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साधना में शीघ्र सफलता हेतु 12 नियम – पूज्य बापू जी


ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु द्वारा दिया हुआ मंत्र इष्टमंत्र है, सर्वोपरि मंत्र है ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए फिर चाहे – ‘ड्रें-ड्रें’ मंत्र क्यों न हो । एक गुरु ने शिष्य को धनप्राप्ति के लिए दे दिया मंत्रः ″जा बेटा ! ‘ड्रें-ड्रें-ड्रें…’ जप करना ।″ और वह ‘ड्रें-ड्रें’ को गुरु मंत्र समझकर लग गया जप में । उसकी उसी से धनप्राप्ति की कामना पूरी हुई । मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम् । सुनते थे ‘राम-राम’ परंतु अब वह गुरुमंत्र होकर मिला है तो बात पूरी हो गयी… कबीर जी लग गये और सिद्धपुरुष बन गये । तर्क-कुतर्क के द्वारा भगवान को या सद्गुरु को या गुरुमंत्र को नहीं जाना जाता । गुरुमंत्र, गुरु-तत्त्व को जानना है तो भक्ति, श्रद्धा, तत्परता और सातत्य चाहिए । अतः मंत्रदीक्षित साधकों को इन 12 बातों को ठीक से समझ लेना चाहिए ।

हे साधक ! अपनी बुद्धि को आकाश की नाई व्यापक, अपने चित्त को दरिया की नाईं गम्भीर और अपने निश्चय को हिमालय की नाई ठोस बनाओ फिर देखो, सिद्धिर्भवति कर्मजा… कर्म करने से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी और अष्टसिद्धि  नवनिधि नहीं, आत्मसिद्धि प्राप्त होगी ! अष्टसिद्धि-नवनिधि मायिक हैं, समय पाकर क्षीण हो जाती हैं परंतु आत्मसिद्धि को महाप्रलय भी छू नहीं सकता । 33 करोड़ देवता तुम्हारे विरुद्ध खड़े हो जायें फिर भी तुम्हारी आत्मसिद्धि, आत्मज्ञान नहीं छीन सकते हैं । अगर आत्मसिद्धि पाने का इरादा पक्का है तो तुम अपने जीवन में इन 12 बातों को जरूर उतारोगेः

1 गुरुमंत्र, इष्टमंत्र को गुप्त रखें और माला का आदर करें । माला को जहाँ-तहाँ नहीं भूलना, जहाँ-तहाँ नहीं रखना । जिस माला से जप करते हो उसको साधारण मत समझो । कभी दुर्भाग्य से माला टूट जाय और मनके कम हो जायें तो नहीं नयी माला के मनके जप वाली माला में मिलाकर जोड़ लो । जिस माला पर गुरुमंत्र जपा है उसका दाना-दाना इष्ट है, उसका जर्रा-जर्रा मंत्र के प्रभाव से पवित्र है, पावन है ।

2 निश्चित समय व निश्चित जगह पर भजन ध्यान और नियम करें । निश्चित समय पर बैठने से उस समय तुम्हारा मन अपने-आप ध्यान, जप की तरफ खिंचेगा और निश्चित जगह पर करोगे तो उस जगह पर बैठने से ही अपने-आप जप होने लगेगा । मुसाफिरी में होने से अगर निश्चित जगह नहीं मिलती है तो भले वहाँ यथोचित जो मिले उस स्थान पर अपना नियम कर लो परंतु घर में एक ऐसी जगह बनाओ कि वहाँ ध्यान-जप ही किया जाता रहे, संसारी कर्म वहाँ नहीं किये जायें ।

हिमालय में कौन सी गुफा में जाओगे ? तीर्थों में आजकल कैसे-कैसे लोग घुस गये हैं ! मैं खूब सारे अनुभव कर बैठा हूँ । अब तो तुम अपने घर में ही तीर्थ बना लो । और सद्गुरु जहाँ रहे वह भूमि महातीर्थ है । मेरे लिये नैनीताल का जंगल महातीर्थ है । भगवान की भक्ति, भगवान का चिंतन, स्मरण, भगवद्-जन महापुरुषों के सम्पर्क में अथवा महापुरुषों की भूमि में बैठना, उनका सत्संग सुनना यह असली कमाई है ।

वर्षों से इधर आश्रमों ( संत श्री आशाराम जी आश्रमों ) में भजन-ध्यान चल रहा है । कितना भी अशांत व्यक्ति इधर आश्रम के माहौल में आता है तो उसके चित्त में यहाँ की आध्यात्मिक आभा का, ध्यानयोग का, भक्तियोग का कुछ-न-कुछ सात्त्विक एहसास होने लगता है । इसलिए आश्रम की पवित्र भूमि में ध्यान, जप का लाभ अवश्य लेते रहना चाहिए ।

3 स्वच्छ विद्युत का कुचालक आसन हो । भजन-ध्यान करते हैं तो एक प्रकार की सात्त्विक ऊर्जा या विद्युत शरीर में उत्पन्न होती है, जो हमारे शरीर को स्वस्थ और मन को प्रसन्न रखने में सहायता करती है । अर्थिंग मिलने से वह विद्युत नष्ट हो जाती है अतः उसकी रक्षा हेतु कम्बल आदि जैसा विद्युत-कुचालक आसन हो ।

4 आसानी से बैठ सकें ऐसा व्यवस्थित आसन ( बैठक ) हो । बैठने में अथवा माला जपने में ऐसा-वैसा तनाव न हो, सहज में बैठ सकें । और बैठते समय रीढ़ की हड्डी सीधी हो । अगर झुक के बैठोगे तो ऊर्जा के प्रवाह व प्रभाव को ऊर्ध्वगामी होने में बाधा आयेगी, मन दौड़ेगा, आलस्य आयेगा, निद्रा आयेगी अथवा उठ के भाग जाने का विचार आयेगा इसीलिए सीधे बैठो । वैसे तो हर समय रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठना चाहिए ।

5 उत्तर या पूर्व की तरफ ही मुँह करके भजन, ध्यान, नियम करें । इससे सात्त्विकता बढ़ेगी । परंतु यह बात सत्संग के समय या गुरु के सामने अथवा व्यासपीठ के सामने बैठे हों तब पालनीय नहीं है  । गुरु अगर दक्षिण की तरफ बैठे हैं तो आपका मुँह उधर ही होगा, वहाँ संशय नहीं हो । वहाँ तो गुरु-तत्त्व का अपना कायदा चलता है ।

6 भगवान से प्रार्थना करें । जो-जो समस्याएँ-मुसीबतें हैं उनको दूर करने के लिए बल व ज्ञान प्राप्ति की प्रार्थना करो और जिनसे प्रार्थना करते हो उनको उस विषय में सर्वोपरि मानो । जब एक प्रतिमा के आगे सर्वोपरि भाव से प्रार्थना की जाती है तो सिलबट्टे से भी भगवान प्रकट हो सकते हैं तो हयात सद्गुरु या उनके श्रीचित्र के समक्ष सर्वोपरि भाव से प्रार्थना करने पर उनके हृदय से भगवत्कृपा क्यों नहीं बरसेगी ! क्यों नहीं मदद मिलेगी ! ( क्रमशः )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 354

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हमारा हित किसमें है ? – पूज्य बापू जी


एक शिष्य गुरु के द्वार पहुँचा । गुरु जी ने कहाः ″सेवा करो, ध्यान-जप, अनुष्ठान करो ।″ चंचल चेला था, कुछ दिन चला, गुरु की आज्ञा मानने की कोशिश की किंतु उसका मन बंदर की नाईं भागता रहता था ।

एक दिन वह गुरु जी से कहने लगाः ″गुरु जी आज्ञा दो तो मैं तीर्थयात्रा करने जाऊँ ।″

गुरु जी ने कहाः ″मूर्ख !

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जब सद्गुरु की हाजिरी तो अनंत फल मिल रहा है फिर क्यों भटकना चाहता है ! गुरु का सान्निध्य लो ।″

तब चुप हो गया लेकिन वह उछलता-कूदता बंदर, थोड़े दिन के बाद उसने अपना सामान बाँध लिया । बोलाः ″गुरु जी ! मुझे आज्ञा दो, इधर मन नहीं लगता ।″

″अरे ! मन लगे न लगे, तू तो बैठा रह । ऐसा होता रहता है, मन लगे तो भी दफ्तर में पगार चालू, नहीं लगे तो भी चालू ।″

″नहीं गुरु जी ! कब तक बैठा रहूँगा ? इतने दिन तो बैठा रहा न !″

″गुरु की आज्ञा मान ।″

″इतने दिन तो आज्ञा मान ली, अब कितनी आज्ञा मानना है ?″

″फिर तू बंदर की नाईं भटकने जा मूर्ख !″

वह तो चल दिया । कुछ समय एक दिन गुरु महाराज टहलते-टहलते आश्रम के बाहर के प्रांगण में गये तो पेड़ पर से बंदर का बच्चा उतरा और महाराज जी के चरणों से चिपक गया ।

गुरु महाराज ने कहाः ″अच्छा ! आखिर बंदर बन के भी आया तो सही बेचारा !″

गले में पट्टा बाँध दिया, आश्रम वालों को बोल दियाः ″यह वही साधक है बेचारा, जो चला गया था । अकाल मृत्यु हो गयी थी, अब बंदर के शरीर में आया है, माफी माँग रहा है । नहीं तो इतना कोमल बच्चा आ के चरणों में सिर रख दे, सम्भव नहीं । इसलिए मैंने ध्यान करके देखा तो पता चला कि जिसको मैंने ‘जाओ, बंदर की नाईं भटको’ कहा था उसी की बीच में किसी निमित्त से मृत्यु हो गयी और वह बंदर हुआ है । अब भटकान मिटाने के लिए माफी माँग रहा है ।″

फिर बोले कि ″भोजन-वोजन, भंडारा-प्रसाद हो, यह नजदीक आये तो इसको डाल दिया करो, खा लिया करेगा ।″

जब उसे जरूरत लगती, आता और खाता । शाम की आरती के समय और महाराज जी जब सत्संग करते तब आता और हाथ जोड़ के बैठ जाता था । वह बंदर का बच्चा चंचल बंदरों से अलग था । दिन बीते, सप्ताह बीते, वर्ष बीत गये । एक दिन वह आया नहीं । दूसरा दिन हुआ तो गुरु जी बोलेः ″आया नहीं वह । जरा खोजो कहाँ गया ।″

वैष्णव नाम रख दिया था उसका ।

शिष्यों ने कहाः ″पास के पेड़ पर ही रहता था ।″

इधर-उधर खोजा, पेड़ पर तो नहीं मिला, पास में छत पर मरा हुआ पड़ा मिला ।

बोलेः ″चलो, उसकी सद्गति हो गयी, वैष्णव था ।

डोली सजायी । जैसे किसी वैष्णव साधु की यात्रा निकलती है से ही गाते बजाते, शंखनाद-घंटनाद करते हुए यात्रा निकाली व नर्मदाजी को उसका शरीर अर्पण कर दिया । फिर भंडारा किया ।

तो ये जीव न जाने कौन सी गलती से किन-किन योनियों में चले जाते हैं और सत्संग की सूझबूझ से कई योनियों से पार होकर परमात्मा तक भी पहुँच सकते हैं । तो गिरने से बचाने वाला, सूझबूझ देने वाला है  ‘सत्संग’, और कोई उपाय नहीं है – सत्पुरुष की आज्ञा और सत्संग का ही आश्रय है ।

अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।

सुलझे हुए महापुरुषों की आज्ञा में रहने से हमारा जितना हित होता है उतना हम अपने-आप नहीं कर सकते हैं । जानते ही नहीं और करने का सामर्थ्य भी नहीं । अगर आप जानते होते, कर पाते तो अभी दुःखी क्यों हैं ? अभी बीमार क्यों होते हैं ? अभी मरते और जन्मते क्यों हैं ? कुछ-न-कुछ कमी है न अपने में, तभी तो जीव शरीर में हैं ! आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ तो कमी है न ! तो कमी मिटती है पूर्ण पुरुष परमात्मा के जप से, पूर्ण पुरुष परमात्मा के ज्ञान से और पूर्ण पुरुष परमात्मा के अनुभव से सम्पन्न सत्पुरुष की कृपा से ।

धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 354

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सद्गुरु देते भवरोग से मुक्ति की युक्ति


माता पार्वती जी ने भगवान शिवजी से पूछाः ″यदि श्रीराम ईश्वर हैं और वे अवतरित हुए हैं तो सभी व्यक्ति उनको ईश्वररूप में क्यों नहीं देख पाते ?″

शिवजी ने कहाः ″पार्वती !

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना ।

राम रूप देखहिं किमि दीना ।।

जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें !″

( श्री रामचरित. बा. कां. 114.2 )

व्यक्ति के पास दर्पण तो है पर वह स्वच्छ न होकर मलिन है तो व्यक्ति ऐसे दर्पण में अपनी आकृति को क्या देख पायेगा ! ऐसे ही मलिन अंतःकरण वाले व्यक्ति भगवान और भगवत्स्वरूप महापुरुष को ईश्वररूप में नहीं देख पाते और लाभ लेने से वंचित रहकर अभागे-के-अभागे ही रह जाते हैं ।

मन को रोगों के वैद्य

वस्तुतः हमारा आपका मन ही दर्पण है । उसको स्वच्छ करने का उपाय बताते हुए संत तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस के अयोध्या कांड में कहा हैः

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।

गुरुदेव की चरणों की रज ( उनके सत्संग, सेवा व आत्मानुभव ) द्वारा मन के दर्पण को स्वच्छ किया जा सकता है । गुरुदेव के बताये अनुसार उपाय करके मन को स्वच्छ किया जा सकता है ।

उत्तर कांड में मन के रोगों ( काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ) और उनकी दवा का विस्तृत वर्णन है । काकभुशुंडि जी गरुड़ जी को कहते हैं-

″नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।।

‘नियम, धर्म, आचार ( उत्तम आचरण ), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं परंतु हे गरुड़ जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते ।’ ( श्री रामचरित. उ. कां. 121 )

यद्यपि दवाएँ तो बहुत है पर रोग दूर नहीं होता । अच्छे कार्यों के कारण प्राणियों के रोग दब गये हैं इसलिए भले ही प्रत्यक्ष नहीं दिखाई दे रहे हों पर हैं अवश्य ।″

गरुड़ जी ने पूछाः ″यदि हम मन के इन रोगों को नष्ट करना चाहें तथा स्वस्थ होना चाहें तो उपाय क्या है ?″

काकभुशुंडिजी ने कहाः ″आप वैद्य के पास जाइये !″

वस्तुतः संसार में जब कोई व्यक्ति हमारे आपके दोषों को वर्णन करता है तो इसके पीछे उसकी वृत्ति होती है नीचा दिखाने की, विरोध करने की । और तब स्वाभाविक है हमें बुरा लगेगा । पर जब हम डॉक्टर या वैद्य के पास जाते हैं और वह बताता है कि ‘तुम कुपथ्य करते हो या तुम अमुक भूल करते हो जिसके कारण रोग हुआ है’ तो हम बुरा नहीं मानते । इसी प्रकार अहंता-ममता में फँसाकर जन्म-मरणरूपी रोगों को देने वाले मन के रोगों से मुक्ति पाने हेतु सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जाना होगाः सदगुर बैद… सद्गुरु ही वैद्य हैं ।

इसका अभिप्राय है कि हम ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के पास जायें तो पहले से ही यह मानकर जायें कि हमारा मन रोगी है और उसे स्वस्थ करने के लिए ही हम सद्गुरुरूपी वैद्य के पास जा रहे हैं ।

रावण को लाभ क्यों नहीं हुआ ?

जो व्यक्ति अपने को रोगी नहीं मानता अर्थात् जिसका रोग इतना अधिक बढ़ गया है हो कि वह स्वयं यह निष्कर्ष निकालने में समर्थ ही न हो कि मुझे कोई रोग हुआ है, ऐसे व्यक्ति को सद्गुरु की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती, फलतः वह अपने दोषों के निवारण हेतु सद्गुरु के पास नहीं जायेगा । ऐसों को तो प्रकृति ही कर्मों के बंधन में बाँधकर जबरन ही उपचार करेगी क्योंकि ऐसा व्यक्ति यदि सद्गुरु के पास जायेगा भी तो रावण की तरह उसे कोई लाभ होने वाला है नहीं । रावण की स्थिति उसी प्रकार की है कि जैसे कोई व्यक्ति विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर को बुला ले और यह गर्व करे कि ‘हमारे पास विश्वप्रसिद्ध डॉक्टर आता है ।’ इससे उसे गर्व की अनुभूति हो सकती है पर यदि उसकी दवा का सेवन और उसके द्वारा बताये गये पथ्य का वह पालन न करे तो उसे कोई लाभ होने वाला नहीं है । रावण की समस्या यही है ।

रावण जब शंकरजी को गुरु के रूप में वरण करता है तो दोषों के निवारण के लिए नहीं, मात्र शोभा के रूप में कि ‘जीवन में कोई गुरु भी होना आवश्यक है ।’

सद्गुरुरूपी वैद्य पर पूरा विश्वास हो

कई लोग प्रश्न करते हैं कि ‘जीवन में सद्गुरु का होना आवश्यक है कि नहीं ?’ तो उत्तर यह है कि अगर हमारा मन रोगी है,  उसमें दोष हैं, तब जैसे वैद्य की आवश्यकता होती है वैसे ही सद्गुरु की भी आवश्यकता है । जो आशा हम डॉक्टर से करते हैं वही हमें सद्गुरु से करनी चाहिए कि ‘वे हमारी कमियों को मिटायें, जन्म-मरणरूपी रोग से हमें छुटकारा दिलायें ।’ पर साथ ही सदगुर बैद बचन बिस्वासा – सद्गुरु जो कुछ कहें उनकी वाणी पर हमें पूरा विश्वास हो कि ‘मेरे सद्गुरु जो कह रहे हैं वह मेरे कल्याण के लिए है और बिल्कुल ठीक कह रहे हैं ।’

दवा के साथ परहेज जरूरी

सद्गुरु कह दें कि ‘यह लो मंत्र, यह लो माला ।’ तो मानो दवा ही दी है उन्होंने । किसी को बता दिया कि ‘तुम जप करो ।’ किसी को बता दिया कि ‘तुम ध्यान करो ।’ सद्गुरु शिष्यों को अलग-अलग साधन बताते हैं । पर हम कहीं एक ओर सद्गुरु के द्वारा साधना की दवा का सेवन करें और दूसरी ओर मनमाने कुपथ्य का भी सेवन करें तो निश्चित रूप से यदि दवा का लाभ भी होगा तो अत्यल्प ही होगा, कारण कि दवा की मात्रा थोड़ी और कुपथ्य की मात्रा बहुत है । इसलिए काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी से पहले दवा की बात नहीं की अपितु कहा कि पहले पथ्य सुनोः

सदगुर बैद बचन बिस्वासा ।

संजम यह न विषय कै आसा ।।

‘सद्गुरुरूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो । विषयों की आशा न करे, यही संयम ( परहेज ) हो ।’ ( श्रीरामचरित. उ. कां. 121.3 )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 8,9 अंक 354

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