जहाँ अपने से भिन्न आनंद लेना होता है वहाँ तो कारण की, इन्द्रियों की जरूरत होती है परंतु स्वरूपभूत आनंद के आस्वादन के लिए किसी कारण की जरूरत नहीं है। शांत, विक्षिप्त, सविषयक, निर्विषयक आदि वृत्तियों की भी जरूरत नहीं है। सब वृत्तियों का प्रकाशक आत्मा ही है। अतः आत्मानंद कारण-सापेक्ष नहीं है। अतः उसके लिए प्रयत्न की भी जरूरत नहीं है।
पूज्य संत श्री आशारामजी बापू