जो ईश्वर की प्राप्ति चाहते हैं, आत्मतत्त्व का ज्ञान चाहते हैं उन्हें
जीवन में साधना की आवश्यकता होती ही है । जब तुम कहीं जाना
चाहते हो तो जहाँ ठहरे हो उस स्थान और वहाँ की सुख-सुविधा का मोह
तो छोड़ना ही पड़ता है । इसी प्रकार परमार्थ के पथ पर चलने के लिए
संसार का राग छोड़ ही देना पड़ता है । इसीलिए आद्य शंकराचार्य जी
अपरोक्षानुभूति ग्रंथ (श्लोक 4) में पहले वैराग्य का स्वरूप बतलाते हैं-
ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु वैराग्यं विषयेष्वनु ।
यथैव काकविष्ठायां वैराग्यं तद्धि निर्मलम् ।।
‘ब्रह्मा से लेकर स्वार्थपर्यंत सब विषय-विकारों से वैराग्य होना
चाहिए । जैसी हेयबुद्धि काकविष्ठा में है वैसी समस्त विषयों में हो
जाय तो वह वैराग्य निर्मल होता है ।’
ब्रह्मा के पद से लेकर तृणपर्यंत विषयों में जिसे वैराग्य है वह
वैराग्यवान है । वैराग्य का अर्थ घृणा नहीं है । द्वेष का नाम भी वैराग्य
नहीं है । घृणा में वस्तु को निकृष्ट समझा जाता है । द्वेष होने पर
चित्त में जलन होती है । किसी वस्तु से इतना लगाव न हो कि उसके
पीछे हम ईश्वर तथा अपने आत्मा को भी भूल जायें, इसी का नाम
वैराग्य है ।
संसार के विषय-विकारों से राग करेंगे तो उनमें फँसेंगे । किसी से
द्वेष करेंगे तो जलेंगे । जो मन को बाँध ले उसे विषय कहते हैं । हम
विषयों से बँधे क्यों ? मार्ग में कौए की बीट पड़ी हो और हम चले जा
रहे हों तो क्या करेंगे ? उससे राग करेंगे या द्वेष । उसे जहाँ-का-तहाँ
छोड़कर चलते बनेंगे । इसी प्रकार अपनी दृष्टि संसार की ओर से
हटाकर परमात्मा में लगा लेने का नाम वैराग्य है । विषय का राग या
द्वेष ही अंतःकरण का मल है तथा वैराग्य अंतःकरण को निर्मल करता
है । जिसने संसार से दृष्टि हटा ली है उसे निश्चय ही निर्मल करने
वाला वैराग्य प्राप्त है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 23 अंक 364
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