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होली मनायें तो ऐसी


(होलिका दहनः 7 मार्च 2012, धुलेंडीः 8 मार्च 2012)

(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी वाणी से)

होली अगर हो खेलनी, तो संत सम्मत खेलिये।

संतान शुभ ऋषि मुनिन की, मत संत आज्ञा पेलिये।।

तुम संतों और ऋषि-मुनियों की संतान हो। यदि तुम होली खेलना चाहते हो तो भाँग पीकर बाजार में नाचने की जरूरत नहीं है, दारू पीकर अथवा दुर्व्यसन करके अपने आपको अधोगति में डालने की जरूरत नहीं है, होली खेलनी हो तो संत के संग में खेलो। सच्ची होली तो यह है कि ब्रह्मविद्या की अग्नि प्रकट हो जाय, भक्तिरस की अग्नि भभक उठे और उसमें तुम्हारी चिंता, दारिद्रय, मोह, ममता स्वाहा हो जाय। तुम कंचन जैसे हो जाओ, कुंदन जैसे शुद्ध हो जाओ। इसी का नाम होली है। लोग लकड़ियाँ एकत्रित करके अग्नि प्रज्वलित करते हैं, होली जलाते हैं पर यह कोई आखिरी होली नहीं है। होली तब समझो कि संसार जलती आग दिखे। संसार जलती आग है तो सही पर दिखता नहीं है, यह हमारी बुद्धि की मंदता है। जरा-जरा बात में दिन भर में न जाने कितने हर्ष के और कितने शोक के आघात-प्रत्याघात लगते हैं। मेरे-तेरे के कितने बिच्छु काटते हैं….. तो संसार जलती आग है ऐसा दिखे और सब विषय-विकार फीके लगें तो समझो सच्ची होली है, नहीं तो बचकानी होली है, संसार में भटकने वालों की होली है। साधकों की होली निराली होती है।

संसार का दुःख कैसे मिटे, आत्मज्ञान कैसे हो ? आध्यात्मिक शांति, परमात्मशांति कैसे मिले ? – इस बात का ध्यान रहे तो समझो तुम्हारी होली सार्थक है, नहीं तो होली में तुम खुद होली हो गये।

माजून खाई भंग की, बौछार कीन्हीं रंग की।

बाजार में जूता उछाला, या किसी से जंग की।।

भाँग पी, जूते उछाले या किसी से जंग की – यह कोई होली है !

गाना सुना या नाच देखा, ध्वनि सुनी मौचंग की।

सुध बुध भुलाई आपनी, बलिहारी ऐसे रंग की।।

देहाध्यास भूलने का जो तरीका था, होली जिस उद्देश्य से मनायी जाती थी वह अर्थ आजकल दब गया। देहाध्यास भूलने के लिए नेता और जनता की एकता, संत और साधक की एकता, सेठ और नौकर की एकता का, प्राकृतिक नैसर्गिक जीवन जीने का एक दिन था, एक मौका था होली का दिन। ʹमैंʹ और ʹमेरेʹ के व्यवहार से जो बोझा महसूस होता है, वह बोझा उतारने का यह एक सुन्दर कार्यक्रम था लेकिन इस होली में भी आजकल बोझा उतारता नहीं है बल्कि और बढ़ रहा है। सामान्य दिनों में जो काम होता है त्यौहारों में और अधिक काम बढ़ा लेते हैं। सामान्य दिनों में जो मिलना, करना, विकारों में उलझना होता है, त्यौहारों के दिनों में लोग इनमें और अधिक उलझते हैं। होली के दिन सिनेमाघर पर भीड़ ज्यादा होगी। इन दिनों जितने मानसिक अपराध होंगे, उतने अन्य दिनों में नहीं होंगे क्योंकि हम व्यवस्था का दुरुपयोग कर रहे हैं। त्यौहारों की जो व्यवस्था थी जीवन को सरलता की, नैसर्गिकता की तरफ ले जाने की, अहंकार को विसर्जित करने की, त्यौहारों के द्वारा जो कुछ अहंकार को पुष्ट करने का मौका ढूंढ रहा है।

अहंकार का सर्जन, विकारों का सर्जन करने का मौका जितना अधिक लेंगे, उतना जीवनशक्ति का ह्रास होगा। इसलिए फकीरी होली तुम्हें कहती है कि ज्ञान की आग जलाओ। लकड़ियों की आग तो बहुत लोग जलाते हैं और स्वर्ग में, नरक में भटकते रहते हैं, जन्मते-मरते रहते हैं।

यदि हम हमारे जीवन की शक्ति का आदर न करेंगे, हम हमारे जीवन के स्वामी न बनेंगे तो हमारा स्वामी शैतान बन जायेगा। इसलिए होली तुम्हें कहती है कि उस शैतान से बचने के लिए अपने अहंकार को धूल में मिलाओ, धुलैंडी मनाओ, होली जलाओ। अपने अहंकार की सुध-बुध भुला दो, भुला दो देहाध्यास को। गाना गाओ तो गाना बन जाओ और नृत्य करो तो नृत्य, कीर्तन करो तो कीर्तन, सत्संग सुनो तो सत्संग हो जाओ। अपने अहंकार की बलि दे दो। जो भारीपन है वह छोड़ दो। होली हलका होना सिखाती है। कोई साहब हो, सूबेदार हो, भले इन्सपेक्टर हो, चाहे मंत्री हो, लेकिन होली के दिन तो फगुआ लेने वाले बच्चे भी उनका साहबपना, मंत्रीपना भुला देते हैं कि ʹसाहब ! होली का फगुआ दो नहीं तो रँग देंगे।ʹ ऐसी है होली !

अज्ञान को नहीं हटाया, प्रेमाभक्ति का रस नहीं पाया, अपने आपको नहीं पाया तो होली मनाकर क्या पाया ? मोह-ममता के ऊपर धूल नहीं डाली तो धुलेंडी क्या खेली ?

छाती मिलाते शत्रु से, सन्मित्र से मुख मोड़ते।

हितकारी ईश्वर छोड़कर, नाता जगत से जोड़ते।।

धन से, पद से, प्रतिष्ठा से छाती मिलाते हो जो कि तुम्हारे नहीं हैं और जो तुम्हारा है उधर से तो तुम मुख मोड़कर बैठे हो। ईश्वर को छोड़कर जगत से नाता जोड़कर बैठे हो, फिर होली क्या मनाते हो ? होली मनाओ तो बस ऐसी कि जो तुम्हारा है वह प्रकट हो जाये। ऐसा प्रकाश भीतर से प्रकट होने दो कि जो तुम्हारा है उसमें जग जाओ। ऐसे से मिलो जिससे फिर बिछुड़ना न पड़े।

भोले बाबा ने कहा हैः

होली हुई तब जानिये, पिचकारि सदगुरु की लगे।

ऐसी होली खेलिए कि ज्ञान की पिचकारी से अहंकार भाग जाय। ज्ञान की पिचकारियाँ तो चलती रहती हैं। कई बार ऐसी पिचकारियाँ आती हैं और किसी के हृदय में लगकर चली जाती हैं, किसी के हृदय में थोड़ी टिकती हैं, किसी के हृदय से तो आर-पार निकल जाती हैं। अब बचकानी होली छोड़ दो। बहुत दिन खेले, बहुत जन्म खेले तुम ऐसी होली। ऐसे खेलते-खेलते कई होलियाँ आ गयीं, कई दिवालियाँ आ गयीं लेकिन हम वैसे-के-वैसे रहे।

हमारी स्थिति ऐसी न हो कि त्यौहार मनाने के बाद भी हमारा अहंकार बचा रहे। उत्सव मनाने के बाद भी हम परमात्मा के निकट न पहुँचे तो वह उत्सव वास्तव में उत्सव नहीं, वह त्यौहार त्यौहार नहीं, वह तो मौत का दिन है। जीवन का दिन तो वह है कि तुम ईश्वर के रास्ते पर एक कदम आगे बढ़ जाओ। बाह्य उत्सव तुम्हें ईश्वरीय उत्सव में ले जाय, ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय माधुर्य, ईश्वरीय दृष्टि, ईश्वरीय प्रेम में परितृप्त कर दे। ईश्वर के रास्ते एक छलाँग तुम्हारी और बढ़ जाय तो समझ लो त्यौहार तुम्हारे लिये सार्थक है। यदि एक छलाँग शैतान की तरफ आगे बढ़ जाती है तो वह त्यौहार तुम्हारे लिए अभिशाप है, वरदान नहीं। जो भी त्यौहार हैं वे सब महापुरुषों ने तुम्हारे लिए वरदानरूप बनाये हैं। उन त्यौहारों का तुम्हें अधिक-से-अधिक लाभ मिले और तुम विराट आत्मा के साथ एक हो जाओ, तुम असली पिता के द्वार तक पहुँच जाओ – त्यौहारों का लक्ष्यार्थ यही है।

सब रंग कच्चे जांय, यक रंग पक्के में रंगे।

नहिं रंग चढ़े फिर द्वैत का, अद्वैत में रंग जाय मन।

विक्षेप मल सब जाय धुल, निश्चिन्त मन अम्लान हो।।

पक्का रंग आत्मा का ज्ञान होता है, बाकी के रंग सब कच्चे होते हैं। संसार के रंग तुम्हारे शरीर तक, मन तक, बुद्धि तक आते हैं। जिसने भीतर की होली खेल ली, जिसके भीतर भीतर का प्रकाश हो गया, भीतर का प्रेम आ गया, जिसने आध्यात्मिक होली खेल ली, उसको जो रंग चढ़ता है वह अबाधित होता है। संसारी होली का रंग हम लोगों को नहीं चढ़ता, हमारे कपड़ों को चढ़ता है, हमारे शरीर को भी तो रंग नहीं चढ़ता ! और यह रंग कपड़ों पर भी टिकता नहीं, टिका तो समय पाकर कपड़े फट जाते हैं लेकिन तुम्हारे ऊपर यदि फकीरी होली का रंग चढ़ जाय….. फकीरी होली का अर्थ है कि जहाँ पहुँचने के बाद फिर गिरना नहीं होता, जो पाने के बाद खोना नहीं होता। यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। (गीताः 15.6)

काश ! ऐसा कोई सौभाग्यशाली दिन आ जाय कि तुम्हारे ऊपर संतों की होली का रंग लग जाय तो फिर तैंतीस करोड़ देवता धोबी का काम शुरु करें और तुम्हारा रंग उतारने की कोशिश करें तो भी नहीं उतरेगा, बल्कि तुम्हारा रंग उन पर चढ़ जायेगा।

होली के बाद धुलेंडी आती है। धुलेंडी का पैगाम है कि अपनी इच्छाओं को, वासनाओं को, कमियों को धूल में मिला दो। अहंकार को धूल में मिला दो। निर्दोष बालक जैसे नाचता है, खेलता है, निर्विकार आँख से देखता है, निर्विकार होकर व्यवहार करता है, ऐसे ही तुम निर्विकार होकर जियो। तुम्हारे अंदर जो विकार उठें उन विकारों को, शैतान को भगाने के लिए तुम ईश्वरी सामर्थ्य जुटा लो। ईश्वरीय सामर्थ्य ईश्वर-नाम, ईश्वर-ध्यान और ईश्वरप्रीति से जुटता है। इसलिए होली मनायें तो किसी पावन जगह पर मनायें, संत के संग मनायें ताकि जन्म-मरण की भटकान समाप्त हो जाय। आत्मज्ञान, आत्मविश्राम, आत्मतृप्ति…

आप इरादा पक्का करो, बाकी भगवान पग-पग पर सहायता करते ही हैं, बिल्कुल पक्की बात है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 12,13,14 अंक 230

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होलिकोत्सव हितोत्सव है


(पूज्य बापू जी की सत्संग-गंगा से)

होलिकोत्सव के पीछे प्राकृतिक ऋतु-परिवर्तन का रहस्य छुपा है। ऋतु परिवर्तन के समय जो रोग होते हैं उनको मिटाने का भी इस उत्सव के पीछे बड़ा भारी रहस्य है तथा विघ्न-बाधाओं को मिटाने की घटनाएँ भी छुपी हैं।

रघु राजा के राज्य में ढोण्ढा नाम की राक्षसी बच्चों को डराया करती थी। राजा का कर्तव्य है कि प्रजा की तकलीफ को अपनी तकलीफ मानकर उसे दूर करने का उपाय करे। कई उपाय खोजने के बाद भी जब कोई रास्ता नहीं मिला तो रघु राजा ने अपने पुरोहित से उपाय पूछा। पुरोहित ने बताया कि इसे भगवान शिव का वरदान है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते, न वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़े, गर्मी, वर्षा से मर सकती है किंतु वह खेलते हुए बच्चों से भय खा सकती है। इसलिए फाल्गुन की पूर्णिमा को लोग हँसे, अट्टहास करें, अग्नि जलाएँ और आनन्द मनायें। राजा ने ऐसा किया तो राक्षसी मर गयी और उस दिन को ʹहोलिकाʹ कहा गया।

होलिकोत्सव बहुत कुछ हमारे हित का दे देता है। गर्मी के दिनों में सूर्य की किरणें हमारी त्वचा पर सीधी पड़ती हैं, जिससे शरीर में गर्मी बढ़ती है। हो सकता है कि शरीर में गर्मी बढ़ने से गुस्सा बढ़ जाय, स्वभाव में खिन्नता आ जाय। इसीलिए होली के दिन पलाश एवं अन्य प्राकृतिक पुष्पों का रंग एकत्रित करके एक-दूसरे पर डाला जाता है ताकि हमारे शरीर की गर्मी सहन करने की क्षमता बढ़ जाय और सूर्य की तीक्ष्ण किरणों का उस पर विकृत असर न पड़े। सूर्य की सीधी तीखी किरणें पड़ती हैं तो सर्दियों का जमा कफ पिघलने लगता है। कफ जठर में आता है तो जठर मंद हो जाता है। पलाश के फूलों के रंग से होली खेली जाती है। पलाश के फूलों से, पत्तों से, जड़ से तथा पलाश के पत्तों से बनी पत्तव व दोने में भोजन करने से बहुत सारे फायदे होते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि कई राज्यों में अब भी पलाश के पत्तों से बनी पत्तल व दोने में भोजन करने की प्रथा है। राजस्थान में पलाश को खाखरा भी बोलते हैं। अभी तो कागज की पत्तलें और दोने आ गये। उनसे वह लाभ नहीं होता जो खाखरे के दोने और पत्तलों से होता है।

पलाश के फूलों से होली खेलने से शरीर के रोमकूपों पर ऐसा असर पड़ता है कि वर्ष भर आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति मजबूत बनी रहती है। यकृत (लीवर) को मजबूत करता है खाखरा। यह यकृत की बीमारी जिससे पीलिया होता है उससे भी रक्षा करता है। जो पलाश के फूलों से होली खेलेंगे उन्हें पीलिया भी जल्दी नहीं होगा, मंदाग्नि भी नहीं होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 11, अंक 230

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ज्ञानी के भीतर भेद नहीं


(पूज्य श्री के सत्संग-प्रवचन से)

ब्रह्मनिष्ठ महात्मा होते तो हैं ज्ञानी लेकिन जड़वत् लोकमाचरेत्…. अज्ञानी के जैसा आचरण करते हैं। उनको यह नहीं होता कि ʹमैं ब्रह्मवेत्ता हूँ, अब यह कैसे होगा मेरे से ?ʹ, यह पकड़ नहीं होती। ज्ञानी तो अपने सहित सारे विश्व को अपना आत्मा मानते हैं। ज्ञानी के भीतर भेद नहीं होता इसलिए उऩ्हें शान्ति होती है और हम लोगों के अंदर भेद होता है इसलिए अपनी मन-इन्द्रियों से अच्छा व्यवहार होता है तो हम हर्ष को प्राप्त होते हैं और मन-इन्द्रियों से कुछ इधर-उधर का व्यवहार होता है तो हमको शोक होता है।

हमारे शरीर का, मन का कोई आदर करता है तो हम खुश होते हैं और न कोई अनादर करता या उँगली उठाता है तो हम बेचैन होते हैं क्योंकि हम अपने को देह मानते हैं और फिर दूसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि ʹमेरे से फलाना आदमी ऐसा व्यवहार करे, पत्नी ऐसे चले, पुत्र ऐसे चले, परिवार ऐसे चले, कुटुम्बी मेरे से ऐसा चलें।ʹ हम अपनी मान्यता की पोटली सिर पर लेकर घूमते हैं तो हमारी पोटली के अनुसार अगर कोई हमसे आचरण करता है तो वहाँ हमारा राग हो जाता है और हमारी मान्यता की गठरिया के खिलाफ कोई व्यवहार या परिस्थितियाँ आती हैं तो हमें द्वेष होता है या भय हो जाता है।

ये राग और द्वेष हमारे चित्त को मलिन करते हैं। राग भी हमारे चित्त में रेखा डालता है और द्वेष भी हमारे चित्त में रेखा डालता है। अनुकूलता आती है तो राग की रेखा गहरी होती है और प्रतिकूलता आती है तो द्वेष या भय की रेख गहरी होती है। तो हमारे चित्त में ये रेखाएँ पड़ जाती हैं इसलिए हमारा चित्त स्वस्थ, शांत नहीं रहता। और अशांतस्य कुतः सुखम्। अशांत को सुख कहां ? संशयवाले को सुख कहाँ ? उद्विग्न को सुख कहाँ ?

मैंने सुनायी थी वह कहानी कि किन्हीं जीवन्मुक्त महात्मा के चरणों में अदभुत स्वभाववाला आदमी पहुँचा। बोलाः ʹʹमहाराज ! मैं चंबल की घाटी का डाकू हूँ, अपनी शरण में रखोगे ?”

महाराज बोलेः “हाँ, ठीक है।”

“महाराज ! मैं दारू पीता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! मैं जुआ भी खेलता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! मैं दुराचार भी करता हूँ।”

“कोई बात नहीं।”

“महाराज ! यह क्या ? आप तो सब स्वीकार कर रहे हैं।”

“भैया ! जब सृष्टिकर्ता तुझे अपनी सृष्टि से नहीं निकालता तो मैं अपनी दृष्टि से क्यों निकालूँ ?”

तो जो जीवन्मुक्त महात्मा हैं वे ऐसा नहीं समझते कि मेरा आचरण सही है, दूसरे का आचरण गलत है। मेरा शरीर पवित्र है, शुद्ध है और मैं एकदम ठीक हूँ, दूसरा गलत है। मैं ठीक और दूसरा गलत नहीं, लेकिन दूसरेर को भी मेरा अनुभव समझ में आ जाय ऐसा उनका लक्ष्य होता है, इसलिए वे सर्वभूतहिते रताः हो जाते हैं। हम लोगों का हित उसी में होता है कि हम अपने को समझें। हम अपने को नहीं समझेंगे तो कैसी भी परिस्थिति होगी चित्त का राग और द्वेष जायेगा नहीं। वस्तुओं से प्राप्त जो सुख है या हमारी मान्यताओं से प्राप्त जो सुख है वह वास्तव में राग का सुख है, आत्मा का सुख नहीं। और हमारी इच्छा के खिलाफ जो हो रहा है, उससे जो दुःख होता है वह वास्तव में बाहर दुःख नहीं है, हमारी मान्यताएँ हमको दुःख दे रही हैं।

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

हम लोग अपने ही विचारों की गठरिया से अपने संस्कार तैयार करके सुख की रेखाएँ खींच के भी अपने को जंजीर में बाँधते हैं और दुःख की रेखाएँ खींच के भी अपने को जंजीर में बाँधते हैं।

आत्मसाक्षात्कार करना बड़ा आसाना है। कैसे ? अपनी जो भेददर्शन करने वाली बुद्धि है, उसे अभेद-दर्शन में बदल दो बस। जिन कारणों से भेद दिखते हैं उन्हें मिटा दो तो साक्षात्कार हो जायेगा। सर्वत्र एक परब्रह्म परमात्मा है, उसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं है। इस बात को दृढ़ता से मानकर उसे ही चरितार्थ करने में लगे रहो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 230

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