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इस झमेले के दुःखों से पार होना हो तो…. पूज्य बापू जी


जो लोग सोचते हैं, ‘मैं परेशान हूँ, मैं दुःखी हूँ’ वे अपने-आपके बड़े खतरनाक दुश्मन होते हैं । उनके दुःख भगवान भी नहीं मिटा सकते । ‘मैं परेशान हूँ, मैं दुःखी हूँ’ ऐसा चिंतन करने वाला व्यर्थ की परेशानी और दुःख की सृष्टि बनाता रहता है । अगर उसे मरते समय भी पीड़ा हुई और ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ ऐसा सोचा तो वह उस समय सुन्न हो जायेगा । फिर शरीर तो मर जायेगा लेकिन दुःख और परेशानी वाला अंतःकरण उसको न जाने कब तक सताता रहेगा ।

तो ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ इस प्रकार की वृत्ति को उखाड़ के फेंक देने का संकल्प करो । कैसी भी परिस्थिति आये, मैं परेशान हूँ, मुझे बड़ी समस्या है, मुझे बड़ी चिंता है, मैं दुःखी हूँ…’ ऐसा कभी न सोचना, कभी न कहना । इससे अपना बहुत-बहुत घाटा होता है । दुःख, परेशानी बाहर की परिस्थिति में होते हैं, उन्हें अपने में घुसेड़ना यह बड़ी भारी भूल है । ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ, मैं बीमार हूँ, मेरा कोई नहीं है, मेरा फलाना शत्रु है, मेरे फलाने प्यारे हैं – मित्र हैं…’ – यह चिंतन जीव को न जाने कितनी-कितनी दुःखद अवस्थाओं में भटकाने के लिए पर्याप्त हो जाता है । ‘ध्यान करके, भक्ति करके मैं ऐसा बनूँगा… ऐसा बनूँगा…’ यह भी एक प्रकार की विडम्बना ही है । न कुछ बनना है, न अपने को तुच्छ मानना है, न अपने को श्रेष्ठ मानना है, अपने को तो भगवान का मानना है क्योंकि वास्तव में हम ईश्वर के थे, हैं और रहेंगे । शरीर के हम हैं नहीं, थे नहीं और रह सकते नहीं । शरीर बदलता है, मन बदलता है, स्वभाव बदलता है – पत्नी का, पति का, सबका । बदलने वाले से जो अपने को जोडता है वह बड़ी भारी भूल करता है और उसी का भारी-भारी दंड भोगता रहता है । तीर्थों में भी जाता है, मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में भी जाता है किंतु दुःख से जान नहीं छूटती ।

कभी न छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं ।

मैं वास्तव में आत्मा हूँ और यह आत्मा सर्वत्र व्याप्त है इसलिए मैं ब्रह्म हूँ । जैसे घड़े का आकाश और महाकाश एक है ऐसे ही आत्मा और ब्रह्म एक है, ऐसा ज्ञान जब तक स्वीकार नहीं होता, जब तक इस ज्ञान में रुचि नहीं होती तब तक स्वर्ग मिलने से भी दुःख नहीं मिटते । अपने निर्दुःख आत्मस्वभाव को पहचाने बिना, अपने निर्दुःख नारायण का रस पाये बिना नीरसता, शुष्कता जाती नहीं है । नीरसता ही संसार में, विकारों में गिराती है । नीरसता मिटते ही व्यक्ति निर्विकार हो जाता है, निर्भीक और निश्चिंत हो जाता है । वास्तव में हमारा असली स्वरूप परम रस है, सच्चिदानंद-स्वभाव हमारा परम रस है, रस-स्वभाव हमारा वास्तविक स्वरूप है । जब तक इस रस-स्वभाव में ठीक से गति नहीं हुई, स्थिति नहीं हुई तब तक देखने, सूँघने आदि का रस, पति-पत्नी के शरीरों को नोचकर मलिनता का रस ले के भी व्यक्ति नीरसता मिटाने-मिटाने में नीरस हो हो जाता है । अंदर रस नहीं है तो सिगरेट का रस लेता है लेकिन वह तो और नीरस बनायेगी, सुरा और सुंदरी नीरस बनायेंगी, विकारी सुख-भोग भी नीरस ही बनायेगा । तो रस की माँग-माँग में नीरसता बढ़ती जा रही है ।

विदेशियों की ऐसी दुर्दशा है कि रस-रस के चक्कर में इतने नीरस हो रहे हैं कि आत्महत्या तक कर लेते हैं । आदर पाने की, बड़ा व्यक्ति बनने की इच्छा-इच्छा में ऐसे गंदे काम करते हैं कि क्या बतायें ! आदरणीय बनना हो तो सुंदर-सरल उपाय है – अपनी योग्यताओं का ठीक से सदुपयोग करें, चाहे कितनी छोटी-सी योग्यता हो । प्रभु में विश्वास है तो आदर पाने के लिए बेईमानी और कपट करने से विश्वास हट जायेगा । जिनको प्रभु में विश्वास नहीं है उनको रुपयेग-पैसे, ठगी, प्रमाणपत्र आदि में विश्वास होता है और वह विश्वास उनको सताता है । मरते समय वे प्रमाणपत्र साथ में नहीं आते । ‘मैं दुःखी होकर जा रहा हूँ’ या ‘मैं दुःखी हूँ, मैं परेशान हूँ’ अथवा ‘मैं दुःखी हूँ, दुःखी हूँ’ ऐसा स्वभाव बनाना तो और भी मुसीबत बढ़ाने वाला होगा । न जाने किस समय मृत्यु आये और तब वह दुःखी-दुःखी का भाव लेकर जाओगे तो फिर भगवान भी तुम्हारा दुःख नहीं मिटा सकते, दुःखद योनियों में ही जाना पड़ेगा । लेकिन ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान का हूँ….’ ऐसा झूठमूठ में ही बोलो तो आहाहा !… वास्तव में भगवान के हो ही पर झूठमूठ में भी बोलो तो भगवान सोचेंगे, ‘चलो, मेरा नाम तो लिया !’ फिर वे न जाने कैसी कृपा कर दें ! कैसे सत्संग में भेज दें ! कैसी सूझबूझ दे दें कि मरने के बाद दुर्गति में से भी सद्गति हो जाय ।

बिगड़ी जनम अऩेक की सुधरहिं अब और आजु ।

तुलसी होहिं राम को राम भजि तजि कुसमाजु ।।

काम, क्रोध, लोभ, आलस्य, निद्रा, तन्द्रा, दोष-दर्शन, अपने में विशेषता का भाव – ये कुविकार लोफर हैं, सब अहंकार और उसकी माया है । इसलिए ‘हे प्रभु आनंददाता ! यह ज्ञान दीजिए कि आप सत् रूप हैं, आप चेतन रूप हैं, आनंदरूप है, ये विकार अष्टधा प्रकृति में हैं, पंचभौतिक शरीर, मन, बुद्धि और अहं में हैं, उऩको जानने वाला मेरा आत्मा आप ही का सनातन अमृतपुत्र है । जान गये, बलमा की बात पहचान गये । वाह मेरे आनन्ददेवा !’ ऐसा चिंतन करेंगे तो तुरंत आप इस झमेले के दुःखों से और पापों से मुक्त हो सकते हैं ।

ऋषि प्रसाद, जनवरी 2023, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 361

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मंगलमयी, सुख-समृद्धिदायी गौ-सेवा


वैदिक संस्कृति में गायों को विशेष महत्त्व दिया जाता रहा है । गायों के पूजन, आदर-सत्कार एवं श्रृंगार हेतु जैसे गोपाष्टमी पर्व मनाया जाता है वैसे ही पूज्य बापू जी द्वारा प्रेरित ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’, जो 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक होता है, उसमें गायों की सेवा, पूजन आदि का विशेष कार्यक्रम होता है । गाय पूजनीय क्यों ? बृहत् पराशर स्मृति में आता है कि ‘गाय के सींग की जड़ में ब्रह्मा, सींग के मध्य में विष्णु एवं शरीर में सारे देवता विद्यमान हैं ।’ ब्रह्मवैवर्त पुराण में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- गौओं के अंगों में समस्त देवता निवास करते हैं, उनके चरणों में समस्त तीर्थ और उनके गुह्य स्थानों (मल-मूत्र के स्थानों) में स्वयं लक्ष्मी जी निवास करती हैं । गौओं के खुर की धूल का जो मस्तक पर स्नान करने का फल पाता है और पग-पग पर उसकी जय होती है । तीर्थस्थानों में जाकर स्नान-दान करने, ब्राह्मण-भोजन कराने, समस्त व्रत-उपवास, समस्त तप, महादान, श्रीहरि की आराधना करने, सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा, सम्पूर्ण वेदवाक्यों के स्वाध्याय तथा समस्त यज्ञों की दीक्षा ग्रहण करने पर मनुष्य जिस पुण्य को पाता है, वही पुण्य केवल गायों को हरी घास खिलाने मात्र से पा लेता है ।’ महाभारत के दानधर्म पर्व में आता है कि ‘गौएँ सम्पूर्ण प्राणियों की माता कहलाती हैं अतः उनकी सदैव पूजा करनी चाहिए ।’ गाय की महिमा समझें पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “जीवन में गीता और गाय का जितना आदर करेंगे उतने स्वस्थ, समतावान और आत्मवान बन जायेंगे । बच्चों को देशी गाय का दूध पिलाओ, गाय पालो, गायों की सेवा करो । जैसे वृद्ध माँ की सेवा करते हैं ऐसे बूढ़ी गायों की भी सेवा करो, इससे आपको कोई घाटा नहीं पड़ेगा । तो आप लोग गोदुग्ध से, गौ-गोबर से, गोमूत्र से स्वास्थ्य लाभ उठाइये । कसाईखाने में गाय जाय उसकी अपेक्षा गाय पालना शुरु कर दो । गाय जहाँ बँधती है उधर टी.बी. और दमे कीटाणु नहीं पनपते हैं । आपके घर-मोहल्ले में गाय का जरा चक्कर लगवा दो तो भूत-प्रेत, डाकिनी-शाकिनी की बाधा दूर हो जाती है ऐसा कहा गया है । गौ की पूँछ से श्रीकृष्ण को झाड़ दिया, बोलो ! ‘हमारे कन्हैया को पूतना राक्षसी ने छुआ है तो कहीँ उसकी नज़र न लग जाय, उपद्रव न हो जाय, स्वास्थ्य न बिगड़ जाय’ ऐसी आशंका से गोपियों ने श्रीकृष्ण का गाय की पूँछ से उतारा किया, गोमूत्र से स्नान कराया और गाय के गोबर से तिलक किया । भागवत में ऐसा वर्णन आता है । स्वास्थ्य के लिए गाय और आपके लिए गीता – इन दो चीजों का आप जितना सदुपयोग करेंगे उतने आप स्वस्थ रहेंगे । विदेशी (जर्सी, होल्सटीन आदि) गायों के दूध, घी से कोई बरकत नहीं होती, हानि अवश्य होती है । उनके दर्शन से भी कोई आनंद नहीं होता । देशी गाय के घी का रोज़ सुबह दर्शन करिये, देखिये आप कितने प्रसन्न रहते हैं ! यह तो कर सकते हैं । तो गौ के दूध, घी, गोमूत्र आदि का उपयोग करो, गौशालाएँ खोलो ।” स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 13,20 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पूज्य बापू जी का विश्वमानव को उपहारः विश्वगुरु भारत कार्यक्रम


पूर्वकाल में घर-घर में तुलसी, गीता, गोमाता – भारतीय संस्कृति क ये धरोहरें विद्यमान होती थीं, जिससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न व शांत रहते थे । लेकिन धीरे-धीरे इन्हें घरों से बेघर कर दिया गया जिसके कारण समाज रोगग्रस्त व अशांत रहने लगा । वर्तमान समय में इस अशांति ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि वर्ष के अंतिम दिनों में होने वाली आपराधिक प्रवृत्तियों, आत्महत्याओं में विशेषरूप से बढ़ोतरी होने लगी । इसका प्रमुख कारण था 25 दिसम्बर से 1 जनवरी के बीच में समाज में बढ़ती दुष्प्रवृत्तियाँ जैसे, मांसाहार, शराब-सेवन आदि । भूले-भटके, नीरस समाज को सच्ची राह मिले व जनजीवन में सरसता, सात्त्विकता, आरोग्य, प्रभुप्रीति आदि का प्रादुर्भाव हो इस उद्देश्य से 2014 में ब्रह्मवेत्ता संत पूज्य बापू जी ने ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ का अनुपम उपहार समाज को दिया । पूज्य बापू जी ने सब प्रकल्पों का अंतिम लक्ष्य यह है कि जीवात्मा अंतरात्मा-परमात्मा के रस को पा ले और अपने सच्चिदानंदस्वरूप को जानकर मुक्त हो जाय । 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ के पूज्य श्री के आवाहन के फलस्वरूप करोड़ों लोग ‘तुलसी पूजन दिवस’ सपरिवार मनाकर प्रसन्नचित्त हो रहे हैं व स्वास्थ्य लाभ पा रहे हैं, हवन द्वारा पवित्र आभामंडल बना रहे हैं, गौ-गंगा-गीता जागृति यात्राओं से गाँव-गाँव, शहर-शहर में सुख-समृद्धि व आरोग्य प्रदायिनी गौमाता की सेवा-पूजा के लाभ, गीता के दिव्य ज्ञान एवं गंगा के माहात्म्य आदि का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं । योग प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से दवाइयों की गुलामी और चीर-फाड़ के बिना रोगमुक्त जीवन की ओर चल रहे हैं । व्यसनमुक्ति अभियान के द्वारा युवा पीढ़ी को विनाश के मार्ग पर जाने से बचा रहे हैं, भूले-भटकों को सच्चा रास्ता दिखा रहे हैं । अध्यात्म मार्ग के पथिक अंतर्मुख हो ‘ध्यान-योग शिविरों’ में अपनी सुषुप्त शक्तियों को जगा रहे हैं । यह सब भगीरथ कार्य पूज्य श्री के संकल्प से, उनकी प्रेरणा और कृपाशक्ति से उनके असंख्य प्यारे भगवान के दुलारे कर रहे हैं । मानवता उनकी आभारी है, उनकी ऋणी है । आइये, हम सब भी पूज्य श्री के इस दैवी कार्य से जुड़कर अपना और अपने सम्पर्क में आने वालों का जीवन धन्य करें तथा शुद्ध ज्ञान और आत्मसुखरूपी परम लाभ को प्राप्त कर लें । जब किसी की सेवा के फलस्वरूप हमारा जीवन परिवर्तित हुआ है तो हम भी विश्वगुरु भारत के ज्ञान का परचम विश्वभर में व्यापकरूप से फहराने के इस महायज्ञ में कोई-न-कोई सेवा खोज लें । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ