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विद्यार्थियों की दैनंदिनी


निम्नलिखित ढंग की एक दैनंदिनी रखो। यह प्रतिदिन आपको अपने कर्तव्यों की याद दिलायेगी। यह आपको पथ-प्रदर्शक और शिक्षक का काम देगी।

सोकर कब उठे ?

कितनी देर तक भगवान की प्रार्थना की ?

क्या पाठशाला का कोई काम शेष है ?

क्या आज आपने मनमानी करने के लिए अपने माता-पिता और शिक्षक की आज्ञा भंग की ?

कितने घंटे गपशप में या कुसंगति में बिताये ?

कौन सी बुरी आदत को हटाने का प्रयास चल रहा है ?

कौन से गुण का विकास कर रहे हो ?

कितनी बार क्रोध किया ?

क्या आप अपने वर्ग में समयनिष्ठ रहते हैं ?

आज कौन सी निःस्वार्थ सेवा की ?

क्या खेल और शारीरिक व्यायाम में नियमित रहे और कितने मिनट या घण्टे इसमें लगाये।

किसी को मन, वचन और कर्म से हानि तो नहीं पहुँचायी ?

प्रतिदिन प्रत्येक प्रश्न के सामने उत्तर लिख दो। चार-छः माह के अनन्तर आप अपने में महान परिवर्तन पायेंगे। आप पूर्णतः रूपांतरित हो जायेंगे। इस आध्यात्मिक दैनंदिनी के पालन से आपकी आश्चर्यजनक रूप से उन्नति होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 27, अंक 212

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उसके लिये क्या असम्भव है !


महर्षि आयोद धौम्य के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे वेद। वे विद्याध्ययन समाप्त कर घर गये और वहाँ गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। उनके भी तीन शिष्य हुए जिनमें सबसे प्यारे उत्तंक थे।

उत्तंक का अध्ययन समाप्त हो गया। वे घर जाने लगे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुदक्षिणा अवश्य देनी चाहिए’ – ऐसा सोचकर उन्होंने गुरुजी से विनती कीः “गुरुदेव ! मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?”

गुरु ने बहुत समझाया कि ‘तुमने पूरे मन से मेरी सेवा की है, यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है।’ किंतु उत्तंक बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने लगे, तब गुरु ने कहाः “अच्छा, भीतर जाकर गुरु पत्नी से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर दो, यह तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।” यह सुनकर उत्तंक भीतर गये और गुरुपत्नी से प्रार्थना की, तब गुरुपत्नी ने कहाः “राजा पौष्य (जिनके राजगुरु थे वेदमुनि) की रानी जो कुण्डल पहने हुए है, वे मुझे आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत (वह व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं) के अवसर पर अवश्य लाकर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलों को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।”

यह सुनकर उत्तंक गुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके पौष्य राजा की राजधानी को चल दिये।

रास्ते में उन्हें धर्मरूपी बैल पर चढ़े हुए इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहाः “उत्तंक तुम इस बैल का गोबर खा लो। भय मत करो।” उनकी आज्ञा पाकर बैल का पवित्र गोबर और मूत्र उन्होंने ग्रहण किया। जल्दी में साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुँचे। पौष्य ने ऋषि के आगमन का कारण पूछा। तब उत्तंक ने कहाः “गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी को देने के लिए मैं आपकी रानी के कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

राजा ने कहाः “आप स्नातक ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल माँग लाइये।” यह सुनकर उत्तंक राजमहल में गये। वहाँ उन्हें रानी नहीं दिखीं, तब राजा के पास आकर बोलेः “महाराज ! क्या आप मुझसे हँसी करते हैं ? रानी तो भीतर नहीं हैं।”

राजा ने कहाः “ब्राह्मण ! रानी भीतर ही हैं। जरूर आपका मुख उच्छिष्ट है। सती स्त्रियाँ उच्छिष्ट मुख पुरुष को दिखाई नहीं देतीं।”

उत्तंक को अपनी गलती मालूम हुई। उन्होंने हाथ पैर धोकर, प्राणायाम करके तीन आचमन किया, तब वे भीतर गये। वहाँ जाते ही रानी दिखायी दीं। उत्तंक का उन्होंने सत्कार किया और आने का कारण पूछा।

उत्तंक ने कहाः “गुरुपत्नी के लिए मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।”

उसे स्नातक ब्रह्मचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर दे दिये और यह भी कहा कि “बड़ी सावधानी से इन्हें ले जाना। सर्पों का राजा तक्षक इन कुण्डलों की तलाश में सदा घूमा करता है।” उत्तंक रानी को आशीर्वाद देकर कुण्डलों को लेकर चल दिये।

रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने में ही तक्षक मनुष्य का वेश बनाकर कुण्डलों को लेकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया किंतु वह अपना असली रूप धारण कर पाताल में चला गया। इन्द्र की सहायता से उत्तंक पाताल में चला गया। इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागों  को जीतकर तक्षक से उन कुण्डलों को ले आये। इन्द्र की ही सहायता से वे अपने निश्चित समय से पहले गुरुपत्नी के पास पहुँच गये। गुरुपत्नी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं- “मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, तुम्हें सब सिद्धियाँ प्राप्त हों।”

गुरुपत्नी को कुण्डल देकर उत्तंक गुरु के पास गये। समाचार सुनकर गुरु ने कहाः “इन्द्र मेरे मित्र हैं। वह गोबर अमृत था, उसी के कारण तुम पाताल में जा सके। मैं तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम प्रसन्नता से घर जाओ।” इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का आशीर्वाद पाकर उत्तंक अपने घर गये।

परमात्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो, गुरुवचनों पर पूर्ण विश्वास हो एवं गुरु-आज्ञापालन में दृढ़ता हो उसके लिए जीवन में कौन सा कार्य असम्भव है ! आगे चलकर उत्तंक बड़े ही तपस्वी, ज्ञानी ऋषि हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के अनंतर द्वारका लौटते समय इन्हें अपने महिमामय विराट स्वरूप का दर्शन कराया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 11, 25 अंक 212

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सन्देह और स्वीकार


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

एक बात आप समझ लेना कि संसार को जानना हो तो आपको संशय करना पड़ेगा – यह कैसे हुआ, वह कैसे हुआ ? और सत्य को जानना है तो आपको सदगुरुओं के वचन स्वीकार करने पड़ेंगे। संसार को जानना है तो संदेह चाहिए और सत्य को जानना है तो स्वीकार चाहिए।

अब तुम गये मंदिर में। भगवान बुद्ध की मूर्ति है तो भगवान समझकर तुमने प्रणाम किये। विष्णु की मूर्ति है तो…..

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव

त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।

ऐसी प्रार्थना की। ऐसा नहीं सोचोगे कि ‘ये तो कुछ बोलते नहीं, ये माता-पिता कैसे हो सकते हैं ? ये तो जयपुर से साढ़े आठ हजार रूपये के आये हुए हैं।’ ऐसा नहीं, वहाँ तुम्हें संदेह नहीं करना होगा। ‘ये भगवान हैं क्योंकि प्राण-प्रतिष्ठा की हुई है। ये भगवान हैं, इनसे मेरा मंगल होगा, इनसे मेरा कल्याण होगा।’ – यह आपको मानना पड़ेगा। गये अम्बाजी। ‘अम्बे मात की जय। लाखों आये, लाखों गये मेरी माँ, तेरे द्वारे ! तू दया करना। मेरे छोकरों को राजी रखना। मेरे छोकरे नहायें, धोयें, खायें, अभी तो बीमार पड़े हैं….’ अब वहाँ संदेह नहीं करेगा कि माता जी को पुजारी नहलाता है। वहाँ मान लेना है कि माता जी की कृपा से छोकरे नहाते-धोते हो जायेंगे, छोकरे ऐसे हो जायेंगे। तो धर्म में तुम्हें संदेह नहीं बल्कि स्वीकार करना पड़ता है। स्वीकार करते-करते तुम एक ऐसी जगह पर आते हो कि तुम्हारी अपनी पकड़-जकड़ नहीं रहती और तुम स्वीकृति दे देते हो। जब स्वीकृति दे देते हो तो ऐसी तुम्हारे में जो समझ है वह श्रद्धा का रूप ले लेती है। श्रद्धा लेकर तुम जब सदगुरू के पास पहुँचते हो तो फिर श्रद्धा के बल से तुम ऊँची तात्त्विक बातें भी मानने लग जाते हो। तुम जो आज तक देह को मैं मान रहे थे, यह भी तो पुतला है, इस देह को मैं मान बैठे थे, मन में जो आता था वह मेरा मान बैठते थे। आँखों से दिखता था तो तुम बोलते थे, ‘मैं देखता हूँ,’ कानों से सुनाई पड़ता था तो तुम बोलते थे, ‘मैं सुनता हूँ’, नाक से सूँघते थे तो तुम बोलते थे, ‘मैं सूँघता हूँ’…. वह जो तुम्हारा ‘मैं’ और ‘मेरा’ – मेरी नाक और मैं सूँघने वाला, मेरी आँख और मैं देखने वाला, मेरा कान और मैं सुनने वाला, मेरा पेट और मैं खाने वाला – यह जो तुम्हारी सदियों की मान्यता है, भ्रम है उसे सदगुरु हटा देंगे। अब श्रद्धा के बल से स्वीकार के रास्ते तुम चले हो तो गुरु समझायेंगे कि ‘यह तुम नहीं करते हो, तुम्हारे शरीर में आँखें और मन का मेल होकर दिखता है। कान और मन का मेल होकर सुनाई पड़ता है। इन सबको जो देखता है…. जो मन को देखता है, जो बुद्धि के निर्णय को देखता है वह आत्मा तू है – तत्त्वमसि , यह मान ले।’

जब तुम ये ऊँची बातें मानने लग जाते हो तो ऊँचे तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, यह हुआ ज्ञानसहित विज्ञान।

मैं आत्मा हूँ। कैसे आत्मा हूँ ? ऐसा प्रश्न पूछ सकते हो पर तुम्हारे हृदय में यदि श्रद्धा है और स्वीकार करने की क्षमता है तो इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा तो तुम्हारे हृदय में बैठेगा। नहीं तो प्रश्नों के उत्तर कितने भी मिलें, ऐसा कोई शब्द नहीं जिसका प्रत्यवाय (काट) न हो। ऐसा कोई प्रश्न का उत्तर नहीं है जिसका तर्क करके खंडन न हो। तो सत्य तर्क से सिद्ध नहीं होता, सारे तर्क जिससे सिद्ध होते हैं अथवा सारे तर्क पैदा होकर जिसमें लीन हो जाते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा तर्कों का विषय नहीं और मान लेने का विषय नहीं अपितु सब विषय उसी से उत्पन्न होते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं। इसमें जब श्रद्धा होती है, इसे स्वीकार करने की क्षमता होती है, ईश्वर में प्रीति होती है तो ईश्वर के समग्र स्वरूप को जान लेता है आदमी। नहीं तो क्या कि ईश्वर के एक-एक खंड को आदमी पकड़ लेता है। मेरा तो भगवान है – झूलेलाल। झूलेलाल ही भगवान है। तो ‘झुलेलाल-झुलेलाल’ करेंगे तो आनंद आयेगा और दूसरे किसी भगवान की जय कर दी तो मेरा आनंद गायब हो जायेगा। अथवा तो मेरा तो इष्ट है रामजी, अब रामजी की जय हुई तो ठीक और श्रीकृष्ण की जय हुई तो आनंद गायब ! जब राम तत्त्व को जाना, झुलेलाल-तत्त्व को जाना, कृष्ण-तत्त्व को जाना तो पता चलेगा कि सत्ता एक है, आकृतियाँ अनेक हैं। सत्ता एक है, रूप अनेक हैं। जैसे – तुम्हारे अंदर सत्ता एक है परंतु आँख देखती है उसके रूप अनेक हैं। अंदर सत्ता एक है किंतु कान सुनते हैं उनके शब्द अनेक हैं। गंध अनेक हैं पर सूँघने की सत्ता एक है। जैसे तुम्हारे शरीर में सत्ता एक है ऐसे सबके शरीरों में सत्ता एक है। मनुष्यों के शरीर में तो सत्ता एक हुई लेकिन उसी सत्ता से गाय की आँखें देखती हैं जिस सत्ता से तुम देखते हो, उस सत्ता से ही भैंस देखती है जिस सत्ता से तुम देखते हो। हाँ, भैंस की बुद्धि में और तुम्हारी बुद्धि में, गाय की बुद्धि में और भैंस की बुद्धि में फेर हो सकता है परंतु सत्ता में फेर नहीं होता। तो इस सत्ता का स्वरूप समझ में आ जाय….

इस प्रकार विशेष ज्ञान में विचित्रता होती है, सामान्य ज्ञान में विचित्रता नहीं होती है। सामान्य ज्ञान सर्वत्र सम है, एक जैसा है और वह सदा एकरस है। उस एकरस को जानकर साधक निर्द्वन्द्व हो जाता है, निःशंक हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 212

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