(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)
एक बात आप समझ लेना कि संसार को जानना हो तो आपको संशय करना पड़ेगा – यह कैसे हुआ, वह कैसे हुआ ? और सत्य को जानना है तो आपको सदगुरुओं के वचन स्वीकार करने पड़ेंगे। संसार को जानना है तो संदेह चाहिए और सत्य को जानना है तो स्वीकार चाहिए।
अब तुम गये मंदिर में। भगवान बुद्ध की मूर्ति है तो भगवान समझकर तुमने प्रणाम किये। विष्णु की मूर्ति है तो…..
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।
ऐसी प्रार्थना की। ऐसा नहीं सोचोगे कि ‘ये तो कुछ बोलते नहीं, ये माता-पिता कैसे हो सकते हैं ? ये तो जयपुर से साढ़े आठ हजार रूपये के आये हुए हैं।’ ऐसा नहीं, वहाँ तुम्हें संदेह नहीं करना होगा। ‘ये भगवान हैं क्योंकि प्राण-प्रतिष्ठा की हुई है। ये भगवान हैं, इनसे मेरा मंगल होगा, इनसे मेरा कल्याण होगा।’ – यह आपको मानना पड़ेगा। गये अम्बाजी। ‘अम्बे मात की जय। लाखों आये, लाखों गये मेरी माँ, तेरे द्वारे ! तू दया करना। मेरे छोकरों को राजी रखना। मेरे छोकरे नहायें, धोयें, खायें, अभी तो बीमार पड़े हैं….’ अब वहाँ संदेह नहीं करेगा कि माता जी को पुजारी नहलाता है। वहाँ मान लेना है कि माता जी की कृपा से छोकरे नहाते-धोते हो जायेंगे, छोकरे ऐसे हो जायेंगे। तो धर्म में तुम्हें संदेह नहीं बल्कि स्वीकार करना पड़ता है। स्वीकार करते-करते तुम एक ऐसी जगह पर आते हो कि तुम्हारी अपनी पकड़-जकड़ नहीं रहती और तुम स्वीकृति दे देते हो। जब स्वीकृति दे देते हो तो ऐसी तुम्हारे में जो समझ है वह श्रद्धा का रूप ले लेती है। श्रद्धा लेकर तुम जब सदगुरू के पास पहुँचते हो तो फिर श्रद्धा के बल से तुम ऊँची तात्त्विक बातें भी मानने लग जाते हो। तुम जो आज तक देह को मैं मान रहे थे, यह भी तो पुतला है, इस देह को मैं मान बैठे थे, मन में जो आता था वह मेरा मान बैठते थे। आँखों से दिखता था तो तुम बोलते थे, ‘मैं देखता हूँ,’ कानों से सुनाई पड़ता था तो तुम बोलते थे, ‘मैं सुनता हूँ’, नाक से सूँघते थे तो तुम बोलते थे, ‘मैं सूँघता हूँ’…. वह जो तुम्हारा ‘मैं’ और ‘मेरा’ – मेरी नाक और मैं सूँघने वाला, मेरी आँख और मैं देखने वाला, मेरा कान और मैं सुनने वाला, मेरा पेट और मैं खाने वाला – यह जो तुम्हारी सदियों की मान्यता है, भ्रम है उसे सदगुरु हटा देंगे। अब श्रद्धा के बल से स्वीकार के रास्ते तुम चले हो तो गुरु समझायेंगे कि ‘यह तुम नहीं करते हो, तुम्हारे शरीर में आँखें और मन का मेल होकर दिखता है। कान और मन का मेल होकर सुनाई पड़ता है। इन सबको जो देखता है…. जो मन को देखता है, जो बुद्धि के निर्णय को देखता है वह आत्मा तू है – ‘तत्त्वमसि‘ , यह मान ले।’
जब तुम ये ऊँची बातें मानने लग जाते हो तो ऊँचे तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, यह हुआ ज्ञानसहित विज्ञान।
मैं आत्मा हूँ। कैसे आत्मा हूँ ? ऐसा प्रश्न पूछ सकते हो पर तुम्हारे हृदय में यदि श्रद्धा है और स्वीकार करने की क्षमता है तो इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा तो तुम्हारे हृदय में बैठेगा। नहीं तो प्रश्नों के उत्तर कितने भी मिलें, ऐसा कोई शब्द नहीं जिसका प्रत्यवाय (काट) न हो। ऐसा कोई प्रश्न का उत्तर नहीं है जिसका तर्क करके खंडन न हो। तो सत्य तर्क से सिद्ध नहीं होता, सारे तर्क जिससे सिद्ध होते हैं अथवा सारे तर्क पैदा होकर जिसमें लीन हो जाते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा तर्कों का विषय नहीं और मान लेने का विषय नहीं अपितु सब विषय उसी से उत्पन्न होते हैं, उसी में लीन हो जाते हैं। इसमें जब श्रद्धा होती है, इसे स्वीकार करने की क्षमता होती है, ईश्वर में प्रीति होती है तो ईश्वर के समग्र स्वरूप को जान लेता है आदमी। नहीं तो क्या कि ईश्वर के एक-एक खंड को आदमी पकड़ लेता है। मेरा तो भगवान है – झूलेलाल। झूलेलाल ही भगवान है। तो ‘झुलेलाल-झुलेलाल’ करेंगे तो आनंद आयेगा और दूसरे किसी भगवान की जय कर दी तो मेरा आनंद गायब हो जायेगा। अथवा तो मेरा तो इष्ट है रामजी, अब रामजी की जय हुई तो ठीक और श्रीकृष्ण की जय हुई तो आनंद गायब ! जब राम तत्त्व को जाना, झुलेलाल-तत्त्व को जाना, कृष्ण-तत्त्व को जाना तो पता चलेगा कि सत्ता एक है, आकृतियाँ अनेक हैं। सत्ता एक है, रूप अनेक हैं। जैसे – तुम्हारे अंदर सत्ता एक है परंतु आँख देखती है उसके रूप अनेक हैं। अंदर सत्ता एक है किंतु कान सुनते हैं उनके शब्द अनेक हैं। गंध अनेक हैं पर सूँघने की सत्ता एक है। जैसे तुम्हारे शरीर में सत्ता एक है ऐसे सबके शरीरों में सत्ता एक है। मनुष्यों के शरीर में तो सत्ता एक हुई लेकिन उसी सत्ता से गाय की आँखें देखती हैं जिस सत्ता से तुम देखते हो, उस सत्ता से ही भैंस देखती है जिस सत्ता से तुम देखते हो। हाँ, भैंस की बुद्धि में और तुम्हारी बुद्धि में, गाय की बुद्धि में और भैंस की बुद्धि में फेर हो सकता है परंतु सत्ता में फेर नहीं होता। तो इस सत्ता का स्वरूप समझ में आ जाय….
इस प्रकार विशेष ज्ञान में विचित्रता होती है, सामान्य ज्ञान में विचित्रता नहीं होती है। सामान्य ज्ञान सर्वत्र सम है, एक जैसा है और वह सदा एकरस है। उस एकरस को जानकर साधक निर्द्वन्द्व हो जाता है, निःशंक हो जाता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 212
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