों से पार हो जायें, यही इसका हेतु है। पंचामृत-पूजा क्या है ? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचमहाभूतों का ही सारा भौतिक विलास है। इन पंचमहाभूतों का भौतिक विलास जिस चैतन्य की सत्ता से हो रहा है उस चैतन्यस्वरूप शिव में अपने अहं को अर्पित कर देना, यही पंचामृत-पूजा है। धूप और दीप द्वारा पूजा माने क्या ? धूप का तात्पर्य है अपने 'शिवोऽहम्' की सुवास 'आनन्दोऽहम्' की सुवास और दीप का तात्पर्य है आत्मज्ञान का प्रकाश।
चाहे जंगल या मरूभूमि में क्यों न हो, रेती या मिट्टी के शिवजी बना लिये, पानी के छींटे मार दिये, जंगली फूल तोड़कर धर दिये और मुँह से ही नाद बजा दिया तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं एवं भावना शुद्ध होने लगती है।
आशुतोष जो ठहरे ! जंगली फूल भी शुद्ध भाव से तोड़कर शिवलिंग पर चढ़ाओ तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं और यही फूल कामदेव ने शिवजी को मारे तो शिवजी नाराज हो गये। क्यों ? क्योंकि फूल फेंकने के पीछे कामदेव का भाव शुद्ध नहीं था इसीलिए शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया। शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं, भाव का मूल्य है।
भावो
हि विद्यते
देवो......
आराधना का एक तरीका यह है कि पत्र, पुष्प, पंचामृत, बिल्वपत्रादि से चार प्रहर पूजा की जाये। दूसरा तरीका यह है कि मानसिक पूजा की जाये।
कभी-कभी योगी लोग इस रात्रि का सदुपयोग करने का आदेश देते हुए कहा है किः "आज की रात्रि तुम ऐसी जगह पसंद कर लो कि जहाँ तुम अकेले बैठ सको, अकेले टहल सको, अकेले घूम सको, अकेले जी सको। फिर तुम शिवजी की मानसिक पूजा करो और उसके बाद अपनी वृत्तियों को निहारों, अपने चित्त की दशा को निहारो। चित्त में जो-जो आ रहा है और जो जो जा रहा है उस आने और जाने को निहारते-निहारते आने जाने की मध्यावस्था को जान लो।
दूसरा तरीका यह है कि चित्त का एक संकल्प उठा और दूसरा उठने को है, उस शिवस्वरूप व आत्मस्वरूप मध्यावस्था को तुम मैं रूप में स्वीकार कर लो, उसमें टिक जाओ।
तीसरा तरीका यह भी है कि किसी नदी या जलाशय के किनारे बैठकर जल की लहरों को एकटक देखते जाओ अथवा तारों को निहारते-निहारते अपनी दृष्टि को उन पर केन्द्रित कर दो। दृष्टि बाहर की लहरों पर केन्द्रित है और वह दृष्टि केन्द्रित है कि नहीं, उसकी निगरानी मन करता है और मन निगरानी करता है कि नहीं करता है, उसको निहारने वाला मैं कौन हूँ ? गहराई से इसका चिन्तन करते-करते आप परम शांति में भी विश्रांति कर सकते हो।
चौथा तरीका यह है कि जीभ न ऊपर हो न नीचे हो बल्कि तालू के मध्य में हो और जिह्वा पर ही आपकी चित्तवृत्ति स्थिर हो। इससे भी मन शांत हो जायेगा और शांत मन में शांत शिवतत्त्व का साक्षात्कार करने की क्षमता प्रगट होने लगेगी।
साधक चाहे तो कोई भी एक तरीका अपनाकर शिवतत्त्व में जगने का यत्न कर सकता है। महाशिवरात्रि का यही उत्तम पूजन है।
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सत्र 10
वर्तमान समय में टी.वी. चैनलों, फिल्मों तथा पत्र-पत्रिकाओं में मनोरंजन के नाम देकर समाज के ऊपर जिसे थोपा जा रहा है, वह मनोरंजन के नाम पर विनाशक ही है।
पत्र-पत्रिकाओं के मुख-पृष्ठों तथा अन्दर के पृष्ठों पर अश्लील चित्रों की भरमार रहती है। इस दिशा में अपनी पत्रिकाओं में नई-नई कल्पनाओं को लाने के लिए पाश्चात्य पत्रिकाओं का अनुकरण किया जाता है।
फिल्मी जगत तथा टी.वी. चैनल तो मानों इस स्पर्धा के लिए ही आरक्षित हैं। हर बार नये-नये उत्तेजक तथा टी.वी. चैनल तो मानों इस स्पर्धा के लिए ही आरक्षित हैं। हर बार नये-नये उत्तेजक दृश्यों, अपराध की विधाओं, हिंसा के तरीकों का प्रदर्शन करना तो मानों इनका सिद्धान्त ही बन गया है।
वास्तव में मनोरंजन से तो मन हल्का होना चाहिए, चिंताओं का दबाव कम होना चाहिए परन्तु यहाँ तो सब कुछ उल्टा ही होता है। ऐसी पाशवी वृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है जिनकी नित्य जीवन की गतिविधियों में कोई गुंजाइश ही नहीं होती। मस्तिष्क की शिराओं पर दबाव, चित्रपट देखने के बाद मन में कोलाहल तथा प्रचंड उद्वेग। एक काल्पनिक कथा पर बनी फिल्म एक दूजे के लिए को देखकर सैंकड़ों युवक युवतियों द्वारा आत्महत्या जैसा पाप करना तथा शक्तिमान धारावाहिक में उड़ते हुए काल्पनिक व्यक्ति को देखकर कई मासूम बच्चों का छतों व खिड़कियों से कूदकर जान से हाथ धो बैठना, क्या यह विनाश की परिभाषा नहीं है ?
अहमदाबाद (गुज.) से 26 जनवरी 2000 को प्रकाशित एक समाचार पत्र का एक लेख छपा था। इस लेख का शीर्षक थाः टी.वी. चैनलों पर सुबह के कार्यक्रम में संतों की भीड़। इस लेख में वर्त्तमान समय में पतनोन्मुख समाज को आध्यात्मिक दिशा की ओर अग्रसर करने वाले संत समाज के ऊपर बड़ी आलोचनात्मक टिप्पणी की गई थी।
इसी
अर्द्धसाप्ताहिक
की पृष्ठ
संख्या दो पर एक
लेख छपा था।
इसका शीर्षक
था, युवती
के जीवन में
तीन पुरूष तो
हैं ही और चौथा
भी आयेगा क्या
?
यह लेख किसी सॉक्रेटीज के लिए एक पत्र है जिसमें सूरत (गुजरात) की सुरूपा नामक युवती (बी.काम. में अध्ययनरत) ने अपने जीवन के बारे में प्रश्न पूछा है।
इतिहास तो बताता है कि साक्रेटीज (सुकरात) आज से लगभग 2350 वर्ष पूर्व अपने शरीर को त्याग चुके हैं। अब यहाँ कौन से सुकरात पैदा हुए, यह तो भगवान ही जानें।
अपनी जीवनगाथा लिखते हुए वह युवती कहती है कि उसे अपने ही मुहल्ले का अभय नाम का युवक पसन्द आ गया और उसने उसके साथ शारीरिक संबंध बना लिया। उसके बाद उसे कॉलेज में पढ़ रहे निष्काम और शेखर के प्रति भी आकर्षण हो गया। अब वह सुरूपा घर में अभय, कालेज में निष्काम तथा रविवार को शेखर के लिए आरक्षित है। अप्रैल में उसकी परीक्षा पूरी होगी तथा उसके माता-पिता उसकी शादी कर देंगे।
अब वह युवती साक्रेटीज महोदय से प्रश्न करती है कि ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ ? क्योंकि मुझे तीनों लड़के पसंद हैं।
क्या उपरोक्त कहानी एक भारतीय कन्या के नाम पर बदनुमा दाग नहीं है ? हमारे शास्त्रों में आदर्श आर्यकन्या के रूप में सती सावित्री का नाम आता है जिसने सत्यवान को अपने पति के रूप में वरण किया था। जब सबको पता लगा कि सत्यवान अल्पायु है तो सभी ने सावित्री पर दबाव डाला कि वह किसी दूसरे युवक का वरण कर ले परन्तु भारत की वह कन्या अपने धर्म पर अडिग रहती है और उसकी इसी निष्ठा ने उसे यमराज के पास से उसके पति के प्राण वापस लाने में समर्थ बना दिया।
अब आप स्वयं विचार कीजिए कि भारत की कन्याओं के जीवन को महान बनाने के लिए 'संदेश' के प्रकाशन विभाग की सती सावित्री की कथा छापनी चाहिए या सुरूपा की ?
सुरूपा के बाद आइये सॉक्रेटीज महोदय के पास चलते हैं। देखिये कि वे सुरूपा के प्रश्न का कैसा जवाब देते हैं।
सॉक्रेटीज महोदय कहते हैं- "आपका कुछ नहीं होगा। आप चौथे को पसंद करोगी और शेष जीवन में संसार के तमाम सुख भोगोगी, यह बात मैं छाती ठोककर कहता हूँ। आपने तीन युवकों के साथ निकटता रखी और उनका भरपूर उपयोग किया, इस बात पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। यह उमर ही ऐसी है। आपके इस अहोभाग्य से अन्य युवतियाँ ईर्ष्या भी कर सकती हैं।
इस प्रकार का एक लम्बा चौड़ा जवाब साक्रेटीज महोदय ने दिया है। आप जरा सोचिये कि संसार तथा शरीर को नश्वर समझने वाले आत्मनिष्ठा के धनी साक्रेटीज के पास यदि यह बात जाती तो क्या वह ऐसा जवाब देते ? यह तो समाज के साथ बहुत बड़ा धोखा हो रहा है। यह तो अखबार के नाम पर भारतीय सनातन संस्कृति को तोड़क भोगवादी संस्कृति का साम्राज्य फैलाने का एक घिनौना षडयंत्र है।
पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण करके भारतीय समाज पहले ही पतन के बड़े गर्त में गिरा हुआ है। फैशनपरस्ती, भौतिकता तथा भोगवासना ने समाजोत्थान के मानदण्डों को ध्वस्त कर दिया है। युवा वर्ग व्यसनों तथा भोगवासना की दुष्प्रवृत्तियों का शिकार बन रहा है। ऐसी स्थिति में संतसमाज द्वारा ध्यान योग शिविरों, विद्यार्थी उत्थान शिविरों, रामायण तथा भागवत, गीता और उपनिषदों की कथा-सत्संगों के माध्यम से गिरते हुए मानव को अशांति, कलह तथा दुःखी जीवन से सुख, शांति एवं दिव्य जीवन की ओर अग्रसर करने के महत् कार्य किये जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों से लाखों-लाखों भटके हुए लोगों को सही राह मिल रही है। इसके कई उदाहरण हैं। यौवन सुरक्षा तथा महान नारी जैसी प्रेरणादायी पुस्तकों से तेजस्वी जीवन जीने की प्रेरणा व कला मिल रही है। यदि विवेक-बुद्धि से विचार किया जाय तो भारत का अन्न खानेवाले इन लोगों को अपनी सस्कृति के उत्थान के लिए सहयोग करना चाहिए परन्तु ये तो समाज की उन्नति में बाधा बनकर देशद्रोही की भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे लेख छापकर व्यभिचार और पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने का कुकृत्य कर रहे हैं।
पाश्चात्य देशों के अधिकांश लोग अपनी संस्कृति छोड़कर, उच्छ्रंखलता से बाज आकर सनातनी संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं परन्तु सनातनी संस्कृति के कुछ लोग पश्चिम की भोगवादी संस्कृति को अपना रहे हैं और उसका बड़े जोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं। यह कैसी मूर्खता है ?
जिनसे समाज की शांति, सत्प्रेरणा, उचित मार्गदर्शन तथा दिव्य जीवन जीने की कला मिल रही है, उनका तो विरोध होता है और जिनसे समाज में कुकर्म, व्यभिचार तथा चरित्रहनन जैसी कुचेष्टाओं को बढ़ावा मिले – ऐसे लेख प्रकाशित हो रहे हैं। अब आप स्वयं विचार कीजिए कि ऐसे लोग मानवता व संस्कृति के मित्र हैं या घोर शत्रु ?
मोहनदास करमचंद गाँधी ने बचपन में केवल एक बार सत्यवादी हरिश्चन्द्र नाटक देखा था। उस नाटक का उन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन सत्यव्रत लेने का संकल्प ले लिया तथा इसी व्रत के प्रभाव से वे इतने महान हो गये।
एक चलचित्र का एक बालक के जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है, यह गाँधी जी के जीवन से स्पष्ट हो जाता है। अब जरा विचार कीजिए कि जो बच्चे टी.वी. के सामने बैठकर एक ही दिन में कितने ही हिंसा, बलात्कार और अश्लीलता के दृश्य देख रहे हैं वे आगे चलकर क्या बनेंगे ? सड़क चलते हुए हमारी बहन, बेटियों को छेड़ने वाले लोग कहाँ से पैदा हो रहे हैं ? उनमें बुराई कहाँ से पैदा होती है ? कौन हैं ये लोग जो 5 और 10 साल की बच्चियों को भी अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं ? इनको यह सब कौन सिखाता है ? क्या ये किसी स्कूल से प्रशिक्षण लेते हैं ?
किसी भी स्कूल में ऐसा पाप करने का प्रशिक्षण नहीं मिलता। कोई भी माता-पिता अपने बच्चों से ऐसा पाप नहीं करवाते। इसके बावजूद भी ऐसे लोग समाज में हैं तो उसके कारण हैं टी.वी., सिनेमा तथा गन्दे पत्र-पत्रिकायें जिनके पृष्ठों पर अश्लील चित्र तथा सामग्रियाँ छापी जाती हैं।
कुछ समय पूर्व 'पाञ्चजन्य' में छपी एक खबर के अनुसार हैदराबाद के समीप चार युवकों ने रात के अँधेरे में राह चलती एक युवती को रोका तथा निकट के खेतों में ले जा कर उसके साथ बलात्कार किया। जब वे युवक पकड़े गये तो उन्होंने बताया कि वे उस समय सिनेमाघर से ठीक वैसा ही दृश्य ही देखकर आ रहे थे जिसका दुष्प्रभाव उनके मन पर बहुत गहरा उतर गया था।
जिस देश के ऋषियों ने कहाः यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता उसी देश की नारियों के लिए घर से बाहर निकलना भी असुरक्षित हो गया है। यह कैसा मनोरंजन है ? यह मनोरंजन नहीं है अपितु घर-घर में सुलगती वह आग है जो जब भड़केगी तो किसी से देखा भी नहीं जायेगा। जिस देश की संस्कृति में पति-पत्नी के लिए भी माता-पिता तथा बड़ों के सामने आपसी बातें करने की मर्यादा रखी गयी है, उसी देश के निवासी एक साथ बैठकर अश्लील दृश्य देखते हैं, अश्वलील गाने सुनते हैं। यह मनोरंजन के नाम पर विनाश नहीं तो और क्या हो रहा है ?
यदि आप अपनी बहन-बेटियों की सुरक्षा चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा किसी गली का माफिया न बने, डॉन न बने अथवा तो बलात्कार जैसे दुष्कर्मों के कारण जेलों में न सड़े, यदि आप चाहते हैं कि आपके नौनिहाल संयमी, चरित्रवान तथा महान बनें तो आज से ही इन केबल कनेक्शनों, सिनेमाघरों तथा अश्लीलता का प्रचार करने वाले पत्र-पत्रिकाओं का बहिष्कार कीजिए। हमें नैतिक तथा मानसिक रूप से उन्नत करने वाली फिल्मों की आवश्यकता है। हमें ऐसे प्रसारण चाहिए, ऐसे दृश्य चाहिए जिनसे स्नेह, सदाचार, सहनशीलता, करूणाभाव, आत्मीयता, सेवा-साधना, सच्चाई, सच्चरित्रता तथा माता-पिता, गुरूजनों एवं अपनी संस्कृति के प्रति आदर का भाव प्रगट हो जिससे हमारा देश दिव्यगुण सम्पन्न हो, आध्यात्मिक क्षेत्र का सिरताज बने। इसके लिये जागृत होकर हम सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए।
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टी.वी.
द्वारा पनपती
बुराइयों का
विरोध अत्यंत
आवश्यक
हिन्दुस्तान की मिट्टी में ऐसी खासियत है कि यहाँ कोई भगत सिंह हो जाता है, कोई दयानंद हो जाता है, कोई विवेकानंद हो जाता है। यह इस माटी की खासियत है कि यह माटी कभी वीरविहीन नहीं रही है। हजारों वर्षों से इस देश का यही इतिहास है। इससे पाश्चात्य देशों के लोगों को डर लगता है। उस डर को खत्म करने के लिए उन्होंने ने यह सूत्र अपनाया कि हिन्दुस्तान का कोई भी नौजवान स्वामी विवेकानन्द न होने पाय। हिन्दुस्तान का हर नौजवान माइकल जैक्सन हो जाय। इसकी तैयारी वे लोग कर रहे हैं। उनको पता है कि इस देश में माइकल जैक्सन हो जायेंगे तो चिन्ता की कोई बात नहीं क्योंकि वे इस देश को बेचने का ही काम करेंगे। भारतीय संस्कृति को ही बेचने का काम करेंगे। अगर कोई दूसरा विवेकानन्द खड़ा हो गया तो इस देश से बहुराष्ट्रीयवाद को मार-मारकर भगा देगा। इससे बचने के लिए उन्होंने एक घिनौना षडयंत्र रचा कि हिन्दुस्तान के नौजवानों का चरित्र खत्म करो और इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए वे लोग जी.टी.वी., स्टार टी.वी., प्राइम स्टार जैसे चौदह-पन्द्रह टेलिविजन चैनल इस देश में लाये और इन चैनलों पर रात दिन को कुछ दिखाया जाता है वह मनोरंजन नहीं बल्कि हमारे चरित्र को बर्बाद कर देने का एक साधन है। आज लोगों से पूछा जाता है कि आपके घर में एंटिना से डिश ऐंटिना कैसै लगा तो जवाब मिलता है मनोरंजन के लिये। तो क्या डिश ऐंटिना के बिना किसी का मनोरंजन नहीं होगा ? इस बात पर विचार करें। जिसके पास डिश ऐंटिना नहीं है उसने केबल कनेक्शन ले लिया इसका मतलब यही होता है कि बर्बादी का साधन ले लिया और वो भी मनोरंजन के नाम पर ! इस देश में धन्य तो वे लोग हैं जो डिश और केबल कनेक्शन देकर अपने घर और पड़ोसी के घर में भी आग लगा रहे हैं। जिस किसी घर में घुसो तो वहाँ टी.वी. चल रहा होता है। पूछो कि क्या कर रहे हैं ? तो जवाब मिलता है कि दिनभर काम से थक जाते हैं इसलिए कुछ तो मनोरंजन के लिए चाहिए न। छोटे-छोटे बच्चे, उनके माता-पिता और दादा-दादी तीन-तीन पीढ़ियाँ एक साथ बैठी हैं और देख क्या रही हैं ? ऐसे अश्लील दृश्य, गाने जो हम अपनी माताओं और बहनों के सामने गा नहीं सकते, सुन नहीं सकते ऐसे गीत अपने बच्चों को क्यों दिखाये और सुनाये जाते हैं ? गीत लिखने वालों ने तो अपना शरीर, अपनी कला, अपना ईमान यह सब कुछ बेच डाला है, जीवन बर्बाद कर डाला है। उससे भी बुरी बात दूसरी यह है कि घर-घर में जहाँ अभी भी भारतीय संस्कृति की बातें कहीं जाती हैं, जिस देश में बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता'. अभी उसी देश ये अश्लील दृश्य और गाने दिखाकर इस देश की संस्कृति का कबाड़ा नहीं तो और क्या कर रहे हैं ? वास्तव में इस देश के युवकों को गाना चाहिए 'मेरा रंग दे बसंती चोला, हम भारत देश के वासी हैं, हम ऋषियों की संतानें हैं, हम परमगुरू के बच्चे हैं' लेकिन इसकी जगह हम गा रहे हैं अश्लील गाने। यह संस्कृति का विनाश नहीं तो और क्या है ?
यह मनोरंजन नहीं है बल्कि घर-घर में सुलगती वह आग है जो जब भड़केगी तो आपसे देखा नहीं जायेगा कि आपके बच्चे क्या कर रहे हैं। टेलीविजन में जो फिल्में दिखाई जाती हैं वे अक्सर दो ही चीजें दिखाती हैं। एक तो अश्लीलता और दूसरी हिंसा। दोनों ही चीजें इतनी मात्रा में दिखायी जाती हैं कि आदमी के दिल-दिमाग पर ये चित्र छप जाते हैं। क्या आप जानते हैं कि आपके ये नौनिहाल बालक जिनको आप तो डॉक्टर, इन्जीनियर, शिक्षक बनाने का सपना देखते हैं लेकिन आप इन्हें खुद क्या दिखा रहे हैं ? सामान्यतः एक छोटा बच्चा एक दिन में पाँच घण्टे टी.वी. देखता है और होता क्या है कि स्कूल से आया, बस्ता फेंका और टी.वी. खोल कर बैठ गया। अब माँ बोलेगी कि बेटा ! गृहकार्य करो तो वह टी.वी. के सामने करेगा, भोजन भी टी.वी. के सामने करेगा। माँ बोलेगी कि बेटा ! खेलने जाओ तो बच्चा जवाब देता है कि फिल्म आ रही है, गाने आ रहे हैं। हम नहीं जाएँगे। गाने सुनेंगे, टी.वी. देखेंगे आदि। इससे बच्चों का आपस में खेलने से जो घुल मिल जाने का, प्रेमभाव का वातावरण जो उनके मस्तिष्क में बनना चाहिए वह न बनकर अब उसकी जगह अश्लीलता व हिंसा ने ले ली है और बच्चों को ही बात नहीं बड़ों को भी देखिये कि एक बार टी.वी. खोलकर बैठ गये और उन्हें लग भी रहा है कि यह दृश्य नहीं देखना चाहिए, फिर भी हमारा उसे बन्द करने का दृढ़ विवेक नहीं होता। हम इतने गुलाम हो गये हैं, कमजोर हो गये हैं, भ्रष्ट हो गये है। आपके बच्चे उन दृश्यों को कई-कई घंटे देखते रहते हैं। कुछ निकाले गये आँकड़ों के अनुसार एक 3 साल का बच्चा जब टी.वी. देखना शुरू करता है और उसके घर में यदि केबल कनेक्शन पर 12-13 चैनल उपलब्ध हैं तो प्रतिदिन 5 घंटे के हिसाब से वह बच्चा 20 साल की उम्र में जब पहुँचता है तो अपनी आँखों के सामने 33 हजार हत्याएँ देख चुकता है और लगभग 72 हजार बार वह बच्चा अश्लीलता व बलात्कार के दृश्य देखता है। यहाँ एक बात गम्भीरता से सोचने है कि मोहनदास करमचंद गाँधी नाम का एक छोटा सा बच्चा एक या दो बार हरिश्चन्द्र का नाटक देखने के बाद सत्यवादी हो गया और वही बच्चा महात्मा गाँधी के नाम से आज भी पूजा जा रहा है और पूजा जाता रहेगा। तो हरिश्चन्द्र का नाटक जब दिमाग पर इतना असर करता है कि जिन्दगीभर सत्य और अहिंसा का पालन करने वाला हो गया तो जो बच्चे 33 हजार बार हत्याएँ और 70-72 हजार बार बलात्कार के दृश्य देख रहे हैं वे क्या बनने वाले हैं ? आप भले झूठी उम्मीद करें कि आपका बच्चा बड़ा इंजीनियर बनेगा, वैज्ञानिक बनेगा, योग्य सज्जन बनेगा, महापुरूष बनेगा, लेकिन 72 हजार बलात्कार और 33 हजार हत्याएँ देखने वाला बच्चा क्या खाक बनेगा ? लेकिन यह बात सत्य है कि आपका बच्चा हो सकता है कि कहीं गली का माफिया बन जाय, डॉन बन जाय। यही बालक दिन रात टी.वी. पर बलात्कार और अश्लील दृश्य देखेगा तो आप देखेगा कि उम्र के एक दौर में पहुँचकर सड़क के किनारे खड़ा हो जायेगा और कोई भी बहन जायगी तो सीटी बजाएगा, टोंट कसेगा। आप जरा अपने आपसे तो पूछिये कि हमारी बहन-बेटियों को सड़क चलते छेड़ने वाले ये लोग कहाँ से पैदा हो रहे हैं ? उनमें बुराई कैसे फैलती है ? कौन हैं ये लोग ? इतनी हैवानियत और राक्षसी वृत्तिवाले व्यक्ति जो 5 और 10 साल की बच्चियों को भी नहीं छोड़ते और उन्हें अपनी अंधी हवस का शिकार बना लेते हैं ऐसे लोग कहाँ से आते हैं ? इनको ये सब कौन सिखाता है ? क्या किसी स्कूल में पढ़ाया जाता है या कहीं ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है ? हिन्दुस्तान की कौन सी स्कूल और कौन सी किताब में यह सब पढ़ाया जाता है ? जब ये बुराई किसी स्कूल में नहीं पढ़ाई जाती, घर में भी नहीं सिखाई जाती उसके बावजूद भी ये बुरे लोग कहाँ से आ जाते हैं ? उसके दो ही कारण हैं या तो टी.वी. या फिर सिनेमा। इस हिंसा का असर इतना खतरनाक होता है कि जितनी बार आपका बच्चा मारामारी और हिंसक दृश्य देखता है उतनी बार उसके हृदय से दयाभाव, करूणाभाव व प्रेमभाव खत्म हो जाता है।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है किः जब हमारे हृदय से दया ही खत्म हो जायगी तो फिर धर्म कहाँ से बचेगा ?
यह हिंसा हमें जानबूझकर दिखाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि अच्छे कार्यक्रम दिखाने वाले लोग नहीं हैं। अच्छे कार्यक्रम बनाने वाले लोग भी हैं और दिखाने वाले लोग भी हैं लेकिन जानबूझकर वे सेक्स अथवा मारामारी ही तो दिखाते हैं। यह हिंसा, क्रूरता, छल-कपट, अश्लीलता के दृश्य देखते-देखते आज हम इतने संवेदनशून्य हो गये है कि 1984 में भोपाल में जब 10000 लोग मर गये तो किसी की आँखों में आँसू नहीं निकले। सिनेमा और टी.वी. पर मारामारी देखकर हमारे दिल की करूणा जो नितांत आवश्यक है वो आज बिल्कुल सूख चुकी है। हमारे सामने कत्ल हो जाता है और हम सामने से चुपचाप निकल जाते हैं। सारी इन्सानियत, सारी मानवीयता एक तरफ धरी रह जाती है। टी.वी. का असर इतना हावी होता है। इसलिए टी.वी. के इस आक्रमण को हम रोक लें नहीं तो हमारा घर भी नहीं बचेगा. देश बचेगा या समाज बचेगा यह तो दूर की बात है। हम सिर्फ अपना ही घर बचा लें तो बहुत है। हम घर को बचाने से समाज, देश व विश्व बच सकेगा हर माँ-बाप के लिए अपना बच्चा दुनिया में सबसे लाडला व्यक्ति होता है और उसी को हमने उन भेड़ियों के बीच झोंक दिया है जो यह तक नहीं जानते कि मानवीयता क्या होती है ? दया क्या होती है ? आज घर-घर में टी.वी. के लिए होड़ लग गई है। क्या आप जानते हैं कि यह आपको क्या सिखाता है ? घर की बढ़े शान, पड़ोसी की जले जान और नेवर्स एनवी ओनर्स प्राइड अर्थात् आपके घर की शान तब बढ़ेगी जब पड़ोसी की जान जलेगी। आपका धर्म कहता है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' और टी.वी. कहता है कि पड़ोसी की जान जलाओ और हम अपने पड़ोसी की जान जलाने के लिए ओनिडा खरीद लाय और पड़ोसी हमारी जान जलाने के लिए ओनिडा खरीद लाय और दोनों पड़ोसी एक दूसरे की जान जलाने के लिए लगे हुए हैं। कब दोनों के घर जल जाएँगे किसी को नहीं मालूम। एक बात गंभीरता से सोचने की है कि जब किसी ईमानदार युवक के दिमाग में यह बात बैठ जायेगी कि घर की शान तब बढ़ेगी जब ओनिडा आयेगा लेकिन उसकी जेब में दस रूपया भी नहीं है और ओनिडा टी.वी. के लिए 17000 रूपये चाहिए तो रात दिन उसके दिमाग में यह धनचक्कर शुरू हो जाएगा और एक दिन ऐसा आयेगा कि 17000 रूपये के लिए वह अपने ईमान को, अपने देश को बेच देगा, क्योंकि ओनिडा जो लाना है। और यहीं से एक ईमानदार आदमी के बेईमान होने की कहानी शुरू हो जाती है। यही बात जब उसके पिता के मन में आती है तो वे कहते हैं कि लाओ, कहीं से रिश्वत क्योंकि इसके बिना घर की शान नहीं है और मान लीजिए कि यही बात अगर उसकी माँ के दिमाग में बैठ गई और वह कहीं नौकरी नहीं करती, गृहिणी है तो जानते हैं वह क्या कहेगी ? कहेगी के अब इस लड़के की जब शादी करेंगे तो दहेज में लेंगे। तो एक ईमानदार माँ बेईमान होगी। शादी के बाद पता चला कि घर में सारा सामान आ गया लेकिन एक टी.वी. नहीं आया तो आने वाली उस दुल्हन को हम दहेज के लिए जिन्दा जला देंगे। ऐसा भी इस देश में बहुत जगह होता है। एक टी.वी. के लिए हम एक जीती जागती महिला को जला देते हैं। इससे ज्यादा संस्कृति की निकृष्टता क्या हो सकती है कि हमारे समाज में एक जीती जागती बहन से ज्यादा कीमत टी.वी. की हो गई है और जबसे ऐसी कीमतें लगनी शुरू हो गई हैं तबसे आप देखिये अखबारों में कोई दिन बाकी नहीं जाता जब दहेज के लिए किसी की हत्या न होती हो।
तो इन सब तथ्यों को पढ़ जान लेने के बाद हमें चाहिए कि हम आज से ही वंश नाशनी, कुल कलंकनी चैनलों से अपने परिवार की रक्षा करें। काट दो कनेक्शनों को।
सभी देशवासी मिलकर कदम उठायें, कन्धे से कन्धा मिलाकर उन हिंसक, भ्रष्ट, दयाभाव से रहित, दुर्गुण अभिवर्धक चैनलों का कड़ा विरोध करें। हमें चाहिए समाजिक, नैतिक एवं मानसिक रूप से उन्नत करने वाली फिल्में जिससे हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सके। हमारे जीवन का उत्थान करने हेतु उच्च गुण सम्पन्न कार्यक्रमों को चलाने की माँग की जाय जिससे बालकों, युवाओं में दुर्गुण, दुर्भाव न पनपकर स्नेह, सदाचार, सहनशीलता, करूणाभाव, आत्मीयता, सेवा-साधना, सच्चाई, ईश्वर-भक्ति, माता-पिता व गुरूजनों के प्रति आदरभाव जैसे महान गुण पनपें जिससे हमारा भारत देश दिव्य गुण सम्पन्न हो। आध्यात्मिक क्षेत्र में फिर से सिरताज बने। हमें इसके लिए जागृत होकर बुराई को हटाने का निर्भयता से पुरूषार्थ करना चाहिए। हम अपने भाग्य के विधाता स्वयं हैं।
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सत्र 11
फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाने वाला पर्व 'होली' वर्ष का अंतिम पर्व है। यह ऐसा पर्व है जिसमें सभी वर्णों के लोग बिना किसी सदभाव के सम्मिलित होते हैं।
प्राचीन काल में होलिकोत्सव के अवसर पर वेद के रक्षोहणं बलगहणम्.... आदि राक्षस विनाशक मंत्रों से यज्ञ की अग्नि में हवन किया जाता था और इसी पूर्णिमा से प्रथम चतुर्मास सम्बन्धी वैश्वदेव नामक यज्ञ का आरंभ होता था, जिसमें लोग खेतों में तैयार की हुई नयी आषाढ़ी फसल के अन्न – गेहूँ, जौ, चना आदि की आहुति देकर उस अर्थात बचे हुए अन्न को यज्ञशेष प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। यज्ञांत में लोग उस भस्म को सिर पर धारण करके वंदना किया करते थे, जिसका विकृत रूप आज राख को बलात् लोगों पर उड़ाने के रूप में रह गया है। उस समय का धूलिहारी शब्द ही आज ही विकृत होकर धुलैंडी बन गया है।
शब्दकोष ग्रन्थों के अनुसार भुने हुए अन्न को संस्कृत भाषा में होलका नाम से पुकारा जाता है। अतः इसी नाम पर होलिकोत्सव का प्रारंभ मानकर इस पर्व को हम वेदकालीन कह सकते हैं। आज भी होलिकादहन के समय डंडे पर बँधी गेहूँ-जौ की बालियों को भूनते हैं – यह प्राचीन होलिकोत्सव की ही स्मृति दिलाता है।
वैदिक काल में यज्ञ के रूप में मनाये जाने वाले पर्व होलिकोत्सव में समय के साथ अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ती गयीं। नारद पुराण के अनुसार यह पवित्र दिन परमभक्त प्रह्लाद की विजय और हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के विनाश की स्मृति का दिन है।
भविष्य पुराण में इस पर्व से सम्बन्धित एक और घटना का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि महाराजा रघु के राज्यकाल में ढुण्ढा नामक राक्षसी के उपद्रवों से भयभीत प्रजाजनों ने महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार बालकों को लकड़ी की तलवार ढाल आदि देकर हो हल्ला मचाते हुए (राक्षसी विनाशार्थ आचरण का अभिनय करते हुए) स्थान-स्थान पर अग्नि-प्रज्वलन तथा अग्नि-क्रीड़ा आदि का आयोजन किया था और इस प्रकार वह राक्षसी बाधा वहाँ सर्वथा शांत हो गयी थी। वर्त्तमान में होलिकोत्सव में बालकों का उपद्रव करना और हो हल्ला मचाना आदि बातें इसी घटना की देन कही जाती है।
मानव समाज के हित को ध्यान में रखते हुए हमारे अन्य पर्वों की भाँति होली के पीछे भी ऋषि-मुनियों का एक विशेष दृष्टिकोण रहा है। होली मनाने की रीति मानव-स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव डालती है। देशभर में एक साथ एक रात में संपन्न होने वाला होलिकादहन शीत और ग्रीष्म ऋतु की संधि में होने वाली अनेक बीमारियों जैसे – खसरा, मलेरिया आदि से रक्षा करता है। जगह-जगह पर प्रज्वलित महाअग्नि की प्रदीप्त ज्वालाएँ आवश्यकता से अधिक ताप द्वारा समस्त वायुमंडल को उष्ण बनाकर जहाँ एक ओर रोग के कीटाणुओं को संहार कर देती हैं, वही दूसरी ओर प्रदक्षिणा के बहाने अग्नि की परिक्रमा करने से शरीरस्थ रोग के कीटाणु को भी नष्ट करने में समर्थ होती है।
इस ऋतु में शरीर के कफ के पिघलने के कारण स्वाभाविक ही आलस्य की वृद्धि होती है। महर्षि सुश्रुत ने वसंत को कफ-कोपक ऋतु माना हैः
कफश्चितो
हि शिशिरे
वसन्तेऽर्काशु
तापितः।
हत्वाग्रिं
कुरूते
रोगानतस्तं
त्वरया जयेत्।।
'शिशिर ऋतु में इकट्ठा हुआ कफ वसंत में पिघल-पिघलकर कुपित होकर जुकाम, खाँसी, श्वास, दमा आदि नाना प्रकार के रोगों की सृष्टि करता है।'
इसका शमन करने के लिए कहा गया हैः
तीक्ष्णैर्वमननस्याद्यैर्लघुरूक्षैश्च
भोजनै।
व्यायामोद्
वर्तघातैर्जित्वा
श्लेष्माणमुल्बणम्।।
'तीक्षण वमन, तीक्षण नस्य, लघु रूक्ष भोजन, व्यायाम, उद्वर्तन और आघात आदि का प्रयोग कफ को शांत करता है।'
होली के दिन किया जाने वाला गाना-बजाना, कूदना-फाँदना, भागना-दौड़ना आदि सब ऐसी ही क्रियाएँ हैं जिनसे कफ प्रकोप शांत हो जाता है और सहसा कोई कफजन्य रोग या अन्य बीमारी नहीं होती।
होली रंग का त्योहार है। इस पर्व पर जिस रंग के प्रयोग का विधान शास्त्रकारों ने किया है वह है पलाश अर्थात् ढाक के फूलों टेसुओं का रंग। हमारी संस्कृति में ढाक एक पुनीत वृक्ष माना जाता है। ब्रह्मचारी को उपनयन के समय ढाक का ही दंड धारण करवाया जाता है एवं सर्व साधारण के लिए यथार्थ समिधा भी ढाक की ही बतलायी गयी है।
ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंग एक प्रकार से उसके फूलों का अर्क ही होता है। उस रंग में भीगा हुआ कपड़ा शरीर पर डाल दिया जाय तो रंग शरीर के रोमकूपों के द्वारा आभ्यान्तरिक स्नायु मंडल पर अपना प्रभाव डालता है और संक्रामक बीमारियों को शरीर के पास फटकने तक नहीं देता। यज्ञ मधुसूदन के अनुसारः
एतपुष्पं
कफं पित्तं
कुष्ठं दाहं
तृषामपि।
वातं
स्वेदं
रक्तदोषं
मूत्रकृच्छं
च नाशयेत्।।
'ढाक के फूल कुष्ठ, दाह, वात, पित्त, कफ, तृषा, रक्तदोष एवं मूत्रकृच्छ आदि रोगों का नाश करने में सहायक है।'
सिंघाड़े के आटे से तैयार किया गया गुलाल भी ऐसी ही पवित्र वस्तुओं में से है। प्राचीन भारत की होली में पलाश के पुष्पों का रंग, गुलाल, अबीर और चंदन का ही उपयोग किया जाता था। वर्त्तमान में जिन रंगों का प्रयोग किया जाता है उनका निर्माण विभिन्न रासायनिक (कैमिकल) तत्त्वों से होता है जो श्वास एवं रोमकूपों द्वारा शरीर को बड़ी हानि पहुँचाते हैं। अतः इन रासायनिक रंगों से सावधान रहें.....
जब वैदि ढंग से होली मनायी जाती थी, उस जमाने में मानसिक तनाव-खिंचाव आदि नहीं होते थे, किन्तु आज जहरीले रंगों के प्रयोग से, कीचड़ आदि उछालने से एवं शराब आदि पीने पिलाने से होली का रूप बड़ा विकृत हो गया है।
जहरीले रंगों की जगह पलाश के रंग का प्रयोग करें तो अच्छा है। इससे भी बढ़कर है कि परम पावन परमात्मा के नाम संकीर्तन में रंगे-रँगायें एवं छोटे बड़े, मेरे-तेरे के भेदभाव को भूलकर सभी में उसी एक सत्यस्वरूप, चैतन्यस्वरूप परमात्मा कि निहारें तथा अपना जीवन धन्य बनाने के मार्ग पर अग्रसर हों....
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मानव के सर्वांगीण विकास में उसका व्यक्तित्व एक अहम् भूमिका अदा करता है और उसके व्यक्तित्व के विकास में रंगों का अपना अलग महत्व है। यदि किसी व्यक्ति को पहचानना हो, उसके स्वभाव का आकलन करना हो, उसके व्यक्तित्व का अनुमान लगाना हो तो वह उसकी वेशभूषा और उसके द्वारा पसंद किये गये रंगों के आधार पर सहजता से लगाया जा सकता है।
एक सज्जन और शांत स्वभाव की महिला ने घर बदला और नये घर में डिजाइनयुक्त कलर करवाया... लाल, गुला कुछ दिनों के बाद उस महिला का स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा हो गया, खिन्न हो गया। इस बात की जाँच की गयी कि वह नये मकान में आकर चिड़चिड़े स्वभाव की क्यों हो गयी ? जाँच करते करते पता चला कि उसके निजी कक्ष की दीवारों के रंग का उसके मन पर असर हुआ है।
आपके मन पर रंगों का प्रभाव पड़ता है और आपके स्वभाव के अनुसार ही आपको कुछ विशेष रंग अच्छे लगते हैं। आपको किस रंग के वस्त्र पसंद हैं ? इसके आधार पर आपके स्वभाव को मापा जा सकता है। जैसे
भगवा रंगः जिसको गेरू रंग के वस्त्र (मिल के नहीं) पसंद हैं तो समझो कि वह व्यक्ति संयमप्रिय है, तपप्रिय है और भगवा रंग तप करने में मदद भी करता है। ऐसा व्यक्ति स्वच्छता पसंद करता है और उसके स्वभाव में सज्जनता का गुण प्रबल होता है यह भगवे रंग का प्रभाव है।
लाल रंगः अगर आपको लाल रंग पसंद है या आप लाल रंग के वस्त्र पहनते हैं तो यह मांगल्य का सूचक है। लाल रंग अर्थात् तिलक (कंकु) लगाने वाला या गुलालवाला लाल रंग गाढ़ा लाल नहीं। एकदम गाढ़ा लाल रंग तो कामुकता की खबर देता है,लेकिन कुमकुम, गुलाल आदि को मांगल्य माना जाता है, इसीलिए तिलक करने और पूजन में इनका प्रयोग किया जाता है। ऐसा रंग शौर्यप्रियता का प्रतीक है और विजयी होने की प्रेरणा भी देता है।
पीला रंगः पीला रंग ज्ञान, विद्या, सुख-शांतिमय स्वभाव और विद्वता का प्रतीक है। पीला अर्थात् हल्दीमय पीला।
हरा रंगः अगर आप हरा रंग पसंद करते हैं या हरी-भरी प्रकृति को पसंद करते हैं तो इससे सुंदरता, मन की शांति, हृदय की शीतलता तथा उद्योगी, चुस्त और आत्मविश्वासी चित्त की खबर आती है।
नीला रंगः अगर किसी को आसमानी नील रंग पसंद है तो इससे सिद्ध होता है कि उसके चित्त में औदार्य है, व्यापकता है। नीला रंग पसंद करने वाले व्यक्ति में पौरूष, धैर्य, सत्य और धर्मरक्षण की वृत्ति दृढ़ होती है।
एक संन्यासी एक प्रसिद्ध स्कूल में गये और उन्होंने बच्चों से पूछाः
"श्रीकृष्ण का वर्ण श्याम क्यों है ?"
सब बच्चे और शिक्षक ताकते रह गये, लेकिन कुछ देर बाद पूरे स्कूल की लाज रखने वाला एक विद्यार्थी उठा और बोलाः "भगवान श्रीकृष्ण का वर्ण श्याम इसलिए है कि श्रीकृष्ण व्यापक हैं।"
संन्यासीः "इस बात का क्या प्रमाण है ?"
विद्यार्थीः "जो वस्तु व्यापक होती है वह नील वर्ण की होती है। जैसे सागर और आकाश व्यापक हैं, अतः उनका रंग नीला है। ऐसे ही परमात्मा व्यापक हैं। उनकी व्यापकता को बताने के लिए उनके साकार श्रीविग्रह का रंग नील वर्ण बताया गया है।"
पूछने वाले संन्यासी थे स्वामी विवेकानंद और उत्तर देने वाला विद्यार्थी था मद्रास के होनहार मुख्यमंत्री राजगोपालाचार्य।
श्वेत रंगः इसमें सब रंगों का आंशिक समावेश पाया जाता है। यह रंग पवित्रता, शुद्धता, शांतिप्रियता और विद्याप्रियता का प्रतीक है।
काला रंगः काला रंग, शोक, दुःख, निराशा, पतन, पलायनवादिता और स्वार्थप्रियता को दर्शाता है।
मटमैला रंगः मटमैला रंग गंभीरता, विनम्रता, सौम्यता, लज्जा और कर्मठता का प्रतीक माना गया है।
इस प्रकार रंग मानव-स्वभाव का चित्रण करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
इन सब वस्त्रों के रंग तो ठीक हैं.....अच्छे हैं, लेकिन धोते-धोते फीके पड़ जाते हैं, जबकि आत्मरंग ऐसा रंग है जो कभी फीका नहीं पड़ता, बदरंग नहीं होता। श्री भोले बाबा कहते हैं-
सब का
रंग कच्चे
जांय उड़ यक
रंग पक्के में
रंगे।
और वह पक्का
रंग है – अद्वैत
आत्मतत्त्व
का रंग, परमात्म-रंग।
मीरा ने भी कहाः
श्याम
पिया मोरी रंग
दे चुनरिया, ऐसी रंग कि
रंग नाहीं
छूटे,
धोबी
धोये चाहे
सारी उमरिया.....
हमारी इन्द्रियों पर, हमारे मन पर संसार का रंग पड़ता है। रंग लगता भी है और बदलता भी रहता है, लेकिन भक्ति और ज्ञान का रंग यदि एक बार भी लग जाय तो मृत्यु के बाप की भी ताकत नहीं है कि उस भक्ति और ज्ञान के रंग को छुड़ा सके।
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सत्र 12
घटित घटना हैः प्रसिद्ध गामा पहलवान, जिसका मूल नाम गुलाम हुसैन था, से पत्रकार जैका फ्रेड ने पूछाः "आप एक हजार से भी ज्यादा कुश्तियाँ खेल चुके हैं। कसम खाने के लिए भी लोग दो-पाँच कुश्तियाँ हार जाते हैं। आपने हजारों कुश्तियों में विजय पायी है और आज तक हारे नहीं हैं। आपकी इस विजय का रहस्य क्या है ?"
गुलाम हुसैन (गामा पहलवान) ने कहाः "मैं किसी महिला की तरफ बुरी नजर से नहीं देखता हूँ। मैं जब कुश्ती में उतरता हूँ तो गीता नायक श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ और बल की प्रार्थना करता हूँ। इसीलिए हजारों कुश्तियों में मैं एक कुश्ती भी हारा नहीं हूँ, यह संयम और श्रीकृष्ण की ध्यान की महिमा है।"
ब्रह्मचर्य का पालन एवं भगवान का ध्यान.... इन दोनों ने गामा पहलवान को विश्वविजयी बना दिया ! जिसके जीवन में संयम है, सदाचार है एवं ईश्वर-प्रीति है वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल होता ही है इसमें सन्देह नहीं है।
युवानों को चाहिए की गामा पहलवान के जीवन से प्रेरणा लें एवं किसी भी स्त्री के प्रति कुदृष्टि न रखें। इसी प्रकार युवतियाँ भी किसी पुरूष के प्रति कुदृष्टि न रखें। यदि युवक-युवतियों ने इतना भी कर लिया तो पतन की खाई में गिरने से बच जायेंगे क्योंकि विकार पहले नेत्रों से ही घुसता है बाद में मन पर उसका प्रभाव पड़ता है। फिल्म के अश्लील दृश्य या उपन्यासों के अश्लील वाक्य मनुष्य के मन को विचलित कर देते हैं और वह भोगों में जा गिरता है। अतः सावधान !
मन को ऐसे ही दृश्य दिखायें कि मन भगवन्मय बने। ऐसा ही सत्साहित्य पढ़ें कि मन में ईश्वर-प्राप्ति के, ईश्वर-प्रीति के विचार आयें। किसी के भी प्रति कुदृष्टि न रखें। जैसे गामा पहलवान ने यह सूत्र अपनाया और सफल रहा वैसे ही यदि भारत का युवावर्ग यह सूत्र अपना ले तो हर क्षेत्र में सफल हो सकता है।
शाबाश, भारत के नौजवानो, शाबाश ! आगे बढ़ो..... संयमी व सदाचारी बनो.... भारत की गौरवमयी गरिमा को पुनः लौटा लाओ..... विश्व में पुनः भारत की दिव्य संस्कृति की पताका फहराने दो....
संयम-सदाचार व भगवद्प्रीति से परिपूर्ण जीवन तुम्हें तो उन्नति के शिखर पर आरूढ़ करेगा ही, तुम्हारे देश की आन-बान और शान की रक्षा में भी सहायक होगा ! करोगे न हिम्मत ! 'युवाधन सुरक्षा अभियान' के तहत भारत के युवा आप तो चेतेंगे ही, औरों को भी दलदल में गिरने से बचायें.... प्रयत्न करना कि भारत के हर युवक तक 'युवाधन सुरक्षा' की पुस्तकें (भाग 1 व 2) पहुँचे। सभी युवक-युवतियाँ ब्रह्मचर्य की महिमा को समझें, समझायें एवं जीवन को ओजस्वी-तेजस्वी बनायें।
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मौन का अर्थ है अपनी वाक् शक्ति का व्यय न करना। मनुष्य जैसे अन्य इन्द्रियों के प्रयोग से अपनी शक्ति खर्च करता है, वैसे ही बोलकर भी अपनी शक्ति का बहुत व्यय करता है। अन्य इन्द्रियों के माध्यम से अपनी शक्ति खर्च करने में मनुष्य, पशुओं एवं पक्षियों में समानता है परन्तु वाणी के प्रयोग के सम्बन्ध में मनुष्य की स्थिति अन्य प्राणियों से भिन्न है। मनुष्य वाणी के संयम द्वारा अपनी शक्ति का विकास कर सकता है। अतः अपनी शक्ति को अपने अन्दर संचित करने के लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है।
मौन की महिमाः प्रायः देखा गया है कि मनुष्य अपनी बोलने की शक्ति का अपव्यय करता है, दुरूपयोग करता है। संसार में अधिकांशतः झगड़े वाणी के अनुचित प्रयोग के कारण ही होते हैं। यदि मनुष्य समय-समय पर मौन धारण करे अथवा कम बोलकर वाणी का सदुपयोग करे तो बहुत सारे झगड़े तो अपने आप ही मिट जावेंगे।
मौन आवश्यकः वास्तव में, मौन शीघ्र ही साधा जा सकता है परन्तु लोगों को बोलने की ऐसी आदत पड़ गई है कि सरलता से सधने वाला मौन भी उन्हें कठिन मालूम होता है। मन को स्थिर रखने में मौन बहुत ही सहायक होता है। स्थिर मन से मनुष्य में छिपी हुई आन्तरिक शक्तियों एवं सात्त्विक दैवी गुणों का विकास होता है। अतः सामर्थ्य की वृद्धि के लिए कम बोलना अथवा जितना सम्भव हो सके मौन धारण करना आवश्यक है।
व्यर्थ
वाद-विवाद
करने वाले के
शरीर को कई
रोग घेर लेते
हैं।
आयुर्वेद ग्रन्थ कश्यप-संहिता
कश्यप संहिता आयुर्वेदशास्त्र का उत्तम ग्रन्थ है। उसमें बोलने की प्रक्रिया बताते हुए कहा गया है कि अविसंवादि-पेशलम् अर्थात् बोलने में स्पष्टता होनी चाहिए लेकिन विसंवाद नहीं होना चाहिए। जिसको कहने से लोग वाद-विवाद करने लगें, ऐसी विवादास्पद बात को लोगों के सामने रखने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जो लोग बात बढ़ाने वाली बात नहीं बोलते, उनके शरीर में रोग नहीं होते। यदि स्वस्थ रहना चाहते हो तो वाद विवाद बढ़ाने वाली बातें मुँह से मत बोलो। वाद-विवाद बढ़ाने वाली बातों से शरीर में कई प्रकार के रोगों का उदय हो जाता है। यह कश्यप-संहिता का मत है।
मौन का फलः तोता हरे रंग का होता है। अतः जब वह किसी हरे वृक्ष पर बैठा होता है तो चिड़ीमार को वह नहीं दिखता परन्तु जब वह टें-टें करता है तो चिड़ीमार उसे देख लेता है और बंदूक से निशाना लगाकर उसे मार गिराता है। जब तक तोता मौन था, तब तक आनंद में था परन्तु जब मुख से आवाज निकली तो गोली का शिकार हो गया। इसी प्रकार मनुष्य में भले ही हजारों दोष क्यों न हो, मौन अथवा शान्त होकर ईश्वर का नाम जपने से वे दोष दूर होने लगते हैं।
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सत्र 13
जमशेदपुर
(बिहार) में
आयोजित
सत्संग
समारोह में
विद्यार्थियों
के लिए रखे
गये विशेष
कार्यक्रम
में बालकों को
सम्बोधित
करते हुए पूज्य
बापू ने कहाः "इतिहास
हमें बहुत गलत
जानकारी दे
रहा है। इसमें
सुधार लाना
आवश्यक है।
इतिहासकार
लिखते हैं कि
कोलम्बस ने
अमेरिका तथा
वास्कोडिगामा
ने भारत की
खोज की थी
जबकि
वास्तविकता
यह है कि
दोनों लुटेरे
थे। एक ने
भारत को लूटा
और दूसरे ने
अमेरिका के
अस्सी हजार
मूल
निवासियों की
हत्या करके
लूट-पाट की।
ये दोनों गैंग
(गुट) बना कर
समुद्री
जहाजों में
सवार
व्यक्तियों को
लूटते थे। एक
बार दोनों
गुटों के बीच
झगड़ा हो गया।
झगड़ा
सुलझाने के
लिए वे पोप
जान पाल द्वितीय
के पास
पहुँचे। पोप
ने कोलम्बस को
पूर्वी तथा
वास्कोडिगामा
को पश्चिमी छोर
दे दिया।
जहाजों को
लूटते हुए
कोलम्बस अमेरिका
पहुँचा तथा
वहाँ 80 हजार
लोगों की
हत्या कर दी।
दूसरी ओर
वास्कोडिगामा
कालीकट
पहुँचा। हिन्दू-मुसलमान
मेहमानबाजी
में विश्वास
रखते हैं। उस
समय वहाँ के
शासक नवाब का
मेहमान बनकर-हम
आपके अतिथि
हैं, मेहमान
हैं – ऐसा
कहकर उन्हें
पटाया। अपने
पैर जमाये और
मौका पाकर
नवाब की हत्या
करवा दी। शासन
की बागडोर
वास्कोडिगामा
व उसके साथी
लुटेरों ने
हथिया ली। इसके
बाद उसने भारत
से सोने को
जहाजों में
भरकर ले जाना
शुरू कर दिया।
पहले सात, फिर ग्यारह
और उसके बाद
बीस जहाजों
में सोना भरकर
वह अपने देश
ले गया।"
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प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म के प्रति श्रद्धा एवं आदर होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा हैः
श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः
परधर्मात्स्वनुष्ठतात्।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः
परधर्मों
भयावहः।।
"अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म के गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।"
(गीताः 3.35)
जब भारत पर मुगलों का शासन था, तब की यह घटित घटना हैः
चौदह वर्षीय हकीकत राय विद्यालय में पढ़ने वाला सिंधी बालक था। एक दिन कुछ बच्चों ने मिलकर हकीकत राय को गालियाँ दीं। पहले तो वह चुप रहा। वैसे भी सहनशीलता तो हिन्दुओं का गुण है ही..... किन्तु जब उन उद्दण्ड बच्चों ने गुरूओं के नाम की और झूलेलाल व गुरू नानक के नाम की गालियाँ देना शुरू किया तब उस वीर बालक से अपने गुरू और धर्म का अपमान सहा नहीं गया।
हकीकत राय ने कहाः "अब हद हो गयी ! अपने लिये तो मैंने सहनशक्ति का उपयोग किया लेकिन मेरे धर्म, गुरू और भगवान के लिए एक भी शब्द बोलोगे तो यह मेरी सहनशक्ति से बाहर की बात है। मेरे पास भी जुबान है। मैं भी तुम्हें बोल सकता हूँ।"
उद्दण्ड बच्चों ने कहाः "बोलकर तो दिखा ! हम तेरी खबर लेंगे।"
हकीकत राय ने भी उनको दो चार कटु शब्द सुना दिये। बस, उन्हीं दो चार शब्दों को सुनकर मुल्ला मौलवियों का खून उबल पड़ा। वे हकीकत राय को ठीक करने का मौका ढूँढने लगे। सब लोग एक तरफ और हकीकतराय अकेला एक तरफ।
उस समय मुगलों का ही शासन था इसलिए हकीकत राय को जेल में कैद कर दिया गया।
मुगल शासकों की ओर से हकीकत राय को यह फरमान भेजा गया किः "अगर तुम कलमा पढ़ लो और मुसलमान बन जाओ तो तुम्हें अभी माफ कर दिया जायेगा और यदि तुम मुसलमान नहीं बनोगे तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा।"
हकीकत राय के माता-पिता जेल के बाहर आँसू बहा रहे थे किः "बेटा ! तू मुसलमान बन जा। कम-से-कम हम तुम्हें जीवित तो देख सकेंगे !" ....लेकिन उस बुद्धिमान सिंधी बालक ने कहाः
"क्या मुसलमान बन जाने के बाद मेरी मृत्यु नहीं होगी ?"
माता-पिताः "मृत्यु तो होगी।"
हकीकत रायः "तो फिर मैं अपने धर्म में मरना पसंद करूँगा। मैं जीते-जीते जी दूसरों के धर्म में नहीं जाऊँगा।"
क्रूर शासकों ने हकीकत राय की दृढ़ता देखकर अनेकों धमकियाँ दीं लेकिन उस बहादुर किशोर पर उनकी धमकियों का जोर न चल सका। उसके दृढ़ निश्चय को पूरा राज्य-शासन भी न डिगा सका।
अंत में मुगल शासक ने उसे प्रलोभन देकर अपनी ओर खींचना चाहा लेकिन वह बुद्धिमान व वीर किशोर प्रलोभनों में भी नहीं फँसा।
आखिर क्रूर मुसलमान शासकों ने आदेश दिया किः "अमुक दिन बीच मैदान में हकीकत राय का शिरोच्छेद किया जायगा।"
उस वीर हकीकत राय ने गुरू का मंत्र ले रखा था। गुरूमंत्र जपते-जपते उसकी बुद्धि सूक्ष्म हो गयी थी। वह चौदह वर्षीय किशोर जल्लाद के हाथ में चमचमाती हुई तलवार देखकर जरा भी भयभीत न हुआ वरन् वह अपने गुरू के दिये हुए ज्ञान को याद करने लगा किः "यह तलवार किसको मारेगी ? मार-मारकर इस पंचभौतिक शरीर को ही तो मारेगी और ऐसे पंचभौतिक शरीर तो कई बार मिले और कई बार मर गये। ....तो क्या यह तलवार मुझे मारेगी ? नहीं। मैं तो अमर आत्मा हूँ.... परमात्मा का सनातन अंश हूँ। मुझे यह कैसे मार सकती है ? ॐ....ॐ.....ॐ......."
हकीकत राय गुरू के इस ज्ञान का चिंतन कर रहा था, तभी क्रूर काजियों ने जल्लाद को तलवार चलाने का आदेश दिया। जल्लाद ने तलवार उठायी लेकिन उस निर्दोष बालक को देखकर उसकी अंतरात्मा थरथरा उठी। उसके हाथों से तलवार गिर पड़ी और हाथ काँपने लगे।
काजी बोलेः "तुझे नौकरी करनी है कि नहीं ? यह तू क्या कर रहा है ?"
तब हकीकत राय ने अपने हाथों से तलवार उठायी और जल्लाद के हाथ में थमा दी। फिर वह किशोर हकीकत राय आँखें बंद करके परमात्मा का चिंतन करने लगाः "हे अकाल पुरूष ! जैसे सांप केंचुली का त्याग करता है वैसे ही मैं यह नश्वर देह छोड़ रहा हूँ। मुझे तेरे चरणों की प्रीति देना ताकि मैं तेरे चरणों में पहुँच जाऊँ.... फिर से मुझे वासना का पुतला बनकर इधर-उधर न भटकना पड़े.....अब तू मुझे अपनी ही शरण में रखना.... मैं तेरा हूँ..... तू मेरा है.....हे मेरे अकाल पुरूष !"
इतने में जल्लाद ने तलवार चलायी और हकीकत राय का सिर धड़ से अलग हो गया।
हकीकत राय ने 14 वर्ष की नन्हीं सी उम्र में धर्म के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। उसने शरीर छोड़ दिया लेकिन धर्म न छोड़ा।
गुरूतेगबहादुर
बोलिया, सुनो
सिखों !
बड़भागिया,
धड़
दीजे धरम न
छोड़िये....
हकीकत राय ने अपने जीवन में यह चरितार्थ करके दिखा दिया।
हकीकत राय तो धर्म के लिए बलिवेदी पर चढ़ गया लेकिन उसकी कुर्बानी ने सिंधी समाज के हजारों लाखों जवानों में एक जोश भर दिया किः
"धर्म की खातिर प्राण देना पड़े तो देंगे लेकिन विधर्मियों के आगे कभी नहीं झुकेंगे। भले अपने धर्म में भूखे मरना पड़े तो स्वीकार है लेकिन परधर्म को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।"
ऐसे वीरों के बलिदान के फलस्वरूप ही हमें आजादी प्राप्त हुई है और ऐसे लाखों-लाखों प्राणों की आहुति द्वारा प्राप्त की गयी इस आजादी को हम कहीं व्यसन, फैशन एवं चलचित्रों से प्रभावित होकर गँवा न दें ! अब देशवासियों को सावधान रहना होगा।
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सत्र 14
एक शिष्य ने अपने गुरू से कहाः "गुरू जी ! आपके पास रहते हुए मुझे 22 साल हो गये। मैं रोज नंगे पैर चलता हूँ, भिक्षा माँगकर खाता हूँ, संसार के आकर्षण से बचा हूँ फिर भी अभी तक मुझे कोई अनुभूति नहीं हुई, अभी तक साक्षात्कार नहीं हुआ ?"
गुरूजी ने चिट्ठी लिखकर कहाः
"तू राजा जनक के पास ज्ञान लेने के लिए जा।"
शिष्य चल पड़ा। जाते-जाते रास्ते में सोचने लगाः "गुरूजी ने राजा जनक के पास से ज्ञान लेने के लिए कहा है लेकिन राजा जनक तो राज्य कर रहे हैं, राज्य-सुख भोग रहे हैं वे मुझे आत्मसुख कैसे देंगे ?"
राजा जनक के दरबार में पहुँचने पर शिष्य ने देखा कि 'राजा जनक सिंहासन पर बैठे हैं, सुंदरियाँ चँवर डुला रही हैं, भाट-चारण जयघोष कर रहे हैं, सामने महफिल की तैयारी है। राजा जनक का अभिवादन करते हुए शिष्य ने कहाः
"गुरूजी ने मुझे आपके पास ज्ञान लेने के लिए भेजा है। मैं 22 साल से गुरूजी के साथ हूँ फिर भी साक्षात्कार का अनुभव नहीं हुआ है। मैं गलती से आ तो गया हूँ, अब आप मुझे उपदेश दीजिये।"
राजा जनक समझ गये कि 'यह बाहर के सदोष शरीर को देख रहा है, वास्तविकता का इसे पता ही नहीं है। राजा जनक ने कहाः
"यहाँ जो आता है उसे एक बार महल अवश्य घूमना पड़ता है। महल भूलभुलैया जैसा है। दिया लेकर जाओ। दिया बुझ जायेगा तो उलझ जाओगे। यदि दिया जलता रहेगा तो बाहर निकल जाओगे।"
शिष्य हाथ में दिया लेकर गया। राजा ने कहा था, महल भूल भूलैया जैसा है। दिया बुझ न जाये इसलिए खूब जतन से, खूब सँभल-सँभलकर, बड़ी सतर्कता से शिष्य महल घूमकर आ गया एवं राजा जनक के पास गया।
जनकः "महल कैसा लगा ? महल में क्या-क्या देखा ? महल में कैसे-कैसे चित्र लगे थे ? तख्तियों पर क्या-क्या लिखा था ? कैसे-कैसे आकर्षक गलीचे बिछे थे ?"
शिष्यः "मैंने कुछ नहीं देखा। मुझे कुछ पता नहीं है। मेरी नजर तो दिये पर थी कि कहीं दिया न बुझ जाये ! मैं महल में जरूर था, गलीचे पर जरूर घूम रहा था लेकिन मेरा ध्यान न महल में था न गलीचे पर वरन् केवल दिये पर था।"
जनकः "वत्स ! ऐसे ही मैं ज्ञानरूपी दिये के साथ रहता हूँ। बाहर से सारा व्यवहार करते हुए भी अंदर से सतर्क रहता हूँ कि ज्ञान का दिया बुझ न जाये। खाते समय भी मैं साक्षी रहता हूँ कि भोजन शरीर कर रहा है। मच्छर काटता है तो मैं उसका भी साक्षी रहता हूँ कि शरीर को मच्छर ने काटा है। उसको भगाने का भी साक्षी रहता हूँ। क्रोध के समय भी उसका साक्षी रहता हूँ। इस प्रकार ज्ञानरूप दिये को कभी बुझने नहीं देता।"
'मैं शरीर से अलग हूँ' ऐसा ज्ञानरूपी दिया अगर सतत जलता रहे तो क्रोध के समय क्रोध तपा नहीं सकता, लोभ के समय लोभ डिगा नहीं सकता, मोह मोहित नहीं कर सकता, अहंकार उलझा नहीं सकता। ज्ञानरूपी दिया जलता रहे तो आप भी संसाररूपी भूल भूलैया में नहीं उलझ सकते।
12 वर्ष व्रत उपवास करने से जो पुण्य नहीं होता, वह पुण्य, वह लाभ इस सतर्कता से हो जाता है।
फिर राजा जनक ने शिष्य को भोजन करने के लिए बैठाया। वह जहाँ भोजन करने बैठा था वहाँ क्या देखता है कि ऊपर एक बड़ी शिला एक पतले धागे के साथ लटक रही है। शिष्य भोजन तो कर रहा था लेकिन आँखें ऊपर लगी थीं कि कहीं शिला गिर न जाये ?
भोजन करके जब वह राजा जनक के पास आया तो राजा ने पूछाः "एक-से-एक, बढ़िया से बढ़िया व्यञ्जन थे। कौन सा अच्छा लगा ?"
शिष्यः "महाराज ! मैंने तो बस खा लिया। क्या बढ़िया था इसका मुझे पता नहीं है। मुझे तो ऊपर मौत दिख रही थी। शिला कहीं गिर न जाय, उसी पर मेरी दृष्टि लगी थी।
जनकः "बस, ऐसे ही हमारी दृष्टि लगी रहती है कि कहीं हमारा एक पल भी परमात्मा के चिंतन से खाली न जाये। इसीलिए हम राजकाज करते हुए भी निर्लेप रहते हैं।
अब मैं तुझे उपदेश करता हूँ। अगर रात्रि के बारह बजे तक तुझे साक्षात्कार नहीं हुआ तो जो यह तलवार टँगी है, इससे तेरा मस्तक काट दिया जायगा।
शिष्यः "महाराज मुझे ज्ञान-ध्यान कुछ नहीं करना है। बस, मुझे जाने दो।"
जनकः "यहाँ एक बार जो आता है उसे हम खाली नहीं जाने देते। यहाँ का यही रिवाज है।"
शिष्यः "22 साल में जो काम नहीं हुआ वह एक दिन में कैसे हो जायेगा।"
जनकः "नहीं होगा तो मस्तक कट जायेगा। इतना समय बिगाड़ा और तुम अज्ञानी रहे ?"
शिष्य उपदेश सुनने के लिए बैठा। 'कहीं मस्तक न कट जाये' इस डर से बड़े ध्यान से, एकाग्र होकर उपदेश सुनने लगा।
जनकः "तुझे लगन नहीं थी इसीलिए 22 साल गुजर गये वरना 22 घण्टे भी काफी हो जाते हैं।"
जैसे कोई परीक्षा होती है तो बालक कितनी एकाग्रता से पढ़ता है किंतु परीक्षा रद्द कर दो तो उतनी एकाग्रता नहीं रह जाती। अतः साधक को चाहिए कि पूर्ण एकाग्रता के साथ गुरूपदेश का श्रवण करे, मनन निदिध्यासन करे।
वह शिष्य भी एकाग्र होकर उपदेश सुनने लगा, उसका मन धीरे-धीरे शांत होता गया एवं बुद्धि बुद्धिदाता में प्रतिष्ठित होने लगी। काम बन गया।
जरूरत है तो पूर्ण लगन की। यदि साधक के जीवन में लगन है, उत्साह है, एकाग्रता है और तत्परता है तो वह अवश्य अपनी मंजिल हासिल कर सकता है।
एक ब्राह्मण कई दिनों से एक यज्ञ कर रहा था, किन्तु उसे सफलता नहीं मिल रही थी। राजा विक्रमादित्य वहाँ से गुजरे। ब्राह्मण का उतरा हुआ चेहरा देखकर पूछाः "ब्राह्मण देव ! क्या बात है ? आप इतने उदास क्यों हैं ?"
ब्राह्मणः "मैं इतने दिनों से यज्ञ कर रहा हूँ पर मुझे अभी तक अग्नि देवता के दर्शन नहीं हुए।"
विक्रमादित्यः "यज्ञ ऐसे थोड़े ही किया जाता है।"
ब्राह्मणः "तो कैसे किया जाता है ?"
विक्रमादित्य ने म्यान में से तलवार निकाली और संकल्प किया कि 'यदि आज शाम तक अग्निदेव प्रकट नहीं हुए तो इसी तलवार से अपने मस्तक की आहुति दे दूँगा।'
विक्रमादित्य ने कुछ आहुतियाँ ही दीं और अग्निदेव प्रकट हो गये ! बोलेः "वर माँगो।"
विक्रमादित्य ने कहाः "इन ब्राह्मण देवता की इच्छा पूरी करें, देव।"
ब्राह्मणः "मैंने कितने प्रयत्न किये आप प्रगट नहीं हुए। राजा ने जरा सी आहुतियाँ दीं और आप प्रगट हो गये। यह कैसे ?"
अग्निदेवः "राजा ने जो किया दृढता से और लगन से किया। दृढ़ता एवं लगनपूर्वक किया गया कार्य जल्दी परिणाम लाता है। इसलिए मैं शीघ्र प्रगट हो गया।"
साधन-भजन भी दिलचस्पी से होना चाहिए। पूर्ण लगन-उत्साह एवं दृढ़ता से किया हुआ साधन भजन शीघ्र फल देता है नहीं तो वर्षों बीत जाते हैं थोड़ा-थोड़ा जमा होता है वह भी बेवकूफी के कारण टिकता नहीं।
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एक वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद विद्यार्थियों को डेढ़ माह की छुट्टियों का समय मिलता है जिसमें कुछ करने का, कुछ सोचने-समझने का अच्छा खासा अवसर मिलता है। लेकिन प्रायः ऐसा देखा गया है कि विद्यार्थी इस कीमती समय को टी.वी., सिनेमा आदि देखने में तथा गन्दी व फालतू पुस्तकों को पढ़ने में बर्बाद कर देते हैं। समय का जो दुरूपयोग करता है उसके जीवन का दुरूपयोग हो जाता है एवं जो अपने समय का सदुपयोग करता है उसका जीवन मूल्यवान हो जाता है। अतः मिली हुई योग्यता एवं मिले हुए समय का सदुपयोग उत्तम से उत्तम कार्यों के संपादन में व्यतीत करना चाहिए। बड़े धनभागी होते हैं वे मानव कि जो समय का सदुपयोग कर समाज की सेवा कर अपने जीवन को उन्नत बना लेते हैं। मार्गदर्शन की अपेक्षा रखने वालों के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जाते हैं-
विद्यार्थियों को ज्यादा समय अपनी साधना को आगे बढ़ाने में लगाना चाहिए। शास्त्र कहते हैं- 'बुद्धिमान मनुष्य वह है जो अपने जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य का सबसे पहले सम्पन्न करता है। मनुष्य जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है आत्मसाक्षात्कार और बुद्धिमान को उसे प्राप्त करने के लिए जीवन जीना चाहिए। इसी जन्म में ईश्वरप्राप्ति का हमे अधिकार मिला है। उस अधिकार का लाभ उठाना चाहिए।
महापुरुषों का सत्संग सुनना चाहिए तथा ध्यान योग शिविरों का लाभ लेना चाहिए। अगर इनका लाभ न ले सकें तो घर बैठे ही आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'पंचामृत' का अध्ययन-मनन अवश्य करना चाहे। इसी पंचामृत पुस्तक में भगवान शिव-पार्वती संवाद में वर्णित श्रीगुरूगीता भोग व मोक्ष दोनों देने में सक्षम है।
सत्शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। योगवाशिष्ठ महारामायण, विचारसागर, पंचदशी, श्रीमद् भगवद् गीता, स्वामी शिवानंद कृत गुरूभक्ति योग एवं आत्मलाभ के इच्छुकों को श्रीअवधूत गीता या श्री अष्टावक्र गीता का अध्ययन करना श्रेयस्कर है।
अपने से छोटी कक्षाओं वाले विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहिए। सा विद्या या विमुक्तये। 'असली विद्या वही है जो मुक्ति दे।' बालकों को रूचिकर कथाएँ सुनानी व पढ़ानी चाहिए। बालकों को श्रीमद् भागवत में वर्णित भक्त ध्रुव की कथा व दासीपुत्र नारद के पूर्वजन्म की कथा एवं प्रह्लाद की कथा अपने साथी-मित्रों के साथ सुनने व सुनाने से परमात्मप्राप्ति में मदद मिलती है।
अपने साथियों के साथ अपने गली, मुहल्ले में सफाई अभियान चलाना चाहिए।
पिछड़े क्षेत्रों में जाकर वहाँ के लोगों को पढ़ाई तथा संतों के प्रति जागरूक करना चाहिए।
अस्पतालों में जाकर वहाँ सेवा-कार्य करें। करें सेवा मिले मेवा।
अपने से अधिक योग्यता व शिक्षावाले विद्यार्थियों के ही साथ रहकर विनोद व शिक्षा संबंधी चर्चा करनी चाहिए।
अपनी दिव्य सनातन संस्कृति के विकास हेतु भरपूर प्रयास करना चाहिए।
प्राचीन ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों में जाकर अपने विवेक-विचार को बढ़ाना चाहिए।
अपनी पढ़ाई को छुट्टी के दौरान एकदम नहीं छोड़ना चाहिए। अध्ययन करते रहना चाहिए।
इस प्रकार के दैवी कार्यों से आप अपनी इन छुट्टियों को विशेष रूप दे सकते हैं। जीवन बहुत थोड़ा है तथा बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता इसलिए अपने जीवन के इस कीमती समय को गन्दी पुस्तकों को पढ़ने, टी.वी., सिनेमा आदि देखने में बर्बाद न करके समाज कल्याण के कार्यों में लगायें तथा हम सभी अपने जीवन को उन्नति की ओर ले जायें। परमात्मा एवं सदगुरू हम पर आशीर्वाद करते रहें।
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सत्र 15
सावन का महीना था। काली अंधेरी अमावस की रात्रि के बारह बजे थे। माँ ने झाँका तो देखा कि पुत्र अभी तक बैठा हुआ है, सोया नहीं है।
माँ- "मेरे लाल ! रात बीती जा रही है। सब अपने-अपने बिस्तरों पर खुर्राटें भर रहे हैं। पक्षी भी अपने घोंसले में आराम कर रहे हैं। बेटा ! तू कब तक जागता रहेगा ? जा, अब तू भी सो जा।2
भगवान की याद में डूबे हुए उस लाल ने अपनी दरी बिछायी और ज्यों लेटने को गया, त्यों पपीहा बोला उठाः "पिहूऽऽऽ..... पिहूऽऽऽ...." यह सुनकर उसने बिछायी हुई दरी फिर से लपेटकर रख दी और अपने प्रभु को पुकारने बैठ गया।
माँ- "क्या हुआ लाल ! सो जा। बहुत रात हो गयी है।"
पुत्रः "माँ ! तुम सो जाओ। मैं अभी नहीं सो सकता। पपीहा अपने पिया को पुकारे बिना नहीं रहता तो मैं अपने प्रियतम प्रभु को कैसे भुला सकता हूँ ?"
सोलह वर्ष, छः महीने और पंद्रह दिन का वही बालक आगे चलकर गुरू नानकदेव के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
जो अनन्य भाव से परमात्मा का चिंतन करता है वह अवश्य महान बनता है और ऐसा नहीं कि बड़े होकर ही भजन किया जाये। ना.... ना.... भजन तो बाल्यकाल से ही आरंभ कर देना चाहिए। प्रह्लाद, ध्रुव, उद्धव, मीरा, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, पूज्यपाद लीलाशाहजी महाराज आदि सभी ने बाल्यकाल से ही भक्ति करना आरंभ कर दिया था। आगे चलकर वे कितने महान बने, दुनिया जानती है।
गुरू नानक जी के पास कथा में एक लड़का प्रतिदिन आकर बैठ जाता था। एक दिन नानक जी ने उससे पूछाः
"बेटा ! कार्तिक के महीने में सुबह इतनी जल्दी आ जाता है, क्यों ?"
वह बोलाः "महाराज ! क्या पता कब मौत आकर ले जाये ?"
नानक जीः "इतनी छोटी-सी उम्र का लड़का ! अभी तुझे मौत थोड़े मारेगी ? अभी तो तू जवान होगा, बूढ़ा होगा, फिर मौत आयेगी।"
लड़काः "महाराज ! मेरी माँ चूल्हा जला रही थी। बड़ी-बड़ी लकड़ियों को आग ने नहीं पकड़ा तो फिर उन्होंने मुझसे छोटी-छोटी लकड़ियाँ मँगवायी। माँ ने छोटी-छोटी लकड़ियाँ डालीं तो उन्हें आग ने जल्दी पकड़ लिया। इसी तरह हो सकता है मुझे भी छोटी उम्र में ही मृत्यु पकड़ ले। इसीलिए मैं अभी से कथा में आ जाता हूँ।"
नानकजी बोल उठेः "है तो तू बच्चा, लेकिन बात बड़े-बुजुर्गों की तरह करता है। अतः आज से तेरा नाम 'भाई बुड्ढा' रखते हैं।'
उन्हीं भाई बुड्ढा को गुरू नानक के बाद उनकी गद्दी पर बैठने वाले पाँच गुरूओं को तिलक करने का सौभाग्य मिला। बाल्यकाल में ही विवेक था तो कितनी ऊँचाई पर पहुँच गये ! शास्त्र में आता हैः
निःश्वासे
न हि विश्वासः
कदा रूद्धो
भविष्यति।
कीर्तनीयमतो
बाल्यात्
हरेर्नामैव
केवलम्।।
'इस श्वास का कोई भरोसा नहीं है कब रूक जाये। अतः बाल्यकाल से ही हरि के ज्ञान-ध्यान व कीर्तन में प्रीति करनी चाहिए।
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एक दरिद्र व्यक्ति किसी राजा के दरबार में गया। उसने राजा से अपनी दरिद्रता की करूण कथा कहकर धन की याचना की। राजा को उसकी दरिद्रावस्था देखकर दया आ गयी। फलस्वरूप राजा ने दरिद्र से कह दियाः "आज सूर्यास्त होने तक खजाने में से जितना भी धन ले जा सको, ले जाओ।"
दरिद्र व्यक्ति राजा की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगाः "वाह ! अब क्या चिन्ता है, सूर्यास्त होने में तो अभी बहुत देर है, तब तक तो मैं बहुत धन राजकोष से ले जा सकूँगा।'
राजदरबार से निकल कर वह अपने घर गया। उसने अपनी धर्मपत्नी से राजा की उदारता की बात कही। पत्नी भी अत्यन्त आनन्दित हुई और बोलीः "यह तो बड़े सौभाग्य की बात है। आप अभी शीघ्र चले जाइये और वहाँ से अधिक से अधिक जितना धन ला सके, ले आइये।"
दरिद्र बोलाः "मूर्ख स्त्री ! दो दिन से मैंने भोजन नहीं किया, भूखा रहकर धन कैसे ढोकर ला सकूँगा ? पहले तू कहीं से उधार लाकर अच्छा भोजन तो बना। मैं तो खाकर ही जाऊँगा। सारा दिन तो पड़ा ही है धन लाने के लिए, अभी ऐसी जल्दी भी क्या है ?"
बेचारी स्त्री तुरन्त गयी और बनिये से सामान उधार लेकर आयी। शीघ्रता से उसने खाना बना दिया। पति के भोजन करने के पश्चात उसने पति से राजमहल जाने को पुनः कहा। दरिद्र ने आज खूब डटकर खाया था। खाते ही उसे आलस्य आने लगा, अतः उसने सोचा कि अभी थोड़ी ही देर में जाकर धन ले आऊँगा, वह विश्राम करने के लिए लेट गया। लेटते ही उसे नींद आ गयी। कुछ देर बाद उसकी पत्नी ने उसे बड़ी कठिनाई से जगाया और राजमहल के लिए रवाना किया।
दरिद्र उठकर चल तो दिया, पर थोड़ी ही दूर गया होगा कि मार्ग में उसने एक नट को बड़ा ही सुन्दर अभिनय करते हुए देखा। उसने सोचा, "कुछ समय तक यह नाट्य देख लूँ, फिर राजमहल तो जाना ही है। वहाँ से यदि एक बार भी ढेर सारे हीरे-जवाहरात बाँधकर ले आऊँगा तो भी जिन्दगीभर के लिए आराम हो जायेगा।"
दरिद्र
व्यक्ति
नाट्य देखने
बैठ गया और
देखते-देखते
वह राजमहल तथा
धन लाने की
बात एकदम भूल
गया। जब नाट्य
समाप्त हुआ तो
उसे धन लाने
की बात याद
आयी, किन्तु
अफसोस कि उस
समय तक
सूर्यास्त हो
चुका था। अब
राजमहल में
पहुँचने पर भी
सूर्य अस्त हो
जाने के कारण
उसे एक कौड़ी
तक न मिली। वह
जोर जोर से
रोता और सिर
पीटता हुआ
निराश हो खाली
हाथ घर लौट
आया। उसने समय
की कीमत को
नहीं पहचाना,
इसलिए पछताना
पड़ा। पर अब
पछितावे होत
क्या ?
परमात्मा के अनुग्रहस्वरूप मनुष्य-जीवन का दुर्लभ संयोग मिलने पर भी जो इसी जीवन में अपने सत्य और शक्ति का सदुपयोग परमात्म-प्राप्ति हेतु नहीं करते, उन्हें भी अन्ततः इसी प्रकार पछताना पड़ता है।
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सत्र 16
स्वस्थ व निरोगी रहने हेतु प्रत्येक ऋतु में उस ऋतु के अनुकूल आहार-विहार करना जरूरी होता है लेकिन ग्रीष्म ऋतु में आहार विहार पर विशेष ध्यान देना पड़ता है क्योंकि इसमें प्राकृतिक रूप से शरीर के पोषण की अपेक्षा शोषण अधिक होता है। अतः उचित आहार-विहार में की गयी लापरवाही हमारे लिए कष्टदायक हो सकती है।
शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतु का समय 'आदानकाल' होता है। ग्रीष्म ऋतु इस आदान काल की चरम सीमा होती है। यह समय रूखापन, सूखापन और उष्णता वाला होता है। शरीर का जलीयांश भी कम हो जाता है। पित्त के विदग्ध होने से जठराग्नि मंद हो जाती है, भूख कम लगती है, आहार का पाचन शीघ्रता से नहीं होता। इस ऋतु में दस्त, उलटी, कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियाँ पैदा हो जाती हैं। ऐसे समय में आहार कम लेना व शीतल जल पीना आवश्यक है।
स्वास्थ्य-रक्षक, हितकारी और शरीर को स्वस्थ व बलवान बनाये रखने वाले आहार-विहार को पथ्य कहते हैं। प्रत्येक ऋतु में पथ्य आहार-विहार का ही पालन करना चाहिए।
स्वादु
शीतं द्रवं
स्निग्धमन्नपानं
तदा हितम्।
(चरक
संहिता)
अर्थात् ग्रीष्मकाल में मधुर रसयुक्त, शीतल, स्निग्ध और तरल पदार्थों का सेवन करना हितकारी होता है। ऐसे पदार्थों के सेवन करने से शरीर में तरावट, शीतलता व स्निग्धता (चिकनाई) बनी रहती है। इस ऋतु में हलके मीठे भोजन का प्रयोग करें। द्रव्य आहार में दूध, घी, छाछ, खीर आदि लें। छाछ व खीर विपरीत आहार हैं, अतः इनको एक साथ न लें। शाक-सब्जी में पत्तीदार शाकभाजी, परवल, लौकी, पके लाल टमाटर, हरी मटर, करेला, हरी ककड़ी, पुदीना, हरी धनिया, नींबू आदि और दालों में सिर्फ छिलकासहित मूँग और मसूर की दाल का सेवन करें। चने या अरहर की दाल खायें तो चावल के साथ खायें या शुद्ध घी का तड़का लगाकर खायें ताकि दालों की खुश्की दूर हो जाय। फलो में मौसमी फलों का सेवन करें जैसे खरबूजा, तरबूज, मौसम्बी, सन्तरा, पका मीठा आम, मीठे अंगूर, अनार आदि।
विहारः इस ऋतु में प्रातः वायुसेवन, योगासन, व्यायाम, तेल की मालिश हितकारी है। दोनों समय सुबह-शाम शौच-स्नान आवश्यक है।
अपथ्यः ग्रीष्म काल में कड़वे, खट्टे, चटपटे, नमकीन, रूखे, तेज मिर्च मसालेदार, तले हुए, बेसन के बने हुए, लाल मिर्च और गरम मसालेयुक्त व भारी पदार्थों का सेवन न करें। बासी, जूठा, दुर्गन्धयुक्त और अभक्ष्य पदार्थों का सेवन प्रत्येक ऋतु में हानिकारक है। खट्टा दही न खायें, रात में दही न खायें। उड़द की दाल, खटाई, इमली व आमचूर, शहद, सिरका, लहसुन, सरसों का तेल आदि पदार्थों का सेवन न करें। पूड़ी, परांठे का सेवन न करें। जितनी भूख हो उससे कम भोजन करें। ज्यादा न खायें और जल्दी-जल्दी न खाकर, धीरे-धीरे खूब चबा-चबाकर खायें ताकि पाचन ठीक से हो। देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोना, दिन में सोना, अधिक देर तक धूप में घूमना, कठोर परिश्रम, अधिक व्यायाम, स्त्री पुरूष का सहवास, भूख-प्यास सहन करना, मल-मूत्र के वेग को रोकना हानिप्रद है। सावधान !
विशेषः ग्रीष्ण ऋतु में पित्त दोष की प्रधानता से पित्त के रोग अधिक होते हैं। जैसे दाह, उष्णता, आलस्य, मूर्च्छा, अपच, दस्त, नेत्रविकार आदि। अतः गर्मियों में घर से बाहर निकलते समय लू से बचने हेतु सिर पर कपड़ा रखें व पानी पीकर निकलें। बाहर से घर में आते ही चाहे कैसी भी तेज प्यास लगी हो पानी नहीं पीना चाहिए। 10-15 मिनट ठहरकर ही पानी पीयें। फ्रिज का ठंडा पानी पीने से गले, दाँत, आमाशय व आँतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, पाचनशक्ति मंद हो जाती है। अतः फ्रिज का पानी न पीकर मटके या सुराही का ही पानी पियें।
गर्मी के दिनों में चन्दन और गुलाब का शरबत या तो घर में बनायें या गाजियाबाद समिति जो कि गुलाब व चन्दन डालकर शरबत बनाती है, से प्राप्त कर सकते है। बाजारू शरबतों में तो एसेन्स और सेक्रीन का ही प्रयोग किया जाता है, केवल लेबल ही बढ़िया लगाते हैं। अगर घर में शरबत बनाने के इच्छुक हों तो पीपल की लकड़ी का बुरादा (चूर्ण) और चन्दन के पैकेट आश्रम से प्राप्त कर शरबत बना लें जो गर्मी के दोषों में रामबाण का काम करेंगे। पीपल की लकड़ी से बने हुए गिलास में पानी पीने से पित्तदोष दूर होता है। हरे पीपल का पेड़ कटवाना हानिकारक है। पीपल के जो पेड़ पुराने होकर सूख जाते हैं उसी की लकड़ी के बने गिलास में रखा हुआ पानी पीने से पित्तदोष का शमन होता है और वह व्यक्ति को मेधावी बनाता है।
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मगध सम्राट श्रेणिक के युवा पुत्र राजकुमार मेघ को भगवान महावीर के धर्मोपदेश आत्मप्रकाश की ओर ले जाने वाले प्रतीत हुए। मेघ ने अनुभव किया कि तृष्णा, वासना और अहंकार के जाल में जकड़ा जीवन नष्ट होता चला जा रहा है, परन्तु इच्छाएँ हैं कि शान्त होने का नाम ही नहीं लेती बल्कि और बढ़ती ही जाती हैं। उनकी पूर्ति हेतु और अधिक अनैतिक कृत्य करने पड़ते है जिससे पापों की गठरी बढ़ रही है। काल दौड़ा चला आ रहा है। इसके मुख में पहुँचते ही सारे भोगों का अन्त हो जायेगा। क्षणभंगुर जीवन में शरीर का नाश करने वाला क्षण कब उपस्थित हो जाय कोई पता नहीं। इसके बाद पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ आने वाला नहीं है। विषय-वासनाओं के कीचड़ में फँसे जीवन को विवेक-दृष्टि से देखने पर मेघ को अपना जीवन बहुत घृणास्पद लगा।
'कामादिक विकार, द्वेष, घृणा, तिरस्कार, अनैतिकता, अवांछनीयताएँ यदि यही संसार है तो इसमें और नरक में अन्तर ही क्या है ? कलुषित कल्पनाओं में झुलसते मायावी जीवन में भी भला किसी को शांति मिल सकती है ? तीर्थंकर महावीर और सभी महापुरूष यही तो कहते हैं कि मनुष्य को आत्मानुसंधान करके परमात्मा में स्थित हो जाना चाहिए। उसके बिना न आत्मकल्याण सम्भव है और न ही लोक कल्याण बन पड़ेगा। अतः मुझे तपस्वी जीवन जीना चाहिए।' – ऐसा दृढ़ निश्चय करके राजकुमार मेघ ने भगवान महावीर से अध्यात्म मार्ग की दीक्षा ली और उनके सान्निध्य में रहकर साधना में लग गये।
विरक्त मन को उपासना से असीम शान्ति मिलती है। नीरस जीवन में आत्मज्योति प्रकट होने लगती है। मन, बुद्धि अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं। मेघ की निष्ठा को और अधिक सुदृढ़ करने हेतु तीर्थंकर ने अब उसे विविध कसौटियों में कसना प्रारम्भ कर दिया। मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था। अब उसे रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल शय्या के स्थान पर भूमिशयन, आकर्षक वेशभूषा की जगह मोटे वल्कल और सुखद सामाजिक सम्पर्क के स्थान पर बन्द कुटीर व आश्रम के आस-पास की स्वच्छता, सेवा-व्यवस्था करना आदि। मेघ को एक-एक कर इन सबमें जितना अधिक लगाया जाता, उसका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्त्वाकांक्षाएँ सिर पीटतीं और अहंकार बार-बार खड़ा होकर कहताः 'अरे मूर्ख मेघ ! जीवन के सुख-भोग छोड़कर कहाँ आ फँसा ? मेघ को उसका मन लगातार निरूत्साहित करता। मन में उठते विचारों के ज्वार-भाटे उससे पूछते, क्या यही साधना है जिसके लिये तुमने समस्त राजवैभव का त्याग किया ? आश्रम में सफाई करना, झाड़ू लगाना, यहाँ की सेवा-व्यवस्था में सामान्य सेवक की तरह जुटे रहना, क्या इसी से आत्मोपलब्धि हो जायेगी ? इस प्रकार मन में छिड़े अन्तर्द्वन्द्व से मेघ दिग्भ्रमित हो गया।
राजकुमार होने का गौरव, राजमहलों की सुख-सुविधा, यश, ऐश्वर्य से भरपूर जीवन भी छूट गया और अध्यात्मपथ की ओर भी गति नही। कहाँ तो उसने कल्पना संजोयी थी कि महावीर के सान्निध्य में रहकर वह भी लोकपूज्य बनेगा। उसने महावीर के श्रीचरणों में सम्राटों तथा धनकुबेरों को दण्डवत और विनीत भाव में देखा था। भगवान महावीर की दीर्घ दृष्टि ने, अमोघ वाणी ने उसे इस ओर आकर्षित किया था। उसने सोचा था कि वह भी तप करके यही सब पायेगा और उसके प्रभाव से एक दिन समाज-संसार चकाचौंध हो जायगा। इन सब सोच-विचारों के चलते एक दिन उसने तीर्थंकर के चरणों में झुककर प्रणाम करके कहाः "भगवन् ! आपने मुझे कहाँ इन छोटे-छोटे कामों में फँसा रखा है ? मुझसे तो साधना कराइये, तप कराइये, जिससे मेरा अन्तःकरण पवित्र बने।"
भगवान महावीर मुस्कराये और बोलेः "वत्स ! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में मानसिक स्थिरता और एकाग्रता, तन्मयता तथा समता का भाव जिसमें आ गया, वही सच्चा तपस्वी है। तप का उद्देश्य 'अहं' का मूलोच्छेद है। जिन साधकों ने सत्शिष्यों की तरह अपने अन्दर सामान्य सेवक की शर्त स्वीकार कर ली है, जो हर छोटे-बड़े काम को सदगुरू की सेवा और ईश्वर की उपासना मानकर करने लगा, फिर उसका अहं कहाँ रह जायेगा ? यह गुण जिसमें आ गया उसका अन्तःकरण स्वतः पवित्र और निर्मल बनता जायगा।
मेघ की आँखें खुल गयीं और वह एक सच्चे योद्धा की भाँति मन को जीतने के लिए तत्पर हो गया। उलझे हुए को सुलझा दें, हारे हुए को हिम्मत से भर दें। मनमुख को मधुर मुस्कान से ईश्वरोन्मुख बना दें, हताश में आशा-उत्साह का संचार कर दें तथा जन्म-मरण के चक्कर में फँसे मानव को मुक्ति का अनुभव करा दें – ऐसे केवल सदगुरू ही होते हैं। वे उंगली पकड़कर, अंधकारमय गलियों से बाहर निकालकर खेल-खेल में, हास्य विनोद में शिष्य को परमात्म-प्राप्तिरूपी यात्रा पूर्ण करा देते हैं।
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सत्र 17
गुरू नानक घूमते घामते एमनाबाद पहुँचे। वहाँ एक अमीर सेठ रहता था मलिक भागो। नानकजी प्रसिद्ध संत थे, अतः उसने नानक जी को संदेशा भेजाः "हे फकीर ! इस द्वार पर बड़े-बड़े संत, पीर, औलिया आये हैं। परसों का दिन शुभ है। आप मेरा आमंत्रण स्वीकार करें एवं उस दिन आप मेरे यहाँ भोजन करने के लिए पधारें।"
न्यौता भेजकर सेठ तैयारियाँ करने लगा। न्यौते का दिन आया किन्तु नानक जी उसके यहाँ न गये। एक आदमी बुलाने आयाः
"फकीर ! चलिये।"
नानक जीः " हाँ, आते हैं।"
थोड़ी देर में दूसरा आदमी बुलाने आया, तीसरा आदमी आया किन्तु नानक जी न गये। सेठ को हुआ किः "ये फकीर कैसे हैं ! मेरे पास आते तो इनका नाम होता कि इतने बड़े सेठ के यहाँ भोजन करने का अवसर मिला.... साथ में दक्षिणा भी देता और फकीर का काम बन जाता।"
.....लेकिन उस मूर्ख को पता नहीं कि फकीर उसका भोजन स्वीकार करते तो उसका भाग्य बन जाता। वह फकीर का क्या काम बनाता ? फकीर ने तो अपना असली काम बना रखा था।
यह शुक्र
कर कि वे तेरा
स्वीकार कर
लेते.....
देर होती देखकर सेठ खुद ही आया एवं बोलाः "फकीर ! बहुत देर हो गयी। आप चलिए भिक्षा लेने।"
नानक जीः "अभी समय नहीं भिक्षा-विक्षा का। इधर ही टुकड़ा पा लेंगे।"
सेठ को हुआ किः "अब तो मेरी इज्जत का सवाल है। कैसे भी करके, इधर लाकर भी इनको भिक्षा करवानी पड़ेगी। यहीं पकवान आदि का थाल मँगवाना पड़ेगा। नगर में नाम होगा कि फकीर मेरे घर का भोजन करके गये। मेरे घर से कोई साधु खाली हाथ नहीं गया।" यह सोचकर उसने वहीं पर पकवान से भरा थाल मंगवा लिया। इतने में एक गरीब भक्त लालो भी अपने घर से भिक्षा ले आया-सूखी रोटी और तांदुल की भाजी।
यह देखकर सेठ को हुआ कि मैं पकवानों से भरा थाल ले ही आया हूँ तो यह क्यों लाया ? नानक जी ने एक हाथ में उठायी लालो की सूखी रोटी और तांदुल की भाजी एवं दूसरे हाथ में उठाये सेठ के पकवान। ज्यों ही नानक जी ने लालो की रोटी दबायी तो उसमें से दूध की धार निकल पड़ी और सेठ के पकवान को दबाया तो रक्त की धार बह चली। लोग आश्चर्यचकित हो उठे ! सेठ भागो भी दंग रह गया कि मेरे व्यंजनों से रक्त की धार और लालो की सूखी रोटी से दूध की धार ! यह कैसे हुआ ?
नानकजीः "लालो ने पसीना बहाकर हक की कमाई की है इसलिए इसका अन्न दूध के समान है, जबकि तुमने गरीबों से ब्याज लेकर, उनका खून चूसकर संपत्ति इकट्ठी की है इसलिए तुम्हारे अन्न से रक्त की धार बह चली है।"
सेठ मलिक भागो का सिर शर्म से झुक गया।
हराम के धन के ऐश-आराम से हक की रूखी-सूखी रोटी भी हितकारी है।
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गुजरात के सौराष्ट्र प्रान्त में नरसिहं मेहता नाम के एक उच्च कोटि के महापुरूष हो गये हैं। वे जब भजन गाते थे तब श्रोतागण भक्तिभाव से सराबोर हो उठते थे।
दो लड़कियाँ नरसिंह मेहता की बड़ी भक्तिन थीं। लोगों ने अफवाह फैला दी कि उन दो कुँवारी युवतियों के साथ नरसिंह मेहता का कुछ गलत सम्बन्ध है। कलियुग में बुरी आदत फैलाना बड़ा आसान है। जिसके अंदर बुराइयाँ हैं वह आदमी दूसरों की बुरी बात जल्दी से मान लेता है। अफवाह बड़ी तेजी से फैल गयी। उन लड़कियों के पिता और भाई ऐसे ही थे। उन दोनों के भाई एवं पिता ने उनकी खूब पिटाई की और कहाः
"तुम लोगों ने तो हमारी इज्जत खराब कर दी। हम बाजार से गुजरते हैं तो लोग बोलते हैं कि इन्हीं की वे लड़कियाँ हैं, जिनके साथ नरसिंह मेहता का...."
खूब मार-पीटकर उन दोनों को कमरे में बन्द कर दिया और अलीगढ़ के बड़े बड़े ताले लगा दिये एवं चाबी अपने जेब में डालक चल दिये कि 'देखें, आज कथा में क्या होता है।'
उन दोनों में से एक रतनबाई रोज सत्संग-कीर्तन के दौरान अपने हाथों से पानी का गिलास भरकर भाव भरे भजन गाने वाले नरसिंह मेहता के होठों तक ले जाती थी। लोगों ने रतनबाई का भाव एवं नरसिंह मेहता की भक्ति नहीं देखी, बल्कि पानी पिलाने की बाह्य क्रिया को देखकर उलटा अर्थ लगा लिया।
सरपंच ने घोषित कर दियाः "आज से नरसिंह मेहता गाँव के चौराहे पर ही सत्संग-कीर्तन करेंगे, घर पर नहीं।"
नरसिंह मेहता ने चौराहे पर सत्संग-कीर्तन किया। विवादित बात छिड़ने के कारण भीड़ बढ़ गयी थी। कीर्तन करते-करते रात्री के 12 बज गये। नरसिंह मेहता रोज इसी समय पानी पीते थे, अतः उन्हें प्यास लगी।
इधर रतनबाई को भी याद आया कि 'गुरुजी को प्यास लगी होगी। कौन पानी पिलायेगा?' रतनबाई ने बंद कमरे में ही मटके में से प्याला भरकर, भावपूर्ण हृदय से आँखें बंद करके मन-ही-मन प्याला गुरुजी के होठों पर लगाया।
जहाँ नरसिंह मेहता कीर्तन-सत्संग कर रहे थे, वहाँ लोगों को रतनबाई पानी पिलाती हुई नजर आयी। लड़की का बाप एवं भाई दोनों आश्चर्यचकित हो उठे कि 'रतनबाई इधर कैसे?'
वास्तव में तो रतनबाई अपने कमरे में ही थी। पानी का प्याला भरकर भावना से पिला रही थी, लेकिन उसकी भाव की एकाकारता इतनी सघन हो गयी कि वह चौराहे के बीच लोगों को दिखी।
अतः मानना पड़ता है कि जहाँ आदमी का मन अत्यंत एकाकार हो जाता है, उसका शरीर दूसरी जगह होते हुए भी वहाँ दिख जाता है।
रतनबाई के बाप ने पुत्र से पूछाः "रतन इधर कैसे?"
रतनबाई के भाई ने कहाः "पिताजी ! चाबी तो मेरी जेब में है !"
दोनों भागे घर की ओर। ताला खोलकर देखा तो रतनबाई कमरे के अंदर ही है और उसके हाथ में प्याला है। रतनबाई पानी पिलाने की मुद्रा में है। दोनों आश्चर्यचकित हो उठे कि यह कैसे !
संत एवं समाज के बीच सदा से ही ऐसा ही चलता आया है। कुछ असामाजिक तत्त्व संत एवं संत के प्यारों को बदनाम करने की कोई भी कसर बाकी नहीं रखते। किंतु संतों-महापुरुषों के सच्चे भक्त उन सब बदनामियों की परवाह नहीं करते, वरन् वे तो लगे ही रहते हैं संतों के दैवी कार्यों में। ठीक ही कहा हैः
इल्जाम
लगानेवालों
ने इल्जाम
लगाये लाख मगर।
तेरी
सौगात समझकर
के हम सिर पे
उठाये जाते
हैं।।
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सत्र 18
आहार
शुद्धौ
सत्त्वशुद्धिः
सत्त्वशुद्धौ
ध्रुवा
स्मृतिः।
'आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है। सत्त्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है। पवित्र और निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।'
खाये हुए भोजन से ही रस व रक्त की उत्पत्ति होती है। इनमें वे ही गुण आते हैं जो गुण हमारे भोजन के थे। भोजन हमारे मन, बुद्धि, अन्तःकरण के निर्माण में सहायक हैं। जो व्यक्ति मांस, शराब और उत्तेजक भोजन करते हैं वे संयम से किस प्रकार रह सकते हैं ? वे शुद्ध बुद्धि का विकास कैसे कर सकते हैं और वे दीर्घायु कैसे हो सकते हैं ? भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवद् गीता में सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न करने वाले भोजनों की सुन्दर व्याख्या की है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा, उसका आचरण भी तदनुकूल होता जायगा। भोजन से हमारी इन्द्रियाँ और मन संयुक्त हैं। सात्त्विक, सौम्य आहार करने वाले व्यक्ति अध्यात्म मार्ग में दृढ़ता से अग्रसर होते हैं। परमात्मपथ में उन्नति करने के इच्छुकों को, पवित्र विचार और अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले तथा ईश्वरीय तेज प्राप्त करने वाले अभ्यासियों को सात्त्विक आहार करना चाहिए।
आयुः
सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः
स्निग्धाः
स्थिरा
हृद्याआहाराःसात्त्विकप्रियाः।।
'आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय – ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरूष को प्रिय होते हैं।'
(गीताः 17.8)
जो अन्न बुद्धिवर्धक हो, वीर्यरक्षक हो, उत्तेजक न हो, तमोगुणी न हो, कब्ज न करे, सुपाच्य हो वह सत्त्वगुणयुक्त आहार है। हरे ताजे शाक, अनाज-गेहूँ, चावल आदि, दालें, दूध, शुद्ध घी, मक्खन, बादाम, सन्तरे, सेव, अंगूर, केले, अनार, मौसमी इत्यादि सात्त्विक आहार हैं। सात्त्विक भोजन से शरीर में स्फूर्ति रहती है चित्त निर्मल रहता है। सात्त्विक भोजन करने वाले व्यक्ति चिंतनशील और मधुर स्वभाव के होते हैं। उन्हें अधिक विकार नहीं सताते। उनके शरीर के आतंरिक अवयवों में विष एकत्रित नहीं होते। जहाँ अधिक भोजन करने वाले, दिन में सोनेवाले व्यक्ति अजीर्ण, सिरदर्द, कब्ज, सुस्ती से परेशान रहते हैं वहीं परिमित भोजन करने वालों को ये रोग तो नहीं ही होते साथ ही उनके आन्तरिक अवयव शरीर में एकत्रित होने वाले कूड़े कचरे को बाहर फेंकते रहते हैं, उनके शरीरों में विष-संचय नहीं होता। हमारे ऋषियों ने अधिक खाये हुए अन्न, पदार्थ को पचाने और उदर को विश्राम देने के लिए उपवास की व्यवस्था की है। उपवास से काम, क्रोध, रोगादि फीके पड़ जाते हैं और मन में राजसी, तामसी विचार स्थान नहीं लेते। अमावस्या, एकादशी, पूनम का उपवास हितकारी है। इन दिनों में निराहार रहें अथवार तो दूध या फलों का सेवन करें। दूध-फल भी अधिक मात्रा में न हों। इससे जिह्वा पर नियंत्रण तो होता ही है साथ ही संकल्प-सामर्थ्य भी बढ़ता है। केला कफ भी करता है, मोटापा भी लाता है। अतः मोटे व्यक्ति सावधान ! अपनी अवस्था, प्रकृति, ऋतु तथा रहन-सहन के अनुसार विचारकर शीघ्र पचने वाला सात्त्विक भोजन ही करना चाहिए।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णविदाहिनः।
आहारा
राजसस्येष्टा
दुःखशोकामप्रयदाः।।
यातयामं
गतरसं पूति
पर्युषितं च
यत्। उच्छिष्टमपि
चामेध्यं
भोजनं
तामसप्रियम्।।
'कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरूष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और जूठा है तथा जो अपवित्र भी है वह भोजन तामस पुरूष को प्रिय होता है।'
(गीताः 17.9,20)
राजसी आहार करने वाले व्यक्ति यह भूल जाते हैं कि उत्तेजक भोजन करने से साधन-भजन, स्वाध्याय का संयम बिखर जाता है। हमारे द्वारा प्रयुक्त भोजन का तथा हमारे विचारों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। भोजन हमारे स्वभाव, रूचि तथा विचारों का निर्माता है। यदि भोजन सात्त्विक है तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार पवित्र होंगे। इसके विपरीत राजसी, तामसी भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध, विलासी तथा विकारमय होंगे। जिन लोगों के भोजन में मांस, अण्डे, लहसुन, प्याज, मदिरा इत्यादि प्रयोग किये जाते हैं, जो प्रदोषकाल में भोजन और मैथुन करते हैं, वे लोग प्रायः कलुषित विचारों से घिरे रहते हैं, उनका जीवन पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। मैथुन के लिए पर्व भी प्रदोषकाल माना गया है। भोजन का प्रभाव प्रत्येक जीव पर पड़ता है। पशुओं को लीजिए – बैल, गाय, भैंस, घोड़े, गधे, बकरी, हाथी इत्यादि शारीरिक श्रम करने वाले पशुओं का मुख्य भोजन घास-चारा आदि ही है। फलतः वे सहनशील, शांत व मृदु होते हैं। इसके विपरीत सिंह, चीते, भेड़िये, बिल्ली इत्यादि मांसभक्षी जीव चंचल, उग्र, क्रोधी और उत्तेजक स्वभाव के बन जाते हैं। इसी प्रकार राजसी, तामसी भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधी, झगड़ालू व अशिष्ट होते हैं। वे सदा आलस्य, कलह, निंदा में डूबे रहते हैं, दिन रात में आठ-दस घण्टे तो वे सोकर ही नष्ट कर देते हैं। राजसी –तामसी भोजन से मन विक्षुब्ध होता है, विषय वासना में लगता है। शास्त्रों में प्याज तथा लहसुन वर्जित हैं। ये दोनों स्वास्थ्यप्रद होते हुए भी सात्त्विक व्यक्तियों के लिए वर्जित हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ये उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। मदिरा, अण्डे, मांस-मछली, मछलियों के तेल, तम्बाकू, गुटखा, पान-मसाला इत्यादि तामसी वृत्ति तो उत्पन्न करते ही हैं, साथ ही अनेकानेक रोगों के कारण भी बनते हैं। फास्टफूड जैसे नूडल्स, पिज्जा, बर्गर, बन, चायनीज डिशेज, ब्रेड आदि का सेवन न करें। जैम, जैल मार्मलेड, चीनी, आइसक्रीम, पुडिंग, पेस्ट्री केक, चॉकलेट तथा बाजारू मिठाइयों से दूर रहें। तली भुनी चीजें जैसे – पूरी, परांठा, पकौड़ा, भजिया, समोसा आदि न खायें। खटाई, मिर्च-मसालों का प्रयोग कम से कम करें। बासी भोजन, अधिक छौंक लगाये हुए भोजन, पनीर व मशरूम आदि न खायें। चाय, काफी और मादक न नशीले पदार्थों का सेवन कतई न करें। साफ्ट ड्रिंक्स न पीयें न पिलायें। इनकी जगह आप ताजे फलों का रस, नींबू मिला पानी, नारियल पानी, लस्सी, छाछ या शरबत लें।
भोजन में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है। जो व्यक्ति जितनी शीघ्रता से दोषयुक्त आहार से बचकर सात्त्विक आहार करने वाले हो जायेंगे, उनके शरीर दीर्घकाल तक सुदृढ़, पुष्ट और स्फूर्तिमान बने रहेंगे। क्षणिक जिह्वासुख को न देखकर भोजन से शरीर, मन और बुद्धि का जो संयोग है उसे सामने रखना चाहिए। जब तक अन्न शुद्ध नहीं होगा, अन्य धार्मिक, नैतिक या सामाजिक कृत्य सफल नहीं होंगे। अन्नशुद्धि हेतु आवश्यक है कि अन्न शुद्ध कमाई के पैसे का हो। झूठ, कपट, छल, बेईमानी आदि न हो – इस प्रकार की आजीविका से उपार्जित धन से जो अन्न प्राप्त होता है वही शुद्ध अन्न है। यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि जिस पात्र में उस भोज्य वस्तु को तैयार किया जाये, वह पात्र शुद्ध हो और जो व्यक्ति भोजन बनाये वह भी स्वच्छ, पवित्र और प्रसन्न मनवाला होना चाहिए।
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राम रावण युद्ध के दौरान दशमुख रावण मारा गया तथा मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्रजी विजयी हुए। इस शुभ समाचार को लेकर हनुमान जी लंका स्थित अशोक वाटिका में माता जानकी के पास गये। यह सुनकर जनकनन्दिनी के हर्ष का ठिकाना न रहा। वे हनुमानजी के उपकारों के कारण मानों कृतज्ञता से द्रवीभूत हो गयीं। उन्होंने कहाः "हनुमान ! तुमने जो साहस के कार्य किये हैं, तुमने जो उपकार किया है, उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। तुम्हारे ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकूँगी।"
हनुमानजी ने कहाः "माँ, आप कैसी बात कर रही हैं ? पुत्र तो माँ के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। माँ ! मेरी इच्छा है, आप कहें तो उसे पूरा कर लूँ।"
माता जानकी ने कहाः "कौन सी इच्छा है हनुमान ?"
हनुमानजीः "इसके पहले जिस समय मैं यहाँ आया था, उसी समय रावण आपके पास आया था। जब आपने उसकी बात नहीं मानी, तब वह इन राक्षसियों को आज्ञा दे गया कि "सीता को भाँति भाँति की यातनाएँ दो।" राक्षसियों ने आपको बहुत पीड़ित किया है, भाँति-भाँति की यातनाएँ दी हैं। अब इन्हें देखकर मेरे हाथ खुजला रहे हैं। आपकी आज्ञा हो तो इन्हें दो-दो थप्पड़ जमा दूँ, आपको कष्ट देने का मजा चखा दूँ, इनकी थोड़ी से मरम्मत कर दूँ।"
यह सुनकर सीता जी ने कहाः " ना-ना...ऐसा कभी मत करना। अरे हनुमान ! तुम समझते नहीं। उस समय ये बेचारी परवश थीं, दूसरे के अधीन थीं। मनुष्य अपनी स्थिति से विवश होकर न करने योग्य कार्य भी करता है। परिस्थितियाँ उसे ऐसा करने पर विवश कर देती हैं। ये सब-की-सब निरपराधिनी हैं। पवनतनय ! इन्हें थप्पड़ मारकर तुम्हें क्या मिलेगा ? इन्हें दण्ड देने से मुझे अत्यन्त दुःख होगा। बेटा ! कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता। सब काल करवा लेता है। ये काल की क्रूर चेष्टाएँ हैं। सबल पुरूष को निर्बल पर दया करनी चाहिए। तुम तो दो-दो थप्पड़ की बात करते हो, ये तो तुम्हारे एक ही थप्पड़ में धराशायी हो जायेंगी। उस समय ये रावण के अधीन थीं। जो भी करती थीं, रावण की आज्ञा से करती थीं। इनके कार्यों का उत्तरादायित्व रावण के ऊपर था। जब रावण ही मर गया तो वे बातें भी समाप्त हो गयीं। अब तो ये तुम्हारी कृपा की इच्छुक हैं, इन पर कृपा करो, इन्हें पारितोषिक दो।"
जिसने
दिया
दर्द-ए-दिल
उसका प्रभु
भला करे।
आशिकों
को वाजिब है
फिर से दुआ
करे।।
कैसी है सीता जी का समता, उदारता ! औरों को टोटा चबाने की अपेक्षा खीर-खाँड खिलाने का कैसा मधुर स्वभाव है भारत की देवियों का !
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सत्र 19
ईर्ष्या-द्वेष और अति धन-संग्रह से मनुष्य अशांत होता है। ईर्ष्या-द्वेष की जगह पर क्षमा और सत्प्रवृत्ति का हिस्सा बढ़ा दिया जाये तो कितना अच्छा !
दुर्योधन ईर्ष्यालु था, द्वेषी था। उसने तीन महीने तक दुर्वासा ऋषि की भली प्रकार से सेवा की, उनके शिष्यों की भी सेवा की। दुर्योधन की सेवा से दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हो गये और बोलेः
"माँग ले वत्स ! जो माँगना चाहे माँग ले।"
जो ईर्ष्या-द्वेष के शिकंजे में आ जाता है, उसका विवेक उसे साथ नहीं देता है लेकिन जो ईर्ष्या-द्वेष से रहित होता है उसका विवेक सजग रहता है। वह शांत होकर विचार या निर्णय करता है। ऐसा व्यक्ति सफल होता है और सफलता के अहं में गरकाव नहीं होता। कभी असफल भी हो गया तो विफलता के विषाद में नहीं डूबता। दुष्ट दुर्योधन ने ईर्ष्या एवं द्वेष के वशीभूत होकर कहाः
"मेरे भाई पाण्डव वन में दर-दर भटक रहे हैं। उनकी इच्छा है कि आप अपने हजार शिष्यों के साथ उनके अतिथि हो जायें। अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे भाइयों की इच्छा पूरी करें लेकिन आप उसी वक्त उनके पास पहुँचियेगा जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो।"
दुर्योधन जानता था किः 'भगवान सूर्य ने उन्हें अक्षयपात्र दिया है। उसमें से तब तक भोजन-सामग्री मिलती रहती है जब तक द्रौपदी भोजन न कर ले। द्रौपदी भोजन करके पात्र को धोकर रख दे फिर उस दिन उसमें से भोजन नहीं निकलेगा। अतः दोपहर के बाद दुर्वासाजी उनके पास पहुँचेंगे तब भोजन न मिलने से कुपित हो जायेंगे और पाण्डवों को शाप दे देंगे। इससे पाण्डव वंश का सर्वनाश हो जायेगा।'
इस ईर्ष्या और द्वेष से प्रेरित होकर दुर्योधन ने दुर्वासाजी की प्रसन्नता का लाभ उठाना चाहा।
दुर्वासा ऋषि मध्याह्न के समय जा पहुँचे पाण्डवों के पास। युधिष्ठिर आदि पाण्डव एवं द्रौपदी दुर्वासाजी को शिष्यों समेत अतिथि के रूप में आये हुए देखकर चिन्तित हो गये। फिर भी बोलः "विराजिये महर्षि ! आपके भोजन की व्यवस्था करते हैं।"
अन्तर्यामी परमात्मा सबका सहायक है, सच्चे का मददगार है। दुर्वासाजी बोलेः "ठहरो ठहरो.... भोजन बाद में करेंगे। अभी तो यात्रा की थकान मिटाने के लिए स्नान करने जा रहा हूँ।"
इधर द्रौपदी चिन्तित हो उठी कि अब अक्षयपात्र से कुछ न मिल सकेगा और इन साधुओं को भूखा कैसे भेजें ? उनमें भी दुर्वासा ऋषि को ! वह पुकार उठीः "हे केशव ! हे माधव ! हे भक्तवत्सल ! अब मैं तुम्हारी शरण में हूँ....." शांत हृदय एवं पवित्र चित्त से द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का चिंतन किया। भगवान श्रीकृष्ण आये और बोलेः
"द्रौपदी कुछ खाने को तो दो !"
द्रौपदीः "केशव ! मैंने तो पात्र धोकर रख दिया है।"
श्रीकृष्णः "नहीं,नहीं... लाओ तो सही ! उसमें जरूर कुछ होगा।"
द्रौपदी ने लाकर दिया पात्र तो दैवयोग से उसमें तांदुल की भाजी का एक पत्ता बच गया था। विश्वात्मा श्रीकृष्ण ने संकल्प करके उस तांदुल की भाजी का पत्ता खाया और तृप्ति का अनुभव किया तो उन महात्माओं को भी तृप्ति का अनुभव हुआ। वे कहने लगे किः "अब तो हम तृप्त हो चुके हैं, वहाँ जाकर क्या खायेंगे ? युधिष्ठिर को क्या मुँह दिखायेंगे ?"
शांतचित्त से की हुई प्रार्थना अवश्य फलती है। ईर्ष्यालु एवं द्वेषी चित्त से तो किया-कराया भी चौपट हो जाता है जबकि नम्र और शांत चित्त से तो चौपट हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है और हृदय धन्यता से भर जाता है।
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सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग कितना घातक हो सकता है, यह बात भी अब विभिन्न परीक्षणों से सामने आती जा रही है। यदि कहा जाय कि ये सौंदर्य प्रसाधन हमारे नैसर्गिक सौन्दर्य को छीनने में लगे हैं तो गलत नहीं होगा।
सौन्दर्य प्रसाधनों में भारी मात्रा में कृत्रिम रसायनों, कृत्रिम अर्क और सुगंधियों का प्रयोग किया जा रहा है। ये प्रसाधन हमारे लिए कैसे घातक सिद्ध हो सकते हैं, इसके लिए यह जानना भी जरूरी है कि किस प्रसाधन में कौन से रासायनिक तत्त्व मिलाये जाते हैं।
सौंदर्य-गृह 'पाइवट-प्वाइंट' की भारतीय शाखा की प्रबंध निदेशिका एवं सौन्दर्य विशेषज्ञा श्रीमती ब्लासम कोचर बताती हैं- "शैम्पू में मूल रूप से सोडियम लारेल सल्फेट पाया जाता है, जो बालों के लिए बहुत हानिकारक नहीं होता किन्तु सस्ते और घटिया शैम्पू जो कास्टिक सोडा और टी-पॉल यानी डिटर्जैन्ट से बने होते हैं, वे बालों को बेजान और रूखा बनाते हैं। शैम्पू बालों के दुश्मन हैं। बालों की बेहतरी के लिये उन्हें रीठा, आँवला, शिकाकाई से ही धोना चाहिए।" केश सज्जा में किया जाने वाला हेयर स्प्रे एक प्रकार का अल्कोहल होता है, जिसमें गोंद, रेजिन, सिलिकॉन और सुगन्ध मिली होती है। रेजिन और गोंद की परत बालों को सेट भले ही करती हो, किन्तु उसमें मौजूद चिपकाने वाला पदार्थ बालों के लिए हानिकारक होता है, क्योंकि जब वह बालों से खिंचाव बढ़ता है और वे तेजी से टूटने लगते हैं। इसमें मौजूद सिलिकॉन हमारे लिए बेहद हानिकारक होता है। इससे कैंसर होने का खतरा भी रहता है।
काजल पेंसिलः में अरंडी का तेल और लेड होता है। आँखों के भीतरी भाग में लेड के जाने से भारी नुक्सान हो सकता है। पलकों की बरौनियों पर लगाया जाने वाला मस्करा लेड रंग और पी.वी.सी. से बना होता है। पी.वी.सी. की परत से बरौनियों के बाल कड़े हो जाते हैं और इसे साफ करने पर टूटकर झड़ने भी लगते हैं। श्रीमती ब्लासम के अनुसार मस्कारे की जगह अलसी का तेल बरौनियों पर लगाने से बाल बढ़ेंगे और सुंदर भी होंगे।
चेहरे पर लगाये जाने वाले पाउडर, रूज या फाउंडेशन में अगर कोई हानिकारक तत्त्व हैं तो वह हैं इनके रंगों की क्वालिटी। रंगों की हल्की क्वालिटी के इन प्रसाधनों के प्रयोग से चर्मरोग जैसे एलर्जी, दाद या सफेद दाग होने की आशंका बनी रहती है।
लिपस्टिक में कारनोबा वैक्स, बी वैक्स (मधुमक्खी के छत्ते का मोम), अरंडी का तेल और रंगों का प्रयोग किया जाता है। इनमें प्रयोग होने वाले रंगों की घटिया क्वालिटी से होंठ काले पड़ जाते हैं।
ब्लीचिंग क्रीम यदि त्वचा का रंग साफ करती है, तो उसके प्रयोग में बरती गयी तनिक-सी लापरवाही से त्वचा काली पड़ सकती है। इसमें अमोनिया की मात्रा का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है। इसी प्रकार गोरेपन की क्रीम में अन्य तत्त्वों के अलावा पाये जाने वाले आइड्रोक्वीनींन से चेहरे पर स्थायी रूप से सफेद-सफेद धब्बे पड़ने लगते हैं।
विभिन्न सौंदर्य में पशुओं की चर्बी और पैट्रोकेमिकल्स, कृत्रिम सुगंधियों जैसे गुलाब की सुगंध के लिए इथाइत्र, जिरानाइन, अल्कोहल, फिनाइल और सिट्रोनेल्स मिलाया जाता है। ये तत्त्व त्वचा में एग्जीमा, दाद और एलर्जी जैसी बीमारियों को जन्म देते हैं। इसी प्रकार इत्र, जिनमें हाड्रक्सीसिट्रोन बेंजीसेलिसिलेट की मात्रा अधिक होती है जिनसे डरमेटाइटिस का खतरा बना रहता है। अतः नैसर्गिक सौंदर्य की आभा के लिए हमें प्रकृति से ही उपादान जुटाने चाहिए, ताकि हम कृत्रिम सौंदर्य प्रसाधनों की मार से बच सकें।
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सत्र 20
'मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्य देवो भव।' का उपदेश देनेवाले वेदों की धरा पर अंग्रेजों का अंधानुकरण करने वाले पढ़े लिखे मूर्ख लोग अपने जन्मदाता माता-पिता को जीते जी मृत बना देते हैं। आजकल माता-पिता को मम्मी डैडी कहना एक फैशन बन गया है परन्तु इन दोनों शब्दों का अर्थ कोई छोटी-मोटी गाली देना नहीं है।
प्राचीन काल में मिश्र के पिरामिडों में ख्याति प्राप्त लोगों के शव रखने की परम्परा थी। मसाला लगाकर पिरामिड में वर्षों पूर्व जो शव गाड़े गये थे उनको ममी कहते हैं। मम्मी शब्द ममी का ही अपभ्रंश हैं। इस शब्द का दूसरा कोई अर्थ नहीं है।
'माँ' शब्द की अपनी एक गरिमा है। जननी को माँ कहकर पुकारने में उसके प्रति जो आदर एवं सम्मान का भाव जागृत होता है उसका एहसास मम्मी कहने वाले तोछड़े लोग नहीं जान सकते। माँ अर्थात् मंगलमूर्ति, ममतामयी, मधुरता देने वाली, महान बनाने वाली देवी और मम्मी अर्थात् अधसड़ा शव इससे अधिक और कुछ नहीं।
डैडी का मूल शब्द है डेड और डेड का अर्थ है मृत व्यक्ति। वैसे भी डैडी को प्रेम से लोग डेड भी बोल देते हैं। कुछ तर्कवादी यहाँ पर यह भी कह सकते हैं कि डेड और डेडी की स्पैलिंग अलग-अलग होती है, परन्तु जब किसी शब्द का उच्चारण किया जाता है तो उसके उच्चारण के भाव को ही देखा जाता है उसकी स्पेलिंग को नहीं।
हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि शब्द का अपना प्रभाव होता है। भारतीय ऋषियों ने शब्द के प्रभाव की सूक्ष्म खोज करके मंत्रों को प्रगट किया और भारतीय मंत्र-विज्ञान को आज का विज्ञान भी दण्डवत प्रणाम करता है। एक समझदार व्यक्ति को गधा कहने पर जैसा बुरा प्रभाव पड़ेगा, वैसा ही माँ को मम्मी और पिता को डैडी कहने पर पड़ेगा।
आजकल संगीत चिकित्सा पद्धति (Musicotherapy) विकसित हो रही है, जिसमें संगीत की धुनों एवं रागों के द्वारा मानसिक रोगों का इलाज किया जाता है।
इस चिकित्सा पद्धति निष्णांत मनोविज्ञानी कहते हैं कि प्रत्येक शब्द का हमारी मानसिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ता है अर्थात् हम जैसा शब्द बोलते हैं और शब्द के जोर से हमारे शरीर के जिस केन्द्र में स्पन्दन होता है उसका प्रभाव हमारे मनोभावों पर तुरन्त पड़ता है।
माताश्री, पिताश्री कहने से मन में जो पवित्र तरंग, पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं वैसे मम्मी अर्थात् अधसड़ा शव और डैडी अर्थात् मृत व्यक्ति कहने से नहीं होते।
जिन माता-पिता ने इतने कष्ट सहकर अपने बच्चों को बड़ा किया अथवा कर रहे हैं उनको जीते-जी मृत कहना कहाँ की सभ्यता है ? जो अंग्रेज अपने सभ्य होने की डींग हाँकते हैं वे अपने पूर्वजों को बंदर मानते हैं, जबकि हमारे पूर्वज ब्रह्माजी और आदिनारायण हैं।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि पाश्चात्य एवं भारतीय अध्यात्म में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक पाश्चात्य कहता हैः "मैं यह शरीर हूँ और फिर मेरे पास आत्मा नाम की वस्तु भी है।" जबकि एक भारतीय की दृष्टि में वह पहले आत्मा है और बाद में उसके पास एक शरीर रूपी कपड़ा भी है जिसे एक दिन छोड़ना है।
इसीलिए पाश्चात्यों के सारे क्रिया-कलाप शारीरिक सुख के लिए ही होते हैं, जबकि एक भारतीय सांसारिक क्रिया-कलापों को थोड़े दिन का व्यवहार समझकर आत्मिक उत्थान का प्रयास भी करता रहता है।
यह तो आध्यात्मिक क्षेत्र की बात हुई परन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में भी इसी प्रकार की एक बड़ी दूरी है। कोई भी व्यक्ति जब अपने पूर्वजों को याद करता है तो उनके कर्मों से उसे स्वयं पर गर्व या ग्लानि होती है।
चोर का बेटा समाज के बीच अपने पिता पर गर्व नहीं कर सकता, जबकि चरित्रवान, सज्जन एवं परोपकारी की संतान अपने पूर्वजों पर गर्व करती है और उनसे उसे प्रेरणा भी मिलती है।
एक भारतीय व्यक्ति गर्व से कहता है कि मैं भगवा श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं ऋषि-मुनियों की संतान हूँ, जबकि एक पाश्चात्य कहता है कि हमारे पूर्वज बंदर थे।
भगवान और ऋषियों का स्मरण करने वाला निश्चय ही महान होगा, जबकि बंदर का चिंतन करने वाला उच्छ्रंखल होगा। अब आप स्वयं निर्णय करें कि आपको किसी की पंक्ति में बैठना है ? गर्व से कहोः "हम भारतवासी हैं, ऋषियों की संतानें हैं।"
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भगवत्प्राप्त महापुरुष परमात्मा के नित्य अवतार हैं. वे नश्वर संसार व शरीर की ममता को हटाकर शाश्वत परमात्मा में प्रीति कराते हैं। कामनाओं को मिटाते हैं। निर्भयता का दान देते हैं। साधकों-भक्तों को ईश्वरीय आनन्द व अनुभव में सराबोर करके जीवन्मुक्ति का पथ प्रशस्त करते हैं।
ऐसे उदार हृदय, करूणाशील, धैर्यवान सत्पुरूषों ने ही समय-समय पर समाज को संकटों से उबारा है। इसी श्रृंखला में गुरू तेगबहादुरजी हुए हैं। जिन्होंने बुझे हुए दीपकों में सत्य की ज्योति जगाने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए, भारत को क्रूर, आततायी, धर्मान्ध राज्य-सत्ता की दासता की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर दिया।
हिन्दुस्तान में मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन काल था। औरंगजेब ने यह हुक्म किया कि कोई हिन्दू राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाय तथा हिन्दुओं पर जजिया (कर) लगा दिया जाये। उस समय अनकों नये कर केवल हिन्दुओं पर लगाये गये। इस भय से अनेकों हिन्दु मुसलमान हो गये। हर ओर जुल्म का बोलबाला था। निरपराध लोग बंदी बनाये जा रहे थे। प्रजा को स्वधर्म पालन को भी आजादी नहीं थी। जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था। किसी की भी धर्म, जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं रह गयी थी। पाठशालाएंए बलात बन्द कर दी गयीं।
हिन्दुओं के पूजा-आरती तथा अन्य सभी धार्मिक कार्य बन्द होने लगे। मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवायी गयीं एवं अनेकों धर्मात्मा मरवा दिये गये। सिपाही यदि किसी के शरीर पर यज्ञोपवीत या किसी के मस्तक पर तिलक लगा हुआ देख लें तो शिकारी कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ते थे। उसी समय की उक्ति देख लें कि रोजाना सवा मन यज्ञोपवीत उतरवाकर ही औरंगजेब रोटी खाता था....
उस समय कश्मीर के कुछ पंडित निराश्रितों के आश्रय, बेसहारों के सहारे गुरू तेगबहादुरजी के पास मदद की आशा और विश्वास से पहुँचे।
पंडित कृपाराम ने गुरू तेगबहादुर से कहाः "सदगुरूदेव ! औरंगजेब हमारे ऊपर बड़े अत्याचार कर रहा है। जो उसके कहने पर मुसलमान नहीं हो रहा, उसका कत्ल किया जा रहा है। हम उससे छः महीने की मोहलत लेकर हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए आपकी शरण आये हैं। ऐसा लगता है, हममें से कोई नहीं बचेगा। हमारे पास दो ही रास्ते हैं – धर्मांतरित हो जायें या सिर कटाओ।'
पंड़ित धर्मदास ने कहाः "सदगुरूदेव ! हम समझ रहे हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है। फिर भी हम चुप हैं और सब कुछ सह रहे हैं। कारण भी आप जानते हैं। हम भयभीत हैं, डरे हुए है। अन्याय के सामने कौन खड़ा हो ?"
"जीवन की बाजी कौन लगाये ?" गुरू तेगबहादुर के मुँह से अस्फुट स्वर में निकला। फिर वे गुरूनानक की पंक्तियाँ दोहराने लगे।
जे तउ
प्रेम खेलण का
चाउ। सिर धर
तली गली मेरी आउ।।
इत
मारग पैर धरो
जै। सिर दीजै
कणि न कीजै।।
गुरू तेगबहादुर का स्वर गंभीर होता जा रहा था। उनकी आँखों में दृढ़ निश्चय के साथ गहरा आश्वासन झाँक रहा था। वे बोलेः "पंडित जी ! यह भय शासन का है। उसकी ताकत का है, पर इस बाहरी भय से कहीं अधिक भय हमारे मन का है। हमारी आत्मिक शक्ति दुर्बल हो गयी है। हमारा आत्मबल नष्ट हो गया है। इस बल को प्राप्त किये बिना यह समाज भयमुक्त नहीं होगा। बिना भयमुक्त हुए यह समाज अन्याय और अत्याचार का सामना नहीं कर सकेगा।"
पंडित कृपारामः "परन्तु सदगुरूदेव। सदियों से विदेशी पराधीनता और आन्तरिक कलह में डूबे हुए इस समाज को भय से छुटकारा किस तरह मिलेगा ?"
गुरूतेगबहादुरः "हमारे साथ सदा बसने वाला परमात्मा ही हमें वह शक्ति देगा कि हम निर्भय होकर अन्याय का सामना कर सकें।"
पतित
उधारन भै हरन
हरि अनाथ के
नाथ। कहु नानक
तिह जानिए सदा
बसत तुम साथ।।
इस बीच नौ वर्ष के बालक गोबिन्द भी पिता के पास आकर बैठ गये।
गुरूतेगबहादुरः"अन्धेरा बहुत घना है। प्रकाश भी उसी मात्रा में चाहिए। एक दीपक से अनेक दीपक जलेंगे। एक जीवन की आहुति अनेक जीवनों को इस रास्ते पर लायेगी।
पं. कृपाराम आपने क्या निश्चय किया है, यह ठीक-ठीक हमारी समझ में नहीं आया। यह भी बताइये कि हमें क्या करना होगा ?"
गुरूतेगबहादुर मुस्कराये और बोलेः "पंडित जी ! भयग्रस्त और पीड़ितों को जगाने के लिए आवश्यक है कि कोई ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का बलिदान दे, जिसके बलिदान से लोग हिल उठें, जिससे उनके अंदर की आत्मा चीत्कार कर उठे। मैंने निश्चय किया है कि समाज की आत्मा को जगाने के लिए सबसे पहले मैं अपने प्राण दूँगा और फिर सिर देने वालों की एक श्रृंखला बन जायेगी। लोग हँसते-हँसते मौत को गले लगा लेंगे। हमारे लहू से समाज की आत्मा पर चढ़ी कायरता और भय की काई धुल जायेगी और तब.....।"
"और तब शहीदों के लहू से नहाई हुई तलवारें अत्याचार का सामना करने के लिए तड़प उठेंगी।"
यह बात बालक गुरूगोबिन्द सिंह के मुँह से निकली थी। उन सरल आँखों में भावी संघर्ष की चिनगारियाँ फूटने लगीं थीं।
तब गुरू तेगबहादुरजी का हृदय द्रवीभूत हो उठा। वे बोलेः "जाओ, तुम लोग बादशाह से कहो कि हमारा पीर गुरूतेगबहादुर है। यदि वह मुसलमान हो जाय तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।"
पंडितों ने यह बात कश्मीर के सूबेदार शेर अफगान को कही। उसने यह बात औरंगजेब को लिख कर भेज दी। तब औरंगजेब ने गुरू तेगबहादुर को दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया। उनके शिष्य मतिदास, दयालदास और सतीदास से औरंगजेब ने कहाः "यदि तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिये जाओगे।"
मतिदासः "शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता।"
तब औरंगजेब ने मतिदास को आरे से चीरने का हुक्म दे दिया। भाई मतिदास के सामने जल्लाद आरा लेकर खड़े दिखाई दे रहे थे। उधर काजी ने पूछाः
"मतिदास तेरी अंतिम इच्छा क्या है ?"
मतिदासः "मेरा शरीर आरे से चीरते समय मेरा मुँह गुरूजी के पिंजरे की ओर होना चाहिए।"
काजीः "यह तो हमारा पहले से ही विचार है कि सब सिक्खों को गुरू के सामने ही कत्ल करें।"
भाई मतिदास को एक शिकंजे में दो तख्तों के बीच बाँधा गया। दो जल्लादों ने आरा सिर पर रखकर चीरना शुरू किया। उधर भाई मतिदास जी ने 'श्री जपुजी साहिब' का पाठ शुरू किया। उनका शरीर दो टुकड़ों में कटने लगा। चौक को घेरकर खड़ी विशाल भीड़ फटी आँखों से यह दृश्य देखती रही।
दयालदास बोलेः "औरंगजेब ! तूने बाबरवंश को एवं अपनी बादशाहियत को चिरवाया है।"
यह सुनकर औरंगजेब ने दयालदास को गरम तेल में उबालने का हुक्म दिया।
उनके हाथ पैर बाँध दिये गये। फिर उन्हें उबलते हुए तेल के कड़ाहे में डालकर उबाला गया। वे अंतिम श्वास तक 'श्री जपुजी साहिब' पाठ करते रहे। जिस भीड़ ने यह नजारा देखा, उसकी आँखें पथरा सी गयीं।
तीसरे दिन काजी ने भाई सतीदास से पूछाः "क्या तुम्हारा भी वही फैसला है ?"
भाई सतीदास मुस्करायेः "मेरा फैसला तो मेरे सदगुरू ने कब का सुना दिया है।"
औरंगजेब ने सतीदास को जिन्दा जलाने का हुक्म दिया। भाई सतीदास के सारे शरीर को रूई से लपेट दिया गया और फिर उसमें आग लगा दी गयी। सतीदास निरन्तर श्री जपुजी साहिब का पाठ करते रहे। शरीर धू-धूकर जलने लगा और उसी के साथ भीड़ की पथराई आँखें पिघल उठीं और वह चीत्कार कर उठी।
अगले दिन मार्गशीर्ष पंचमी संवत् सत्रह सौ बत्तीस (22 नवम्बर सन् 1675) को काजी ने गुरू तेगबहादुर से कहाः "ऐ हिन्दुओं के पीर ! तीन बातें तुम को सुनाई जाती हैं। इनमें से कोई एक बात स्वीकार कर लो। वे बाते हैं-
इस्लाम कबूल कर लो।
करामात दिखाओ।
मरने के लिए तैयार हो जाओ।
गुरूतेगबहादुर बोलेः "तीसरी बात स्वीकार है।"
बस, फिर क्या था ! जालिम और पत्थरदिल काजियों ने औरंगजेब की ओर से कत्ल का हुक्म दे दिया। चाँदनी चौक के खुले मैदान में विशाल वृक्ष के नीचे गुरू तेगबहादुर समाधि में बैठे हुए थे।
जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवाल लेकर खड़ा था। कोतवाली के बाहर असंख्य भीड़ उमड़ रही थी। शाही सिपाही उस भीड़ को काबू में रखने के लिए डंडों की तीव्र बौछारें कर रहे थे। शाही घुड़सवार घोड़े दौड़ाकर भीड़ को रौंद रहे थे। काजी के इशारे पर गुरू तेगबहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। चारों ओर कोहराम मच गया।
तिलक
जझू राखा प्रभ
ताका। कीनों
वडो कलू में साका।।
धर्म
हेत साका जिन
काया। सीस
दिया पर सिरड़
न दिया।।
धर्म
हेत इतनी जिन
करी। सीस दिया
पर सी न
उचरी।।
धन्य हैं ऐसे महापुरूष जिन्होंने अपने धर्म में अडिग रहने के लिए एवं दूसरों को धर्मांतरण से बचाने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की भी बलि दे दी।
श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः
परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः परधर्मो
भयावहः।।
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
(श्रीमद् भगवद् गीताः 3.35)
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सत्र 21
परित्यज्येयं
त्रैलोक्यं
राज्यं
देवेषु वा
पुनः।
यद्धाप्याधिकमेताभ्यां
न तु सत्यं
कथंचन।।
"मैं तीनों लोकों का राज्य, देवताओं का साम्राज्य अथवा इन दोनों से भी अधिक महत्त्व की वस्तु को भी एकदम त्याग सकता हूँ, परन्तु सत्य को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता।'
(महाभारत, आदिपर्वः 103.15)
पिता को खुशी की खातिर आजीवन ब्रह्मचर्य-पालन की प्रतिज्ञा करने वाले, परमवीर, सत्यनिष्ठ भीष्म आठवें वसु थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप के कारण आठों वसुओं को मनुष्य लोक में जन्म लेना था। श्री गंगा जी की कोख से जन्म लेने पर सात वसुओं को तो गंगाजी ने अपने जल में डालकर उनके लोक भेज दिया किन्तु आठवें वसु द्यौ को महाराज शान्तनु ने रख लिया। इसी बालक का नाम था देवव्रत।
एक बार वन में विचरण करते हुए महाराज शान्तनु की दृष्टि केवट दाशराज की पालित पुत्री सत्यवती पर पड़ी। सत्यवती का हाथ माँगा, किन्तु दाशराज चाहते थे कि उनकी पुत्री की सन्तान ही सिंहासन पर बैठने की अधिकारिणी मानी जाय। इसी शर्त पर वे सत्यवती का कन्यादान महाराज शान्तनु को दे सकते थे।
महाराज शान्तनु के लिए विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गयी। एक ओर तो वे अपने ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत का अधिकार उससे छीनना नहीं चाहते थे और दूसरी ओर सत्यवती को भुला नहीं पा रहे थे। अतः वे उदास रहने लगे। जब देवव्रत को पिता की उदासी का कारण मालूम हुआ तो वे तुरन्त दाशराज के पास पहुँच गये एवं बोलेः "मैं राज्यासन नहीं लूँगा।"
किन्तु दाशराज को इतने पर संतोष न हुआ। उन्होंने शंका व्यक्त कीः "तुम तो राजगद्दी पर नहीं बैठोगे किन्तु तुम्हारी सन्तान राज्य के लिए झगड़ सकती है।"
तब देवव्रत ने उसी समय दूसरी कठिन प्रतिज्ञा कीः "मैं आजीवन ब्रह्मचर्य-पालन करूँगा।" देवताओं ने कुमार देवव्रत की इस भीष्म-प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर उन पर पुष्पवर्षा की और ऐसी भीष्ण प्रतिज्ञा करने के कारण उनको 'भीष्म' कहकर संबोधित किया।
महाराज शान्तनु ने अपने पुत्र की पितृभक्ति से खूब सन्तुष्ट होकर उसे आशीर्वाद दियाः "बेटा ! जब तुम चाहोगे तभी तुम्हारा शरीर छूटेगा। तुम्हारी इच्छा के बिना मृत्यु तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगी।"
अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने के कारण बाद में अत्यावश्यक होने पर भी न तो भीष्म राजगद्दी पर बैठे और न ही विवाह किया। जब सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य मर गये, तब भरतवंश की रक्षा एवं राज्य के पालन के निमित्त सत्यवती ने भीष्म को सिंहासन पर बैठने तथा सन्तानोत्पत्ति करने के लिए कहा। भीष्म ने माता से कहाः
पंचभूत चाहे अपना गुण छोड़ दें, सूर्य चाहे तेजोहीन हो जाय, चन्द्रमा चाहे शीतल न रहे, इन्द्र में से बल और धर्मराज में से धर्म चाहे चला जाय, पर त्रिलोकी के राज्य के लिए भी मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ सकता। माता ! तुम इस विषय में मुझसे कुछ मत कहो।" धन्य है उनकी सत्यनिष्ठा !
महाभारत के अठारह दिन के युद्ध में दस दिनों तक तो केवल भीष्म ने ही कौरव सेना का नेतृत्त्व किया। उन्होंने पूरी शक्ति से दुर्योधन को भी अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा को तोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। किन्तु हृदय से धर्म पर स्थित पाण्डवों की विजय ही भीष्म पितामह को अभीष्ट थी। उनकी उपस्थिति में पाण्डवों के लिए कौरवसेना को परास्त करना कठिन था। आखिरकार पाण्डव द्वारा पूछने पर उन्होंने स्वयं अपनी मृत्यु का उपाय बताया और युधिष्ठिर को अपने वध के लिए आज्ञा दी। धन्य है उनकी वीरता !
जिस समय युद्ध में मर्माहत होकर भीष्म धराशायी हुए उस समय उनका रोम-रोम बाणों से बिंध गया था। उन्हीं बाणों की शय्या पर वे सो गये। उस समय सूर्य दक्षिणायन में था। दक्षिणायन में देहत्याग के लिए उपयुक्त काल न समझकर वे अयन परिवर्तन के समय तक उसी शरशय्या पर पड़े रहे क्योंकि पिता के वरदान से मृत्यु उनके अधीन थी। अन्न जल का परित्याग करके, बाणों की मर्मान्तक पीड़ा सहते-सहते उन्होंने वीरता के साथ-साथ धैर्य एवं सहनशक्ति की पराकाष्ठा दिखा दी। विश्व के किसी भी देश में ऐसा योद्धा न था, और न हो सकता है।
महाभारत की युद्ध की समाप्ति एवं युधिष्ठिर के राज्यभिषेक के पश्चात् एक बार युधिष्ठिर के श्रीकृष्ण के पास जाने पर सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता, नैष्ठिक ब्रह्मचारी पितामह भीष्म के न रहने पर जगत के ज्ञान का सूर्य अस्त हो जायेगा। अतः वहाँ चलकर तुमको उनसे उपदेश लेना चाहिए।"
युधिष्ठिर श्रीकृष्ण को लेकर भाइयों के साथ वहाँ गये जहाँ भीष्म शरशय्या पर पड़े रहे थे। बड़े-बड़े जती-जोगी, तपस्वी-विद्वान, ऋषि-मुनि वहाँ पहले से ही उपस्थित थे। फिर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को धर्म के समस्त अंगों का उपदेश दिया।
अन्त में सूर्य के उत्तरायण होने पर एक सौ पैंतीस वर्ष की अवस्था में माघ शुक्ल अष्टमी को सैंकड़ों साधु-संतों के बीच शरशय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म ने अपने सम्मुख खड़े पीताम्बरधारी श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन करते हुए, उनकी स्तुति करते हुए चित्त को उस परम पुरूष में एकाग्र करके शरीर का त्याग कर दिया। यह दिन उनकी पावन स्मृति में 'भीष्माष्टमी' के रूप में मनाया जाता है।
भीष्म की कोटि के महापुरूष संसार में विरले ही होते हैं। यद्यपि भीष्म अपुत्र ही मरे, फिर भी सारे त्रेवार्णिक हिन्दू आज तक पितरों का तर्पण करते समय उन्हें जल चढ़ाते हैं।
यह गौरव विश्व के इतिहास में और किसी भी मनुष्य को प्राप्त नहीं है। इसीलिए सारा जगत आज भी उन्हें पितामह के नाम से पुकारता है एवं उनका नाम बड़ी श्रद्धा-भक्ति एवं आदर से लेता है।
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एक बार भोज के दरबार में सुंदर वस्त्राभूषण पहने हुए एक व्यक्ति का आगमन हुआ। अपनी वेशभूषा से वह बड़ा पंडित लग रहा था। उसको आते देखकर राजा भोज स्वयं सिंहासन से उठ खड़े हो गये और उसका स्वागत करते हुए उसे बैठने के लिए एक उच्च आसन दिया।
कुछ ही देर बाद एक कृशकाय व्यक्ति फटे-पुराने कपड़े पहने दरबार में प्रविष्ट हुआ। राजा भोज ने वाणी से भी उनका सत्कार नहीं किया। वह व्यक्ति अपने आप ही एक साधारण सी जगह पर बैठ गया।
सभा पूरी होने पर राजा भोज ने जिसके आगमन पर सम्मान किया था, उसे जाते वक्त पूछा तक नहीं, किन्तु जिसका वाणी द्वारा सत्कार तक नहीं किया था, उसे जाते वक्त आदर देते हुए कहाः
"आप कृपा करके राजसभा में दुबारा पधारियेगा।" फिर विनम्रता और सम्मान से उसे द्वार तक जाकर विदाई दी। यह व्यवहार देखकर लोग दंग रह गये और वजीर ने तो पूछ ही लियाः
"राजन् ! आने पर जिसे आपने आदर सहिक बिठाया, विदा के समय उसके द्वारा 'मैं जाता हूँ' ऐसा कहने पर भी आपने ध्यान तक नहीं दिया। लेकिन उस फटे-पुराने कपड़े पहने हुए कृशकाय व्यक्ति को धन्यवाद देकर छोड़ने के लिए आप द्वार तक गये ! यह रहस्य हमारी समझ में नहीं आ रहा है, कृपा करके समझाइये।"
राजा भोज ने कहाः
"व्यक्ति जब आता है तब उसके वस्त्राभूषण का आदर होता है और जब जाता है तब उसके ज्ञान का आदर होता है। वह कृशकाय व्यक्ति बाहर से भले गरीब दिख रहा था, किन्तु भीतर से ज्ञान-धन से परिपूर्ण था। ज्ञान एक अनोखी प्रतिभा होती है, इसीलिए उसका इतना आदर किया गया।"
जिसके जीवन में ज्ञान का जितना आदर होता है, उतना ही वह कदम-कदम पर आनंद और प्रेम को प्रगटाने वाला होता है। बाह्य साज-सज्जा तो कुछ ही देर में नष्ट हो जाती है किन्तु ज्ञान अनंत काल तक शाश्वत बना रहता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि अपने जीवन में ज्ञान का आदर करे।
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सत्र 22
विश्व की सारी बड़ी-बड़ी खोजें – चाहे वे ऐहिक जगत की हों, बौद्धिक जगत की हों, धार्मिक जगत की हों अथवा तात्त्विक जगत की हों – सब खोजें हुई हैं जिज्ञासा से ही। इसलिए अगर अपने जीवन को उन्नत करना चाहते हो तो जिज्ञासु बनो। वे ही लोग महान बनते हैं, जिनके जीवन में जिज्ञासा होती है।
थामस अल्वा एडीसन तुम्हारे जैसे ही बच्चे थे। वे बहरे भी थे। पहले रेलगाड़ियों में अखबार, दूध की बोतलें आदि बेचा करते थे। लेकिन उनके जीवन में जिज्ञासा थी अतः आगे जाकर उन्होंने अनेक आविष्कार किये। बिजली का बल्ब आदि 2500 खोजें उन्हीं की देनें हैं। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके जीवन में जिज्ञासा है वह उन्नति के शिखर जरूर सर कर सकता है। जीवन में यदि कोई जिज्ञासा नहीं हो तो फिर उन्नति नहीं हो पाती।
हीरा नामक एक लड़का था, जो किसी सेठ के यहाँ नौकरी करता था। एक दिन उसने अपने सेठ से कहाः
"सेठ जी ! मैं आपका 24 घण्टे का नौकर हूँ और मुनीम तो केवल एक दो घण्टे के लिए आकर आपसे इधर-उधर की बातें करके चला जाता है। फिर भी मेरा वेतन केवल 500 रूपये है और मुनीम का 5000 रूपये। ऊपर से सुविधाएँ भी उसको ज्यादा। ऐसा क्यों ?"
सेठः "हीरा ! तुझमें और मुनीम में क्या फर्क है यह जानना चाहता है तो जा, जरा घोघा बंदरगाह होकर आ। वहाँ अपना कौन सा स्टीमर आया है, उसकी जाँच करके आ।"
नौकर गया एवं रात्रि को लौटा। उसने सेठ से कहाः
"सेठ जी ! अपना एक स्टीमर आया है।"
सेठः "उसमें क्या आया है ?"
हीराः "यह तो मुझे पता नहीं।"
वह पुनः दुसरे दिन गया और सामान का पता करके आया। फिर बोलाः
"बादाम और काली मिर्च आयी है।"
सेठः "और क्या माल आया है ?"
वह फिर पूछने गया एवं आकर बोलाः
"लौंग भी आयी है।"
सेठः "यह किसने बताया ?"
हीराः "एक आदमी ने कहा कि लौंग भी आयी है।"
सेठः "अच्छा, वह आदमी कौन था ? जवाबदार मुख्य आदमी था कि साधारण ?"
हीराः "यह तो पता नहीं है।"
सेठः "जाओ, जाकर मुख्य आदमी से पूछो कि कौन-कौन सी चीज आयी है और कितनी-कितनी आयी है ?"
हीरा फिर गया और सामान एवं उसकी मात्रा लिखकर लाया।
सेठः "ये चीजें किस भाव में आई हैं और इस समय बाजार में क्या भाव चल रहा है, यह पूछा तूने ?"
हीराः "यह तो मैंने नही पूछा।"
सेठः "अरे मूर्ख ! ऐसा करते-करते तो महीना बीत जायेगा।"
फिर सेठ ने मुनीम को बुलाया और कहाः
"घोघा बन्दरगाह जाकर आओ।"
मुनीम दो घण्टे के बाद आया और बोलाः
"सेठ जी ! इतने मन बादाम है, इतने मन काली मिर्च है, इतने मन लौंग है और इतने-इतने मन फलानी चीजें हैं। सेठ जी हमारा स्टीमर जल्दी आ गया है। दूसरे स्टीमर एक दो दिन बाद आयेंगे तो बाजार-भाव में मंदी हो जायगी। अभी बाजार में माल की कमी है। अतः अभी हम अपना माल खींचकर चुपके से बेच देंगे तो लाभ होगा। यहाँ आने जाने में देर हो जाती, अतः मैं आपसे पूछने नहीं आया और माल बेच दिया। अच्छे पैसे मिले हैं और यह रहा दो लाख का चेक।"
सेठ ने नौकर से कहाः "देख लिया फर्क ? अगर तू केवल चक्कर काटता रहता और दो चार दिन विलंब हो जाता तो मुझे पाँच लाख का घाटा पड़ता। यह मुनीम पाँच लाख के घाटे को रोककर दो लाख का नफा करके आया है। इसको मैं 5000 रूपये देता हूँ तो भी सस्ता है और तुझको 500 रूपये देता हूँ फिर भी महँगा है। मूर्ख ! तुझमें जिज्ञासा नहीं है।"
बिना जिज्ञासा का मनुष्य आलसी-प्रमादी हो जाता है, तुच्छ रह जाता है जबकि जिज्ञासु मनुष्य हर कार्य में तत्पर एवं कर्मठ हो जाता है। जिसके अंदर जिज्ञासा नहीं है वह रहस्य को देखते हुए भी अनदेखा कर देगा। जिज्ञासु की दृष्टि पैनी होती है, सूक्ष्म होती है। वह हर घटना को बारीकी से देखता है, खोजता है और खोजते-खोजते रहस्य को भी प्राप्त कर लेता है।
किसी कक्षा में पचास विद्यार्थी पढ़ते हैं जिसमें शिक्षक तो सबके एक ही होते हैं, पाठ्यपुस्तकें भी एक ही होती हैं किन्त जो बच्चे शिक्षकों की बाते ध्यान से सुनते हैं एवं जिज्ञासा करके प्रश्न पूछते हैं वे ही विद्यार्थी माता-पिता एवं स्कूल का नाम रोशन कर पाते हैं और जो विद्यार्थी पढ़ते समय ध्यान नहीं देते, सुना-अनसुना कर देते हैं वे थोड़े से अंक लेकर अपने जीवन की गाड़ी बोझीली बनाकर घसीटते रहते हैं एवं बड़े होकर फिर किस कोने में मर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। अतः जिज्ञासु बनो।
जब शिक्षक पढ़ाते हों उस समय ध्यान देकर पढ़ो। यदि समझ में न आये तो अपने-आप उसको समझने की कोशिश करो। अपने-आप उत्तर न मिले तो साथी से या शिक्षक से पूछ लो। ऐसा करके अपनी जिज्ञासा को बढ़ाओ। जिसके पास जिज्ञासा नहीं है उसको तो ब्रह्माजी उपदेश करें तो भी क्या होगा ? जो व्यक्ति जितने अंश में जिज्ञासु होगा, तत्पर होगा वह उतने ही अंश में सफल होगा।
अगर जिज्ञासा नहीं होगी, तत्परता नहीं होगी तो पढ़ाई में पीछे रह जाओगे, बुद्धि में पीछे रह जाओगे और मुक्ति में भी पीछे रह जाओगे। तुम पीछे क्यों रहो ? जिज्ञासु बनो, तत्पर बनो। सफलता तुम्हारा ही इंतजार कर रही है। ऐहिक जगत के जिज्ञासु होते-होते मैं कौन हूँ ? शरीर मरने के बाद भी मैं रहता हूँ.... मैं आत्मा हूँ तो आत्मा और परमात्मा में क्या भेद है ? ब्रह्म-परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो ? जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है वह तत्त्व क्या है ? ऐसी जिज्ञासा करो। इस प्रकार की ब्रह्मजिज्ञासा करके ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त होने की क्षमताएँ तुममें भरी हुई हैं। शाबाश वीर ! शाबाश !
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चन्द्रमा की चाँदनी धरती पर आकर चारों ओर शीतलता फैला रही थी। मधुर सुगन्धित पवन पूरे वातावरण को महका रहा था। एक भगवद् भक्त चांडाल वीणा लेकर भक्तिगीत गाते हुए एकान्त अरण्य में स्थित मन्दिर की ओर जा रहा था। चांडाल होते हुए भी रात्रि के स्तब्ध प्रहर में मंदिर में बैठकर भगवान की आराधना करना उसका नित्य नियम था। यह नियम अनेक वर्षों से अबाधगति से चल रहा था। उसी की पूर्ति में तल्लीन होकर वह चला जा रहा था।
अचानक वह चौंक उठा, पर भयभीत नहीं हुआ। एक भयंकर ब्रह्मराक्षस ने उसे अपनी बलिष्ठ भुजाओं में पकड़कर अपना कौन सा अभीष्ट सिद्घ करना चाहते हो ?
डरावनी हँसी से वनक्षेत्र को झकझोरते हुए उस राक्षस ने कहाः "भोजन के बिना पूरी दस रातें बीत गयी हैं। आज क्षुधातृप्ति करने हेतु ब्रह्मा ने तुम्हें भेज दिया है।" चांडाल तो भगवान के गुणानुवाद के लिए लालायित था। उसने ब्रह्मराक्षस से विनय के स्वर में कहाः "मैं जगदीश्वर के पद्यगान के लिए उत्सुक हूँ। अपने आराध्यदेव की उपासना करके मैं लौट जाऊँ, तब तुम अपनी आकांक्षा की पूर्ति कर लेना। मैंने जो व्रत ले रखा है, उसे पूर्ण हो जाने दो।"
क्षुधातुर राक्षस ने कठोर स्वर में कहाः "अरे मूर्ख ! क्या मृत्यु के मुख से भी कोई बचकर गया है ?" तब चांडाल ने उत्तर दियाः "अपने निन्दित कर्मों के कारण निःसन्देह मैं चांडाल योनि में उत्पन्न हुआ हूँ, परन्तु अपने जागरण-व्रत को पूर्ण करने हेतु मैं तुम्हारे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अवश्य लौटकर आऊँगा। मैं सत्य की दुहाई देता हूँ कि यदि अपने वचन का पालन न करूँ तो मुझे अधोगति प्राप्त हो।"
ब्रह्मराक्षस ने कुछ सोचकर उसे मुक्त कर दिया। चांडाल रात्रिपर्यन्त भक्तिभाव में निमग्न अपने आराध्य के समक्ष नृत्य-गान में तल्लीन रहा और प्रातः अपनी प्रतिज्ञानुसार ब्रह्मराक्षस के पास जाने हेतु चल पड़ा। मार्ग में एक पुरूष ने से रोककर परामर्श भी दियाः "तुम्हें उस राक्षस के पास कदापि नहीं जाना चाहिए। वह तो शव तक को खा जाने वाला अत्यन्त क्रूर और निर्दयी है।" चांडाल ने कहाः "मैं सत्य का परित्याग नहीं कर सकता। मेरा निश्चय अटल है। मैं उसे वचन दे चुका हूँ।" वह चांडाल राक्षस के समक्ष उपस्थित हो गया और राक्षस से निर्भयतापूर्वक बोलाः "महाभाग ! मैं आ गया हूँ। अब आप मुझे भक्षण करने में विलम्ब न करें। आपके अनुग्रह के प्रति में कृतज्ञ हूँ।"
ब्रह्मराक्षस आश्चर्यचकित हो उस दृढ़व्रती को देखता रहा और मधुर स्वर में बोलाः "साधो ! साधो ! मैं तुम्हारी सत्य प्रतिज्ञा के समक्ष नतमस्तक हूँ। भद्र ! यदि जीतने की आकांक्षा है तो मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ, परन्तु तुमने जो रात्रि में विष्णु मंदिर में जाकर गायन किया है उसका फल मुझे दे दो।" चांडाल ने आश्चर्यचकित होकर पूछाः "मैं कुछ समझ नहीं पाया, तुम्हारे वाक्य का अभिप्राय क्या है ? पहले तो तुम मुझे खाने को लालायित थे और अब भगवद् गुणानुवाद का पुण्य क्यों चाहते हो ?"
ब्रह्मराक्षस ने अनुनय-विनय कर गिड़गिड़ाते हुए कहाः "श्रेष्ठ पुरूष ! बस, तुम मुझे एक प्रहर के गीत का ही पुण्य दे दो। यदि इतना न दे सको तो एक गीत का ही फल दे दो।"
"पर ब्रह्मराक्षस ने अपना परिचय देते हुए कहाः "मैं पूर्वजन्म में चरक गोत्रिय सोमशर्मा यायावर ब्राह्मण था। वेदसूत्र और मंत्रों से पूर्णतः अनभिज्ञ होते हुए भी मैं लोभ-मोह से आकृष्ट मूर्खों का पौरोहित्य करने लगा। एक दिन मैं 'पंचरात्र-संज्ञक यज्ञ करवा रहा था। इतने में ही मुझे उदर शूल उत्पन्न हुआ। मंत्रहीन, स्वरहीन, अविधिपूर्वक कराये गये यज्ञ की पूर्णाहुति के पूर्व ही मेरी मृत्यु हो गयी, जिस कारण मुझे इस दशा में उत्पन्न होना पड़ा। आपके गीत का पुण्य मुझे इस अधम शरीर से मुक्त कर सकता है।"
चांडाल तो उत्तम व्रती था ही, उसने कहाः "यदि मेरे गीत से तुम शुद्धमना और क्लेशमुक्त हो सकते हो तो मैं सहर्ष अपने सर्वोत्कृष्ट गायन का फल तुम्हें प्रदान करता हूँ।" चाण्डाल के इतना कहते ही वह ब्रह्मराक्षस तत्काल एक दिव्य पुरूष का रूप धारण करके ऊर्ध्वलोक में चला गया।
मात्र रात्रि की आराधना के फल को पाकर ब्रह्मराक्षस अधम योनि से मुक्त हो सकता है तो मनुष्य परमात्मा की आराधना-उपासना-नामसंकीर्तन द्वारा अन्तःकरण की सम्पूर्ण मलिनताओं से भी मुक्त हो सकता है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
एकादशी
व्रत पर एक
वैज्ञानिक
विश्लेषण
सभी धर्मानुष्ठानों का अंतिम लक्ष्य चंचल मन को वश में करना है। मन के संयत होने से सभी इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। शास्त्रों ने मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है। सनातन धर्म के अनुसार ब्रह्म (आत्मा) निष्क्रिय है तथा शरीर जड़ है अर्थात् उसमें कार्य करने का सामर्थ्य नहीं है। यह मन ही है जो आत्मा की शक्ति (सत्ता) लेकर शरीर से विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करवाता है। दूसरे शब्दों में, आत्मा को कोई बंधन नहीं और शरीर नश्वर है तो फिर जन्म-मरण के चक्र में कौन ले जाता है ? यह मन ही है जो सूक्ष्म वासनाओं को साथ लेकर एक शरीर के बाद दूसरा शरीर धारण करता है। इसीलिए कहा गया हैः मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।
विभिन्न धर्मानुष्ठानों के द्वारा मन को पवित्र करके इससे मुक्ति का आनंद भी मिल सकता है और यदि इसे स्वतंत्र या उच्छ्रंखल बनने दिया जाये तो यही मन मिल सकता है और यदि इसे स्वतन्त्र या उच्छ्रंखल बनने दिया जाय तो यही मन जीव को जन्म मरण की परम्परा में भटकाकर अनेक कष्टों में डालता रहता है।
हमारे ऋषियों का विज्ञान बड़ा ही सूक्ष्मतम विज्ञान है। उन्होंने मात्र भौतिक जड़ वस्तुओं को ही नहीं अपितु जो परम चैतन्य है और जिससे जड़ चेतन सत्ता प्राप्त करके स्थित हुए हैं उसको भी अनुभव किया।
अपनी संतानों को भी उस परम चैतन्य का अनुभव कराने के लिए उन महापुरूषों ने वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों में अनेक प्रकार के विधि-विधानों तथा धर्मानुष्ठानों का वर्णन किया। ऐसे ही धर्मानुष्ठानों में आता है 'एकादशीव्रत'।
प्रत्येक माह में दो एकादशियाँ आती हैं एक शुक्ल पक्ष में तथा दूसरी कृष्ण पक्ष में। एकादशी के दिन मनःशक्ति का केन्द्र चन्द्रमा क्षितिज की एकादशवीं (ग्यारहवीं) कक्षा पर अवस्थित होता है। यदि इस अनुकूल समय में मनोनिग्रह की साधना की जाय तो वह अत्य़धिक फलवती होती है।
एकादशी को उपवास किया जाता है। भारतीय योग दर्शन के अनुसार मन का स्वामी प्राण है। जब प्राण सूक्ष्म होते हैं तो मन भी वश हो जाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार जब हम भोजन करते हैं तो उसे पचाने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है। इसी आक्सीजन को भारतीय योगियों ने 'प्राणवायु' कहा है। जब हम भोजन नहीं करते तो इतनी प्राणवायु खर्च नहीं होती जितनी भोजन करने पर होती है। योग विज्ञान के अनुसार शरीर में सात चक्र होते हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्या, आज्ञाचक्र एवं सहस्रहार। हृदय में स्थित अनाहत चक्र के नीचे के तीन चक्रों में मन तथा प्राणों की स्थिति साधारण अथवा निम्नकोटि की मानी जाती है जबकि अनाहत चक्र से ऊपर वाले चक्रों में मन तथा प्राणों की स्थिति साधारण अथवा निम्नकोटि की मानी जाती है जबकि अनाहत चक्र से ऊपर वाले चक्रों में मन तथा प्राण स्थित होने से व्यक्ति की गति ऊँची साधनाओं में होने लगती है।
भोजनको पचाने के लिए प्राणवायु को नीचे के केन्द्रों (पेट में स्थित आँतों) में आना पड़ता है। मन तथा प्राणों का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है अतः प्राणों के निचले केन्द्रों में आने से मन भी इन केन्द्रों में आता है। योग शास्त्र में इन्हीं केन्द्रों को काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का स्थान बताया गया है।
उपवास रखने से मन तथा प्राण सूक्ष्म होकर ऊपर के केन्द्रों में रहते हैं जिससे आध्यात्मिक साधनाओं में गति मिलती है तथा एकादशी को मनः शक्ति का केन्द्र चन्द्रमा की ग्यारहवीं कक्षा पर अवस्थित होने से इस समय मनोनिग्रह की साधना अधिक फलित होती है। अर्थात् उपयुक्त समय भी हो तथा मन और प्राणों की स्थिति ऊँचे केन्द्रों पर हो तो यह सोने में सुहागा वाली बात हो गयी। ऐसे समय जब साधना की जाय तो उससे कितना लाभ मिलेगा इस बात का अनुमान सभी लगा सकते हैं।
इसी वैज्ञानिक आशय से हमारे ऋषियों द्वारा एकादशेन्द्रियभूत मन को एकादशी के दिन व्रत-उपवास द्वारा निगृहीत करने का विधान किया गया है।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
युधिष्ठिर
ने कहा : जनार्दन !
ज्येष्ठ मास
के शुक्लपक्ष
में जो एकादशी
पड़ती हो, कृपया
उसका वर्णन
कीजिये ।
भगवान
श्रीकृष्ण
बोले : राजन्
! इसका वर्णन
परम
धर्मात्मा
सत्यवतीनन्दन
व्यासजी
करेंगे, क्योंकि
ये सम्पूर्ण
शास्त्रों के
तत्त्वज्ञ और
वेद वेदांगों
के पारंगत
विद्वान हैं ।
तब
वेदव्यासजी
कहने लगे : दोनों ही
पक्षों की
एकादशियों के
दिन भोजन न करे
। द्वादशी के
दिन स्नान आदि
से पवित्र हो फूलों
से भगवान केशव
की पूजा करे ।
फिर नित्य कर्म
समाप्त होने
के पश्चात्
पहले
ब्राह्मणों
को भोजन देकर
अन्त में स्वयं
भोजन करे ।
राजन् !
जननाशौच और
मरणाशौच में
भी एकादशी को
भोजन नहीं
करना चाहिए ।
यह
सुनकर भीमसेन
बोले : परम
बुद्धिमान
पितामह ! मेरी
उत्तम बात
सुनिये । राजा
युधिष्ठिर, माता
कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और
सहदेव ये
एकादशी को कभी
भोजन नहीं
करते तथा
मुझसे भी
हमेशा यही
कहते हैं कि : ‘भीमसेन !
तुम भी एकादशी
को न खाया करो…’ किन्तु
मैं उन लोगों
से यही कहता
हूँ कि मुझसे
भूख नहीं सही
जायेगी ।
भीमसेन
की बात सुनकर
व्यासजी ने
कहा : यदि
तुम्हें
स्वर्गलोक की
प्राप्ति
अभीष्ट है और
नरक को दूषित
समझते हो तो
दोनों पक्षों
की एकादशीयों
के दिन भोजन न
करना ।
भीमसेन
बोले : महाबुद्धिमान
पितामह ! मैं
आपके सामने
सच्ची बात
कहता हूँ । एक
बार भोजन करके
भी मुझसे व्रत
नहीं किया जा
सकता, फिर उपवास
करके तो मैं
रह ही कैसे
सकता हूँ? मेरे
उदर में वृक
नामक अग्नि
सदा
प्रज्वलित
रहती है, अत: जब
मैं बहुत अधिक
खाता हूँ, तभी यह
शांत होती है
। इसलिए
महामुने ! मैं
वर्षभर में
केवल एक ही
उपवास कर सकता
हूँ । जिससे स्वर्ग
की प्राप्ति
सुलभ हो तथा
जिसके करने से
मैं कल्याण का
भागी हो सकूँ, ऐसा कोई
एक व्रत
निश्चय करके
बताइये । मैं
उसका यथोचित
रुप से पालन
करुँगा ।
व्यासजी
ने कहा : भीम !
ज्येष्ठ मास
में सूर्य वृष
राशि पर हो या मिथुन
राशि पर, शुक्लपक्ष
में जो एकादशी
हो, उसका
यत्नपूर्वक
निर्जल व्रत
करो । केवल
कुल्ला या
आचमन करने के
लिए मुख में
जल डाल सकते हो, उसको
छोड़कर किसी
प्रकार का जल
विद्वान
पुरुष मुख में
न डाले, अन्यथा व्रत
भंग हो जाता
है । एकादशी
को सूर्यौदय
से लेकर दूसरे
दिन के
सूर्यौदय तक
मनुष्य जल का
त्याग करे तो
यह व्रत पूर्ण
होता है । तदनन्तर
द्वादशी को
प्रभातकाल
में स्नान
करके ब्राह्मणों
को
विधिपूर्वक
जल और सुवर्ण
का दान करे ।
इस प्रकार सब
कार्य पूरा करके
जितेन्द्रिय
पुरुष
ब्राह्मणों
के साथ भोजन
करे । वर्षभर
में जितनी
एकादशीयाँ
होती हैं, उन सबका
फल निर्जला
एकादशी के
सेवन से
मनुष्य प्राप्त
कर लेता है, इसमें
तनिक भी
सन्देह नहीं
है । शंख, चक्र और
गदा धारण
करनेवाले
भगवान केशव ने
मुझसे कहा था
कि: ‘यदि
मानव सबको
छोड़कर
एकमात्र मेरी
शरण में आ जाय
और एकादशी को
निराहार रहे
तो वह सब
पापों से छूट
जाता है ।’
एकादशी
व्रत
करनेवाले
पुरुष के पास
विशालकाय, विकराल
आकृति और काले
रंगवाले दण्ड
पाशधारी भयंकर
यमदूत नहीं
जाते । अंतकाल
में
पीताम्बरधारी, सौम्य
स्वभाववाले, हाथ में
सुदर्शन धारण
करनेवाले और
मन के समान वेगशाली
विष्णुदूत
आखिर इस
वैष्णव पुरुष
को भगवान
विष्णु के धाम
में ले जाते
हैं । अत: निर्जला
एकादशी को
पूर्ण यत्न
करके उपवास और
श्रीहरि का
पूजन करो ।
स्त्री हो या
पुरुष, यदि उसने
मेरु पर्वत के
बराबर भी महान
पाप किया हो
तो वह सब इस
एकादशी व्रत
के प्रभाव से
भस्म हो जाता
है । जो
मनुष्य उस दिन
जल के नियम का
पालन करता है, वह
पुण्य का भागी
होता है । उसे
एक एक प्रहर
में कोटि कोटि
स्वर्णमुद्रा
दान करने का
फल प्राप्त
होता सुना गया
है । मनुष्य
निर्जला
एकादशी के दिन
स्नान, दान, जप, होम आदि जो
कुछ भी करता
है, वह
सब अक्षय होता
है, यह
भगवान
श्रीकृष्ण का
कथन है ।
निर्जला एकादशी
को
विधिपूर्वक
उत्तम रीति से
उपवास करके मानव
वैष्णवपद को
प्राप्त कर
लेता है । जो
मनुष्य
एकादशी के दिन
अन्न खाता है, वह पाप
का भोजन करता
है । इस लोक
में वह
चाण्डाल के समान
है और मरने पर
दुर्गति को
प्राप्त होता
है ।
जो
ज्येष्ठ के
शुक्लपक्ष
में एकादशी को
उपवास करके
दान करेंगे, वे परम
पद को प्राप्त
होंगे ।
जिन्होंने
एकादशी को
उपवास किया है, वे
ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा
गुरुद्रोही
होने पर भी सब
पातकों से
मुक्त हो जाते
हैं ।
कुन्तीनन्दन
! ‘निर्जला
एकादशी’ के दिन
श्रद्धालु
स्त्री
पुरुषों के
लिए जो विशेष
दान और
कर्त्तव्य
विहित हैं, उन्हें
सुनो: उस दिन
जल में शयन
करनेवाले भगवान विष्णु
का पूजन और
जलमयी धेनु का
दान करना चाहिए
अथवा प्रत्यक्ष
धेनु या
घृतमयी धेनु
का दान उचित
है । पर्याप्त
दक्षिणा और
भाँति भाँति
के मिष्ठान्नों
द्वारा
यत्नपूर्वक
ब्राह्मणों
को सन्तुष्ट
करना चाहिए ।
ऐसा करने से
ब्राह्मण अवश्य
संतुष्ट होते
हैं और उनके
संतुष्ट होने पर
श्रीहरि
मोक्ष प्रदान
करते हैं ।
जिन्होंने शम, दम, और दान
में प्रवृत हो
श्रीहरि की
पूजा और रात्रि
में जागरण
करते हुए इस ‘निर्जला
एकादशी’ का व्रत
किया है, उन्होंने
अपने साथ ही
बीती हुई सौ
पीढ़ियों को और
आनेवाली सौ
पीढ़ियों को
भगवान
वासुदेव के परम
धाम में
पहुँचा दिया
है । निर्जला
एकादशी के दिन
अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर
आसन, कमण्डलु तथा
छाता दान करने
चाहिए । जो
श्रेष्ठ तथा
सुपात्र
ब्राह्मण को
जूता दान करता
है, वह
सोने के विमान
पर बैठकर
स्वर्गलोक
में प्रतिष्ठित
होता है । जो
इस एकादशी की
महिमा को भक्तिपूर्वक
सुनता अथवा
उसका वर्णन
करता है, वह स्वर्गलोक
में जाता है ।
चतुर्दशीयुक्त
अमावस्या को
सूर्यग्रहण
के समय
श्राद्ध करके
मनुष्य जिस फल
को प्राप्त
करता है, वही फल
इसके श्रवण से
भी प्राप्त
होता है । पहले
दन्तधावन
करके यह नियम
लेना चाहिए कि
: ‘मैं
भगवान केशव की
प्रसन्न्ता
के लिए एकादशी
को निराहार
रहकर आचमन के
सिवा दूसरे जल
का भी त्याग
करुँगा ।’
द्वादशी को
देवेश्वर
भगवान विष्णु
का पूजन करना
चाहिए । गन्ध, धूप, पुष्प
और सुन्दर
वस्त्र से
विधिपूर्वक
पूजन करके जल
के घड़े के दान
का संकल्प
करते हुए निम्नांकित
मंत्र का
उच्चारण करे :
देवदेव
ह्रषीकेश
संसारार्णवतारक
।
उदकुम्भप्रदानेन
नय मां परमां
गतिम्॥
‘संसारसागर
से तारनेवाले
हे देवदेव
ह्रषीकेश ! इस
जल के घड़े का
दान करने से
आप मुझे परम
गति की
प्राप्ति
कराइये ।’
भीमसेन
! ज्येष्ठ मास
में
शुक्लपक्ष की
जो शुभ एकादशी
होती है, उसका
निर्जल व्रत
करना चाहिए ।
उस दिन श्रेष्ठ
ब्राह्मणों
को शक्कर के
साथ जल के घड़े
दान करने
चाहिए । ऐसा
करने से
मनुष्य भगवान
विष्णु के
समीप पहुँचकर
आनन्द का
अनुभव करता है
। तत्पश्चात्
द्वादशी को
ब्राह्मण
भोजन कराने के
बाद स्वयं
भोजन करे । जो
इस प्रकार
पूर्ण रुप से
पापनाशिनी
एकादशी का
व्रत करता है, वह सब
पापों से
मुक्त हो
आनंदमय पद को
प्राप्त होता
है ।
यह
सुनकर भीमसेन
ने भी इस शुभ
एकादशी का
व्रत आरम्भ कर
दिया । तबसे
यह लोक मे ‘पाण्डव
द्वादशी’ के नाम
से विख्यात
हुई ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 24
बंद
डिब्बों का रस
भूलकर भी
उपयोग न करें।
उसमें
बेन्जोइक
एसिड होता है।
यह एसिड तनिक
भी कोमल चमड़ी
को स्पर्श करे
तो फफोले पड़
जाते हैं और,
उसमें उपयोग
में लाया जाने
वाला सोडियम बेन्जोइक
नाम का रसायन
यदि कुत्ता भी
दो ग्राम के
लगभग खा ले तो
तत्काल
मृत्यु को
प्राप्त हो
जाता है।
उपरोक्त रसायन
फलों के रस,
कन्फेक्शनरी,
अमरूद-जेली,
अचार आदि में
प्रयुक्त
होते हैं।
उनका उपयोग
मेहमानों के
सत्कारार्थ
या बच्चों को
प्रसन्न करने
के लिए कभी
भूलकर भी न
करें।
'फ्रेशफ्रूट' के लेबल में
मिलती किसी भी
बोतल में डिब्बे
में ताजे फल
अथवा उनका रस
कभी नहीं
होता। बाजार
में बिकता
ताजा 'ऑरेंज' कभी भी
संतरा-नारंगी
का रस नहीं
होता। उसमें चीनी,
सैक्रीन और
कृत्रिम रंग
ही प्रयुक्त
होते हैं जो
आपके दाँतों
और आँतड़ियों
को हानि पहुँचाकर
अंत में कैंसर
को जन्म देते
हैं। बंद डिब्बों
में निहित फल
या रस जो आप
पीते हैं उन
पर जो अत्याचार
होते हैं वे
जानने योग्य
हैं।
सर्वप्रथम
तो बेचारे फल
को उफनते गरम
पानी में धोया
जाता है फिर
पकाया जाता
है। ऊपर का
छिलका
निकालकर
इसमें चाशनी
डाली जाती है
और रस ताजा
रहे इसके लिए
उसमें विविध
रसायन
(कैमिकल्स) डाले
जाते हैं।
उसमें
कैल्शियम
नाइट्रेट, और
मैग्नेशियम
क्लोराइड आदि
उड़ेला जाता
है जिसके कारण
अँतड़ियों
में छेद हो
जाते हैं,
किडनी को हानि
पहुँचती है,
मसूढ़े सूज
जाते हैं। पुलाव
के लिए बाजार
के बंद
डिब्बों के जो
मटर उपयोग में
लाये जाते हैं
उन्हें हरे
ताजे रखने के
लिए उनमें
मैग्निशयम
क्लोराइड
डाला जाता है।
मक्की के दानो
को ताजा रखने
के लिए सल्फर
डायोक्साइड
नामक विषैला
रसायन
(कैमिकल) डाला
जाता है।
एरीथ्रोसिन
नामक रसायन
कोकटेल में
प्रयुक्त
होता है।
टमाटर
के रस में
नाइट्रेटस
डाला जाता है।
शाकभाजी व
फलों के
डिब्बों को
बंद करते समय
उसमें जो नमक
डाला जाता है
वह साधारण नमक
से 45 गुना अधिक
हानिकारक
होता है।
इसलिए
अपने और
बच्चों के
स्वास्थ्य के
लिए और मेहमान-नवाजी
के फैशन के
लिए भी ऐसे
बंद डिब्बों
की शाकभाजी का
उपयोग करके
स्वास्थ्य को
स्थायी जोखिम
में न डालें।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आज
के व्यस्त
जीवन में
लोगों द्वारा
खानपान के
मामले में
बरती जा रही
लापरवाहियों
से
दिन-प्रतिदिन
बीमारियों की
वृद्धि हो रही
है। घर पर बने
शुद्ध एवं
ताजे भोजन को
छोड़कर बाजारू
फास्ट-फूड आदि
खाना तो मानो
फैशन ही बन
गया है। यह
बात दिखने में
तो बहुत छोटी
लगती है परंतु
इसके परिणाम
बहुत बड़े
होते हैं।
कनाडा
के टोरंटो
यूनिवर्सिटी
में हुए एक
अध्ययन में
पाया गया किः "नाश्ते के
प्रति
लापरवाह रहने
वाले युवाओं की
अपेक्षा
नाश्ते के
प्रति सजग
रहने वाले
बुजुर्गों की
स्मरणशक्ति
अच्छी थी।
मैदा
आंतों के लिए
हानिकारक है
फिर कई घंटों
पहले मैदे तथा
पाचनतंत्र के
लिए हानिकारक
पदार्थों से
बनी डबलरोटी व
ब्रेड
स्वास्थ्यप्रद
कैसे हो सकती
है ?
डबलरोटी,
पीजा, बर्गर,
कॉफी, चाय एवं
तली हुई बाजारू
चीजों की अपेक्षा
गरम-गरम रोटी,
दूध अथवा ताजे
फलों का सेवन
करें।
फैशनवाले
नाश्ते हानि
होती है जबकि घर
में बना हुआ
सात्त्विक
नाश्ता
लाभदायक होता
है। ऐसे
बाजारू
नाश्ते का
सेवन करने
वाले 63 प्रतिशत
अमेरिकी लोग
अनिद्रा के
शिकार हैं। इस
प्रकार के
फास्ट फूड आगे
चलकर स्मृति व
स्वास्थ्य को
ले डूबते हैं।
अतः सावधान !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जिन्हें
वीर्य रक्षण
करना है,
आरोग्य-सम्पन्न
बनना है तथा
जो स्वयं की
शीघ्र उन्नति
चाहते हैं,
उन्हें जल्दी
सोने और जल्दी
जागने का
अभ्यास अवश्य
ही करना
चाहिए।
रात्रि में 9
से 12 बजे के बीच
हर एक
घण्टे की
नींद 3 घण्टे
की नींद के
बराबर लाभ
देती हैं। 12 से 3 बजे
के बीच
प्रत्येक
घण्टे की नींद
डेढ़ घंटे की
नींद के बराबर
है। 3 से 5 बजे के
बीच प्रत्येक
1 घंटे की नींद 1
घंटे के बराबर
एवं 6 बजे अथवा
सूर्योदय के
बाद की नींद
आलस्य, तमोगुण
वर्धक है,
स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक है।
रोगी और शिशु
के अतिरिक्त
किसी को भी छः
घण्टे से
ज्यादा कदापि
नहीं सोना
चाहिए। अधिक सोने
वाला कभी भी
स्वस्थ व
प्रगतिशील
नहीं हो सकता।
प्रातः
ब्रह्ममुहूर्त
में (सूर्योदय
से सवा दो
घंटे पहले) ही
जाग जाना
चाहिए क्योंकि
वीर्यनाश
प्रायः
रात्रि के
अन्तिम प्रहर
में ही हुआ
करता है।
प्रातः काल हो
जाने पर
सूर्योदय के
बाद भी जो
पुरूष बिस्तर
पर ही पड़ा
रहता है वह तो
अभागा ही है।
इतिहास और अनुभव
हमें स्पष्ट
बतलाते हैं कि
ब्रह्ममुहूर्त
के दिव्य अमृत
का सेवन करने
वाले व्यक्ति
ही महान कार्य
करने में सफल
हुए हैं।
जिन
कमरों में दिन
में सूर्य का
प्रकाश पहुँचता
हो तथा रात्रि
में स्वच्छ
हवा का आवागमन
हो, ऐसे
स्थानो पर शयन
करना लाभदायक
है। चादर, कम्बल,
रजाई आदि से
मुँह ढककर
सोना
हानिकारक है
क्योंकि नाक
और मुँह से
कार्बन डाई
ऑक्साइड गैस
निकलती है जो
स्वास्थ्य पर
बुरा असर डालने
वाली गैस है।
मुँह ढके रहने
पर
श्वसन-क्रिया
द्वारा यही
वायु बार-बार
अन्दर जाती
रहती है और
शुद्ध वायु
(आक्सीजन) न
मिलने से
मनुष्य निश्चय
ही रोगी और
अल्पायु बन
जाता है।
ओढ़ने
के कपड़े
स्वच्छ, हलके
और सादे होने
चाहिए।
नरम-नरम
बिस्तर से
इन्द्रियों
में चंचलता
आती है, अतः
ऐसे बिस्तर का
प्रयोग न
करें। रात्रि
में जिन
वस्त्रों को
पहनकर सोते
हैं, उसका
उपयोग बिना
धोये न करें।
इससे बुद्धि
मंद हो जाती
है। अतः
ओढ़ने, पहनने
के सभी वस्त्र
सदा स्वच्छ
होने चाहिए।
रजाई जैसे
मोटे कपड़े
यदि धोने लायक
न हों तो कड़ी
धूप में डालना
चाहिए
क्योंकि
सूर्य के
प्रकाश से
रोगाणु मर
जाते हैं।
दिन
में सोने से
त्रिदोषों की
उत्पत्ति
होती है। दिन
काम करने के
लिए और रात्रि
विश्राम के
लिए है। दिन
में सोना हानिकारक
है। दिन में
सोने वाले
लोगों को
रात्री में
नींद नहीं आती
और बिस्तर पर
पड़े-पड़े
जागते रहने की
स्थिति में
उनका चित्त
दुर्वासनाओं
की ओर दौड़ता
है।
सोने
से पहले पेशाब
अवश्य कर लेना
चाहिए। सर्दी
या अन्य किसी
कारणवश पेशाब
को रोकना ठीक
नहीं, इससे
स्वप्नदोष हो
सकता है।
सोने
से पूर्व
ठंडी, खुली
हवा में टहलने
या दौड़ने से
तथा कमर से
घुटने तक का
सम्पूर्ण भाग और
सिर भीगे हुए
तौलिये या
कपड़े से
पोंछने से
निद्रा शीघ्र
आती है।
सोने
से कम-से-कम
एक-डेढ़ घण्टा
पहले भोजन कर
लेना चाहिए।
रात्रि में
हलका भोजन
अल्प मात्रा
में लें।
रात्रि में
सोने से पूर्व
गरम दूध पीने
एवं खाने के
बाद तुरंत
सोने से
स्वप्नदोष की संभावना
बढ़ जाती है,
अतः ऐसा न
करें।
सोते
समय सिर पूर्व
या दक्षिण
दिशा की ओर
रहना चाहिए।
निद्रा
के समय मन को
संसारी
झंझटों से
बिल्कुल अलग
रखना चाहिए।
रात्रि को
सोने से पहले
आध्यात्मिक
पुस्तक पढ़नी
चाहिए। इससे वे
ही सतोगुणी
विचार मन में
घूमते रहेंगे
और हमारा मन
विकारग्रस्त
होने से बचा
रहेगा अथवा तो
मंत्रजप करते
हुए, हृदय में
परमात्मा या
श्रीसदगुरूदेव
का ध्यान
चिन्तन करते
हुए सोयें।
ऐसी निद्रा
भक्ति और योग
का फल देने
वाली सिद्ध
होगी।
उठते
समय नेत्रों
पर एकाएक
प्रकाश न
पड़े। जागने
के बाद हाथ
धोकर
ताम्रपात्र
के जल से नेत्रों
को धोने से
नेत्रविकार
दूर होते हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 25
वर्षा
ऋतु से 'आदान
काल' समाप्त
होकर
दक्षिणायन हो
जाता है और
विसर्गकाल
शुरू हो जाता
है। इन दिनों
हमारी
जठराग्नि
अत्यंत मंद हो
जाती है।
वर्षाकाल में
मुख्य रूप से
वात दोष कुपित
रहता है। अतः
इस ऋतु में
खान पान तथा
रहन-सहन पर
ध्यान देना
अत्यंत जरूरी
हो जाता है।
गर्मी
के दिनों में
मनुष्य की
पाचक अग्नि
मंद हो जाती
है। वर्षाऋतु
में यह और भी
मंद हो जाती
है। फलस्वरूप
अजीर्ण, अपच,
मंदाग्नि,
उदरविकार आदि
इस ऋतु में
अधिक होते
हैं।
आहारः
इन
दिनों में देर
से पचने वाला
आहार न लें।
मंदाग्नि के
कारण सुपाच्य
और सादे खाद्य
पदार्थों का
सेवन करना ही
उचित है। बासी,
रूखे और उष्ण
प्रकृति के
पदार्थों का
सेवन न करें।
इस ऋतु में
पुराना जौ,
गेहूँ, साठी चावल
का सेवन विशेष
लाभप्रद है।
वर्षाऋतु में भोजन
बनाते समय
आहार में
थोड़ा-सा मधु
(शहद) मिला
देने से
मंदाग्नि दूर
होती है व भूख
खुलकर लगती
है। अल्प
मात्रा में
मधु के नियमित
सेवन से
अजीर्ण, थकान
और वायुजन्य
रोगों से भी
बचाव होता है।
इन
दिनों में
गाय-भैंस के
कच्ची घास
खाने से उनका
दूध दूषित
रहता है। अतः
श्रावण मास
में दूध एवं
पत्तीदार हरी
सब्जी तथा
भादों में छाछ
का सेवन करना
स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक
माना गया है।
तेलों
में तिल के
तेल का सेवन
करना उत्तम
है। यह वात
रोगों का शमन
करता है।
वर्षा
ऋतु में उदर
रोग अधिक होते
हैं, अतः भोजन
में अदरक व
नींबू का
प्रयोग
प्रतिदिन
करना चाहिए।
वर्षा ऋतु में
होने वाली
बीमारियों के उपचार
में नींबू बहुत
ही लाभदायक
है।
इस
ऋतु में फलों
में आम तथा
जामुन
सर्वोत्तम माने
गये हैं। आम
आँतों को
शक्तिशाली
बनाता है।
चूसकर खाया
हुआ आम पचने
में हल्का तथा
वायु एवं
पित्तविकारों
का शमन
कर्त्ता है।
जामुन दीपन,
पाचन करता है
तथा अनेक उदर
रोगों में लाभकारी
है।
वर्षाकाल
के अन्तिम
दिनों में व
शरदऋतु का
प्रारंभ होने से
पहले ही तेज
धूप पड़ने
लगती है और
संचित पित्त
कुपित होने
लगता है। अतः
इन दिनों में
पित्तवर्धक
पदार्थों का
सेवन नहीं
करना चाहिए।
इन
दिनों में
पानी गन्दा व
जीवाणुओं से
युक्त होने के
कारण अनेक रोग
पैदा करता है।
अतः इस ऋतु
में पानी
उबालकर पीना
चाहिए या पानी
में फिटकरी का
टुकड़ा
घुमाएँ जिससे
गन्दगी नीचे
बैठ जाय।
विहारः
इन
दिनों में
मच्छरों के
काटने पर
उत्पन्न मलेरिया
आदि रोगों से
बचने के लिए
मच्छरदानी लगाकर
सोयें।
चर्मरोग से
बचने के लिए
शरीर की साफ-सफाई
का भी ध्यान रखें।
अशुद्ध व
दूषित जल का
सेवन करने से
चर्मरोग,
पीलिया, हैजा,
अतिसार जैसे
रोग हो जाते
हैं।
दिन
में सोना,
नदियों में
स्नान करना व
बारिश में
भींगना
हानिकारक
होता है।
वर्षाकाल
में रसायन के
रूप में बड़ी
हरड़ का चूर्ण
व चुटकीभर
सैंधव नमक
मिलाकर ताजे
फल के साथ सेवन
करना चाहिए।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सदा
भगवत्प्रेम
में निमग्न
रहनेवाले
ज्ञानी संत
श्री तुकाराम
जी जब कीर्तन
करने लगते, तब
उनके श्रीमुख
से ज्ञान,
वैराग्य तथा
भक्ति के गूढ़
रहस्यों के
बोधक अभंग
प्रकट होते
थे। बड़े-बड़े
विद्वान,
साधु, भक्त
एवं
श्रद्धालुजन
उनका
सत्संग-सान्निध्य
प्राप्त
करते। देहू
गाँव से नौ
मील दूर
बाघौली में
रहने वाले कर्मनिष्ठ
वेद-वेदान्त
के एक पण्डित
श्री रामेश्वर
भट्ट को यह
बहुत अनुचित
लगा।
उन्होंने स्थानीय
अधिकारी से
कहाः 'तुकाराम
शूद्र होकर
वेदों का सार
अपने अभंगों
से बोलता है।
उसे देहू गाँव
छोड़कर चले
जाने की आज्ञा
दी जानी
चाहिए।'
यह
समाचार
तुकाराम जी के
पास पहुँचा तो
वे स्वयं
रामेश्वर
भट्ट के पास
गये तथा
उन्हें अभिवादन
करके बोलेः "मेरे मुख से
अभंग श्री
पाण्डुरंग की
प्रेरणा से ही
निकले हैं। आप
कहते हैं तो
अब मैं अभंग
नहीं
बनाऊँगा। अब तक
जो अभंग बने
हैं, और लिखे
हैं, उनकाक्या
करूँ यह
बतलाने की
कृपा करें।"
"उन्हें
नदी में डुबा
दो।"
रामेश्वर
भट्ट ने
झल्लाकर कहा।
संत
तुकाराम जी
देहू लौट आये।
अभंग लिखी सब
बहियाँ
उन्होंने
इन्द्रायणी
नदी में डुबा दीं।
'हे विट्ठल ! आपका नाम,
रूप, गुण,
महात्म्यादि
भी बोलना, लिखना
एक
शास्त्रज्ञ
विद्वान ने
वर्जित कर
दिया। आपकी
जैसी मर्जी हो
वह पूर्ण हो।' ऐसा निश्चय
करके
तुकारामजी
श्री विट्ठल
मन्दिर के
सामने जाकर
बैठ गये।
उन्होंने
अन्न, जल तथा
निद्रा भी
छोड़ दी। लिखे
हुए अभंगों की
बहियाँ भले ही
नदी में डुबा
दी गयीं, परन्तु
वे सदा सशरीर
विट्ठलमय थे।
उनकी देह की
छाया भी
विट्ठल बन गयी
थी, उनकी
जिह्वा पर सदा
विट्ठल ही
विराजमान थे,
विट्ठल के
सिवा उन्हें
दूसरा कुछ
दिखता, सूझता,
भाता ही नहीं
था। तेरह दिन
पश्चात
श्रीहरि ने
बालवेशधारण
कर उन्हें
दर्शन दिये और
अपने हृदय से
लगा लिया।
मैंने
तुम्हारी
अभंगों की
बहियाँ इन्द्रायणी
में सुरक्षित
रखी थीं। आज
उन्हे तुम्हारे
श्रद्धालुओं
को दे आया
हूँ। ऐसा कहकर
तुकाराम जी के
हृदय में वे
लीलामय श्री
विट्ठल समा
गये। उधर
बाघौली में
रामेश्वर
भट्ट पर प्रकृति
का कोप हुआ।
भगवान से
द्वेष करे तो
वे सह लेते
हैं पर अपने
भक्त का द्रोह
उनसे सहा नहीं
जाता। कंस
रावणादि
हरिद्रोही
अन्त में मुक्ति
पा गये, पर
भक्त का द्रोह
करने वाला यदि
समय रहते
सावधान होकर
पश्चाताप न
करे तथा
परमात्मा और
परमात्म-प्राप्त
संत की शरण न
ले तो वह
निश्चय ही
नरकगामी होता
है। प्राणीमात्र
पर अहैतुकी
कृपा बरसाने
वाले, सबका
हित साधने
वाले
भगवत्स्वरूप
महापुरूष सबके
अन्तर में
व्यापे रहते
हैं। इस कारण
उन्हें कष्ट
देना भूपति
भगवान को ही
कष्ट देना है।
उदार हृदय
महापुरूष तो
सब सहन कर
लेते हैं
परन्तु प्रकृति
और परमात्मा
उन्हें कठोर
दण्ड देते
हैं।
तालाब
में ज्यों ही
रामेश्वर
भट्ट नहाये
त्यों ही उनके
सारे शरीर में
जलन होने लगी।
उनका सारा
शरीर जैसे
दग्ध होने
लगा। ताप-शमन
के अनेक उपचार
उनके शिष्यों
ने किये, पर सब
व्यर्थ ! शरीर में
असह्य वेदना
होने लगी। सब
उपचार करके भी
जब दाह शान्त
नहीं हुआ, तब
रामेश्वर
भट्ट आलन्दी
में जाकर
ज्ञानेश्वर
महाराज का जप
करने लगे।
उन्हें एक रात
तो स्वप्न आया
कि महावैष्णव
तुकाराम से
तुमने द्वेष
किया, इस कारण
तुम्हारा सब
पुण्य नष्ट हो
गया है। संत
को सताने के
पाप से ही
तुम्हारी देह
जल रही है।
इसलिए
अन्तःकरण को
निर्मल करके
नम्र होकर
तुकाराम की ही
शरण में जाओ।
इससे इस रोग
से ही नहीं,
भवरोग से भी मुक्त
हो जाओगे। इसे
ज्ञानेश्वर
महाराज का ही
आदेश जानकर वे
अपने किये पर
बहुत पछताये।
इसी बीच उन्हें
यह वार्ता
सुनाई पड़ी कि
नदी में फेंकी
हुई अभंग की
बहियाँ जल ने
उबार लीं। तब
तो उनके पश्चाताप
का कुछ ठिकाना
ही न रहा, वे
फूट-फूट कर रोने
लगे। उनकी
आँखें खुल
गयीं, फिर
उन्होंने जाना
कि ईश्वर
भक्ति के आगे
कर्मकाण्ड और
कोरे पाण्डित्य
का कोई मूल्य
नहीं है। जब
उन्होंने यह
जाना कि
तुकाराम
भगवान के
अत्यन्त
प्रिय हैं तो
उनका अहंकार
चूर-चूर हो
गया। भक्त का
कार्य बनाने
के लिए स्वयं
भगवान साकार
हो गये और
हमारे
पाण्डित्य
में इतना भी
सामर्थ्य
नहीं कि शरीर
में होने वाले
दाह का शमन कर
सके। यह जानकर
उनका अभिमान
पानी-पानी हो
गया।
उन्होंने
एक पत्र लिखकर
गदगद
अन्तःकरण से
उनकी बड़ी
स्तुति की।
तुकारामजी ने
उसके उत्तर में
एक अभंग लिख
भेजा। जिसका
अर्थ इस
प्रकार हैः "अपना चित्त
शुद्ध हो तो
शत्रु भी
मित्र हो जाते
हैं, सिंह और
साँप भी अपना
हिंसा भाव भूल
जाते हैं, विष
अमृत हो जाता
है, अहित हित
में बदल जाता
है, दूसरों के
दुर्व्यवहार
अपने लिए नीति
का बोध कराने
वाले होते है।
दुःख
सर्वसुखस्वरूप
फल देने वाला
बनता है, आग की
लपटें
ठण्डी-ठण्डी
हवा के समान
हो जाती हैं।
जिसका चित्त
शुद्ध है उसको
सब जीव अपने
जीवन के समान
प्यार करते
हैं, कारण कि सबके
अन्तर में एक
ही परमात्मा
है। तुका कहता
है, मेरे
अनुभव से आप
यह जानें कि
नारायण ने ऐसी
ही आपदाओं में
मुझ पर कृपा
की।"
इस
उत्तर को
बार-बार
रामेश्वर
भट्ट ने पढ़ा
और खूब मनन
किया।
पश्चाताप से
निर्मल हुए
उनके चित्त
में बोध का यह
बीज जम गया।
उनके शरीर और
मन का ताप भी
उससे शमन हुआ।
रामेश्वर
भट्ट अब वह रामेश्वर
भट्ट न रहे।
वे तुकाराम
महाराज के चरणों
में पहुँचे और
प्रार्थना
कीः "देहबुद्धि
के कारण तथा
वर्णाभिमान
से, मैंने आपको
नहीं जाना और
बड़ा कष्ट
पहुँचाया, पर
आप दयाधन हैं,
मुझे अपनी शरण
दीजिये, अब
मेरी उपेक्षा
मत कीजिए।'
पश्चातापपूर्वक
ऐसी विनय करते
हुए उन्होंने
परमात्मा से
प्रार्थना की
कि संत
तुकाराम महाराज
के श्रीचरणों
के प्रति मेरे
अन्तःकरण में
जो यह निर्मल
भाव उत्पन्न
हुआ है वह कभी
मलिन न हो।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 26
'सत्कथा
ग्रन्थ की यह
कथा है।
काशीनरेश
बड़े
धर्मात्मा,
सत्य एवं
न्यायप्रिय
राजा थे। उनके
पास कई
विद्वान
पंडित आते जाते
रहते थे।
एक बार उनकी
पटरानी को
कार्तिक मास
में गंगास्नान
के लिए जाने
की इच्छा हुई।
पटरानी थी,
अतः उसके लिए
काफी
बन्दोबस्त
किया गया ताकि
किसी की नजर
उस पर न पड़े।
गंगा तट पर से
बस्ती को हटा
दिया गया एवं
आस-पास जो
झोंपड़े थे
उनमें रहने
वाले गरीबों
को भी रानी की
आज्ञा से भगा
दिया गया।
जब रानी
स्नान करके
बाहर आयी तो
उसे ठंड लगने लगी।
उसने एक दासी
को हुक्म
कियाः "सामने जो
झोंपड़ियाँ
हैं उनमें से
एक झोंपड़ी
जला दे ताकि
मैं जरा हाथ
सेंक लूँ।"
जिसे हुक्म
दिया गया था
वह थी तो दासी,
किन्तु उसे
धर्म का ज्ञान
था। वह बोलीः "महारानी जी ! आपको जितना
अपना महल एवं
राज-परिवार
प्रिय है उतना
ही इन गरीबों
को अपना झोंपड़ा
एवं कुटुम्ब
प्यारा है।
दूसरों की
पीड़ा का
ख्याल करके आप
जरा सह लीजिए।
आपको दिन में
भी ठंड लग रही
है तो वे
बेचारे
रात्रि में इतनी
ठंडी में कहाँ
सोयेंगे ? इसका तो जरा
ख्याल कीजिए !"
महारानी का
नाम तो करूणा
था, पर हृदय
कठोरता से भऱा
था। उसने उस
दासी को जोरदार
तमाचा मारते
हुए कहाः "आयी बड़ी
धर्मोपदेश
देने वाली। चल
हट, नालायक कहीं
की...."
उस बेचारी
दासी को हटा
दिया गया एवं
जो चापलूसी
करने वाली
दासियाँ थीं,
उन्हें
बुलाकर झोंपड़े
को जलाने की
आज्ञा कर दी।
दासियों ने
जला दिया
झोंपड़ा। सब
झोंपड़े पास-पास
ही थे। अतः एक
झोंपड़े को
जलाते ही हवा
के कारण एक-एक करके
सभी झोंपड़े
जल उठे।
महारानी
झोंपड़ों की
होली जलती
देखकर बड़ी
खुशी हुई एवं
राजमहल में
वापस लौटी।
इतने में
प्रजा के कुछ
समझदार लोग
एवं जिनकी
झोंपड़ियाँ
जला दी गयी
थीं, वे गरीब
लोग आये राजा
के पास शिकायत
करने।
लोगों की
शिकायत सुनकर
राजा गये महल
में एवं अपनी
पटरानी से
पूछाः "लोग जो बात
कह रहे हैं,
क्या वह सच है ?"
महारानीः "हाँ, मुझे
ठण्ड लग रही
थी। एक
झोंपड़ी
जलवायी तो सब
जल गयीं। महा
होली का नजारा
देखने का आनंद
आया।"
तब राजा ने
सोचाः "जो व्यक्ति
सदैव सुखों में
ही पला है, उसे
दूसरों के
दुःख का पता
नहीं चलता। जो
महलों में
रहता है उसे
झोंपड़े
वालों के
आँसुओं का
ख्याल नहीं
रहता। जो
रजाइयों में छिपा
है उसे फटे
कपड़े वालों
के दुःख का एहसास
नहीं होता।
मैं भी क्या
ऐसी रानी का
बातों में आ
जाऊँ ? नहीं।
उन्होंने
अपनी दासियों
को आदेश दियाः
"इस अभागिनी
के राजसी
वस्त्र
अलंकार तुरंत
उतारकर
झोंपड़ी में
रहने वाली
स्त्री के फटे
चिथड़े
वस्त्र पहना
दो और
राजदरबार में
पेश करो।"
राजाज्ञा का
उल्लंघन भला
कौन सी दासी
करती ? तुरंत
राजाज्ञा का
पालन किया
गया।
राजदरबार में
रानी के आने
पर राजा ने
फरमान जारी
कियाः
"इस रानी ने
जिनके
झोंपड़े
जलाये हैं,
उन्हें पुनः
यह रानी जब तक
अपनी मेहनत
मजदूरी से
अथवा भीख
माँगकर बनवा न
देगी, तब तक यह
महल में आने के
काबिल न
रहेगी।"
महारानी को
राजाज्ञा का
पालन करना ही
पड़ा। आज्ञापालन
के पश्चात ही
उसे महल में
प्रवेश मिला।
ऐसा
न्यायप्रिय
राजा ही
वास्तव में
राज्य भोगने
का अधिकारी
होता है।
दूसरों के
दुःखों को समझकर
उन्हें दूर
करने की कोशिश
करने वाला ही वास्तव
में मानव
कहलाने का
अधिकारी होता
है। वह मानव
ही क्या
जिसमें
मानवीय
संवेदना का नाम
नहीं ? वह मानवता
कैसी जिसे दूसरों
के दुःख दर्द
का एहसास नहीं
?
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सर्वत्र
आत्मदृष्टि
रखने वाले,
परमात्मा के साथ
एकत्व को
प्राप्त हुए
संत एकनाथ जी
महाराज एक दिन
मध्याह्न
संध्या के लिए
गोदावरी के तट
पर जा रहे थे।
रास्ते में एक
महार (हरिजन)
का बच्चा अपनी
माँ के पीछे
दौड़ता जा रहा
था। माँ पानी
भरने जा रही
थी, जल्दी में
कुछ आगे बढ़
गयी और बच्चा
पीछे कहीं
लड़खड़ा कर
गिर पड़ा।
बालू का वह
मैदान सूर्य
की प्रखर
किरणों से तप
रहा था। बच्चे
के मुख से लार
और नाक से लीट
निकल रही थी।
धूप से परेशान
उस बच्चे को
देखकर असीम
करूणा से
ओतप्रोत हृदय
वाले एकनाथ जी
महाराज ने उसे
गोद में उठा
लिया। उसका
नाक-मुँह साफ
किया तथा उसे
अपनी धोती
ओढ़ाकर धूप से
बचाते हुए
महारों की
बस्ती में ले
आये और उसके
घर की खोज की।
घर में से उस
बच्चे के पिता
दौड़ते हुए
बाहर आये,
इतने में माँ
भी पानी से
भरी हुई मटकी
लेकर आ
पहुँची।
एकनाथजी
महाराज ने
बच्चे को उसके
माता पिता के
हवाले किया और
"बच्चों को
ऐसे ही छोड़
देना उचित
नहीं, उनके पालन-पोषण
का ध्यान रखना
चाहिए, इसमें
लापरवाही
करना ठीक नहीं" इत्यादि
उपदेश देकर
गोदावरी के तट
पर चले गये।
मध्याह्न
स्नान-संध्यादि
करके महाराज
घर गये और
नित्यकर्म
में लग गये।
इस
घटना के कुछ
दिन बाद
त्र्यंबकेश्वर
का एक वृद्ध
ब्राह्मण जो
कुष्ठ रोग से
पीड़ित था,
पैठण में
एकनाथ जी
महाराज के घर
पहुँचा।
मध्याह्न का
समय था।
महाराज ज्यों
ही दरवाजे के
बाहर आये तो
इस दुःखी
ब्राह्मण ने
अपना नाम पता
बताकर कहाः "मेरा रोग मिट
जाय इसके लिए
मैंने
त्र्यंबकेश्वर
में अनुष्ठान
किया। आठ दिन
हुए, भगवान
शंकर ने
स्वप्न में
दर्शन देकर
मुझसे कहा कि
तुम पैठण में
जाकर एकनाथ से
मिलो और उन्होंने
एक महार के
बच्चे के
प्राणों की जो
रक्षा की वह
उन्हें याद
दिलाओ। उस
उपकार का पुण्य
यदि वे
तुम्हारे हाथ
पर संकल्प
करके दें तो
तुम रोगमुक्त
हो जाओगे।" यह कहकर वह
ब्राह्मण
रोने लगा और
एकनाथ जी के चरणों
में गिर पड़ा।
एकनाथ
जी महाराज ने
कहाः "मेरे
न कोई पाप है न
कोई पुण्य ही।
मैंने क्या
पुण्य किया यह
भगवान
त्र्यंबकेश्वर
ही जानें ! मैंने जो भी
पुण्य इस शरीर
से जन्म से
लेकर आज तक
किया है वह
मैं आपको
अर्पण करता
हूँ।" यह
कहकर एकनाथ जी
महाराज ने
जलपात्र हाथ
में लिया और
संकल्प करने
ही वाले थे,
इतने में उस ब्राह्मण
ने रोका और
कहाः "नहीं,
आपका सब पुण्य
मुझे नहीं
चाहिए, केवल
उतना ही चाहिए
जितने के लिए
त्र्यंबकेश्वर
महादेव की
आज्ञा हुई है।"
ब्राह्मण
की
इच्छानुसार
एकनाथजी
महाराज ने वैसा
ही संकल्प
किया और जल
उसके हाथ पर
छोड़ा। उसी
क्षण उस
ब्राह्मण् का
कोढ़ नष्ट हो
गया और उसकी
काया निर्मल
हो गयी। वह
ब्राह्मण कुछ
दिनों तक
एकनाथ जी
महाराज के
यहाँ रहा,
उनके अलौकिक
गुणों और
आत्मभाव को
देखकर उसकी
प्रसन्नता
दिन-प्रतिदिन
बढ़ती गयी और
वह उनके गुण गाते
हुए
त्र्यंबकेश्वर
लौट गया।
ज्ञानाग्नि
में साधक के
सम्पूर्ण
कर्म दग्ध हो
जाते हैं और
वह सिद्ध
अवस्था को
प्राप्त करता
है, फिर कर्म
उन्हें बाँध
नहीं सकते।
परमात्मा के साथ
एकरूपता को
प्राप्त
जीवन्मुक्त
महापुरूषों
के द्वारा
स्वयं
परमात्मा ही
कार्य करते
हैं। उनके
दर्शन,
सान्निध्य,
सत्संग अथवा
चिन्तन मात्र
से सांसारिक
जीवों के
त्रितापों का
शमन होता है।
ऐसे
महापुरूषों
को पुण्य अर्जन
करने की भी
इच्छा नहीं
होती। सारे
पुण्य और
पुण्यफल इस
ब्रह्माण्ड
में रहते हैं
और वे महापुरूष
तत्त्वरूप से
पूरे
ब्रह्माण्ड
को ढाँके हुए
होते हैं।
उनका अनुभव
शब्दों में
नहीं आता। ऐसे
महापुरूष
विरले होते
हैं। आजकल उनकी
किताबें
पढ़कर, उनकी
कैसेटें सुन
के कई लोग
गुरू बन बैठे
हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 27
भगवान
की आराधना और
प्रार्थना
जीवन में सफलता
प्राप्त करने
की कुञ्जी है।
सच्चे भक्तों
की प्रार्थना
से समाज एवं
देश का ही
नहीं, वरन्
समग्र विश्व
का कल्याण हो
सकता है।
ऋग्वेद
में आता है कि
सूर्य न केवल
सम्पूर्ण विश्व
के प्रकाशक,
प्रवर्त्तक
एवं प्रेरक
हैं वरन् उनकी
किरणों में
आरोग्य वर्धन,
दोष-निवारण की
अभूतपूर्व
क्षमता
विद्यमान है।
सूर्य की
उपासना करने
एवं सूर्य की
किरणों का
सेवन करने से
अनेक शारीरिक,
बौद्धिक एवं
आध्यात्मिक
लाभ होते हैं।
जितने
भी सामाजिक
एवं नैतिक
अपराध हैं, वे
विशेषरूप से
सूर्यास्त के
पश्चात
अर्थात् रात्रि
में ही होते
हैं। सूर्य की
उपस्थिति
मात्र ही इन
दुष्प्रवृत्तियों
को नियँत्रित
कर देती है। सूर्य
के उदय होने
से समस्त
विश्व में
मानव, पशु-पक्षी
आदि
क्रियाशील
होते हैं। यदि
सूर्य को
विश्व-समुदाय
का प्रत्यक्ष
देव अथवा विश्व-परिवार
का मुखिया
कहें तो भी
कोई
अतिश्योक्ति
नहीं होगी।
वैसे
तो सूर्य की
रोशनी सभी के
लिए समान होती
है परन्तु
उपासना करके
उनकी विशेष
कृपा प्राप्त
कर व्यक्ति
सामान्य लोगों
की अपेक्षा
अधिक उन्नत हो
सकता है तथा
समाज में अपना
विशिष्ट
स्थान बना
सकता है।
सूर्य
एक शक्ति है।
भारत में तो
सदियों से सूर्य
की पूजा होती
आ रही है।
सूर्य तेज और
स्वास्थ्य के
दाता माने
जाते हैं। यही
कारण है कि विभिन्न
जाति, धर्म
एवं
सम्प्रदाय के
लोग दैवी शक्ति
के रूप में
सूर्य की
उपासना करते
है।
सूर्य
की किरणों में
समस्त रोगों
को नष्ट करने
की क्षमता
विद्यमान है। सूर्य की
प्रकाश – रश्मियों
के द्वारा
हृदय की
दुर्बलता एवं
हृदय रोग
मिटते हैं। स्वास्थ्य,
बलिष्ठता,
रोगमुक्ति
एवं
आध्यात्मिक
उन्नति के लिए
सूर्योपासना
करनी ही
चाहिए।
सूर्य
नियमितता, तेज
एवं प्रकाश के
प्रतीक हैं।
उनकी किरणें
समस्त विश्व
में जीवन का
संचार करती
हैं। भगवान
सूर्य नारायण
सतत् प्रकाशित
रहते हैं। वे
अपने
कर्त्तव्य
पालन में एक क्षण
के लिए भी
प्रमाद नहीं
करते, कभी
अपने
कर्त्तव्य से
विमुख नहीं होते।
प्रत्येक
मनुष्य में भी
इन सदगुणों का
विकास होना
चाहिए।
नियमतता, लगन,
परिश्रम एवं दृढ़
निश्चय
द्वारा ही
मनुष्य जीवन
में सफल हो सकता
है तथा कठिन
परिस्थितियों
के बीच भी अपने
लक्ष्य तक
पहुँच सकता
है।
सूर्य
बुद्धि के
अधिष्ठाता
देव हैं।
विद्यार्थियों
को प्रतिदिन
स्नानादि से
निवृत्त होकर
एक लोटा जल
सूर्यदेव को
अर्घ्य देना
चाहिए।
अर्घ्य देते
समय इस
बीजमंत्र का
उच्चारण करना
चाहिएः
ॐ ह्रां
ह्रीं ह्रों
सः सूर्याय
नमः।
इस
प्रकार
मंत्रोच्चारण
के साथ जल
देने से तेज
एवं बौद्धिक
बल की
प्राप्ति
होती है।
सूर्योदय
के बाद जब
सूर्य की
लालिमा
निवृत्त हो
जाय तब
सूर्याभिमुख
होकर कंबल
अथवा किसी विद्युत
कुचालक आसन्
पर पद्मासन
अथवा सुखासन में
इस प्रकार
बैठें ताकि
सूर्य की
किरणें नाभि
पर पड़े। अब
नाभि पर
अर्थात्
मणिपुर चक्र में
सूर्य नारायण
का ध्यान
करें।
यह
बात अकाट्य
सत्य है कि हम
जिसका ध्यान,
चिन्तन व मनन
करते हैं,
हमारा जीवन भी
वैसा ही हो जाता
है। उनके गुण
हमारे जीवन
में प्रगट
होने लगते
हैं।
नाभि
पर सूर्यदेव
का ध्यान करते
हुए यह दृढ़ भावना
करें कि उनकी
किरणों
द्वारा उनके
दैवी गुण आप में
प्रविष्ट हो
रहे हैं। अब
बायें नथुने
से गहरा श्वास
लेते हुए यह
भावना करें कि
सूर्य किरणों
एवं शुद्ध
वायु द्वारा
दैवीगुण मेरे
भीतर
प्रविष्ट हो
रहे हैं।
यथासामर्थ्य
श्वास को भीतर
ही रोककर
रखें।
तत्पश्चात्
दायें नथुने
से श्वास बाहर
छोड़ते हुए यह
भावना करें कि
मेरी श्वास के
साथ मेरे भीतर
के रोग, विकार एवं
दोष बाहर निकल
रहे हैं। यहाँ
भी यथासामर्थ्य
श्वास को बाहर
ही रोककर रखें
तथा इस बार दायें
नथुने से
श्वास लेकर बायें
नथुने से
छोड़ें। इस
प्रकार इस
प्रयोग को
प्रतिदिन दस
बार करने से
आप स्वयं में
चमत्कारिक
परिवर्तन
महसूस
करेंगे। कुछ
ही दिनो के
सतत् प्रयोग से
आपको इसका लाभ
दिखने लगेगा।
अनेक लोगों को
इस प्रयोग से
चमत्कारिक
लाभ हुआ है।
भगवान
सूर्य
तेजस्वी एवं
प्रकाशवान
हैं। उनके
दर्शन व
उपासना करके
तेजस्वी व
प्रकाशमान बनने
का प्रयत्न
करें।
ऐसे
निराशावादी
और उत्साहहीन
लोग जिनकी
आशाएँ,
भावनाएँ व
आस्थाएँ मर
गयी हैं,
जिन्हें
भविष्य में
प्रकाश नहीं,
केवल अंधकार
एवं निराशा ही
दिखती है ऐसे
लोग भी सूर्योपासना
द्वारा अपनी
जीवन में
नवचेतन का
संचार कर सकते
हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
महाराष्ट्र
के महान
भक्तों, संतों
में मुस्लिम
राम-भक्त
लतीफशाह का
नाम
उल्लेखनीय
है।
मुसलमान
होकर भी
लतीफशाह बड़े
ऊँचे स्तर के
रामभक्त थे।
वे राम,
श्रीकृष्ण और
विट्ठल को अभिन्न
समझते थे। संत
एकनाथ की कृपा
और स्नेह इन्हें
प्राप्त था।
ये
16वीं शताब्दी
में हुए और
मराठी के साथ
ही हिन्दी में
भी पद-रचना
की। इनका एक
पद है-
राम नाम
नौबत बजाई।
पहिली
नौबत नारद
तुंबर, दुसरी
नामा कबीर
सुनाई।
तिसरी
नौबत सुदामा
की, प्रह्लाद
की जिन्ने
राखी बड़ाई।
कहत 'लतीफ' सुन
मेरे भाई, धन्ना
जाट और
मीराबाई।।
रामनाम
पर लतीफ का
इतना विश्वास
और भरोस है कि
उससे प्राणी
संसार-सागर से
पार उतर सकता
है-
राम-नाम
तिनकू, हमारी
राम-नाम
तिनकू।
जो सर
प्राणी हरि के
उपासक, आप
तरे तारे औरन
कू।।
कहे 'लतीफ' मैं
पूजूँ उनकू, सुमिरत
मुरलीधर कू।।
कठमुल्ले
काजी और मौलवी
लतीफ को
मुसलमान मानने
के बजाय 'काफिर' कहते थे और
प्रायः वहाँ
के मुसलमान
बादशाह से
लतीफ की
शिकायत करते
रहते थेः "यह आदमी
हमेशा कुफ्र
फैलाता रहता
है, दीने इस्लाम
का बड़ा
नुक्सान करता
है, इस्लाम की
तौहीन होती
है। इसे शरीयत
के मुताबिक
सजा दी जानी चाहिए।
वे
कान भरते रहे,
तो बादशाह ने
हुक्म दियाः "लतीफशाह को
दरबार में
हाजिर
(उपस्थित)
किया जाय।" शाही फरमान
लेकर बादशाह
के सिपाही
लतीफ के पास
पहुँचे तो
वहाँ क्या
देखा कि
लतीफशाह बहुत
सारे लोगों से
घिरे कोई
मोटी-सी
पुस्तक पढ़
रहे हैं और
उसका अर्थ भी
बड़ी भावुकता
के साथ समझाते
हैं। वहाँ विद्यमान
हर व्यक्ति
बड़ी ही
पवित्र
भाव-धारा में
डूबा है।
सिपाही एकाएक
उस वातावरण
में लतीफशाह
को शाही फरमान
सुना नहीं
सके, बल्कि
सोचा, कुछ देर
ठहर क्यों न
जायें। बैठ
गये वे सिपाही
भी उसी सत्संग
में... और संगति
का प्रभाव तो
पड़ता ही है।
बैठे-बैठे उन
सिपाहियों को
भी उस कथा का
रस आ ही गया।
वह कथा थी,
भागवत की। उसमें
श्रीकृष्ण का
लीलामय
चरित्र
वर्णित है।
लतीफशाह
भागवत कथा के
बड़े प्रेमी
थे।
उधर
बादशाह उन
सिपाहियों की
प्रतीक्षा ही
करता रह गया।
जब देर तक वे न
लौटे तो
बादशाह क्रुद्ध
हुआ और
ताव-तैश खाकर
स्वयं घोड़ा
दौड़ाकर,
तलवार तौलाता
लतीफशाह के
पास पहुँचा।
किन्तु जो
दृश्य वहाँ
उसने देखा,
उससे वह चकित
रह गया। उसने
देखा, लतीफशाह
के मुख पर
जैसे खुदाई
नूर (दिव्य
तेज) बरस रहा
है और वे एक
किताब (ग्रन्थ)
से कुछ पढ़कर
लोगों को सुना
समझा रहे हैं,
कभी भगवद्
विरह में आँसू
बहाते हैं तो
कभी भगवत्
स्नेह में
आनन्दित,
पुलकित होते
हैं। उनके साथ
ही सुनने
वालों का भी
तार ऐसा जुड़ा
हुआ है कि उन
बातों को
सुनते हुए वे
भी भाव-विभोर
हो जाते हैं,
लतीफ के साथ। 'ऐसा जादू है
इस शख्स की
जुबान में,
तौबा है ! अच्छा, जरा
हम भी जायजा
लें, लतीफ की
किस्सागोई
(कथा-वचन) का।"
बादशाह भी
घोड़े से
उतरकर वहीं
बैठ गया। तलवार
म्यान में रख
ली। लतीफशाह
की यह दशा थी
कि उन्हें कोई
भी अंतर नहीं
पड़ा, चाहे
वहाँ
हथियारबंद
सिपाही आये या
स्वयं
बादशाह। उनका
दिव्य कथा-रस
अजस्र स्रावित
होता रहा।
लतीफ और
श्रोता समाज
सब सुध-बुध बिसारे
उस दिव्य
कथा-रस में
डूबे रहे। कहा
न 'रसो वै सः' वह (ब्रह्म)
रस ही है। अब
एक दृष्टि जो
बादशाह ने
लतीफ की लम्बी
चौड़ी बैठक
में डाली तो
देखता है कि
वहाँ हर दीवार
पर हिन्दू
देवी-देवताओं
के चित्र लगे
हुए हैं। उनमें
एक चित्र
बादशाह को
बड़ा सुन्दर
लगा। वह दृश्य
यह था कि
श्रीकृष्ण को
राधारानी
अपने हाथ से
पान का बीड़ा
दे रही है। अब
यह चित्र देखा
तो बादशाह को
लतीफशाह का
मखौल उड़ाने की
सूझी। कहने
लगाः
"मियाँ लतीफ,
तुम कैसे
बन्दे हो
इस्लाम के, कि
ये कुफ्र से
लबरेज
तस्वीरें लगा
रखी हैं यहाँ ! ये
बेमानी और
बेअसर होने के
साथ ही जहालत
की निशानी है।" लतीफ ने
पहचाना
बादशाह को और
वहाँ शान्त
बैठे
सिपाहियों को
भी। फिर बड़े
प्रेम से कहाः
"जनाब ! इन्हें
फक्त
तस्वीरें न
समझें। इनमें
यह ताकतोताब
(तेजोबल)
मौजूद है जो
इन्सानी चोले
में नहीं।"
बादशाह
बोलाः "कैसे यकीन कर
लूँ ? अब
(संकेत करके)
उस तस्वीर को
ही देखो।
तस्वीर तो
वाकई बड़ी
खूबसूरत है,
लेकिन उसका
मतलब क्या ? जो
लड़की किशन जी
को पान नजर कर
रही है, वे उसे
खा कहाँ रहे
हैं ?
नहीं खा सकते।
आखिर कागजी
तस्वीर ही तो
है, वरना वे यह
पान कभी का खा
चुके होते।
पान क्या अब तक
हाथ में ही
थमा रहता ?"
लतीफशाह को
बात लग गयी।
वे कृष्ण-राधा
का अपमान सहन
न कर सके। हाथ
जोड़कर उस
चित्र के
सामने आ खड़े
हुए। निवेदन
कियाः
"संसारी जीव
आपकी महिमा
क्या समझे ! वह तो
नासमझी-नादानी
करता है। हे
हरि ! हे
मुरलीधर ! अपने
विरद रखो।
राधारानी से
आपका प्रेम
सनातन है। वे
आपको प्रेम से
पान दे रही
है। अब आप उनका
बीड़ा
स्वीकार करके
खा ही लें। यह
नाचीज लतीफ
देखने को तरस
रहा है।" इतना
कहना था कि
विस्मय से
बादशाह ने, सब
श्रोता समाज
ने देखा कि
कृष्ण जी ने
मुँह बढ़ाकर
राधाजी का पान
ले लिया और फिर
उन्हें पान
चबाते देखा
गया। बादशाह
को लगा कि
क्या वह कोई
स्वप्न तो
नहीं देख रहा !
या खुदा ! या
परवरदिगार ! यह क्या
माजरा है ? फिर
देखा लतीफ की
ओर, तो वे भक्त
प्रवर झर-झर
आँसू रोये जा
रहे थे।
लतीफशाह के
आँसू थम नहीं
रहे थे। और तब
बादशाह को जैसे
अन्दर से कोई
पुकार आयी। वह
लतीफशाह के
चरणों में
झुका।
धन्य है
हिन्दू धर्म
के भक्तियोग
की महिमा एवं
धन्य हैं इसके
रस का आस्वादन
करके जीवन को
परम
परमात्म-रस से
तृप्त करने
वाले !
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 28
महान
संत श्री
गोरखनाथ जी ने
अपने शिष्यों
को यह कथा
सुनायी थीः
गोदावरी
नदी के तट पर
महात्मा
वेदधर्म
निवास करते
थे। उनके पास
आकर अनेक
शिष्य वेद
शास्त्रों का
अध्ययन करते
थे। उनके सभी
शिष्यों में
संदीपक नामक
शिष्य बड़ा
मेधावी एवं
गुरूभक्तिपरायण
था।
एक
दिन वेदधर्म
ने अपने सभी
शिष्यों को
बुलाकर कहाः
"मेरे
पूर्वजन्म के
दुष्ट
प्रारब्ध के
कारण अब मुझे
कोढ़ होगा,
मैं अंधा हो
जाऊँगा एवं
पूरे शरीर से
बदबू
निकलेगी। अतः
मैं आश्रम
छोड़कर चला
जाऊँगा। ऐसा
कठिन काल मैं
काशी जाकर
बिताना चाहता
हूँ। जब तक
मेरे दुष्ट प्रारब्ध
का क्षय न हो
जाय, तब तक
मेरी सेवा के तुममें
से कौन-कौन
मेरे साथ काशी
आने के लिए तैयार
है ?"
गुरूजी
की बात सुनकर
शिष्यों में
सन्नाटा छा गया।
इतने में
संदीपक उठा और
विनम्रतापूर्वक
बोलाः
"गुरूजी
! मैं
प्रत्येक
स्थिति,
प्रत्येक
स्थान में आपके
साथ रहकर आपकी
सेवा करने के
लिए तैयार
हूँ।"
गुरूजीः
"बेटा !
शरीर में कोढ़
निकलेगा, बदबू
होगी, अंधा हो
जाऊँगा। मेरे
कारण तुझे भी
बड़ी तकलीफ
उठानी पड़ेगी।
तू ठीक से
विचार कर ले।"
संदीपकः
"गुरूदेव ! कृपा
कीजिये। मुझे
भी अपने साथ
ले चलिये।"
दूसरे
ही दिन
वेदधर्म ने
संदीपक के साथ
काशी की ओर
प्रयाण किया।
काशी पहुँचकर
वे मणिकर्णिका
घाट के उत्तर
की ओर स्थित
कंवलेश्वर
नामक स्थान पर
रहने लगे।
दो
चार दिन के
बाद ही
वेदधर्म के
योगबल के संकल्प
से उनके शरीर
में कोढ़ निकल
आया। थोड़े
दिनो के
पश्चात उनकी
आँखों की
रोशनी भी चली
गयी। अंधत्व
एवं कोढ़ के
कारण उनका
स्वभाव भी
उग्र, चिड़चिड़ा,
विचित्र सा हो
गया।
संदीपक
दिन-रात
गुरूजी की
सेवा में लगा
रहता। वह गुरू
को नहलाता,
गुरू के घावों
से निकलता हुआ
मवाद साफ
करता, औषधि
लगाता। उनके
वस्त्र साफ
करता। समय पर
गुरूजी को
भोजन कराता।
सेवा
करते-करते
संदीपक की सब
वासनाएँ जल
गयीं। उसकी
बुद्धि में
प्रकाश छा
गया। सेवा में
उसे बड़ा
आनन्द आता था।
घर बिच
आनंद रह्या
भरपूर। मनमुख
स्वाद न पाया।।
यदि
मनमुख होकर
साधना करोगे
तो कुछ भी हाथ
न आयेगा, भटक
जाओगे। लेकिन
गुरू के बताये
हुए मार्ग के
अनुसार चलोगे
तो भटकोगे नहीं।
इसीलिए
वेदव्यासजी
महाराज ने कहा
हैः एतत्सर्वं
गुरोर्भक्त्या।
गुरूजी
की सेवा
करते-करते
वर्षों बीत
गये। संदीपक
की गुरूसेवा
से प्रसन्न
होकर एक दिन
भगवान शंकर
उसके आगे
प्रगट हुए एवं
बोलेः
"संदीपक
! लोग तो काशी
विश्वनाथ के
दर्शन करने
आते हैं लेकिन
मैं तेरे पास
बिना बुलाये
आया हूँ क्योंकि
जिनके हृदय
में 'मैं' सोऽहं
स्वरूप से
प्रगट हुआ है
ऐसे सदगुरू की
तू सेवा करता
है। जिनके
हृदय में
ब्रह्म-परमात्मा
प्रगट हुए हैं
उनके तन की
स्थिति बाहर
से भले गंदगी
दिखती, फिर भी
उनमें चिन्मय
तत्त्व जानकर
उनकी सेवा
करता है। मैं
तुझ पर अत्यंत
प्रसन्न हूँ।
बेटा !
कुछ माँग ले।"
संदीपकः
"प्रभु ! बस, आपकी
प्रसन्नता
पर्याप्त है।"
शिवजीः
"प्रसन्न तो
हूँ लेकिन कुछ
माँग।"
संदीपकः
"बस, गुरू की
कृपा पर्याप्त
है।"
शिवजीः
"नही, संदीपक ! कुछ माँग
ले। तेरी
गुरूभक्ति
देखकर मैं
बिना बुलाये
तेरे पास आया
हूँ। मैं तुझ
पर अत्यंत प्रसन्न
हूँ। कुछ माँग
ले।"
संदीपकः
"हे महादेव ! आप मुझ पर
प्रसन्न हुए
हैं, यह मेरा
परम सौभाग्य
है लेकिन
वरदान माँगने
में मैं विवश
हूँ। मेरे
गुरूदेव की
आज्ञा के बिना
मैं आपसे कुछ
नहीं माँग
सकता।"
शिवजीः
"...........तो तेरे
गुरू के पास
जाकर आज्ञा ले
आ।"
संदीपक
गया गुरू के
पास एवं बोलाः
"आपकी
कृपा से शिवजी
मुझ पर
प्रसन्न हुए
है एवं वरदान
माँगने के लिए
कह रहे हैं।
अगर आपकी आज्ञा
हो तो आपका कोढ़
एवं अंधत्व
ठीक होने का
वरदान माँग
लूँ।"
यह
सुनकर
वेदधर्म बड़े
कुपित हो गये
एवं बोलेः
"नालायक
! सेवा से
बचना चाहता है
? दुष्ट ! मेरी सेवा
करते-करते थक
गया है इसलिए
भीख माँगता है
? शिवजी
दे-देकर क्या
देंगे ? दे
भी देंगे तो
शरीर के लिए
देंगे।
प्रारब्ध शरीर
भोगता है तो
भोगने दे।
क्यों भीख
माँगता है शिवजी
से ? जा, तू
भी चला जा।
मैं तो पहले
ही तुझ मना कर
रहा था फिर भी
साथ आया।"
संदीपक
गया शिवजी के
पास और बोलाः "प्रभु ! मुझे क्षमा
करो। मैं कोई
वरदान नहीं
चाहता।"
शिवजी
संदीपक की
गुरूनिष्ठा
देखकर भीतर से
बड़े प्रसन्न
हुए लेकिन
बाहर से बोलेः
"ऐसे कैसे
गुरू है कि
शिष्य इतनी
सेवा करता है और
ऊपर से डाँटते
हैं ?"
संदीपकः
"प्रभु ! आप चाहे जो
कहें लेकिन
मैंने भी सोच
लिया हैः गुरूकृपा
ही केवलम्.....
उनकी आज्ञा का
पालन ही मेरा
सर्वस्व है।"
शिवजी
गये भगवान
विष्णु के पास
एवं बातचीत के
दौरान बोलेः !हे नारायण ! बड़े-बड़े
मुनीश्वर
मेरे दर्शन के
लिए वर्षों तक
जप-तप करते
हैं फिर भी
उन्हें दर्शन
नहीं होते।
अभी काशी नगरी
में संदीपक
नामक शिष्य की
गुरूनिष्ठा
देखकर मैं
स्वयं उसके
सामने प्रगट
हुआ एवं
इच्छित वरदान
माँगने के लिए
कहा किन्तु
गुरू की आज्ञा
न मिलने पर
उसने वरदान
लेने से
स्पष्ट
इन्कार कर
दिया। मैंने
उसकी परीक्षा
ली किः 'ऐसे
गुरू का क्या
चेला बनता है ?' .....लेकिन वह
मेरी कसौटी पर
भी खरा उतरा।
मेरे हिलाने
पर भी वह न
हिला।
गुरूद्वार की
झाड़ू-बुहारी,
भिक्षा
माँगना, गुरू
को नहलाना-खिलाना,
गुरू के सेवा
करना यही उसकी
पूजा-उपासना
है।"
शिवजी
की बात सुनकर
भगवान विष्णु
को भी आश्चर्य
हुआ एवं
उन्हें भी
संदीपक की
परीक्षा लेने का
मन हुआ।
संदीपक
के पास प्रगट
होकर भगवान
विष्णु बोलेः
"वत्स
! तेरी अनुपम
गुरूभक्ति से
मैं तुझ पर
अत्यंत प्रसन्न
हूँ। ....लेकिन
एक बात का
मुझे दुःख है।
शिवजी को भी
दुःख हुआ।
तूने शिवजी से
वरदान नहीं
लिया... गुरू के
लिए भी नहीं
लिया। अब अपने
लिए ले ले।
तेरी जो इच्छा
हो, वह माँग
ले।"
संदीपकः
"ना, ना, प्रभु ! ऐसा न कहें।"
विष्णुः
"देवता आते
हैं तो बिना
वरदान दिये
नहीं जाते।
कुछ तो माँग
लो !
संदीपकः
"हे
त्रिभुवनपति ! गुरूकृपा से
तो मुझे आपके
दर्शन हुए है।
मैं आपसे केवल
इतना ही वरदान
माँगता हूँ कि
गुरूचरणों
में मेरी
अविचल भक्ति
बनी रहे एवं
उनकी सेवा में
मैं निरंतर
लीन रहूँ।"
संदीपक
की बात सुनकर
विष्णु भगवान
अत्यंत प्रसन्न
हुए एवं बोलेः
"वत्स ! तू
सचमुच धन्य है
! तेरे गुरू
भी धन्य हैं ! तुझे वरदान
देता हूँ कि
गुरूचरणों
में तेरी भक्ति
निरंतर दृढ़
होती रहेगी।"
ऐसा
कहकर विष्णु
भगवान
अन्तर्ध्यान
हो गये।
संदीपक
गया गुरू के
पास एवं
विष्णु भगवान
के दिये गये
आशीर्वाद की
बात
विस्तारपूर्वक
सुना दी।
संदीपक की बात
सुनकर
वेदधर्म के आनंद
का कोई पार न
रहा। अपने
प्रिय शिष्य
को छाती से
लगाकर बोलेः
"बेटा
! तू
सर्वश्रेष्ठ
शिष्य है। तू
समस्त
सिद्धियों को
प्राप्त
करेगा। तेरे
चित्त में
रिद्धि-सिद्धि
का वास रहेगा।"
संदीपकः
"गुरूवर ! मेरी
रिद्धि-सिद्धियाँ
आपके
श्रीचरणों
में समायी हुई
हैं। मुझे आप
नश्वर के मोह
में न डालें।
मुझे तो
शाश्वत् आनंद
की आवश्यकता
है और वह तो
आपके
श्रीचरणों की
भक्ति से
मिलता ही है।"
तभी
संदीपक ने
साश्चर्य
देखा कि
गुरूदेव का कोढ़
संपूर्णतः
गायब है.... उनका
शरीर
पूर्ववत् स्वस्थ
एवं कांतिमान
हो गया है !
शिष्य
को
प्रेमपूर्वक
गले लगाते हुए
वेदधर्म ने
कहाः "बेटा
! शिष्यों की
परीक्षा लेने
के लिए ही
मैंने यह सब
खेल रचा था।
मैं तुझ पर
अत्यन्त
प्रसन्न हूँ।
ब्रह्मविद्या
का विशाल
खजाना मैं
तुझे आज देता
हूँ।"
सत्शिष्य
संदीपक की
जन्म-जन्मांतरों
की सेवा-साधना
सफल हुई।
गुरूदेव की
कृपा से संदीपक
परमात्मा के
साथ एकाकार हो
गया। धन्य है
संदीपक की
गुरूभक्ति !
(कहीं-कहीं
यह पावन कथा
पाठान्तर भेद
से भी आती है
फिर भी संदीपक
की दृढ़
गुरूभक्ति की
प्रशंसा
गोरखनाथजी ने
अपने शिष्यों
के समक्ष मुक्त
कण्ठ से की है।)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
श्री
जानकीनाथ जी
के घर में शोक
का वातावरण था।
लोग इधर उधर
दौड़ भाग कर
रहे थे। उनकी
पत्नी कमरे
में बैठकर यह
कह कहकर रो
रही थीः "हाय !
मेरा नन्हा
लाडला पता
नहीं कहाँ चला
गया ? अब कैसे
मिलेगा वह ? आज चार दिन
तो हो गये ! हे भगवान
मेरे बच्चे की
रक्षा करना।"
अड़ोस-पड़ोस
की महिलाएँ
उन्हें धैर्य
बँधा रहा थीं।
दरअसल
जानकीनाथ का
पुत्र कहीं खो
गया था। कहाँ
चला गया कुछ
पता नहीं चल
रहा था। बच्चे
ने स्वयं भी
तो कोई सूचना
नहीं दी। पता
नहीं वह किस
परिस्थिति
में होगा।
थोड़ी-थोड़ी
देर में खोज
करने वाला
कोई-न-कोई
व्यक्ति आता
जानकीनाथ की
पत्नी बड़ी
उम्मीद से
उससे पूछतीः "मेरे बच्चे
का कुछ पता
लगा ?" परन्तु
उसका झुका हुआ
सिर और निराशा
से भरी आँखें
देखकर
ममतामयी माँ
का हृदय फिर
तड़प उठता।
चार दिन से
गुम हुए पुत्र
की कोई सूचना
न मिलने पर
उनके हृदय में
तरह-तरह की
शंकाएँ-डरावनी
कल्पनाएँ
उठतीं। कभी-कभी
वे पागलों की
तरह जोर-जो से
कहतीः "नहीं,
नहीं, ऐसा
नहीं हो सकता।
मुझे भगवान पर
पूरा भरोसा
है। वह मेरे
लाल की रक्षा
करेगा। उसे
कुछ नहीं
होगा।"
चौथे
दिन की शाम
होने को आयी
परन्तु पुत्र
की कोई खबर
नहीं मिली।
सभी लोग एक-एक
करके अपने-अपने
घर चले गये।
जानकीनाथजी
की धर्मपत्नी
अपने लाडले
पुत्र के
वस्त्रों को
सीने से लगाये
सिसक रही थी।
तभी पीछे से
किन्हीं
नन्हें हाथों
ने उनकी आँखों
को बंद कर
दिया।
नन्हें
हाथों के
स्पर्श से
माता अपने
नटखट लाल को
पहचान गयी और
उसे अपनी छाती
से लगा लिया। बेटा
सुरक्षित है,
यह देखकर माँ
ने पूछाः "क्यों रे ! इतने दिन
कहाँ रहा ? कहाँ चला
गया था बिना
बताये ?"
बालक
ने अपने
नन्हें हाथ
जोड़कर कहाः "माँ !
पासवाले गाँव
में हैजा फैल
गया है।
बीमारों की
संख्या बहुत
है और उनकी
सेवा करने
वाले बहुत कम।
ऐसी
परिस्थिति
देखकर मैं
वहाँ बीमारों
की सेवा में
लग गया और
इतना व्यस्त
हो गया कि
आपको सूचना
भेजने का समय
भी नहीं मिला।"
जानकीनाथजी
की धर्मपत्नी
बेटे के खो
जाने का दुःख
और मिलने की
खुशी दोनों
भूल गयीं।
उनकी आँखों से
दो आँसू गिर
पड़े। उनके ये
आँसू पहले के
भाँति हर्ष या
शोक के नहीं
अपितु गौरव के
आँसू थे।
पुत्र
को हृदय से
लगाते समय
उनके मुख से
निकलाः "तेरे
जैसे पुत्र को
पाकर केवल मैं
ही नहीं बल्कि
यह भारतमाता
भी
गौरवान्वित
हो गयी।"
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सत्र 29
एक
बार अकबर ने
बीरबल से
पूछाः "तुम्हारे
भगवान और
हमारे खुदा
में बहुत फर्क
है। हमारा
खुदा तो अपना
पैगम्बर
भेजता है जबकि
तुम्हारा
भगवान बार-बार
आता है। यह
क्या बात है ?"
बीरबलः
"जहाँपनाह ! इस बात का
कभी
व्यवहारिक
तौर पर अनुभव
करवा दूँगा।
आप जरा थोड़े
दिनों की
मोहलत दीजिए।"
चार-पाँच
दिन बीत गये। बीरबल
ने एक आयोजन
किया। अकबर को
यमुनाजी में नौकाविहार
कराने ले गये।
कुछ नावों की
व्यवस्था
पहले से ही
करवा दी थी।
उस समय
यमुनाजी
छिछली न थीं।
उनमें अथाह जल
था। बीरबल ने
एक युक्ति की
कि जिस नाव
में अकबर बैठा
था, उसी नाव
में एक दासी
को अकबर के
नवजात शिशु के
साथ बैठा दिया
गया। सचमुच
में वह नवजात
शिशु नहीं था।
मोम का बालक
पुतला बनाकर
उसे राजसी
वस्त्र
पहनाये गये थे
ताकि वह अकबर
का बेटा लगे।
दासी को सब कुछ
सिखा दिया गया
था।
नाव
जब बीच मझधार
में पहुँची और
हिलने लगी तब 'अरे.... रे... रे....
ओ.... ओ.....'
कहकर दासी ने
स्त्री
चरित्र करके
बच्चे को पानी
में गिरा दिया
और रोने
बिलखने लगी।
अपने बालक को
बचाने-खोजने
के लिए अकबर
धड़ाम से
यमुना में कूद
पड़ा। खूब
इधर-उधर गोते
मारकर, बड़ी
मुश्किल से
उसने बच्चे को
पानी में से
निकाला। वह
बच्चा तो क्या
था मोम का
पुतला था।
अकबर
कहने लगाः "बीरबल ! यह सारी
शरारत
तुम्हारी है।
तुमने मेरी
बेइज्जती
करवाने के लिए
ही ऐसा किया।"
बीरबलः
"जहाँपनाह ! आपकी
बेइज्जती के
लिए नहीं,
बल्कि आपके
प्रश्न का
उत्तर देने के
लिए ऐसा ही
किया गया था।
आप इसे अपना
शिशु समझकर
नदी में कूद
पड़े। उस समय
आपको पता तो
था ही इन सब
नावों में कई
तैराक बैठे
थे, नाविक भी
बैठे थे और हम
भी तो थे ! आपने हमको
आदेश क्यों
नहीं दिया ? हम कूदकर
आपके बेटे की
रक्षा करते !"
अकबरः
"बीरबल ! यदि अपना
बेटा डूबता हो
तो अपने
मंत्रियों को
या तैराकों को
कहने की फुरसत
कहाँ रहती है ? खुद ही कूदा
जाता है।"
बीरबलः
"जैसे अपने
बेटे की रक्षा
के लिए आप खुद
कूद पड़े, ऐसे
ही हमारे
भगवान जब अपने
बालकों को
संसार एवं
संसार की
मुसीबतों में
डूबता हुआ
देखते हैं तो
वे
पैगम्बर-वैगम्बर
को नहीं भेजते,
वरन् खुद ही
प्रगट होते
हैं। वे अपने
बेटों की
रक्षा के लिए
आप ही अवतार
ग्रहण करते है
और संसार को
आनंद तथा
प्रेम के
प्रसाद से
धन्य करते
हैं। आपके उस
दिन के सवाल
का यही जवाब
है, जहाँपनाह !"
अकबरः
"बीरबल ! तुम धन्य हो !"
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त्वचा
को कोमल तथा
सुन्दर बनाने
के लिए आजकल तरह-तरह
की क्रीमों का
प्रयोग किया
जाता है। उत्पाद
कंपनियाँ
टी.वी., रेडियो
आदि के द्वारा
अपने-अपने
क्रीमों तथा
पाउडरों के
विज्ञापन
करवाकर उनकी
श्रेष्ठता
बताते हुए
उपभोक्ताओं
को आकर्षित
करती हैं।
त्वचा को कोमल
तथा सुन्दर
बनाने के लिए
जिन क्रीमों
का प्रयोग
किया जाता है,
उनमें से
कइयों में
ब्लीचिंग
उत्प्रेरक 'हाइड्रोक्वीनोन' मिला होता
है। यह
मेलानिन ने
स्राव को रोक
देता है।
मेलानिन शरीर
में विद्यमान
एक ऐसा पदार्थ
है जो सूर्य
की हानिकारक
किरणों से
त्वचा की
रक्षा करता
है।
धूप
लगने से इस
पदार्थ के
अभाव में
त्वचा पर धब्बे
पड़ सकते हैं
तथा पहले की
अपेक्षा
त्वचा काली हो
सकती है।
ध्यातव्य है
कि 'हाइड्रोक्वीनोन' का लम्बे
समय तक प्रयोग
किये जाने पर
त्वचा का
कैन्सर होने
की संभावना
रहती है।
'प्रदूषण
नियंत्रण
अधिनियम' के अनुसार
गोरेपन की
क्रीम में 2 % से अधिक
हाइड्रोक्वीनोन
नहीं होना
चाहिए। परन्तु
त्वचा रोग
विशेषज्ञों
के अनुसार 2 % हाइड्रोक्वीनोन
भी यदि लम्बे
समय तक अथवा
अधिकांशतः
प्रयोग किया
जाय तो वह
खतरनाक हो सकता
है।
इसी
प्रकार स्नान
के बाद
अधिकांश
व्यक्ति अपने
शरीर पर टेलकम
पाउडर का
प्रयोग करते
हैं जिसे
छिड़कते समय
उसके कण हवा
में फैल जाते
हैं। यदि वे
कण लगातार कुछ
दिनों तक
श्वास के
द्वारा
फेफड़ों में
पहुँचते रहें
तो स्वास्थ्य
को बहुत
नुकसान हो
सकता है। यदि
कोई
ब्राँकाइटिस
(श्वास
नलिकाओं का
शोथ) और दमा का
रोगी अथवा
धूम्रपानकर्त्ता
है तो उसे इससे
और भी अधिक
खतरा होता।
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सत्र 30
'सौन्दर्य-प्रसाधन' एक ऐसा नाम है जिससे प्रत्येक व्यक्ति परिचित है। गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने वालों को छोड़कर समाज के सभी वर्ग सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग करके अपने को भीड़ में खूबसूरत तथा विशेष दिखाने की होड़ में रहते हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग करके अपने को खूबसूरत तथा विशेष दिखने होड़ में आज सिर्फ नारी ही नहीं, वरन् पुरूष भी पीछे नहीं हैं। समाज का कोई भी आयु वर्ग इनकी गुलामी से नहीं बचा है।
हम विभिन्न प्रकार के तेल, क्रीम, शैम्पू एवं इत्र आदि लगाकर भीड़ में अपने को आकर्षक बनाना चाहते हैं। परन्तु इसी आकर्षण की होड़ में हमने समाज में व्यभिचार एवं शोषण को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दे दिया है। विषयलोलुपता बनती हमारी वर्त्तमान युवा पीढ़ी के पतन के पीछे इन सौन्दर्यों प्रसाधनों का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
आकर्षक डिब्बों तथा बोतलो आदि की पैकिंग में आने वाले प्रसाधनों की कहानी इतनी ही नहीं है। सच तो यह है कि इसकी वास्तविकता का हमें ज्ञान ही नहीं होता। हजारों लाखों निरपराध बेजुबान प्राणियों की मूक चीखें इन सौन्दर्य प्रसाधनों की वास्तविकता है। मनुष्य की चमड़ी को खूबसूरत बनाने के लिए कई निर्दोष प्राणियों की हत्या.... यही इन प्रसाधनों की सच्चाई है। जिस सेंट को छिड़ककर मनुष्य स्वयं को विशेष तथा आकर्षक दिखाना चाहता है उसके निर्माण के लिए लाखों बेजुबान प्राणियों की हत्या की जाती है।
सेंट उत्पादन के लिए मारे जाने वाले प्राणियों में बिज्जू का नाम भी आता है। बिज्जू बिल्ली के आकार का एक नन्हा सा प्राणी है। इसे सेंट उत्पादन के लिए पकड़ा जाता है। बिज्जू से जिस प्रकार से सेंट प्राप्त किया किया जाता है वह क्रिया जल्लादी से कम नहीं। बिज्जू को बेंतो से पीटा जाता है। बेंतों एवं कोड़ों की मार सहता यह प्राणी चीखता हुए भी अपनी कहानी किसी भी अदालत में नहीं सुना पाता। अत्यधिक मार से उद्विग्न होकर बिज्जू की यौन-ग्रन्थि से एक सुगन्धित पदार्थ स्रावित होता है। इस पदार्थ को तेज धारवाले चाकू से निर्ममता से खरोंच लिया जाता है जिसमें कैमिकल मिलाकर विभिन्न प्रकार के इत्र बनाये जाते हैं।
मूषक के आकार का बीबर नामक प्राणी भी इसी उत्पादन के लिए तड़पाया जाता है। बीबर से केस्टोरियम नामक गन्ध प्राप्त होती है। बीबर के शरीर से प्राप्त होने वाला तेल भी सौन्दर्य प्रसाधन के निर्माण में काम आता है। बीबर को पकड़कर उसे 15-20 दिनों तक एक जाली में बन्द करके तड़पाया जाता है। जब भूखा-प्यासा एवं नाना प्रकार के संत्रास सहता यह प्राणी अपनी जान गँवा बैठता है, तब इसके शरीर से प्राप्त गंध का उपयोग मनुष्य अपनी गन्ध-तृप्ति के लिए करता है।
मनुष्य की घ्राणेन्द्रिय की परितृप्ति के लिए ही बिल्ली की जाति के सीवेट नाम के प्राणी की भी जान ले ली जाती है। हिन्दी में इसे गन्ध मर्जार के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि सीवेट जितना क्रोधित आता है उससे उतनी ही अधिक तथा उत्तम गन्ध प्राप्त होती है। अतः इसे एक पिंजरे में डालकर इस प्रकार से सताया जाता है कि इसकी करूणा चीखों से प्रकृति भी से पड़ती होगी। इस प्रकार मानव के जुल्मों को सहते-सहते यह प्राणी अपनी जान से हाथ धो बैठता है। तब उसका पेट चीरकर उससे वह ग्रन्थि निकाल ली जाती है, जिसमें गन्ध एकत्रित होती है तथा आकर्षक डिजाइनों में इसे सौन्दर्य प्रसाधनों की दुकानों पर रख दिया जाता है।
लेमूर जाति के लोरिस नामक छोटे बंदर को भी उसकी सुन्दर आँखों एवं जिगर के लिए मारा जाता है जिन्हें पीसकर सौन्दर्य प्रसाधन बनाये जाते हैं।
पुरूष अपनी दाढ़ी बनाने के लिए जिन लोशनों का उपयोग करता है, उसके लिए भी गिनी पिग नामक एक प्राणी की जान ली जाती है। गिनी पिग चूहों की जाति का एक छोटा-सा प्राणी है। यह विश्वभर में पाया जाता है। मनुष्य की दाढ़ी बनाने के लिए निर्मित साबुन (सेविंग लोशन) की संवेदनशीलता की जाँच का प्रयोग इस प्राणी पर किया जाता है क्योंकि इसकी त्वचा का कोमल तथा रोयेंदार होती है। लोशन से मनुष्य की त्वचा को कोई हानि न पहुँचे इसलिए उस लोशन को पहले गिनी पिग पर आजमाया जाता है। इस प्रकार त्वचा के रोग अथवा तो रासायनिक दुष्प्रभाव (कैमिकल रिएक्शन) के कारण हजारों गिनी तड़प-तड़पकर मर जाते हैं।
बाजारों में रासायनिक पदार्थों से बने कई प्रकार के शैम्पू मिलते हैं जिनका प्रयोग मनुष्य अपने केशों को सुन्दर एवं चमकदार बनाने के लिए करता है। परन्तु शायद आप नहीं जानते कि उनमें खरगोश का अंधत्व एवं उसकी मौत घुली हुई है।
जैसा कि स्पष्ट है, शैम्पू कई प्रकार के रसायनों से बनाया जाता है। अतः इनका उपयोग करने वाले मनुष्य की कोमल आँखों को शैम्पू से कोई हानि न पहुँचे, इसके लिए उसका परीक्षण किया जाता है। इस परीक्षण के लिए एक निर्दोष प्राणी खरगोश को बलि की बेदी पर चढ़ाया जाता है। शैम्पू को बाजार में लाने से पहले खरगोश की नन्हीं सी आँखों में डाला जाता है। इससे खरगोश को कितनी वेदना होती होगी, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इस क्रिया के लिए उसे बाँध लिया जाता है। खरगोश की आँखें खुली रहें इसके लिए 'आई ओपनर्स' का उपयोग किया जाता है तथा खरगोश की आकर्षक आँखों में शैम्पू की बूँदे डाली जाती हैं। इससे खरगोश की आँखों से खून निकलने लगता है क्योंकि मनुष्य खरगोश को उसकी खाल के लिए भी मरता है अतः उस तड़पते हुए प्राणी का इलाज करने की भी आवश्यकता नहीं होती जिससे वह स्वतः ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए मानव इन निर्दोष प्राणियों पर जो कहर पा रहा है, यह उसकी एक झलक मात्र है। यह पूर्ण अध्याय नहीं, परन्तु पूर्ण अध्याय की हम कल्पना कर सकते हैं कि अपनी इन्द्रिय-लोलुपता की महत्त्वकांक्षा में हम कितना बड़ा घृणित पापकर्म कर रहे हैं।
ईश्वर से मनुष्य शरीर तथा सर्व प्राणियों में श्रेष्ठ बुद्धि हमें इसलिए मिली है ताकि परमात्मा की सृष्टि को सँवारने में भागीदार बन सकें। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से सबकी सेवा करके सबमें बसे उस वासुदेव को प्राप्त कर लें तथा उसी के हो जायें। सबमें उसी का दर्शन करके उसीमय हो जायें।
तो आज से हम संकल्प करें कि जिन सौन्दर्य प्रसाधनों में हजारों-लाखों निर्दोष बेजुबान प्राणियों की दर्दनाक मृत्यु की गाथा छिपी है, उन सौन्दर्य प्रसाधनों का त्याग करेंगे व करवाएँगे। लाखों प्राणियों की आह लेकर बनाये गये सौन्दर्य प्रसाधनों से नहीं, वरन् सत्संग एवं सदगुणों से अपने शाश्वत सौन्दर्य को प्राप्त करेंगे। सबमें उसी राम का दर्शन कर श्रीराम, श्रीकृष्ण, रामतीर्थ, विवेकानन्द, लीलाशाहजी बापू तथा मीरा, मदालसा, गार्गी, अनुसूया, सावित्री और माता सीता की तरह परम सौन्दर्यवान् हो जाएँगे।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
शैम्पू या टूथपेस्ट में खूब सारा झाग बनता हो तो किसे अच्छा नहीं लगता ? लेकिन इस झाग की तरफ देखने से पहले शैम्पू या टूथपेस्ट के कवर पर लिखे उन रासायनिक पदार्थों की सूची में पढ़ लें जिनको मिलाकर इसे बनाया गया है। इसके प्रति सावधानी न बरतने वालों को शीघ्र ही कैन्सर का शिकार होने की आशंका है।
उल्लेखनीय है कि विश्व में सन् 1980 के आसपास आठ हजार व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को कैन्सर होने का खतरा होता था। लेकिन इस तरह के रसायनयुक्त सौंदर्यप्रसाधनों और खाद्य पदार्थों के लगातार उपयोग से यह दर लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 1980 के दशक में तीन हजार व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को कैन्सर हो रहा है। विकसित देशों के रहन-सहन और खान-पान को अपनाने के कारण भारत जैसे विकासशील देशों में भी कैन्सर का प्रकोप बढ़ाता जा रहा है।
भारत में बिकने वाले अनेक प्रकार के शैम्पूओं और टूथपेस्टों में 'सोडियम लॉरेल सल्फेट' का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस रसायन का उपयोग करने में मँहगे शैम्पू और बहुत लोकप्रिय टूथपेस्ट बनाने वाली कम्पनियाँ भी पीछे नहीं हैं। अनेक उत्पादन इस रसायन का पूरा नाम लिखने के स्थान पर केवल 'एस. एल. एस.' ही लिख देते हैं। विदेशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों में इसका अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है, लेकिन अनेक स्वदेशी और छोटी कम्पनियों के उत्पादों में यह रसायन प्रयोग नहीं किया जाता है।
विश्व के विकसित देशों में दवाओं की तरह सभी तरह के सौन्दर्य प्रसाधनों के डिब्बों पर यह लिखना आवश्यक है कि उस उत्पाद को बनाने के लिए किन-किन रसायनों का उपयोग किया गया है। भारत में दवाओं के निर्माण में तो उपयोग किय गये पदार्थों का नाम डिब्बे पर लिखना कानूनी तौर पर अनिवार्य कर दिया गया है, लेकिन सौंदर्य प्रसाधनों के उत्पादों पर अनिवार्य रूप से ऐसा नहीं लिखा जा रहा है। इस कारण आम उपभोक्ताओं के लिए सौन्दर्यप्रसाधनों के निर्माण में प्रयुक्त पदार्थों को जानना भी कठिन है। इसलिए उपभोक्ता संगठनों ने इस बारे में आवाज उठानी शुरू कर दी है।
अमेरिका के पेन्सिलवानिया विश्वाविद्यालय में स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत माईकेल हेल ने इस बारे में उपभोक्ताओं को चेताने का प्रयास शुरू किया है। उनका कहना है कि शैम्पू या टूथपेस्ट में खूब सारा झाग पैदा करने के लिए अनेक कम्पनियाँ सोडियम लॉरेल सल्फेट का इस्तेमाल करती हैं। यह रसायन बहुत सस्ता होता है और बहुत झाग पैदा करता है। इस रसायन का उपयोग गैरेज के फर्श साफ करने या कारखानों की गन्दगी साफ करने के लिए आमतौर पर किया जाता है। लेकिन उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए और अपने उत्पाद में खूब सारा झाग दिखाने के लिए अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इसका उपयोग करना शुरू कर दिया है।
माईकेल हेल ने बताया है कि यह बात साबित हो चुकी है कि सोडियम लॉरेल सल्फेट के दीर्घकालीन उपयोग से कैन्सर हो सकता है। उन्होंने अनेक घरों उपयोग किये जा रहे शैम्पुओं की जाँच की तो उनमें यह तत्त्व पाया गया। इस बारे में उन्होंने एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने पूछताछ की। श्री हेल के अनुसार उस कम्पनी के अधिकारियों ने इस बात को स्वीकार किया कि उन्हें यह पता है कि उनके शैम्पू में इस तरह के रसायन का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन झाग पैदा करने के लिए इससे अधिक प्रभावी एवं सस्ता और कोई रसायन अभी तक बाजार में उपलब्ध न होने के कारण इसका उपयोग जारी है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इन उत्पादों का भारत के समृद्ध परिवारों में बहुत शान के साथ उपयोग किया जाता है। लेकिन लगातार विज्ञापन के कारण अब इनका उपयोग भारत के मध्यम वर्ग में भी बढ़ रहा है। इसको देखते हुए अमेरिकी विश्विद्यालय के इस अधिकारी की उपरोक्त चेतावनी भारत के उपभोक्ताओं के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।
भारत के हर्बल प्रसाधन विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के विदेशी शैम्पू के स्थान पर हमारे देश में कृषि उत्पादों से बनने वाले शैम्पू कहीं ज्यादा उपयोगी और स्वास्थ्य के अनुकूल हैं। आँवला, शिकाकाई, रीठा जैसे पदार्थों का मिश्रण करके तो ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ भी बढ़िया शैम्पू स्वयं बना लेती हैं जिनके इस्तेमाल से उनके बाल स्वस्थ एवं सुन्दर रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में संचालित खादी ग्रामोद्योगों में सतरीठा या इसी तरह के नामों से बिकने वाले शैम्पू बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादों से कहीं बेहतर और उपयोगी होते हैं। इनकी दरें भी रसायनों से बनाने वाले शैम्पुओं के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती हैं। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लगातार विज्ञापन और यूरोप की तरफ देखने की गुलामी की आदत के कारण, भारतीय महिलाएँ भी उनके इस तरह के कैन्सर पैदा करने वाले उत्पादों का उपयोग करके रोगों का शिकार बन रही हैं।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 31
जब
वीर सावरकर ने
'कालापानी' में
प्रखर चिंतक, दूरदर्शी नेता एवं प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सावरकर ने भारत की वोट बटोरू राजनीति को देखकर आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व ही उन खतरों को बता दिया था जिनसे आज भारतवर्ष त्रस्त है।
वीर सावरकर भारत के प्रथम राजनेता थे जिन्होंने भारत-विभाजन एंव भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का कड़ा विरोध किया था परंतु इसके बदले में तथा कथित महान लोगों द्वारा उन्हें साम्प्रदायिक घोषित किया गया।
सन् 1912 में सावरकर ने देखा कि एक पठान वार्डन ने एक मद्रासी कैदी की चोटी पकड़कर उसे गाली दी तो वे उसके इन नीचता पूर्ण कार्य को सहन न कर सके और पठान वार्डन को उसकी करनी का मजा चखा दिया।
अंडमान में एक ओर अंग्रेज अधिकारी हिन्दू कैदियों को ईसाई बनने पर मजबूर करते थे तो दूसरी ओर पठान वार्डन मुसलमान बनाने के लिए उनका उत्पीड़न करते थे। कई लोग उनकी क्रूरता से बचने से लिए अपना धर्म परिवर्तित कर लेते थे।
एक दिन पठानों ने जौनपुर निवासी मुल्लू यादव को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया। सावरकर को जैसे ही इस घटना का पता लगा वे बेचैन हो उठे। वे कहते थेः "धर्म-परिवर्तन का स्पष्ट अर्थ राष्ट्रनिष्ठा में परिवर्तन होता है।" अतः उन्होंने हिन्दू कैदियों के साथ होने वाले इस अत्याचार के विरूद्ध एक आन्दोलन छेड़ने की योजना बनाती। उन्होंने हिन्दू कैदियों को एकत्र कर इसके लिये तैयार किया तथा सिक्ख भाइयों को उनके दस गुरूओं की धर्मनिष्ठा याद दिलायी और इस अत्याचार को रोकने की पूरी योजना बना ली।
जिस समय मुल्लू यादव को मुसलमान बनाने की विधि हो रही थी, उसी समय सभी हिन्दू वीरों ने वहाँ पर धावा बोलकर उसे उनके चंगुल से छुड़ा लिया। इतने में मुल्लू ने भी स्वीकार कर लिया कि पठानों ने मुसलमान बनाने के लिए उस पर अत्याचार किये, जिनसे त्रस्त होकर उसने समर्पण कर दिया।
सभी पठानों को धूल चटाने के बाद सावरकर-मण्डली ने धर्मान्तरित हिन्दुओं की शुद्धि पर उन्हें पुनः स्वधर्म में लाने का अभियान चलाया और इसमें वे सफल भी हुए। भाई परमानंद जी जैसे आर्य समाजी कैदियों ने शुद्धिकरण के इस अभियान में उनका भरपूर साथ दिया।
'कालापानी' के हिन्दुओं में आयी इस जागृति के कारण अब अंग्रेजों तथा पठानों ने चुपचाप बैठने में ही अपनी खैर समझी।
इस प्रकार लम्बे समय से जारी उत्पीड़न का यह सिलसिला वीर सावरकर की धर्मनिष्ठा एवं अन्य धर्मवीरों के सहयोग से समाप्त हो गया।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पीनियल ग्रन्थी से आशय मानव शरीर में निहित एक ग्रन्थी विशेष से है। यह ग्रन्थि भ्रूमध्य में अवस्थित होती है। यह अत्यंत छोटी किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थि है। वस्तुतः लाखों वर्ष पूर्व मानव मस्तिष्क के विकास में इस ग्रन्थि की अति सक्रिय भूमिका रही है। अतः उस समय लोगों की शारीरिक और आध्यात्मिक क्षमता कहीं अधिक थी, भावनाओं पर अधिक नियंत्रण था, किन्तु समय के क्रम से यह ग्रन्थि-ह्रास को प्राप्त हुई। आज अवशेषी यह एक लघु ग्रन्थि है और यदि हम इसकी सुरक्षा के समुचित प्रबंध नहीं कर सके तो कुछ हजार वर्षों से यह पूर्णतः नष्ट हो जायेगी।
योग में इस ग्रन्थि का सम्बन्ध आज्ञाचक्र से है। रहस्य वादियों और तान्त्रिकों ने इसे तृतिय नेत्र माना है तथा दर्शनशास्त्री इसे परा मन कहते हैं। यह पीनियल ग्रन्थि बच्चों में बहुत क्रियाशील होती है किन्तु आठ से दस वर्ष की अवस्था प्राप्त होते-होते उत्तरोत्तर निष्क्रिय होने लगती है और बड़े लोगों में तो अत्यल्प शेष रह जाती है या जीवन में इसका कार्य ही नहीं रह जाता।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है क्योंके योग में यह ग्रन्थि मस्तिष्क को नियंत्रित एवं व्यवस्थित रखने वाला केन्द्र है। जिस प्रकार हवाई अड्डे पर नियंत्रक टावर होता है उसी प्रकार यह पीनियल ग्रन्थि मानव मस्तिष्क का निर्देशक नियंत्रक एवं व्यवस्थापक टावर है। योग में इसे आज्ञाचक्र कहते हैं। 'आज्ञा' शब्द अपने आप में नियंत्रण एवं आदेश पालन के अर्थ को व्यक्त करता है। जब पीनियल ग्रन्थि का ह्रास आरंभ होता है तो पीयूष ग्रन्थि सक्रिय हो जाती है। इससे मनोभाव तीव्र हो जाते हैं यही कारण है जिससे कई बच्चे भावनात्मक रूपसे असंतुलित हो जाते हैं और किशोरावस्था में या किशोरावस्था प्राप्त होते ही व्याकुल हो जाते हैं एवं न करने जैसे काम कर बैठते हैं। इसका मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर संतुलित प्रभाव होता है जो सम्पूर्ण मस्तिष्क को ग्रहणशील स्थिति में रखता है। जिन बच्चों में यह ग्रन्थि नियंत्रित और सुरक्षित होती है वे बच्चे कहीं ज्यादा ग्रहणशील पाये जाते हैं अपेक्षाकृत उन बच्चों से जिनकी यह ग्रन्थि ज्यादा दिन क्रियाशील नहीं रह पाती।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि एड्रिनल ग्रन्थि बच्चों के नैतिक आचरण में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अधिकांशतः अपराधी मनोवृत्तिवाले बच्चों की एड्रिनल ग्रन्थि आवश्यकता से अधिक क्रियाशील होती है। बच्चों की शिक्षा देने के क्रम में यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है।
एड्रिनल ग्रन्थि नियंत्रित रहे, आवेगों, आवेशों एवं अपराधों में मन न गिरे, इसलिए पीनियल ग्रन्थी (आज्ञाचक्र) का विकास अत्यंत आवश्यक है, हितकारी है एवं बच्चों के लिए सर्वोपरि सहायक केन्द्र है।
पीनियल ग्रन्थि के विकास की विधि 'विद्यार्थी तेजस्वी तालिम शिविर में बतायी जाती है, प्रयोग कराये जाते हैं। बालकों के हितैषियों को चाहिए कि उन्हें अथाह संपत्ति अधिकार की अपेक्षा अथाह समझ एवं अथाह आंतरिक सामर्थ्य देने वाले इस प्रयोग में उन्हें आगे बढ़ायें, प्रोत्साहित करें। इससे विद्यार्थियों का मंगल होगा, जीवन के जिस क्षेत्र में होंगे अच्छी तरक्की कर पायेंगे। आवेगों, आवेशों और नकारात्मक विचारों से बचेंगे। सफलताएँ उनके चरण चूमेंगी। कभी-कभार विफलता आ भी गई तो वे समता के सिंहासन पर अचल रहेंगे।
यदि देशवासी इस सामर्थ्यदायी तीसरे नेत्र का लाभ उठाने की कला सीखलें तो भारत हँसते-खेलते फिर से विश्वगुरू बन जायेगा।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सत्र 32
रक्षाबंधन का पर्व भाई और बहन के प्रेम को प्रकट करने का पर्व है। प्रेम में परवशता होती है। भगवान भी प्रेम के वश में होते हैं। भाई-बहन, शिष्य एवं गुरू आदि प्रेम के वश में होकर ही प्रेम की भावनाओं का सदुपयोग करते हैं तथा प्रेमास्पद तक पहुँचते हैं।
अपने व्यवहार में भी आप प्रेम भर दीजिए। प्रेम का आशय यहाँ फिल्मी दुनिया के प्रेम से नहीं है, क्योंकि वह तो मोह है। सच्चा प्रेम तो वह है जिसमें दिये बिना न रहा जाय जबकि मोह में तो लिये बिना नहीं रह जाता है। प्रेम में बहन भी भाई को कुछ-न-कुछ दिये बिना नहीं रहती तथा भाई भी अपनी बहन को कुछ-न-कुछ दिये बिना नहीं रहता।
हमारी भारतीय संस्कृति में त्याग की बड़ी महिमा है, जो देने में विश्वास रखती है, लेने में नहीं।
ॐ
ईशावास्मिदं
सर्वं
यत्किंच जगत्यां
जगत्।
तेन
त्यक्तेन
भुंजीथाः मा
गृधः
कस्यस्विद्धनम्।।
''यह सारा जगत ईश्वर की सत्ता से ओत-प्रोत है। इसमें त्याग से जियो। परिग्रह करके कब तक जियोगे ?"
भाई के पास कुछ है तो बहन के लिए त्याग करे। गरीब-से-गरीब बहन भी अपने भैया के लिए कुछ-न-कुछ शुभकामना तो कर ही लेती है। भाई-बहन, संत और साधक तथा गुरू और शिष्य के बीच की शुभकामनाएँ व भावनाएँ फलित करने के लिए यह पर्व मनाया जाता है।
अपने साधन की रक्षा के लिए आज हम भगवान और गुरू की कृपा को आमंत्रित करेंगे। ऐहिक वस्तुओं की रक्षा भले भाई लोग करें, परन्तु परम तत्त्व के मार्ग पर जाते हुए साधकों के साधन की रक्षा के लिए परम तत्त्व को पाये हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरूषों तथा सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा की कृपा तो अनिवार्य है।
भगवद् प्राप्ति की इच्छा दृढ़ होती जाये.... जीवनरूपी सूर्य अस्त होने से पूर्व ही हमारी मोक्ष की यात्रा पूरी हो जाय..... इस हेतु श्रीहरि से प्रार्थना करें कि इस रक्षाबंधन के पावन पर्व पर हमारी सत्यप्राप्ति की जिज्ञासा तथा सत्यस्वरूप हरि के अनुभव से उठी पवित्र वृत्तियों की रक्षा हो।
आज के पावन दिवस पर अपने परम पावन स्वरूप में विश्रांति पाने का संकल्प करते हुए श्रीहरि एवं ईश्वरप्राप्त संत को स्नेह करते हुए हम अपनी आध्यात्मिक साधना की सुरक्षा एवं अपने लक्ष्य 'ईश्वरप्राप्ति' के मार्ग में आने वाले प्रलोभनों से रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं- "हे मेरे सदगुरूदेव ! हे प्रभु !! हमारी रक्षा करना। संसार की तुच्छ वासनाओं, इच्छाओं में ही हमारा जीवन कहीं समाप्त न हो जाये, ऐसी कृपा करना।"
रक्षाबंधन का पर्व हमें सावधान करता है कि हे साधक ! तू विकारों से अपनी रक्षा चाहता है तो आज संकल्प कर। मोहमाया से रक्षा चाहता है तो संकल्प कर और उस अन्तर्यामी प्रभु व गुरूदेव से प्रार्थना कर किः
"हे मेरे सदगुरूदेव ! जब-जब दुनिया की उलझनों और आकर्षणों से मैं गिर जाऊँ, तब-तब आप मेरी रक्षा करना। हे व्यापक चैतन्य में रमण करने वाले आत्मवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता गुरूदेव ! हम आपको धागे की राखी नहीं, परन्तु श्रद्धा तथा प्रार्थना की राखी भेज रहे हैं कि जब-जब संसार में उलझ जायें तब-तब आप हमारे अन्तर-प्रदेश को परमात्मा की ओर, अपनी ज्ञाननिष्ठा की ओर, अपनी प्रेमाभक्ति व हरिभक्ति की ओर आकर्षित करना, आनंदित करना।"
सदगुरू को राखी का धागा बाँधने के बावजूद भी अगर तुम्हारे जीवन में संयम नहीं, संकल्प की दृढ़ता नहीं, प्रेम की शुद्धि नहीं तो तुमने रक्षाबंधन के महत्त्व को ठीक से जाना ही नहीं। असावधान मनुष्य भारी-भारी राखियाँ बाँधने के बावजूद भी अगर तुम्हारे जीवन में संयम नहीं, संकल्प की दृढ़ता नहीं, प्रेम की शुद्धि नहीं तो तुमने रक्षाबंधन के महत्त्व को ठीक से जाना ही नहीं। असावधान मनुष्य भारी-भारी राखियाँ बाँधने के बाद भी फिललता रहता है। साधन-भजन करके जिन्होंने अपना संयम बढ़ाया है उनकी छोटी-सी राखी तो क्या, मात्र उनके शुभ भाव का छोटा सा धागा भी अपने सदगुरू के आध्यात्मिक कृपा-प्रसाद को आत्मसात् करने में सक्षम बना देता है।
संकल्पों में अथाह शक्ति होती है। शरीर और मन की रक्षा करने के लिए संकल्प करने का नाम है रक्षाबंधन। जिन वस्तुओं से हमारा, हमारे शरीर तथा मन का पतन होता है, उन वस्तुओं अथवा व्यवहार को सदा के लिए त्यागने के संकल्प करने का दिन है रक्षाबंधन। संकल्पों को साकार करने के लिए ही ऋषियों ने ए एक छोटा-सा धागा ढूँढ लिया। इस छोटे से धागे को कर्मावती ने हुमायूँ के पास भेजा तो वह मुसलमान राजा भी उसके शुभ संकल्प से बँध गया। संकल्प को सिद्ध करने के लिए ही तुम सूर्यनारायण को अर्घ्य देते हो। सूर्यनारायण को पानी पहुँचता होगा या नहीं....... यह प्रश्न नहीं है, परन्तु तुम्हारे संकल्प को साकार करने के लिए पानी का लोटा एक साधन है। ऐसे ही राखी भी संकल्प साकार करने में निमित्त बनती है।
रक्षाबंधन के दिन संकल्प करना चाहिए कि मेरी मनःशक्ति कहीं इधर-उधर न बिखर जाय, कुसंस्कार मुझ पर कहीं कब्जा न जमा लें क्योंकि सच्चरित्रता का बल धन, सत्ता और सौन्दर्य के बल से बहुत बड़ा होता है।
रक्षाबंधन के शुभ दिवस पर कोई ऐसी गाँठ बाँध लो, नियम ले लो कि प्रतिदिन कम-से-कम ग्यारह माला तो करेंगे ही.... महीने-पन्द्रह दिन में कम-से-कम एक-दो दिन मौन रहेंगे, एकांत रहेंगे, बारह महीने में एक सप्ताह 'मौन-मंदिर में रहकर तपस्या करेंगे.... ऐसी कुछ गाँठ बाँध लो, अपना काम बन जायेगा..... बेड़ा पार हो जायेगा।
कोई बहन नहीं चाहती कि 'मेरा भाई दीन-हीन या दुर्बल व्यक्ति की नाई संसार में घसीटा जाय' अपितु चाहती है कि 'मेरा भैया बल, बुद्धि, ऐश्वर्य, ज्ञान से सम्पन्न हो।' ऐसी शुभ भावना से उसके ललाट पर तिलक करती है, मानो उसे त्रिलोचन बनाती है, शिवनेत्र खोलने की शुभकामना करती है, दीर्घायु, बुद्धिमान, वीर्यवान्, ज्ञानवान होने का शुभ भाव बरसाती है और अपने हाथों से तिलक करती है, राखी बाँधती है। रक्षाबंधन....... 'मेरे भैया की रक्षा हो और जिस सत्य, ज्ञान, प्रकाश से मानव में देवत्व जागता है, ऐसा दिव्य ज्ञानप्रकाशरूप शिवनेत्र प्रगट हो मेरे भैया का। आयुष्यवान्, बलवान् तो हो, ऐहिक ज्ञान के साथ आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से भी मेरा भैया संपन्न हो। भुक्ति-मुक्ति (भोग-मोक्ष) मिले मेरे स्नेहपात्र सहोदर भैया को....' ऐसा स्नेह-प्रसाद से प्रफुल्लित होकर उसकी रक्षा करना एवं उसके जीवन में आने वाली कठिनाइयों में उसकी सहायता करना अपना कर्त्तव्य मानता है...... और केवल अपनी सहोदर बहन तो क्या, अड़ोस-पड़ोस की बहनों के प्रति भी कहीं मन में विकार की आँधी आती है तो यह रक्षाबंधन का दिवस और राखी का यह कच्चा धागा पक्का संयम और उत्तम समझ देने में सहायक होता है। अड़ोस-पड़ोस के भाई-बहन यौवन के विकारी आवेगों से बचने के लिए भी एक-दूसरे को राखी के इस पवित्र बंधन में बाँधकर विकारों के वेगों से अपनी रक्षा कर लेते हैं। कैसी है भारत के ऋषियों की दूरदृष्टि !
कुन्ताजी ने अभिमन्यु को राखी बाँधी थी, लक्ष्मी जी ने राजा बलि को, कर्मावती ने हूमायूँ को राखी भेजी थी। हुमायूँ भाई-बहन के इस पवित्र भाव से बँधकर भक्षक भाव को छोड़ रक्षक बन गया था। छोटे एवं पतले इस सूत के धागे ने कई सपूतों को सुरक्षा करने का संकल्प लें।
यौवन केअन्धे विकारों से बचाकर यह पवित्र धागा सन्मार्ग की ओर ले जाता है। संयम, साहस, सदाचार और परस्पर भलाई की भावना से भरे इस सुन्दर उत्सव को श्रावणी पूर्णिमा, रक्षाबंधन और नारियली पूर्णिमा भी कहते हैं। समुद्री नाविक इस दिन समुद्रदेव को अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हुए नारियल अर्पण करते हैं। बहादुर समुद्री नाविक अपनी उँगली का एक बूँद रक्त अर्पण कर सागर देव से प्रार्थना करते हैं किः "तेरे विशाल जलराशि में हम अपना काम-काज करके सुरक्षित जियें।' ब्राह्मण लोग इस पूर्णिमा को अपना जनेऊ बदलते हैं, सप्त ऋषियों को याद करते हैं, उनके आत्मज्ञान, समता और परम सुख देने वाले परमात्म-ज्ञान की यात्रा में दृढ़ होने का संकल्प करते हैं।
हम भी इस
पर्व का पूर्ण
लाभ उठाएँ और
किये हुए शुभ
संकल्प पर
अडिग रहें। ॐ.....ॐ.....
दृढ़ता ! ॐ......ॐ......
पवित्रता !
ॐ....ॐ.....
पुरूषार्थ !
ॐ.....ॐ......
प्रभुप्रीति !
ॐ
शान्ति..... ॐ
शान्ति...... ॐ
शान्ति...... ॐ
आनंद......
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अच्छी और तीव्र स्मरणशक्ति के लिए हमें मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ, सबल और नीरोग रहना होगा। जैसे आप हँसना और गाल फुलाना दोनों एक साथ नहीं कर सकते, वैसे ही आप मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ और सशक्त हुए बिना अपनी स्मृति को भी अच्छी और तीव्र बनाये नहीं रख सकते।
आप यह बात ठीक से याद रखें कि हमारी यादशक्ति हमारे ध्यान पर और मन की एकाग्रता पर निर्भर करती है। हम जिस तरफ जितनी ज्यादा एकाग्रतापूर्वक ध्यान देंगे, उस तरफ हमारी विचारशक्ति उतनी ज्यादा केन्द्रित हो जायगी। इस कार्य में जितनी अधिक तीव्रता, स्थिरता और शक्ति लगाई जायेगी, उतनी गहराई और मजबूती से वह वस्तु हमारे स्मृति-पटल पर अंकित हो जायगी।
स्मृति को बनाये रखना ही स्मरणशक्ति है और इसके लिए जरूरी है सुने हुए व पढ़े हुए विषयों की बार-बार आवृत्ति करना, अभ्यास करना। जो बातें लम्बे समय तक हमारे ध्यान में नहीं आतीं, उन्हें हम भूल जाते हैं और जो बातें हमारे ध्यान में बराबर आती रहती हैं, उनकी याद बनी रहती है। विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अपने पाठ्यक्रम (कोर्स) की किताबों को पूरे मनोयोग से एकाग्रचित्त होकर पढ़ा करें और बारंबार नियमित रूप से दोहराते भी रहें। फालतू सोच-विचार करने से, चिन्ता करने से, ज्यादा बोलने से, फालतू बातें करने से, झूठ बोलने से या बहानेबाजी करने से तथा व्यर्थ के कामों में उलझे रहने से स्मरणशक्ति नष्ट होती है।
अच्छी स्मरणशक्ति के लिए मानसिक स्वास्थ्य के साथ शरीर का भी स्वस्थ और बलवान होना जरूरी होता है।
एक घरेलु प्रयोगः शंखावली (शंखपुष्पी) का पंचांग कूट-पीसकर, छानकर, महीन चूर्ण करके शीशी में भर लें। रात में सोते समय बादाम की 2 गिरी और 5-5 ग्राम चारों मगज (तरबूज, खरबूज, पतली ककड़ी और मोटी खीरा ककड़ी) के बीज, 2 पिस्ता, 1 छुहारा, 4 इलायची(छोटी), 5 ग्राम सौंफ, 1 चम्मच मक्खन और एक गिलास दूध लें।
विधिः रात में बादाम, पिस्ता, छुहारा और चारों मगज 1 कप पानी में डालकर रख दें। प्रातः काल बादाम का छिलका हटाकर दो-चार बूँद पानी के साथ पत्थर पर घिस लें और उस लेप को कटोरी में ले लें। फिर पिस्ता, इलायची के दाने व छुहारे को बारीक काट-पीसकर उसे मिला लें।चारों मगज भी उसमें ऐसे ही डाल लें। अब इनको अच्छी तरह मिलाकर खूब चबा-चबाकर खा जायें। उसके बाद 3 ग्राम शंखावली का महीन चूर्ण मक्खन में मिलाकर चाट लें और ऊपर से एक गिलास कुनकुना मीठा दूध 1-1 घूँट करके पी लें। अंत में, थोड़ा सौंफ मुँह में डालकर धीरे-धीरे 15-20 मिनट तक चबाते रहें और उसका रस चूसते रहें। चूसने के बाद उस निगल जाएँ।
लाभः यह प्रयोग दिमागी ताकत, तरावट और स्मरणशक्ति बढ़ाने के लिए बेजोड़ है। साथ-ही-साथ यह शरीर में शक्ति व स्फूर्ति पैदा करता है। लगातार 40 दिन तक प्रतिदिन सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर खाली पेट इसका सेवन करके चमत्कारिक लाभ देख सकते हैं। दो घण्टे बाद भोजन करें। उपरोक्त सभी द्रव्य पंसारी या कच्ची दवा बेचने वाली दुकान से इकट्ठे ले आएँ और 15-20 मिनट का समय देकर प्रतिदिन तैयार करें। इस प्रयोग को आप 40 दिन से भी ज्यादा, जब तक चाहें सेवन कर सकते हैं।
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बुद्धि कहीं बाजार में बिकने या मिलने वाली चीज नहीं है, बल्कि अभ्यास से प्राप्त करने की और बढ़ाई जाने वाली चीज है। इसलिए आपको भरपूर अभ्यास करके बुद्धि और ज्ञान बढ़ाने में जुटे रहना होगा।
विद्या, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च किया जाय उतना ही ये बढ़ते जाते हैं जबकि धन या अन्य पदार्थ खर्च करने पर घटते जाते हैं। इसका मतलब यही है कि हम विद्या की प्राप्ति और बुद्धि के विकास के लिए जितना प्रयत्न करेंगे, अभ्यास करेंगे, उतना ही हमारा ज्ञान और बौद्धिक बल बढ़ता जायगा।
सतत अभ्यास और परिश्रम करने के लिए यह भी जरूरी है कि आपका दिमाग और शरीर स्वस्थ और ताकतवर भी रहे। यदि अल्प श्रम में ही थक जाएँगे तो पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा समय तक मन नहीं लगेगा।
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एक गाजर और पात गोभी के लगभग 50-60 ग्राम अर्थात् 10-12 पत्ते काटकर प्लेट में रख लें। इस पर हरा धनिया काट कर डाल लें। फिर उसमें सेंधा नमक, कालीमिर्च का पाउडर और नींबू का रस मिलाकर खूब चबा-चबाकर नाश्ते के रूप में खाया करें।
भोजन के साथ एक गिलास छाछ भी पिया करें।
रात को 9 बजे के बाद पढ़ाई के लिए जागरण करें तो आधे-आधे घण्टे के अंतर पर आधा गिलास ठण्डा पानी पीते रहें। इससे जागरण के कारण होने वाला वात-प्रकोप नहीं होगा। वैसे 11 बजे से पहले ही सो जाना ठीक होता है।
लेटकर या झुके हुए बैठकर न पढ़ा करें। रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बैठें। इससे आलस्य या निद्रा का असर नहीं होगा और स्फूर्ति बनी रहेगी। सुस्ती महसूस हो तो थोड़ी चहलकदमी कर लिया करें। नींद भगाने के लिये चाय या सिगरेट का सेवन न करें।
टी.वी. प ज्यादा कार्यक्रम न देखा करें क्योंकि एक तो इससे समय नष्ट होता है और दूसरे, आँखें खराब होती हैं। टी.वी. पर कोई बहुत ही ज्ञानवर्धक कार्यक्रम हो तभी देखा करें। फालतू कार्यक्रम देखकर अपने समय, अपनी पढ़ाई लिखाई और अपनी आँखों का सत्यानाश न करें।
यदि विद्यार्थीगण इन नियमों पर सच्चाई से अमल करेंगे तो उनकी दिमागी शक्ति खूब बढ़ेगी। इससे वे खूब अच्छी पढ़ाई कर सकेंगे। परिणामस्वरूप आगामी परीक्षाओं में खूब अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हो सकेंगे। इसी तरह भावी जीवन की परीक्षाओं में भी सफल होते रहेंगे।
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सत्र 33
चित्त की विश्रांति से सामर्थ्य का प्रागट्य होता है। सामर्थ्य क्या है ? बिना व्यक्ति, बिना वस्तु के भी सुखी रहना – ये बड़ा सामर्थ्य है। अपना हृदय वस्तुओं के बिना, व्यक्तियों के बिना परम सुख का अनुभव करें – यह स्वतंत्र सुख माधुर्य बढ़ाने वाला है।
श्रीकृष्ण के जीवन में सामर्थ्य है, माधुर्य है, प्रेम है। जितना सामर्थ्य उतना ही अधिक माधुर्य, उतना ही अधिक शुद्ध प्रेम है श्रीकृष्ण के पास।
पैसों से प्रेम करोगे तो लोभी बनायेगा, पद से प्रेम करोगे तो अहंकारी बनायेगा, परिवाक से प्रेम करोगे तो मोही बनायेगा लेकिन प्राणिमात्र के प्रति समभाववाला प्रेम रहेगा, शुद्ध प्रेम रहेगा तो वह परमात्मा का दीदार करवा देगा।
प्रेम सब कर सकते हैं। शांत सब रह सकते हैं और माधुर्य सब पा सकते हैं। जितना शांत रहने का अभ्यास होगा उतना ही माधुर्य विकसित होता है, जितना माधुर्य विकसित होगा उतना ही शुद्ध प्रेम विकसित होता है और ऐसे प्रेमीभक्त को किसी चीज की कमी नहीं रहती। प्रेमी सबका हो जाता है, सब प्रेमी के हो जाते हैं। पशु भी प्रेम से वश हो जाते हैं, मनुष्य भी प्रेम से वश हो जाते हैं और भगवान भी प्रेम से वश हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण जेल में जन्में हैं। वे आनन्दकंद सच्चिदानंद जेल में प्रगटे हैं। आनंद जेल में प्रगट तो हो सकता है लेकिन आनंद का विस्तार जेल में नहीं हो सकता। जब तक यशोदा के घर नहीं जाता, आनंद प्रेममय नहीं हो पाता। योगी समाधि करते हैं एकांत में, जेल जैसी जगह में आनंद प्रगट तो होता है लेकिन समाधि टूटी तो आनंद गया. आनंद प्रेम से बढ़ता है, माधुर्य से विकसित होता है।
प्रेम किसी का अहित नहीं करता। जो स्तनों में जहर लगाकर आयी उस पूतना को भी श्रीकृष्ण ने स्वधाम पहुँचा दिया। पूतना कौन थी ? पूतना कोई साधारण नहीं थी। पूर्वकाल में राजा बलि की बेटी थी, राजकन्या थी। भगवान वामन आये तो उनका रूप सौन्दर्य देखकर उस राजकन्या को हुआ किः 'मेरी सगायी हो गयी है। मुझे ऐसा बेटा हो तो मैं गले लगाऊँ और उसको दूध पिलाऊँ।' लेकिन जब नन्हा-मुन्हा वामन विराट हो गया और बलिराजा का सर्वस्व छीन लिया तो उसने सोचा किः 'मैं इसको दूध पिलाऊँ ? इसको तो जहर पिलाऊँ, जहर।'
वही राजकन्या पूतना हुई। दूध भी पिलाया और जहर भी। उसे भी भगवान ने अपना स्वधाम दे दिया। प्रेमास्पद जो ठहरे.....!
प्रेम कभी फरियाद नहीं करता, उलाहना देता है। गोपियाँ उलाहना देती हैं यशोदा कोः
"यशोदा ! हम तुम्हारा गाँव छोड़कर जा रही हैं।"
"क्यों ?"
"तुम्हारा कन्हैया हमारी मटकी फोड़ देता है।"
"एक के बदले दस-दस मटकियाँ ले लो।"
"ऊँ हूँ..... तुम्हारा ही लाला है क्या ! हमारा नहीं है क्या ? मटकी फोड़ी तो क्या हुआ ?"
"अभी तो फरियाद कर रही थी, गाँव छोड़ने की बात कर रही थी ?"
"वह तो ऐसे ही कर दी। तुम्हारा लाला कहाँ है ? दिखा दो तो जरा।"
उलाहना देने के बहाने भी दीदार करने आयी हैं, गोपियाँ प्रेम में परेशानी नहीं, झंझट नहीं केवल त्याग होता है, सेवा होती है। प्रेम की दुनिया ही निराली है।
प्रेम
न खेतों उपजे, प्रेम न हाट
बिकाय।
राजा
चहौं प्रजा
चहौं शीश दिये
ले जाय।।
प्रेम खेत में पैदा नहीं होता, बाजार में भी नहीं मिलता। जो प्रेम चाहे वह अपना शीश, अपना अभिमान दे दे ईश्वर के चरणों में, गुरूचरणों में.....
एक बार यशोदा मैया मटकी फोड़नेवाले लाला के पीछे पड़ी किः "कभी प्रभावती, कभी कोई, कभी कोई....रोज-रोज तेरी फरियाद सुनकर मैं तो थक गयी। तू खड़ा रह।"
यशोदा ने उठाई लकड़ी। यशोदा के हाथ में लकड़ी देखकर श्रीकृष्ण भागे। श्रीकृष्ण आगे, यशोदा पीछे.... श्रीकृष्ण ऐसी चाल चलते कि माँ को तकलीफ भी न हो और माँ वापस भी न जाये ! थोड़ा दौड़ते, थोड़ा रूकते। ऐसा करते-करते देखा किः "अब माँ थक गयी है और माँ हार जाये तो उसको आनंद नहीं आयेगा।' प्रेमदाता श्रीकृष्ण ने अपने को पकड़वा दिया। पकड़वा लिया तो माँ रस्सी लायी बाँधने के लिए। रस्सी है माया, मायातीत श्रीकृष्ण को कैसे बाँधे ? हर बार रस्सी छोटी पड़ जाये। थोड़ी देर के बाद देखा किः "माँ कहीं निराश न हो जाये तो प्रेम के वशीभूत मायातीत भी बँध गये।" माँ बाँधकर चली गयी और इधर ओखली को घसीटते-घसीटते ये तो पहुँचे यमलार्जुन (नल-कुबर) का उद्धार करने..... नल-कूबर को श्राप से मुक्ति दिलाने.... धड़ाकधूम वृक्ष गिरे, नल-कूबर प्रणाम करके चले गये..... अपने को बँधवाया भी तो किसी पर करूणा करने हेतु, बाकी उस मायातीत को कौन बाँधे ?
एक बार किसी गोपी ने कहाः "देख, तू ऐसा मत कर। माँ ने ओखली से बाँधा तो रस्सी छोटी पड़ गयी लेकिन मेरी रस्सी देख। चार-चार गायें बँध सकें इतनी बड़ी रस्सी है। तुझे तो ऐसा बाँधूगी कि तू भी याद रखेगा, हाँ।"
कृष्णः "अच्छा बाँध।"
वह गोपी कोमल-कोमल हाथों में रस्सी बाँधना है, यह सोचकर धीरे-धीरे बाँधने लगी।
कृष्णः "तुझे रस्सी बाँधना आता ही नहीं है।"
गोपीः "मेरे बाप ! कैसे रस्सी बाँधी जाती है।"
कृष्णः "ला, मैं तुझे बताता हूँ।" ऐसा करके गोपी के दोनों हाथ पीछे करके रस्सी से बाँधकर फिर खंभे से बाँध दिया और दूर जाकर बोलेः
"ले ले, बाँधने वाली खुद बँध गयी..... तू मुझे बाँधने आयी थी लेकिन तू ही बँध गयी।
ऐसे ही माया जीव को बाँधने आये उसकी जगह जीव ही माया को बाँध दे मैं यही सिखाने आया हूँ।"
कैसा रहा होगा वह नटखटिया ! कैसा रहा होगा उसका दिव्य प्रेम ! अपनी एक-एक लीला से जीव की उन्नति का संदेश देता है वह प्रेमस्वरूप परमात्मा !
आनंद प्रगट तो हो जाता है जेल में लेकिन बढ़ता है यशोदा के यहाँ, प्रेम से।
यशोदा विश्रांति करती है तो शक्ति आती है ऐसे ही चित्त की विश्रांति सामर्थ्य को जन्म देती है लेकिन शक्ति जब कंस के यहाँ जाती है तो हाथ में से छटक जाती है, ऐसे ही सामर्थ्य अहंकारी के पास आता है तो छटक जाता है। जैसे, शक्ति अहंकार रहित के पास टिकती है ऐसे ही प्रेम भी निरभिमानी के पास ही टिकता है।
प्रेम में कोई चाह नहीं होती। एक बार देवताओं के राजा इन्द्र प्रसन्न हो गये एवं श्रीकृष्ण से बोलेः "कुछ माँग लो।"
श्रीकृष्णः "अगर आप कुछ देना ही चाहते हैं तो यही दीजिए कि मेरा अर्जुन के प्रति प्रेम बढ़ता रहे।"
अर्जुन अहोभाव से भर गया किः "मेरे लिए मेरे स्वामी ने क्या माँगा ?"
प्रेम में अपनत्व होता है, निःस्वार्थता होती है, विश्वास होता है, विनम्रता होती है और त्याग होता है। सच पूछो तो प्रेम ही परमात्मा है और ऐसे परम प्रेमस्वरूप, परम प्रेमास्पद श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव ही है – जन्माष्टमी।
आप सबके जीवन में भी उस परम प्रेमास्पद के लिए दिव्य प्रेम निरंतर बढ़ता रहे। आप उसी में खोये रहें उसी के होते रहें ॐ माधुर्य.... ॐ शान्ति.... मधुमय माधुर्यदाता, प्रेमावतार, नित्य नवीन रस, नवीन सूझबूझ देने वाली गीता, जो प्रेमावतार का हृदय है – गीता मे हृदयं पार्थ। "गीता मेरा हृदय है।"
प्रेमावतार श्रीकृष्ण के हृदय को समझने के लिए गीता ही तो है। आप हम प्रतिदिन गीता ज्ञान में परमेश्वरीय प्रेम में खोते जायँ, उसमय होते जाएं... खोते जाएँ... होते जाएँ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यह घटना सतयुग की है।
एक बार हमारे देश में अकाल पड़ा। वर्षा के अभाव के कारण अन्न पैदा नहीं हुआ। पशुओं के लिए चारा नहीं रहा। दूसरे वर्ष भी वर्षा नहीं हुई। दिनों दिन देश की हालत खराब होती चली गई। सूर्य की प्रखर किरणों के प्रभाव से पृथ्वी का जल-स्तर बहुत नीचे चला गया। फलतः धरती के ऊपरी सतह की नमी गायब हो गयी। नदी-तालाब सब सूख गये। वृक्ष भी सूखने लगे। मनुष्यों और पशुओं में हाहाकार मच गया।
अकाल की अवधि बढ़ती गयी। एक वर्ष नहीं, दो वर्ष नहीं, पूरे बारह वर्षों तक बारिश की एक बूँद भी धरती पर नहीं गिरी। लोग त्राहि माम्-त्राहि माम् पुकारने लगे। कहीं अन्न नहीं, कहीं जल नहीं। वर्षा और शीत ऋतुएँ नहीं। सर्वत्र सदा एक ही ग्रीष्म ऋतु प्रवर्त्तमान रही। धरती से उड़ती हुई धूल और तपती तेज लू में पशु-पक्षी ही नहीं, न जाने कितने मनुष्य काल-कवलित हो गये, कोई गिनती नहीं। भूखामरी के कारण माताओं के स्तनों में दूध सूख गया। अतः दूध न मिलने के कारण कितने ही नवजात शिशु मृत्यु की गोद में सदा के लिए सो गये। इस प्रकार पूरे देश में नर-कंकालों एवं अन्य जीव-जन्तुओं की हड्डियों का ढेर लग गया। एक मुट्ठी अन्न कोई किसी को कहाँ से देता ? परिस्थिति दिनों दिन बिगड़ती ही चली गयी। अन्न जल के लाले पड़ गये।
इस दौरान् किसी ने कहा कि नरमेध यज्ञ किया जाय तो वर्षा हो सकती है। यह बात अधिकांश लोगों को जँच गयी।
अतः एक निश्चित तिथि और निश्चित स्थान पर एक विशाल जनसमूह एकत्र हुआ। पर सभी मौन थे। सभी के सिर झुके हुए थे। प्राण सबको प्यारे होते हैं। जबरदस्ती किसी को भी बलि नहीं दी जा सकती थी क्योंकि यज्ञों का नियम ही ऐसा था।
इतने में अचानक सभा का मौन टूटा। सबने दृष्टि उठायी तो देखा कि एक बारह वर्ष का अत्यन्त सुन्दर बालक सभा के बीच में खड़ा है। उसके अंग-प्रत्यंग कोमल दिखाई दे रहे थे। उसने कहाः
"उपस्थित महानुभावों ! असंख्य प्राणियों की रक्षा एवं देश को संकट की स्थिति से उबारने के लिए मैं अपनी बलि देने को सहर्ष प्रस्तुत हूँ। ये प्राण देश के हैं और देश के काम आ जायें, इससे अधिक सदुपयोग इनका और क्या हो सकता है ? इसी बहाने विश्वात्मरूप प्रभु की सेवा इस नश्वर काया के बलिदान से हो जायेगी।"
"बेटा शतमन्यु ! तू धन्य है ! तूने पूर्वजों को अमर कर दिया।" ऐसा उदघोष करते हुए एक व्यक्ति ने दौड़कर उसे अपने हृदय से लगा लिया।
वह व्यक्ति कोई और नहीं वरन् स्वयं उसके पिता थे। शतमन्यु की माता भी वहीं पर उपस्थित थीं। वे भी शतमन्यु के पास आ गईं। उनकी आँखों से झर-झर करके अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। माँ ने शतमन्यु को अपनी छाती से इस प्रकार लगा लिया जैसे उसे कभी नहीं छोड़ेंगी।
नियत समय पर यज्ञ-समारोह यथाविधि शुरू हुआ। शतमन्यु को अनेक तीर्थों के पवित्र जल से स्नान कराकर नये वस्त्राभूषण पहनाये गये। शरीर पर सुगन्धित चंदन का लेप लगाया गया। उसे पुष्पमालाओं से अलंकृत किया गया।
इसके बाद बालक शतमन्यु यज्ञ मण्डप में आया। यज्ञ स्तम्भ के समीप खड़ा होकर वह देवराज इन्द्र का स्मरण करने लगा। यज्ञ मण्डप एकदम शांत था। बालक शतमन्यु सिर झुकाये हुए अपने-आपका बलिदान देने को तैयार खड़ा था। एकत्रित जनसमूह मौन होकर उधर एकटक देख रहा था। उसी क्षण शून्य में विचित्र बाजे बज उठे। शतमन्यु पर पारिजात पुरूषों की दृष्टि होने लगी। अचानक मेघगर्जना के साथ वज्रधारी इन्द्र प्रकट हो गये। सब लोग आँखें फाड़-फाड़कर आश्चर्य के साथ इस दृश्य को देख रहे थे।
शतमन्यु के मस्तक पर अत्यन्त स्नेह से हाथ फेरते हुए सुरपति बोलेः "वत्स ! तेरी देशभक्ति और जनकल्याण की भावना से मैं संतुष्ट हूँ। जिस देश के बालक अपने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने के लिए हमेशा उद्यत रहते हैं, उस देश का कभी पतन नहीं हो सकता। तेरे त्यागभाव से संतुष्ट होने के कारण तेरी बलि के बिना ही मैं यज्ञ फल प्रदान कर दूँगा।" इतना कहकर इन्द्र अन्तर्ध्यान हो गये।
दूसरे ही दिन इतनी घनघोर वर्षा हुई कि धरती पर सर्वत्र जल-ही-जल दिखने लगा। परिणामस्वरूप पूरे देश में अन्न जल, फल-फूल का प्राचूर्य हो गया। देश के लिए प्राण अर्पित करने वाले शतमन्यु के त्याग, तप एवं जनकल्याण की भावना ने सर्वत्र खुशियाँ ही खुशियाँ बिखेर दीं। सबके हृदय में आनंद के हिलोरे उठने लगे।
धन्य है भारतभूमि ! धन्य हैं भारत के शतमन्यु जैसे लाल ! जो देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को भी तैयार रहते हैं।
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सत्र 34
सत्संग-प्रसंग पर एक जिज्ञासु ने पूज्य बापू से प्रश्न कियाः "स्वामी जी ! कृपा करके बतायें कि हमें अभ्यास में रूचि का क्यों नहीं होती ?"
पूज्य स्वामी जीः "बाबा ! अभ्यास में तब मजा आयेगा जब उसकी जरूरत महसूस करोगे।
एक बार एक सियार (गीदड़) को खूब प्यास लगी। प्यास से व्याकुल होकर दौड़ता-दौड़ता वह एक नदी के किनारे गया और जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। सियार की पानी पीने की इतनी तड़प देखकर नदी में रहने वाली एक मछली ने उससे पूछाः "सियार मामा ! तुम्हें पानी से इतना सारा मजा क्यों आता है ? मुझे तो पानी में इतना मजा नहीं आता।"
सियार ने जवाब दियाः "मुझे पानी से इतना मजा क्यों आता है यह तुझे जानना है ?" मछली ने कहाः "हाँ मामा !"
सियार ने तुरन्त ही मछली को गले से पकड़कर तपते हुए बालू पर फेंक दिया। मछली बेचारी पानी के बिना बहुत छटपटाने लगी, खूब परेशान हो गई और मृत्यु के एकदम निकट आ गयी। तब सियार ने उसे पुनः पानी में डाल दिया। फिर मछली से पूछाः "क्यों ? अब तुझे पानी में मजा आने के कारण समझ में आया ?"
मछलीः "हाँ, अब मुझे पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। इसके सिवाय मेरा जीना असम्भव है।"
इस प्रकार मछली की तरह जब तुम भी अभ्यास की जरूरत महसूस करोगे तब तुम अभ्यास के बिना रह नहीं सकोगे। रात-दिन उसी में लगे रहोगे।
एक बार गुरू नानकदेव से उनकी माता ने पूछाः
"बेटा ! रात दिन क्या बोलता रहता है ?"
नानकजी ने कहाः "माता जी ! आखां जीवां विसरे जाय। रात दिन जब मैं अकाल पुरूष के नाम का स्मरण करता हूँ तभी तो जीवित रह सकता हूँ। यदि नहीं जपूँ तो मेरा जीना मुश्किल है। यह सब प्रभुनाम स्मरण की कृपा है।"
इस प्रकार सत्पुरूष अपने साधनाकाल में प्रभुनाम स्मरण के अभ्यास की आवश्यकता का अनुभव करके उसके रंग में रँगे रहते हैं।"
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चाकलेट का नाम सुनते ही बच्चों में गुदगुदी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बच्चों को खुश करने का एक प्रचलित साधन है चाकलेट। बच्चों में ही नहीं, वरन् किशोरों तथा युवा वर्ग में भी चाकलेट ने अपना विशेष स्थान बना रखा है। पिछले कुछ समय से टॉफियों तथा चाकलेटों का निर्माण करने वाली अनेक कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों में आपत्तिजनक अखाद्य पदार्थ मिलाये जाने की खबरें सामने आ रही हैं। कई कंपनियों के उत्पादों में तो हानिकर रसायनों के साथ-साथ गायों की चर्बी मिलाने तक की बात का रहस्योदघाटन हुआ है।
गुजरात के समाचार पत्र 'गुजरात समाचार' में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, 'नेस्ले यू.के. लिमिटेड' द्वारा निर्मित 'किटकेट' नामक चाकलेट में कोमल बछड़ों के 'रेनेट' (मांस) का उपयोग किया जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 'किटकेट' बच्चों में खूब लोकप्रिय है। अधिकतर शाकाहारी परिवारों में भी इसे खाया जाता है। नेस्ले यू.के.लिमिटेड की न्यूट्रिशन आफिसर श्रीमति वाल एन्डर्सन ने अपने एक पत्र में बताया किः 'किटकेट के निर्माण में कोमल बछड़ों के रेनेट का उपयोग किया जाता है। फलतः किटकेट शाकाहारियों के खाने योग्य नहीं है।" इस पत्र को अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका 'यंग जैन्स' में प्रकाशित किया गया था। सावधान रहो ऐसी कंपनियों के कुचक्रों से ! टेलिविजन पर अपने उत्पादों को शुद्ध दूध पीने वाले अनेक कोमल बछड़ों के मांस की प्रचुर मात्रा अवश्य होती है। हमारे धन को अपने देशों में ले जाने वाली ऐसी अनेक विदेशी कंपनियाँ हमारे सिद्धान्तों तथा परम्पराओं को तोड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। व्यापार तथा उदारीकरण की आड़ में भारतवासियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
सन् 1857 में अंग्रेजों ने कारतूसों में गायों की चर्बी का प्रयोग करके सनातन संस्कृति को खण्डित करने की साजिश की थी परन्तु मंगल पाण्डेय जैसे वीरों ने अपनी जान पर खेलकर उनकी इस चाल को असफल कर दिया। अभी फिर यह नेस्ले कम्पनी चालें चल रही है। अभी मंगल पाण्डेय जैसे वीरों की जरूरत है। ऐसे वीरों क आगे आना चाहिए। देश को खण्ड-खण्ड करने के मलिन मुरादेवालों और हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों को सबक सिखाना चाहिए। लेखकों, पत्रकारों, प्रचारकों को उनका डटकर विरोध करना चाहिए। देव संस्कृति, भारतीय समाज की सेवा में सज्जनों को साहसी बनना चाहिए। इस ओर सरकार का भी ध्यान खिंचवाना चाहिए।
ऐसे हानिकारक उत्पादों के उपभोग को बंद करके ही हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं। इसलिए हमारी संस्कृति को तोड़ने वाली ऐसी कम्पनियों के उत्पादों के बहिष्कार का संकल्प लेकर आज और अभी से भारतीय संस्कृति की रक्षा में हम सबको कंधे से कंधा मिलाकर आगे आना चाहिए।
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सामान्यतः यह देखा जाता है कि जैसे-जैसे परीक्षाएँ नजदीक आने लगती हैं वैसे-वैसे ही विद्यार्थी चिन्तिव व तनावग्रस्त हो जाते हैं लेकिन विद्यार्थियों को कभी भी चिन्तिन नहीं होना चाहिए। अपनी मेहनत व भगवत्कृपा पर पूर्ण विश्वास रखकर प्रसन्नचित्त से परीक्षा की तैयारी करनी चाहिए। सफलता अवश्य मिलेगी ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। नीचे लिखे गये बिन्दुओं को अवश्य ध्यान में रखें-
विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों को अपने अध्ययन के साथ-साथ नियमित जप-ध्यान का अभ्यास करना चाहिए तथा परीक्षाओं में तो दृढ़ आत्मविश्वास के साथ सतर्कता से करना चाहिए।
परीक्षाओं के दिनों में प्रसन्नचित्त होकर पढ़ें, न कि चिन्ता करते-करते।
5-7 तुलसी के पत्ते खाकर एक गिलास पानी रोज सुबह खाली पेट पीने से यादशक्ति बढ़ती है।
सूर्यदेव को मंत्रसहित अर्घ्य देने से यादशक्ति बढ़ती है।
पेपर शुरू करने से पूर्व विद्यार्थी को अपने इष्टदेव, भगवान या गुरू का स्मरण अवश्य कर लेना चाहिए।
सर्वप्रथम पूरे प्रश्नपत्र को एकाग्रचित्त होकर पढ़ना चाहिए।
फिर सबसे पहले सरल प्रश्नों के उत्तर देना चाहिए।
प्रश्नोत्तर सुंदर व स्पष्ट अक्षरों में देना चाहिए।
किसी प्रश्न का उत्तर न आये तो घबराना नहीं चाहिए, शांत चित्त से प्रभु से, गुरूदेव से प्रार्थना करें तो लाभ होगा।
देर रात तक न पढ़ें। सुबह जल्दी उठकर स्नान करके ध्यान करने के पश्चात् याद करेंगे तो जल्दी याद होगा।
सारस्वत्य मंत्र का नियमित जाप करने से यादशक्ति में चमत्कारिक लाभ होता है।
भ्रामरी प्राणायाम करना चाहिए। भ्रामरी प्राणायाम एवं सारस्वत्य मंत्र के लिए विद्यार्थियों को शिविर भरना चाहिए।
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सत्र 35
जहाँ दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा होती है, वहाँ प्रभु स्वयं साकार रूप धारण करके भोजन स्वीकार करें, इसमें क्या आश्चर्य !
गणपति के भक्त मोरया बापा, विट्ठल के भक्त तुकारामजी एवं श्रीरघुवीर के भक्त श्री समर्थ-तीनों आपस में मित्र संत थे। किसी भक्त ने हक की कमाई करके, चालीस दिन के लिए अखंड कीर्तन का आयोजन करवाया। पूर्णाहूति के समय दो हजार भक्त कीर्तन कर रहे थे। उन भक्तों के लिए बड़ी सात्त्विकता एवं पवित्रता से भोजन बना था।
किसी ने कहाः "श्री समर्थजी को श्री सियाराम साकार रूप में दर्शन देते हैं। तुकाराम जी महाराज की भक्ति से प्रसन्न होकर विट्ठल साकार रूप प्रगट कर लेते हैं। गणानां पतिः इति गणपतिः। इन्द्रियगण के जो स्वामी हैं, सच्चिदानंद आत्मेदव हैं। वे मोरया बापा की दृढ़ उपासना के बल से निर्गुण-निराकार होकर भी सगुण-साकार गणपति के रूप में प्रगट हो जाते हैं। ये तीनो महान संत हमारी सभा में विराजमान हैं। क्यों न हम उन्हें हृदयपूर्वक प्रार्थना करें कि वे अपने-अपने इष्टदेव का आवाहन करके, उन्हें भोजन-प्रसाद करवायें, बाद मे हम सब प्रसाद ग्रहण करें ?"
सबने सहमति प्रदान कर दी। तब उन्होंने श्री समर्थ से प्रार्थना की। श्री समर्थ ने मुस्कुराते हुए तुकोबा की तरफ नजर फेंकी और कहाः "यदि तुकोबा विट्ठल को बुलायें तो मैं सियाराम का आवाहन करने का प्रयत्न करूँगा।"
तुकारामजी मंद-मंद मुस्कुराते एवं विनम्रता का परिचय देते हुए बोलेः "अगर समर्थ की आज्ञा है तो मैं जरूर विट्ठल को आमंत्रित करूँगा लेकिन मैं श्री समर्थ से यह प्रार्थना करता हूँ कि वे श्री सियाराम के दर्शन करवाने की कृपा करें।"
फिर दोनों संतों ने मीठी नजर डाली मोरया बापा पर और बोलेः
"बापा ! अगर विघ्नविनाशक श्री गजानन नहीं आयेंगे तो हमारा काम कैसे चलेगा ? आपकी उपासना से श्री गजानन संतुष्ट हैं अतः आप उनका आवाहन करियेगा।"
मोरया बापा भी मुस्करा पड़े।
उदयपुर के पास नाथद्वारा है। वहाँ वल्लभाचार्य के दृढ़ संकल्प और प्रेम के बल से भगवान श्रीनाथजी ने उनके हाथ से दूध का कटोरा लेकर पिया था। श्री रामकृष्ण परमहंस के हाथों से माँ काली भोजन का स्वीकार कर लेती थीं। धन्ना जाट के लिए भगवान ने सिलबट्टे से प्रगट होकर उसका रूखा-सूखा भोजन भी बड़े प्रेम से स्वीकार लिया था।
श्री समर्थ रामदास ने आसन लगाये। तुकाराम जी एवं मोरया बापा ने सम्मति दी और तीनों संत आभ्यांतर-बाह्य शुचि करके अपने-अपने इष्टदेव का आवाहन करने लगे।
श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते हैं- "जब तुम्हारा हृदय और शब्द एक होते हैं तो प्रार्थना फलित होती है।"
तीनों अपने अपने इष्टदेव का आवाहन कर ही रहे थे कि इतने में देखते ही देखते एक प्रकाशपुंज धरती की ओर आने लगा। उस प्रकाशपुंज में सियाराम की छबि दिखने लगी और वे आसन पर विराजमान हुए। फिर विट्ठल भी पधारे तथा गणपति दादा भी पधारे एवं अपने-अपने आसन पर विराजमान हुए।
दो हजार भक्तों ने अपने चर्मचक्षुओं से उन साकार विग्रहों के दर्शन किये एवं उन्हें प्रसाद पाते देखा। उनके प्रसाद पाने के बाद ही सब लोगों ने प्रसाद लिया।
इस घटना को महाराष्ट्र के लाखों लोग जानते-मानते हैं। कैसी दिव्य महिमा है संतों महापुरूषों की ! कितना बल है दृढ़ विश्वास में !
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गणेष चतुर्थी..... एक पावन पर्व.... विघ्नहर्ता प्रभु गणेष के पूजन-आराधन का पर्व...
गणों का जो स्वामी है – उसे गणपति कहते हैं।
कथा आती है कि माँ पार्वती ने अपने योगबल से बालक प्रगट किया और उसे आज्ञा दी किः "मेरी आज्ञा के बिना कोई भी भीतर प्रवेश न करे।"
इतने में शिवजी आये, तब बालक ने प्रवेश के लिए मना किया। शिवजी और वह बालक दोनों भिड़ पड़े और शिवजी ने त्रिशूल से बालक का शिरोच्छेद कर दिया। बाद में माँ पार्वती से सारी हकीकत जानकर उन्होंने अपने गणों से कहाः "जाओ, जिसका भी मस्तक मिले ले आओ।"
गण ले आये हाथी का मस्तक और शिवजी ने उसे बालक के सिर पर स्थापित कर दिया और उसे जीवित कर दिया – वही बालक भगवान 'गणपति' कहलाये।
यहाँ पर एक शंका हो सकती है कि बालक के धड़ पर हाथी का मस्तक कैसे स्थित हुआ होगा ?
इसका समाधान यह है कि देवताओं की आकृति भले मानुषी हो लेकिन उनकी काया मानुषी काया से विशाल होती है।
अभी रूस के कुछ वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया कि एक कुत्ते के सिर को काटकर, दो कुत्तों का सिर लगा दिया। वह दोनों मुखों से खाता है और जीवित है। रूस के वैज्ञानिक आज ऑपरेशन द्वारा कुत्ते के ऊपर दूसरे कुत्ते का सिर लगाकर प्रयोग कर सकते हैं। इससे भी लाखों-करोड़ों वर्ष पहले शिवजी के संकल्प द्वारा बालक के धड़ पर गज का मस्तक स्थित हो जाय – इसमें शंका नहीं करनी चाहिए। आज का विज्ञान शल्य क्रिया द्वारा कुत्ते के एक सिर की जगह दो सिर लगाने में सफल हो सकता है। शिवजी के संकल्प, योग व सामर्थ्य समाज को आश्चर्य, कूतुहल और जिज्ञासा जगाकर सद्प्रेरणा देना चाहते हैं। इस समय भी कुछ ऐसे महापुरूष हैं जो चाँदी की अंगूठी हाथ में लेकर स्वर्णमयी बना देते हैं। लोहे के कड़े को अपने यौगिक सामर्थ्य से स्वर्ण बना दिया। उनके प्रति ईर्ष्या रखने वाले भले उन्हें जादूगर कह दें। स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस जैसे महापुरूष के इससे भी अदभुत यौगिक प्रयोग पं. गोपीनाथ कविराज ने देखे।
छोटी मति-गति के लोग श्री गणपति जी के लिए कुछ भी कह दें और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अश्रद्धा पैदा कर दें परन्तु सच्चे, समझदार, अष्टसिद्धि व नवनिधि के स्वामी, इन्द्रियजित, व्यासजी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर 18000 श्लोकों वाली श्रीमद् भागवत के लेखक लोक मांगल्य के मूर्त स्वरूप श्री गणपति जी के विषय में विष्णु भगवान ने बोला हैः
न
पार्वत्याः
परा साध्वी न
गणेशात्परो
वशी.....
'पार्वती जी से बढ़कर कोई साध्वी नहीं और गणेश जी से बढ़कर कोई संयमी नहीं।'
(ब्रह्मवैवर्त गण. स्वं. 44.75)
भगवान ने तो उपदेश के द्वारा हमारा कल्याण करते हैं जबकि गणपति भगवान तो अपने श्रीविग्रह से भी हमें प्रेरणा देते हैं और हमारा कल्याण करते हैं।
हाथी की सूँड लम्बी होती है – जिसका तात्पर्य है कि समाज में जो बड़ा हो या कुटुम्बादि में जो बड़ा हो उसे दूर की गँध आनी चाहिए।
हाथी की आँखें छोटी-छोटी होती हैं किन्तु सुई जैसी बारीक चीज भी उठा लेता है, वैसे ही समाज आदि के आगेवान की, मुखिया की सूक्ष्म दृष्टि होनी चाहिए।
हाथी के कान सूपे जैसे होते हैं जो इस बात की ओर इंगित करते हैं किः "समाज के 'गणपति' अगुआ के कान भी सूपे की तरह होनी चाहिए जो बातें तो भले कई सुने किन्तु उसमें से सार-सार उसी तरह ग्रहण कर ले, जिस तरह सूपे से धान-धान बच जाती है और कचरा-कचरा उड़ जाता है।"
गणपति जी के दो दाँत हैं – एक बड़ा और एक छोटा। बड़ा दाँत दृढ़ श्रद्धा का और छोटा दाँत विवेक का प्रतीक है। अगर मनुष्य के पास दृढ़ श्रद्धा हो और विवेक की थोड़ी कमी हो, तब भी श्रद्धा के बल से वह तर जाता है।
गणपति के हाथ में मोदक और दण्ड है अर्थात् जो साधन-भजन करके उन्नत होते हैं, उन्हें वे मधुर प्रसाद देते हैं और जो वक्रदृष्टि रखते हैं, उन्हें वक्रदृष्टि दिखाकर दण्ड से उनका अनुशासन करके, उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।
गणपति जी का पेट बड़ा है – वे लम्बोदर हैं। उनका बड़ा पेट यह प्रेरणा देता है किः 'जो कुटुम्ब-समाज का बड़ा है उसका पेट बड़ा होना चाहिए ताकि इस-उसकी बात सुन तो ले किन्तु जहाँ-तहाँ उसे कहे नहीं। अपने पेट में ही उसे समा ले।'
गणेशजी के पैर छोटे हैं जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि धीरा सो गंभीरा, उतावला सो बावला। कोई भी कार्य उतावलेपन से नहीं, बल्कि सोच-विचारकर करें, ताकि विफल न हों।
गणपति जी का वाहन है – चूहा। इतने बड़े गणपति और वाहन चूहा ! हाँ, माता पार्वती का सिंह जिस किसी से हार नहीं सकता, शिवजी का बैल नंदी भी जिस-किसी के घर नहीं जा सकता, लेकिन चूहा तो हर जगह घुसकर भेद ला सकता है इस तरह क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणी चूहे तक को भगवान गणपति ने सेवा सौंपी है। छोटे-से-छोटे व्यक्ति से भी बड़े-बड़े काम हो सकते हैं क्योंकि छोटा व्यक्ति कहीं भी जाकर वहाँ की गँध ले आ सकता है।
इस प्रकार गणपति जी का श्रीविग्रह समाज के, कुटुम्ब के गणपति अर्थात् मुखिया के लिए प्रेरणा देता है किः 'जो भी कुटुम्ब का, समाज का अगुआ है, नेता है उसे गणपति की तरह लम्बोदर बनना चाहिए, उसकी दृष्टि सूक्ष्म होनी चाहिए, कान विशाल होने चाहिए और गणपति की नाईं वह अपनी इन्द्रियों पर (गणों पर) अनुशासन कर सके।'
कोई भी शुभ कर्म हो – चाहे विवाह हो या गृह-प्रवेश, चाहे विद्यारंभ हो, चाहे भूमिपूजन, चाहे शिव की पूजा हो चाहे नारायण की पूजा – किन्तु सबसे पहले गणेशजी का पूजन जरूरी है।
गणेश चतुर्थी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से भगवान गणपति का व्रत-उपवास करवाया था ताकि युद्ध में सफलता मिल सके।
गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणपति का पूजन तो विशेष फलदायी है, किन्तु उस दिन चाँद का दर्शन कलंक लगानेवाला होता है, क्यों ?
पुराणों में कथा आती है किः
एक बार गणपतित कहीं जा रहे थे तो उनके लम्बोदर को देखकर चाँद के अधिष्ठाता चंद्रदेव हँस पड़े। उन्हें हँसते देखकर गणेशजी ने श्राप दिया किः "दिखते तो सुन्दर हो, किन्तु आज के दिन तुम मेरे कलंक लगाते हो। अतः आज के दिन जो तुम्हारा दर्शन करेगा उसे कलंक लग जायेगा।'
यह सच्चाई आज भी प्रत्यक्ष दिखती है। विश्वास न हो गणेश-चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन करके देख लेना। भगवान श्रीकृष्ण तक को गणेश-चतुर्थी के दिन चंद्रमा के दर्शन करने पर 'स्यमंतकमणि की चोरी' का कलंक सहना पड़ा था। बलराम जी को भी श्रीकृष्ण पर संदेह हो गया था। सर्वेश्वर, लोकेश्वर श्रीकृष्ण पर भी जब चौथ के चाँद-दर्शन करने पर कलंक लग सकता है तो साधारण मानव की तो बात ही क्या ?
किन्तु यदि भूल से भी चतुर्थी का चंद्रमा दिख जाये तो श्रीमद् भागवत में 'श्रीकृष्ण की स्यमंतकमणि चोरी के कलंकवाली जो कथा आयी है उसका आदरपूर्वक श्रवण अथवा पठन करने से एवं तृतिया तथा पंचमी का चंद्रमा देखने से उस कलंक का प्रभाव दूर होता है। जहाँ तक हो सके भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी दिनांक 22.8.2009 को चंद्रमा न दिखे, इसकी सावधानी रखें।
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सत्र 36
जमशेदपुर (बिहार) में आयोजित सत्संग समारोह में पूज्य बापू ने जन्मदिवस मनाने की पाश्चात्य पद्धति को गलत बताया और उसके स्थान पर भारतीय संस्कृति के अनुसार जन्मदिवस मनाने की विधि को विस्तारपूर्वक समझाते हुए कहाः "लोग 'केक' बनवाते हैं, उस पर मोमबत्तियाँ जलाते हैं और फिर फूँक मारकर उन्हें बुझाते हैं।
जो लोग विज्ञान पढ़े हैं वे लोग जानते होंगे कि पानी का प्याला एक बार होठों पर लगाने से उसमें लाखों कीटाणु पाये गये। जब सिर्फ एक बार मुँह से लगाने पर प्याले में लाखों की संख्या में कीटाणु जा सकते हैं तब मोमबत्तियाँ बुझाने के लिए बार-बार फूँक मारने से उस 'केक' में कितने कीटाणु चले जाते होंगे।
दूसरी बात यह कि आप दीप बुझाकर प्रकाश से अंधकार की ओर जाने की भूल करते हैं। मनुष्यता से पशुता की ओर जा रहे हैं। फूँकना, थूकना और अंधेरा करके पाश्चात्य भोगवादियों का अनुसरण करते हुए जन्मदिवस मनाना भारतवासियों के लिए शर्म की बात है।
जन्मदिन मनाना हो तो खूब प्रेम से मनाओ परन्तु ऋषि-मुनियों की भाँति आधिभौतिक का आध्यात्मिकीकरण करो।
यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है – पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इन पाँचों भूतों के अलग-अलग रंग हैं – पृथ्वी का पीला, जल का सफेद, अग्नि का लाल, वायु का हरा और आकाश का नीला। इन पाँचों रंगों से चावलों को रँग लो और उनसे एक 'स्वस्तिक' बना लो। जिसका जन्मदिवस मना रहे हो वह जितने वर्ष का हो चुका है उतने दीये जलाओ। मानो, आपके 30 वर्ष पूरे हो गये और 31वाँ प्रारम्भ हो रहा है तो आपके स्नेही 30 दीये जलाकर उस स्वस्तिक के ऊपर रख दें। फिर स्वस्तिक के बीचों बीच जहाँ उसकी चारों भुजाएँ मिलती हैं वहाँ पर अन्य दीयों से बड़े आकारवाला 31वाँ दीया रखो। उस बड़े दीयेको उस व्यक्ति के द्वारा जलवाओ जो आपके कुटुम्ब में श्रेष्ठ हो, ऊँची समझवाला तथा भक्तिभाववाला हो।
इसके बाद जिसका जन्मदिन मना रहे हो उसके लिए सब मिलकर प्रार्थना करोः "पृथ्वी आपके लिए सुखद हो..... जल आपके लिए अनुकूल हो.... तेज आपके लिए अनुकूल हो.....वायु आपके लिये सुखद हो.... आकाश आपके लिए सुखद हो.... सभी मित्र व स्नेही सम्बन्धी आपके लिए सुखद हों....यहाँ तक कि सभी दिशाएँ व देवी-देवता आपके लिए सुखद व अनुकूल हों (पुत्र का जन्मदिवस है तो माता-पिता व स्नेही अनुकूल हों, पुत्रई का जन्म दिवस है तो पिता, भाई, बन्धु व स्नेही अनुकूल हों, पति का जन्मदिवस है तो पत्नी आपके अनुकूल हो, पत्नी का जन्मदिवस है तो पति व परिवार आपके अनुकूल हो।) सभी मित्रों का मित्र, स्नेहियों का स्नेही, सभी देवो का देव परमात्मदेव, आपके अन्तर में बैठे अन्तर्यामी देव आपको विशेष-विशेष सदबुद्धि दे, आपके भीतर विशेष-विशेष प्रकाश खिले। 30 वर्षों में जो प्रकास व सुख मिला उससे शुरू होने वाला ये 31वाँ वर्षों में जो प्रकाश व सुख मिला उससे शुरू होने वाला ये 31वाँ वर्ष आपके लिए विशेष प्रकार से सुखमय, ज्ञानमय हो। प्रभु की करूणा-वरूणा का दीप आपके दिल में जगमगाता रहे। सुख-शांति व आनंद बढ़ता रहे, निखरता रहे, बहता रहे। आपके दीर्घ जीवन का दीया जगमगाता रहे। हम सभी स्नेही आपके जन्मदिवस पर मधुर-मधुर बधाइयाँ देते हैं और प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि आप दीर्घायु हों, दृढ़ निश्चयी हों, शुभकर्त्ता हों, संयमी भोक्ता हों, परमात्मा के प्यारे हों, सबके दिल के दुलारे हों आदि-आदि बधाई हो, बधाई हो।"
जन्मदिवस पर भगवन्नाम कीर्तन, आरती, 'गीता' व 'श्रीरामचरितमानस' का पाठ आदि आयोजित कर सकते हैं। भगवान को भोग लगाकर प्रसाद बाँटना बड़ा लाभकारी है। फूँकने, थूकने व 'केक' काटने से बहुत बढ़िया रीति है भारत की उक्त पद्धति। क्यों ? त्यागोगे न फूँकना, थूकना और मनाओगे न सात्त्विक शुभकामनासहित जन्मदिवस। कृपया आप भी इसे करें व औरों को भी प्रेरित करें।
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"यदि हृदयरोग, कैन्सर, मधुमेह, रक्तचाप, अस्थमा तथा नपुंसकता जैसी बीमारियों से बचना हो अथवा उनकी असंभावना करनी हो तो आज से ही मांसाहार पूर्णरूप से बंद करके पूर्ण शाकाहारी बन जाइये।"
यह चेतावनी अमेरिका के 'फिजिशियन कमेटी फॉर रिस्पॉन्सिबल मेडिसन' के चेयरमैन डॉ. नील बर्नार्ड ने अमदावाद के 'एन. एच. एल. म्युनिसिप मेडिकल कॉलेज' में दी। जो भारतीय मांसाहार करते हैं उनके प्रति आश्चर्य व्यक्त करते हुए डॉ. बर्नार्ड ने कहाः "संसार के अत्यंत ठंडे देशों की जनता मौसम के अनुकूल होने की दृष्टि से मांसाहार का सेवन करती है परन्तु वह जनता भी अब जागृत होकर सम्पूर्ण रूप से शाकाहारी बन रही है। ऐसे में भारत जैसे गर्म देश की जनता मांसाहार किसलिए करती है, यह समझ में नहीं आता।
मांसाहार से शरीर में चर्बी की परतें जम जाती हैं और धीरे-धीरे रक्त की गाँठें बनने लगती हैं। रक्तसंचरण की क्रिया पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके फलस्वरूप अनेक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके अलावा प्राणियों के मांस में विद्यमान हानिकारक रासायनिक पदार्थ भी कैन्सर की संभावना बढ़ाते हैं। प्राणियों के मांस में कौन-कौन से जहरीले पदार्थ होते हैं, यह एक आम आदमी नहीं जानता। पूर्ण शाकाहारी एवं संतुलित आहार लेनेवाले व्यक्ति की तुलना में मांसाहारी व्यक्ति में हृदयरोग एवं कैन्सर की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है, यह प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है।
हृदय रोग का शिकार मांसाहारी मरीज भी यदि शाकाहारी बन जाय तो वह अपने हृदय को पुनः तन्दुरूस्त बना सकता है। प्राणियों की चर्बी और कोलस्टरोल मानव शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है। प्राणियों का मांस वास्तव में शरीर को धीरे-धीरे कब्रिस्तान में बदल देता है। यदि स्त्रियाँ मांसाहार अधिक करती हैं तो उनमें स्तन कैन्सर की संभावना बढ़ जाती है। मांसाहारियों की शाकाहारियों की अपेक्षा 'कोलोना कैन्सर' अधिक होता है।
अण्डे भी इस विषय में इतने ही हानिकारक हैं। प्रोस्टेट कैन्सर में मांसाहार एवं अण्डे कारणरूप साबित हो चुके हैं। अधिक चर्बीयुक्त पदार्थ शरीर में 'एस्ट्रोजन' की मात्रा बढ़ाते हैं। इससे यौन हार्मोन्स में गड़बड़ी होती है तथा स्तन एवं गर्भाशय के कैन्सर और नपुंसकता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।
शाकाहारी व्यक्तियों के रक्त में कैन्सर कोषों से लड़ने वाले प्राकृतिक कोषों एवं श्वेत रक्तकणों का उत्तम संयोजन होता है।
यदि पूर्ण मांसाहारी मनुष्य भी मात्र तीन सप्ताह तक के लिए शाकाहारी बन जाय तो उसका कोलेस्टरोल, रक्तचाप, हायपरटेंशन आदि काफी मात्रा में नियंत्रित हो सकता है।
मांसाहारी व्यक्ति के शरीर में कैल्शियम, ऑक्सेलेट एवं युरिक अम्ल अधिक मात्रा में पैदा होते हैं जिससे पथरी होने का खतरा बना रहता है। शरीर में कैल्शियम का होना जरूरी है परन्तु उसके लिए मांसाहार की आवश्यकता नहीं है। विटामिन बी-12 भी कंदमूल से बहुत अधिक मात्रा में मिल जाता है। इस संदर्भ में हजारों वर्ष पहले भारत का शुद्ध-सात्त्विक आहार आदर्श माना जा सकता है।"
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आधुनिक भाषा में जिसे कोलेस्टरोल कहते हैं, उसे नियंत्रित करने का सुगम उपाय यह है कि दालचीनी (तज) का पाउडर बना लें। एक से तीन ग्राम तक पाउडर पानी में उबालें। उबला हुआ पानी कुछ ठंडा होने पर उसमें शहद मिलाकर पीने से कोलेस्टरोल जादुई ढंग से नियंत्रित होने लगता है। एक माह तक यह प्रयोग करें। तज का पाउडर गर्म प्रकृति का होता है। इसका ज्यादा प्रयोग करने से शरीर में अधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। सर्दियों में यह प्रयोग बहुत ही लाभदायक है। अतः ठण्डी में इसकी मात्रा बढ़ा सकते हैं किन्तु गर्मी में कम कर देना चाहिए।
तज के पाउडर को दूध में लेना हो तो दूध उबालने के पहले उसमें उसे डाल लें। दूध के साथ शहद विरूद्ध आहार है, अतः हानिकारक है। डायबिटीजवाले उसमें मिश्री मिला सकते हैं अथवा उसे फीका भी पी सकते हैं। इससे धातु भी पुष्ट होती है तथा वीर्यक्षय को रोकने में मदद मिलती है।
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मांसाहार से होने वाले घातक परिणामों के विषय में सभी धर्मग्रन्थों में बताया गया है परन्तु आज के समाज का अधिकांश प्रत्येक पहलू को विज्ञान की दृष्टि से देखना पसन्द करता है। देखा जाय तो प्रायः सभी धर्म ग्रन्थों के प्रेरणास्रोत ऐसे महापुरूष रहे हैं जिन्होंने प्रकृति के रहस्यों को जानने में सफलता प्राप्त की थी तथा प्रकृति से भी आगे की यात्रा की थी। फलतः उनके प्रकृति से भी आगे के रहस्य को जानने वाला आज का विज्ञान भला कैसे झुठला सकता है, अर्थात् विज्ञान ने भी अपनी भाषा में शास्त्रों की उसी बात को दोहराया है।
मांसाहार पर हुए अनेक परीक्षणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने कहा है कि मांसाहार का अभिप्राय है गम्भीर बीमारियों को बुलावा देना। मांसाहार से कैन्सर, हृदय रोग, चर्म रोग, कुष्ठरोग, पथरी एवं गुर्दों से सम्बन्धित बीमारियाँ बिना बुलाये ही चली आती हैं।
व्यापारिक लाभ की दृष्टि से पशुओं का वजन बढ़ाने के लिए उन्हें अनेक रासायनिक मिश्रण खिलाये जाते हैं। इन्ही मिश्रणों में से एक का नाम है डेस(डायथिस्टिल-बेस्ट्राल)। इस मिश्रण को खाने वाले पशु के मांस के सेवन से गर्भवती महिला के आनेवाली संतान को कैन्सर हो सकता है। यदि कोई पुरूष इस प्रकार के मांस का भक्षण करता है तो उसमें 'स्त्रैणता' आ जाती है अर्थात् उसमें स्त्री के हारमोन्स अधिक विकसित होने लगते है तथा पुरूषत्व घटता जाता है।
मांस में पौष्टिकता के नाम पर यूरिक अम्ल होता है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. अलेक्जेण्डर के अनुसार यह अम्ल शरीर में जमा होकर गठिया, मूत्रविकार, रक्त विकार, फेफड़ों की रूग्णता, यक्षमा, अनिद्रा, हिस्टीरिया, एनिमीया, निमोनिया, गर्दन दर्द तथा यकृत की अनेक बीमारियों को जन्म देता है।
मांसाहार से शरीर में कोलेस्ट्रोल की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। यह कोलेस्ट्रोल धमनियों में जमा हो जाता है तथा उनको मोटा कर देता है जिससे रक्त के परिवहन में अवरोध पैदा होता है। धमनियों मे रक्त-परिवहन सुचारू तथा प्राकृतिक रूप से न होने के कारण हृदय पर घातक असर पड़ता है तथा दिल का दौरा, उच्च रक्तचाप आदि की संभावना शत-प्रतिशत बढ़ जाती है।
जापान के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर बेंज के अनुसार, 'बूचड़खानों में मृत्यु के झूले में झूलते तथा यातनायें सहते प्राणी के शरीर में दुःख, भय तथा क्रोध आदि आवेशों से युक्त हारमोन्स तीव्र गति से पैदा होते हैं। ये हारमोन्स कुछ ही क्षणों में रक्त घुल जाते हैं तथा मांस पर भी उनका नियमित प्रभाव पड़ता है। ये ही हारमोन्स जब मांस के माध्यम से मनुष्य के शरीर तथा रक्त में जाते हैं तो उसकी सुप्त तामसिक प्रवृत्तियों को उत्तेजित करने का कार्य बड़ी तेजी से करते हैं।"
डॉ. बेंज ने तो अपने अनेक प्रयोगों के आधार पर यहाँ तक कह दिया है कि, "मनुष्य में क्रोध, उद्दण्डता, आवेग, आवेश, अविवेक, अमानुषिकता, आपराधिक प्रवृत्ति तथा कामुकता जैसे दुष्टकर्मों को भड़काने में मांसाहार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण हाथ है।"
मांसाहार में प्रोटीन की व्यापकता की दुहाई देने वालों के लिए वैज्ञानिक कहते हैं कि, "मांसाहार से प्राप्त प्रोटीन समस्या नहीं, अपितु समस्याएँ की कतारें खड़ी कर देता है। इससे कैल्शियम के संचित कोष खाली हो जाते हैं तथा गुर्दों को बेवजह परिश्रम करना पड़ता है जिससे वे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।"
मांसाहार कब्ज का जनक है क्योंकि इसमें रेशे (फाइबर) की अनुपस्थिति होती है जिससे आँतों की सफाई नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त कत्लखाने में कई प्रकार की संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त पशुओं का भी कत्ल हो जाता है। ये रोग मांसाहारी के पेट में मुफ्त में पहुँच जाते हैं। आर्थिक दृष्टि से मांसाहार इतना मंहगा है कि एक मांसाहारी की खुराक में लगे पैसों से कई शाकाहारियों का पेट भरा जा सकता है।
इस प्रकार मांसाहार की हानियों को उजागर करने वाले सैंकड़ों तथ्य हैं। अस्तु मांसाहार कि विरोध तो आर्षदृष्टा ऋषियों ने, सन्तों-कथाकारों ने सत्संग में भी किया, वही विरोध अब विज्ञान के क्षेत्र में भी हुआ है। फिर भी आपको मांसाहार करना है, अपनी आनेवाली पीढ़ी को कैन्सर ग्रस्त करना है, अपने को बीमारियों का शिकार बनाना है तो आपकी मर्जी। अगर आपको अशान्त-खिन्न-तामसी होकर जल्दी मरना है, तो करिये मांसाहार, नहीं तो त्यागिये मांसाहार। गुटखा, पान-मसाला, शराब को त्यागिये भैया ! हिम्मत कीजिये.... अपनी सोई हुई सज्जनता जगाइये.... अपनी महानता में जागिये.....
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सेन फ्रांसिका स्थित कैलिफौर्निया विश्वविद्यालय के मेडिकल सेन्टर, माउण्ट जीओन में डॉ. सेलमायर द्वारा किये गये एक नवीन शोध के अनुसारः "पशुओं की चर्बी से मिलने वाले प्रोटीन का अस्थिक्षय एवं हड्डियाँ टूटने के रोगों से घनिष्ट संबंध है।"
अम्ल को क्षार में रूपान्तरित करने वाला रसायन (बेज़) सिर्फ फल एवं शाकाहार से ही प्राप्त होता है। मांसाहार से शरीर में अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। उसे क्षार में रूपान्तरित करने के लिए हड्डियों की मज्जा में स्थित बेज़ को काम में लाना पड़ता है, क्योंकि हड्डियाँ मज्जा एवं कैल्शियम से बनी होती हैं अतः मज्जा के क्षय होने से हड्डियाँ धीरे-धीरे गलने लगती हैं। इससे अस्थिक्षय की बीमारी उत्पन्न होती है अथवा छोटी-सी चोट लगने पर भी व्यक्ति की हड्डियाँ टूटने की समस्या पैदा हो जाती है।
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सत्र 37
आज के युग में विज्ञान ने जितनी उन्नति की है, उतनी ही हमारे जीवन की अधोगति भी हुई है। धन की लोलुपता एवं व्यापारिक साजिशों ने जनता के खाद्य-अखाद्य के विवेक को नष्ट कर दिया है।
टेलीविजन, रेडियो एवं अखबारों में अखाद्य वस्तुओं के दिखाये, सुनाये एवं प्रकाशित किये जाने वाले कपटपूर्ण तथा भड़कीले विज्ञापनों ने इन वस्तुओं से होने वाली हानियों पर पर्दा डाल दिया है, जिसके कारण इन अखाद्य वस्तुओं के उपयोग से हम अपने अमूल्य जीवन को बीमारियाँ का एक घर बना लेते हैं। ऐसा ही एक अखाद्य पदार्थ है 'अण्डा'। टी.वी. तथा रेडियो पर पुष्टिदायक बताये जाने वाले अण्डे में वास्तव पुष्टि के नाम पर बीमारियों का भण्डार छिपा है।
अण्डे का पीतक (पीला भाग) कोलेस्ट्रोल का सबसे बड़ा स्रोत है। कोलस्ट्रोल धमनियों को सिकोड़ देता है, जिससे उपयुक्त रक्त-संचार न होने के कारण लकवा तथा दिल का दौरा पड़ने जैसी बीमारियों का जन्म होता है।
अतिरिक्त कोलेस्ट्रोल चर्म की पर्तों तथा नसों में जमा हो जाता है, जिससे अण्डा खाने वाले को जेंथोमा नामक बीमारी हो सकती है। इतना ही नही, शरीर में कोलस्ट्रोल की मात्र अधिक हो जाने पर हायपर कोलेस्ट्रोलेमिया नामक बीमारी हो सकती है, जो कि आगे चलकर रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) का रूप ले लेती है।
1985 के नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीका के प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. माइकल एस. ब्राउन एवं डॉ. जोसेफ एल. गोल्डस्टीन ने हृदय रोग से बचने के लिए अण्डों का सेवन न करने की सलाह दी थी। डॉ. ब्राउन व गोल्डस्टीन के अनुसार अण्डे में कोलेस्ट्रोल की मात्रा अधिक होने के कारण इससे हार्ट अटैक (हृदय की गति का अचानक रूक जाना), जोड़ों में दर्द, चर्मरोग, स्ट्रोक तथा पित्ताशय व मूत्राशय में पथरी आदि के रोग उत्पन्न होते हैं।
अण्डे में सोडियम लवण की मात्रा अधिक होती है। एक अण्डा खाने से एक चम्मच नमक खाने के बराबर प्रभाव पड़ता है।
अण्डे में कार्बोहाईट्रेटल की अनुपस्थिति होती है। फलतः यह कब्ज तथा जोड़ों दर्द जैसी बीमारियों को पैदा कर सकता है।
पौल्ट्री फार्म की मुर्गियों को महामारी से बचाने के लिए डी.डी.टी. नामक जहरीली दवा का प्रयोग किया जाता है। यह जहर मुर्गियों द्वारा खाये जाने वाले चारे के साथ उनके पेट में चला जाता है।
मुर्गी के पेट में स्थित अण्डों में लगभग 15000 सूक्ष्म छिद्र होते हैं, जिनके द्वारा अण्डे की गर्मी, नमी एवं वायु प्राप्त होती है। इन्हीं छिद्रों के द्वारा गर्मी, नमी एवं वायु के साथ अण्डे डी.डी.टी. को भी सोख लेते हैं। ऐसे विषाक्त अण्डे खाने से व्यक्ति को असाध्य रोग हो जाते हैं तथा दर्दनाक मौत की कहानी उसके जीवन में जुड़ जाती है।
अण्डे में सेल्मोनेला एंटराडीस फेज टाइप-4 (पी.टी.) नामक बैक्टीरियम होता है। सन् 1988 में इंगलैंड तथा वेल्स में इसी बैक्टीरियम के कारण सोलह सौ अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इसी कारण ब्रिटिश सरकार को लगभग चालीस करोड़ अण्डों एवं चालीस लाख मुर्गियों को नष्ट करना पड़ा था इन नुक्सानों को ध्यान में रखते हुए हाँगकाँग में भी 10 मिलियन से अधिक मुर्गियों को रातों रात जला दिया गया था।
अण्डे में साल्मोनेला कीटाणु के साथ-साथ आँतों में भयंकर रोग उत्पन्न करने वाला कैम्पीलोबैक्टर भी पाया जाता है।
अण्डे का सफेद भाग अत्यधिक हानिकारक होता है, क्योंकि इसमें एवीडिन नामक विषैला तत्त्व पाया जाता है। इससे खुजली, दाद, एग्जिमा, एलर्जी, चर्मरोग, त्वचा का कैन्सर, लकवा, दमा तथा सफेद कोढ़ आदि भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं।
अण्डा मात्र 8 डिग्री सेल्सियस तापमान पर सड़ने लगता है। जब वह सड़ना प्रारम्भ करता है, तब सर्वप्रथम उसका जलीय कवच भाप बनकर उड़ने लगता है। तत्पश्चात उस पर रोगाणुओं का आक्रमण शुरू हो जाता है, जो कवच में अपनी जगह बनाकर उसे सड़ा देते हैं। इस प्रकार के रोगाणुयुक्त अण्डों के सेवन से हमारे पाचन-तंत्र में कभी भी किसी-भी प्रकार का सड़न उत्पन्न हो सकता है।
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कुछ लोगों में यह भ्रांति होती है कि अण्डा भी सब्जी ही है अथवा अण्डा वनस्पतियों से पौष्टिक होता है। यह भ्रम टेलिविजन तथा रेडियो के माध्यम से धन बटोरने वाली कंपनियों द्वारा पैदा किया हुआ है। अण्डे अपेक्षा वनस्पति एवं सब्जियाँ हमारे शरीर को अधिक पुष्टि प्रदान करती हैं।
एक अण्डे में 13.3 प्रतिशत प्रोटीन होता है, जबकि इतनी ही मात्रा की मूँगफली तथा हरे चने में प्रोटीन की मात्रा क्रमशः 43.2 तथा 31.5 प्रतिशत होती है।
एक अण्डे (50 ग्राम) से शरीर को 86.5 कैलौरी ऊर्जा प्राप्त होती है जबकि इतनी ही मात्रा के गेहूँ के आटे से 176.5 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है।
यदि धनिया और अण्डे की तुलना करें तो हम पायेंगे कि धनिया अण्डे से कई गुना अधिक पौष्टिक है। दो अण्डों (वजन 100 ग्राम) में 13.3 ग्राम प्रोटीन, 0.6 ग्राम कैल्शियम, .22 ग्राम फासफोरस एवं 2.1 ग्राम लोहा होता है। इतने अण्डे से कुल 173 कैलोरी ऊर्जा बनती है। अण्डे में कार्बोहाइड्रेटस अनुस्थित होते हैं। जबकि धनिया से 14.1 ग्राम प्रोटीन, 16.1 ग्राम वसा, 4.4 ग्राम खनिज लवण, 63 ग्राम कैल्शियम, .37 ग्राम फासफोरस, 17.9 ग्राम लोहा तथा 21.6 ग्राम कार्बोहाइड्रेटस प्राप्त होता है एवं 288 कैलोरी ऊर्जा बनती है।
अण्डे एवं मेथी की तुलना करने पर इस प्रकार का परिणाम प्राप्त होता है। 100 ग्राम अण्डे में प्रोटीन की मात्रा 13.3 ग्राम जबकि उतनी ही मेथी में प्रोटीन की मात्रा 26.2 ग्राम होती है। इस प्रकार दोनों के समान वजन से अण्डे द्वारा 173 कैलोरी ऊर्जा एवं मेथी द्वारा 333 कैलोरी ऊर्जा शरीर को मिलती है। इसके अतिरिक्त मेथी कोलेस्ट्रोल की सफाई करती है, जबकि अण्डा कोलेस्ट्रोल का समृद्ध स्रोत है।
इसी प्रकार मूँगफली में भी अण्डे की अपेक्षा अधिक पौष्टिक तत्त्व पाये जाते हैं।
दो अण्डे में 13.3 ग्राम जबकि इतनी ही मात्रा की मूँगफली में 31.4 ग्राम प्रोटीन होता है। 100 ग्राम अण्डे से मात्र 173 कैलोरी जबकि उतनी ही मूँगफली से 459 कैलोरी ऊर्जा मिलती है।
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हमारे शास्त्रों में कहा गया है यथा अन्न तथा मन। मन को इन्द्रियों का स्वामी भी कहते हैं। अतः इन्द्रियाँ जो ग्रहण करती हैं, उसका सीधा प्रभाव मन पर पड़ता है। जो शुद्ध आहार तथा आचार-विचार से व्यवहार करता है, उसका मन भी शुद्ध होता है। मन की शुद्धि से मनुष्य की बुद्धि भी कुशाग्र होती है।
शास्त्रों
में आया हैः मनः एव
मनुष्याणां
कारणं
बंधमोक्षयोः।
शुद्ध आहार एवं आचार-विचार से शुद्ध हुआ मन जीव को परमात्मा की ओर ले जाता है, जबकि अशुद्ध आहार से मलिन हुआ मन मनुष्य को विनाश की ओर ले जाता है।
अण्डा जहाँ पौष्टिकता की दृष्टि से उपयुक्त न होने के कारण शरीर में अनेक रोग उत्पन्न करता है, वहीं यह अनेक विकृत भावों से युक्त होने के कारण हमारे मन-बुद्धि पर भी कुप्रभाव डालता है।
पौल्ट्री फार्मों में एक छोटी सी जगह पर कई मुर्गियों को भर दिया जाता है। वे एक दूसरे से लड़कर लहूलुहान न हों, इसलिए उनकी चोंचे काट दी जाती हैं। इस घृणित कार्य के लिए रात का समय चुना जाता है। रात के समय भूरे प्रकाश में मुर्ग मुर्गियाँ जब लगभग अन्धे हो जाते हैं, तब उनकी चोंचें काट दी जाती हैं। यदि इस कार्य में चूक हो जाय तो ये बेजुबान प्राणी जीवनभर के आहार से वंचित हो जाते हैं। कई दिन तक तो उन्हें चोंच में हुए घाव के कारण भूखे ही रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में भी उन्हें दिन-रात अँधेरे में रखा जाता है।
जरा विचार कीजिए कि यह अंधकार अण्डे में से होकर उसे खाने वाले के खून में नहीं उतरेगा ? उजाले को तरसते इन बेसहारों के दिए हुए अण्डों को खाने से क्या हमारा जीवन प्रकाशमय हो पायेगा ?
प्रायः यह भी देखा गया है कि अण्डों का सेवन करनेवाला व्यक्ति कई बार अति संवेदनशील होकर बर्बर आदतों का शिकार हो जाता है।
मुर्गी पालन (पौल्ट्री फार्मों) में मुर्गी जैसे जीते-जागते प्राणी को अण्डा पैदा करने वाली मशीन से अधिक कभी नहीं समझा जाता है। छोटे से स्थान में उसे नाना प्रकार के संत्रासों तथा तनावों के बीच कैद करके रखा जाता है। अण्डा अथवा इन असहायों का मांस खाने वाले लोगों के रक्त में यही संत्रासयुक्त वातावरण पहुँचकर उनके जीवन में तनाव, चिंता, शोक, भय, निराशा तथा क्रोध जैसे दुर्गुण स्वाभाविक ही उत्पन्न कर देता है।
आजकल टी.वी. में संडे हो या मंडे, रोज खाओ अण्डे कहकर बच्चों को अण्डारूपी जानलेवा जहर खाने के लिए प्रेरित किया जाता है। किन्तु हॉप्किन्स इन्स्टीच्यूट ऑफ बाम्बे ने चेतावनी दी है कि किसी के लाख कहने पर भी बच्चों को अण्डे नहीं खिलाना चाहिए क्योंकि अण्डों के सेवन से बच्चों में खाँसी, नजला, जुकाम, दमा, पथरी, एलर्जी, आँतों में मवाद, हार्ट अटैक, उच्च रक्तचाप, हाजमा खराब तथा पाचनशक्ति का ह्रास होता है एवं उनकी स्मरणशक्ति कमजोर हो जाती है। अण्डों के सेवन से बच्चों को पीलिया रोग भी होता है।
इसलिए व्यक्तिमात्र ही नहीं, वरन् समस्त विश्व के कल्याण के लिए यही उचित होगा कि विकार पैदा करने वाले खाद्य पदार्थों का बहिष्कार करके पूर्ण सात्त्विक आहार ही लें, जिससे प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सात्त्विकता से पूर्ण हो तथा सम्पूर्ण विश्व में प्रेम एवं शांति की मधुर सुवास फैले।
आप तो
समझ गये
होंगे, आप तो
सावधान हो गये
होंगे। अब
औरों को भी
सावधान करने
की कृपा करें।
अनुक्रम
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भारतीय जनता की संस्कृति और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने का यह एक विराट षडयंत्र है। अंडे के भ्रामक प्रचार से आज से दो-तीन दशक पहले जिन परिवारों को रास्ते पर पड़े अण्डे के खोल के प्रति भी ग्लानि का भाव था, इसके विपरीत उन परिवारों में आज अंडे का इस्तेमाल सामान्य बात हो गयी है।
अंडे अपने अवगुणों से हमारे शरीर के जितने ज़्यादा हानिकारक और विषैले हैं उन्हें प्रचार माध्यमों द्वारा उतना ही अधिक फायदेमंद बताकर इस जहर को आपका भोजन बनानो की साजिश की जा रही है।
अण्डा शाकाहारी नहीं होता लेकिन क्रूर व्यावसायिकता के कारण उसे शाकाहारी सिद्ध किया जा रहा है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पक्के तौर पर साबित कर दिया है कि दुनिया में कोई भी अण्डा चाहे वह सेया गया हो या बिना सेया हुआ हो, निर्जीव नहीं होता। अफलित अण्डे की सतह पर प्राप्त इलैक्ट्रिक एक्टिविटी को पोलीग्राफ पर अंकित कर वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि अफलित अण्डा भी सजीव होता है। अण्डा शाकाहार नहीं, बल्कि मुर्गी का दैनिक (रज) स्राव है।
यह सरासर गलत व झूठ है कि अण्डे में प्रोटीन, खनिज, विटामिन और शरीर के लिए जरूरी सभी एमिनो एसिडस भरपूर हैं और बीमारों के लिए पचने में आसान है।
शरीर की रचना और स्नायुओं के निर्माण के लिए प्रोटीन की जरूरत होती है। उसकी रोजाना आवश्यकता प्रति कि.ग्रा. वजन पर 1 ग्राम होती है यानि 60 किलोग्राम वजन वाले व्यक्ति को प्रतिदिन 60 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होती है जो 100 ग्राम अण्डे से मात्र 13.3 ग्राम ही मिलता है। इसकी तुलना में प्रति 100 ग्राम सोयाबीन से 43.2 ग्राम, मूँगफली से 31.5 ग्राम, मूँग और उड़द से 24, 24 ग्राम तथा मसूर से 25.1 ग्राम प्रोटीन प्राप्त होता है। शाकाहार में अण्डा व मांसाहार से कहीं अधिक प्रोटीन होते हैं। इस बात को अनेक पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया है।
केलिफोर्निया के डियरपार्क में सेंट हेलेना हॉस्पिटल के लाईफ स्टाइल एण्ड न्यूट्रिशन प्रोग्राम के निर्देशक डॉ. जोन ए. मेक्डूगल का दावा है कि शाकाहार में जरूरत से भी ज्यादा प्रोटीन होते हैं।
1972 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ही डॉ. एफ. स्टेर ने प्रोटीन के बारे में अध्ययन करते हुए प्रतिपादित किया कि शाकाहारी मनुष्यों में से अधिकांश को हर रोज की जरूरत से दुगना प्रोटीन अपने आहार से मिलता है। 200 अण्डे खाने से जितना विटामिन सी मिलता है उतना विटामिन सी एक नारंगी (संतरा) खाने से मिल जाता है। जितना प्रोटीन तथा कैल्शियम अण्डे में हैं उसकी अपेक्षा चने, मूँग, मटर में ज्यादा है।
ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर मिसेज एडवीना क्यूरी ने चेतावनी दी कि अण्डों से मौत संभावित है क्योंकि अण्डों में सालमोनेला विष होता है जो कि स्वास्थ्य की हानि करता है। अण्डों से हार्ट अटैक की बीमारी होने की चेतावनी नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकन डॉ. ब्राउन व डॉ. गोल्डस्टीन ने दी है क्योंकि अण्डों में कोलेस्ट्राल भी बहुत पाया जाता है.
डॉ. पी.सी. सेन, स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार ने चेतावनी दी है कि अण्डों से कैंसर होता है क्योंकि अण्डों में भोजन तंतु नहीं पाये जाते हैं तथा इनमें डी.डी.टी. विष पाया जाता है।
जानलेवा रोगों की जड़ हैः अण्डा। अण्डे व दूसरे मांसाहारी खुराक में अत्यंत जरूरी रेशातत्त्व (फाईबर्स) जरा भी नहीं होते हैं। जबकि हरी साग, सब्जी, गेहूँ, बाजरा, मकई, जौ, मूँग, चना, मटर, तिल, सोयाबीन, मूँगफली वगैरह में ये काफी मात्रा में होते हैं।
अमेरिका के डॉ. राबर्ट ग्रास की मान्यता के अनुसार अण्डे से टी.बी. और पेचिश की बीमारी भी हो जाती है। इसी तरह डॉ. जे. एम. विनकीन्स कहते हैं कि अण्डे से अल्सर होता है।
मुर्गी के अण्डों का उत्पादन बढ़े इसके लिये उसे जो हार्मोन्स दिये जाते हैं उनमें स्टील बेस्टेरोल नामक दवा महत्त्वपूर्ण है। इस दवावाली मुर्गी के अण्डे खाने से स्त्रियों को स्तन का कैंसर, हाई ब्लडप्रैशर, पीलिया जैसे रोग होने की सम्भावना रहती है। यह दवा पुरूष के पौरूषत्व को एक निश्चित अंश में नष्ट करती है। वैज्ञानिक ग्रास के निष्कर्ष के अनुसार अण्डे से खुजली जैसे त्वचा के लाइलाज रोग और लकवा भी होने की संभावना होती है।
अण्डे के गुण-अवगुण का इतना सारा विवरण पढ़ने के बाद बुद्धिमानों को उचित है कि अनजानों को इस विष के सेवन से बचाने का प्रयत्न करें। उन्हें भ्रामक प्रचार से बचायें। संतुलित शाकाहारी भोजन लेने वाले को अण्डा या अन्य मांसाहारी आहार लेने की कोई जरूरत नहीं है। शाकाहारी भोजन सस्ता, पचने में आसान और आरोग्य की दृष्टि से दोषरहित होता है। कुछ दशक पहले जब भोजन में अण्डे का कोई स्थान नहीं था तब भी हमारे बुजुर्ग तंदरूस्त रहकर लम्बी उम्र तक जीते थे। अतः अण्डे के उत्पादकों और भ्रामक प्रचार की चपेट में न आकर हमें उक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर ही अपनी इस शाकाहारी आहार संस्कृति की रक्षा करनी होगी।
आहार
शुद्धौ सत्व
शुद्धिः।
1981 में जामा पत्रिका में एक खबर छपी थी। उसमें कहा गया था कि शाकाहारी भोजन 60 से 67 प्रतिशत हृदयरोग को रोक सकता है। उसका कारण यह है कि अण्डे और दूसरे मांसाहारी भोजन में चर्बी ( कोलेस्ट्राल) की मात्रा बहुत ज्यादा होती है।
केलिफोर्निया की डॉ. केथरीन निम्मो ने अपनी पुस्तक हाऊ हेल्दीयर आर एग्ज़ में भी अण्डे के दुष्प्रभाव का वर्णन किया गया है।
वैज्ञानिकों की इन रिपोर्टों से सिद्ध होता है कि अण्डे के द्वारा हम जहर का ही सेवन कर रहे हैं। अतः हमको अपने-आपको स्वस्थ रखने व फैल रही जानलेवा बीमारीयों से बचने के लिए ऐसे आहार से दूर रहने का संकल्प करना चाहिए व दूसरों को भी इससे बचाना चाहिए।
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सत्र 38
'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' वाले देश में कोक तथा पेप्सी जैसे सॉफ्ट ड्रिंक लोगों के दिलो दिमाग को इस कदर दूषित कर चुके हैं कि अब लोग दूध को भी भूल गये हैं।
एक समय लोग दारा सिंह का उदाहरण देकर बच्चों से कहते थेः "देखो वह दूध पीता है, घी खाता है, सर्दियों में बादाम खाता है इसीलिए तो बड़े-बड़े पहलवानों को कुछ ही समय में धूल चटा देता है।" यह सुनकर बच्चे दूध घी के प्रति आकर्षित होते थे तथा स्वस्थ एवं हट्टे कट्टे रहते थे।
आज के बच्चे टी.वी. पर कुछ क्रिकेट के खिलाड़ियों और फिल्मी कलाकारों को कोक-पेप्सी पीकर अपना कमाल दिखाते हुए देखते हैं। उनको तो एक-एक विज्ञापन के कई लाख-करोड़ रूपये मिलते हैं परन्तु बेचारे नादान बच्चे समझते हैं कि यह सब कोक-पेप्सी का चमत्कार है इसलिए हम भी पियेंगे तो ऐसे बन जायेंगे।
सॉफ्ट ड्रिंक्स की बोतलों को खाली करने वाले शायद नहीं जानते कि वे अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ तो कर ही रहे हैं साथ ही मांसाहार भी कर रहे हैं। हैं न चौंकाने वाली बात !
अमेरिका में दि अर्थ आइलैण्ड जनरल नामक पत्रिका ने शोध करके जाहिर किया कि प्रत्येक कोकाकोला व पेप्सी की बोतल में 40 से 72 मि.ग्रा. तक के नशीले तत्त्व ग्लिसरॉल, अल्कोहल, ईस्टरगम तथा पशुओं से प्राप्त होने वाला ग्लिसरॉल होता है। अतः शाकाहारी इस भ्रम में न रहें कि यह मांसाहार नहीं है।
उपरोक्त पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के सभी तथ्य चौंकाने वाले हैं। रिपोर्ट के अनुसारः
इसमें साइट्रिक एसिड है। शीतल पेय की एक बोतल को शौचालय में उड़ेल दो। एक घंटे बाद आप पाओगे कि उसने फिनाइल की तरह शौचालय को साफ कर दिया है।
कपड़े में दाग लगने पर उसे शीतल पेय तथा साबुन से धोओ, कुछ देर में ग्रीस तक के दाग भी ढूँढते रह जाओगे।
सबसे खतरनाक बात यह है कि मनुष्य की हड्डियों को गलाने के लिए धरती को भी एकाध वर्ष का समय लग जाता है जबकि इन पेयों में हड्डी डालकर रखने से वह मात्र दस दिन में ढूँढने पर भी नहीं मिलती।
अमेरिका के दि लानसेंट मेडिकल जनरल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वहाँ के वैज्ञानिकों ने बच्चों के स्वास्थ्य पर सॉफ्ट ड्रिंक के प्रभाव पर शोध की।
अमेरिका के मेशाच्यूटस नामक शहर की अलग-अलग पब्लिक स्कूलों के साफ्ट ड्रिंक पीने वाले 548 बच्चों पर दो वर्ष तक परीक्षण किया गया।
निष्कर्ष में उन्होंने पाया कि प्रतिदिन एक सॉफ्ट ड्रिंक पीने से शरीर के बॉडी मास इन्डेक्स में 0.18 की वृद्धि हो जाती है। यदि एक दिन में एक से अधिक बोतल पी ली जाय तो उनके स्थूल होने की संभावनाएँ 60 % तक बढ़ जाती हैं।
साफ्ट ड्रिंक के रूप में लोग अपने पसीने की कमाई से अपने लिए जहर खरीद लेते हैं। हानिकारक व दूषित शीतल पेयों की अपेक्षा घऱ में बनाया गया है नींबू का शर्बत, फलों का रस एवं ताजी लस्सी शुद्ध, सात्त्विक एवं पौष्टिक होती है। अतः समझदार लोग विज्ञापन बाजी से प्रभावित न होकर अपने धन एवं स्वास्थ्य दोनों को विनष्ट होने से बचायें तथा औरों को भी सही समझ दें।
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चार
देशों ने कोका
कोला को
अस्वाथ्यकर
बताकर
प्रतिबंधित
किया.....
अमेरिका की कोक कंपनी अपने पेय पदार्थ कोका कोला को बेचने के लिए बड़े-बड़े खिलाड़ियों एवं फिल्मी कलाकारों के माध्यम से तरह-तरह के विज्ञापन दिखाती है। परन्तु विज्ञापन में बताये जाने वाले असली स्वाद की असलियत का पता अब लग रहा है। इस विज्ञापनी फरेब का पर्दाफाश उस समय हुआ जब बेल्जियम के सैंकड़ों बच्चे कोका कोला पीने से बीमार पड़ गये। कोका कोला पीने के बाद उन्हें पेट में मरोड़ उठने, उल्टियाँ आने, चक्कर आने जैसी व्याधियाँ सताने लगीं। बेल्जियम की सरकार ने इसी समय कोका कोला की जाँच करायी। जाँच के दौरान वहाँ के स्वास्थ्य मंत्रालय ने लगभग डेढ़ करोड़ ऐसी बोतलें पकड़ीं जिनमें भरा गया पेय पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक था।
इस घटना के कुछ ही समय बाद फ्रांस में भी कोका कोला पीने से कई लोग बीमार पड़ गये। इन घटनाओं के बाद बेल्जियम एवं फ्रांस की सरकारों ने अपने-अपने देशों में कोका-कोला पर प्रतिबंध लगा दिया। जब कोका कोला के वरिष्ठ अधिकारियों ने फ्रांस में कोका कोला पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए वहाँ की संसद से प्रार्थना की तो वहाँ के उपभोक्ता मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहाः
"यह एक
दूषित पेय है
जिसे पीकर देश
के कई लोग
बीमार पड़ रहे
हैं। अतः
प्रतिबंध
हटाने का सवाल
ही नहीं उठता।"
बेल्जियम एवं फ्रांस की सरकार ने कोका कोला के अलावा कोक कंपनी द्वारा बनाये जाने वाली अन्य सभी उत्पादों को भी प्रतिबंधित कर दिया।
इसके बाद स्पेन और इटली ने भी बैल्जियम एवं फ्रांस की तरह कोक कंपनी के उत्पादों की बिक्री पर रोक लगा दी।
पोलैण्ड के एक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने दावा किया कि वहाँ पर बनाये जाने वाले कोका कोला में दूषित जल का उपयोग किया गया है।
इसके पूर्व इंगलैण्ड की सरकार ने भी कोका कोला को कैन्सर पैदा करने वाला पेय बताया है। वहाँ पर इसकी जाँच होने पर इसमें बैंजीन की बहुत अधिक मात्रा पाई गई। फलस्वरूप वहाँ की सरकार ने कोका कोला की 22 लाख बोतलें तुड़वाकर फेंकवा दी।
वेस्टइंडीज में बिकने वाले कोका कोला की बोतलों पर तो बच्चों के लिए नहीं है इस प्रकार की चेतावनी छपी रहती है। मेक्सिको में भी कोका कोला की बोतलों पर गर्भवती महिलाओँ तथा सात साल की उम्र तक की बच्चों के लिए नहीं है यह चेतावनी लिखी जाती है। लेकिन भारत के बाजार में अनेक फरेबी विज्ञापनों के माध्यम से असली स्वाद के नाम पर इसका जोर-शोर से प्रचार हो रहा है। क्या इस देश की जनता के स्वास्थ्य की कोई कीमत नहीं है ?
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हिन्दुओं के धार्मिक कार्यों में आरती का एक विशेष स्थान है। शास्त्रों में इसे 'आरात्रिक' अथवा 'निराजन' के नाम से भी पुकारा गया है। हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार इष्ट-आराध्य के पूजन में जो कुछ भी त्रुटि या कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति आरती करने से हो जाती है। इसीलिए हिन्दुओं के संध्योपासना एवं किसी भी मांगलिक पूजन में आरती का समावेश किया गया है।
"स्कन्दपुराण" में भगवान शंकर माँ पार्वती से कहते हैं-
मंत्रहीनं
क्रियाहीनं
यत् कृतं
पूजनं हरेः।
सर्व
सम्पूर्णतामेति
कृते नीराजने
शिवे।।
'हे शिवे ! भगवान का मंत्ररहित एवं क्रिया (आवश्यक विधि विधान) रहित पूजन होने पर भी आरती कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है।'
साधारणतया पाँच बत्तियोंवाले दीप से आरती की जाती है, जिसे पंचप्रदीप कहा जाता है। इसके अलावा एक, सात अथवा विषम संख्या के अधिक दीप जलाकर भी आरती करने का विधान है।
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आरती में इष्ट-आराध्य के गुण-कीर्तन के अलावा उनका मंत्र भी सम्मिलित किया जाता है। भक्त मुख से तो भगवान का गुणगान (आरती) करता है तथा हाथ में लिए दीपक से उनके मंत्र के अनुरूप आरती घुमाता है।
प्रत्येक देवता का एक मंत्र भी होता है जिसके द्वारा उनका आह्वान किया जाता है। आरती करने वाले को दीपक इस प्रकार घुमाना चाहिए कि उससे उसके इष्ट देवता का मंत्र बन जाय। परंतु यदि मंत्र बड़ा हो तो कठिनाई होती है। अतः हमारे ऋषियों ने मंत्र की जगह सिर्फ 'ॐ' का आकृति बनाने का भी विधान रखा है क्योंकि ॐकार सभी मंत्रों का बीज है इसीलिए प्रत्येक मंत्र से पहले ॐकार को जोड़ा जाता है। अर्थात् भक्त हाथ में लिये दीये को इस प्रकार घुमाये कि उससे हवा में ॐ की आकृति बन जाये। इस प्रकार आरती में भगवान का गुण-कीर्तन एवं मंत्र साधना दोनों का मिश्रण होने से सोने पे सुहागा जैसा हो जाता है।
आरती को कितनी बार घुमाना चाहिए ? भक्त जिस देवता को अपना इष्ट मानता हो उनके मंत्र में जितने अक्षर हों उतनी बार आरती घुमानी चाहिए।
आरती के महत्त्व को आज के विज्ञान ने भी थोड़ा-बहुत समझा है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है, इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है।
सफलता
प्रदायक
दीप-अर्चन
दीपक के समक्ष निम्न श्लोक के वाचन से शीघ्र सफलता मिलती हैः
दीपो
ज्योतिः परं
ब्रह्म दीपो
ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो
हरतु में पापं
सांध्यदीप !
नमोऽस्तु
ते।।
शुभं
करोतु
कल्याणं
आरोग्यं
सुखसम्पदम्।
शत्रुबुद्धिविनाशं
च
दीपज्योतिर्नमोऽस्तु
ते।।
दीपक के लौ की दिशा पूर्व की ओर रखने से आयुवृद्धि, पश्चिम की ओर दुःख वृद्धि, दक्षिण की ओर हानि और उत्तर की ओर रखने से धनलाभ होता है। लौ दीपक के मध्य में लगाना शुभफलदायी है। इसी प्रकार दीपक के चारों ओर लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है।
'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के अनुसार जो धूप, आरती को देखता है वह अपनी कई पीढ़ीयों का उद्धार करता है। ऐसे ही ह्यात ईश्वरप्राप्त भगवद् पुरूष के आरती, दर्शन व सान्निध्य का अमिट फल मिलता है।
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सत्र 39
राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं। प्रिय रानी का नाम सुऱूची और अप्रिय रानी का नाम सुमति था। दोनों रानियों को एक-एक पुत्र था। एक बार रानी सुमति का पुत्र ध्रुव खेलता-खेलता अपने पिता की गोद में बैठ गया। रानी ने तुरंत ही उसे पिता की गोद से नीचे उतार कर कहाः
पिता की गोद में बैठने के लिए पहले मेरी कोख से जन्म ले। ध्रुव रोता-रोता अपना माँ के पास गया और सब बात माँ से कही। माँ ने ध्रुव को समझायाः बेटा! यह राजगद्दी तो नश्वर है परंतु तू भगवान का दर्शन करके शाश्वत गद्दी प्राप्त कर। ध्रुव को माँ की सीख बहुत अच्छी लगी। और तुरंत ही दृढ़ निश्चय करके तप करने के लिए जंगल में चला गया। रास्ते में हिंसक पशु मिले फिर भी भयभीत नहीं हुआ। इतने में उसे देवर्षि नारद मिले। ऐसे घनघोर जंगल में मात्र 5 वर्ष को बालक को देखकर नारद जी ने वहाँ आने का कारण पूछा। ध्रुव ने घर में हुई सब बातें नारद जी को बता दीं और भगवान को पाने की तीव्र इच्छा प्रकट की।
नारद जी ने ध्रुव को समझायाः “तू इतना छोटा है और भयानक जंगल में ठण्डी-गर्मी सहन करके तपस्या नहीं कर सकता इसलिए तू घर वापस चला जा।“ परन्तु ध्रुव दृढ़निश्चयी था। उसकी दृढ़निष्ठा और भगवान को पाने की तीव्र इच्छा देखकर नारदजी ने ध्रुव को ‘ú नमो भगवते वासुदेवाय ’ का मंत्र देकर आशीर्वाद दियाः “ बेटा! तू श्रद्धा से इस मंत्र का जप करना। भगवान ज़रूर तुझ पर प्रसन्न होंगे।“ ध्रुव तो कठोर तपस्या में लग गया। एक पैर पर खड़े होकर, ठंडी-गर्मी, बरसात सब सहन करते-करते नारदजी के द्वारा दिए हुए मंत्र का जप करने लगा।
उसकी निर्भयता, दृढ़ता और कठोर तपस्या से भगवान नारायण स्वयं प्रकठ हो गये। भगवान ने ध्रुव से कहाः “ कुछ माँग, माँग बेटा! तुझे क्या चाहिए। मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न हुआ हूँ। तुझे जो चाहिए वर माँग ले।“ ध्रुव भगवान को देखकर आनंदविभोर हो गया। भगवान को प्रणाम करके कहाः “हे भगवन्! मुझे दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे अपनी दृढ़ भक्ति दो।“ भगवान और अधिक प्रसन्न हो गए और बोलेः तथास्तु। मेरी भक्ति के साथ-साथ तुझे एक वरदान और भी देता हूँ कि आकाश में एक तारा ‘ध्रुव’ तारा के नाम से जाना जाएगा और दुनिया दृढ़ निश्चय के लिए तुझे सदा याद करेगी।“ आज भी आकाश में हमें यह तारा देखने को मिलता है। ऐसा था बालक ध्रुव, ऐसी थी भक्ति में उसकी दृढ़ निष्ठा। पाँच वर्ष के ध्रुव को भगवान मिल सकते हैं तो हमें भी क्यों नहीं मिल सकते? ज़रूरत है भक्ति में निष्ठा की और दृढ़ विश्वास की। इसलिए बच्चों को हर रोज निष्ठापूर्वक प्रेम से मंत्र का जप करना चाहिए।
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शास्त्रों में आता हैः
या
देवी
सर्भूतेषु
शक्तिरूपेण
संस्थिताः।
नमस्तस्यै
नमस्तस्यै
नमस्तस्यै
नमो नमः।।
'जो सभी भूतों में शक्तिरूप से स्थित हैं उन माँ जगदम्बा को नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है !'
ईश्वर अनेक रूपों में प्रगट होता है, वैसे ही मातृरूप में भी प्रगट होता है। शक्तिरूप से, करूणारूप से, क्षमारूप से, दयारूप से उत्पन्न होने वाली परब्रह्म परमात्मा की जो वृत्ति है उसी को 'माँ' कहा गया है एवं उन्हीं 'माँ' की उपासना-अर्चना के दिन हैं नवरात्रि के दिन।
नवरात्रि के दिनों में व्रत-उपवास, माँ की उपासना-अर्चना के अतिरिक्त गरबे गाये जाते हैं। गरबे क्यों गाये जाते हैं ? पैर के तलुओं एवं हाथ की हथेलियों में शरीर की सभी नाड़ियों के केन्द्रबिन्दु हैं जिन पर दबाव पड़ने से एक्युप्रेशर का लाभ मिल जाता है एवं शरीर में नयी शक्ति-स्फूर्ति जाग जाती है। नृत्य से प्राण-अपान की गति सम होती है तो सुषुप्त शक्तियों को जागृत होने का अवसर मिलता है एवं गाने से हृदय में माँ के प्रति दिव्य भाव उमड़ता है इसीलिए नवरात्रि के दिनों में गरबे गाने की प्रथा है।
....लेकिन बहुत गाने से शक्ति क्षीण होती है अतः गाओ तो ऐसा गाओ कि आपका आत्मबल बढ़े, ओज-तेज बढ़े एवं सुषुप्त शक्ति जागृत हो।
गरबा गाते-गाते आप ऐसे रहो कि आपकी इन्द्रियाँ आपको कहीं खींचे नहीं, मन आपको धोखा न दे, बुद्धि विकारों की तरफ न ले जाये वरन् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये चार अंतःकरण एवं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ – ये नौ के नौ उस परब्रह्म परमात्मा में डूब जायें और नृत्य के बाद भावसमाधि का थोड़ा सा आनंद उभरने लगे, काम-विकार पलायन हो जायें, रामरस आने लगे। यदि ऐसा कर सको तो नवरात्रि सफल हो जायेगी।
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आज के भौतिकवादी युग में जितनी यंत्रशक्ति प्रभावी हो सकती है उससे कहीं अधिक प्रभावी एवं सूक्ष्म मंत्रशक्ति होती है. मंत्र द्वारा मनुष्य अपनी सुषुप्त शक्तियों का विकास करके महान बन सकता है। मंत्र के जाप से चंचलता दूर होती है, जीवन में संयम आता है, चमत्कारिक रूप से एकाग्रता एवं स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। शरीर के अलग-अलग केन्द्रों पर मंत्र का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। मंत्र शक्ति की महिमा जानकर आज तक कई महापुरूष विश्व में पूजनीय एवं आदरणीय स्थान प्राप्त कर चुके हैं जैसे महावीर, बुद्ध, कबीर, नानक, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ आदि। नारद जी की कृपा से 'मरा....मरा जपते-जपते वालिया लुटेरा भी वाल्मीकि ऋषि बन गया।
यंत्रशक्ति का प्रभाव केवल लौकिक व्यवहार-जगत में ही तथा सीमित देश-काल में ही पड़ सकता है जबकि मंत्रशक्ति का प्रभाव अन्य लोक तक जा सकता है। तभी तो
अर्जुन सशरीर स्वर्ग में गया था। सति अनसूया ने ब्रह्मा-विष्णु-महेश को मंत्रशक्ति से दूध पीते बच्चे बना दिया था। बौद्धिक जगत के बादशाह कहलाने वाले बीरबल की बुद्धि एवं चातुर्य के पीछे भी सारस्वत्य मंत्र का प्रभाव था। अकबर जैसा मुगल बादशाह भी कुशाग्र बुद्धि-वाले बीरबल की सलाह लेकर कार्य करता था।
सारस्वत्य मंत्र के जप से विद्यार्थियों की स्मरणशक्ति बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र बनती है। मंत्रशक्ति की महिमा को जानकर वे अपनी कुशाग्र बुद्धि को मेधा व प्रज्ञा बनाकर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। हमारे भीतर वह शक्ति को जगा देने का सामर्थ्य रखने वाले सदगुरू के मार्गदर्शन के मुताबिक मंत्रजाप किया जाय तो फिर विद्यार्थी के जीवन-विकास में चार चाँद लग जाते हैं।
अतः आप अपने समय का पूर्ण सदुपयोग करें। नवरात्रि में सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान कर बुद्धि की देवी सरस्वती की कृपा को प्राप्त कर जीवन को ओजस्वी-तेजस्वी बना सकते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में सारस्वत्य मंत्र का अनुष्ठान करने से चमत्कारिक लाभ होता है। सरस्वती देवी प्रसन्न होती है एवं स्मरणशक्ति का विकास होता है।
विधिः श्रीगुरूगीता में भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं कि 'तीर्थ स्थान या सदगुरू के आश्रम अनुष्ठान के लिए योग्य हैं। अगर किन्हीं कारणों से वहाँ नहीं जा सकें तो अपने घर के साफ-सुथरे कमरे में धूप, दीप, चन्दन, पुष्पादि द्वारा मनभावन वातावरण तैयार कर सकते हैं। माँ सरस्वती की वीणावादक सौम्यमूर्ति की स्थापना उस कमरे में करें। स्वच्छ सफेद वस्त्र धारण करें तथा सफेद आसन पर ही बैठे। भोजन में सफेद वस्तु जैसे की चावल की बनी खीर आदि ही ग्रहण करें। भूमि पर शयन करें, मौन रहें, संयम रखें एवं एकाग्रता से रोज 108 माला का जप करें। हो सके तो स्फटिक माला का प्रयोग करें अथवा सामान्य माला का भी प्रयोग कर सकते हैं।
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विद्यार्थी जीवन जीवनरूपी इमारत की नींव है। जितना हम ईश्वर के साथ जुड़कर कदम आगे रखते जायेंगे उतना ही हमारा जीवन मजबूत होगा किन्तु ईश्वर के साथ हृदय मिलाने की कला सिखाने के लिए सत्पुरूषों की, सदगुरू की आवश्यकता होती है। जिन भाग्यशाली विद्यार्थियों को ऐसे महापुरूषों का संग मिल जाता है, उनका कृपा प्रसाद मिल जाता है वे विद्यार्थी एक दिन स्वयं भी महान आत्मा बन जाते हैं। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
मुंबई के पास एक छोटे से गाँव में एक सातवीं कक्षा पढ़ा हुआ विद्यार्थी रहता था। उसका नाम था, रामानुजम। उस विद्यार्थी के पिता गरीब थे, इसलिए उन्होंने उसे एक बड़े सेठ की दुकान पर चपरासी की नौकरी पर लगा दिया। दुकान पर काम करने वाले मुनीम जब हिसाब करते-करते परेशान होकर थक जाते तब रामानुजम उनके पास आता और पूछता कि 'क्या बात है ?' तो मुनीम उसे डाँटते कि 'तेरे को क्या पता ? तू झाड़ू लगा।' ऐसा कई बार हुआ। एक दिन एक मुनीम ने कहा कि हररोज परेशान करता है, चल बैठ। मेरा एक खाता नही मिलता इसे ठीक से मिलाकर दिखा। रामानुजम ने क्षणभर में वह खाता मुनीम को सही-सही मिलाकर दे दिया। मुनीम आश्चर्य में पड़ गया कि कहाँ सातवीं पढ़ा हुआ यह लड़का और कहाँ मैं वर्षों से खाते बनाने वाला मुनीम ! यह मुझसे भी आगे कैसे निकल गया ? उसके बाद तो जिस किसी मुनीम को हिसाब किताब में परेशानी आती वह रामानुजम को बुलाता और रामानुजम गणित का उलझा हुआ बड़े से बड़ा मसला भी देखते-देखते क्षणभर में पूरा हल कर देते।
रामानुज की विलक्षण बुद्धि को देखकर लोगों ने रामानुजम से कहाः 'इस समय हार्डि विश्व का सबसे बड़ा गणितज्ञ है। तुम उसे अपनी योग्यता लिखकर भेजो।' रामानुजम ने अपना परिचय और गणित के कुछ नमूने हार्डि के पास भेज दिये। नमूनों को देखकर हार्डि चकित रह गया। उसने रामानुजम को बुलाया और रामानुज को गणित के कई सवाल पूछे। हार्डि जो भी सवाल पूछता रामानुजम उसका तुरन्त जवाब दे देते। आखिर भारत के इस सातवीं पढ़े विद्यार्थी ने विश्वविख्यात गणितज्ञ हार्डि को भी चकित कर दिया।
हार्डि ने रामानुजम की परीक्षा लेने के लिए बड़े-बड़े गणितज्ञों और मनोवैज्ञानिकों की एक बैठक बुलायी और बैठक में आये सभी गणितज्ञों को कह दिया कि गणित के विषय में जिसको जो भी प्रश्न पूछना हो वह रामानुजम से पूछ लें। वे लोग जो भी प्रश्न करते रामानुजम उसे ध्यानपूर्वक सुनते तथा क्षणभर के लिए शांत हो जाते है। फिर वे जो उत्तर देते थे वह बिल्कुल सही होता था।
इस घटना को देखकर मनोवैज्ञानिक भी दंग रह गये। अंत में उन्होंने रामानुज से ही पूछाः ''आपने इतने महान गणितज्ञ को भी पीछे कर दिया। आखिर आपके पास ऐसी कौन-सी कला है कि यहाँ आये सारे बड़े-बड़े गणित के विशेषज्ञ आपके आगे मूक हो गये।"
तब रामानुज
बोलेः "मेरे
गरीब पिता
किन्हीं संत
के पास जाते
थे। जब उन
महापुरूष ने
मेरे पिता जी
को
मंत्रदीक्षा
दी तब मैंने
भी उन्हें
सारस्वत्य
मंत्र देने की
प्रार्थना की
तो उन योगी
पुरूष ने कृपा
करके मुझे
मंत्र देकर
ध्यान करने की
कला भी सिखायी।
उसी ध्यान के
प्रभाव से
मुझे अपने
प्रश्नों का
उत्तर तुरन्त
मिल जाता है।"
प्रत्येक विद्यार्थी के पास आज अगर लौकिक विद्या के साथ सदगुरू प्रदत्त आध्यात्मिक विद्या भी हो तो जीवन में चार चाँद लग जाते हैं ऐसे अनेक उदाहरण हैं। थोड़ी-सी लौकिक विद्या हो परन्तु आध्यात्मिक विद्या की बाहुल्यता हो तो सातवीं कक्षा तक पढ़े रामानुजम गणित के विशेषज्ञ बन जाते हैं। किन्तु बहुत लौकिक विद्या हो तथा अध्यात्म विद्या से रहित हो, शिक्षा के साथ यदि दीक्षा नहीं हो तो उस विद्यार्थी का जीवन नशे तथा विकारों में फँस जाता है। अशिक्षित उतना विनाश नहीं कर सकता जितनी अदीक्षित। आज जिन विनाशकारी हथियारों ने सबके दिलों दहशत फैला रखी है ऐसे हथियार भी किन्हीं दीक्षाहीन शिक्षितों के द्वारा ही बनाये गये हैं।
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सत्र 40
भारतीय सामाजिक परम्परा की दृष्टि से विजयादशमी का दिन त्रेता युग की वह पावन बेला है जब क्रूर एवं अभिमानी रावण के अत्याचारों से त्रस्त सर्वसाधारण को राहत की साँस मिली थी। कहा जाता है कि इस दिन मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने आततायी रावण को मारकर वैकुंठ धाम को भेज दिया था। यदि देखा जाय तो रामायण एवं श्रीरामचरितमानस में श्रीराम तथा रावण के बीच के जिस युद्ध का वर्णन आता है वह युद्ध मात्र उनके जीवन तक ही सीमित नहीं है वरन् उसे हम आज अपने जीवन में भी देख सकते हैं।
विजयादशमी अर्थात् दसों इन्द्रियों पर विजय। हमारे इस पंचभौतिक शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इन दसों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला महापुरू, दिग्विजी हो जाता है। रावण के पास विशाल सैन्य बल तथा विचित्र मायावी शक्तियाँ थीं परन्तु श्रीराम के समक्ष उसकी एक भी चाल सफल नहीं हो सकी। कारण कि रावण अपनी इन्द्रियों के वश में था जबकि श्रीराम इन्द्रियजयी थे।
जिनकी इन्द्रियाँ बहिर्मुख होती हैं, उनके पास कितने भी साधन क्यों न हों ? उन्हें जीवन में दुःख और पराजय का ही मुँह देखना पड़ता है। तथाकथित रावण का जीवन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जहाँ रावण की दसों भुजाएँ तथा दसों सिर उसकी दसों इन्द्रियों की बहिर्मुखता को दर्शाते हैं वहीं श्रीराम का सौम्यरूप उनकी इन्द्रियों पर विजय-प्राप्ति तथा परम शांति में उनकी स्थिति की खबर देता है। जहाँ रावण का भयानक रूप उस पर इन्द्रियों के विकृत प्रभाव को दर्शाता है, वहीं श्रीराम का प्रसन्नमुख एवं शांत स्वभाव उनके इन्द्रियातीत सुख की अनुभूति कराता है।
विजयादशमी
का पर्व
दसों
इन्द्रियों
पर विजय का
पर्व है।
असत्य पर सत्य
की विजय का
पर्व है।
बहिर्मुखता
पर
अंतर्मुखता
की विजय का
पर्व है।
अन्याय पर
न्याय की विजय
का पर्व है।
दुराचार
पर सदाचार की
विजय का पर्व
है। तमोगुण पर
दैवीगुण की
विजय का पर्व
है।
दुष्कर्मों
पर सत्कर्मों
की विजय का
पर्व है। भोग
पर योग की
विजय का पर्व
है।
असुरत्व
पर दैवत्व की
विजय का पर्व
है तथा, जीवत्व
पर शिवत्व की
विजय का पर्व
है।
दसों इन्द्रियों में दस सदगुण एवं दस दुर्गुण होते हैं। यदि हम शास्त्रसम्मत जीवन जीते हैं तो हमारी इन्द्रियों के दुर्गुण निकलते हैं तथा सदगुणों का विकास होता है। यह बात श्रीरामचन्द्रजी के जीवन में स्पष्ट दिखती है। किन्तु यदि हम इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के बजाय भोगवादी प्रवृत्तियों से जुड़कर इन्द्रियों की तृप्ति के लिए उनके पीछे भागते हैं तो अन्त में हमारे जीवन का भी वही हस्र होता है जो कि रावण का हुआ था। रावण के पास सोने की लंका तथा बड़ी-बड़ी मायावी शक्तियाँ थीं परन्तु वे सारी-की-सारी सम्पत्ति उसकी इन्द्रियों के सुख को ही पूरा करने में काम आती थीं। किन्तु युद्ध के समय वे सभी की सभी व्यर्थ साबित हुईं। यहाँ तक कि उसकी नाभि में स्थित अमृत भी उसके काम न आ सका जिसकी बदौलत वह दिग्विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य रखता था।
संक्षेप में, बहिर्मुख इन्द्रियों को भड़काने वाली प्रवृत्ति भले ही कितनी भी बलवान क्यों न हो लेकिन दैवी सम्पदा के समक्ष उसे घुटने टेकने ही पड़ते हैं। क्षमा, परोपकार, साधना, सेवा, शास्त्रपरायणता, सत्यनिष्ठा, कर्त्तव्य-परायणता, परोपकार, निष्कामता एवं सत्संग आदि दसों इन्द्रियों के दैवीगुण हैं। इन दैवीगुणों से संपन्न महापुरूषों के द्वारा ही समाज का सच्चा हित हो सकता है। इन्द्रियों का बहिर्मुख होकर विषयों की ओर भागना, यह आसुरी सम्पदा है। यही रावण एवं उसकी आसुरी शक्तियाँ हैं। किन्तु दसों इन्द्रियों का दैवी सम्पदा से परिपूर्ण होकर ईश्वरीय सुख में तृप्त होना, यही श्रीराम तथा उनकी साधारण-सी दिखने वाली परम तेजस्वी वानर सेना है।
प्रत्येक मनुष्य के पास ये दोनों शक्तियाँ पायी जाती हैं। जो जैसा संग करता है उसी के अनुरूप उसकी गति होती है। रावण पुलस्त्य ऋषि का वंशज था और चारों वेदों का ज्ञाता था। परन्तु बचपन से ही माता तथा नाना के उलाहनों के कारण राक्षसी प्रवृत्तियों में उलझ गया। इसके ठीक विपरीत संतों के संग से श्रीराम अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित हो गये।
अपनी दसों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके उन्हें आत्मसुख में डुबो देना ही विजयादशमी का उत्सव मनाना है। जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की पूजा की जाती है तथा रावण को दियासिलाई दे दी जाती है, उसी प्रकार अपनी इन्द्रियों को दैवीगुणों से सम्पन्न विषय-विकारों को तिलांजली दे देना ही विजयादशमी का पर्व है।
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जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हो चुके हैं। उनमें एक राजकन्या भी तीर्थंकर हो गयी जिसका नाम था मल्लिकानाथ।
राजकुमारी मल्लिका इतनी खूबसूरत थी की कई राजकुमार व राजे उसके साथ ब्याह रचाना चाहते थे लकिन वह किसी को पसंद नहीं करती थी। आखिरकार उन राजकुमारों व राजाओं ने आपस में एकजुट होकर मल्लिका के पिता को किसी युद्ध में हराकर मल्लिका का अपहरण करने की योजना बनायी।
मल्लिका को इस बात का पता चल गया। उसने राजकुमारों व राजाओं को कहलवाया किः "आप लोग मुझ पर कुर्बान हैं तो मैं भी आप सब पर कुर्बान हूँ। तिथि निश्चित करिये। आप लोग आकर बातचीत करें। मैं आप सबको अपना सौन्दर्य दे दूँगी।"
इधर मल्लिका ने अपने जैसी ही एक सुन्दर मूर्ति बनवायी थी एवं निश्चित की गयी तिथि से दो चार दिन पहले से वह अपना भोजन उसमें डाल दिया करती थी। जिस हाल में राजकुमारों व राजाओं को मुलाकात देनी थी, उसी हाल एक ओर वह मूर्ति रखवा दी गयी।
निश्चित तिथी पर सारे राजा व राजकुमार आ गये। मूर्ति इतनी हू-ब-हू थी कि उसकी ओर देखकर राजकुमार विचार कर ही रहे थे किः "अब बोलेगी.... अब बोलेगी.....' इतने में मल्लिका स्वयं आयी तो सारे राजा व राजकुमार उसे देखकर दंग रह गये किः "वास्तविक मल्लिका हमारे सामने बैठी है तो यह कौन है !"
मल्लिका बोलीः "यह प्रतिमा है। मुझे यही विश्वास था कि आप सब इसको ही सच्ची मानेंगे और सचमुच में मैंने इसमें सच्चाई छुपाकर रखी है। आपको जो सौन्दर्य चाहिए वह मैंने इसमें छुपाकर रखा है।"
यह कहकर ज्यों ही मूर्ति का ढक्कन खोला गया, त्यों-ही सारा कक्ष दुर्गन्ध से भर गया। पिछले चार-पाँच दिन से जो भोजन उसमें डाला गया था उसके सड़ जाने से ऐसी भयंकर बदबू निकल रही थी कि सब छीः छीः कर उठे।
तब मल्लिका ने वहाँ आये हुए सभी को संबोधित करते हुए कहाः
शरीर सुन्दर दिखता है, मैंने वे ही खाद्य-सामग्रियाँ चार-पाँच दिनों से इसमें डाल रखी थीं। अब ये सड़कर दुर्गन्ध पैदा कर रही हैं। दुर्गन्ध पैदा करने वाले इन खाद्यान्नों से बनी हुई चमड़ी पर आप इतने फिदा हो रहे हो तो इस अन्न को रक्त बनाकर सौन्दर्य देनेवाली यह आत्मा कितनी सुंदर होगी ! भाइयों ! अगर आप इसका ख्याल रखते तो आप भी इस चमड़ी के सौन्दर्य का आकर्षण छोड़कर उस परमात्मा के सौन्दर्य की तरफ चल पड़ते।"
मल्लिका की ऐसी सारगर्भित बातें सुनकर कुछ राजकुमार भिक्षुक हो गये और कुछ राजकुमारों ने काम विकार से अपना पिण्ड छुड़ाने का संकल्प किया। उधर मल्लिका संतशरण में पहुँच गयी, त्याग और तप से अपनी आत्मा को पाकर मल्लियनात तीर्थंकर बन गयी। अपना तन-मन सौंपकर वह भी परमात्मामय हो गयी।
आज भी मल्यिनाथ जैन धर्म के प्रसिद्ध उन्नीसवें तीर्थंकर के नाम से सम्मानित होकर पूजी जा रही हैं।
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सत्र 41
बात उस समय की है जब दिल्ली के सिंहासन पर औरंगजेब बैठ चुका था।
विंध्यावासिनी देवी के मंदिर में उनके दर्शन हेतु मेला लगा हुआ था, जहाँ लोगों की खूब भीड़ जमा थी। पन्नानरेश छत्रसाल वक्त 13-14 साल के किशोर थे। छत्रसाल ने सोचा कि 'जंगल से फूल तोड़कर फिर माता के दर्शन के लिए जाऊँ।' उनके साथ हमउम्र के दूसरे राजपूत बालक भी थे। जब वे लोग जंगल में फूल तोड़ रहे थे, उसी समय छः मुसलमान सैनिक घोड़े पर सवार होकर वहाँ आये एवं उन्होंने पूछाः "ऐ लड़के ! विन्ध्यवासिनी का मंदिर कहाँ है ?"
छत्रसालः "भाग्यशाली हो, माता का दर्शन करने के लिए जा रहे हो। सीधे सामने जो टीला दिख रहा है वहीं मंदिर है।"
सैनिकः "हम माता के दर्शन करने नहीं जा रहे, हम तो मंदिर को तोड़ने के लिए जा रहे हैं।"
छत्रसालः ने फूलों की डलिया एक दूसरे बालक को पकड़ायी और गरज उठाः
"मेरे जीवित रहते हुए तुम लोग मेरी माता का मंदिर तोड़ोगे ?"
सैनिकः "लड़के ! तू क्या कर लेगा ? तेरी छोटी सी उम्र, छोटी सी तलवार.... तू क्या कर सकता है ?"
छत्रसाल ने एक गहरा श्वास लिया और जैसे हाथियों के झुंड पर सिंह टूट पड़ता है, वैसे ही उन घुड़सवारों पर वह टूट पड़ा। छत्रसाल ने ऐसी वीरता दिखाई कि एक को मार गिराया, दूसरा बेहोश हो गया.....लोगों को पता चले उसके पहले ही आधा दर्जन फौजियों को मार भगाया। धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की वीर छत्रसाल ने। वही वीर बालक आगे चलकर पन्नानरेश हुआ।
भारत के वीर सपूतों के लिए किसी ने कहा हैः
तुम
अग्नि की
भीष्ण लपट, जलते हुए
अंगार की।
तुम
चंचला की
द्युति चपल, तीखी प्रखर
असिधार हो।।
तुम
खौलती
जलनिधि-लहर, गतिमय पवन
उनचास हो।
तुम
राष्ट्र के
इतिहास हो, तुम
क्रान्ति की
आख्यायिका।।
भैरव
प्रलय के गान
हो, तुम
इन्द्र के
दुर्दम्य
पवि।
तुम
चिर अमर
बलिदान हो, तुम कालिका
के कोप हो।।
पशुपति
रूद्र के
भ्रूलास हो, तुम
राष्ट्र के
इतिहास हो।
दिनांकः 18 मई, 1999 को इस वीर पुरूष की जयंती है। ऐसे वीर धर्मरक्षकों की दिव्य गाथा यही याद दिलाती है कि दुष्ट बनो नहीं और दुष्टों से भी डरो नहीं। जो आततायी व्यक्ति बहू-बेटियों की इज्जत से खेलता है या देश के लिए खतरा पैदा करता है, ऐसे बदमाशों का सामना साहस के साथ करना चाहिए। अपनी शक्ति जगानी चाहिए। यदि तुम धर्म एवं देश की रक्षा के लिए कार्य करते हो तो ईश्वर भी तुम्हारी सहायता करता है।
'हरि ॐ...... हरि ॐ..... हिम्मत....साहस...... ॐ....ॐ..... बल... शक्ति.... हरि ॐ.....ॐ......ॐ...' ऐसा करके भी तुम अपनी सोयी हुई शक्ति को जगा सकते हो। अभी से लग जाओ अपनी सुषुप्त शक्ति को जगाने के कार्य में और प्रभु को पाने में।
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आजकल बाजार में बिकने वाले अधिकांश टूथपेस्टों में फ्लोराइड नामक रसायन का प्रयोग किया जाता है। यह रसायन शीशे तथा आरसेनिक जैसा विषैला होता है। इसकी थोड़ी से मात्रा भी यदि पेट में पहुँच जाये तो कैंसर जैसे रोग पैदा हो सकते हैं।
अमेरिका के खाद्य एवं स्वास्थ्य विभाग ने फ्लोराइड का दवाओं में प्रयोग प्रतिबंधित किया है। फ्लोराइड से होने वाली हानियों से संबंधित कई मामले अदालत तक भी पहुँचे हैं। इसेक्स (इंगलैण्ड) के 10 वर्षीय बालक के माता-पिता को 'कोलगेट पामोलिव' कंपनी द्वारा 265 डॉलर का भुगतान किया गया क्योंकि उनके पुत्र को कोलगेट के प्रयोग से फ्लोरोसिस नामक दाँतों की बीमारी लग गयी थी।
अमेरिका के नेशनल कैंसर इन्सटीच्यूट के प्रमुख रसायनशास्त्री द्वारा की गयी एक शोध के अनुसार अमेरिका में प्रतिवर्ष दस हजार से भी ज्यादा लोग फ्लोराइड से उत्पन्न कैंसर के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
टूथपेस्टों में फ्लोराइड की उपस्थिति चिन्ताजनक है, क्योंकि यह मसूढ़ों के अन्दर चला जाता है तथा अनेक खतरनाक रोग पैदा करता है। छोटे बच्चे तो टूथपेस्ट को निगल भी लेते हैं। फलतः उनके लिए तो यह अत्यन्त घातक हो जाता है।
हमारे पूर्वज प्राचीन समय से ही नीम तथा बबूल की दातौन का उपयोग करते रहे हैं। इनसे होने वाले अनमोल लाभ 'लोक कल्याण सेतु' के अंक क्रमांक 33 तथा 10 में विस्तारपूर्वक प्रकाशित किये जा चुके हैं।
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दाँतों को मजबूत बनाने और कीटाणुओं को दूर करने का दावा करने वाली टूथपेस्ट कंपनियाँ आम जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। सांस को ताजी तथा दाँतों को चमकदार बनाने के लिए इन कंपनियों द्वारा जिस रसायन का प्रयोग टूथपेस्ट बनाने में किया जा रहा है, उसकी पाक पूरी न हो पाने के कारण यह रसायन जहर बनता जा रहा है, जिससे दाँतों के साथ-साथ मसूढ़ों को घातक बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आई.एम.ए.) द्वारा प्रमाणित टूथपेस्ट पेप्सोडेंट और क्लोज़ अप अपने लोकप्रिय विज्ञापनों के बल पर बिक्री का रेकार्ड तोड़ रहे हैं जबकि विज्ञान स्पष्ट कहता है कि टूथपेस्ट में कैल्सियम क्लोराइड का प्रयोग किया जाना तभी उचित है जब वह पूरी तरह से पक गई हो। उसका कच्चा प्रयोग खतरनाक होता है। बाजार में टूथपेस्ट बेचने वाली कंपनियों में कच्चे कैल्सियम क्लोराइड का सबसे अधिक प्रयोग पेप्सोडेंट द्वारा किया जा रहा है।
हालाँकि पेप्सोडेंटे कंपनी अपने टूथपेस्ट के विज्ञापन अभियान में लाखों रूपये खर्च कर बाजारों के अधिकांश पर अपना अधिकार जमा रही है लेकिन मेडिकल विटनेस (चिकित्सा साक्ष्य) के हिसाब से पेप्सोडेंट को खतरनाक घोषित किया जा चुका है।
गत वर्ष पेप्सोडेंट ने स्कूल में बच्चों को मुफ्त पेप्सोडेंट टूथपेस्ट दिये थे ताकि बच्चे इसको पसंद करें। पेप्सोडेंट का कच्चा कैल्शियम क्लोराइड दाँतों को गला देता है जिससे एक पीला पदार्थ दाँतों पर चढ़ जाता है। इसके बच्चे कैल्शियम के छोटे टुकड़े दाँतों को नुकसान पहुँचाते हैं। पेप्सोडेंट में प्रयोग किया जाने वाला रसायन दाँतों पर एक सफेद गीली परत बनाता है जिसके प्रभाव से मसूढ़े छिल जाते हैं। इन रसायनों से मसूढ़ों की पकड़ ढीली हो जाती है और उसके किनारे काले हो जाते हैं।
कुछ सूत्र बताते हैं कि सरकार ऐसी टूथपेस्ट कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही करने की योजना बना रही है जो मेडिकल फिटनेस से परे हैं। ऐसे में पेप्सोडेंट जैसी कंपनियों पर गाज गिर सकती है।
भारत में एक ऐसी वनस्पति है जो प्राचीन काल से दाँतों को स्वस्थ बनाये रखने के लिए प्रयोग में लायी जाती है। उन वनस्पति का नाम है 'नीम'। नीम भारत के प्रायः सभी स्थानों में पाया जाता है। गाँवों में रहने वाले बुजुर्ग व्यक्ति तो आज भी नीम की ही दातौन करते हैं। नीम में कीटाणुओं का मारने वाले अनेक प्राकृतिक रसायन होते हैं जिससे दाँतों के कीड़े लगने अथवा दाँतों के कमजोर होने की सम्भावना ही नहीं रहती। इसके अतिरिक्त नीम का दातौन करने से मुँह में लार बनती है और यही लार भोजन को पचाने में अत्यन्त सहयोगी होती है। अधिक लार बनने से भोजन जल्दी एवं अच्छी तरह से पचता है। अर्थात् नीम के दातौन से पाचन-तंत्र को भी लाभ मिलता है तथा पाचन-संबन्धी अनेक बीमारियाँ बिना दवाई के ही ठीक हो जाती है।
अतः ऐसे जहरीले टूथपेस्टों के स्थान पर हमें प्रकृतिदत्त सुरक्षित साधनों का उपयोग करना चाहिए। इससे हमारा स्वास्थ्य तो ठीक रहता ही है, साथ ही साथ हमारी मेहनत की कमाई को लूटकर ले जाने वाली विदेशी कंपनियों के चंगुल से भी हमारे धन की सुरक्षा होती है तथा देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो जाती है।
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सत्र 42
उत्तरायण, शिवरात्री, होली, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, नवरात्री, दशहरा आदि त्यौहारो को मनाते-मनाते आ जाती हैं पर्वों की हारमाला-दीपावली। पर्वों के इस पुंज में 5 दिन मुख्य हैं- धनतेरस, काली चौदस, दीपावली, नूतन वर्ष और भाईदूज। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक के ये 5 दिन आनंद उत्सव मनाने के दिन हैं।
शरीर को रगड़-रगड़ कर स्नान करना, नये वस्त्र पहनना, मिठाइयाँ खाना, नूतन वर्ष का अभिनंदन देना-लेना. भाईयों के लिए बहनों में प्रेम और बहनों के प्रति भाइयों द्वारा अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करना – ऐसे मनाये जाने वाले 5 दिनों के उत्सवों के नाम है 'दीपावली पर्व।'
धनतेरसः धन्वंतरि महाराज खारे-खारे सागर में से औषधियों के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य-संपदा से समृद्ध हो सके, ऐसी स्मृति देता हुआ जो पर्व है, वही है धनतेरस। यह पर्व धन्वंतरि द्वारा प्रणीत आरोग्यता के सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपना कर सदैव स्वस्थ और प्रसन्न रहने का संकेत देता है।
काली चौदसः धनतेरस के पश्चात आती है 'नरक चतुर्दशी (काली चौदस)'। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर को क्रूर कर्म करने से रोका। उन्होंने 16 हजार कन्याओं को उस दुष्ट की कैद से छुड़ाकर अपनी शरण दी और नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया। नरकासुर प्रतीक है – वासनाओं के समूह और अहंकार का। जैसे, श्रीकृष्ण ने उन कन्याओं को अपनी शरण देकर नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया, वैसे ही आप भी अपने चित्त में विद्यमान नरकासुररूपी अहंकार और वासनाओं के समूह को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दो, ताकि आपका अहं यमपुरी पहुँच जाय और आपकी असंख्य वृत्तियाँ श्री कृष्ण के अधीन हो जायें। ऐसा स्मरण कराता हुआ पर्व है नरक चतुर्दशी।
इन दिनों में अंधकार में उजाला किया जाता है। हे मनुष्य ! अपने जीवन में चाहे जितना अंधकार दिखता हो, चाहे जितना नरकासुर अर्थात् वासना और अहं का प्रभाव दिखता हो, आप अपने आत्मकृष्ण को पुकारना। श्रीकृष्ण रुक्मिणी को आगेवानी देकर अर्थात् अपनी ब्रह्मविद्या को आगे करके नरकासुर को ठिकाने लगा देंगे।
स्त्रियों में कितनी भी शक्ति है। नरकासुर के साथ केवल श्रीकृष्ण लड़े हों, ऐसी बात नहीं है। श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी जी भी थीं। सोलह-सोलह हजार कन्याओं को वश में करने वाले श्रीकृष्ण को एक स्त्री (रुक्मणीजी) ने वश में कर लिया। नारी में कितनी अदभुत शक्ति है इसकी याद दिलाते हैं श्रीकृष्ण।
दीपावलीः फिर आता है आता है दीपों का त्यौहार – दीपावली। दीपावली की रात्री को सरस्वती जी और लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है। ज्ञानीजन केवल अखूट धन की प्राप्ति को लक्ष्मी नहीं, वित्त मानते हैं। वित्त से आपको बड़े-बड़े बँगले मिल सकते हैं, शानदार महँगी गाड़ियाँ मिल सकती हैं, आपकी लंबी-चौड़ी प्रशंसा हो सकती है परंतु आपके अंदर परमात्मा का रस नहीं आ सकता। इसीलिए दीपावली की रात्री को सरस्वतीजी का भी पूजन किया जाता है, जिससे लक्ष्मी के साथ आपको विद्या भी मिले। यह विद्या भी केवल पेट भरने की विद्या नहीं वरन् वह विद्या जिससे आपके जीवन में मुक्ति के पुष्प महकें। सा विद्या या विमुक्तये। ऐहिक विद्या के साथ-साथ ऐसी मुक्तिप्रदायक विद्या, ब्रह्मविद्या आपके जीवन में आये, इसके लिए सरस्वती जी का पूजन किया जाता है।
आपका चित्त आपको बाँधनेवाला न हो, आपका धन आपका धन आपकी आयकर भरने की चिंता को न बढ़ाये, आपका चित्त आपको विषय विकारों में न गिरा दे, इसीलिए दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है। लक्ष्मी आपके जीवन में महालक्ष्मी होकर आये। वासनाओं के वेग को जो बढ़ाये, वह वित्त है और वासनाओं को श्रीहरि के चरणों में पहुँचाए, वह महालक्ष्मी है। नारायण में प्रीति करवाने वाला जो वित्त है, वह है महालक्ष्मी।
नूतन वर्षः दीपावली वर्ष का आखिरी दिन है और नूतन वर्ष प्रथम दिन है। यह दिन आपके जीवन की डायरी का पन्ना बदलने का दिन है।
दीपावली की रात्री में वर्षभर के कृत्यों का सिंहावलोकन करके आनेवाले नूतन वर्ष के लिए शुभ संकल्प करके सोयें। उस संकल्प को पूर्ण करने के लिए नववर्ष के प्रभात में अपने माता-पिता, गुरुजनों, सज्जनों, साधु-संतों को प्रणाम करके तथा अपने सदगुरु के श्रीचरणों में जाकर नूतन वर्ष के नये प्रकाश, नये उत्साह और नयी प्रेरणा के लिए आशीर्वाद प्राप्त करें। जीवन में नित्य-निरंतर नवीन रस, आत्म रस, आत्मानंद मिलता रहे, ऐसा अवसर जुटाने का दिन है 'नूतन वर्ष।'
भाईदूजः उसके बाद आता है भाईदूज का पर्व। दीपावली के पर्व का पाँचनाँ दिन। भाईदूज भाइयों की बहनों के लिए और बहनों की भाइयों के लिए सदभावना बढ़ाने का दिन है।
हमारा मन एक कल्पवृक्ष है। मन जहाँ से फुरता है, वह चिदघन चैतन्य सच्चिदानंद परमात्मा सत्यस्वरूप है। हमारे मन के संकल्प आज नहीं तो कल सत्य होंगे ही। किसी की बहन को देखकर यदि मन दुर्भाव आया हो तो भाईदूज के दिन उस बहन को अपनी ही बहन माने और बहन भी पति के सिवाये 'सब पुरुष मेरे भाई हैं' यह भावना विकसित करे और भाई का कल्याण हो – ऐसा संकल्प करे। भाई भी बहन की उन्नति का संकल्प करे। इस प्रकार भाई-बहन के परस्पर प्रेम और उन्नति की भावना को बढ़ाने का अवसर देने वाला पर्व है 'भाईदूज'।
जिसके जीवन में उत्सव नहीं है, उसके जीवन में विकास भी नहीं है। जिसके जीवन में उत्सव नहीं, उसके जीवन में नवीनता भी नहीं है और वह आत्मा के करीब भी नहीं है।
भारतीय संस्कृति के निर्माता ऋषिजन कितनी दूरदृष्टिवाले रहे होंगे ! महीने में अथवा वर्ष में एक-दो दिन आदेश देकर कोई काम मनुष्य के द्वारा करवाया जाये तो उससे मनुष्य का विकास संभव नहीं है। परंतु मनुष्य यदा कदा अपना विवेक जगाकर उल्लास, आनंद, प्रसन्नता, स्वास्थ्य और स्नेह का गुण विकसित करे तो उसका जीवन विकसित हो सकता है। मनुष्य जीवन का विकास करने वाले ऐसे पर्वों का आयोजन करके जिन्होंने हमारे समाज का निर्माण किया है, उन निर्माताओं को मैं सच्चे हृदय से वंदन करता हूँ....
अभी कोई भी ऐसा धर्म नहीं है, जिसमें इतने सारे उत्सव हों, एक साथ इतने सारे लोग ध्यानमग्न हो जाते हों, भाव-समाधिस्थ हो जाते हों, कीर्तन में झूम उठते हों। जैसे, स्तंभ के बगैर पंडाल नहीं रह सकता, वैसे ही उत्सव के बिना धर्म विकसित नहीं हो सकता। जिस धर्म में खूब-खूब अच्छे उत्सव हैं, वह धर्म है सनातन धर्म। सनातन धर्म के बालकों को अपनी सनातन वस्तु प्राप्त हो, उसके लिए उदार चरित्र बनाने का जो काम है वह पर्वों, उत्सवों और सत्संगों के आयोजन द्वारा हो रहा है।
पाँच पर्वों के पुंज इस दीपावली महोत्सव को लौकिक रूप से मनाने के साथ-साथ हम उसके आध्यात्मिक महत्त्व को भी समझें, यही लक्ष्य हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों का रहा है।
इस पर्वपुंज के निमित्त ही सही, अपने ऋषि-मुनियों के, संतों के, सदगुरुओं के दिव्य ज्ञान के आलोक में हम अपना अज्ञानांधकार मिटाने के मार्ग पर शीघ्रता से अग्रसर हों – यही इस दीपमालाओं के पर्व दीपावली का संदेश है।
आप सभी को दीपावली हेतु, खूब-खूब बधाइयाँ.... आनंद-ही-आनंद... मंगल-ही-मंगल....
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धनतेरस, नरक चतुर्दशी (काली चौदस), लक्ष्मी-पूजन (दीपावली), गोवर्धन पूजन (अन्नकूट) या नूतन वर्ष और भाई-दूज, इन पाँच पर्वों के पुंज का नाम ही है दीपावली का पावन त्यौहार। दीपावली का पावन पर्व अंधकार में प्रकाश करने का पर्व है। वह हमें यह संदेश देता है कि हम भी अपने हृदय से अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश भर सकें।
बाह्य दीप जलाने से बाहर प्रकाश होता है, भीतर नहीं और जब तक भीतर का दीप, ज्ञान का दीप प्रज्जवलित नहीं होता, तब तक वास्तविक दीपावली भी नहीं मनती, केवल लौकिक दीपावली ही मनायी जाती है।
भगवान श्रीराम लंका विजय करके जिस दिन अयोध्या लौटे थे, उस दिन अयोध्यावासियों ने घर-आँगन की साफ-सफाई करके अनेकों दीप जलाये थे। उसी दिन से दीपावली का पर्व मनाया जाने लगा, ऐसी भी एक मान्यता है। हमारे अन्तःकरण में भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, ममता, अहंतारूपी कूड़ा-कचरा भरा है, अविद्यारूपी अंधकार भरा है। जिस दिन हम अपने अंतःकरण से इन कूड़े कचरों को, इन दोषों को हटा देंगे, ब्रह्मज्ञानरूपी दीपक को जलाकर अज्ञान अंधकार को मिटा देंगे, उसी दिन हमारे हृदयरूपी अवध में आनंददेव का, श्रीराम का आगमन हो जायगा। यही है पारमार्थिक दीपावली।
मैं दीपावली के इस पावन पर्व पर तुम्हारे भीतर ज्ञान का ऐसा दीप प्रज्जवलित करना चाहता हूँ, जिससे अज्ञानतापूर्वक स्वीकार की गयी तुम्हारी दीनता-हीनता, भय और शोकरूपी अंधकार नष्ट हो जाय। फिर तुम्हें हर वर्ष की तरह भिक्षापात्र लेकर तुच्छ सुखों की भीख के लिए अपने उन मित्र और कुटुम्बियों के समक्ष खड़े नहीं रहना पड़ेगा, जो कि स्वयं भी माँगते रहते हैं। मैं तुम्हारे ही भीतर छुपे हुए उस खजाने के द्वार खोलना चाहता हूँ, जिससे तुम अपने स्वरूप में जग जाओ और अपने सुख के मालिक आप बन जाओ।
परम ओजस्वी-तेजस्वी जीवन बिताओ, यही इस दीपावली पर शुभकामना है।
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महान संत श्री बाबा रामदेव की स्मृति में जैसलमेर (राज.) में रामदेवरा मेला लगा था। उनकी समाधि के दर्शनों के लिए हजारों श्रद्धालु पैदल यात्रा करके अथवा अन्य साधनों से रामदेवरा पहुँचे।
गुजरात राज्य के बनासकांठा नामक स्थान से भी श्रद्धालु भक्त पैदल ही बाबा की समाधि के दर्शनों हेतु निकले। इन्हीं पदयात्रियों के साथ एक कुत्ता भी हो लिया। लगभग आठ सौ कि.मी. की पदयात्रा के दौरान पदयात्रीगण तो मार्ग में रात्रि-विश्राम के समय सुबह-शाम भोजन करते परन्तु इस कुत्ते ने पदयात्रा प्रारम्भ होते ही अन्न जल का त्याग कर दिया। पदयात्रियों ने मार्ग में उसे पानी एवं दूध पिलाने के भरसक प्रयास किये परन्तु उसने हर बार मुँह फेर लिया। भोजन सामग्री को तो वह छूता भी नहीं था।
यह पदयात्री जत्था जब रामदेवरा स्थित एक धर्मशाला में पहुँचा तो वह कुत्ता भी अन्दर आ गया। इस पर जब धर्मशाला के संचालक ने कुत्ते के अन्दर आने पर आपत्ति जताई तो पदयात्रियों ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया। लगभग 20 दिन की यात्रा के कारण कुत्ता भूखा-प्यासा मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुका था। जब धर्मशाला के संचालक ने कुत्ते को दूध तथा पानी पिलाने की कोशिश की तो कुत्ते ने उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा। इस पर धर्मशाला में ठहरे हुए अन्य यात्रीगण भी कुत्ते की इस भक्ति-भावना को देखकर गदगद हो गये। सभी ने इस भक्त के प्रति हाथ जोड़क सम्मान प्रदर्शित किया।
बनासकांठा से आये हुए पदयात्रियों की इच्छा थी कि सुबह ही बाबा के दर्शन करेंगे परन्तु कुत्ते की दशा को देखकर धर्मशाला के संचालक ने उन्हें रात्रि में ही दर्शन करने की सलाह दी तथा मन्दिर समिति के मुनीम से कुत्ते को मंदिर में प्रवेश देने की सिफारिश की।
पदयात्रियों ने कुत्ते को कंधे पर ले जाकर बाबा रामदेव की समाधि के दर्शन कराये। यात्रियों का कहना था कि कुत्ते ने अत्यन्त श्रद्धा भावना के साथ समाधि के दर्शन किये तथा उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
दर्शन करने के पश्चात उसने भरपेट पानी पिया तथा अन्न ग्रहण किया।
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तप कई प्रकार के होते हैं। जैसे शारीरिक, मानसिक, वाचिक आदि। ऋषिगण कहते हैं कि मन की एकाग्रता सब तपों में श्रेष्ठ तप है।
जिसके पास एकाग्रता के तप का खजाना है, वह योगी रिद्धी-सिद्घी एवं आत्मसिद्धि दोनों को प्राप्त कर सकता है। जो भी अपने महान कर्मों के द्वारा समाज में प्रसिद्ध हुए हैं, उनके जीवन में भी जाने-अनजाने एकाग्रता की साधना हुई है। विज्ञान के बड़े-बड़े आविष्कार भी इस एकाग्रता के तप के ही फल हैं।
एकाग्रता की साधना को परिपक्व बनाने के लिए त्राटक एक महत्त्वाकांक्षी स्थान रखता है। त्राटक का अर्थ है किसी निश्चित आसन पर बैठकर किसी निश्चित वस्तु को एकटक देखना।
त्राटक कई प्रकार के होते हैं। उनमें बिन्दु त्राटक, मूर्ति त्राटक एवं दीपज्योति त्राटक प्रमुख हैं। इनके अलावा प्रतिबिम्ब त्राटक, सूर्य त्राटक, तारा त्राटक, चन्द्र त्राटक आदि त्राटकों का वर्णन भी शास्त्रों में आता है। यहाँ पर प्रमुख तीन त्राटकों का ही विवरण दिया जा रहा है।
विधिः किसी भी प्रकार के त्राटक के लिए शांत स्थान होना आवश्यक है, ताकि त्राटक करनेवाले साधक की साधना में किसी प्रकार का विक्षेप न हो।
भूमि पर स्वच्छ, विद्युत-कुचालक आसन अथवा कम्बल बिछाकर उस पर सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में कमर सीधी करके बैठ जायें। अब भूमि से अपने सिर तक की ऊँचाई माप लें। जिस वस्तु पर आप त्राटक कर रहे हों, उसे भी भूमि से उतनी ही ऊँचाई तथा स्वयं से भी उस वस्तु की उतनी ही दूरी रखें।
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8 से 10 इंच की लम्बाई व चौड़ाई वाले किसी स्वच्छ कागज पर लाल रंग से स्वास्तिक का चित्र बना लें। जिस बिन्दु पर स्वस्तिक की चारों भुजाएँ मिलती हैं, वहाँ पर सलाई से काले रंग का एक बिन्दु बना लें।
अब उस कागज को अपने साधना-कक्ष में उपरोक्त दूरी के अनुसार स्थापित कर दें। प्रतिदिन एक निश्चित समय व स्थान पर उस काले बिन्दु पर त्राटक करें। त्राटक करते समय आँखों की पुतलियाँ न हिलें तथा न ही पलकें गिरें, इस बात का ध्यान रखें।
प्रारम्भ में आँखों की पलकें गिरेंगी किन्तु फिर भी दृढ़ होकर अभ्यास करते रहें। जब तक आँखों से पानी न टपके, तब तक बिन्दु को एकटक निहारते रहें।
इस प्रकार प्रत्येक तीसरे चौथे दिन त्राटक का समय बढ़ाते रहें। जितना-जितना समय अधिक बढ़ेगा, उतना ही अधिक लाभ होगा।
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जिन किसी देवी-देवता अथवा संत-सदगुरू में आपकी श्रद्धा हो, जिन्हें आप स्नेह करते हों, आदर करते हों उनकी मूर्ति अथवा फोटो को अपने साधना-कक्ष में ऊपर दिये गये विवरण के अनुसार स्थापित कर दें।
अब उनकी मूर्ति अथवा चित्र को चरणों से लेकर मस्तक तक श्रद्धापूर्वक निहारते रहें। फिर धीरे-धीरे अपनी दृष्टि को किसी एक अंग पर स्थित कर दें। जब निहारते-निहारते मन तथा दृष्टि एकाग्र हो जाय, तब आँखों को बंद करके दृष्टि को आज्ञाचक्र में एकाग्र करें।
इस प्रकार का नित्य अभ्यास करने से वह चित्र आँखें बन्द करने पर भी भीतर दिखने लगेगा। मन की वृत्तियों को एकाग्र करने में यह त्राटक अत्यन्त उपयोगी होता है तथा अपने इष्ट अथवा सदगुरू के श्रीविग्रह के नित्य स्मरण से साधक की भक्ति भी पुष्ट होती है।
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अपने साधना कक्ष में घी का दीया जलाकर उसे ऊपर लिखी दूरी पर रखकर उस पर त्राटक करें। घी का दीया न हो तो मोमबत्ती भी चल सकती है परन्तु घी का दीया हो तो अच्छा है।
इस प्रकार दीये की लौ को तब तक एकटक देखते रहें, जब तक कि आँखों से पानी न गिरने लगे। तत्पश्चात् आँखें बन्द करके भृकुटी (आज्ञाचक्र) में लौ का ध्यान करें।
त्राटक साधना से अनेक लाभ होते हैं। इससे मन एकाग्र होता है और एकाग्र मनयुक्त व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो, उसका जीवन चमक उठता है। श्रेष्ठ मनुष्य इसका उपयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए ही करते हैं।
एकाग्र मन प्रसन्न रहता है, बुद्धि का विकास होता है तथा मनुष्य भीतर से निर्भीक हो जाता है। व्यक्ति का मन जितना एकाग्र होता है, समाज पर उसकी वाणी का, उसके स्वभाव का एवं उसके क्रिया-कलापों का उतना ही गहरा प्रभाव पड़ता है।
साधक का मन एकाग्र होने से उसे नित्य नवीन ईश्वरीय आनंद व सुख की अनुभूति होती है। साधक का मन जितना एकाग्र होता है, उसके मन में उठने वाले संकल्पों (विचारों) का उतना ही अभाव हो जाता है। संकल्प का अभाव हो जाने से साधक की आध्यात्मिक यात्रा तीव्र गति से होने लगती है तथा उसमें सत्य संकल्प का बल आ जाता है। उसके मुख पर तेज एवं वाणी में भगवदरस छलकने लगता है।
इस प्रकार त्राटक लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों के व्यक्तियों के लिए लाभकारी है।
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सत्र 43
गुरू वशिष्ठजी महाराज भगवान श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं-
येन
केन प्रकारेण
यस्य कस्यापि
देहीनः।
संतोषं
जनयेद्राम
तदेवेश्वरपूजनम्।।
'किसी भी प्रकार से किसी भी देहधारी को सन्तोष देना यही ईश्वर-पूजन है।'
(श्री योग वाशिष्ठ महारामायण)
कैसे भी करके किसी भी देहधारी को सुख देना, सन्तोष देना यह ईश्वर का पूजन है, क्योंकि प्रत्येक देहधारी में परमात्मा का निवास है।
चल
स्वरूप जोबन
सुचल चल वैभव
चल देह।
चलाचली
के वक्त में
भला भली कर
लेय।।
हमारा शरीर चल है, इसका कोई भरोसा नहीं। किसकी किस प्रकार, किस निमित्त से मृत्यु होने वाली है कोई पता नहीं।
मोरबी (सौराष्ट्र) में मच्छू बाँध टूटा और हजारों लोग बेचारे यकायक चल बसे। भोपाल गैस दुर्घटना में एक साथ बीस-बीस हजार लोग काल के ग्रास बन गये। कहीं पाँच जाते हैं कहीं पच्चीस जाते हैं। बद्रीनाथ के मार्ग पर बस उल्टी होकर गिर पड़ी, कई लोग मौत का शिकार बन गये। इस देह का कोई भरोसा नहीं।
चल
स्वरूप जोबन
सुचल चल वैभव
चल देह।
वैभव चल है। करोड़पति, अरबपति आदमी कब फूटपाथति हो जाय, कोई पता नहीं। यौवन कब वृद्धावस्था में परिवर्तित हो जायेगा, कब बीमारी पकड़ लेगी कोई पता नहीं। आज का जवान और हट्टाकट्टा दिखने वाला आदमी दो दिन के बाद कौन-सी परिस्थिति में जा गिरेगा, कोई पता नहीं। अतः हमें अपने शरीर का सदुपयोग कर लेना चाहिए।
शरीर का सदुपयोग यही है कि किसी देहधारी के काम आ जाना। मन का सदुपयोग है किसी को आश्वासन देना, सान्तवना देना। अपने पास साधन हों तो चीज़-वस्तुओं के द्वारा जरूरतमन्द लोगों की यथायोग्य सेवा करना। ईश्वर की दी हुई वस्तु ईश्वर-प्रीत्यर्थ किसी के काम में लगा देना। सेवा को सुवर्णमय मौका समझकर सत्कर्म कर लेना।
वशिष्ठजी महाराज कहते हैं- "हे राम जी ! येन केन प्रकारेण....।" किसी भी देहधारी को कैसे भी करके सुख देना चाहिए, चाहे वह पाला हुआ कुत्ता हो या अपना तोता हो, पड़ोसी हो या अपना भाई या बहन हो, मित्र हो या कोई अजनबी इन्सान हो। अपनी वाणी ऐसी मधुर, स्निग्ध और सारगर्भित हो कि जिससे हम सभी की सेवा कर सके।
शरीर से भी किसी की सेवा करनी चाहिए। रास्ते में चलते वक्त किसी पंगु मनुष्य को सहायरूप बन सकते हों तो बनना चाहिए। किसी अनजान आदमी को मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो सेवा का मौका उठा लेना चाहिए। कोई वृद्ध हो, अनाथ हो तो यथायोग्य सेवा कर लेने का अवसर नहीं चूकना चाहिए। सेवा लेने वाले की अपेक्षा सेवा करने वाले को अधिक आनन्द मिलता है।
भूखे को रोटी देना, प्यासे को जल पिलाना, हारे हुए, थके हुए को स्नेह के साथ सहाय करना, भूले हुए को मार्ग दिखाना, अशिक्षित को शिक्षा देना और अभक्त को भक्त बनाना चाहिए। बीड़ी, सिगरेट, शराब और जुआ जैसे व्यसनों में कैसे हुए लोगों को स्नेह से समझाना चाहिए। सप्ताह में पन्द्रह दिन में एक बार निकल पड़ना चाहिए अपने पड़ोस में, मुहल्लों में। अपने से हो सके ऐसी सेवा खोज लेनी चाहिए। इससे आपका अन्तःकरण पवित्र होगा, आपकी छुपी हुई शक्तियाँ जागृत होंगी।
आपके चित्त में परमात्मा की असीम शक्तियाँ हैं। इन असीम शक्तियों का सदुपयोग करना आ जाय तो बेड़ा पार हो जाय।
कलकत्ता में 1881 में प्लेग की महामारी फैल गयी। स्वामी विवेकानन्द सेवा में लग गये। उन्होंने अन्य विद्यार्थियों एवं संन्यासियों से कहाः
"हम लोग दीन-दुःखी, गरीब लोगों की सेवा में लग जायें।"
उन लोगों ने कहाः "सेवा में तो लग जायें लेकिन दवाइयाँ कहाँ से देंगे ? उनको पौष्टिक भोजन कहाँ से देंगे ?"
विवेकानन्द ने कहाः "सेवा करते-करते अपना मठ भी बेचना पड़े तो क्या हर्ज है ? अपना आश्रम बेचकर भी हमें सेवा करनी चाहिए।"
विवेकानन्द सेवा में लग गये। आश्रम तो क्या बेचना था ! भगवान तो सब देखते ही हैं कि ये लोग सेवा कर रहे हैं। लोगों के हृदय में प्रेरणा हुई और उन्होंने सेवाकार्य उठा लिया।
स्वामी विवेकानन्द का निश्चय था कि सेवाकार्य के लिए अपना मठ भी बेचना पड़े तो साधु-संन्यासियों को तैयारी रखना चाहिए। जनता-जनार्दन की सेवा में जो आनन्द व जीवन का कल्याण है वह भोग भोगने में नहीं है। विलासी जीवन में, ऐश आराम के जीवन में वह सुख नहीं है।
बिहार में 1967 में अकाल पड़ा। रविशंकर महाराज गुजरात में अहमदाबाद के किसी स्कूल में गये और बच्चों से उन्होंने कहाः
"बच्चों ! आप लोग युनिफार्म पहनकर स्कूल में पढ़ने के लिए आते हैं। आपको सुबह में नाश्ता मिलता है, दोपहर को भोजन मिलता है, शाम को भी भोजन मिलता है। किंतु बिहार में ऐसे बच्चे हैं कि जिन बेचारों को नाश्ता तो क्या, एक बार का भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता। ऐसे भी गरीब बच्चे हैं जिन बेचारों को पहनने के लिए कपड़े नहीं मिलते। ऐसे भी बच्चे हैं जिनको पढ़ने का मौका नहीं मिलता।
मेरे प्यारे बच्चों ! आपके पास तो दो-पाँच पोशाक होंगे किन्तु बिहार में आज ऐसे भी छात्र हैं जिनके पास दो जोड़ी कपड़े भी नहीं हैं। बिहार में अकाल पड़ा है। लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं।
सबके देखते ही देखते एक निर्दोष बालक उठ खड़ा हुआ। हिम्मत से बोलाः
"महाराज ! आप यदि वहाँ जाने वाले हों तो मैं अपने ये कपड़े उतार देता हूँ। मैं एक सप्ताह तक शाम का भोजन छोड़ दूँगा और मेरे हिस्से का वह अनाज घर से माँग कर ला देता हूँ। आप मेरी इतनी सेवा स्वीकार करें।"
बच्चों के भीतर दया छुपी हुई है, प्रेम छुपा हुआ है, स्नेह छुपा हुआ है, सामर्थ्य छुपा हुआ है। अरे ! बच्चों के भीतर भगवान योगेश्वर, परब्रह्म परमात्मा छुपे हुए हैं।
देखते ही देखते एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा.... करते-करते सब बच्चे गये अपने घर अनाज लाकर स्कूल में ढेर कर दिया।
रविशंकर महाराज ने थोड़ी सी शुरूआत की। वे जेतलपुर के स्कूल में गये और वहाँ प्रवचन किया। वहाँ एक विद्यार्थी खड़ा होकर बोलाः
"महाराज ! कृपा करके आप हमारे स्कूल में एक घण्टा ज्यादा ठहरें।"
"क्यों भाई ?"
"मैं अभी वापस आता हूँ।"
कहकर वह विद्यार्थी घर गया। दूसरे भी सब बच्चे घर गये और वापस आकर स्कूल में अनाज व कपड़ों का ढेर कर दिया।
बाद में सेठ लोग भी सेवा में लग गये। लाखों रूपयों का दान मिला और बिहार में सेवाकार्य शुरू हो गया।
रविशंकर महाराज कहते हैं-
"मुझे इस सेवाकार्य की प्रेरणा अगर किसी ने दी है तो इन नन्हें-मुन्ने बच्चों ने दी। मुझे आज पता चला कि छोटे-छोटे विद्यार्थियों में भी कुछ सेवा कर लेने की तत्परता होती है, कुछ देने की तत्परता होती है। हाँ, उनकी इस तत्परता को विकसित करने की कला, सदुपयोग करने की भावना होनी चाहिए।"
विद्यार्थियों में देने की तैयारी होती है। और तो क्या, अपना अहं भी देना हो तो उनके लिये सरल है। अपना अहं देना बड़ों को कठिन लगता है। बच्चे को अगर कहें कि ''बैठ जा" तो बैठ जायेगा और कहें 'खड़ा हो जा' तो खड़ा हो जायगा। उठ बैठ करायेंगे तो भी करेगा क्योंकि अभी वह निखालस है।
यह बाल्यावस्था आपकी बहुत उपयोगी अवस्था है, बहुत मधुर अवस्था है। आपको, आपके माता-पिता को, आचार्यों को इसका सदुपयोग करने की कला जितनी अधिक आयेगी उतने अधिक आप महान बन सकेंगे।
राजा विक्रमादित्य अपने अंगरक्षकों के स्थान पर, अपने निजी सेवकों के स्थान पर किशोर वय के बच्चों को नियुक्त करते थे। राजा जब निद्रा लेते तब छोटी-सी तलवार लेकर चौकी करने वाले किशोर उम्र के बच्चे उनके पास ही रहते थे।
किसी को कहीं सन्देश भेजना हो, कोई समाचार कहलवाना हो तो किशोर दौड़ते हुए जायेगा। बड़ा आदमी किशोर की तरह भागकर नहीं जाता।
आपकी किशोरावस्था बहुत ही उपयोगी अवस्था है, साहसिक अवस्था है, दिव्य कार्य कर सको ऐसी योग्यता प्रकट करने की अवस्था है।
भगवान
रामचन्द्रजी
जब सोलह साल
के थे उन दिनों
में गुरू
वशिष्ठजी ने
उपदेश दिया है
किः 'येन
केने
प्रकारेण.....'
आपसे हो सके उतने प्रेम से बात करो। आप माँ की थकान उतार सकते हो। पिता से कुछ सलाह पूछो, उनकी सेवा करो। पिता के हृदय में अपना स्थान ऊँचा बना सकते हो। पड़ोसी की सहाय करने पहुँच जाओ। आपके पड़ोसी फिर आपको देखकर गदगद हो जायेंगे। स्कूल में तन्मय होकर पढ़ो, समझो, सोचो, तो शिक्षक का हृदय प्रसन्न होगा।
प्रातःकाल उठकर पहले ध्यानमग्न हो जाओ। दस मिनट मौन रहो। संकल्प करो कि आज के दिन खूब तत्परता से कार्य करना है, उत्साह से करना है। 'येन केन प्रकारेण.....।' किसी भी प्रकार से किसी के भी काम में आना है, उपयोगी होना है। ऐसा संकल्प करेंगे तो आपकी योग्यता बढ़ेगी। आपके भीतर ईश्वर की असीम शक्तियाँ हैं। जितने अंश में आप निखालस होकर सेवा में लग जायेंगे उतनी वे शक्तियाँ जागृत होंगी।
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अब
कत्थे के
स्थान पर
जानलेवा 'गैम्बियर' का
प्रयोग.....
गुटखा पानमसाला के सेवन से कैन्सर का रोग होता है, यह बात सभी जानते हैं। लेकिन इस बात को शायद ही कोई जानता होगा कि गुटखा पानमसाले अब पहले से भी अधिक जानलेवा हो गये हैं क्योंकि अब निर्माता कंपनियाँ इनमें कत्थे के स्थान पर एक बहुत ही खतरनाक रसायन गैम्बियर का प्रयोग कर रही हैं। इससे कैन्सर का रोग पहले की अपेक्षा जल्दी होगा तथा अधिक घातक भी होगा।
गैम्बियर एक जहरीला रसायन है जिसका रंग कत्थे जैसा ही होता है। अधिकांशतः इसका उपयोग चमड़े को रंगने में किया जाता है। यह कत्थे से बहुत ही सस्ता होता है अतः ज्यादा कमाई करने की लालच में गुटखा-पानमसालों के निर्माता इसका उपयोग करने लगे हैं।
डॉक्टरों के अनुसा, "गैम्बियर का सेवन करने पर एक प्रकार का नशा पैदा होता है जिससे पहले तो मजा आता है, परन्तु बाद में सेवन करने वाला इसका इतना आदी हो जाता है कि इसके बिना वह रह नहीं सकता। एक बार गैम्बियरयुक्त गुटखा खाने वाले व्यक्ति के लिए इसे छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है।"
गैम्बियरयुक्त गुटखा खाने से न सिर्फ कैन्सर अपितु पसीना आना, चक्कर आना, मानसिक असंतुलन तथा मानसिक अवसाद जैसी भयानक बीमारियाँ भी होती हैं।
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गुटखा खाने से मुँह का कैन्सर होता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। बड़े-बड़े डॉक्टर एवं स्वास्थ्यविद् इसकी पुष्टि कर चुके हैं परन्तु इसके शौकीन लोग अपनी वासना को ही उत्तम मानकर बाकी लोगों को बेवकूफ समझते हैं।
जलगाँव (महा.) निवासी प्रवीण सरोदे ऐसा ही व्यक्ति था। सब कुछ जानते हुए भी वह बड़े शौक से गुटखा खाता था। परिणाम यह मिला कि उसको जबड़े तथा अन्न नली का कैन्सर हो गया। डॉक्टरों ने उसके इलाज के लिए इतनी राशि माँगी जितनी वह अपने पूरे जीवन में भी नहीं कमा सकता था।
अपने तथा अपने परिवार के कष्टमय भविष्य को देखते हुए वह निराशा की अंधेरी खाई में गिर गया। अपने गलत शौक का दुष्परिणाम भविष्य की यातना.... उसे अपने आप ग्लानि आ रही थी।
शुक्रवार दिनांक 8 दिसम्बर 2000 की रात्रि को वह सो नहीं पा रहा था। मध्य रात्रि के बाद उसके रक्त में घुले हुए गुटखे के जहर ने अपना आखिरी कमाल दिखाना आरम्भ कर दिया। सर्वप्रथम उसने अपनी 30 वर्षीय पत्नी पूनम का गला घोंट दिया। उसके बाद अपने 7 वर्षीय पुत्र सोहन तथा 5 वर्षीय पुत्री देवयानी का मुँह तकिये के नीचे दबाकर उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। ....और अंततः स्वयं भी नाइलोन की रस्सी गले में फाँसकर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार एक हँसते खेलते परिवार का कारूणिक अंत हो गया।
प्रवीण सरोदे का एक सुखी परिवार था। वह महाराष्ट्र राज्य परिवहन महामंडल में नौकरी करता था। घर में सब कुछ ठीक-ठाक ही था, कोई कमी नहीं थी। यदि कुछ बुरा था तो उसका गुटखा खाने का शौक, जिसने एक हँसते-खेलते परिवार को बेमौत मार डाला।
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प्रायः देखा गया है कि जो लोग तम्बाकूयुक्त अपद्रव्यों का प्रयोग करते हैं उनमें मुख, गले तथा फेफड़ों के रोग अधिकतर पाये जाते हैं। चूने में घिसकर जर्दा खाने वालों के मसूढ़ों व होठों को जोड़ने वाली त्वचा कट जाती है एवं मसूढ़ों के निरन्तर कटते रहने से उनके दाँत गिर जाते हैं।
जो लोग बार-बार तथा अधिक मात्रा में गुटखे का सेवन करते हैं, वे लोग पाल्मोनरी-टयूबर कुलोसिस रोग से ग्रसित रहते हैं। गुटखा खाने वाले व्यक्ति के दाँत अपने स्वाभाविक रंग को त्यागकर लाल अथवा पीले हो जाते हैं।
गुटखे व पान मसालों में मिलाये गये छिपकली के पाउडर तथा तेजाब से गालों के भीतर की अति नाजुक त्वचा गल जाती है। ऐसी स्थिति में ऑपरेशन द्वारा गाल को अलग करना पड़ता है। हाल ही में हुई खोजों से तो यहाँ तक पता चला है कि गुटखों तथा पान-मसालों में प्रयोग किया जाने वाला सस्ती क्वालिटी का कत्था मृत पशुओं के रक्त से तैयार किया जाता है। अनेक अनुसंधानों से पता चला है कि हमारे देश में कैन्सर से ग्रस्त रोगियों की संख्या का एक तिहाई भाग तम्बाकू तथा गुटखे आदि का सेवन करने वाले लोगों का है। गुटखा खाने वाले व्यक्ति की साँसों में अत्यधिक दुर्गन्ध आने लगती है तथा चूने के कारण मसूढ़ों के फूलने से पायरिया तथा दंतक्षय आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
तम्बाकू में निकोटिन नाम का एक अति विषैला तत्त्व होता है जो हृदय, नेत्र तथा मस्तिष्क के लिए अत्यन्त घातक होता है। इसके भयानक दुष्प्रभाव से अचानक आँखों की ज्योति भी चली जाती है। मस्तिष्क में नशे कि प्रभाव के कारण तनाव रहने से रक्तचाप उच्च हो जाता है।
व्यसन हमारे जीवन को खोखलाकर हमारे शरीर को बीमारियों का घर बना लेते हैं। प्रारम्भ में झूठा मजा दिलाने वाले ये मादक पदार्थ व्यक्ति के विवेक को हर लेते हैं तथा बाद में अपना गुलाम बना लेते हैं और अन्त में व्यक्ति को दीन-हीन, क्षीण करके मौत की कगार तक पहुँचा देते हैं। जीवन के उन अंतिम क्षणों में व्यक्ति को पछतावा होता है कि यदि दो साँसें और मिल जाय तो मैं इन व्यसनों की पोल खोलकर रख दूँ किन्तु मौत उसे इतना समय भी नहीं देती। इसलिए व्यसन हमें अपने मायाजाल में फंसाये, इससे पहले ही हमें जागना होगा तथा अपने इस अनमोल जीवन को परोपकार, सेवा, संयम, साधना तथा एक सुन्दर विश्व के निर्माण में लगाना होगा। पहल हमको ही करनी होगी। भारत जागा तो विश्व जागेगा। अतः हमें मान-बड़ाई एवं पद प्रतिष्ठा का प्रलोभन छोड़कर ईमानदारी से दैवीकार्य में लगना होगा। यह आप पढ़ें औरों को पढ़ायें। आप दैवीकार्य में लगे एवं औरों को भी दैवीकार्य के लिए प्रोत्साहित करें। भारत को पुनः अपने विश्व गुरू की गरिमा में जगायें....
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सत्र 44
आश्रम में पूज्य स्वामी जी थोड़े से भक्तों के सामने सत्संग कर रहे थे, तब एक गृहस्थी साधक ने प्रश्न पूछाः
"गृहस्थाश्रम में रहकर प्रभुभक्ति कैसे की जा सकती है ?"
पूज्य स्वामी जी ने प्रश्न का जवाब देते हुए एक सारगर्भित बात कहीः
"ज्ञानचंद नामक एक जिज्ञासु भक्त था। वह सदैव प्रभुभक्ति में लीन रहता था। रोज सुबह उठकर पूजा पाठ, ध्यान-भजन करने का उसका नियम था। उसके बाद वह दुकान में काम करने जाता। दोपहर के भोजन के समय वह दुकान बन्द कर देता और फिर दुकान नहीं खोलता था। बाकी के समय में वह साधु-संतों को भोजन करवाता, गरीबों की सेवा करता, साधु-संग एवं दान पुण्य करतात। व्यापार में जो मिलता उसी में संतोष रखकर प्रभुप्रीति के लिए जीवन बिताता था। उसके ऐसे व्यवहार से लोगों को आश्चर्य होता और लोग उसे पागल समझते। लोग कहतेः
'यह तो महामूर्ख है। कमाये हुए सभी पैसों को दान में लुटा देता है। फिर दुकान भी थोड़ी देर के लिए ही खोलता है। सुबह का कमाई करने का समय भी पूजा-पाठ में गँवा देता है। यह तो पागल ही है।'
एक बार गाँव के नगरसेठ ने उसे अपने पास बुलाया। उसने एक लाल टोपी बनायी थी। नगरसेठ ने वह टोपी ज्ञानचंद को देते हुए कहाः
'यह टोपी मूर्खों के लिए है। तेरे जैसा महान मूर्ख मैंने अभी तक नहीं देखा, इसलिय यह टोपी तुझे पहनने के लिए देता हूँ। इसके बाद यदि कोई तेरे से भी ज्यादा बड़ा मूर्ख दिखे तो तू उसे पहनने के लिए दे देना।'
ज्ञानचंद शांति से वह टोपी लेकर घर वापस आ गया। एक दिन वह नगरसेठ खूब बीमार पड़ा। ज्ञानचंद उससे मिलने गया और उसकी तबियत के हालचाल पूछे। नगरसेठ ने कहाः
"भाई ! अब तो जाने की तैयारी कर रहा हूँ।''
ज्ञानचंद ने पूछाः "कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो ? वहाँ आपसे पहले किसी व्यक्ति को सब तैयारी करने के लिए भेजा कि नही ? आपके साथ आपकी स्त्री, पुत्र, धन, गाड़ी, बंगला वगैरह आयेगा कि नहीं ?'
'भाई ! वहाँ कौन साथ आयेगा ? कोई भी साथ नहीं आने वाला है। अकेले ही जाना है। कुटुंब-परिवार, धन-दौलत, महल-गाड़ियाँ सब छोड़कर यहाँ से जाना है। आत्मा-परमात्मा के सिवाय किसी का साथ नहीं रहने वाला है।'
सेठ के इन शब्दों को सुनकर ज्ञानचंद ने खुद को दी गयी वह लाल टोपी नगरसेठ को वापस देते हुए कहाः "आप ही इसे पहनो।"
नगरसेठः "क्यों ?"
ज्ञानचंदः"मुझसे ज्यादा मूर्ख तो आप हैं। जब आपको पता था कि पूरी संपत्ति, मकान, परिवार वगैरह सब यहीं रह जायेगा, आपका कोई भी साथी आपके साथ नहीं आयेगा, भगवान के सिवाय कोई भी सच्चा सहारा नहीं है, फिर भी आपने पूरी जिंदगी इन्हीं सबके पीछे क्यों बरबाद कर दी ?
सुख
में आन बहुत
मिल बैठत रहत
चौदिस घेरे।
विपत
पड़े सभी संग
छोड़त कोउ न
आवे नेरे।।
जब कोई धनवान एवं शक्तिवान होता है तब सभी 'सेठ..... सेठ.... साहब..... साहब.....' करते रहते हैं और अपने स्वार्थ के लिए आपके आसपास घूमते रहते हैं। परंतु जब कोई मुसीबत आती है तब कोई भी मदद के लिए पास नहीं आता। ऐसा जानने के बाद भी अपने क्षणभंगुर वस्तुओं एवं संबंधों के साथ प्रीति की, भगवान से दूर रहे एवं अपने भविष्य का सामान इकट्ठा न किया तो ऐसी अवस्था में आपसे महान मूर्ख दूसरा कौन हो सकता है ? गुरू तेगबहादुर जी ने कहा हैः
करणो
हुतो सु न कीओ
परिओ लोभ के
फंध।
नानक
समिओ रमि गइओ
अब किउ रोवत
अंध।।
सेठ जी ! अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते। आप भी देख रहे हो कि कोई भी आपकी सहायता करने वाला नहीं है।
क्या वे लोग महामूर्ख नहीं हैं जो जानते हुए भी मोह माया में फँसकर ईश्वर से विमुख रहते हैं ? संसार की चीजों में, संबंधों में आसक्ति रखते हुए प्रभु-स्मरण, भजन, ध्यान एवं सत्पुरूषों का संग एवं दान-पुण्य करते हुए जिंदगी व्यतीत करते तो इस प्रकार दुःखी होने एवं पछताने का समय न आता।
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'बुरे काम का बुरा नतीजा' तो होता ही है। फैशनपरस्त लोगों ने यदि समाज को संयमहीन एवं विवेकहीन बनाने का पाप किया है तो फैशन उन्हें बीमारियों के रूप में अनेक इनाम भी दे रहा है।
कुछ समय से एक नया रोग देखने में आया है जिसका नाम है, 'वेरिकोस वेन'। भारत में कुल आबादी के दस से बीस प्रतिशत लोग इस बीमारी के शिकार हैं तथा महिलाओं में यह बीमारी पुरूषों की अपेक्षा चार गुना अधिक है।
फैशनपरस्ती इस रोग का सबसे बड़ा कारण है। जब तक इस देश में आधुनिकतावादी उच्छृंखल लोगों की कमी थी तब तक यह रोग बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता था।
'इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल', दिल्ली के वरिष्ठ 'कार्डियो वैस्कुलर सर्जन' के अनुसार आजकल फैशन एवं दिखावे की बढ़ती होड़ में ऊँची एड़ी की सैन्डिल एवं जूते तथा अत्यन्त चुस्त कपड़े पहनने से यह समस्या बढ़ रही है।
'वेरिकोस वेन' पैरों में होने वाला रोग है। 'वेरिकोस वेन' वे शिरायें हैं जो शरीर के अशुद्ध रक्त को शुद्धिकरण के लिए हृदय में पहुँचाती हैं। शिराओं को गुरूत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत कार्य करते हुए रक्त को ऊपर की ओर ले जाना होता है। इसके लिए इनमें वाल्व लगे होते हैं। जब रक्त ऊपर की ओर जाता है तो वाल्व खुल जाते हैं परंतु जब हम चलते-फिरते या खड़े रहते हैं तब गुरूत्वाकर्षण के कारण रक्त ऊपर से नीचे की ओर बहने लगता है ऐसे समय में इन शिराओं के वाल्व बन्द हो जाते हैं।
चुस्त कपड़े पहनने से इन शिराओं पर दबाव पड़ता है जिससे इनमें रक्त का प्रवाह रूक जाता है। इससे इनके वाल्व कार्य करना बन्द कर देते हैं। फलतः शिरायें रक्तप्रवाह को नियंत्रित नहीं कर पातीं हैं तथा दबाव से फूल जाती हैं और यहाँ से 'वेरिकोन वेन' नामक रोग की शुरूआत होती है।
इस रोग के कारण पैरों में स्थायी सूजन एवं भारीपन आ जाता है। पैरों तथा जाँघों में नीले रंग की गुच्छेदार नसें उभर आती हैं, जिससे खड़े रहने या चलने-फिरने में भयंकर दर्द होता है। आगे चलकर पैरों में एग्जिमा तथा कभी न भरने वाले घाव (वेरिकोन अल्सर) हो जाते हैं। बाद में इनमें भारी रक्तस्राव होता है और अंततः रोगी अपाहिज बन जाता है।
इसी प्रकार गर्मियों के दिनों में प्रयोग किये जाने वाले टेल्कम पावडर शरीर के रोमकूपों को बंद करके समस्या खड़ी कर देते हैं। शरीर के जो विजातीय हानिकारक द्रव पसीने के द्वारा बाहर निकलने चाहिए वे अन्दर ही रूक जाते हैं और समय आने पर अपना कमाल दिखाते हैं। पावडरों में प्रयुक्त होने वाले दुर्गन्धनाशक पदार्थ (डियोडोरेंट) से 'डमेटाइटिस' नामक चर्मरोग तक हो सकता है।
मुलतानी मिट्टी से स्नान करने पर रोम कूप खुल जाते हैं। मुलतानी मिट्टी से रगड़कर स्नान करने पर जो लाभ होते हैं साबुन से उसके एक प्रतिशत लाभ भी नहीं होते। स्फूर्ति और निरोगता चाहनेवालों को साबुन से बचकर मुलतानी मिट्टी से नहाना चाहिए। जापानी लोग हमारी वैदिक और पौराणिक विद्या का लाभ उठा रहे हैं। शरीर में उपस्थित व्यर्थ की गर्मी तथा पित्तदोष का शमन करने के लिए, चमड़ी एवं रक्त सम्बन्धी बीमारियों को ठीक करने के लिए जापानी लोग मुलतानी मिट्टी के घोल से 'टबबाथ' करते हैं तथा आधे घंटे के बाद शरीर को रगड़कर नहा लेते हैं। आप भी यह प्रयोग करके स्फूर्ति और स्वास्थ्य का लाभ ले सकते हैं। साबुन में तो चर्बी, सोडा खार एवं जहरीले रसायनों का मिश्रण होता है।
बालों को काला करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले 'हेयर डाई' में पेरा फिनाइल डाई अमीन रसायन होता है जो भयानक एलर्जी उत्पन्न करता है। कुछ वर्ष पहले चण्डीगढ़ स्थित पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल इन्स्टीच्यूट के डॉक्टरों ने एक अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि हेयर डाई का अधिक समय तक इस्तेमाल करने से मोतियाबिंद तक हो सकता है।
फैशन की शुरूआत तो अच्छा दिखने की अंधी होड़ से होती है परंतु अंत होता है खतरनाक बीमारियों के रूप में। कुछ लोग कहते हैं, हमें तो ऐसा कुछ नहीं हुआ परंतु भैया आज नहीं हुआ तो कल होगा। आज लोग जितने दुःखी एवं बीमार हैं, आज से पचास या सौ साल पहले इतने नहीं थे। कारण स्पष्ट है कि अशुद्ध खान-पान एवं अनियमित रहन सहन।
इसीलिए संतजन कहते हैं-
भूलकर
भी उस खुशी से
मत खेलो, जिसके
पीछे हों गम
की कतारें।
हमारी महान संस्कृति बाहरी सौन्दर्य की अपेक्षा आंतरिक सौन्दर्य को महत्त्व देती हैं। सदगुण, शील एवं चरित्र ही मनुष्य का असली सौन्दर्य है। संसार में जो भी महान एवं पवित्र आत्माएँ हुई हैं उन्होंने इसी सौन्दर्य को निखारा। फिर चाहे मीरा, शबरी, गार्गी, सुलभा, सीता, अनुसूया आदि हों या नानक, कबीर, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, लीलाशाहजी महाराज आदि हों।
बाहर के सौन्दर्य को निखारकर मैकाले पुत्रों द्वारा 'मिस इंडिया' या 'मिस वर्ल्ड' का खिताब भले ही मिल जाये लेकिन चारित्रिक महानता-पवित्रता एवं दैवीगुणों की शांतिमय सुवास तो भारतीय संत और संस्कृति ही दे सकती है।
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सत्र 45
विक्रमादित्य की निजी सेवा करने वाले कुछ किशोर थे। उनमें एक लड़का था जिसका नाम भी किशोर था। महाराज विक्रमादित्य जब सोते तब किशोर पहरा देता, चौकी करता। एक बार मध्य रात्रि के समय कोई दीन-दुःखी महिला आक्रन्द कर रही हो ऐसी आवाज आयी। बुद्धिमान् विक्रमादित्य चौंककर जाग उठे।
"अरे ! कोई रूदन कर रहा है ! जा किशोर ! तलाश कर। पास वाले मंदिर की ओर से यह आवाज आ रही है। क्या बात है जाँच करके आ।"
वह हिम्मतवान किशोर गया। देखा तो मंदिर में एक स्त्री रो रही है। किशोर ने पूछाः "तू कौन है ?"
वह कुलीन स्त्री बोलीः "मैं नगरलक्ष्मी हूँ, नगरश्री हूँ। इस नगर का राजा विक्रमादित्य बहुत दयालु इन्सान है। दीन-दुःखी लोगों के दुःख हरने वाला है। किशोर बच्चों को स्नेह करने वाला है। प्राणिमात्र की सेवा में तत्पर रहने वाला है। ऐसे दयालु, पराक्रमी, उदार और प्रजा का स्नेह से लालन-पालन करने वाले राजा के प्राण कल सुबह सूर्योदय के समय चले जायेंगे। मैं राज्यलक्ष्मी किसी पापी के हाथ लगूँगी। मेरी क्या दशा होगी ! अतः मैं रो रही हूँ।"
विक्रमादित्य का निजी सेवक, अंगरक्षक किशोर कहता हैः
"हे राज्यलक्ष्मी ! मेरे राजा साहब कल स्वर्गवासी होंगे ?"
"हाँ।"
"नहीं..... मेरे राजा साहब को मैं जाने नहीं दूँगा।"
"संभव नहीं है बेटा ! यह तो काल है। कुछ भी निमित्त से वह सबको ले जाता है।"
"इसका कोई उपाय ?"
"बेटे ! उपाय तो है। राजा विक्रमादित्य के बदले में कोई किशोर वय का बालक अपना सिर दे तो उसकी आयु राजा को मिले और राजा दीर्घायु बन जायें।"
म्यान से छोटी सी तलवार निकालकर अपना बलिदान देने के लिए तत्पर बना हुआ किशोर कहने लगाः
"हजारों के आँसू पोंछने वाले, हजारों दिलों में शांति देने वाले और लाखों नगरजनों के जीवन को पोसने वाले राजा की आयु दीर्घ बने और उसके लिए मेरे सिर का बलिदान देना पड़े तो हे राज्यलक्ष्मी ! ले यह बलिदान।"
तलवार के एक ही प्रहार से किशोर ने अपना सिर अर्पण कर दिया।
राजा विक्रमादित्य का स्वभाव था कि किसी आदमी को किसी काम के लिए भेजकर 'वह क्या करता है' यह जाँचने के लिए स्वयं भी छुपकर उसके पीछे जाते थे। आज भी किशोर के पीछे-पीछे छुपकर चल पड़े थे और किशोर क्या कर रहा था यह छुपकर देख रहे थे। उन्होंने किशोर का बलिदान देखाः "अरे ! किशोर ने मेरे लिए अपने प्राण भी दे दिये !" वे प्रकट होकर राज्यलक्ष्मी से बोलेः
"हे राज्यलक्ष्मी ! हे देवी ! मेरे लिए प्राण देने वाले इस बालक को आप जीवित करो। मुझे इस मासूम बच्चे के प्राण लेकर लम्बी आयु नहीं भोगनी है। मेरी आयु भले शांत हो जाय लेकिन इस बालक के प्राण नहीं जाने चाहिए। हे देवी ! आप मेरा सिर ले लो और इस बच्चे को जिन्दा कर दो।" राजा ने अपने म्यान से तलवार निकाली तो राज्यलक्ष्मी आद्या देवी ने कहाः "हाँ हाँ राजा विक्रम ! ठहरो। आप आराम करो। सब ठीक हो जायगा।"
विक्रमादित्य देवी को प्रणाम करके अपने महल में गये। देवी ने प्रसन्न होकर अपने संकल्प बल से किशोर को जिन्दा करके वापस भेज दिया। किशोर पहुँचा तो राजा अनजान होकर बिछौने पर बैठ गये। उन्होंने पूछाः
"क्यों किशोर ! क्या बात थी ? इतनी देर, क्यों लगी ?"
"तब वह किशोर कहता हैः "राजा साहब ! उस महिला को जरा समझाना पड़ा।"
"कौन थी वह महिला ?"
"कोई महिला थी, महाराज ! उसकी सास ने उसे डाँटकर घर से निकाल दिया था। मैं उसको सास के घर ले गया और समझाया कि इस प्रकार अपनी बहू को परेशान करोगी तो मैं महाराज साहब से शिकायत कर दूँगा। सास-बहू दोनों के बीच समझौता कराके आया, इसमें थोड़ी देर हो गयी और कुछ नहीं था। आप आराम महाराज !"
राजा विक्रमादित्य छलाँग मारकर खड़े हो गये और किशोर को गले लगा लिया। बोलेः
"अरे बेटा ! तू धन्य है ! इतना शौर्य..... इतना साहस.....! मेरे लिये प्राण कुर्बान कर दिये और वापस नवजीवन प्राप्त किया ! इस बात का भी गर्व न करके मुझसे छिपा रहा है ! किशोर..... किशोर.... तू धन्य है ! तूने मेरी उत्कृष्ट सेवा की, फिर भी सेवा करने का अभिमान नहीं है। बेटा ! तू धन्य है।"
सेवा करना लेकिन दिखावे के लिए नहीं अपितु भगवान को रिझाने के लिए करना। ध्यान करना लेकिन भगवान को प्रसन्न करने के लिए, कीर्तन करना लेकिन प्रभु को राजी करने के लिए। भोजन करें तो भी 'अंतर्यामी परमात्मा मेरे हृदय में विराजमान हैं उनको मैं भोजन करा रहा हूँ..... उनको भोग लगा रहा हूँ....' इस भाव से भोजन करें। ऐसा भोजन भी प्रभु की पूजा बन जाता है।
बच्चों में शक्ति होती है। इन बच्चों में से ही कोई विवेकानन्द बन सकता है, कोई गाँधी बन सकता है, कोई सरदार वल्लभभाई बन सकता है कोई रामतीर्थ बन सकता है और कोई आसाराम बन सकता है। कोई अन्य महान योगी, संत भी बन सकता है।
आप में ईश्वर की असीम शक्ति है। बीज के रूप में वह शक्ति सबके भीतर निहित है। कोई बच्ची गार्गी बन सकती है, कोई मदालसा बन सकती है।
मनुष्य का मन और मनुष्य की आत्मा इतनी महान है कि यह शरीर उसके आगे अति छोटा है। शरीर की मृत्यु तो होगी ही, कुछ भी करो। शरीर की मृत्यु तो होगी ही, कुछ भी करो। शरीर की मृत्यु हो जाय उसके पहले अमर आत्मा के अनुभव के लिए प्राणिमात्र की यथायोग्य सेवा कर लेना यह ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग है।
आँख को गल्त जगह न जाने देना यह आँख की सेवा है। जिह्वा से गलत शब्द न निकलना यह जिह्वा की सेवा है। कानों से गन्दी बातें न सुनना यह कान की सेवा है। मन से गलत विचार न करना यह मन की सेवा है। बुद्धि से हलके निर्णय न लेना यह बुद्धि की सेवा है। शरीर से हल्के कृत्य न करना यह शरीर की सेवा है। जैसे अपने शरीर की सेवा करते हैं ऐसे दूसरों को भी गलत मार्ग से बचाना, उन्हें सन्मार्ग की ओर मोड़ना उनकी सेवा है।
ऐसा कोई नियम ले लो कि सप्ताह में एक दिन नहीं तो दो घण्टे सही, लेकिन सेवा अवश्य करेंगे। अड़ोस-पड़ोस के इर्द-गिर्द कहीं कचरा होगा तो इकट्ठा करके जला देंगे, कीचड़ होगा तो मिट्टी डालकर सुखा देंगे। अपने इर्द-गिर्द का वातावरण स्वच्छ बनायेंगे।
ऐसा भी नियम ले लो कि सप्ताह में चार लोगों को 'हरि ॐ...... ॐ...... गायेजा.....' ऐसा सिखायेंगे। सप्ताह में एक दो साधकों को, भक्तों को भगवान के लाडले बनायेंगे, बनायेंगे और बनायेंगे ही।
यह नियम या ऐसा अन्य कोई भी पवित्र नियम ले लो। क्यों, लोगे न ?
शाबाश वीर ! शाबाश ! हिम्मत रखो, साहस रखो। बार-बार प्रयत्न करो। अवश्य सफल होगे..... धन्य बनोगे।
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भारतीय समाज में स्त्री पुरूषों में आभूषण पहनने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। आभूषण धारण करने का अपना एक महत्त्व है, जो शरीर और मन से जुड़ा हुआ है। स्वर्ण के आभूषणों की प्रकृति गर्म है तथा चाँदी के गहनों की प्रकृति शीतल है।
आभूषणों में किसी विपरीत धातु के टाँके से भी गड़बड़ी हो जाती है, अतः सदैव टाँकारहित आभूषण पहनना चाहिए अथवा यदि टाँका हो तो उसी धातु का होना चाहिए जिससे गहना बना हो।
विद्युत सदैव सिरों तथा किनारों की ओर से प्रवेश किया करती है। अतः मस्तिष्क के दोनों भागों को विद्युत के प्रभावों से प्रभावशाली बनाना हो तो नाक और कान में छिद्र करके सोना पहनना चाहिए। कानों में सोने की बालियाँ अथवा झुमके आदि पहनने से स्त्रियों में मासिक धर्म संबंधी अनियमितता कम होती है, हिस्टीरिया में लाभ होता है तथा आँत उतरने अर्थात हर्निया का रोग नहीं होता है। नाक में नथुनी धारण करने से नासिका संबंधी रोग नहीं होते तथा सर्दी-खाँसी में राहत मिलती है। पैरों की उंगलियों में चाँदी की बिछिया पहनने से स्त्रियों में प्रसवपीड़ा कम होती है, साइटिका रोग एवं दिमागी विकार दूर होकर स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। पायल पहनने से पीठ, एड़ी एवं घुटनों के दर्द में राहत मिलती है, हिस्टीरिया के दौरे नहीं पड़ते तथा श्वास रोग की संभावना दूर हो जाती है। इसके साथ ही रक्तशुद्धि होती है तथा मूत्ररोग की शिकायत नहीं रहती।
मानवीय जीवन को स्वस्थ व आनन्दमय बनाने के लिए वैदिक रस्मों में सोलह श्रृंगार अनिवार्य करार दिये गये हैं, जिसमें कर्णछेदन तो अति महत्त्वपूर्ण है। प्राचीनकाल में प्रत्येक बच्चे को, चाहे वह लड़का हो या लड़की, के तीन से पाँच वर्ष की आयु में दोनों कानों का छेदन करके जस्ता या सोने की बालियाँ पहना दी जाती थीं। इस विधि का उद्देश्य अनेक रोगों की जड़ें बाल्यकाल ही में उखाड़ देना था। अनेक अनुभवी महापुरूषों का कहना है कि इस क्रिया से आँत उतरना, अंडकोष बढ़ना तथा पसलियों के रोग नहीं होते हैं। छोटे बच्चों की पसली बार-बार उतर जाती है उसे रोकने के लिए नवजात शिशु जब छः दिन का होता है तब परिजन उसे हँसली और कड़ा पहनाते हैं। कड़ा पहनने से शिशु के सिकुड़े हुए हाथ-पैर भी गुरूत्वाकर्षण के कारण सीधे हो जाते हैं। बच्चों को खड़े रहने की क्रिया में भी बड़ा बलप्रदायक होता है।
यह मान्यता भी है कि मस्तक पर बिंदिया अथवा तिलक लगाने से चित्त की एकाग्रता विकसित होती है तथा मस्तिष्क में पैदा होने वाले विचार असमंजस की स्थिति से मुक्त होते हैं। आजकल बिंदिया में सम्मिलित लाल तत्त्व पारे का लाल आक्साइड होता है जो कि शरीर के लिए लाभप्रदायक सिद्ध होता है। बिंदिया एवं शुद्ध चंदन के प्रयोग से मुखमंडल झुर्रीरहित बनता है। माँग में टीका पहनने से मस्तिष्क संबंधी क्रियाएँ नियंत्रित, संतुलित तथा नियमित रहती हैं एवं मस्तिष्कीय विकार नष्ट होते हैं लेकिन वर्त्तमान में जो केमिकल की बिंदिया चल पड़ी है वह लाभ के बजाय हानि करती है।
हाथ की सबसे छोटी उंगली में अँगूठी पहनने से छाती का दर्द व घबराहट से रक्षा होती है तथा ज्वर, कफ, दमा आदि के प्रकोपों से बचाव होता है। स्वर्ण के आभूषण पवित्र, सौभाग्यवर्धक तथा संतोषप्रदायक हैं। रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से ग्रहों की पीड़ा, दुष्टों की नजर एवं बुरे स्वप्नों का नाश होता है। शुक्राचार्य के अनुसार पुत्र की कामनावाली स्त्रियों को हीरा नहीं पहनना चाहिए।
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एक सर्वेक्षण के अनुसार ऊँची एड़ी की चप्पलें पहनने वाली महिलाओं में से लगभग 60 प्रतिशत के पैरों में दर्द की शिकायत रहती है। परन्तु ये युवतियाँ इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं देती।
ऊँची एड़ी के जूते-चप्पल पहनने से जांघ की क्वाड्रिसेप मांसपेशी को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है और इससे घुटने की कटोरी पर दबाव बढ़ता है। ऊँची एड़ी की चप्पलें शरीर पर अनावश्यक भार डालती है। इन चप्पलों को पहनने से पैर आरामदायक स्थिति में नहीं रह पाते। यह नेत्रज्योति पर भी कुप्रभाव डालती है।
छोटा कद होने की हीन ग्रन्थि को मन से निकाल देना चाहिए। जापान में लोग ठिगने होने पर भी ऊँची एड़ी के जूते-चप्पल का प्रयोग नहीं करते और सिर ऊँचा करके जीते हैं। जापान में जब अतिथि आता है तो सर्वप्रथम उसके पाँव ठंडे पानी से धुलाये जाते हैं। ऐसा करने का उनका उद्देश्य अतिथि का स्वागत करने के साथ-साथ आगन्तुक की थकान उतारना भी होता है।
हमारे देश में भी अतिथि के पाँव धोने से उक्त वैज्ञानिक परम्परा पुरातन काल से चली आ रही है। अतः पैरों की सुविधा के लिए जूते चप्पलों का प्रयोग करें न कि फैशन से प्रभावित होकर रूप सज्जा के लिए।
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सत्र 46
दो मित्र चार-पाँच वर्ष के बाद एक-दूसरे से मिले और परस्पर खबर पूछने लगे। एक मित्र ने दुःखी मन से कहाः
''मेरे पास एक सुन्दर बड़ा घर था। दस बीघा जमीन थी। दस-बारह बैल थे। गायें थीं, पाँच बछड़े भी थे परन्तु मैंने वह सब खो दिया। मेरी पत्नी और मेरे बच्चे भी मर गये। मेरे पास केवल ये पहने हुए कपड़े ही रह गये हैं।"
यह सुनकर उसका मित्र हँसने लगा। उसको हँसता हुआ देखकर इसको गुस्सा आया। वह बोलाः
"तू मेरा जिगरी दोस्त है। मेरी इस दशा पर तुझे दुःख नहीं होता और ऊपर से मजाक करता है ? तुझे तो मेरी हालत देखकर दुःखी होना चाहिए।"
मित्र ने कहाः "हाँ.... तेरी बात सच्ची है। परन्तु अब मेरी बात भी सुनः मेरे पास पैंसठ बीघा जमीन थी। लगभग तीस मकान थे। मैंने शादी की और 21 बच्चे पैदा हुए। लगभग तीस बैल और गायें थीं। 'सिंध नेशनल बेंक' में मेरे पाँच लाख रूपये थे। मैंने वह सब खो दिया। मैंने अपनी परिस्थिति का स्मरण किया तो मेरी तुलना में तेरा दुःख तो कुछ भी नहीं है। इसलिए मुझे हँसी आ गई।
विचार करें तो संसार और संसार के नश्वर भोग-पदार्थों में सच्चा सुख नहीं है। यह सब आज है और कल नहीं। सब परिवर्तनशील है, नाशवान है।
एक सेठ प्रतिदिन साधु संतों को भोजन कराता था। एक बार एक नवयुवक संन्यासी उसके यहाँ भिक्षा के लिए आया। सेठ का वैभव-विलास देखकर वह खूब प्रभावित हुआ और विचारने लगाः
'संत तो कहते हैं कि संसार दुःखालय है, परन्तु यहाँ इस सेठ के पास कितने सारे सोने चाँदी के बर्तन हैं ! सुख के सभी साधन हैं। यह बहुत सुखी लगता है।' ऐसा मानकर उसने सेठ से पूछाः
"सेठ जी ! आप तो बहुत सुखी लगते हैं। मैं मानता हूँ कि आपको कोई दुःख नहीं होगा।"
सेठजी की आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। सेठ ने जवाब दियाः "मेरे पास धन-दौलत तो बहुत है परन्तु मुझे एक भी सन्तान नहीं है। इस बात का दुःख है।"
संसार में गरीब हो या अमीर, प्रत्येक को कुछ-न-कुछ दुःख अथवा मुसीबत होती ही है। किसी को पत्नी से दुःख होता है तो किसी को पत्नी नहीं है इसलिए दुःख होता है। किसी को सन्तान से दुःख होता है तो किसी को सन्तान नहीं है इस बात का दुःख होता है। किसी को नौकरी से दुःख होता है तो किसी को नौकरी नहीं है इस बातका दुःख होता है। कोई कुटुम्ब से दुःखी होता है तो किसी को कुटुम्ब नहीं है इस बात का दुःख होता है। किसी को धन से दुःख होता है किसी को धन नहीं है इस बात का दुःख होता है। इस प्रकार किसी-न-किसी कारण से सभी दुःखी होते हैं।
नानक !
दुःखिया सब
संसार.....
तुम्हें यदि सदा के लिए परम सुखी होना हो तो तमाम सुख-दुःख के साक्षी बनो। तुम अमर आत्मा हो, आनन्दस्वरूप हो..... ऐसा चिन्तन करो। तुम शरीर नहीं हो। सुख-दुःख मन को होता है। राग-द्वेष बुद्धि को होता है। भूख-प्यास प्राणों को लगती है। प्रारब्धवश जिन्दगी में कोई दुःख आये तो ऐसा समझो किः 'मेरे कर्म कट रहे हैं.... मैं शुद्ध हो रहा हूँ।'
एक बार लक्ष्मण ने भगवान श्रीराम से कहाः "कैकेयी को मजा चखाना चाहिए।"
भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण को रोका और कहाः
"कैकेयी तो मुझे मेरी माता कौशल्या से भी ज्यादा प्रेम करती हैं। उस बेचारी का क्या दोष ? सभी कुछ प्रारब्ध के वश में है। कैकेयी माता यदि ऐसा न करतीं तो वनवास कौन जाता और राक्षसों को कौन मारता ? याद रखो कि कोई किसी का कुछ नहीं करता।"
नाच
नचे संसार मति, मन के
भाई सुभाई।
होवनहार
न मिटे कस, तोड़े
यत्न कोढ़
कमाई।।
जो समय बीत गया वह बीत गया। जो समय बाकी रहा है उसका सदुपयोग करो। दुर्लभ मनुष्य योनि बार-बार नहीं मिलती इसलिए आज से ही मन में दृढ़ निश्चय करो कि "मैं सत्पुरूषों का संग करके, सत्शास्त्रों का अध्ययन करके, विवेक और वैराग्य का आश्रय लेकर, अपने कर्त्तव्यों का पालन करके इस मनुष्य जन्म में ही मोक्ष पद की प्राप्ति करूँगा..... सच्चे सुख का अनुभव करूँगा।" इस संकल्प को कभी-कभार दोहराते रहने से दृढ़ता बढ़ेगी।
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वर्त्तमान समय में विदेशों के साथ-साथ भारत में भी चाय का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है।
लोगों में एक भ्रम है कि चाय-काफी पीने से शरीर तथा मस्तिष्क में स्फूर्ति उत्पन्न होती है। वास्तव में स्वास्थ्य के लिए चाय-काफी बहुत हानिकारक है। अनुभवी डॉक्टरों के प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि चाय-काफी के सेवन से नींद उड़ जाती है, भूख मर जाती है, दिमाग में खुश्की आने लगती है तथा डायबटीज जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।
एक संशोधन से ज्ञात हुआ है कि चाय के एक प्याले में कई प्रकार के विष होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर अपना-अपना दुष्प्रभाव डालते है। चाय के एक प्याले में 18 % 'टैनीन' नामक विष होता है। इसके दुष्प्रभाव से पेट में घाव तथा गैस पैदा होते हैं। चाय में उपस्थित दूसरे विष का नाम है 'थीन'। इसकी मात्रा 3 % तक होती है। इससे खुश्की होती है तथा फेफड़ों एवं दिमाग में भारीपन पैदा होता है। तीसरे विष का नाम है 'कैफीन'। इसकी मात्रा 2.75 % होती है। यह शरीर में अम्ल (Acid) बनाता है तथा गुर्दों को कमजोर करता है। गर्म चाय पीते समय इसकी उड़ने वाली वाष्प आँखों पर हानिकारक प्रभाव डालती है। 'कार्बोनिल अम्ल' से एसिडिटी होती है। 'पैमीन' से पाचन-शक्ति कमजोर होती है। 'एरोमोलिक' आँतों में खुश्की पैदा करता है। 'साइनोजेन' से अनिद्रा तथा लकवा जैसी भयानक बीमारियाँ उपजती हैं। 'आक्सेलिक अम्ल' शरीर के लिए अत्यन्त हानिकारक है तथा 'स्टिनायल' नामक दसवाँ विष रक्त-विकार एवं नपुंसकता पैदा करता है।
थकान अथवा नींद आने पर व्यक्ति यह सोचकर चाय पीता है कि, 'मुझे नयी स्फूर्ति प्राप्त होगी' परन्तु वास्तव में चाय पीने से शरीर का रक्तचाप काफी बढ़ जाता है। इससे शरीर की माँसपेशियाँ अधिक उत्तेजित हो जाती हैं तथा व्यक्ति स्फूर्ति का अनुभव करता है। इस क्रिया से हृदय पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा दिल के दौरे पड़ने की बीमारी पैदा होती है।
चाय के विनाशकारी व्यसन में फँसे हुए लोग स्फूर्ति का बहाना बनाकर हारे हुए जुआरी की तरह उसमें अधिकाधिक डूबते चले जाते हैं। अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा पसीने की कमाई को व्यर्थ में गँवा देते हैं और भयंकर व्याधियों के शिकार बन जाते हैं।
यदि किसी का चाय-कॉफी का व्यसन छूटता न हो, किसी कारणवशात् चाय-कॉफी जैसे पेय की आवश्यकता महसूस होती हो तो उससे भी अधिक रूचिकर और लाभप्रद एक पेय (क्वाथ) बनाने की विधि इस प्रकार हैः
सामग्रीः गुलबनप्शा 25 ग्राम, छाया में सुखाये हुए तुलसी के पत्ते 25 ग्राम, तज 25 ग्राम, बड़ी इलायची 12 ग्राम, सौंफ 12 ग्राम, ब्राह्मी के सूखे पत्ते 12 ग्राम, छिली हुई जेठी मध के 12 ग्राम।
विधिः उपरोक्त प्रत्येक वस्तु को अलग-अलग कूटकर चूर्ण करके मिश्रण कर लें। जब चाय-कॉफी पीने की आवश्यकता महसूस हो तब मिश्रण में से 5-6 ग्राम चूर्ण 400 ग्राम पानी में उबालें। जब आधा पानी बाकी रहे तब नीचे उतारकर छान लें। उसमें दूध शक्कर मिलाकर धीरे-धीरें पियें।
लाभः इस पेय को लेने से मस्तिष्क में शक्ति आती है, शरीर में स्फूर्ति आती है, भूख बढ़ती है एवं पाचन क्रिया वेगवती बनती है। इसके अतिरिक्त सर्दी, बलगम, खाँसी, दमा, श्वास, कफजन्य ज्वर और न्यूमोनिया जैसे रोग होने से रूकते हैं।
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सत्र 47
जैसे डॉक्टरी पास करने पर भी बड़े डॉक्टर के साथ रहना, देखना, सीखना जरूरी होता है और वकालत पास करने पर भी वकील के पास रहना-सीखना जरूरी होता है, वैसे ही ईश्वर से मिलने के लिए, अनजाने रास्ते पर चलने के लिए किसी जानकार की सहायता लेना आवश्यक है।
बाह्य वस्तुओं को तो आप आँख से देख भी सकते हैं, नाक से सूँघ भी सकते हैं और जीभ से चखकर जान भी सकते हैं परन्तु ईश्वर एक ऐसी वस्तु है, सत्य एक ऐसी वस्तु है जो इन्द्रियों का विषय भी नहीं है, जो आपकी सभी इन्द्रियों को संचालित करने वाला है, वह अन्तर्यामी आपका आत्मा ही है। किसी भी इन्द्रिय की ऐसी गति नहीं है कि वह उल्टा होकर आपको देखे। उसके लिए प्रमाण होता है वाक्य।
चरणदास
गुरू किरपा
कीन्हीं। उलट
गयी मोरी नैन
पुतरिया।।
गुरू हमारी छठी इन्द्रिय का दरवाजा खोल देते हैं, हमें बाहर की चीजों को देखने वाली आँख की जगह भीतर देखने वाली आँख, आत्मा-परमात्मा को देखने वाली शक्ति का दान करते हैं। माने, गुरू ईश्वर का दान करते हैं और शिष्य उसको ग्रहण करता है, पचा लेता है। ईश्वर का दान करने को 'दी' बोलते हैं और पचाने की शक्ति को 'क्षा' बोलते हैं। इस तरह बनता है 'दीक्षा'। दीक्षा माने देना और पचाना। गुरू का देना और शिष्य का पचाना।
जिसका कोई गुरू नहीं है, उसका कोई सच्चा हितैषी भी नहीं है। क्या आप ऐसे हैं कि आपका लोक-परलोक में, स्वार्थ-परमार्थ में कोई मार्ग दिखाने वाला नहीं है ? फिर तो आप बहुत असहाय हैं। क्या आप इतने बुद्धिमान हैं और अपनी बुद्धि का आपको इतना अभिमान है कि आप अपने से बड़ा ज्ञानी किसी को समझते ही नहीं ? यह तो अभिमान की पराकाष्ठा है भाई !
दीक्षा कई तरह से होती हैः आँख से देखकर, संकल्प से, हाथ से छूकर और मंत्र-दान करके। अब, जैसी शिष्य की योग्यता होगी, उसके अनुसार ही दीक्षा होगी। योग्यता क्या है ? शिष्य की योग्यता है श्रद्धा और गुरू की योग्यता है अनुग्रह। जैसे वर-वधू का समागम होने से पुत्र उत्पन्न होता है, वैसे ही श्रद्धा और अनुग्रह का समागम होने से जीवन में एक विशेष प्रकार के आत्मबल का उदय होता है और शिष्य के लिए इष्ट का, मंत्र का और साधना का निश्चय होता है ताकि आप उसको बदल न दें। नहीं तो कभी किसी से कुछ सुनेंगे, कभी किसी से कुछ, और जो जिसकी तारीफ करने में कुशल होगा, अपने इष्ट व मंत्र की खूब-खूब महिमा सुनायेगा, वही करने का मन हो जायेगा। फिर कभी 'योगा' करेंगे तो कभी 'विपश्यना' करेंगे, कभी वेदान्त पढ़ने लगेंगे तो कभी राम-कृष्ण की उपासना करने लगेंगे, कभी निराकार तो कभी साकार।
आपके सामने जो सुन्दर लड़का या लड़की आवेगी, उसी से ब्याह करने का अर्थ होता है कि एक ही पुरूष या एक ही स्त्री हमारे जीवन में रहे, वैसे ही मंत्र लेने का अर्थ होता है एक ही निष्ठा हमारे जीवन में हो जाय, एक ही हमारा मंत्र रहे और एक ही हमारा इष्ट रहे।
एक बात आप और ध्यान में रखें। निष्ठा ही आत्मबल देती है। यही भक्त बनाती है। यही स्थितप्रज्ञ बनाती है। परमात्मा एक अचल वस्तु है। उसके लिए जब हमारा मन अचल हो जाता है, तब अचल और अचल दोनों मिलकर एक हो जाते हैं।
इसलिए, गुरू हमको अपने इष्ट में, अपने ध्यान में, अपनी पूजा में, अपने मंत्र में अचलता, निष्ठा देते हैं और जो आप चाहते हैं सो आपके देते हैं। देने में और दिलाने में वे समर्थ होते हैं। हम तो कहते हैं कि वे लोग दुनियाँ में बड़े अभागे हैं, जिनके गुरू नहीं हैं।
देखो, यह बात भी तो है कि यदि कोई वेश्या के घर में भी जाना चाहे तो उसे मार्गदर्शक चाहिए, जुआ खेलना चाहे तो भी कोई बताने वाला चाहिए, किसी की हत्या करना चाहे तो भी कोई बताने वाला चाहिए, फिर यह जो ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग है, भक्ति है, साधना है उसको आप किसी बताने वाले के बिना, गुरू के बिना कैसे तय कर सकते हैं, यह एक आश्चर्य की बात है।
गुरू आपको मंत्र भी देते हैं, साधना भी बताते हैं, इष्ट का निश्चय भी कराते हैं और गलती होने पर उसको सुधार भी देते हैं। आप बुरा न मानें, एक बात मैं आपको कहता हूँ- ईश्वर सब है, इसलिए उसकी प्राप्ति का साधन भी सब है।
सब देश में, सब काल में, सब वस्तु में, सब व्यक्ति में, सब क्रिया में, सब क्रिया में ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। केवल आपको अभी तक पहचान करानेवाला मिला नहीं है, इसी से आप ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। अतः दीक्षा तो साधना का, साधना का ही नहीं जीवन का आवश्यक अंग है। दीक्षा के बिना तो जीवन पशु-जीवन है।
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हमारे ऋषि मुनियों तथा योगियों ने प्रेम, श्रद्धा, पूजा (प्रार्थना) तथा जप ध्यान के द्वारा मानव के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। भारत के इन महापुरूषों के ऐसे सूत्रों के अमिट प्रभाव को आज के विज्ञान को भी स्वीकार करना पड़ रहा है। अनेक शोधकर्त्ताओं ने भारतीय शास्त्रों का अध्ययन करके उनमें बताये गये सूत्रों को विज्ञान की आधुनिक पद्धति द्वारा सिद्ध करने का प्रयास किया तथा कुछ को उसमें आंशिक रूप से सफलता भी मिली।
अर्वाचीन वैज्ञानिक भी मानते हैं कि प्रेम, श्रद्धा, प्रार्थना एवं ध्यान के द्वारा चमत्कारिक रोग प्रतिकारक शक्ति पैदा होती है। यही क्षमता असाध्य माने जाने वाले रोगों को भी मिटाने में अत्यधिक मददरूप बनती है।
चेरिंग क्रॉस अस्पताल के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. पीटर निक्सन ने कोरोनरी थ्रोम्बोसिस और ऐक्यूट हार्ट डिसीसेज़ के इलाज के लिए 'केबल इन्टेसिव केयर यूनिट' (ICU) का ही नहीं अपितु 'ध्यान' का प्रयोग करके आश्चयर्जनक सफलता प्राप्त की। डॉ. निक्सन ने अपने मरीजों को 'ह्यूमन फंक्शन कर्व' सिखाया जिससे शीघ्र ही दर्द का शमन हो जाता है। उच्च रक्तचाप के मरीजों का रक्तचाप इस प्रयुक्ति से स्वतः ही सामान्य हो जाता है।
सॉन फ्रांसिस्को को जनरल हॉस्पिटल के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. रेन्डोल्फ बायर्ड द्वारा एक प्रयोग किया गया है। डॉ. रेन्डोल्फ ने ऐसे आठ सौ मरीजों को चुना जिनकी हृदय रोग होने के कारण सर्जरी की जाने वाली थी। इनमें से चार सौ मरीजों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए अलग-अलग स्थानों के प्रार्थना की गई। डॉ. रेन्डोल्फ ने जब अपने प्रयोग को परिणाम निकाला तो स्वयं भी आश्चर्यचकित हो गया। अमेरिकन हार्ट एसोसियेशन की बैठक में डॉ. रेन्डोल्फ ने बताया कि 'जिन मरीजों के लिए प्रार्थना पद्धति का उपयोग किया गया था वे मरीज सर्जरी में होने वाली दुर्घटनाओं तथा सर्जरी के बाद होने वाले इन्फेक्शन के शिकार नहीं बने।'
उपरोक्त सभी प्रयोग स्थूल वस्तुओं पर किये गये हैं परन्तु भारतीय ऋषियों के इन सूत्रों का प्रभाव यहीं तक सीमित नहीं रहता। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज के विज्ञान की खोजें जिस छोर पर जाकर समाप्त हो जाती हैं अर्थात् आज के विज्ञान का जहाँ पर अन्त होता है वहाँ से भारत के ऋषि-विज्ञान का प्रारम्भ होता है। इसीलिए जिन सूत्रों को कभी विज्ञानियों ने आडम्बर तथा अंधश्रद्धा कहा था आज उन्ही सूत्रें के द्वारा वे अपने तथाकथित विकसित विज्ञान को आगे बढ़ा रहे हैं।
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सत्र 48
भगवान राम संध्या करते थे, भगवान श्रीकृष्ण संध्या करते थे, भगवान राम के गुरूदेव वशिष्ठजी भी संध्या करते थे। मुसलमान लोग नमाज पढ़ने में इतना विश्वास रखते हैं कि वे चालू ऑफिससे भी समय निकालकर नमाज पढ़ने चले जाते हैं, जबकि हम लोग आज पश्चिम की मैली संस्कृति तथा नश्वर संसार की नश्वर वस्तुओं को प्राप्त करने की होड़-दौड़ में संध्या करना बन्द कर चुके हैं भूल चुके हैं। शायद ही एक-दो प्रतिशत लोग कभी नियमित रूप से संध्या करते होंगे।
एक ही धातु से दो शब्दों की उत्पत्ति हुई है – ध्यान और संध्या। मूल रूप से दोनों का एक ही लक्ष्य है। ध्यान करने से चित्त शुद्ध होता है, संध्या करने से मन निर्मल होता है। संध्या में आचमन, प्राणायाम, अंग-प्रक्षालन तथा बाह्यभ्यांतर शुचि की भावना करने का विधान होता है। प्राणायाम के बाद भगवन्नाम जप व भगवान का ध्यान करना होता है। इससे शरीर शुद्ध, मन प्रसन्न व बुद्धि तेजस्वी होती है तथा भगवान का ध्यान करने से चित्त चैतन्यमय होता है।
प्रातःकाल में सूर्योदय के पूर्व ही संध्या आरंभ कर देनी चाहिए, मध्यान्ह में दोपहर 12 बजे के आसपास व शाम को सूर्यास्त के पूर्व संध्या में संलग्न हो जाना चाहिए।
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त्रिकाल संध्या करने वाले की कभी अपमृत्यु नहीं होती।
त्रिकाल संध्या करने वाले ब्राह्मण को किसी के सामने हाथ फैलाने का दिन कभी नहीं आता है। शास्त्रों के अनुसार उसे रोजी रोटी की चिन्ता सताती नहीं है।
त्रिकाल संध्या करने वाले व्यक्ति का चित्त शीघ्र निर्दोष हो जाता है, पवित्र हो जाता है, उसका मन तन्दुरूस्त रहता है, मन प्रसन्न रहता है तथा उसमें मन्द और तीव्र प्रारब्ध को परिवर्तित करने का सामर्थ्य आ जाता है। वह तरतीव्र प्रारब्ध का उपभोग करता है। उसको दुःख, शोक, हाय-हाय या चिन्ता कभी अधिक नहीं दबा सकती।
त्रिकाल संध्या करने वाली पुण्यशीला बहनें और पुण्यात्मा भाई अपने कुटुम्बी और बाल-बच्चों को भी तेजस्विता प्रदान कर सकते हैं।
त्रिकाल संध्या करने वाले का चित्त आसक्तियों में इतना अधिक नहीं डूबता। त्रिकाल संध्या करने वाले का मन पापों की ओर उन्मुख नहीं होता।
त्रिकाल संध्या करने वाले व्यक्ति में ईश्वर-प्रसाद पचाने का सामर्थ्य आ जाता है।
शरीर की स्वस्थता, मन की पवित्रता और अन्तःकरण की शुद्धि भी संध्या से प्राप्त होती है।
त्रिकाल संध्या करने वाले भाग्यशालियों के संसार-बंधन ढीले पड़ने लगते हैं।
त्रिकाल संध्या करने वाली पुण्यात्माओं के पुण्य-पुंज बढ़ते ही जाते हैं।
त्रिकाल संध्या करने वाले के दिल और फेफड़े स्वच्छ और शुद्ध होने लगते हैं। उसके दिल में हरिगान अनन्य भाव से प्रकट होता है तथा जिसके दिल में अनन्य भाव से हरितत्त्व स्फुरित होता है, वह वास्तव में सुलभता से अपने परमेश्वर को, सोऽहम् स्वभाव को, अपने आत्म-परमात्मरस को यहीं अनुभव कर लेता है।
ऐसे महाभाग्यशाली साधक-साधिकाओं के प्राण लोक-लोकांतर में भटकने नहीं जाते। उनके प्राण तो प्राणेश्वर में मिलकर जीवन्मुक्त दशा का अनुभव करते हैं। जैसे आकाश सर्वत्र है वैसे ही उनका चित्त भी सर्वव्यापी होने लगता है।
जैसे ज्ञानी का चित्त आकाशवत् व्यापक होता है वैसे ही उत्तम प्रकार से त्रिकाल संध्या और आत्मज्ञान का विचार करने वाले साधक को सर्वत्र शांति, प्रसन्नता, प्रेम तथा आनन्द मिलता है।
जैसे पापी मनुष्य को सर्वत्र अशांति और दुःख ही मिलता है वैसे ही त्रिकाल संध्या करने वाले को दुश्चरित्रता की मुलाकात नहीं होती।
जैसे गारूड़ी मंत्र से सर्प भाग जाता है, वैसे ही गुरूमंत्र से पाप भाग जाते हैं और त्रिकाल संध्या करने शिष्य के जन्म-जन्मांतर के कल्मश, पाप, ताप जलकर भस्म हो जाते हैं।
हाथ में रखकर सूर्य नारायण को अर्घ्य देने से भी अच्छा साधन आज के युग में मानसिक संध्या करना होता है, इसलिए जहाँ भी न रहे, तीनों समय थोड़े से जल के आचमन से, त्रिबन्ध प्राणायाम के माध्यम से संध्या कर देना चाहिए तथा प्राणायाम के दौरान अपने इष्ट मंत्र का जप करना चाहिए।
भगवान सदाशिव पार्वती से कहते हैं, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ध्यान में अनन्य भाव से भगवान का चिन्तन करने वाला भगवान को सुलभता से प्राप्त करता है, उसके लिए भगवान सुलभ हो जाते हैं।
नास्ति
ध्यानसमं
तीर्थम्।
नास्ति ध्यान
समं यज्ञमे।
नास्ति
ध्यानसमं
स्नानम्।
ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं। ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं। ध्यान के समान कोई स्नान नहीं।
जिस प्रकार आकाश जीवों के लिए सुलभ है, जिस प्रकार पापी के लिए दुःख और अशांति सुलभ है, धनाढ्य के लिए संसारी वस्तुएँ सुलभ हैं, उसी प्रकार अनन्य भाव से भगवान को भजने वालों के लिए भगवान सुलभ हैं। सर्वव्यापक चैतन्य के दर्शन करने का उसका सौभाग्य शीघ्र पूर्ण होने लगता है।
तस्याहं
सुलभः
पार्थः....।
हकीकत तो यह है कि भगवान और अपने बीच में तनिक भी दूरी नहीं है। संसार और शरीर नश्वर हैं, कायम रह नहीं सकते, लेकिन आत्मा और परमात्मा किसी से दूर नहीं होते। जैसे घड़े का आकाश महाकाश से दूर नहीं होता। अथवा यूँ कहिये कि तरंग और पानी कभी अलग नहीं होते उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा कभी अलग नहीं होते। अन्य-अन्य में आसक्ति के कारण जो दूरी की भ्रांति सिद्ध हुई है यह भ्रांति हटाने के लिए भगवान कहते हैं- "हे अर्जुन ! जो मेरे स्वरूप का चिन्तन करता है, अपने आत्मस्वरूप को खोजता है उसके लिए मैं सुलभ हो जाता हूँ।"
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आज के समाज में मैदे से निर्मित डबल रोटी का प्रयोग एक आम बात हो गई है। प्रायः सभी वर्गों के लोग नाश्ते में अधिकांशतः डबल रोटी का ही प्रयोग करते हैं परन्तु इस डबल रोटी का अधिक सेवन हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। इससे मोटापा, पित्त की थैली में पथरी, हृदयरोग, बंधकोश, कब्जियत, मधुमेह, आंत्रपुच्छ, आँतों का कैन्सर तथा बवासीर जैसे रोगों के उत्पन्न होने की संभावना रहती है।
आयुर्वेद में तो सभी वैद्य कहते हैं, जानते हैं कि मैदा से ये हानियाँ होती हैं लेकिन अभी-अभी डॉ. डेनिस पी. बर्कीट द्वारा मैदेवाली डबल रोटी पर किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि यह आँतों में चिपक जाती है। कुछ चिकित्सकों ने तो आँतों पर इसकी जमने की तुलना सीमेंट से की है। आँतों में इसके जमने से आँतों की अवशोषण क्षमता तथा आंकुचन-प्रकुंचन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
डबल रोटी बहुत महीन मैदे से बनायी जाती है, जिसमें रेशा जैसी कोई चीज ही नहीं होती। इसी कारण यह आँतों में जाकर जम जाती है। फलतः डबल रोटी का उपयोग करने वाले लोग प्रायः कब्ज के शिकार रहते हैं तथा धीरे-धीरे बदहजमी, गैस्ट्रिक (पेट में गैस बनने) जैसी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इस प्रकार पाचनतंत्र के दुष्प्रभावित होने से शरीर के अन्य तंत्रों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है तथा विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं।
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80 से 90 % बालक विशेषकर दाँतों के रोगों से, उसमें भी दंतकृमि से पीड़ित होते हैं। वर्त्तमान में बालकों के अतिरिक्त बड़े लोगों में भी दाँत के रोग विशेष रूप से देखने को मिलते हैं।
खूब ठंडा पानी अथवा ठंडा पदार्थ खाकर गर्म पानी अथवा गर्म पदार्थ खाया जाय तो दाँत जल्दी गिरते हैं।
अकेला ठंडा पानी और ठंडे पदार्थ तथा अकेले गर्म पदार्थ तथा गर्म पानी से सेवन से भी दाँत के रोग होते हैं। इसीलिए ऐसे सेवन से बचना चाहिए।
भोजन करने के बाद दाँत साफ करके कुल्ले करने चाहिए। अन्न के कण कहीं दाँत में फँस तो नहीं गये, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
महीने में एकाध बार रात्रि को सोने से पूर्व नमक और सरसों का तेल मिलाकर, उससे दाँत घिसकर, कुल्ले करके सो जाना चाहिए। ऐसा करने से वृद्धावस्था में भी दाँत मजबूत रहेंगे।
सप्ताह में एक बार तिल का के तेल के कुल्ले करने से भी दाँत वृद्धावस्था तक मजबूत रहेंगे।
आइसक्रीम, बिस्किट, चॉकलेट, ठंडा पानी, फ्रिज के ठंडे और बासी पदार्थ, चाय, कॉफी आदि के सेवन से बचने से भी दाँतों की सुरक्षा होती है। सुपारी जैसे अत्यन्त कठोर पदार्थों के सेवन से भी विशेष रूप से बचना चाहिए।
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नई दिल्ली में 28 जनवरी 2000 से प्रारम्भ हुए 'कॉमनवेल्थ डेन्टल एसोसिएशन' (सी.डी.ए.) के एक सम्मेलन में दंतरोग विशेषज्ञों ने कहा किः 'टूथपेस्टों के बढ़ते हुए प्रयोग के बाद भी विकासशील देशों में दंतरोगों की समस्याएँ बढ़ती ही जा रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बनाये जाने वाले अधिकांश टूथपेस्ट दाँतों के रोगों को रोकने में सक्षम नहीं हैं।
टूथपेस्टों की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए निर्माणकर्त्तों पर कड़े नियम लागू करने की आवश्कता है।'
टूथपेस्ट से दाँतों की सफाई करने वालों को विशेष सलाह देते हुए विशेषज्ञ ने कहा कि 'लोगों को मँहगे एवं गुणवत्तारहित टूथपेस्टों के बजाय नीम आदि के दातुनों का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।'
नीम का दातुन सिर्फ दाँतों को ही नहीं अपितु पाचनतंत्र की भी सुरक्षा करता है। जब व्यक्ति नीम का दातुन चबाता है तो उसके मुँह में अधिक लार बनती है और जितनी अधिक लार बनेगी उतना ही पाचनतंत्र अधिक सुदृढ़ होगा। इसीलिए चिकित्सक सलाह देते हैं कि खाना चबा-चबाकर खाना चाहिए क्योंकि इससे अधिक लार बनेगी जो कि भोजन को पचाने के लिए अति महत्त्वपूर्ण होती है।
अधिकांश रोग तो पाचनतंत्र की खराबी के कारण ही होते हैं। यदि पाचनतंत्र अच्छा होगा तो शरीर की रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ेगी। अब स्वयं फैसला कीजिए कि आप महँगे तथा गुणवत्ताहीन टूथपेस्टों का प्रयोग करेंगे अथवा बहुउपयोगी, सस्ते तथा सुलभ नीम के दातुन का ? दातुन का चबाया हुआ भाग काटकर बाकी का टुकड़ा तीन-चार दिन तक काम में लाया जा सकता है। कितना सस्ता व स्वास्थ्यप्रद !
पूज्य लीलाशाह बापू रोज सुबह खाली पेट नीम के पत्तों और तुलसी के पत्तों का रस या पत्ते लेते थे, जिससे उन्हें कभी बुखार नहीं आता था एवं उनका स्वास्थ्य हमेशा अच्छा ही रहता था।
पूज्य बापू सत्संग में कई बार यह बात कहते हैं कि जिस वस्तु की हमें अत्यंत आवश्यकता होती है वह हमें बड़ी आसानी से मिल जाती है जैसे कि हवा, पानी की हमें आवश्यकता होती है तो वह आसानी से मिल जाता है। उसी प्रकार नीम हमारे लिए अत्यंत उपयोगी है अतः वह भी सरलता से मिल जाता है। आसानी से मिलने वाले नीम, तुलसी, करंज, शिरीष आदि वनस्पतियों का उपयोग स्वयं किया जा सकता है।
जो व्यक्ति मीठे, खट्टे, खारे, तीखे, कड़वे और तूरे, इन छः रसों का मात्रानुसार योग्य रीति से सेवन करता है उसका स्वास्थ्य उत्तम रहता है। हम अपने आहार में गुड़, शक्कर, घी, दूध, दही जैसे मधुर, कफवर्धक पदार्थ एवं खट्टे, खारे और मीठे पदार्थ तो लेते हैं किन्तु कड़वे और तूरे पदार्थ बिल्कुल नहीं लेते जिसकी हमें सख्त जरूरत है। इसी कारण से आजकल अलग-अलग प्रकार के बुखार, मलेरिया, टायफायड, आँत के रोग, डायबिटीज, सर्दी, खाँसी, मेदवृद्धि, कालेस्ट्रोल का बढ़ना, ब्लडप्रेशर जैसी अनेक बीमारियाँ बढ़ गई हैं।
भगवान अत्रि
ने 'चरकसंहिता' में दिये
गये उपदेश में
कड़वे रस का
खूब बखान किया
है जैसे किः तिक्तो
रसः
स्वयमरोचिष्णुररोचकघ्नो
विषघ्न
कृमिघ्न
ज्वरघ्नो
दीपनः पाचनः
स्तन्यशोधनो
लेखनः
श्लेष्मोपशोषणः
रक्षशीतलश्च।
(चरक संहिताः सूत्र स्थान, अध्याय 26)
अर्थात् कड़वा रस स्वयं ही अरूचिकर है, फिर भी आहार के प्रति अरूचि दूर करता है। कड़वा रस शरीर के विभिन्न जहर, कृमि और बुखार को दूर करता है। भोजन के पाचन में सहाय करता है तथा स्तन्य को शुद्ध करता है। स्तनपान करने वाली माता यदि उचित रीति से नीम आदि कड़वी चीजों का उपयोग करे तो बालक स्वस्थ रहता है।
आयुर्वेद (विज्ञान) को इस बात को स्वीकार करना ही पड़ा है कि नीम का रस यकृत की क्रियाओं को खूब अच्छे से सुधारता है तथा रक्त को शुद्ध करता है। त्वचा के रोगों में, कृमि तथा बालों की रूसी में नीम अत्यंत उपयोगी है।
संक्षेप में, हमें हमारे जीवन में यही उतारने का प्रयास करना चाहिए कि जैसे परम पूज्य लीलाशाह बापू नियमित रूप से नीम का सेवन करते थे वैसे ही हम भी नीम, तुलसी, हरड़ जैसी वस्तुओं का सेवन करें जिससे हमारा स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहे।
केवल भ्रामक प्रचार से करोड़ों रूपये लूटने वाली कंपनियाँ लाखों रूपये विज्ञापन में लगायेंगी, आपकी जेबें खाली करेंगी। ये कंपनियाँ और उनके टूथपेस्ट व ब्रश आपके दाँतों व मसूड़ों को कमजोर करेंगे। अगर ये कंपनियाँ कई करोड़ रूपये नहीं लूट पातीं तो कई लाख रूपये विज्ञापनों में कैसे लगातीं ?
ऐसे ही मिलावटी तैयार मसालों के चक्कर में आकर अपने व अपने कुटुंबियों का आरोग्य दाँव पर न लगायें। मिलावट रहित शुद्ध मसाले कूट पीसकर अपने काम में लायें। आकर्षक पैकिंग व विज्ञापनों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
आज कल आटा थैलियों में आने लगा है। आटा जिस दिन पिसा, उसके आठ दिन के अंदर ही काम में आ जाना चाहिए। उसके बाद पोषक तत्त्व कम होने लगते हैं। कुछ पोषक तत्त्व तो ज्यादा पावरवाली मशीनों में पीसने के कारण ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ आठ दिन से अधिक रखने के कारण नष्ट हो जाते हैं। अतः अपना पीसा हुआ ताजा आटा ही काम में लाना बुद्धिमानी है। आठ दिन के बादवाला बासी आटा स्वास्थ्य के लिए पोषक व उचित नहीं है।
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सत्र 49
हमारे जीवन के विकास में भोजन का अत्यधिक महत्त्व है। वह केवल हमारे तन को ही पुष्ट नहीं करता वरन् हमारे मन को, हमारी बुद्धि को, हमारे विचारों को भी प्रभावित करता है। कहते भी हैं-
जैसा
खाओ अन्न वैसा
होता मन।
महाभारत के युद्ध में पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे दिन केवल कौरव कुल के लोग ही मरते रहे। पांडवों के एक भी भाई को जरा सी भी चोट नहीं लगी।
पाँचवा दिन हुआ। आखिर दुर्योधन को हुआ कि हमारी सेना में भीष्म पितामह जैसे योद्धा हैं फिर भी पांडवों का कुछ नहीं बिगड़ता, क्या कारण है ? वे चाहें तो युद्ध में क्या से क्या कर सकते हैं। विचार करते-करते वह आखिर इस निष्कर्ष पर आया कि भीष्म पितामह पूरा मन लगाकर पांडवों का मूलोच्छेद करने को तैयार नहीं हुए हैं। इसका क्या कारण है ? यह जानने के लिए सत्यवादी युधिष्ठिर के पास जाना चाहिए। उनसे पूछना चाहिए कि हमारे सेनापति होकर भी वे मन लगाकर युद्ध क्यों नहीं करते ?
पांडव तो धर्म के पक्ष में थे। अतः दुर्योधन निःसंकोच पांडवों के शिविर में पहुँच गया। वहाँ पर पांडवों ने उसकी यथायोग्य आवभगत की। फिर दुर्योधन बोलाः "भीम ! अर्जुन ! तुम लोग जरा बाहर जाओ। मुझे केवल युधिष्ठिर से बात करनी है।"
चारों भाई युधिष्ठिर के शिविर से बाहर चले गये। फिर दुर्योधन ने युधिष्ठिर से पूछाः "युधिष्ठिर महाराज ! पाँच-पाँच दिन हो गये हैं। हमारे कौरव पक्ष के लोग ही मर रहे हैं किन्तु आप लोगों का बाल तक बाँका नहीं होता। क्या बात है ? चाहें तो देवव्रत भीष्म तूफान मचा सकते हैं।"
युधिष्ठिरः "हाँ, मचा सकते हैं।"
दुर्योधनः "वे चाहें तो भीषण युद्ध कर सकते हैं, पर नहीं कर रहे हैं। क्या आपको लगता है कि वे मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहे हैं ?"
सत्यवादी युधिष्ठिर बोलेः "हाँ, गंगापुत्र भीष्म मन लगाकर युद्ध नहीं कर रहे हैं।"
युधिष्ठिरः "वे सत्य के पक्ष में हैं। वे पवित्र आत्मा हैं अतः समझते हैं कि कौन सच्चा है और कौन झूठा, कौन धर्म में है तथा कौन अधर्म में। वे धर्म के पक्ष में हैं, सत्य के पक्ष में हैं इसलिए उनका जी चाहता है कि पांडव पक्ष की ज्यादा खून खराबी न हो।"
दुर्योधनः "वे मन लगाकर युद्ध करें इसका उपाय क्या है ?"
युधिष्ठिरः "यदि वे सत्य और धर्म का पक्ष छोड़ देंगे, उनका मन गलत हो जायेगा तो फिर वे मन लगाकर युद्ध करेंगे ?"
दुर्योधनः "इसके लिए क्या उपाय है ?"
युधिष्ठिरः "यदि वे पापी के घर का अन्न खायेंगे तो सत्य एवं धर्म का पक्ष छोड़ देंगे और उनका मन युद्ध में लग जायेगा।"
दुर्योधनः "आप ही बताइये कि ऐसा कौन सा पापी होगा जिसके घर का अन्न खाने से उनका मन सत्य के पक्ष से हट जाये और वे पूरे मन से युद्ध करने को तैयार हो जायें ?"
युधिष्ठिरः "सभा में भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य जैसे महान लोग बैठे थे, हम बैठे थे फिर भी द्रौपदी को नग्न करने की आज्ञा और अपनी जाँघ ठोककर उस पर द्रौपदी को बैठने का इशारा करने की दुष्टता तुमने की थी। ऐसा धर्मविरूद्ध और पापी आदमी दूसरा कहाँ से लाया जाये ? तुम्हारे घर का अन्न खाने से उनकी मति सत्य और धर्म के पक्ष से हट जायेगी, फिर वे मन लगाकर युद्ध करेंगे।"
दुर्योधन ने युक्ति पा ली। कैसे भी करके, कपट करके, अपने यहाँ का अन्न भीष्म पितामह को खिला दिया। भीष्म पितामह का मन बदल गया और छठवें दिन से उन्होंने घमासान युद्ध करना आरंभ कर दिया।
कहने का तात्पर्य यह है कि जैसा अन्न होता है वैसा ही मन होता है। भोजन करे तो शुद्ध भोजन करें। मलिन और अपवित्र भोजन न करें। भोजन के पहले हाथ-पैर जरूर धोयें। भोजन सात्विक हो, पवित्र हो, प्रसन्नता देने वाला हो, तन्दुरुस्ती बढ़ाने वाला हो।
आहारशुद्धौ
सत्त्वशुद्धिः।
ठूँस-ठूँसकर भोजन न करें। चबा-चबाकर ही भोजन करें। भोजन के समय शांत एवं प्रसन्नचित्त रहें। प्रभु का स्मरण करके भोजन करें। जो आहार खाने से शरीर तन्दुरूस्त रहता हो वही आहार करें और जिस आहार से हानि होती हो ऐसे आहार से बचें। खान-पान में संयम बरतने से बहुत लाभ होता है।
भोजन अपनी मेहनत का हो, सात्त्विक हो। वह लहसुन, प्याज, मांस आदि और ज्यादा तेल-मिर्च-मसाले वाला न हो। उसका निमित्त अच्छा हो और अच्छे ढंग से, प्रसन्न होकर, भगवान को भोग लगाकर फिर भोजन करें तो उससे आपका भाव पवित्र होगा। रक्त के कण पवित्र होंगे, मन पवित्र होगा। फिर संध्या प्राणायाम करेंगे तो मन में सात्त्विकता बढ़ेगी। मन में प्रसन्नता, तन में आरोग्यता का विकास होगा। आपका जीवन उन्नत होता जायगा।
संसार में अति परिश्रम करके खप मरने, विलासी जीवन बिताकर या कायर रहकर जीने के लिए जिंदगी नहीं मिली है। जिंदगी तो चैतन्य की मस्ती को जगाकर परमात्मा का आनंद लेकर इस लोक और परलोक में सफल होने के लिए है। मुक्ति का अनुभव करने के लिए जिंदगी है।
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शरीर में हिमोग्लोबिन के अभाव की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के आयरन टॉनिक निर्मित किये जाते हैं। परंतु शायद आप यह नहीं जानते होंगे कि कई कंपनियाँ अपने उत्पादों में हीमोग्लोबिन का निर्माण भैंस के खून द्वारा करती हैं। जीवित भैंसों को काटने के बाद जितना खून निकलता है उस मात्रा का आधा हीमोग्लोबिन बनता है। एक भैंस को काटने पर 8 किलो खून निकलता है जिससे 4 किलो हीमोग्लोबिन बनता है।
आयरन टॉनिकों के लिए प्रसिद्ध मानी जाने वाली कुछ कंपनियों के निर्माण केन्द्र तो ऐसे कत्लखानों का आस-पास पाये गये। देश के अधिकांश कत्लखाने उत्तर भारत में हैं अतः यहाँ की औषध कंपनियाँ हीमोग्लोबिन के निर्माण के लिए भैंसों का रक्त इकट्ठा करती हैं और हीमोग्लोबिन बनाकर देश के अन्य क्षेत्रों में भेजती हैं।
इससे पहले चॉकलेट-टॉफी तथा टूथपेस्ट में भी जानवरों के मांस तथा हड्डियों के चूर्ण मिलाये जाने के समाचार पढ़ने सुनने में आये।
सच तो यह है कि आयुर्वैदिक दृष्टि से लिया गया आहार भी टॉनिक का कार्य करता है। आज से वर्षों पहले जब ऐसे टॉनिक नहीं बनते थे तब भी हमारे पूर्वज विभिन्न रोगों की सफल चिकित्सा करते थे। जब से असंतुलित आहार-व्यवहार तथा हानिकारक एलौपैथिक दवाओं का प्रचलन बढ़ा है तभी से अनेक बीमारियाँ भी बढ़ी हैं। कई दवाएँ तो मरीजों की जेब खाली करने के लिए बेवजह भी लिख दी जाती हैं।
अतः अपने आहार-व्यवहार को शास्त्रीय विधि के अनुसार संयत बनायें तथा किसी प्रकार की बीमारी होने पर एकादशी व्रत और आयुर्वैदिक पद्धति का उपयोग करके जाने-अनजाने ऐसी अभक्ष्य दवाओं के सेवन से बचें।
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हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय संपोषण संस्थान (नेशनल इन्स्टीच्यूट ऑफ न्यूट्रीशन) के विशेषज्ञों के अनुसार, 'फास्ट फूड खाने वाले लोगों को हृदय रोग, रक्तचाप, मोटापा, कुपोषण, रक्ताल्पता, मधुमेह, हड्डियाँ कमजोर होना, आँतों का कैन्सर तथा श्वास के रोग होने की सौ प्रतिशत संभावना रहती है।'
एम.एस. यूनिवर्सिटी, वड़ोदरा (गुज.) के खाद्य एवं पोषण विभाग के विशेषज्ञों ने उपरोक्त बातों का समर्थन करते हुए कहा है किः "दिनोंदिन बढ़ रहे प्रदूषण, तनावयुक्त जीवनशैली तथा व्यस्त जीवन के कारण लोग पोषण तथा स्वास्थ्य की परवाह किये बिना पश्चिमवासियों का अंधानुकरण करके फास्ट फूड खाने की गलती करते हैं। फास्ट फूड के बनने से पहले ही उसके विटामिन आदि पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। फिर अत्यधिक वसायुक्त, मीठा, चरपरा होने तथा बार-बार तलने-पकाने से उसमें कैन्सर उत्पन्न करने वाले तत्त्व पैदा हो जाते हैं।"
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 'सामान्य व्यक्ति के शारीरिक पोषण के लिए 55 से 65 % कार्बोहाइड्रेटस, 10 से 15 % प्रोटीन तथा 15 से 30 प्रतिशत वसा की आवश्यकता होती है।'
फास्ट फूड में वसा (चर्बी) और कार्बोहाइड्रेटस आवश्यकता से कहीं अधिक होते हैं तथा प्रोटीन नहीं के बराबर होता है। उसमें विटामिन तथा खनिज तत्त्व तो मिलते ही नहीं हैं। ऐसे असंतुलित तथा पोषकतत्त्वविहीन खाद्यों से अकाल मृत्यु के मुँह में धकेलने वाली कई बीमारियाँ होती हैं।
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सत्र 50
महाराष्ट्र में एक लड़का था। उसकी माँ बड़ी कुशल और सत्संगी थी। वह बच्चे को थोड़ा बहुत ध्यान सिखाती थी। लड़का जब 14-15 साल का हुआ, तब तक उसकी बुद्धि विलक्षण बन गयी।
चार डकैत थे। उन्होंने कहीं डाका डाला तो हीरे-जवाहरात का बक्सा मिल गया। उसे सुरक्षित रखने के लिए चारों एक ईमानदार बुढ़िया के पास गये। बक्सा देते हुए बुढ़िया से बोलेः
"माता जी ! हम चारो मित्र व्यापार-धंधा करने के लिए निकले हैं। हमारे पास कुछ पूँजी है। यहाँ कोई जान-पहचान नहीं है। इस जोखिम को कहाँ साथ लेकर घूमें ? आप इसे रखें और जब हम चारों मिलकर एक साथ लेने के लिए आयें, तब लौटा देना।"
बुढ़िया ने कहाः "ठीक है।"
बक्सा देकर चोर रवाना हुए, आगे गये तो एक चरवाहा दूध लेकर बेचने जा रहा था। इन लोगों को दूध पीने की इच्छा हुई। पास में कोई बर्तन तो था नहीं। तीन डकैतों ने अपने चौथे साथी को कहाः "जाओ, वह बुढ़िय़ा का घर दिख रहा है, वहाँ से बर्तन ले आओ। हम लोग यहाँ इंतजार करते हैं।"
डकैत बर्तन लेने चला गया। रास्ते में उसकी नीयत बिगड़ गयी। वह बुढ़िया के पास आकर बोलाः "माता जी ! हम लोगों ने विचार बदल दिया है। यहाँ नहीं रूकेंगे। आज ही दूसरे नगर में चले जायेंगे। अतः हमारा बक्सा लौटा दो। मेरे तीन दोस्त सामने खड़े हैं। मुझे बक्सा लेने भेजा है।"
बुढ़िया को जरा सन्देह हुआ। बाहर आकर उसके साथियों की तरफ देखा तो तीनों खड़े थे। बुढ़िया ने बात पक्की करने के लिए उनको इशारे से पूछाः "इसको दे दूँ ?"
डकैतों को लगा कि माई पूछ रही है, इसको बर्तन दूँ ? तीनों ने दूर से ही कह दियाः "हाँ, हाँ उसको दे दो।"
बुढ़िया घर में गयी। पिटारे से बक्सा निकालकर उसे दे दिया। वह चौथा डकैत लेकर दूसरे रास्ते से पलायन हो गया।
तीनों साथी काफी इंतजार करने के बाद बुढ़िया के पास पहुँचे। उन्हें पता चला कि चौथा साथी बक्सा ले भागा है। अब तो वे बुढ़िया पर ही बिगड़ेः "तुमने एक आदम को बक्सा दिया ही क्यों ? चारों को साथ में देने की शर्त की थी।"
झगड़ा हो गया। बात पहुँची राजदरबार में। डकैतों ने पूरी हकीकत राजा को बतायी। राजा ने माई से पूछाः
"क्यों जी ! इन लोगों ने बक्सा दिया था ?"
"जी महाराज !"
"ऐसा कहा था कि जब चारों मिलकर आवे तब लौटाना ?"
"जी महाराज"
"तुमने एक ही आदमी को बक्सा दे दिया, अब इन तीनों को भी अपना अपना हिस्सा मिलना चाहिए। तेरी माल-मिल्कियत, जमीन जायदाद, जो कुछ भी हो उसे बेचकर इन लोगों का हिस्सा चुकाना पड़ेगा। यह हमारा फरमान है।" राजा ने बुढ़िया को आदेश दिया।
बुढ़िया रोने लगी। वह विधवा थी। घर में छोटे-छोटे बच्चे थे। कमाने वाला कोई था नहीं। संपत्ति नीलाम हो जायेगी तो गुजारा कैसे होगा। वह अपने भाग्य को कोसती हुई, रोती पीटती रास्ते से गुजर रही थी। 15 साल के रमण ने उसे देखा तो पूछने लगाः
"माता जी ! क्या हुआ ? क्यों रो रही हो ?"
बुढ़िया ने सारा किस्सा कह सुनाया। आखिर में बोलीः
"क्या करूँ बेटा ! मेरी तकदीर ही फूटी है, वरना मैं उनका बक्सा लेती ही क्यों ?"
रमण ने कहाः "माता जी ! आपकी तकदीर का कसूर नहीं है, कसूर तो राजा की खोपड़ी का है।"
संयोगवश राजा गुप्तवेश में वहीं से गुजर रहा था। उसने सुन लिया और पास आकर पूछने लगाः
"क्या बात है ?"
"बात यह है कि नगर के राजा को न्याय करना नहीं आता। इस माता जी के मामले में गलत निर्णय दिया है।" रमण ने निर्भयता से बोल गया।
राजाः "अगर तू न्यायाधीश होता तो कैसा न्याय देता ?" किशोर रमण की बात सुनकर राजा की उत्सुकता बढ़ रही थी।
रमणः "राजा को न्याय करवाने की गरज होगी तो मुझे दरबार में बुलायेंगे। फिर मैं न्याय दूँगा।"
दूसरे दिन राजा ने रमण को राजदरबार में बुलाया। पूरी सभा लोगों से खचाखच भरी थी। वह बुढ़िया माई और तीन मित्र भी बुलाये गये थे। राजा ने पूरा मामला रमण को सौंप दिया।
रमण ने बुजुर्ग न्यायाधीश की अदा से मुकद्दमा चलाते हुए पहले बुढ़िया से पूछाः
"क्यों माता जी ? चार सज्जनों ने आपको बक्सा सँभालने के लिए दिया था।"
बुढ़ियाः "हाँ।"
रमणः "चारों सज्जन मिलकर एक साथ बक्सा लेने आयें तभी बक्सा लौटाने के लिए कहा था ?"
"हाँ।"
रमण ने अब तीनों डकैतों से कहाः "अरे, अब तो झगड़े की कोई बात ही नहीं है। सदगृहस्थो ! आपने ऐसा ही कहा था न कि हम चार मिलकर आयें तब हमें बक्सा लौटा देना ?"
डकैतः "हाँ, ठीक बात है। हमने इस माइ से ऐसा ही तय किया था।"
रमणः "ये माता जी तो अभी भी आपका बक्सा लौटाने को तैयार हैं, मगर आप ही अपनी शर्त भंग कर रहे हैं।"
"कैसे ?"
"आप चारों साथी मिलकर आओ तो अभी आपकी अमानत दिलवा देता हूँ। आप तो तीन ही हैं। चौथा कहाँ है ?"
"साहब ! वह तो..... वह तो....."
"उसे बुलाकर लाओ। जब चारों साथ में आओगे, तभी आपको बक्सा मिलेगा। नाहक में इन बेचारी माता जी को परेशान कर रहे हो ?"
तीनों व्यक्ति मुँह लटकाये रवाना हो गये। सारी सभा दंग रह गयी। सच्चा न्याय करने वाले प्रतिभासंपन्न बालक की युक्तियुक्त चतुराई देखकर राजा भी बड़ा प्रभावित हुआ।
प्रतिभा विकसित करने की कुंजी सीख लो। जरा-सी बात में खिन्न न होना, मन को स्वस्थ व शांत रखना। ऐसी पुस्तकें पढ़ना जो संयम और सदाचार बढ़ायें, परमात्मा का ध्यान करना और सत्पुरूषों का सत्संग करना – ये ऐसी कुंजियाँ हैं, जिनसे तुम भी प्रतिभावान बन सकते हो। वही बालक रमण आगे चलकर महाराष्ट्र में मुख्य न्यायाधीश बना और मरियाड़ा रमण के नाम से सुविख्यात हुआ।
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यदि आप दीर्घजीवी बनना चाहते हैं, अपने हृदय को बसन्ताकालीन वायु-प्रवाह की तरह आनन्दोल्लास से पूर्ण करना, रखना चाहते हैं, आयु को बढ़ाने वाली पुष्प-फल रक्त की धारा प्रवाहित करने की अभिलाषा रखते हैं, आयु को बढ़ाने वाली पुष्प-फल आदि की सुगंध से पूर्ण प्रातः कालीन वायु का सेवन करके अपने जीवन की तेजस्विता बढ़ाने की इच्छा रखते है तो ब्राह्ममुहूर्त में शैय्या-त्याग करने का अभ्यास करें।
प्रातः काल, जब प्रकृति माँ अपने दोनों हाथों से स्वास्थ्य, बुद्धि, मेधा, प्रसन्नता और सौन्दर्य के अमिट वरदानों को लुटा रही होती है, जब जीवन और प्राणशक्ति का अपूर्व भण्डार प्राणीमात्र के लिए खुला हुआ होता है तब हम बिस्तरों पर पड़े निद्रा पूरी हो जाने पर भी आलस्य-प्रमादवश करवटें बदल-बदलकर अपने शरीर में विद्यमान इन सम्पूर्ण वस्तुओं का नाश कर रहे होते हैं।
हमें यह ज्ञान भी नहीं होता कि प्रभात के उस पुण्यकाल में निद्रा की गोद में पड़े-पड़े हम प्रकृति के कितने वरदानों से वंचित हो रहे हैं। रात्रि के अन्तिम प्रहर का जो तीसरा भाग है, उसको ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। शास्त्रों में यही समय निद्रा त्याग के लिए उचित बताया गया है।
मनुस्मृति
में आता हैः ब्राह्मे
मुहूर्ते या
निद्रा सा
पुण्यक्षयकारिणी।
प्रातःकाल की निद्रा पुण्यों एवं सत्कर्मों का नाश करने वाली है।
मनु महाराज ने प्रातः न उठने वाले के लिए व्रत तथा प्रायश्चित का विधान निश्चित किया है। प्रातः काल प्राकृतिक रूप से बहने वाली वायु के एक-एक कण में संजीवनी शक्ति का अदभुत मिश्रण रहता है। यह वायु रात्रि में चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी पर बरसाये हुए अमृत बिन्दुओं को अपने साथ लेकर बहती है। जो व्यक्ति प्रातः निद्रा त्याग कर इस वायु का सेवन करते हैं उनकी स्मरण शक्ति बढ़ती है, मन प्रफुल्लित हो जाता है और प्राणों में नवचेतना का अनुभव होने लगता है। इसके अतिरिक्त संपूर्ण रात्रि के पश्चात् प्रातः जब भगवान सूर्य उदय होने वाले होते हैं तो उनका चैतन्यमय तेज आकाशमार्ग द्वारा फैलने लगता है। यदि मनुष्य सजग होकर सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृत्त हो भगवान सूर्य की किरणों से अपने प्राणों में उनके अतुल तेज का आह्वान करे तो वह स्वस्थ जीवन प्राप्त कर सकता है। विज्ञान के अनुसार वायु में 20 % ऑक्सीजन, 6 % कार्बनडाई आक्साइड तथा 73 % नाइट्रोजन के परमाणु होते हैं। संपूर्ण दिन में वायु का यही प्रवाहक्रम रहता है किन्तु प्रातः और सायं यह क्रम परिवर्तित होता है और ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है। संसार के सभी महापुरूषों ने प्रकृति के इस अलभ्य वरदान से बड़ा लाभ उठाया है। प्रातः जागरण में जिन लाभों का ऊपर वर्णन किया गया है वह स्वास्थ्य-शास्त्र सम्मत हैं, जैसे
वर्ण
कीर्ति यशः
लक्ष्मीः
स्वास्थ्यमायुश्च
विन्दति।
ब्राह्मे
मुहूर्ते
संजाग्रच्छियं
वा पंकजं
यथा।।
(भैषज्य
सारः 63)
ब्राह्ममुहूर्त में उठने वाला पुरूष सौन्दर्य, लक्ष्मी, स्वास्थ्य, आयु आदि वस्तुओं को प्राप्त करता है। उसका शरीर कमल के समान सुन्दर हो जाता है।
प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में 4-5 बजे उठने के लिए रात को 9-10 बजे के भीतर ही सो जाना चाहिए। सोते समय सभी विचारों को मन से हटाकर शांतचित्त होकर ईश्वर तथा गुरूदेव का स्मरण करते हुए, प्रातः जल्दी जगने का दृढ़ संकल्प करके भगवन्नाम-स्मरण करते हुए सोयें। भगवन्नाम का स्मरण और आत्मस्वरूप का चिंतन आपकी निद्रा को योगनिद्रा में बदल देगा। आपकी निद्रा भी ईश्वर की भक्ति हो जायेगी।
महात्मा गाँधी प्रतिदिन प्रातः 3 बजे उठकर ही शौच-स्नान आदि से निवृत्त हो जाते थे और ईश्वर-प्रार्थना के बाद अपने दैनिक कार्यों में लग जाया करते थे। विद्यार्थियों के लिए अध्ययन हेतु इससे अधिक उपयुक्त समय हो ही नहीं सकता है। एकान्त और सर्वथा शांत वायुमंडल में जबकि मस्तिष्क बिल्कुल तरोताजा होता है, ज्ञानतंतु रात्रि के विश्राम के बाद नवशक्तियुक्त होते हैं मनुष्य यदि कोई बौद्धिक कार्य करे तो उसे इसके लिए विशेष श्रम नहीं करना पड़ेगा। इसलिए हमें प्रकृति के इस अमूल्य वरदान का लाभ उठाना चाहिए।
अतः यदि आप इस जीवन में कोई महत्त्व का कार्य करके अपने मानवजन्म को सार्थक बनाना चाहते हैं, यदि अकाल मृत्यु से बचने की इच्छा रखते हैं तो प्रयत्नपूर्वक नियमित रूप से ब्राह्ममुहूर्त में उठा करें। सूर्योदय से सवा दो घंटे पहले ब्राह्ममुहूर्त शुरू हो जाता है।
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सत्र 51
प्रतिष्ठानपुर में राजा शालीवाहन राज्य करते थे। वे बड़े वीर्यवान, बलवान और बुद्धिमान थे। उनकी 500 रानियाँ थीं। वे एक दिन रानियों के साथ जलक्रीड़ा करने गये। जलाशय में क्रीडा करते-करते वे चंद्रलेखा नाम की विदुषी रानी को जल से छींटे मारने लगे। वह रानी शांत प्रकृति की थी। उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। विदुषी रानी ने संस्कृत भाषा में कहाः
'मा मोदकैः पूरय।' (मा मा उदकैः पूरय अर्थात् मुझ पर पानी मत डालो।)
शालीवाहन संस्कृत भाषा नहीं जानते थे। वे समझे कि यह विदुषी रानी कह रही है कि मुझे मोदक दीजिए, पानी नहीं चाहिए। रानी ने तो कहा था कि मुझ पर पानी नहीं डालिये, लेकिन शालीवाहन समझे 'मा मोदकैः पूरय' माने मेरी लड्डू की इच्छा पूर्ण कीजिए। स्नान का कार्यक्रम पूरा हुआ। राजा ने मंत्री से कह लड्डूओं का थाल मँगवाकर रानी के आगे रख दिया और कहाः "ले ये मोदक।"
रानी ने देखा कि राजा संस्कृत के ज्ञान से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। उसको हँसी आ गयी। उसे हँसते देख प्रतिष्ठानपुर के नरेश शालीवाहन चिढ़े नहीं और न ही उद्विग्न हुए। उसकी हँसी से लम्पट भी नहीं हुए, अपितु उससे हँसी का कारण पूछा। राजा ने ज्ञान का आदर किया और जिज्ञासा बढ़ायी।
राजाः "क्यों हँसी ? सच बता।" उसने कहाः "मैंने तो आपसे कहा था, 'मा मोदकैः पूरय.... मा मा उदकैः पूरय। मुझ पर उदक माने पानी नहीं डालो। आप समझे मोदक माने लड्डू और लड्डू का थाल धर रहे हो, इसलिए हँसी आ रही है।"
शालीवाहन को लगा कि मुझे संस्कृत का ज्ञान पाना चाहिए। दृढ़ निश्चय करके बैठ गये तीन दिन तक एक कमरे में। सच्चे हृदय से, तत्परता से सरस्वती माँ का आह्वान किया।
जिनके पास प्राणबल होता है, वे जिधर लगते हैं उधर पार हो जाते हैं। आधा इधर, आधा उधर.... ऐसे आदमी भटक जाते हैं।
शालीवाहन की तत्परता से तीन दिन के अंदर ही सरस्वती माता प्रकट होकर बोलीं- "वरं ब्रूयात।" अर्थात् वर माँगो।
राजाः "माँ ! अगर आप संतुष्ट हैं तो मुझ पर कृपा कीजिए कि मैं संस्कृत का विद्वान हो जाऊँ। मुझे संस्कृत का ज्ञान जल्दी से प्राप्त हो जाये।"
माँ- "एवं अस्तु।"
मनुष्य जिस वस्तु को चाहता है उसे जरूर पाता है, अगर वह संकल्प में विकल्प का कचरा नहीं डाले.... तो अपने को अयोग्य मानने की बेवकूफी न करे तो। अरे ! यह तो ठीक है, सरस्वती माता से राजा ने संस्कृत का ज्ञान पाने का आशीर्वाद लिया, लेकिन वह चाहता कि मुझे ब्रह्मज्ञानी गुरू मिल जायें और इन विकारी सुखों से बचकर मैं निर्विकारी नारायण का साक्षात्कार कर लूँ तो माँ वैसा वरदान भी दे देतीं।
उस बुद्धिमान लेकिन राजसी बुद्धिवाले नरेश शालीवाहन ने माँ से संस्कृत का ज्ञान माँगा और माँ ने वरदान दे दिया। वह संस्कृत का इतना बढ़िया विद्वान हुआ कि उसने सारस्वत्य व्याकरण की रचना की और दूसरे ग्रन्थ भी रचे। उस राजा के नाम से संवत्सर चला है, शालीवाहन संवत् ! जैसे विक्रम संवत चलता है, वैसे ही शालीवाहन संवत् चलता है।
कहने का तात्पर्य है कि हे मनुष्य ! तू अपने को तुच्छ, दीन-हीन मत मान। चाहे तेरे पास मकान, वैभव कम हो, चाहे ज्यादा हो, चाहे तेरे रिश्ते-नाते बड़े लोगों से हों, चाहे छोटे लोगों से हों, लेकिन बड़े-बड़े जो परमात्मा हैं, उनके साथ तो तेरा सीधा रिश्ता-नाता है।
हे आत्मा ! तू परमात्मा का अभिन्न अंग है। उसके विषय में जानकारी पा ले। सत्पुरूषों को खोज उनकी शरण ले सत्य स्वरूप परमेश्वर का साक्षात्कार कर ले। आत्मारामी संतों से ध्यान और जप की विधियाँ जान ले।
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'कोलगेट पॉमोलिव' नामक बहुराष्ट्रीय कंपनी के टूथपेस्ट 'कोलगेट' का विज्ञापन टी.वी. पर दिखाया जाता है। विज्ञापन में एक ऐसे व्यक्ति को दिखाया जाता है जिसकी साँसों से बदबू आती है। इसी कारण उसकी पत्नी उससे दूर रहती है। इसके इलाज के लिए जब वह दाँतों के विशेषज्ञ के पास जाता है तो वह उसे 'कोलगेट' नामक टूथपेस्ट से दाँत साफ करने की सलाह देता है। जैसे ही वह व्यक्ति घर जाकर 'कोलगेट' से दाँत रगड़ता है वैसे ही उसकी साँसों की बदबू मिट जाती है और उसकी पत्नी उसके निकट आ जाती है और बोला जाता हैः 'दूरियाँ नजदीकियाँ बनीं।' फिर उसके चारों ओर एक चक्र सा बन जाता है जिसे 'कोलगेट का सुरक्षाचक्र' कहा जाता है।
हमारे शास्त्र और बुजुर्ग कहते हैं कि पति-पत्नी का रिश्ता पारस्परिक प्रेम, विश्वास, श्रद्धा एवं संयम द्वारा मजबूत बनता है परन्तु 'कोलगेट पॉमोलिव' कंपनी कहती है कि हमारा टूथपेस्ट नहीं घिसा तो आप एक दूसरे से दूर हो जाओगे।
'कोलगेट का सुरक्षाचक्र' वास्तव में 'बीमारी का सुरक्षाचक्र' है, यह शायद आप नहीं जानते होंगे।
अमेरिका में बिकने वाले कोलगेट के सभी ब्राण्डों की पैकिंग पर इस प्रकार की सूचना लिखी होती हैः "2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए मटर के दाने की बराबर मात्रा में पेस्ट का इस्तेमाल करें और मंजन तथा कुल्ला करते समय बच्चे पर नज़र रखें ताकि वह अधिक मात्रा में पेस्ट को निगल न ले। 2 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की पहुँच से दूर रखें। पेस्ट अचानक निगलने से दुर्घटना होने पर तुरन्त चिकित्सक या 'जहर नियंत्रण केन्द्र' (प्वॉइज़न कन्ट्रोल सेन्टर) से सम्पर्क करें।"
अमेरिका की तरह भारत में भी कोलगेट के ब्राण्डों की पैकिंग पर ऐसा कुछ लिखा होना चाहिए ताकि लोगों को पता लगे कि यह 'सुरक्षाचक्र' नहीं अपितु जहर है। क्या हमारे देश के बच्चों का स्वास्थ्य अमेरिका के बच्चों के स्वास्थ्य से कम महत्त्वपूर्ण है ? इसके अलावा अमेरिका में बिकने वाले कोलगेट की तरह यहाँ बिकने वाले कोलगेट पर इस्तेमाल करने की अंतिम तिथि (Expiry Date) भी नजर नहीं आती।
स्वास्थ्य संगठनों द्वारा किये गये सर्वेक्षण बताते हैं कि कोलगेट जैसे टूथपेस्ट रगड़ने वालों की अपेक्षा नियमित रूप से नीम तथा बबूल आदि की दातून करने वालों के दाँत अधिक सुरक्षित रहते हैं। इसके अलावा चिकित्सकों का कहना है कि साँस की बदबू के लिए दाँतों की सफाई की अपेक्षा विटामिन 'सी' की कमी, पेट की गड़बड़ी तथा पानी की कमी अधिक जिम्मेदार है। अब आप स्वयं विचारिये कि कोलगेट से विटामिन सी मिलता है या पेट की गड़बड़ी अथवा पानी की कमी दूर होती है। और तो और, विज्ञापनों में कोलगेट को जिस 'डेन्टिस्ट एसोसियेशन' द्वारा प्रमाणित बताया जाता है, उस नाम से इस देश में कोई भी डेन्टिस्ट एसोसिएशन पंजीकृत ही नहीं। गैर-पंजीकृत एसोसिएशन है भी तो वह कोलगेट कंपनी के अपने ही डाक्टरों की है।
अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि विज्ञापन के द्वारा किस प्रकार झूठ को सच बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता है। यह तो एक उदाहरण है, ऐसे सैंकड़ों झूठ अलग-अलग कंपनियाँ हमारे सामने विज्ञापनों के द्वारा सच बनाकर प्रस्तुत करती हैं।
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सत्र 52
जो जो
करे तू कार्य
कर, सब
शांत होकर धैर्य
से।
उत्साह
से अनुराग से, मन
शुद्ध से
बल-वीर्य से।।
जो
कार्य हो जिस
काल का, कर तू
समय पर ही
उसे।
दे मत
बिगड़ने
कार्य कोई, मूर्खता-आलस्य
से।।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपना कार्य तत्परता एवं उत्साह से करे। कभी भी, किसी भी कार्य को अपनी मूर्खता, आलस्य अथवा लापरवाही के कारण बिगड़ने न दे।
विद्यार्थी अगर अध्ययन करता हो तो उसे पूरे मनोयोग से अध्ययन करना चाहिए एवं आज का गृहकार्य आज ही पूरा कर लेना चाहिए। यदि वह आज का काम कल पर छोड़ेगा तो उसे कल दुगुना काम करना पड़ेगा। इसी प्रकार वह आलस्य को पोसता रहेगा तो उसे आलस्य करते रहने की आदत पड़ जायेगी। फिर बहुत सारा कार्य एक साथ करना पड़ेगा तो बोलेगाः "हाय ! नहीं होता है।" तब शिक्षकों को दोष देगा किः "कितना सारा गृहकार्य देते हैं !" फिर सिर कूटते हुए अपना काम निपटायेगा। ये अच्छे विद्यार्थी के लक्षण नहीं हैं।
यदि अच्छा विद्यार्थी बनना हो तो उसकी कुछ कुंजियाँ हैं, जिनका उपयोग करके वैसा बना जा सकता हैः
कक्षा में पढ़ाई के समय पूरा ध्यान दें।
जिस दिन जो गृहकार्य दिया जाये, उसे उसी दिन ठीक से पूरा कर लें।
जिस विषय का अभ्यास किया हो, उसे उसी दिन ठीक से पूरा कर लें। हर रोज याद कर लें। इससे साल पूरा होने तक सभी विषयों के प्रश्न ठीक से याद भी हो जायेंगे और अच्छे अंक से उत्तीर्ण होने में कोई तकलीफ नहीं होगी।
जिस वक्त जो करना है वह अगर नहीं करते हैं, आलस्य-प्रमाद करते हैं तो काम बिगड़ जाता है और उसका परिणाम भी बुरा आता है। इसीलिए कहा गया हैः
दे
ध्यान पूरा
कार्य में, मत
दूसरे में
ध्यान दे।
कर तू
नियम से कार्य
सब, खाली
समय मत जान
दे।।
सच
जान जो हैं
आलसी, निज
हानि करते हैं
सदा।
करते
उन्हीं का संग
जो, वे भी
दुःखी हों
सर्वदा।।
नेपोलियन बोनापार्ट हिम्मती, प्रबुद्ध प्रशासक, दृढ़ निश्चयी और समय पालन के प्रति चुस्त आग्रही था। मुल्क पर मुल्क जीतने वालों में नेपोलियन का नाम था। वह युद्ध-विद्या में इतना निपुण था कि कैसा भी युद्ध जीत लेना उसके बायें हाथ का खेल था। फिर भी वाटरलू के युद्ध में बुरी तरह हार गया। उसका कारण क्या था ? जरा-सी लापरवाही। नेपोलियन ने जिस किले पर धावा बोलकर उसे जीत लेने की योजना बनायी थी, उसमें वह केवल दस मिनट देर से पहुँचने के कारण हार गया।
वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन का सेनापति दस मिनट देर से पहुँचा। उसकी लापरवाही के कारण नेपोलियन को मुँह की खानी पड़ी। इसके बाद उसे अफ्रीका के एक निर्जन द्वीप में स्थित सेंट हेलेना टापू पर कैदी के रूप में रखा गया। अंत में नेपोलियन वहीं पर मर गया।
इतना बड़ा विजेता होते हुए भी समय की जरा-सी लापरवाही के कारण नेपोलियन को युद्ध में मुँह की खानी पड़ी। मनुष्य हो चाहे देवता हो, गंधर्व हो या किन्नर हो, आलस्य का, प्रमाद का, लापरवाही का फल सभी को भुगतना पड़ता है। इसलिए आलस्य, प्रमाद एवं लापरवाही रूपी दुर्गुण को अपने जीवन में कभी भी फटकने नहीं देना चाहिए। ठीक ही कहा हैः
आलस
कबहूँ न कीजिए, आलस
अरि सम जानि।
आलस
से विद्या घटे, बल
बुद्धि की
हानि।।
सन् 1972 की घटना हैः अमेरिका को शुक्र ग्रह पर रॉकेट भेजना था। इसके लिए उसने करोड़ों डालर खर्च किये थे। किन्तु जब रॉकेट भेजा गया तो वह वापस आया ही नहीं और इस प्रकार करोड़ों डालर का नुकसान सहना पड़ा। यही नहीं, अमेरिका को विश्वभर के वैज्ञानिकों के आगे नीचा देखना पड़ा।
इस घटना को लेकर एक जाँच कमीशन बैठाया गया कि करोड़ों डालर खर्च किये गये, फिर भी रॉकेट कैसे लापता हो गया ?
जाँच कमीशन द्वारा खूब बारीकी से जाँच करने पर पता चला कि छोटी-सी लापरवाही के कारण राकेट लापता हो गया। वह गलती क्या थी ? किसी भी राकेट को ग्रह पर भेजने से पूर्व 'माइलेज' गिने जाते हैं। माइलेज गिनने में गणित की जरूरत पड़ती है और उसमें धन () एवं ऋण () के चिह्न होते हैं। धन () एवं ऋण () का चिह्न तो जरा सा होता है, किन्तु जब उसे देखने में लापरवाही को गयी तो करोड़ों डालर यानी अरबों रूपये गुड़-गोबर हो गये इज्जत गयी सो अलग। गलती तो जरा सी थी, परंतु परिणाम बहुत बुरा भुगतना पड़ा।
जीवन में लापरवाही जैसा और कोई दुश्मन नहीं है। अतः मनुष्य को सदैव इससे सावधान रहना चाहिए।
हर क्षण सावधानी बरतने से जीवन सुखदायी होता है, उन्नत होता है। एक एक विचार कैसा उठ रहा है, उस पर भी नजर रखो। सावधान होकर बुरे एवं दुर्बल विचारों को काट दो और अच्छे, ऊँचे, बलप्रद एवं सज्जनता के विचारों को बढ़ाओ तथा पोषित करो।
एक-एक कार्य पर सतर्कतापूर्वक निगरानी रखो। 'अमुक कार्य का परिणाम क्या आयेगा ? इसमें दूसरों की हानि तो नहीं होगी ? कहीं समय व्यर्थ तो नहीं चला जायेगा ? इस प्रकार की सतर्कता से मनुष्य का जीवन अत्यंत उन्नत हो जाता है जबकि जरा सी लापरवाही करते-करते मनुष्य अत्यंत नीचे आ जाता है। अतः प्रत्येक पल सावधान रहो, सतर्क रहो, लापरवाही का त्याग कर दो। आलस्य-प्रमाद को तिलांजलि दे दो, तो जीवन के हर क्षेत्र में सफल होना आसान हो जायेगा।
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मानव के अन्दर ऐसी अनेक शक्तियाँ छिपी हैं जिनके द्वारा मनुष्य बड़े-बड़े कार्य कर सकता है। परन्तु खेद है, आज का मानव अपने सामर्थ्य को भूला बैठा है एव विश्रान्त हो गया है। अपने वास्तविक कर्त्तव्यों एवं आदर्शों को त्यागकर वह मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ रहा है। उसके जीवन में महत्त्वाकांक्षाओं के ज्वार-भाटे तो हैं किन्तु आलस्य, अकर्मण्यता, लापरवाही एवं उत्तरदायित्व की न्यूनता के कारण वह अन्धकार में भटक रहा है। दुराचरण की ओर लालायित होकर वह ऐसे दौड़ रहा है जैसे कोई मक्खी घाव से मवाद बहता देखकर उस पर टूट पड़ती है। इन सब बातों का कारण क्या है ?
यदि गौर से देखा जाये तो इन सबका यही एक मात्र कारण है कि मानव अपने आपको भूल चुका है। उसे आत्म-बोध नहीं है। आत्मा स्वयं प्रकाश है, परन्तु विषय-वासनाओं के घने बादल उसके प्रकाश को चारों ओर से आवृत्त कर देते है और वह चक्षुविहीन व्यक्ति की भाँति मार्ग टटोलता फिरता है।
आज नवयुवकों के सामने कोई स्पष्ट दिशा नहीं है। जब कोई अच्छा वक्ता उसके सामने अपना जोशीला वक्तव्य देता है तो उसके मन में अच्छा वक्ता बनने की भावना आ जाती है। जब वह किसी धनाढ्य व्यक्ति को चमचमाती हुई कार से उतरता देखता है तो उसके मन में धनपति बनने की लालसा पैदा होती है। जब वह कोई आकर्षक चलचित्र देखता है तो उसके मन में अभिनेता-अभिनेत्री बनने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो जाती है। परन्तु उसके जीवन का कोई एक स्पष्ट लक्ष्य नहीं होता। इस कारण वह अपने चंचल मन के पीछे-पीछे भागता रहता है तथा जीवनभर भटकने के बाद भी उसे कुछ प्राप्त नहीं होता।
अपने जीवन को ऊँचा बनाने के लिए लक्ष्य सदा एक तथा सर्वोत्तम होना चाहिए। इस लक्ष्य की ओर चलते हुए यदि वह अपने गन्तव्य स्थान से कुछ भी दूर भी रह जायेगा तो भी उसका जीवन चमक उठेगा। अपने लक्ष्य का साकाररूप देने के लिए यदि वह अपनी इच्छाशक्ति को तदनुसार क्रियान्वित कर दे तो लक्ष्यप्राप्ति में कोई देर न लगेगी।
आज हमारे नौजवानों के जीवन में कुछ ऐसे शत्रु लग गये हैं, जिनके कारण वे अपना विकास नहीं कर पाते। बीड़ी, सिगरेट, पान-मसाला, तम्बाकू, शराब, अफीम, गुटखा तथा दुराचरण जैसे घातक शत्रुओं से वह प्रतिक्षण घिरा रहता है। कभी-कभी इनसे दुःखी होकर वह छुटकारा पाने को व्यग्र हो जाता है तथा अपने जीवन में सदाचरण को अपनाने का प्रयत्न करता है। परन्तु पूर्व के व्यसन तथा दुष्टआचरण की आदतें उसके सत्यप्रयास में बाधक बन जाती हैं तथा उसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचने देतीं।
पाटलिपुत्र नामक नगर में एक अन्धा व्यक्ति रहता था। एक बार अनेक दुःखों के कारण उसे नगर छोड़कर कहीं बाहर जाने की इच्छा हुई तथा किसी व्यक्ति से उसने नगर के बाहर जाने का मार्ग पूछा। उस व्यक्ति ने बताया कि नगर के बाहर जाने का एक ही मार्ग है। अतः उसे किले की दीवार के सहारे जाना चाहिए तथा चलते-चलते जहाँ द्वार आये, वहीं से बाहर निकल जाना चाहिए।
यह बात सुनकर अन्धा व्यक्ति दिवाल पकड़कर उसी के सहारे चल दिया। दुर्भाग्य से उस चक्षुविहीन के शरीर पर दाद का रोग था। दुर्भाग्य से उस चक्षुविहीन के शरीर पर दाद का रोग था। चलते-चलते जब किले के द्वार के निकट पहुँचा तो दाद में खुजली आने के कारण दिवाल से हाथ हटाकर खुजलाते हुए आगे बढ़ गया। जब वह दाद को खुजला चुका तब पुनः किले की भीत पर उसका हाथ पड़ा किन्तु चलते-चलते द्वार निकल चुका था। इसलिए वह बेचारा पुनः किले का चक्कर काटने लगा। नगर बड़ा था। बेचारे को मार्ग में कहीं काँटा तो कहीं पत्थर लगता। इस प्रकार अनेक दुःख सहन करता हुआ वह चक्षुविहीन जब-जब द्वार पर पहुँचता तब-तब भाग्यदोष से दाद में खुजली उठती और नगर का द्वार पीछे रह जाता था। इस प्रकार वह बार-बार कष्ट उठाता।
उस अन्धे व्यक्ति की तुलना भारतीय संस्कृति से विमुख होकर पतन की ओर दौड़ रहे भारतीय युवाओं से कर सकते हैं। आज के नवयुवक की अज्ञानता उसका अन्धापन है, वह किला उसका विलासी जीवन है, द्वार उसकी इच्छित आकांक्षाओं का लक्ष्य है तथा दाद उसे जीवन की अनेक बुरी आदते हैं। जब-जब अकर्मण्यता से ऊबकर नवयुवक अपना वांछित लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है तब दादरूपी कुत्सित आदतें उसे पुनः व्यसनों में संलग्न कर देती हैं और उसे इच्छित लक्ष्य तक नहीं पहुँचने देतीं।
भारत माँ की आशाओं को दीपकों ! यदि आपको अपने जीवन का उत्थान करना है, अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करना है तो आपको महात्मा सूरदासजी के इन शब्दों पर ध्यान देना होगा-
छांड़ि
मन हरि विमुखन
की संग।
जाके
संग कुबुधि
उपजत है, परत
भजन में भंग।।
ईश्वरकृपा से हमने मानव शरीर पाया है। मानव योनि विश्व की योनियों में सर्वोत्तम रचना है। महाकवि सुमित्रा नन्दनजी कहते हैं- सुन्दर है विहंग, सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम्। संसार की चौरासी लाख योनियों को पार करने के पश्चात् यह मानव शरीर प्राप्त होता है। अतः हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए दृढ़ संकल्प के साथ जीवन के महान लक्ष्य की ओर चल देना चाहिए। बड़े में बड़ा लक्ष्य है 'ईश्वर-प्राप्ति' अथवा 'आत्मसाक्षात्कार' जिसके लिए भगवान बुद्ध ने विशाल राज-पाट का त्याग कर दिया, जिसके लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस रात-रात भर रोया करते थे, जिसके लिये युवकों के आदर्शस्वरूप स्वामी विवेकानंद विदेशों से मिली डिग्रियों को ठोकर मारकर रामकृष्ण परमहंस के चरणों में समर्पित हुए थे। वह लक्ष्य ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है तथा इस महान लक्ष्य की प्राप्ति किन्हीं सदगुरू की कृपा से ही हो सकती है। यह सच है कि ऐसे गर्व होना चाहिए कि हमारे देश की यह पावन धरा कभी ऐसे महापुरूषों से विहीन नहीं रही तथा आज भी ऐसे महापुरूष हमारे बीच उपस्थित है जो भारत के सुनहरे भविष्य के लिए नित्य नई आध्यात्मिक खोजें करते रहते हैं। अतः हमें चाहिए कि ऐसे महापुरूषों के मार्गदर्शन में अपने जीवन की उन्नति की ओर जायें तथा समस्त विश्व को शांति एवं प्रेम का संदेश देकर एक बार विश्वशांति का पताका फहरायें।
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श्री अरविन्दघोष ने अपने जीवन काल में व्रत लिये थेः भारत माँ को आजाद कराना, आजादी के लिए प्राणों की बलि तक दे देना तथा यदि ईश्वर है, सत्य है तो उसका दर्शन करना।
उनकी यह मान्यता थी कि भगवान केवल अहिंसा के अथवा केवल हिंसा के दायरे में नहीं हैं। भगवान सर्वत्र हैं तो हिंसा अहिंसा सब उसी में है। अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए यदि अहिंसा व्रत की आवश्यकता पड़ी तो उसका उपयोग करेंगे और हिंसा की आवश्यकता पड़ी तो उसका भी उपयोग करेंगे लेकिन भारतमाता को आजाद कराके रहेंगे उन्होंने शपथ ली थी।
श्रीकृष्ण उनके इष्टदेव थे और गीता के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा थी। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए तो अरविन्द ने अहिंसा का मार्ग स्वीकार किया था लेकिन जो युवक थे, जिनमें प्राणबल था और गरम खून था, जो भारतमाता के लिए प्राण देने को तत्पर थे, ऐसे लोगों को साथ लेकर अंग्रेजों को भगाने के लिए हिंसात्मक प्रवृत्तियाँ आरंभ की। उनका कार्य था बम बनाना, उपद्रव करना तथा ऐसी मुसीबतें पैदा करना कि भारतवासियों को भून डालने वाले शोषक, हत्यारे, जुल्मी, अंग्रेजों की नाक में दम आ जाये। केवल 'सर-सर' कह कर गिड़गिड़ाने से ये मानेंगे नहीं, ऐसा समझकर युवाओं को अरविन्द ने यह मार्ग बतलाया था।
उनके भाई ने जब प्रार्थना की मुझे भी भारतमाता की आजादी की लड़ाई में कुछ काम सौंपा जावे तब अरविन्द घोष ने उन्हें एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में भगवद् गीता देकर शपथ दिलाई की 'जान भी जाय तो दे देंगे लेकिन रहस्य किसी को नहीं बतायेंगे। भारत माता को आजाद कराकर रहेंगे।'
युवकों ने अपना कार्य आरंभ किया। कुछ बम बनाते, कुछ विद्रोह फैलाते, कुछ अंग्रेजों की सम्पत्ति नष्ट करते। इससे अंग्रेजों की नाक में दम आ गया।
देहाध्यासी आदमी अहिंसा से नहीं मानता, वह भय से काबू में रहता है। सज्जन पुरूष के आगे आप नम्र हो जाओ तो आपकी नम्रता पर वे प्रसन्न हो जायेंगे लेकिन दुर्जन के आगे आप विनम्र हो जाओगे तो वह आपका शोषण करेगा, आपको बुद्धू मानेगा लेकिन जो उदार आत्मा हैं, सज्जन हैं, संत हैं उनके आगे आपकी विनम्रता की कद्र होगी।
श्री अरविन्द घोष की हिंसात्मक प्रवृत्तियों के अपराध में अनेक युवा पकड़े गये, अनकों को फाँसी लगी, सैंकड़ों को आजीवन कारावास की तथा कईयों को काले पानी की सजा दी गई। उन सबका मूल अरविन्द घोष को माना और उन्हें पकड़कर जेल में बन्द कर दिया। ब्रिटिश शासन यह चाहता था कि कैसे भी करके उन्हें अपराधी साबित करके शीघ्र ही फाँसी लगवा दी जाये।
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किसी ने इतना तप किया तो आपको सत्संग मिला। अब आप भी कुछ तप (सेवा) करें ताकि दूसरे बच्चों को सत्संग मिल जाये, अच्छे संस्कार मिल जायें। अपने इलाके में सप्ताह में 1-2 दिन आस-पड़ोस के बच्चों को एकत्र कर बाल संस्कार केन्द्र चलाइये।
जिन पड़ोसियों के बच्चे आपके पास आयेंगे उनके दिल की दुआ आपको मिलेगी और आपके प्रति उनका प्रेम व आदर भी बढ़ जायेगा। लेकिन आप उनके आदर या प्रेम की वासना से नहीं बल्कि भगवान की सेवा समझकर केन्द्र चलाइये।
अगर आप बाल संस्कार केन्द्र खोलते हो तो केन्द्र में संस्कार पाकर दूसरों के बच्चों के साथ आपके बच्चे सहज ही उन्नत होने लगेंगे और बच्चों के साथ यह सेवा करोगे तो आप में बहुत निर्दोषता आ जायेगी।
शेखी बघारना, चुगली करना इससे बढ़िया तो यह है कि बाल संस्कार केन्द्र के मध्यम से बच्चों में संस्कार डालें, जो आपके लिए अच्छा सत्कर्म है।
कभी बाल संस्कार केन्द्र में बच्चे बढ़ जायें तो अभिमान नहीं करना और कभी कम हो जायें तो सिकुड़ना मत। शाश्वत तत्त्व एकरस है और माया में उतार-चढ़ाव हुए बिना रहता ही नहीं।
लक्ष्य
न ओझल होने
पाये, कदम
मिलाकर चल।
सफलता
तेरे कदम
चूमेगी, आज
नहीं तो कल।।
जो बाल संस्कार केन्द्र चलाते हैं उनको आनंद भी आता होगा, सम्मान भी मिलता होगा और कभी कोई उनकी निंदा भी करता होगा तो फर्क क्या पड़ा, मजबूत होते हैं। निंदा हुई तो मजबूत हुए, गलती सुधरी या पाप कटे और प्रशंसा हुई तो दैवी कार्य में मदद मिली, दोनों हाथों में लड्डू।
पक्का इरादा करो कि बाल संस्कार केन्द्र और बढ़ायेंगे। भगवान भी कहते हैं कि 'मुझे लक्ष्मी इतनी प्रिय नहीं है, वैकुण्ठ भी उतना प्रिय नहीं है जितना मेरा ज्ञान बाँटने वाला मुझे प्यारा लगता है और मैं उसके साथ एक हो जाता हूँ।'
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