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गुरुपूर्णिमा-संदेश


(गुरुपूर्णिमाः 8 जुलाई 2009)

पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

गुरुपूर्णिमा जन्म-जन्मांतर से भटकते  हुए जीव में आचार्य के, भगवान के, शास्त्रों के वचनों से और जीव के अपने अनुभव से ज्ञान, भक्ति और योग का प्रसाद भरकर उसकी योग्यता को ऐसा कर देती है कि वह जीव फिर माता के गर्भों की पीड़ा सहने का जो दुर्गम मार्ग है, उससे बचकर परम पद का अधिकारी हो जाता है । परम पद के अधिकारी बनाने वाले वेदव्यास जी महाराज जैसे जो ब्रह्मवेत्ता गुरु हैं, उन गुरुओं को याद करके अपने चित्त को पावन करने का दिन गुरुपूनम का दिन है ।

यह तपस्या का दिन है, व्रत का दिन है । यह दिन आचार्य के मार्गदर्शन के अनुसार अपने जीवन में कुछ नया व्रत लेने का दिन है । ‘मेरे मन में ये कमियाँ हैं, मेरे व्यवहार में ये-ये कमियाँ हैं, मेरे जीवन में ये-ये कमियाँ हैं’ – इस प्रकार आत्म-विश्लेषण करके उन कमियों को निकालने के लिए हम कर सकें उस प्रकार का कोई व्रत या जप-अनुष्ठान आदि का कोई नियम लेकर आगे की यात्रा के लिए संकल्प करने का दिन है । वर्ष भर में हमने जो साधन-भजन किया और जो कुछ अनुभूतियाँ हुईं उनसे आगे बढ़ने का संकेत पाने का दिन है ।

व्यासपूर्णिमा के बाद आध्यात्मिक संस्कृति के विद्यालय खुलते हैं और नये पाठ शुरु होते हैं । जैसे गर्मियों में पृथ्वी सूख जाती है और व्यासपूर्णिमा के समय वृष्टि होती है तो पृथ्वी में नयी चेतना आती है, वृक्षों में नया जीवन आता है, ऐसे ही व्यासपूर्णिमा साधक के जीवन में नयी आध्यात्मिक चेतना, नया प्रकाश, नया आनंद और नया उल्लास लाती है तो साधक को नवीन जीवन की तरफ अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है । इस पर्व से प्रेरणा लेकर जीवात्मा परमात्मा तक पहुँचने का प्रयत्न कर सकता है । वेदव्यास जी महाराज ने विश्व का सर्वप्रथम आर्ष ग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ व्यासपूर्णिमा के दिन लिखना प्रारम्भ किया था । ‘महाभारत’ व्यासपूर्णिमा के दिन ही पूर्ण हुआ था और देवताओं ने इस दिन को आशीर्वाद दिये थे कि ‘आज के दिन जो साधक आचार्य-उपासना करेगा, आचार्य को संतुष्ट करके अपने आध्यात्मिक मार्ग का निर्णय कर लेगा  उसको वर्ष भर के पर्व मनाने का फल मिलेगा ।’ तब से मनुष्य यह व्यासपूर्णिमा बड़े उत्साह से मनाता आ रहा है । भारतवासी तो ठीक लेकिन ऊपर के लोकों में यक्ष, गंधर्व, किन्नर और जो योगीपुरुष रहते हैं, वे लोग भी इस उत्सव को बड़े उत्साह से मनाते हैं ।

यह लम्बी चौड़ी कहानियाँ सुनने का उत्सव नहीं है, यह तो गुरु के निकट बैठने का उत्सव है । यह कथा का उत्सव नहीं है, सारी कथाएँ जहाँ से प्रकट होकर लीन हो जाती हैं ऐसे प्रकृति से पार आनंदस्वरूप आत्मा में आने का उत्सव है । उत्सव… ‘उत्’ माने समीप और ‘सव’ माने यज्ञ । गुरुकृपा से समीप-में-समीप आनंदस्वरूप आत्मा में पहुँचने का जो यज्ञ है, उसी का नाम ‘व्यासपूर्णिमा उत्सव’ है ।

दूसरे उत्सव तो हम मनाते हैं लेकिन व्यासपूर्णिमा हमें मनाती है । जैसे माँ बच्चे को मनाती है कि ‘इधर आ जा बेटा ! अब बहुत खेल लिया, मिट्टी में मैला हो गया, गंदगी लग गयी, अब नहा-धोकर स्वच्छ हो जा और मक्खन-मिश्री खा ।’ ऐसे ही व्यासपूर्णिमा कहती है कि ‘जन्मों-जन्मों से इधर-उधर घूमते हुए जीव ! अब तू अपने राम में आ जा, अपने ज्ञान में आ जा, अपने जीवनदाता की ओर आ जा ।’ जैसे माँ वात्सल्य से बालक को मनाकर स्वच्छ करके उसे पुष्ट करती है, ऐसे ही व्यासपूर्णिमा हमें मनाकर हमारे अंतःकरण को स्वच्छ करके अमानित्व, अदंभित्व आदि सद्गुण भरके आचार्य-उपासना आदि का मार्गदर्शन देकर हमें आचार्य के अनुभव को पचाने की योग्यता प्रदान करने की कृपा करती है ।

अपने मन में कभी तूफान चलता है, कभी संदेह आता है, कभी यह आता है, कभी वह आता है…. । मन जब उद्विग्न हो, साधन-भजन से गिर गया हो अथवा कुसंग के कारण साधन-भजन छूट गया हो तो इस व्यासपूर्णिमा के महोत्सव पर साधक नया संकल्प करके फिर से चलते हैं ।

इस व्यासपूर्णिमा के बाद आत्मारामी संत, विचरण करने वाले संत एक ही जगह पर ठहरकर नये ग्रंथों का आरम्भ करते हैं । ‘ब्रह्मसूत्र’ आदि ग्रंथों का पठन-पाठन और मनन करते हैं ।

मनुष्य कभी पतन की ओर जाता है तो आसुरी स्वभाव को, द्वैत के संस्कार का, जातिवाद का, ‘मेरे-तेरे’ के कुसंस्कार का फैलावा हो जाता है । जब मानव अद्वैत ज्ञान से दूर हो जाता है तब द्वैत की दुर्गंध से समाज अंदर में अशांत होने लगता है तो उसका परिणाम क्या होता है कि बाहर झगड़े, अशांति, संकीर्णता आदि फैलने लगते हैं । लेकिन जब आत्मानुभवी आचार्यों का ज्ञान समाज में फैलता है तब एकत्व, शांति, प्रेम, उदारता, क्षमा, आर्जव, शौच आदि सद्गुण चित्त में आकर चैतन्य प्रसाद से साधक को भर देते हैं ।

मनुष्य या तो चढ़ता है या उतरता है । चढ़ना तो बहुत अच्छा है लेकिन कम-से-कम चढ़ा हुआ साधक उतरे नहीं इसलिए साधक के जीवन में कोई-न-कोई सात्त्विक नियम हो कि पतन के समय भी उसकी रक्षा करे ।

आप अपने जीवन में कुछ-न-कुछ छोटा-मोटा नियम पकड़ लीजिये । कागज पर वह नियम लिख लीजिये । मन को याद दिलाने के लिए हो सके तो गुरुपूनम के दिन आश्रम में जाकर उस नियम के कागज को बड़दादा या व्यासपीठ से छुआकर अपने पास रखें । यह आप अपने पूजा के स्थान पर भी कर सकते हैं । ऐसा कोई नियम ले लो कि ‘मैं तो भाई ! हर रोज इतना जप करूँगा, इतने प्राणायाम करूँगा, हफ्ते में कम-से-कम इतने घंटे मौन रहूँगा, अपनी क्षमता के अनुसार महीने में एक, दो या पाँच दिन ईश्वर के लिए निकालूँगा । साल में इतने दिन अज्ञातवास, एकांतवास के लिए निकालूँगा अथवा धर्म के प्रचार के निमित्त वर्ष में इतने दिन निकालूँगा । आचार्य को, गुरु को संतुष्ट करने के लिए उनके दैवी कार्य में इतना समय, शक्ति का सद्व्यय करके मैं सत्पद को पाऊँगा…. ।’

यदि इस प्रकार का कोई-न-कोई नियम व्यासपूर्णिमा के दिन कोई साधक लेता है और ब्रह्मवेत्तारूपी व्यास को अपने हृदय-सिंहासन पर जल्दी-से-जल्दी देखना चाहता है तो देवताओं का संकल्प, गुरुओं की कृपा और साधक का पुरुषार्थ मिलकर वह कार्य अवश्य ही सिद्ध होता है ।

चित्त में कभी उतार आता है, कभी चढ़ाव आता है, कभी अच्छा संग मिलता है, कभी बुरा संग मिलता है । मनुष्येतर प्राणी तो कर्मों के फल भोगने की परम्परा में प्रकृति से प्रेरित होकर घसीटे जाते हैं लेकिन परमात्मा ने मनुष्य को कुछ स्वतन्त्रता दी है । मनुष्य उन्नत भी हो सकता है और अवनत भी । उन्नति करे तो ठीक है लेकिन अवनति, पतन न हो इसलिए जीवन में कोई नियम बना ले ।

जो सत्शिष्य हैं वे आचार्य-उपासना में अपने तन-मन और जीवन को लगाकर आचार्य-तत्त्व में टिक जाते हैं । शिष्य में शिष्यत्व रहे तो शिष्य गुरु-तत्त्व का प्रसाद पाता है । गुरु में गुरुत्व हो तो गुरु शिष्यों को गुरु-तत्त्व का प्रसाद चखाते हैं । जो प्रसाद पाने के अधिकारी हैं वे साधक, शिष्य कहे जाते हैं  और आध्यात्मिक प्रसाद बाँटने का जिनमें सामर्थ्य है वे गुरु कहे जाते हैं । ऐसे सदगुरु और सत्शिष्यों की जो महफिल है वह व्यासपूर्णिमा का महोत्सव है ।

इस दिन साधक दूध, फल अथवा अल्पाहार पर रहकर ध्यान-भजन, सेवा-सुमिरन, मौन आदि का अवलम्बन लेकर अपनी छुपी हुई आंतरिक शक्तियों को जगाने का दृढ़ संकल्प करता है और ज्यों-ज्यों भीतर का प्रसाद पाता है त्यों-त्यों निर्दोष होता जाता है । यह निर्दोष होने का उत्सव है, भीतर के प्रसाद पाने का उत्सव है और फिर आगे चलकर गुरु व शिष्य, भक्त व भगवान के बीच की दूरी मिटाने का उत्सव है, जन्म-मरण के चक्कर को तोड़ फेंकने का उत्सव है, प्रकृति का जहाँ प्रभाव नहीं उस परम तत्त्व में जगने का उत्सव है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 2-4 अंक 198

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शारीरिक शुद्धि


जितना ध्यान हम शरीर की पुष्टि की तरफ देते हैं, उतना ही ध्यान शरीर की शुद्धि की तरफ देना भी आवश्यक है । अवशिष्ट पदार्थों का निष्कासन करने वाली शोधन प्रणालियों का कार्य कुशलता से नहीं होगा तो पोषण तंत्र का कार्य अपने-आप मंद अथवा बंद हो जायेगा ।

शरीर से निष्कासन का कार्य मुख्यतः चार अवयवों द्वारा होता हैः आँतें, गुर्दे, फेफड़े व त्वचा।

हर रोज लगभग 2.5 लिटर पानी, नत्रजन, 250 ग्राम कार्बन व 2 किलो अन्य तत्त्व एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से इन अवयवों द्वारा निष्कासित किये जाते हैं ।

1. आँतें– आँतों के द्वारा प्रतिदिन अन्न का अपाचित व अनवशोषित भाग, जीवाणु (बैक्टीरिया), कार्बन-डाई-ऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि वायु, पानी व अन्य तत्त्व मल के रूप में बाहर निकल जाते हैं ।

मल के वेग को रोकना, बिना चबाये, शीघ्रता से, अति मात्रा में, असमय, अनुचित आहार का सेवन, शारीरिक परिश्रम व व्यायाम का अभाव, रात्रि जागरण, सुबह देर तक सोना, सतत व्यग्रता, चिंता व शोक आँतों की कार्यक्षमता को क्षीण करते हैं ।

उपवास (सप्ताह अथवा पंद्रह दिन में एक दिन पूर्णतः निराहार रहना), उषःपान (रात का रखा हुआ छः अंजली जल प्रातः सूर्योदय से पूर्व पीना), चंक्रमण (सुबह शाम तेज गति से चलना), योगासन, उड्डीयान व मूल बंध तथा सम्यक् आहार आँतों को स्वच्छ व सशक्त करते हैं ।

2. गुर्दे (किडनियाँ)- गुर्दे प्रतिदिन 170 से 200 लीटर रक्त को छानकर डेढ़ से दो लीटर मूत्र की उत्पत्ति करते हैं । मूत्र के द्वारा अतिरिक्त जल, नत्रजन, नमक, यूरिक ऐसिड आदि निष्कासित किये जाते हैं ।

मूत्र के वेग को बार-बार रोकना, मूत्रवेग को रोककर जलपान, भोजन, संभोग करना, पचने में भारी, अति रूक्ष, ऊष्ण-तीक्ष्ण पदार्थ व नमक का अधिक सेवन, मांसाहार, नशीले पदार्थ, अंग्रेजी दवाइयाँ तथा शरीर का क्षीण होना गुर्दों व मूत्राशय (यूरिनरी ब्लैडर) की कार्यक्षमता को घटाते हैं ।

पर्याप्त शुद्ध जलपान, उषःपान, सोने से पूर्व, प्रातः उठते ही तथा व्यायाम व भोजन के बाद मूत्रत्याग, कटिपिंडमर्दनासन, पादपश्चिमोत्तानासन गुर्दे व मूत्राशय को स्वस्थ रखते हैं ।

3. फेफड़ेः फेफड़ों के द्वारा प्रतिदिन लगभग 250 मि.ली. पानी, 200 ग्राम कार्बन, उष्णता व 50 ग्राम अन्य तत्त्व बाहर फेंक दिये जाते हैं ।

मल-मूत्र, छींक, डकार आदि के वेगों को रोकना, भूख लगने पर व्यायाम करना, शक्ति से अधिक व कठोर परिश्रम करना, रूक्ष-शीत पदार्थों का अति सेवन, प्रदूषित हवा व धातुक्षय से फेफड़ों में विकृति आ जाती है ।

प्राणायाम (नाड़ी-शोधन, भस्त्रिका, उज्जायी, कपालभाति आदि), जहाँ जीवनीशक्ति की अधिकता हो ऐसे पहाड़, जंगल या नदी किनारे खुली हवा में घूमना फेफड़ों को स्वच्छ व सक्रिय बनाता है ।

4. त्वचाः त्वचा के द्वार पसीने के रूप में प्रतिदिन लगभग 600 मि.ली. पानी, 5 ग्राम कार्बन, 3-4 ग्राम नत्रजन, नमक, अमोनिया आदि तत्त्व निष्कासित होते हैं ।

विरूद्ध आहार (जैसे दूध के साथ फल, खट्टे व नमकयुक्त पदार्थों का सेवन), खट्टे, तीखे, तले हुए पदार्थ त्वचा को दूषित करते हैं ।

मालिश, उबटन व सूर्यस्नान से त्वचा निर्मल एवं दृढ़ होती है । अतः प्रातःकाल सौम्य धूप में सिर ढककर सूर्यस्नान अवश्य-अवश्य करना चाहिए । यह रोगनाशक व जीवनदायक है । सूर्यस्नान से सभी शोधन-प्रणालियाँ अपना काम सुचारु रूप से करने लगती हैं । प्रातः तुलसी के 5-7 व नीम के 10-15 पत्तों का सेवन शरीर को शुद्ध कर रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाता है । मलिन पदार्थों का शरीर में संचय गंभीर व्याधियों को आमंत्रित करता है तथा इनका पूर्णरूप से शरीर से बाहर निकल जाना, ताजगी, स्फूर्ति व निरोगता लाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 198

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सूर्य को अर्घ्यदान की महत्ता


भारतीय संस्कृति कितनी महान है कि जिससे भी लोगों का तन तंदुरुस्त रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो उसको धर्म जोड़ दिया । सूर्य को अर्घ्य देना भी धर्म का एक अंग माना गया है । आधुनिक विज्ञान के आधार पर भी सिद्ध हो चुका है कि सूर्य जीवनशक्ति का पुंज है इसलिए धनात्मक शक्ति का केन्द्र है ।

जब भगवान सूर्य को जल अर्पण किया जाता है, तब जब की धारा को पार करती हुई सूर्य की सप्तरंगी किरणें हमारे सिर से पैर तक पड़ती हैं, जो शरीर के सभी भागों को प्रभावित करती है । इससे हमें स्वतः ही ‘सूर्यकिरणयुक्त जल-चिकित्सा’ का लाभ मिलता है और बौद्धिक शक्ति में चमत्कारिक लाभ के साथ नेत्रज्योति, ओज-तेज, निर्णयशक्ति एवं पाचनशक्ति में वृद्धि पायी जाती है व शरीर स्वस्थ रहता है । इस चिकित्सा के प्रभाव से विकृत गैसें शरीर को प्रभावित नहीं करतीं । अर्घ्य जल को पार करके आने वाली सूर्यकिरणें शक्ति व सौंदर्य प्रदायक भी हैं । सूर्य प्रकाश के हरे, बैंगनी और अल्ट्रावायलेट भाग में जीवाणुओं को नष्ट करने की विशेष शक्ति है ।

अर्घ्य देने के बाद नाभि व भ्रूमध्य (भौहों के बीच) पर सूर्यकिरणों का आवाहन करने से क्रमशः मणिपुर व आज्ञा चक्रों का विकास होता है । इससे बुद्धि कुशाग्र हो जाती है । अतः हम सबको प्रतिदिन सूर्योदय के समय सूर्य को ताँबे के लोटे से अर्घ्य देना चाहिए । अर्घ्य देते समय इस ‘सूर्य गायत्री मंत्र’ का उच्चारण करना चाहिएः

ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि ।

तन्नो भानुः प्रचोदयात् ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 28 अंक 198

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