सत्संग से हमें वह रास्ता मिलता है जिससे हमारा तो उद्धार हो
जाता है, हमारी 21 पीढ़ियाँ भी तर जाती हैं ।
बिनु सत्संग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ।।
(श्री रामचरित. उ.कां. 61)
जहाँ ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का सत्संग मिलता है ऐसी जगह पर
जाते हैं तो एक पग चलने से एक-एक यज्ञ करने का फल मिलता है ।
महान बनने के तीन सोपान हैं- वेदांत का सत्संग, उत्साह और
श्रद्धा । ये अगर छोटे-से-छोटे व्यक्ति में भी हों तो वह बड़े-से-बड़ा कार्य
भी कर सकता है । वे लोग धनभागी हैं जिनको ब्रह्मज्ञान का सत्संग
मिलता है । वे लोग विशेष धनभागी है जो दूसरों को सत्संग दिलाने की
सेवा करके संत और समाज के बीच की कड़ी बनने का अवसर खोज
लेते हैं, पा लेते हैं और अपना जीवन धन्य कर लेते हैं ।
एक पृथ्वी के देव होते हैं दूसरे स्वर्ग के देव होते हैं । स्वर्ग के देव
तो अपना पुण्य खर्च करके मजा लेते हैं । पृथ्वी के देव हैं ‘ईमानदार
शिष्य’ । सद्गुरु और भगवान के दैवी कार्यों में अपने तन, मन और
जीवन को लगाने वाला शिष्य पृथ्वी का देव माना गया है । स्वर्ग का
देव तो अपना पुण्य-नाश करके मजा लेता है मगर यह पृथ्वी के देव
अपना पाप-नाश करके भगवान का रस पाता है । जो भगवद्भक्ति करते
हैं, कराते हैं तथा उसमें जो सहायक होते हैं, हरिरस बाँटने में जो
सहायक होते हैं वे बड़े पुण्यशील हैं ।
जीवात्मा की भूख मिटाने के सदावर्त
मानो किसी व्यक्ति ने सदावर्त (अऩ्नक्षेत्र) खोला है । जिसमें कोई
भी आये – साधु-संत, गरीब, भूखा, अतिथि – वह टुकड़ा खाये, उसे
सदावर्त कहते हैं । अगर कोई व्यक्ति उस सदावर्त में 2 मन गेहूँ भेजेगा
तो उसे पाप होगा या पुण्य ? 2 मन चावल भेजेगा तो क्या होगा ?
दाल भेजेगा तो क्या होगा ? पुण्य ही होगा । अरे ! दाल-चावल को
छोड़ो, एक सेर इमली, नमक भेजेगा तो भी पुण्य ही होगा क्योंकि
सदावर्त में भेजा है, जो भी आयेगा वह खायेगा । शरीर की भूख और
प्यास रोटी पानी की है मगर जीवात्मा की भूख रोटी की नहीं है,
परमात्मप्राप्ति की है । जब तक परमात्मप्राप्ति की भूख नहीं मिटी तब
तक जीवात्मा चौरासी लाख योनियों में भटकता रहेगा । सदावर्त मे
भोजन करने वाले की चार घंटे की भूख मिटती है तब भी नमक, इमली,
चावल या घी भेजने वाले को पुण्य होता है तो जो लोग जीवात्मा की
अनंत जन्मों की भूख मिटाने के सदावर्त की सेवा में सहभागी हो जाते
हैं उनके पुण्यों की गणना करने में कौन समर्थ है ? वे पृथ्वी पर के देव
माने जाते हैं । उनका तो उद्धार होता है, उनके कुल का भी उद्धार
होता है ।
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धर भाग्यवती च तेन ।
उनकी माता कृतार्थ हो जाती है तथा उन्हें पाकर यह सारी पृथ्वी
सौभाग्यवती हो जाती है ।
जो लोग सत्संग सुनते हैं अथवा दूसरों को सुनाने में सहभागी होते
हैं, भगवान और संतों के दैवी कार्य में, समाज के वास्तविक उत्थान के
कार्य में सहभागी होते हैं उनको ‘पृथ्वी पर के देव’ कहा गया है ।
सतं कबीर जी कहते हैं-
कथा कीर्तन रात दिन जिनका उद्यम येह ।
कह कबीर व संत की हम चरनन की खेह ।।
जिनको भगवत्कथा, कीर्तन और ब्रह्मज्ञान के सत्संग में रुचि है
ऐसे संत हृदयी लोगों के चरणों की हम खेह (धूल) हो जायें ।
शास्त्र कहता हैः स तृप्तो भवति । वह तृप्त होता है भीतर के रस
से, सुख से ।
स अमृतो भवति । स तरति लोकांस्तारयति ।
वह अमृतस्वरूप हो जाता है । वह तो तरता है, दूसरों को भी
तारता है ।
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग ।।
‘स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा
जाय तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के
बराबर नहीं हो सकते जो क्षणमात्र के सत्संग से होता है ।’ (श्री
रामचरित. सु.का. 4)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023 पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 364
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