Monthly Archives: January 2010

उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

भगवान जैसा सेवक त्रिलोकी में मिलना असम्भव है। भगवान हमारे स्वामी तो हैं ही हैं, लेकिन भगवान जैसा सेवक भी हमारा दूसरा कोई नहीं हो सकता। कितनी सेवा करते हैं हमारी ! माँ हमारे शरीर की जन्मदात्री तो है लेकिन माँ  जैसी हमारी देखभाल करने वाली कोई सेविका नहीं मिल सकतीतत। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक दूसरा नहीं मिल सकता है। भगवान इतने सामर्थ्यवान होते हुए भी ऐसी सेवा करते हैं कि आपको क्या बतायें !

भगवान सेवक बनने को भी तैयार, सखा बनने को भी तैयार, माता बनने को भी तैयार, पिता बनने को भी तैयार। कैसे हैं भगवान ! हे प्रभु ! तू तो तू ही है ! भगवान की सर्वव्यापकता, भगवान की सहजता, सुलभता, भगवान की परम सुहृदता, भगवान का परम स्नेह, भगवान की परम रक्षा और भगवान का परम प्रेम… मैं कितना बोलूँगा ! एक आसाराम नहीं, हजार आसाराम हें और एक-एक आसाराम  की हजार हजार जिह्वाएँ हो, फिर भी भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान की उदारता का पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते।

मेरी चार दिन की भक्ति और मैं सब कुछ फेंककर बैठ गया और जोर मारा कि

सोचा मैं न कहीं जाऊँगा,

यहीं बैठकर अब खाऊँगा।

जिसको गरज होगी आयेगा,

सृष्टिकर्ता खुद लायेगा।।

ऐसा सेवक को कहा जाता है, स्वामी को थोड़े ही कहा जाता है – सृष्टिकर्ता खुद लायेगा। साधनाकाल की यह बात याद आयी तो मैंने अपने आपको प्यार से थोड़ा कोसा। सब कुछ फेंककर मैं बैठ गया और सृष्टिकर्ता को चैलेंज किया तो कैसे भी करके उसने खिलाया। यह तो उसकी उदारता है, सज्जनता है। अगर कोई एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन नहीं लाता और उसी जगह पर गुंडें को भेजता, साँपों को भेजता तो हम क्या करते ? अपने आपको ही पूछा और मैं खूब हँसा कि उसकी कितनी उदारता है ! वह कितना कितना ख्याल रखता है ! बच्चा बोल देता है माँ को कि ‘मैं नहीं खाऊँगा…. जिसको गरज होगी खिलायेगा…..’ तो माँ क्या डंडा लेकर उसको पीटेगी अथवा भूखा रखेगी ?

‘मेरे बाप ! खा ले’ ऐसा करके खिलायेगी। तो माँ जैसी सेविका मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे ही भगवान जैसा सेवक मिलना सम्भव नहीं है। भगवान हमारे रक्षक हैं, पोषक है, समर्थ हैं – सब कुछ कर सकते हैं और प्राणिमात्र के सुहृद हैं। सुहृद सर्वभूतानाम्। इस बात को आप जान लो, हृदयपूर्वक मान लो तो आपको शांति हो जायेगी। भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं – दुश्मन देकर हमारा अहंकार और असावधानी मिटाते हैं, मित्र और सज्जन देकर हमारा स्नेह और औदार्य बढ़ाते हैं…. न जाने कैसी कैसी लीला करते करते सदगुरु के द्वारा ज्ञान का उपदेश दे के हमको ब्रह्म बना देते हैं, जीवन्मुक्त बना देते हैं। कहाँ तो एक बूँद वीर्य से जीवन की शुरुआत होती है और कहाँ ब्रह्म बना देते हैं ! यह उनकी करुणा कृपा नहीं है तो क्या किसी की चालाकी है ? एक बूँद से शुरुआत हुई शरीर की, कैसे-कैसे पढ़ाया, कैसा-कैसा संग, कैसा कैसा सत्संग दिया, कैसा कैसा मौका दिया, कैसे भी करके हमकोक यहाँ तक पहुँचाया कि हम भगवान से दादागिरी भी कर सकते हैं ! दादागिरी की लाज रखने वाला तू कैसा है ! तेरी कैसी करुणा है!! कैसी कृपा है !!!

भगवान सेवक भी हैं, सखा भी हैं, नियंता भी हैं, समर्थ भी हैं और असमर्थ भी हैं। अहं भक्तपराधीनः….. ‘मैं भक्तों के अधीन हूँ।’ ऐसा कहने वाला भगवान विश्व के किसी मजहब में हमने नहीं देखा, नहीं सुना। भगवान ने अर्जुन को कहाः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से (कर्तृभाव से) मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

(गीताः 18.66)

जिम्मेदारी भी उठायी। ये कैसे हैं भगवान कि अपने सिर पर जिम्मेदारी भी ले लेते हैं !

भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन को दास।

शबरी के जूठे बेर खाने में संकोच नहीं ! द्रौपदी की जूतियाँ अपने दुशाले में उठायीं, भक्त प्रह्लाद की सेवा की – अनेक विघ्नों में उसकी रक्षा की और भी अनेकों नामी-अनामी भक्तों के, संतों के जीवन में भगवान की सेवा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। हमारे-आपके जीवन में भी जो कुछ सुख-शांति, माधुर्य, औदार्य है वह उस दयालु प्रभु की ही सेवा का प्रभाव है। उत्तम में उत्तम सेवक हैं भगवान !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 17,30

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उपाधि हटाओ, व्यापक हो जाओ


(पूज्य बापू के सत्संग प्रवचन से)

जैसे तरंग पानी को खोजने जाये तो बहुत कठिन होगा लेकिन तरंग शांत हो जाय, फिर पानी को खोजे तो पहले वह पानी है बाद में तरंग है। गहना सोने को खोजने जाय तो पहले वह सोना है बाद में गहना है। घड़ा मिट्टी को खोजे तो पहले वह मिट्टी है बाद में घड़ा है। ऐसे ही पहले हम आत्मा हैं बाद में जीव हैं, बाद में गुजराती, सिंधी, मराठी हैं, बाद में नगर-अध्यक्ष, सांसद, पी.एच.डी., डी.लिट्. फलाना-ढिमका हैं।

जाति पद प्रतिष्ठा आदि की इन उपाधियों से हम छोटे हो जाते हैं। मनुष्यता व्यापक है लेकिन भारतवासी माना तो एक टुकड़े में आ गये, भारत में भी उत्तर प्रदेश के माना तो और छोटे दायरे में हो गये, उत्तर प्रदेश में भी अपने को लखनऊ के मान लिया तो और छोटे हो गये। लखनऊ में भी फलानी डिग्रीवाले तो बाकी के लोगों से अलग हो गये।

राष्ट्र बोले तो पूरा राष्ट्र आ गया। महाराष्ट्र बोले तो मुंबई, नागपुर आदि आदि हो गया छोटा। उत्तरांचल बोले तो भारत से कटके छोटा सा हो गया। उत्तरांचल में भी हरिद्वार तो और छोटा हो गया। हरिद्वार से भी कटकर ‘हर की पौड़ी’ पर आ गये। ‘हर की पौड़ी में भी ब्रह्मकुण्ड से दायें और जुग्गू पंडा के बायें ओर मेरा तख्त लगा है और फलाना पंडा एम.ए., बी.एड. मेरा नाम है। मेरे पास से कर्मकांड कराइये।’

अब पंडा तो समझता है कि मेरी बड़ी उपाधि है लेकिन कट-पिटकर छोटा ही हो गया न बेटे !

जितनीत-जितनी उपाधियाँ बढ़ती गयीं, उतने-उतने आप छोटे होते गये, संकीर्ण होते गये। अपनी व्यापकता भूलकर ‘मैं-मेरे’ उलझते गये, जन्म-मरण के फंदे में बँधते गये।

आप व्यवहार में भले उपाधि रखो लेकिन बीच-बीच में सारी उपाधियाँ हटाकर उस व्यापक परमात्मा के साथ के संबंध को याद कर लिया करो। जैसे बाहर जाते हें न, तो कपड़े, टाई, जूता आदि पहनते हैं लेकिन जब घर आते हैं तो सब हटाते हें तो कैसे तरोताजा हो जाते हें ! ऐसे ही यह जो मन  में भूत भरा है कि ‘मैं फलाना, फलानी पदवी वाला हूँ… मैं यह, मैं वह…’ यह सब हटाकर निर्दोष नन्हें की नाईं बैठ जाओ कि ‘बिन फेरे हम तेरे…’

भगवान की मूर्ति हो तो ठीक है, न हो तो चलेगा। दीपक जला सको तो ठीक है, नहीं हो तो चलेगा। ॐ अथवा स्वास्तिक का चित्र हो तो ठीक है, नहीं तो व्यापक आकाश की तरफ एकटक देखते हुए प्यार से ॐकार का दीर्घ उच्चारण करो। विनियोग करके फिर दीर्घ उच्चारण करो। भगवान का नाम लेना क्रिया नहीं पुकार में गिना जाता है।

आप 40 दिन तक प्रतिदिन 10-20 मिनट का यह प्रयोग करके देखो, कितना फर्क पड़ता है ! कितना लाभ होता है ! उस व्यापक क साथ एकाकार होने में कितनी मदद मिलती है ! असत् नाम, रूप तथा पद-पदवियों में बँधकर संकीर्णता की तरफ जा रहे जीव को अपने मूल व्यापक स्वरूप में पहुँचने में कितनी सुविधा हो जाती है। देखें फर्क पड़ता है कि पड़ता, ऐसा संशय नहीं करना। फायदा होगा….जितना प्रीतिपूर्वक करेंगे, जितना विश्वास होगा उतना फायदा !

विश्वासो फलदायकः।

गप्पे लगाकर, फिल्में देखकर जो सुख चाहते हैं, वह नकली सुख है, विकारी सुख है, तुमको संसार में फँसाने वाला है और भगवान की प्रीति से, पुकार से जो सुख मिलता है वह असली सुख है, आनंददायी सुख है। उस असली सुख से आपकी बुद्धि बढ़ेगी, ज्ञान बढ़ेगा, आपमें भगवान का सौंदर्य, प्रीति और सत्ता जागृत हो जायेगी।

केवल भगवान को प्रीतिपूर्वक सुबह-शाम पुकारना शुरु कर दो। दिन में दो-तीन बार कर सको तो अच्छा है। फिर आप देखोगे कि अपना जो समय असत् उपाधियों के असत् अहंकार में पड़कर बर्बाद हो रहा था, वह अब बचकर सत्स्वरूप परमात्मा के साथ एकाकार होने में, व्यापक होने में, आत्मा के असली सुख में पहुँचाने में कितना मददरूप हो रहा है ! फिर धीरे-धीरे असली सुख का अभ्यास बढ़ता जायेगा और आप व्यापक ब्रह्म के साथ एकाकार होकर जीवन्मुक्त हो जाएँगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 19,20

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संतों के खिलाफ सोची-समझी साजिश


श्री कल्कि पीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णम् महाराज

आज यह जो राजू चांडक नामक शख्स संत आसारामजी बापू पर घिनौने लगा रहा है वह पूर्व में हमसे भी कई बार मिला था, क्योंकि हमको बहुत से व्यक्ति मिलते हैं। मुझे उसके क्रियाकलापों से ऐसा लगता है कि वह संत आसारामजी के बहुत ही खिलाफ था और उनके खिलाफ वह तमाम तरह के सबूत इकट्ठा करने की तरह-तरह की बात कर रहा था। यह एक बहुत ही विचारणीय प्रश्न है।

हमारे भारत का जो संविधान है, सर्वोच्च न्यायालय है, वहाँ भी न्याय प्रक्रिया में एक बात स्पष्ट है कि अगर दस दोषियों को भी छोड़ना पड़े तो छोड़ा जा सकता है लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। क्या आरोप लगाने मात्र से व्यक्ति दोषी हो जाता है ? नहीं उसकी जाँच-प्रक्रिया है। भारत के अंदर संवैधानिक व्यवस्था है। हर आदमी को अपना पक्ष रखने का अधिकार है।

निर्दोष लोगों पर गुजरात की पुलिस ने जिस तरह से बर्बरता दिखायी है, उससे तो ऐसा लगता है कि वहाँ तालिबानी शासन है। वहाँ कानून का राज्य नहीं है। एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हुआ है कि जो सरकार हिन्दू धर्माचार्यों और हिन्दू धर्म का नाम लेकर वहाँ स्थापित हुई  है, पूरे देश में एक मैसेज है कि बी.जे.पी. जो है वह संतों का बहुत आदर करती है, संतों के बड़े पक्ष में रहती है लेकिन गुजरात की सरकार ने राम-मंदिर, कृष्ण-मंदिर, कितने-कितने मंदिर वहाँ तोड़े विकास के नाम पर !

हमारा इतिहास साक्षी है कि जब-जब कोई धर्म की बात करता है, सत्य की बात करता है, समाज को सुधारने की बात करता है तो उस पर आरोप हमेशा से लगते आये हैं लेकिन यहाँ बात दूसरी है। इसमें एक संत के ऊपर एक बार एक आरोप लगा, दूसरी बार दूसरा, तीसरी बार तीसरा, फिर किसी दूसरे संत पर आरोप लगता है, फिर किसी तीसरे पर लगता है। यह संतों के खिलाफ बहुत बड़ी सोची-समझी साजिश है, जो हमारे देश में बहुत दिनों से चल रही है। बहुत बड़ी ताकते हैं जो संतों की छवि धूमिल करना चाहती हैं।

संत कृपालु जी पर एक लड़की द्वारा चारित्रिक आरोप लगाया गया। इस तरह के जो आरोप लगते हैं, उनके पीछे जो बहुत बड़े हाथ होते हैं उन तक पहुँचना जरूरी है।

आज मीडिया के कुछ लोग आसारामजी बापू के विरूद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग कर निरंतर मनगढंत समाचार दे रहे हैं, इससे हमारे देश का पूरा संत समाज दुःखी है।

देखिये जीसस को क्रॉस पर चढ़ाया गया। उन्होंने कहा था कि ‘प्रेम ही ईश्वर है।’ मीरा को वेश्या कहा गया। उन्होंने कहा था कि ‘मैं भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करती हूँ।’ सुकरात व ऋषि दयानंद के जहर दिया गया। संतों के खिलाफ अत्याचार इसलिए होता है कि संत जो सड़ी-गली व्यवस्थाएँ हैं, जो असत्य वह अधर्म की बात है उसके खिलाफ सत्य के पक्ष में बात करते हैं और जो सत्य के पक्ष में रहता है उसके खिलाफ षड्यंत्र होते हैं। गुजरात की स्थिति से हमें बहुत आशंका है कि आसारामजी बापू को फँसाने के लिए यह सब षड्यंत्र के तहत हो रहा है।

गुजरात की पुलिस ने संत आसारामजी बापू के आश्रम में जाकर तांडव किया है और निर्दोष लोगों को मारा-पीटा है, उन सब पुलिस अधिकारियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज होनी चाहिए। निर्दोष साधक-भक्तों को अपमानित किया जा रहा है, क्या यह अत्याचार नहीं है ? गुजरात की सरकार को हम आगाह करना चाहते हैं कि किसी भी संत पर इस तरह का अत्याचार और उनके आश्रमों पर छापे मारकर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास न करे।

जैसे आरूषि हत्याकांड में हुआ, पूरी दुनिया में यह प्रचारित किया गया कि आरूषि के माता-पिता ही उसमें सम्मिलित हैं। अंत में सी.बी.आई. ने उन्हें निर्दोष घोषित कर दिया। तो जो बदनामी, जो दर्द, जो घुटन उसके माँ-बाप ने सही है, क्या उसे मिटाया जा सका ? ठीक उसी प्रकार बापू के भक्तों के हृदय को जो पीड़ा पहुँच रही है, क्या वे घाव भरे जा सकेंगे?

स्रोतः ऋषि प्रसाद जनवरी 2010, पृष्ठ संख्या 6,7

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