(चेटीचण्ड 2001 शिविर में श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण जैसे महान वेदांत ग्रंथ को सहज सरल भाषा में समझाते हुए पूज्य श्री कह रहे हैं-)
‘हिमालय पर्वत में प्राप्त हुआ तपस्वी भी ऐसा शीतल नहीं होता, जैसा निर्वासनिक पुरुष का मन शीतल होता है।”
हिमालय पर्वत में शीतलता तो होती है लेकिन बर्फ की शीतलता शरीर को ठण्डक देती है जबकि निर्वासनिक पुरुष की शीतलता तो हृदय को शीतल बनाती है, सुखमय बना देती है। निर्वासनिक पुरुष की बड़ी भारी महिमा है।
परमात्मा में शांत हुए निर्वासनिक पुरुष के लिए त्रिलोकी का वैभव भी तुच्छ है, सुमेरू पर्वत भी छोटे से ठूँठे जैसा है, सारी पृथ्वी उनके लिए गोपद के समान है। उनको परमात्मा पराये नहीं हैं, परे नहीं हैं, भविष्य में मिलेंगे ऐसा नहीं है। वे आत्मा को ही परमात्मस्वरूप में ज्यों-का-त्यों जानते हैं।
वासनाएँ ही जीव को तुच्छ बना देती हैं। जितनी वासनाएँ ज्यादा उतना वह लघु है, जितनी वासनाएँ कम उतना वह बड़ा है और निर्वासनिक तो साक्षात् नारायणस्वरूप होता है। निर्वासनिक पुरुष के निकट मनौती मानने से भी प्रकृति मदद कर देती है। निर्वासनिक पुरुष के वचन सुनने से चित्त भी निर्मल होता है।
कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर।
पीछे-पीछे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर।।
वासना मल है, निर्वासनिकता निर्मलता है। कितनी वासनाएँ करोगे ? जिनके पास करोड़ों रूपये थे वे भी खाली हाथ गये तो तुम कितना सँभालोगे ? ‘मेरी पत्नी, मेरी दुकान, मेरा मकान….’ यह कब तक करोगे ? ऊपर-ऊपर से अपना कर्तव्य करो लेकिन भीतर से निर्वासनिक नारायण में, परमात्मा में विश्रांति पाओ। बाह्य कर्तव्य में कायर न बनो, पलायनवादी न बनो, लेकिन भीतर अपने निर्वासनिक तत्त्व में सराबोर रहो।
श्रीवशिष्ठजी महाराज कहते हैं- ‘हे राम जी ! सूरमा होकर युद्ध करो लेकिन भीतर से निर्वासनिक रहो।’
जो निर्वासनिक हो जाता है उसके सारे संकटों का, सारे दुःखों का अंत हो जाता है। जो वासनावान है वह बड़े कष्टों को पाता है। जहाँ निर्वासनिकता है वहाँ विकारों की दाल नहीं गलती और जहाँ विकार हैं वहाँ निर्वासनिकता का सुख, भगवत्सुख प्रगट नहीं हो सकता।
पूनम की रात हो, सोने की खाट हो, रेशम की निवार हो, केवड़े का इत्र छिटका हुआ हो, मोगरे एवं गुलाब के फूलों की शय्या हो, ललना आकर चरणचंपी करे, अप्सरा आकर गले लगे फिर भी वह सुख नहीं मिलता, जो निर्वासनिक पुरुष के संग से मिलता है। इसलिए सत्संग की बड़ी भारी महिमा है।
भगवन्नाम का जप करते रहें, भगवद् ध्यान करते रहें, सत्संग-स्थल पर चुपचाप बैठे रहें तो भी बहुत लाभ होता है।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते। आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते। ‘आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। आत्मसुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है’। और यह मिलता है सत्संग से।
पुरुषार्थ यही है कि बाह्य प्रवृत्ति अधिक न करें, वरन् थोड़े अंतर्मुख हों। मौन रहने का अभ्यास करें, श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण का बार-बार विचार करें एवं आत्मशांति में डूबें, अंतर्मुख होने का प्रयास करें। नहीं तो कइयों का जीवन व्यर्थ की आपाधापी में तबाह हो गया। अंत में सब यहीं धरा रह जाता है।
त्रिकाल संध्या का उद्देश्य यही है कि जीव अपने आनंदस्वरूप ईश्वर से एकाकार हो। दुःख-रहित जीवन हो, भयरहित जीवन हो, चिंतारहित जीवन हो। संध्या तो करेंगे नहीं और इधर-से-उधर भटकते रहेंगे। फिर बुद्धि मारी जायेगी और लाचार जीवन हो जायेगा…..
बिनु रघुवीर पद जिय की जरनि न जाई।
उस परमात्म सुख को पाये बिना, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन नहीं मिटती… शोक नहीं मिटता… मोह नहीं मिटता…. चिन्ताएँ नहीं मिटती… भय नहीं मिटता।
अगर भय, चिंता, शोक, मोह, राग, द्वेष इत्यादि से छुटकारा पाना है तो यत्नतः निर्वासनिक पुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन करें एवं जप-ध्यान करें। निर्वासनिक नारायण तत्त्व में विश्रांति पाने में यह सहायक साधन हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2001, पृष्ठ संख्या 10,11 अंक 106
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