गुरु की
महिमा न्यारी
रे साधो !
गुरुज्ञान के प्रकाश से, मिटा भेद-भरम अब सारा।
अज्ञान अँधेरा मिट गया, हुआ अंतर उजियारा।।
व्यापक सर्व में है सदा, फिर भी है सबसे न्यारा।
दिव्य दृष्टि से जान ले, सच्चिदानंदघन प्यारा।।
रूप, नाम मिथ्या सभी, अस्ति-भाति-प्रिय है सार।
सत्यस्वरूप आतम-अमर, 'साक्षी' सर्व आधार।।
काया माया से परे, 'निरंजन' है निराकार।
भवनिधि तारणहार बन, प्रभु आये बन साकार।।
पूर्व पुण्य संचित हुए, मिले सदगुरु संत सुजान।
आशा-तृष्णा मिट गया, जाग उठा इनसान।।
नम्रता सदभावना, गुरु में दृढ़ विश्वास।
घट-घट में साहिब बसे, कर ईश्वर का एहसास।।
दूर नहीं दिल से कभी, सदा है तेरे पास।
ऐ मोक्ष मंजिल के राही ! हो न तू कभी निराश।।
मन, वचन और कर्म से, बुरा ना कोई देख।
हर नूर में तेरा नूर है, 'साक्षी' एक ही एक।।
सत्यनिष्ठ ऐ कर्मवीर ! जाग्रत कर ले निज विवेक।
पुरुषार्थ से कर सदा, जीवन में कुछ नेक।।
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चेतन तत्त्व से महक रहे, ये धरती और आकाश।
नूरे नजर में रम रहा, वही दिव्य प्रकाश।।
उड़-जीव में जलवा वही, कर ले दृढ़ विश्वास।
साहिब सदा है पास, 'साक्षी' कर ले तू एहसास।।
टिक गया निज स्वरूप में, पा लिया गुरु का ज्ञान।
रम गया मनवा राम में, परम तत्त्व का भान।।
समबुद्धि-सदभावना से, किया है जनकल्याण।
योगी साचा है वही, धरे न मन अभिमान।।
चंचल चित्त स्थिर रहे, हो आत्मा में अनुराग।
धीर वीर कर्मवीर है, कर दिया अहं का त्याग।।
योग तपस्या शौर्य संग, हो विषयों से वैराग।
समदर्शी साधु वही, जिसे शोक न हर्ष-विषाद।।
डल नहीं मौत-वियोग का, पाया निर्भय नाम।
गुरु-चरणों में बैठकर, कर लिया हरि का ध्यान।।
मोह-माया से परे, पा लिया आत्मज्ञान।
ब्रह्मानन्द में रम रहा, दिव्य स्वरूप महान।।
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रक्षा कर हृदय कोष की, पा ले गुरु का ज्ञान।
सम संतोष सुविचार संग, जीवन हो निष्काम।।
हीन भावना त्याग दे, तेरे उर अंतर में राम।
साधुसंगति कर सदा, संचित कर हरिनाम।।
क्षमा प्रेम उदारता, परदुःख का एहसास।
सार्थक जीवन है वही, रखे न कोई आस।।
तत्पर हो गुरुसेवा में, प्रभु में दृढ़ विश्वास।
परम तत्त्व को पा लिया, हुआ भेद-भरम का नाश।।
बंध-मोक्ष से है परे, जन्म-कर्म से दूर।
व्यापक सर्व में रम रहा, वह नूरों का नूर।।
आदि-अंत जिसका नहीं, वह साहिब मेरा हजूर।
दिव्य दृष्टि से जान ले, 'साक्षी' है भरपूर।।
धर्म, दया और दान संग, जीवन में हो उमंग।
प्रभुप्रेम की प्यास हो, लगे नाम का रंग।।
श्रद्धा और विश्वास की, मन में हो तीव्र तरंग।
रोम-रोम में रम रहा, फिर भी रहे निःसंग।।
नभ जल थल में है वही, सर्व में हरि का वास।
नूरे नजर से देख ले, वही दिव्य प्रकाश।।
लाली लहू में है वही, कण-कण में है निवास।
खोज ले मन-मन्दिर में, सदगुरु सदा हैं पास।।
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समर्थ सदगुरु मिल गये, पाया निर्भय नाम का दान।
आशा तृष्णा मिट गयी, हुआ परम कल्याण।।
दैवी कार्य तू कर सदा, सेवा हो निष्काम।
रोम-रोम में रम रहा, वह अंतर्यामी राम।।
वचन अनोखे संत के, गुरु का ज्ञान अथाह।
आत्मरस छलका दिया, रही न कोई चाह।।
प्रणव ही महामंत्र है, सदगुरु नाम समाय।
प्रेम, भक्ति और ज्ञान से, चित्त पावन हो जाय।।
सहजता सरलता सादगी, हो समता का व्यवहार।
दयादृष्टि से कर सदा, दीनों पर उपकार।।
नतमस्तक हो भाव से, कर गुरुवर का दीदार।
श्रद्धा-सुमन अर्पण करो, मन भेंट धरो गुरुद्वार।।
रसना पर हरिनाम हो, हृदय में गुरु का ध्यान।
मन-मंदिर में समा रहा, परम तत्त्व का ज्ञान।।
हर्ता-कर्ता एक हरि, साहिब सदा है संग।
कण-कण में व्यापक वही, फिर भी रहे निःसंग।।
ना कर मोह माया से, ना काया का अभिमान।
तज दे अहंता ममता, धर नित ईश्वर का ध्यान।।
ईश का ही तू अंश है, जीव नहीं शिव मान।
सर्व में तू ही रम रहा, रह 'स्व' से ना अनजान।।
श्वेत-श्याम में है वही, चैतन्य तत्त्व का सार।
अलख अगोचर ब्रह्म है, 'साक्षी' सर्व आधार।।
जप-ध्यान-उपासना, गुरुनिष्ठा दृढ़ विश्वास।
साधु-संगति कर सदा, कर ईश्वर का एहसास।।
रत्न अमूल्य श्वास के, व्यर्थ न यूँ गँवाय।
जप कर ले प्रभु नाम का, जीवन सफल हो जाय।।
कंचन कीर्ति कामिनी संग, मिले न मोक्षद्वार।
हाट खुली हरिनाम की, साँचा कर व्यापार।।
सफल जन्म तब जानिये, जब हो सदगुरु दीदार।
हृदय में साहिब रम रहा, हो रामरस की खुमार।।
रथ ये तन तेरा रहा, तू तो है रथवान।
साँचा सारथि है वही, थामे मन की लगाम।।
वो ही घड़ी शुभ जानिये, जब मिले सत्संग।
डूबा चित्त प्रभुप्रेम में, लगे नाम का रंग।।
परम पावन गुरु-ज्ञान है, भरो दिल के भंडार।
गुरुसेवा पूजा अर्चना, हो जीवन में उपकार।।
रिझा लिया जब राम को, पूर्ण हुए सब काज।
आत्मानंद पा लिया, पाया निज स्वरूप स्वराज।।
भरम भेद संशय मिटा, पा लिया गुरु का ज्ञान।
अहं का पर्दा हट गया, हुआ परम तत्त्व का भान।।
तिलभर भी है ना परे, ज्यों सागर संग तरंग।
ओत-प्रोत सर्वत्र है, अलख अभेद असंग।।
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फरियाद क्या करूँ मैं, जब याद तू ही तू है।
सर्वत्र तेरी सत्ता, हर दिल में तू ही तू है।।
तुझसे महके उर-आँगन, तुझसे ही झूमा चितवन।
मेरी
अंतर आत्मा
की, ज्योति भी
तू ही तू है।।
तुझसे ही बहारें छायीं, इन फिजाओं में रँग लायीं।
नजरों
में नूर तेरा,
हर नजाकत में
तू ही तू है।।
हर रूप में है छायी, तेरी छवि समायी।
हर दिल की धड़कनों
में, बसा एक तू
ही तू है।।
तेरा ही जलवा छाया, सबमें है तू समाया।
लाली बहू
में तेरी, इन रंगतों
में तू ही तू
है।।
तेरा ही आसरा है, इक आस है तुम्हारी।
इन मन के मंदिरों में, बसा एक तू ही तू है।
लागी लगन है जिसको, इक तेरे मिलन की।
उसकी हर
अदा इबादत, कण कण में तू
ही तू है।।
तन के सितार में है, गुंजार तेरी दाता।
श्वासों
के साजों
में भी, झंकार
तू ही तू है।।
मन वाणी से परे है, तू आत्मा हमारा।
विश्वास
की डगर पर,
एहसास तू ही
तू है।।
हर दिल में तेरी दिलबर ! झलक ही आ रही है।
इन
चंदा-तारों
में भी,
प्रकाश तू ही
तू है।।
पर्दा हटा नजर से, निरखूँ स्वरूप प्यारा।
महका चमन
अमन का, चितवन
में तू ही तू
है।।
'साक्षी' है साथ मेरे, है जुदा नहीं तू जानिब।
बंध-मोक्ष
से परे हैं, निराकार
तू ही तू है।।
तू परम सखा है मेरा, दिले-दरिया का किनारा।
मेरी जीवन-नैया का, माँझी-मल्लाह तू है।।
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हे दीनबंधु करूणासागर, हरिनाम का जाम पिला दे मुझे।
कर रहमो नजर दाता मुझ पर, प्रभु प्रेम की प्यास जगा दे मुझे।।
हम कौन हैं, क्या हैं भान नहीं, क्या करना है अनुमान नहीं।
मदहोश हैं कोई होश नहीं, अब ज्ञान की राह दिखा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
है रजस ने पकड़ा जोर यहाँ, छाया तम अहं घनघोर यहाँ।
छुपे राग-द्वेष सब चोर यहाँ, समदा दर दिखला दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
चंचल चितवन वश में ही नहीं, छुपा काम-क्रोध-मद-लोभ यहीं।
मन में समाया क्षोभ कहीं, गाफिल हूँ दाता जगा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
काया में माया का डेरा है, मोह-ममता का भी बसेरा है।
अज्ञान का धुँध अँधेरा है, निज ज्ञान की राह दिखा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
जीया नश्वर में कुछ ज्ञान नहीं, हूँ शाश्वत से भी अनजान सही।
पा लूँ परम तत्त्व अरमान यही, अपनी करूणा कृपा में डुबा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
है आत्मरस की चाह सदा, तू दरिया-दिल अल्लाह खुदा।
तू ही माँझी है मल्लाह सदा, अब भव से पार लगा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
माना मुझ में अवगुण भरे अपार, दोष-दुर्गुण संग हैं विषय-विकार।
तेरी दयादृष्टि का खुला है द्वार, इन चरणों में प्रीति बढ़ा दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
तू दाता सदगुरु दीनदयाल, जगे ज्ञान-ध्यान की दिव्य मशाल।
रहमत बरसा के कर दे निहाल, दिले दिलबर से तो मिला दे मुझे।।
हे दीनबंधु.
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दीप जलाकर ज्ञान के, दूर करो अन्धकार।
समता करूणा स्नेह से, भरो दिल के भंडार।।
राग-द्वेष ना मोह हो, दूर हों विषय-विकार।
कर उपकार उन पर सदाष जो दीन-हीन-लाचार।।
पा लिया मन-मन्दिर में, दिलबर का दीदार।
छलका दरिया आनंद का, खुला जो दिल का द्वार।।
भेद भरम संशय मिटा, छूट गया अहंकार।
रोम-रोम में छा गयी, हरिरस की खुमार।।
वन में तू खोजे कहाँ, साहिब सबके संग।
'स्व' से मिलने की दिल में, जागी तीव्र तरंग।।
संग साथ रहता सदा, फिर भी रहे निःसंग।
तन-मन पावन हो गया, पी जब नाम की भंग।।
लीन हुआ चित्त नाम में, पाया तत्त्व का सार।
निजानंद में मस्त हैं, सपना यह संसार।।
मन बुद्धि वाणी से परे, न रूप रंग आकार।
'साक्षी' सदगुरु वेश में, प्रभु आये साकार।।
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गुरु की महिमा न्यारे रे साधो ! संत परम हितकारी रे साधो !
गुरुचरणों में हैं सब तीरथ, गुरुचरणों में चारों धाम।
गुरुसेवा ही सर्व की सेवा, चित्त पाये विश्राम रे मन !
गुरुचरणों में ज्ञान की गंगा, बुरा भी मन जाय चंगा।
पावन सत्संग की सरिता में, कर ले तू स्नान रे मन !
संत वेश में प्रभु ही आये, निश्चल भाव से तुझे जगायें।
खोज ले अपने अंतर मन में, अन्तर्यामी राम रे मन !
गुरुचरणों में कर स्वरूप की पूजा, हरि गुरु में ना भेद है दूजा।
गुरुकृपा जिस पर हो जाय, पाये पद निर्वाण रे मन !
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बड़ी है संयम की बलिहारी, जिसकी अनुपम छवि प्यारी।
संजीदगी, स्नेह सौरभ से, महके जीवन बगिया सारी।।
अदभुत ओज तेज सबल, सात्त्विक भाव, चित्त निश्चल।
शुद्ध-बुद्ध संकल्प अचल, खिले सदगुण की फुलवारी।।
संयम से सुडौल हो काया, विषय-भोग की पड़े न छाया।
चिंता-चाह न गम का साया, वीर पुरुष हो चाहे नारी।।
तेजस्वी, कुशाग्र बुद्धि हो, पावन तन अंतर-शुद्धि हो।
'साक्षी' स्व की बेखुदी हो, छूटे रोग-विलास से भारी।।
निखरे सुंदर रूप सलोना, विकार बर्बादी का बिछौना।
तनरत्न यूँ व्यर्थ न खोना, मिटे संकट, विपदा भारी।।
दीर्घायु, स्वस्थ हो तन-मन, सुख-सम्पदा, चैन-अमन।
झूम उठे दिल गुलशन, संयम की महिमा है न्यारी।।
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जगत पिता जगदीश का, गुरुवर में कर दीदार।
कृष्ण-कन्हैया बन कभी, नंदनन्दन का अवतार।।
गीता के निज ज्ञान में, है आत्मतत्त्व ही सार।
शिवस्वरूप तेरा आत्मा, ये नाम रूप हैं असार।।
नियंता सबका एक है, अलख अभेद अनादि।
समता भाव में रम रहा, न हर्ष, न शोक-विषाद।।
काया माया से परे, न आधि-व्याधि-उपाधि।
प्रेम भक्ति विश्वास ही, जिसकी सहज समाधि।।
मात-पिता सत्शास्त्र गुरु, सब कर सम्मान।
रोम-रोम में रम रहा, वह अंतर्यामी राम।।
नंदनन्दन गोपाल वह, मीरा का घनश्याम।
मन-मंदिर में बस रहा, दिव्य स्वरूप महान।।
षडरस हैं फीके सभी, सुमधुर रस हरिनाम।
पी ले दिल की प्याली से, मस्त फकीरी जाम।।
गुरु चरणों में बैठकर, धर ले प्रभु का ध्यान।
ये जीवन पावन कर ले, कर सेवा निष्काम।।
टर जायेगी विपत्ति भी, आस्था गुरु में राख।
जप, ध्यान और नाम संग, ज्ञान का हो संगात।।
दिलबर को दिल में बसा, कर 'स्व' से मुलाकात।
भवबंधन सब मिट गया, रहा सदगुरु का जब साथ।।
मीत वह साँचा जानिये, जो संकट में हो सहाय।
रंजिश गम दुःख-दर्द में, मन न कभी घबराय।।
हर हाल में मस्त हो, 'साक्षी' भाव जगाय।
मानव तन देव सम, साधक वो कहलाय।।
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सत्संग है इक परम औषधि, मिटे तम अहं उपाधि-व्याधि।
गुरुनाम से हो सहज समाधि, प्रभुप्रेम से भरें दिल के भंडार।।
सत्संग पावन सम गंगाधारा, तन-मन निर्मल अंतर उजियारा।
सुखस्वरूप जागे अति प्यारा, गुरुज्ञान से हो आनंद अपारा।।
सत्संग से जीवभाव का नाश, रामनाम नवनिधि हो पास।
हो परम ज्ञान अंतर उजास, गुरुतत्त्व अनंत है निराकार।।
सत्संग से हो परम कल्याण, भय भेद भरम मिटे अज्ञान।
सम-संतोष, हो भक्ति निज-ज्ञान, सदगुरु करें सदैव उपकार।।
सत्संग साँचा है परम मीत, गूँजे अंतरतम प्रभु के गीत।
अदभुत स्वर सौऽहं संगीत, हो शील-धर्म, चित्त एकाकार।।
सत्संग है जीवन की जान, सुखस्वरूप की हो पहचान।
रहे न लोभ-मोह-अभिमान, गुरुनाम हो 'साक्षी' आधार।।
सत्संग से खुले मन-मंदिर द्वार, प्रभुप्रीति हो चित्त निर्विकार।
छाये बेखुदी आत्म खुमार, सदगुरु भवनिधि तारणहार।।
सत्संग से हों दुर्गुण नाश, कटे काल जाल जम-पाश।
जगे एक अलख की आस, प्रभु बने सदगुरु साकार।।
सत्संग से प्रकटे विश्वास, घट-घट में हो ईश निवास।
सार्थक हो क्षण पल हर श्वास, गुरु-महिमा का अंत न पार।।
सत्संग से जगे विवेक-वैराग, आस्था दृढ़ हो ईश अनुराग।
विष विषय-रस का हो त्याग, गुरुनामामृत है सुख सार।।
सत्संग से उपजे भगवदभाव, मिले सत्य धर्म की राह।
मिटे वासना तृष्णा चाह, सत्संग पावन से हो उद्धार।।
सत्संग से आये प्रभु की याद, हरिनाम से हो दिल आबाद।
रहे नहीं फरियाद विषाद, हरिमय दृष्टि से सर्व से प्यार।।
सत्संग पावन है मोक्षद्वारा, हो उर अंतर ज्ञान-उजियारा।
लगे स्वप्नवत जग सारा, 'साक्षी' सदगुरु पे जाऊँ बलिहार।।
सत्संग कल्पवृकक्ष जीवन का, गुरु-प्रसाद निज आनंद मन का।
मनमीत है संत सुजन का, सत्संग की महिमा बड़ी अपार।।
ॐ गुरु ॐ गुरु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरुदर है दुआओं वाला, मठ मंदिर वही शिवाला।
जहाँ ब्रह्मा विष्णु शेष विराजें, हरि गुरु शिव भोला-भाला।।
श्रद्धा से गुरुद्वार जो आये, 'साक्षी' सात्विक भाव जगाये।
सेवा निष्काम यज्ञ फल पाये, खुले बंद हृदय का ताला।।
सदगुरु दर्शन फल अति भारी, निज अंतर पावन छवि न्यारी।
मिटे भय संकट विपदा सारी, गुरुनाम की जो फेरे माला।।
गुरुदर है इक मोक्षद्वारा, जन्म मरण से हो छुटकारा।
गुरुनाम अमोलक है प्यारा, छलके हरिरस की हाला1।।
गुरुद्वार स्वर्ग से भी महान, मानव-जीवन का वरदान।
ज्ञान-भक्ति से हो उत्थान, अदभुत है प्रभुप्रेम प्याला।।
गुरुचरणों में जो शीश झुकाये, रामनाम की धूलि रमाये।
सदगुरु-सेवा में लग जाये, प्रकटे निज ज्ञान-अग्नि ज्वाला।।
गुरुज्ञान सर्व सुखों की खान, मिटे संशय गर्व गुमान।
रहे न लोभ अहं-अभिमान, विवेक-वैराग्य हो उन्नत भाल।।
1. मदिरा
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
मगन हुआ चित्त में, रही न कोई चाह।
जिसको कुछ न चाहिए, वह शाहों का शाह।।
हारा हृदय गुरुद्वार पर, नहीं लोभ-मोह-गुमान।
साक्षी समत्व भाव में, धरे जो हरि का ध्यान।।
शिवस्वरूप है आत्मा, अजर-अमर-अविनाशी।
दिव्य दृष्टि से जान लो, परम तत्त्व सुखराशि।।
बनजारा तू जगत का, यह मेला है संसार।
चैतन्य तत्त्व ही सार है, बाकी सब असार।।
राम-रसायन आत्मरस, कर सेवन हर बार।
अंतर्मुख होकर सदा, दिले दिलबर दीदार।।
त्रिगुणी माया से परे, पंचतत्त्व से दूर।
मन-बुद्धि-वाणी से परे, व्यापक है भरपूर।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
हरिनाम की हीरों से, जीवन के सजाता चल।
प्रभुप्रेम में हो पागल, निज मस्ती में गाता चल।।
माना है डगर मुश्किल, घनघोर अँधेरा है।
इन चोर-लुटेरों ने, तुझे राह में घेरा है।
गुरुज्ञान से हो निर्भय, साधक कदम बढ़ाता चल।।
माना है नहीं साथी, तू एक अकेला है।
गम के तूफानों में, जीवन सफर दुहेला1 है।
गुरुनाम से हों निश्चल, मन 'स्व' में डुबाता चल।।
माना है जग सारा, बस एक झमेला है।
स्वप्नों की नगरी में, दो दिन का मेला है।
गुरुध्यान से हो पावन, भ्रम-भेद मिटाता चल।।
माना है निज अंतर, विषयों का डेरा है।
अहंता-ममता का, चित्त में बसेरा है।
गुरु रहमत से हो सबल, दिल-दीप जलाता चल।।
1 कष्टप्रद
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
महँगीबा माँ दिया तूने, ऐसा लाल निराला है।
जन-जन को जागृत कर जिसने, ज्ञान का किया उजाला है।।
अपनी स्नेहमयी छाया में, तूने जिसे सँवारा है।
प्रेम भक्ति ज्ञान ध्यान से, जिसको सदा निखारा है।।
निज स्वरूप आनंदमय जीवन, प्राणों से भी प्यारा है।
सरल हृदय सत्कर्म अनोखा, मनवा भोला भाला है।।
नश्वर काया माया है, चित्त चकोर निर्लेप रहा।
मुक्त सदा हरिमय हृदय, बंधन का नहीं लेप रहा।।
दुर्गुण-दोष, विषय-विकार से, चित्त सदा अलेप रहा।
सजा ज्ञान से मन-मंदिर है, तन भी एक शिवाला है।।
सींच दिया है उर-आँगन में, शील-धर्म का अंकुर है।
गुरु ही ईश राम-रहीम हैं, ब्रह्मा विष्णु शंकर हैं।।
व्यापक हैं निर्लेप सदा ही, वही ब्रह्म परमेश्वर हैं।
'साक्षी' आत्मअमी रस पाया, प्रभु में मन मतवाला है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आत्म अमर बेल है प्यारी, शाश्वत सदा है सबसे न्यारी।
घटे-बढ़े न उपजे-लीन हो, कैसी अदभुत क्यारी !
नैनों से देखे ना कोई, मन-बुद्धि से जाने नहीं।
ज्योतिस्वरूप ज्योतिर्मय है, सूक्ष्मतर चिनगारी।।
जड़ जीव जंतु मानव में, सुर असुन देव दानव में।
निर्लेप सदा अनादि-अनंत है, महिमा जिसकी भारी।।
नाम रूप रस रंग न कोई, अंग संग बेरंग है सोई।
ओत-प्रोत है सर्वव्यापक, अखंड चेतना सारी।।
रोम-रोम हर कण-कण में, श्वास-श्वास हर स्पंदन में।
शाश्वत सत्य सनातन है, महके ज्यों फुलवारी।।
गुरुज्ञान, ध्यान-भक्ति में, जल-थल-नभ पराशक्ति में।
आनंदमय मुक्तस्वरूप है, यार की सच्ची यारी।।
अजर-अमर आत्म अविनाशी, दिव्य परिपूर्ण सुखराशी।
चैतन्यमय है स्वयं प्रकाशी, जिसकी बलिहारी 'साक्षी'।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
हो गयी रहमत गुरु की, हरिनाम रस को पा लिया।
ध्यान-रंग में डुबा दिया, निज आत्मभाव में जगा दिया।।
लज्जत1 है नाम-रस में, पी ले तू बारम्बार।
गुरुचरणों में पा ले, प्रभुप्रेम की खुमार।।
कामना को त्याग दे, कर ईश में अनुराग।
गफलत में क्यों सो रहा, निज आत्मरूप में जाग।।
1 स्वाद
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तज दे विषय-विकार को, विषय हैं विष की खान।
विषय-भोग जो न तजे, विषधर सम ताही जान।।
तज दे जग गी आस को, झूठी आस-निरास।
चाह को जो न तजे, ताको जम की फाँस।।
तज दे तम अहं को, लोभ मोह अभिमान।
भय शोक जो ना तजे, पड़े नरक की खान।।
मन से तज दे बंधुजन, झूठा जग व्यवहार।
संग साथ कोई ना चलेष क्षणभंगुर संसार।।
तज दे मायाजाल को, नश्वर जग-जंजाल।
कीर्ति कंचन कामिनी, बंधन सब विकराल।।
परनिंदा हिंसा ईर्ष्या, दुर्गुण दोजख जान।
करूणा क्षमा उपकार से, मिटे भेद-अज्ञान।।
तज अनीति, द्वैत को, वैरी सम कुसंग।
सत्य, धर्म मनमीत हों, साँचा धन सत्संग।।
तज क्रोध-आवेश को, रोष में ही सब दोष।
मन मलिन कटु भावना से, बिखर जाय संतोष।।
तज चंचलता वासना, धर शील विनय विवेक।
संयम समता स्नेह से, कर जीवन में कुछ नेक।।
तज अज्ञान तिमिर को, है ब्रह्मज्ञान सुखसार।
प्रेम भक्ति विश्वास से, हो जीवन-नैया पार।।
तज दुर्मति मनमति को, कर सर्व सदा सम्मान।
गुरुमति से सुमति मिले, सदबुद्धि गुरुज्ञान।।
तज छल कपट दंभ को, कर श्रद्धा, प्रभु से प्यार।
सर्व में 'वह' रम रहा, जग का सिरजनहार।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
झूम ले हरिध्यान में, रही न कोई चाह।
गहरा सागर ज्ञान का, मिले न कोई थाह।।
गुरुदेव के साये में, मिल गयी सत्य की राह।
फिर कैसे गुमराह हो, जिस मन मं हरिवास।।
ले सदा दुःख-दर्द दीनों के, सदैव कर उपकार।
कर भलाई सर्व की, न किसी को कर लाचार।।
हर नूर में हरि हैं बसे, हर दिल में कर दीदार।
गुरुचरण में बैठकर, कर निज आत्म-विचार।।
लाल की लाली से महका, सारा ये जहान।
रंगत नही, धड़कन वही, हर जीव में वही प्राण।।
नूर वही, नजरें वही, वही जिगर और जान।
नाम-रूप जुदा सही, चैतन्य तत्त्व समान।।
लगन लगी हो राम की, दिल में हरि का ध्यान।
प्रभुप्रेम की प्यास हो, चित्त मे गुरु का ज्ञान।।
जग गया स्वस्वरूप में, हो गया निज का भान।
भेद भरम संशय मिटा, पाया 'साक्षी' पद निर्वाण।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ