Monthly Archives: June 2018

अहं को खोजा .. ईश्वर मिला


 

 

 

एक फकीर थे ‘जुनेद’, उनका चेला था ‘शिबी’|

मालिक ! मुझे आपकी रहेमत चाहिए !  आपकी कृपा चाहिए !  अल्लाह के नूर का ओज चाहिए !

बोले – चाहिए-चाहिए क्या ? मैं ऐसे नहीं तुम्हें स्वीकार करूंगा |

तो बोले – आप हुक्म करो |

आदमी तो बड़ा था |

जुनेद ने कहा – जाओ गंधक बेचो साल भर और जो कमाओ वहां दो गरीबों में |

गंधक लो.. गंधक…., गंधक बेचा साल भर |

बोले कैसा – बोले मालिक जो आपका हुकुम |

जुनेद ने कहा-  अब साल भर भीख मांगो, भिक्षा मांगो, रोटियाँ लाओ |

साल भर उस आदमी ने नगर में भिक्षा मांगी, रोटियाँ लाता, गुरु को देता और जुनेद गुरु रोटियाँ बाँट देता, रुखी-सुखी उसके हवाले कर देता |

बोले – कैसा ?

बोले – मालिक जो आपका हुकुम |

ऐम नहीं कि बस नेतागिरी माटे आशीर्वाद ले जाउं, चेयरमेन बने हूँ, गोपालक बॉडी एम् थेऊ, तेम थेऊ | अरे हुने तो काडवाणु छे | इस हूं को तो मिटाना है |

तो शिबी साल भर भिक्षा माँगा |

गुरु ने पूछा – अब क्या ख्याल है ? जाओ घर !

नहीं मालिक !  ये गुलाम आपके कदमों में बिका है !

बोले – अच्छा तो ऐसा करो गाँव में जाओ, जहाँ गंदगी हो सफाई करो |

वो जमाने में पक्की सड़कें नहीं होती थी | सफाई करता रहा |

तीसरा साल हुआ, कोई अवसर पाकर पूछा जुनेद ने – तो अब क्या चाहते हो ?

बोले महाराज आपकी रेहमत चाहिए इस गुलाम को ! नेक अल्लाह-ताला की बंदगी मिल जाये, शांति मिल जाये !

बोले – अभी गुलाम है और बन्दगी चाहता है | अल्लाह से ये मिल जाये, वो मिल जाये अभी कुछ बनना चाहता है गुलाम | जाओ,  फिर से भिक्षा मांगो |

भिक्षा मांगता,  ले आता | वो बाँट देते भीखमंगों को | बच जाता थोडा बहुत उसके हवाले कर देते |

चौथा साल पूरा हुआ, बोले – बोल शिबी क्या चाहता है ?

शिबी की आँखों से खबर आ रही थी | हृदय शांत था, कंठ भरा था |

क्या चाहिए ?

मालिक, मैं था तो सोचता था कि ये चाहिए, वो चाहिए | लेकिन अब देखता हूँ कि मैं,मैं, खोजता हूँ कि मैं कौन हूँ और क्या चाहूँ ? तो आपकी रेहमत से लगता है कि मैं नाहक से बन बैठा था | अब तो मालिक आप ही आप हैं |

वो शिबी की भाषा नहीं थी, शिबी की शांति, शिबी की ईश्वरीय विश्रांति मानो महाराज के चित्‍त को छलका दिया |

बोले – शिबी अब तू अपने को क्या मानता है और क्या चाहता है ?

कभी-कभी ऐसी कथाएं सुनकर चलते पुर्जे साधक भी गुरु के आगे वही भाषा बोल देते हैं | महाराज मैं तो कुछ भी नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं | वो बात अलग है और हृदयपूर्वक अपना अहम मिटा देना वो अलग बात है | सुनी-सुनाई बात गुरु के आगे रख देना ये तो एक बेईमानी है लेकिन अपने अंत:करण की स्थिति का साफ़-सुथरा और ईमानदारी से जल्दी बयान करना ये बात अलग है |

गुरूजी बुलाते – कौन हो ? तो लम्बा पड़ गया, सो गया |

अरे मूर्ख ! गुरूजी पूछ रहे हैं और तू सो गया, लम्बा पड गया | गुरूजी पूछते हैं कुछ तो जैसा प्रश्न हो उसका उत्तर होना चाहिए |

तुम क्या चाहते हो ? कि बापूजी मैं फलानी जगह से आया हूँ | बापूजी ने पुछा क्या चाहते हो ? फलानी जगह से आया हूँ |

तो जैसा प्रश्न हो और पूछने वाले गुरु को उत्तर समझ में आए उस ढंग से सच्चाई से देना चाहिए |

शिबी में ये सद्गुण आ गया था |

चतुर बनने की जो जीव की आदत होती है ना | जीव, अहंकार की आदत होती है अच्छा दिखने का, दूसरे को प्रभावित करने का, ये अहंकार की आदत होती है | और जब तक ये अहंकार है, तब तक उसकी आदत है, और जब तक उसकी आदत है, तब तक माया है |

आदि शंकराचार्य ने कहा ‘नास्ति अविद्या मनसो अतिरिक्‍ता, मन ऐव अविद्या भव बंध हेतु’

तो कई विद्वान, कई कथाकार, कई रट-रटा के, लिख-लिखा के, भाषण ठोक के पूजवाने में तो लग जाते हैं लेकिन प्रभु पाना अलग बात है, कथाकार होना, सत्संग करना, लोगों को मजा आ जाये ऐसा तैयार हो जाना, लोगों का चमचा बन जाना, लोकानुरंजन करना परमार्थ नहीं है | लोकों में नाम हो जाये ये परमार्थ नहीं है, वह तो ईश्वर से दूर है ज्यादा |

शिबी ईश्वर के करीब पहुँच गया था |

अब क्या चाहता है ?

अच्छा अब तू अपने को क्या मानता है, ये बता दे ?

बोले मालिक जो धरती पर छोटे से छोटे भिखमँगे हैं, नीच से नीच व्यक्ति हैं दिखने में | उनसे भी मैं गया-बीता हूँ | लेकिन वह शब्द नहीं थे, अपने अहंकार को विलय करने की एक अवस्था थी |

गौरांग पहले तो शास्त्रार्थ करते और दूसरों को हराने में मजा मानते थे | मैं कुछ विद्वान हूँ | अच्छे-अच्छे विद्वानों को ‘बां’ बुलाने में उन्हें मजा आती थी | मजा-खपे-मजा, बड़े-बड़े पंडितों को अपनी बुद्धिमत्ता से हरा देते, उन्हें मजा आती थी | लेकिन जब भगवत भक्ति का रंग लगा और अहं गला फिर कोई पूछता कि हमारे से शास्त्रार्थ करो तो उसके चरणों पर माथा टेकते कि बाबा आप तो श्री कृष्ण की भक्ति में डूबे हैं और मेरे पर भी कृपा करें | गौरांग आप तो बड़ों-बड़ों को हरा देते थे | इनके सामने शास्त्रार्थ करने के बदले उनके चरणों पर गिर जाते हैं |

बोले हाँ !

ऐसा भी नहीं बोलते के पहले नासमझी थी, अब मैं समझ गया हूँ | अब मैं समझ गया हूँ तभी भी अहंकार है | पहले मैं अहंकारी था, अब समझ गया हूँ, निर्हंकार हूँ | निर्हंकार होने का भी तो अहंकार है | बड़ा सूक्ष्म, बड़ा विलक्षण  है ये अहंकार | क्या-क्या रूप लेता है | क्या-क्या करवटे लेता है | पहले संसारी था तो अभी त्यागी बन गया | पहले भोगी था तो अभी त्यागी बन गया | पहले ग्ृहस्थ है तो अभी साधु बन गया, भिक्षुक बन गया | पहले साधारण था तो अभी सत्संग करने वाला बन गया | अपने फोटो आ रहे है, अपना नाम आ रहा है | माया की खाई में मरा तू तो |

इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं “विमूढानानुपश्यन्ति”, जो मेरी माया में विमूढ़ हुए वे मुझ चैतन्य स्वरूप परमात्मा को पूरा नहीं जानते | “पश्यन्ति ज्ञान चक्षुसः अज्ञानेन आवृतम ज्ञानं ते न मोहंती जन्तवा” | अज्ञान से जिनका ज्ञान आवृत हो गया, वे मोहित हो जाते हैं |

रामकृष्ण परमहंस छोटी बस्ती में जाते, हरिजनों की बस्ती में जाते | कोई ऐसा न कहे कि‍ ये ठाकुर हैं, पुजारी हैं, पवित्र हैं | मैं पवित्र हूँ दूसरे अपवित्र हैं, माँ ये क्या ? मैं ब्राह्मण और दूसरे शूद्र हैं, माँ ये कैसा मैं देखता हूँ ? तो हरिजनों की बस्ती में, छोटे लोगों की बस्ती में जाते | वहाँ झाड़ू-बुहारी करते, साफ़-सफाई करते | किसी ने एक बार पूछ ही लिया रामकृष्ण से कि आप ये क्यों करते हैं ? बोले मैं माँ का पुजारी हूँ तो ये कौन हैं ? ये भी तो माँ के बच्चे हैं | मेरे को ऐसा कभी आता है कि मैं अच्छा हूँ !  मैं अच्छा !

ये रामकृष्ण देव को अथवा गौरांग को या राजा भर्तृहरि को अहंकार ने खेल खिलाया ऐसी बात नहीं, सभी को खेल खिलाता है | अहंकार बडे खेल खिलाता है |

हमारे को भी होता था के हम ने आज तक घर तो छोड़ा, लेकिन दान का नहीं खाते, जो पैसे ले आये उसी का गुजारा करते है और अपना खाते हैं  और भजन करते हैं,लोगों को सत्संग सुनाते हैं | लोगों की दी हुई चीज-वस्तु-प्रसादी भी उन्हें ही बाँट देते हैं | फिर कान पकड़ा, २-४ ठोकी अपने को मैंने | अपना अभी तक मौजूद है | तो जो कुछ, शादी के बाद तुरंत चले थे तो अंगूठी-वंगुठी जो कुछ थोडा-बहुत चैन-वैन थी, पड़ी थी, उसको कर दिया स्वाहा | और एकदम, अपना-अपना जो वस्तु थी उनको कर दिया भंडारा | अब क्या अपना खायेगा ? तो डीसा की सोसाइटी में भिक्षा मांगने गये | तो पहले द्वार पर, पहली बोणी करने गये | जाते-जाते बड़ा संकोच हुआ | आज तक तो मान बैठे थे अपने तो साधु हैं, अपने तो सब कुछ छोड़ के आये हैं | अपने को तो मान-अपमान कुछ भी नहीं है | लेकिन जब भिक्षा मांगने को किसी के द्वार पर खड़े हुए और माई ने सुनाई दो –चार तब पता चला के अपने गये नहीं, अपन मौजूद हैं | अपने अभी गये नहीं, मौजूद हैं अपन | और भगवान ने ऐसी कृपा की के पहले बोणी पर माई के द्वार गये | कैसे जाऊं भीख मांगने, कैसे जाऊं, कैसे जाऊं | भूख तो लगी है, अपना-अपना जो था वह तो बाँट दिया | अब भिक्षा मांगें | बड़े-बड़े राजे-महाराजे भिक्षा मांगने जाते थे, चलो अपन भी जाए | जाऊं ना जाऊं, चप्पल पहने, उतारे, पहने उतारें | आखिर पक्का मन करके निकल पड़े, दो  बज गये | किसी माई के घर में वैसे ही किसी कारण से गरीबी थी क्या थी, वो पड़ोस से आटा लेकर रोटी बना रही थी दो बजे | अब पहला फुलका निकला, तैयार हो रहा था, हम पहुंचे नारायण हरि |

माई को पता नहीं के ये सिंधी बाबा है, माई सिंधी थी |

हमने कहा नारायण हरि |

तो माई ने सुना दी गाली के मोह हेडो साडो गाडो-गिठ्ठ , अखिन में थी आई पहेरो फूलके दे जी तुमची बीथो आहे, हाँ वठ मुआ | ये ले मुआ वठ |

माई को पता नहींं कि सिन्धी भाषा हम जानते हैं | इतना लाल मुँह जैसा और पहली रोटी पर कैसे आकर धमका ! कैसे आँखों में आ गयी इसको पहली रोटी | चल, चल | उस समय तो भाई वो माई की नालत जो बरसी, उस समय तो चोट हुई |

मान बैठे थे के अपने को तो कुछ भी नहीं है | अपने को तो कुछ भी नहीं है | अपने तो आत्मा हैं | सुख-दुःख में सम हैं लेकिन जब अपमान हुआ और चोट हुई तो हमने मन को कहा क्या हाल है ? देख ले मजा | एक रसोईया हो, एक ड्राइवर हो, रुपये-पैसे हों, वाह-वाही हो, उस समय तो सभी ब्रह्म हैं महाराज | क्यों नारायण ? बापूजी के बेटे हैं, बापूजी के बेटे | उसी समय तो सब ब्रह्मज्ञानी हो ही जाते हैं लेकिन विपरीत अवस्थाएं आयें और तब समता बनी रहे वह कुछ अलग बात है |

फिर दूसरे दिन गये तो लोगों में एक दूसरे में काना-फूसी हुई | अरे ये तो लीलाशाह बापू के आश्रम में जो रहते वही महाराज हैं | दूसरे दिन तो लोग कोई खीर बना के तैयार, कोई मालपुआ, कोई कुछ | तीसरे दिन भी यही हुआ | फिर तो बड़ा करमंडल भर देते थे | रास्ते में भिखारियों को बांटते-बांटते थोड़ा-सा अपने लिए रख लेते | फिर देखा के अब इस में भी वाह-वाही हो रही है के ये तो बड़े त्यागी हैं, भिखारियों को बाँट देते हैं, थोड़ा-सा खाते हैं | फिर वह भी छोड़ा |

क्या-क्या खेल करने पड़े | ऐसी-ऐसी अनजानी जगह जाते के लोग हुड़-दूत करें | जरा सुना दें | तब देखें |

ऐ बाबा इधर आ जा, रख दिया गले पर धारिया, बोले- खेंचू-खेंचू | बाबा का बच्चा | तेरी मर्जी पूर्ण हो प्रभु | उसका धारिया गिर पड़ा, वो पैरों में आ गया | मैने कहा चलो, अपन खिसक गये |

तो रामकृष्ण ऐसी बस्तियों में जाते झाड़ू-बुहारी करते | उनका मैला-गंदा उठाते-करते |

गौरांग पहले शास्त्रार्थ करते और विजयी होते, मजा आता लेकिन जब थोड़ी अाध्यात्मिकता का रस मिला तो जो लोग शास्त्रार्थ करने आते तो उनको हाथ जोड़ते, भैया गोविन्द-गोविन्द जपो, कृष्ण-कृष्ण कहो, शास्त्रार्थ क्या करना ? गौरांग  आप ऐसे करते हैं ? बोले प्रभु क्षमा करें |

तो ऐसे ही शिबी की हालत फकीर जुनेद ने देखी कि ईश्वर के रास्ते का राही है|

जो गुरु के द्वार आते हैं कुछ सीख के कुछ बनना चाहते हैं, उपदेशक बनना चाहते हैं, वो तो सांपोलिया भी बैठा है |

बापू नी कृपा ती बहु लोगो थया, बहु नाम थयु, बहु फलाणु थयु,  ये सब अलग बात हैं और ईश्वर की प्रीति के लिए अपने अहम को बलि देना, अपने अहम को ठीक ढंग से विसर्जित करना ये सबके बस की बात नहीं है |

आहे गाल अल-विल्डी स्वामी शुद्ध सरूप जी सयाणा समझन किन की थोड़ी मजलस कन मिडि | बड़ी अल-विल्डी, बड़ी अलबेली बात है, बड़ी आश्चर्यकारक बात है | वह ईश्वर हाजरा-हजूर है लेकिन अहंकार उससे मिलने ही नहीं देता | मैं पापी हूँ ये भी अहंकार और मैं पुण्यात्मा हूँ ये भी अहंकार है | मैं भक्त हूँ ये भी अहंकार है और मैं योगी हूँ ये भी अहंकार है | मैं सदाचारी हूँ ये भी अहंकार है और मैं दुराचारी हूँ ये भी अहंकार है | बहुत सूक्ष्म मामला है | तुम क्या जानो मैंने तो १२-१२ साल के ३ मौन व्रत रखे |दुनिया लुडी क्या जाने | ये भी अहंकार है | क्या करूं मैं तो कुछ नहीं कर सकता हूँ,  ये भी अहंकार है |

अहंकार क्या-क्या रूप ले बैठता है |

जेल में कैदी बैठा है वह भी, नया कैदी घुसता है, जेलर उसको बरामदे में |

ऐ, पुराना कैदी पूछता है नये से, क्यों बे, कितने साल की सजा है ?

बोले छह महीने की |

ऐ, छह महीने वाले तू हमारे साथ, हम २० साल से, १२ साल से रह रहे हैं | बरामदे में लगा, बरामदे में, अपनी चटाई | दो दिन का मेहमान आया है छह महीने | हमको तो १२ साल हो गये यहाँ | अभी ६ साल और रहने वाले हैं | अरे देख रे खलीफा देख बड़ा आया | क्या किया था ? तोड़ी होगी किसी की अंगुली, हमने तो ३ मर्डर किये |

३ मर्डर करने का भी अहंकार ! १८ साल सजा भोगने का भी अहंकार | अहंकार क्या-क्या रूप लेता है ? अकेले में पूजा-पाठ करते हैं तो ऐज रूटीन हो जाता है लेकिन घर में कोई धार्मिक मेहमान आया तो अहंकार खेल करेगा पूजा बढ़ जाएगी  और कोई नास्तिक आदमी आया तो अहंकार खेल करेगा पूजा को घटा लेगा | बिलकुल सीधी बात है | जय रामजी की |

आप रिक्शा चलाते हैं, गाड़ी चलाते हैं, ऑटो-रिक्शा चलाते हैं, अथवा बैल-गाड़ी चलाते हैं | अपने ढंग से कोई देखने वाला नहीं है तो अलग ढंग से चलाते हैं |

जब गाँव में घुसता है बैल-गाड़ी वाला तो बैलों को दौड़ता है, उसकी पुूंछ | बैल-गाड़ी भी चलाने में भी कोई देखे तो अच्छा लगता है | अपन को अच्छा |

वो घंटी बजाने का भी, हॉर्न बजाने का भी अहंकार, कुछ परिचित, पहचान वाले मिले तो रिक्शा वाला धत्‍तड़-तत्‍तड़तत्‍त धत्‍तड़ धत्‍तड़धा….. | अरे चार पैसे की रिक्शा और वह भी किराये की, उसमें भी अहंकार | कहता है कि हम भी कुछ तो हैं | बड़ा विलक्षण है, बड़ा विचित्र है |

‘देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्‍यया’

भगवान की नजर में जो दुरत्‍यया है वो दूसरों की क्या बात कहें !

ये माम प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते |

कबीरजी ने कहा ‘चलो चलो सब को कहे’

चलो भाई संसार में कोई सार नहीं ईश्वर की तरफ चलो, चलो |

चलो, चलो सबको कहे, विरला पहुंचे कोय |

माया, कामिनी, बीचे घाटी दोय  |

रुपये-पैसे मिल गये अथवा तो कोई ही-ही, हूँ,हूँ करने वाली कोई चमचियां-चमचे मिल गये, उसी में उलझ गये |

गये थे हरि भजन को ओटन लागे कपास

चले थे ईश्वर प्राप्ति के लिए लेकिन बन गये मठाधीश, बन गये कुछ, बन गये … | नेम-टेम से अपना पूजा, आरती होती है, खाते हैं, यह-वह, भगत-जगत है, मान बढ़े छे |

अपणा नाम नु बोर्ड लागेलु छे , आपणे आफिस छे …… मजा | फलाना वैद्यराज, मजा आयो, हश | एटला मजे में सब |

चलो-चलो सब को कहे, विरला पहुँचे कोई |

माया, कामिनी बीच घाटी दोय ||

या तो रुपये-पैसे की लालच या तो फिर स्त्री-पुरुष के आकर्षण में फंस जायेगा | हिम्मत करे, उससे, उस आकर्षण से बाहर निकल जाये |

बोले माया तजना सहेज है, सहेज नारी का नेह |

दो आकर्षणों से निकल भी गया, तो बाकी के आकर्षण है मान, बढाई और इर्ष्‍या |

मान – मान की अंदर जो प्यास है, मान मिले | नेता उद्घाटन करने गया कोई फलाना आदमी इसका उद्घाटन, ये क्या है ? मान ही तो भटकाता है | यहाँ ईंट रखने गये, यहाँ ये करने गये, यहाँ ये अनावरण विधि करने गये | ये मान की वासना ही तो भटकाती है | मान, बढ़ाई, ईर्ष्या

मान, बढ़ाई, ईर्ष्या दुर्लभ तजना ऐह |

पहले के जमाने में सचमुच में ईश्वर के रास्ते जाने वाले लोग मिलते थे तो गुरूजी गढ़ाई के लिए उनको सचमुच इलाज देते थे | अब ईश्वर के रास्ते जाने वाले सच्चे साधक ही नहीं मिलते तो चेले भी कच्चे मिलते तो अपना पाठ भी कच्चे हैं | तुसी भी कच्चे तो पाठ भी कच्चे, चलता रहे कभी तो पक्का होगा | नहीं तो ईमानदारी से चलने वाला हो तो गुरु एक से एक बढ़िया कोर्स देकर पार कर दे, फटाक से | लेकिन इतनी हिम्मत ही नहीं है किसी की | पुचकार के चलाना पड़ता है | पुचकार के, वाह भाई वाह, ठीक है | पुचकार के | मनपसंद काम तो कुत्ता भी कर लेता है, पुंछ्ड़ी हिला देता है |

आपका अहंकार है और मन के दास हो, आप माया के दास हो | इसीलिए भगवान की भक्ति करते समय प्रार्थना करना पड़ता है कि‍  भगवान तू ही रक्षा कर, तेरी प्रीति दे | भगवान की प्रीति अहंकार की प्रीति मिटा दे और क्या करें ? भगवान का ज्ञान सुने ताकि अहम का, अपना जो घुस बैठा है, मैं विद्वान हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, मैं वैसा, मैं, मैं, मैं, अरे मूर्ख ! तू सोच तो सही एक पानी की बूंद से तो तेरी यात्रा शुरू हुई, और राख की मुट्ठी में तो तेरे शरीर की यात्रा पूरी हो जाएगी | इसमें मैं, मैं क्या लेकर घूमता है ?

भगवान बुद्ध के चरणों में कोई साधु होने को जाता अथवा शांति पाने को जाता तो बुद्ध कहते अच्छा भिक्षुक बनना है ? ३ महीने श्मशान में जाकर रहो | सादृश्य योग करो – जब भी  कोई मुर्दा जले तो अपने मन को बताओ कि‍ ये मानो मेरा ही शरीर है | उसका आज जल रहा है तो कल ये जलेगा | आँखें सुंदर है, नाक बढ़िया है, वो सब ऐसे ही हो रहा है | रोज बॉडी को देखते, सजाते आईना देखते, उसकी ये हालत हो रही है | मुर्दा जले तो उसके साथ सादृश्यता करो | सादृश्य योग नाम दिया बुद्ध ने ताकि फिर ये ना रहे के मेरी दाढ़ी बढ़िया है, मेरी मूँछें बढ़िया है अथवा मैंने मुंडन करवाया, टाल बढ़िया है |

आज मैं कैसा लगता हूँ ? मैं यह हो गया हूँ, मैं वह हो गया हूँ | ये जो जीवत्व का अहम है, ये ईश्वर का अनुभव नहीं हुआ तब तक बाधित होता ही नहीं | डर किसको लगता है ? आत्मा को लगता है कि‍ शरीर को लगता है | डर अहम को लगता है | चिन्‍ता किसको होती है ? आत्मा को होती है कि शरीर को होती है ? अहम को होती है | कुछ ऐसा हो जाये, वैसा हो जाये, कौन चाहता है ? शरीर चाहता है कि आत्मा चाहता है ? अहम चाहता है | बहुत अच्छा लगा आत्मा को लगा कि  अहम को, शरीर को लगा? अहम को | बेकार हो गया, मजा नहीं आया | ये आत्मा को मजा नहीं आया, कि‍ शरीर को मजा नहीं आया ? अहम को | और अहम को इतना सजाने की अटकल है, सुरक्षित रखने की के चाहे गुरु हो, चाहे शिष्य हो, कुछ भी जैसे भी अपने अहम को मजा आये ऐसा सेटिंग करके गुरु के आगे पेश हो जायेंगे और सब कुछ करो लेकिन इसको मत तोड़ो, यही तो हम हैं | और सब कुछ करो, लेकिन इस अहम को मत तोड़ो, क्योंकि यही तो बने बैठे हैं अपन |

तो राज्‍य के राज्‍यपाल किटागाती, संत मेजी के दर्शन करने  गये |

अपने लेटरपैड पर संदेशा भेजा कि मैं राज्‍यपाल आपसे मिलना चाहता हूँ |

संत मेजी ने उत्तर दिया के I have no time, मेरे पास कोई टाइम नहीं है |

राज्‍यपाल, गवर्नर और संत के द्वार मिलने गया | और संत ने कहा हमारे पास टाइम नहीं है, नहीं मिलना |

ऐसी जोरों की थप्पड़ लगी अहंकार को कि आग-बबूला हो गया लेकिन आदमी कुछ अध्यात्मिक रहा होगा | सोचा कि संत ने मिलने को इनकार कर दिया क्या करें ? फिर समझ में आया कि मैंने अपने राज्‍यपाल होने का परिचय दिया | सॉरी – सॉरी, फिर दीन वाणी में लिखा कि मैं आपका दास, सेवक, चरणों में सिर झुकाने की प्रार्थना – सम्मति चाहता हूँ | excuse me, कृपा करके मुझे अपने दर्शन से पावन करें |

उनका शिष्य था क्योची | क्योची जब ले गया वह चिट्ठी नम्रता भरी ।  मेजी ने कहा I want to meet him. मैं इससे मिलना चाहता हूँ | बुलाओ, बुलाओ welcome, welcome. सवा घंटा क्यूटो राज्‍य का राज्‍यपाल संत मेजी के चरणों में बैठा |

जब बाहर आया तो पूछने वालों ने पूछ ही लिया | तो राज्‍यपाल ने कहा,  जापान के राजपाल ने कहा – कि धर्म का पहला पाठ श्रद्धा और नम्रता मेरे को सीखने को मिली | और वो अपने जीवन में श्रद्धा और नम्रता के सद्गुण से इतना प्रसिद्ध हुआ कि अभी भी अध्यात्मिक जगत में उसका दृष्टांत संत लोग दे देते हैं |

तो अहम तो है, ये तो बड़ा खतरा करता है | लेकिन एक श्रद्धा और नम्रता सद्गुण है जो जीवात्मा को ले चल रहा है ईश्वर की तरफ | धीरे-धीरे अहम गलेगा नम्रता है तो | इसीलिए तो मूर्तियाँ बनी | आटे का गोल पिंड बना दिया फिर गणपति की आकृति कर दी | गुड़ का बना दिया, दिन भर उसके आगे मथा टेका, झुके | क्यों, अहंकार को झुकाने के लिए ही तो है | ये झुले लाल का, गणपति का या शिवजी का या और देवी-देवताओं के फोटो या चित्र हैं उनको दंडवत करना है, प्रणाम करना है, ये क्या है ? ये सारे का सारा अहंकार को गलाने की व्यवस्था है | अगर आप अहंकार गलाने के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनाते हैं, नाचते हैं, गाते हैं और बाद में गणेश चतुर्थी से चलकर पूनम तक फिर उसी गणपति की मूर्ति पानी में बहा देते हैं, कोई नाराज नहीं होते हैं भगवान | आप का अहंकार गलता है तो हमारी मूर्ति बना के बिगाड़ दो, कोई हरकत नहीं, तुम्हारा अहंकार गले बस | खूब पैसे कमाउं ।  आत्मा चाहता है कि शरीर चाहता है खूब पैसे कमाना ? ऐसी कौन सी चीज है कि जो आत्मा की नहीं है, परमात्मा की नहीं है ? शरीर तो जड़ है, तो परमात्मा पैसा कमाना नहीं चाहता है | अहंकार पैसा कमाना चाहता है | अहंकार में ही वासनाएं होती है | अच्छा दिखना भी अहंकार चाहता है | बुरा होने का भी अहंकार को ही खटका है अथवा अहंकार है | मैं तो दुखी, मां तो दुखी थी वयो साईं, वो अहंकार दुखी थियो हे | छा कर्यां – छा ना कर्यां मुखे तको समझ में न थो अचे, छोरो चयो न थो मने, मा छा कर्या सदी उम्र ? मैंने सारी उम्र ऐसा किया है, ये भी तो अहंकार बोलता है |

त्यागी इतने त्यागी महाराज कि क्या कहें ? उनके त्याग की महाराज अद्भुत महिमा है | इतना बड़ा राज-पाठ सब छोड़कर चले गये, राज्य के एक दूर जंगल में और कुटिया नहीं बनाई, गुफा में रहते | और वह राजा साहब इतने उच्च कोटि के त्यागी महात्मा बने रहे कि महाराज क्या बताएं ? २४ घंटे में एक बार गुफा से बाहर आते, सिर नीचे रखते, नासाग्र दृष्टि रखते हैं | अलख निरंजन, २-४ घर घूमते | भिक्षा मिली फिर अपनी गुफा में चले जाते | वे भले उनके प्रभु भले | २४ घंटे के बाद फिर एक बार निकलते | कुछ नहीं खाते रूखे-सूखे के सिवाय |

मछेंद्रनाथ ने कहा नहीं बहुत कुछ खाते हैं | बोले नहीं-नहीं महाराज | बोले त्यागी हैं, त्यागी हैं, त्यागी हैं, महाराज कुछ नहीं खाते, त्यागी हैं – इस प्रकार के यश को खूब खाते हैं | हम देखेंगें ।

मछेंद्रनाथ ने देखा भूतपूर्व राजा अब विरक्त त्यागी | मैं कुछ भी नहीं हूँ, एक छोटी सी कौपीन थी बस | जरा सा अंगोछा – लोक लज्जा निवारणार्थ लपेट लिया | अब भिक्षा लेकर जा रहे थे | मछेंद्रनाथ धीरे-धीरे उनके पीछे लगे | चलते-चलते मछेंद्रनाथ ने उनको जरा धक्का मार दिया | महाराज ने कहा तुम साधु होकर भी ऐसा करते हो ! देखकर नहीं चलते हो | अगर कुछ महीने पहले तुम ऐसे अंधे होते तो तुमको पता चल जाता कि तुमने किसको टक्कर मारी | लेकिन अब क्या करूं ? मैं त्यागी हो गया हूँ | मैं जब राजा था, उस समय तुम इतनी हिम्मत नहीं कर सकते थे |

मछेंद्रनाथ ने कहा अभी भी वही राजा बैठा है | अभी भी बैठा है |

नहीं नहीं, महाराज गलती हो गयी, गलती हो गयी |

ठीक ! २-४ दिन के बाद मछेंद्रनाथ फिर चले और धक्का मारा |

बोले महाराज अब धक्का मार के तुम मेरे को क्रोधी नहीं बना सकते | अब मैं समझ गया हूँ, आपको मैं पहचान गया हूँ | आप मेरे को क्रोध दिलाना चाहते हैं | मेरे को अब क्रोध नहीं आता |

मछेंद्रनाथ ने कहा बेटा क्रोध नहीं आता, अभी जिसको क्रोध नहीं आता वह मौजूद है, अभी वह मरा नहीं, तब तक ईश्वर का अनुभव नहीं होगा |

आप अगर उस अहंकार को ईश्वर में मिलाने, मिटाने के लिये तैयार नहीं होते हैं तो गुरु कितना कुछ उपदेश करे, कितनी कुछ शक्तिपात करे, कितना कुछ कृपा करे, प्यार करे, लेकिन काम कुछ न कुछ अधूरा रह जाता है | अपनी और से अपने अहम को मिटाने के लिए तुलना पड़ता है |

तो साल भर जाओ भिक्षा मांगो | भिक्षा मांग के आया, फिर गुरु ने देखा कि अभी है | साल भर जाओ उन झाड़ियों में झाड़ू-बुहारी निकालो | वह निकाला | जाओ साल भर गंधक बेचो | गंधक बेचे, फेरी, गंधक लो, गंधक | और जो पैसे आये वह बाँटे |

आखिर ४ साल ये किया तब कहीं वह अहंकार पकड़ में आया कि ये तो सब अहंकार है  | फिर विश्रांति मिली, परमात्मा प्राप्ति हुई |

तो हमारे और भगवान के बीच अहंकार ही तो है जीवत्व का | और उस अहंकार में ही वासनाएं भरी हैं |

मेरे पास इतनी डिग्रियाँ हैं | है बुद्धि की योग्यता और अहंकार कहता है मैं वकील हूँ, मैं डॉक्टर हूँ, मेरी ये डिग्री है | अब अनंत ब्रह्मांड नायक ईश्वर के साथ तुम एक हो सकते हो इतनी योग्यता, लेकिन अहंकार ने दायरा बना दिया कि मैं वकील हूँ, मैं डॉक्टर हूँ, मैं महंत हूँ, मैं साईंं हूँ | ईश्वर से आप अलग दीवाल बना के खड़े हैं |

ध्यान, भजन, पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन इसको ईश्वर में विलय करना है ये बात में राजी नहीं होते | इसीलिए सारी पूजा, पाठ, ध्यान, भजन अल्प फल देकर शांत हो जाते हैं | महान फल ईश्वर प्राप्ति का अहंकार मिटाये बिना नहीं होता |

कुछ अनुकूल होए, गुरूजी प्रसन्न होयें, तो मजा आया, गुरुजी ने आँख जरा सा कड़ी किया तो घबराए अथवा तो चिड गये | ये अहंकार को ही तो होता है | जितना अहंकार कड़ा होता है उतना ही गुरू को सम्भल के व्यवहार करना पड़ता है क्या पता क्या उल्टा ले ? कैसे रूठ जाए, कहीं गिर ना जाए |

शिष्य तो उत्तम ऐसा है कि जैसे गुरु को अपना हाथ, पैरों से या अपने वस्त्रों से पूछना नहीं पड़ता कि तुमको कैसे रखे ? ऐसे ही शिष्य के आगे गुरु को छलकने का मजा आता है | गुरु को तो पूछना पड़ता है कि मानेगा कि नहीं मानेगा, करेगा कि नहीं करेगा | इतना छोटा बालक है वह | अहंकार के वश है क्या पता नहीं मानेगा ?

ये तो सच्चा, समर्थ सद्गुरु हो और ईश्वर प्राप्ति की लग्न हो तो देर किस बात की है ?ि‍ ईश्वर प्राप्ति की लग्न लगने नहीं देता अहंकार | कुछ बनने की मुसीबत है उसे | बना रहूँ और साधन-भजन करते-करते ध्यान की ऐसी ऊँचाई आती है उस समय डर लग जाता है | किसको डर लगता है कि अहंकार मरने को होता है तो डर लगता है उसको | साधना छोड़ देते हैं |

राजा भर्तृहरि, बड़ा इतना सारा राज था | गोरखनाथ के चरणों में फक्कड़ बन गया, भिक्षा मांगते, रोटी |

एक जगह जलेबी हो रही थी ।

महाराज, थोड़ी जलेबी दे दे |

चल रे, बड़ा आया साधु का बच्चा, जलेबी खाने का शौक नहीं गया | जलेबी खाना है तो वहाँ मजदूरी काम हो रहा है | जा मजदूरी कर |

राजा भर्तृहरि मजदूरी करने गये | दिन भर मजदूरी किया | २ आना मिला |

२ आने की सेर भर जलेबी ली | एक हाथ में जलेबी |

सेर भर मतलब किलो, ८० तोला, ८६ तोले का १ किलो, ८० तोले का सेर था |

आज भी दिन भर कोई मजूरी करे तो एक किलो जलेबी तो कमाएगा और क्या करेगा ? ले गये तालाब के किनारे कि अभी तू मन मेरे को स्वाद का गुलाम बनाया | जलेबी खाने का स्वाद, जलेबी का रस गया नहीं | जिह्वा को कितने ही रस दिलाये, जो जिह्वा जल जाने वाली है उसी के रस में भगा रहा है तू मेरे को,  मेरे अहंकार, मेरे मन ! ले खा जलेबी | एक हाथ में जलेबी दुसरे हाथ में गोबर का कौर | ले खा, खा, खा, खा, खा । मन को लटकाते-लटकाते जलेबी फेंक दे पानी में और गोबर का कौर डाल दे मुंह में |

ऐ ! अरे ले खा | सारी जलेबियाँ पानी में चली गयी, एक आखरी बची |

मन कहता है अब तो भूख लगी है इतना तो खाने दो |

बोले अभी तक तू नहीं गया |

क्या करें, देर हो गयी, भिक्षा मांगेंगें, कुछ मिलेगा नहीं, इतनी तो खाने दो |

धडाक से फिर ठोकी ले खा | मन तौबा पुकार गया |

विलय हुआ अहम और निर्ममो, निरहंकार ऊँचाई को प्राप्त हो गया | महाराज भर्तृहरि हो गये | कई राजा हो गये उनकी इतनी कीमत नही जितनी भर्तृहरि की महानता गाई जाती है |

अहंकार मिटाना बड़ा ऊँचा काम है | अहंकार मिट गया तो ईश्वर हो गया और क्या है | अपर ईश्वर माना जाता है वह योगी |

हां दूसरे योगी हैं जिनको रिद्धि-सिद्धियाँ आती हैं लेकिन व्यक्ति का व्यक्ति विशेषत्व नहीं मिटा वह तो थोड़े दिन चमक करके ठूस हो जायेगी  | मुक्ति-वुक्ति नहीं होती उनकी | यह कर सकते हैं, वह कर सकते हैं | विश्वामित्र ने क्या-क्या किया | बाजरा बना लिया , अपना ज्वार बना लिया, मक्का बना लिया | ब्रह्माजी ने गेहूँ बनाई, चावल बनाई तो हमने बाजरा बना लिया | लेकिन विश्वामित्र अभी भी व्यक्तित्व में हैं | ब्रह्म ऋषि भी कहलाने के लायक  नहीं रहे | जब उंचाई को छूआ तब लगा कि हत तेरी की, अपना नाम करूं दुनिया में ये कौन चाहता है ? अहंकार, थोपा हुआ नाम है | नाम रखा गोविन्द,  गोविन्द की जगह पर जुगलू नाम रखते तो | जुगलू का नाम करूं | अपना नाम करूं ये भी अहंकार है और यह अहंकार बनता है तो उनका नाम टिकता भी नहीं | जब तक ये अहंकार बना रहा ऐसे लोगों का नाम टिकता ही नहीं, चाहे बड़े-बड़े मकानों पर, अस्पतालों पर अपना नाम ठोक के चले जाये लेकिन ज्‍यादा टिकेगा नहीं | ५,२५,साल १०० साल रहा फिर गायब | लेकिन बुद्ध का, महावीर का, कबीर का, नानकजी का, मीरा का औरों का जिनका अहंकार पूरा मिटा वे पुरे यशस्वी हो गये, लेकिन उनकी नजर में यश-वश सब | ये तुम्हारी दुनिया है, वह महापुरुषों की दुनिया निराली होती है |

एक पानी की बूंद पिता की माता का एम.सी. का खून । उससे इतना अपने को जोड़ दिया कि बस,  उसी शरीर को मैं मानते हैं | उसी की तंदुरुस्ती अपनी तंदुरुस्ती उसी की बीमारी अपनी बीमारी, उसी की मौत अपनी मौत मानते हैं | और हैं विद्वान, पढ़े-लिखे, अक्ल वाले | अक्ल मारी गयी | अक्ल का उपयोग ही नहीं हुआ | अक्ल को तो उलझा दिया | सीधी बात है | पिता का एक बूंद और माता का मासिक धर्म । मिक्स हुआ और बॉडी बनी | ऐसे हुआ ना डॉक्टर लोग | उसमें अपने जुड़ गये | और फिर मन और बुद्धि में जो संस्कार पड़े और डिग्रियां मिली तो अपने को मानते हैं हम वकील हैं, हम डॉक्टर हैं, हम संत हैं, हम महंत हैं, हम फलाना हैं | हम क्या हैं ये अहंकार देखने ही नहीं देता है, परतें दर परतें बना कर घूम रहा है |

नानकजी कहते हैं मन तू ज्योति स्वरूप, अपना मूल पिछान | वो संत कहते हैं और उनका वचन पाठ कर लेते हैं | पाठी भी बन जाते, उपदेशक भी बन जाते हैं | क्या-क्या बन जाते हैं | परतें हटने के बदले और नई परतें ओढ़ लेते हैं, चार चढ़ा लेते हैं |

बिल्‍ख का सम्राट, कोई पुण्य उदय हुए थे |

उसकी छत पर एक गेबी आवाज आ रही थी |

इब्राहि‍म ने कहा कौन छत पर दौड़ रहा है ? किसकी जुर्रत हुई है, सम्राट की छत पर जो | बोले हम जरा अपना ऊँट खोज रहे हैं |

बिलख के सम्राट की छत पर और ऊँट खोज रहे हैं ?

ऐ आदमी कोई पागल मालूम होते हो ? मैं बिलख का सम्राट और मेरी छत पर ऊँट खोजने वाला कौन हो तुम ?

बोले इब्राहि‍म औरतों के हाड़-मांस चाटने-चूसने से अगर सुख हो सकता है, तख्त पर बैठकर अहंकार सजाने में अगर सुख हो सकता है, तो सम्राट की छत पर ऊँट भी तो हो सकता है |

ऐसी जोरों की थप्पड़ लगी विवेक की | बिल्‍ख का सम्राट चौंका ! मानो ना मानो ये कोई खुदाई नूर को पाया हुआ फकीर है | तब तक तो वो फकीर रवाना हो गये थे |

सुबह राज-काज में बैठे लेकिन वही बात रिपीट होती रही मस्तिष्‍क में | स्त्री के हाड़-मांस के शरीर से चिपककर अगर सुख टिक सकता है, तख्‍त पर अहंकार सजाने से अगर सुख टिक सकता है, तो सम्राट की छत पर ऊँट भी हो सकता है |

बस राज-काज के काम तो होते थे लेकिन मन में वही बात रिपीट | इतने में वो गेबी आवाज वाला फकीर कोई रूप लेकर आया | आकर टांग पर टांग चढ़ा के बैठ गया | इब्राहि‍म ने कहलवाया कि उनको बोलो कि ये कोई सराया नहीं है, राज-दरबार है, ठीक से बैठो |

फकीर ने पुछवाया कि ये सराया नहीं है ऐसा कैसे कहते हो ? इस राज दरबार में तुम्हारे पहले कोई था कि नहीं था ? बोले हमारे थे, बुजुर्ग थे, उनके पहले बोले दूसरों का राज था | उनके पहले – दूसरों का था |

अच्छा तो आप भी जाओगे यहाँ से तो दूसरों का राज होगा |

बोले हाँ होगा |

तो सराया किसको बोलते हैं ? कई आ-आ के चले गये और जो बैठे हैं वो जाने वाले हैं और दूसरे आयेंगें और वो भी जायेंगें | उसी को तो सराया बोलते हैं |

बोले महाराज तुमने तो हद कर दी | सराया है तो अब तुम्हीं सराए में रहो, हम ये चले |

गजब हो गया, बिल्‍ख का सम्राट, बिल्‍ख का राज्य छोड़कर भारत चला आया | और उसने साधू की दीक्षा ली | जंगल में जाता, लकड़ियाँ करता | ६ पैसे में लकड़ियाँ बिकती | ४ पैसे, ५ पैसे अपने लिए खर्च करता, रोटी और खजूर खाता, कभी १ पैसा कभी २ पैसा बचता | इकट्ठे होते, उन पैसों का वो भंडारा कर देता साधू | बाकी का जो साधन भजन बताया गया करते, लेकिन अंदर में तड़प हुई कि अभी तक अल्लाह नहीं मिलता | अभी तक आत्मा-परमात्मा का अनुभव नहीं होता | क्या बात है ?

ललनाओं के हाड़-मांस में तो सुख नहीं टिक सकता, अहंकार में तो सुख नहीं टिक सकता लेकिन अल्लाह तो सुख स्वरूप है, भगवान तो खुद ही सुख रूप है, नहीं मिलता |

भटकते-भटकते किसी संत के पास गया | संत ने कहा अभी भी तो वो मौजूद है | पहले बिलख का सम्राट था तो अभी अपने पसीने का खाने वाला मौजूद है और अपना पसीने का खाता हूँ बाकी का बचता है वो भंडारा करता हूँ | ये जो भंडारा करने वाला है और पसीने का खाने वाला है वो ही तो अड़चन है ईश्वर के रास्ते, पगले |

तो बोले बाबाजी अब तुम मिटाओ |

बोले भई मेरे बस का नहीं है कोई समर्थ ब्रह्मज्ञानी संत को खोज |

बिलख का सम्राट इब्राहीम खोजते-खोजते-खोजते, अभी बसें हुई | पहले बसें नहीं थी पैदल जाना पड़ता था | हरिद्वार से यात्रा करते-करते, रायवाला | रात रुका, फिर आगे चला ऋषिकेश पहुंचा | वहां से जिसे आजकल अपन लोग ब्रह्मपुरी कहते हैं, वहाँ गुफाएं-गुफाएं थोड़ी बहुत | रामतीर्थ भी रहे थे, वशिष्ठ महाराज भी वहाँ रहे थे | उस इलाके में पहंुचा एक संत के चरणों में |

महाराज सारी बात कह दी कि मैं ऐसा-ऐसा था और ऐसे मेरे को किसी फकीर की रेहमत से झटका लगा | अगर सुख टिक सकता है ललनाओं के हाड़़-मांस में शरीर की तंदुरुस्ती और सजावट में अगर सुख टिक सकता है तो छत पर ऊँट भी टिक सकता है | महाराज गेबी वचनों ने मेरी आँखें खोल दी और फकीरी दी लेकिन अभी अहंकार तो जाता नहीं है | पहले राजा था अब फकीर हूँ | पहले राजमहल में रहता था, सोता था तो अभी कहीं झोपड़ी में सोता हूँ | पहले सोने और चांदी के बर्तनों में खाता था, अभी ठिकर में खाता हूँ लेकिन अहंकार गया नहीं | आप मेरा अहंकार ले लो बाबा |

बाबा ने कहा अहंकार लेना कोई बच्चों का खेल नहीं है |

बोले महाराज बच्चों का खेल तो नहीं है लेकिन जैसे-तैसे भी आप कृपा करिये |

पूरे हृदय की प्रार्थना था, पूरा समर्पण था | ऐसा नहीं कि हाँ साईं वठो मुन्झो अहंकार वठो वडी थोड़ी देर में अहंकार सजा ह्ल्न्दो थयो | ना | ये तो नाटकबाजी है | दिया तो दिया, ऐसे मर्दों का काम होता है हिजड़ों का काम नहीं है अहंकार अर्पण करना गुरुओं को कोई-कोई विरले लाखो-करोड़ों में कोई मिलता है |

महाराज आप ले लो |

अरे तू देगा तब ना | अच्छा जाओ शाम हो गयी, अहंकार देना चाहता है ?

बोले हाँ महाराज ले लो | अच्छा जाओ सुबह आ जाना – भोर में – अमृत वेला |

इब्राहfम चला |

महाराज ने आवाज दी कि अकेला मत आना, उस सुअर को लेते आना |

बोले महाराज किसको ?

जो तुझे भटका रहा है, जिसको तू छोड़ना चाहता है |

महाराज कौन ?

अरे जो तुझे भटका रहा है कि मैं अभी ये हूँ, वो हूँ, वो ही अहंकार, उसको भी ले आना साथ में,  कहींं ऐसा नहीं कि छोड़ के आये |

सोचता है कि हद हो गयी वो भी कहीं छोड़ के आया जाता होगा |

अच्छा महाराज |

रात को थोड़ी सी झपकी ली-ना-ली प्रभात को जाना है, पहुंचे हुए संत के दर्शन उस ईश्वर से और अल्लाह से हमें दूर करने वाला जो अहंकार है वो आज अलविदा लेगा फकीर की रेहमत बरसेगी तब |

प्रभात हुई, पहुँच गया महाराज के यहाँ |

महाराज गुफा से बाहर आये |

अच्छा आ गया

हूँ

बोले शैतान को लाया, उस बदमाश को लाया, जो ईश्वर से दूर, अल्लाह से दूर करता है उसको लाया

हाँ | महाराज लाया हूँ |

कहाँ है – दिखाओ |

बोले महाराज ये तो भीतर ही रहता है | मैं अब खजूर और रोटी खाता हूँ, मैं, मैं, मैं, मैं, वो तो भीतर ही रहता है |

बोले भीतर रहता है तो तू जानता है ना | बैठ, भीतर रहता है तो निकाल साले बदमाश को | और सुन ले जब तक निकाल के यहाँ रखा नहीं तब तक जाने नहीं दूँगा । ये डंडे से खोपड़ी तोड़ दूँगा | फकीर ने अपना कुछ रूप दिखाया |

देखते रह गया |

देखता क्या है ? खोज, खोज, कहाँ रहता है अहंकार | मैं बिलख का सम्राट हूँ, अब मैं साधू हूँ | मैं त्यागी हूँ, मैं अपना खाता हूँ | मैं ये करता हूँ, निकाल उसे बाहर | कौन कहता है ? कौन है – खोज |

फकीर की डांट में करुणा-कृपा भी थी | भूलकर भी ऐसे महापुरुषों का दामन नहीं छोड़ना चाहिए किसी कीमत में | जो ईश्वर प्राप्त महापुरुष हैं किसी कीमत पर उनका दामन नहीं छोड़ना चाहिए लेकिन अहंकार वह दामन छुड़ाने के लिए कुछ का कुछ भिड़ा कर भगा देता है |

जय-जय | खोज-खोज |

खोजते-खोजते-खोजते थोडा़ शांत हो गया | अहंकार खोजने गया, अंतर्मुख हुआ | खोजते-खोजते-खोजते मैं ये हूँ ना मैं वो हूँ, मैं कौन हूँ, मैं कहाँ हूँ ? कहाँ रहता है अहंकार ? जैसे केले की थड़ की पत्तियां खोजते जाओ, खोजते जाओ, प्याज की पतें हटाते हटाते प्याज को खोजते जाओ तो क्या मिलेगा ? केले का थड टिकेगा ? प्याज टिकेगी परतें हटने पर ?

खोजते-खोजते-खोजते-खोजते देखा कि‍ ये तो कपोल-कल्पित अहंकार ने परेशान किया है | सत्ता तो उसी सर्वेश्वर की है | अहंकार बन बैठा है | सत्ता तो शाश्वत मेरे  परमात्मा तत्व की है | ऐसे करते-करते अहंकार की परतें हटी | जैसे लहर, बुलबुले हटते हैं तो पानी में स्‍थति हो गयी । ऐसे ही परमात्मा में स्थिति  हो गयी | निर्विकल्प, निर्ममो, निरहंकार |

वहाँ भगवान सूर्य उदय हुआ है और यहाँ आत्म विश्रांति चहेरे पर ब्रह्म तेज छलका है | महात्मा देखकर समझ गये कि हो गया काम |

आये – उठो बेटा |

इब्राहि‍म ने आँख खोली | महात्मा के चरणों पे गिरे, नेत्रों में धन्यवाद, हर्ष के आँसू थे | चहेरे पर ब्रह्म लक्ष्मी शोभायमान |

इब्राहि‍म, बिल्‍ख के सम्राट, ला, ला उस हरामी को दे दे |

शब्द नहीं हैं लेकिन चेहरा कह रहा है कि महाराज वो है ही नहीं |

दे दे |

वो अवस्था आ गयी जहाँ शब्द नहीं जा सकते |

जय सतगुरु देवन देव वरं

निज भक्तन रक्षण देह धरं |

पर दुःख हरं सुख-शांति करं  |

जहाँ शब्द ना जाय सके

बिना सद्गुरु कौन लखा सके |

उस अलख को लखने वाली स्थिति में इब्राहीम को पाया |

गुरु ने कहा अब क्या देखता है ? गले लग |

तू-मैं, ये सारा खेल, फिर वहाँ वाणी नहीं गयी | आगे वचन नहीं चलता | मति न लखे जो मति लखे | स्व में शुद्ध अपार ये विचार सागर का वचन है |

उपनिषद कहती है यतो वाचोनिवर्तन्ते । जहाँ वाणी नहीं जा सकती | अप्राप्य सा मनसा सा | मन से जो प्राप्त नहीं होता | मन बिचारा मन नहीं रहता | तो बुद्धि से समझ में आता है ना, वो कृपा करके बुद्धि में प्रकट होकर बुद्धि को उसमय कर देता है | जैसे अग्नि लोहे में प्रविष्ट हो जाये, लोहा अग्निमय हो जाता है | ऐसे ही मति उस ऋत से, उस सत्य से, उस सत्य स्वरूपा हो जाती है | ऋतंभरा प्रज्ञा |

मोह कभी ना ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश | इच्छा तो अहं में होती है | ऋतंभरा प्रज्ञा में इच्छा कहाँ, वासना कहाँ ? ऐसा पुरुष लेते हुए भी नहीं लेता, देते हुए भी नहीं देता |

धीरो न द्वेषति संसारम |

वो धीर पुरुष संसार की किसी परिस्थिति से हृदय में द्वेष नहीं रखता |

आत्मानं न दीक्षति |

आत्मा को, परमात्‍मा को भी नहीं चाहता,  ऐसा हो जाता है |

हर्षम अमहर्ष विनिर्मुक्त |

हर्ष, अमहर्ष से ठीक ठंग से मुक्त |

न मृतो, न च जीवते |

वो मरता भी नहीं जीता भी नहीं | मरता और जीता तो शरीर है, वो तो वो ही है बस | परा अवस्था, परा गति ।

लभते भक्ति पराम् |

परा भक्ति प्राप्त हो जाती है | वैदी भक्ति, गुणी भक्ति, अनुरागा भक्ति तो अब, बहुत लोग उसके पथिक होते हैं लेकिन परा भक्ति में तो कोई-कोई पहुंचता है, कोई-कोई |

उसको नानक की भाषा में कहे तो-

ब्रह्मज्ञानी की मत कौन बखाने,

नानक, ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जाने |

ब्रह्मज्ञानी का दर्शन बड़भागी पावे |

ब्रह्मज्ञानी को बल-बल जावे |

ब्रह्मज्ञानी मुगत-जुगत का दाता |

फिर तो उसकी मति से जरा सा किसी के लिए उसके चित्‍त में मीठी नजर हो तो वो तो खुशहाल हो जायेगा | जरा सा ज्ञानी के चित्‍त में उसके प्रति थोडा हो जाये तो उसकी खबर पड जाएगी | वो ऐसा महापुरुष हो जाता है |

ब्रह्मज्ञानी मुगत-भुगत का दाता |

मोक्ष और भोग देने वाला दाता बन जाता है |

जेको जन्म-मरण ते डरे, साध जीना की सरणी पड़े |

जिसको संसार के जन्म-मरण से त्राण चाहिए वो ऐसे ब्रह्मज्ञानी की शरण जाए | मूर्ति की शरण पड़े, देवी-देवता की शरण पड़े, ऐसा नहीं आया है |

साध की शरण पड़े |

जेको अपना दुःख मिटावे, साध जना की सेवा पावे |

शरीर का दुःख मिटाना है तो डॉक्टर के पास जाओ | आर्थिक दुःख मिटाना है तो कोई सेठ के पास जाओ लेकिन अपना दुःख तो सेठ नहीं मिटा सकता, डॉक्टर नहीं मिटा सकता | सारी दुनिया मिलकर भी आपका दुःख नहीं मिटा सकती | अगर मिट जाता तो आप निर्दु:ख होते | आपका दुःख तो वो अपने परमात्मस्वरूप को जाने हुए महापुरुष ही आपका अहम मिटा के आपका दुःख सदा के लिए मिटा दे | इसीलिए इसकी महिमा है कि ब्रह्मवेत्‍ता का दर्शन करने जाये एक-एक कदम तो एक-एक यज्ञ करने का फल होता है | उनके चरणों में वचन सुने तो वो भक्ति योग बनता है | श्रद्धा से बैठे तो भक्ति योग और सुने समझें तो ज्ञान योग |

कबीरा दर्शन संत के साहेब आवे याद,

लेखे में वो ही घड़ी, बाकी के दिन बाद |

यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान,

सिर दीजे सतगुरु मिले तो भी सस्ता जान |

सतगुरु कैसा होता है ?

सतगुरु मेरा सूरमा,  करे शब्द की चोट

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट |

बड़ा सरल है परमात्मा को पाना,  महा कठिन है, ईश्वर को पाना बहुत सरल है और बहुत कठिन है | कुछ बनकर ईश्वर को पाना बहुत कठिन है, अपने आप को मिटा के ईश्वर को पाना बाएं हाथ का खेल है | नारायण… नारायण… नारायण…  नारायण………

 

 

 

 

विभिन्न रंगों की खान-पान की चीजों से बनायें सेहत


कुदरत ने हमारे चारों ओर फल-सब्जी या अन्य चीजों के रूप में कई रंग बिखेरे हुए हैं। इन चीजों से जुड़े रंगों की अपनी विशेष महत्ता है। आइये जानें विभिन्न रंगों की खान-पान की चीजों के बारे में, जो स्वस्थ बनाये रखने का काम करती हैं।

1.लालः दिल की सेहत के लिए लाल  रंग की चीजें खायें। सेब, गाजर, स्ट्राबेरी, टमाटर आदि इसके बेहतर उदाहरण हैं, जिनमें हृदय को स्वस्थ रखने वाले पोषक तत्त्व पाये जाते हैं।

2.पीलाः यह रंग नींबू, कद्दू, केला, रसभरी आदि में पाया जाता है, जो विटामिन ‘सी’ की कमी को दूर करता है। कुछ जड़ी बूटियों में भी यह रंग होता है, जो हमें कई रोगों से बचाता है।

3.केसरियाः यह रंग ऊर्जा व पोषण बढ़ाता है। पपीता, संतरा जैसे केसरिया रंग के फल शरीर में विटामिन्स व खनिज पदार्थों (मिनरल्ज़) की पूर्ति करते हैं। इनसे त्वचा को चमक मिलती है और हड्डियाँ मजबूत होती हैं।

4.सफेद और नीलाः ये रंग फल और सब्जी दोनों से मिलते हैं। कच्चा प्याज, लहसुन, गोभी, मूली आदि में सफेद रंग एवं जामुन, बैंगन आदि में नीला रंग होता है, जिनसे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और पाचनतंत्र उत्तम रहता है।

5.काला-जामुनीः वृद्धावस्था को दूर रखने (एंटी एजिंग) के एवं एंटी ऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर यह रंग चुकंदर, जामुन, काले अंगूर आदि में मौजूद होता है। यह मांसपेशियों व कोशिकाओं की कार्यक्षमता को सुधारने में उपयोगी है।

6.सफेद-हराः इस सम्मिश्रित रंग से पोषण में ताजगी मिलती है। खीरा, लौकी, ककड़ी आदि इसके उदाहरण हैं। ये शरीर में विटामिन्स, खनिज पदार्थों, रेशे (फाइबर्स) व पानी की पूर्ति करते है।

7.गेहुँआः यह रंग आलू, चीकू, अदरक और मेवों में पाया जाता है। इस रंग की चीजें त्वचा, दिमाग व पाचनतंत्र को ठीक रखती हैं। इनमें अधिक मात्रा में माइक्रोन्यूट्रियेंट्स मौजूद होते हैं।

8.हलका हराः इस रंग के फल व सब्जी शरीर को तरोताजा रखते हैं। लौह तत्त्व (आयरन), विटामिन्स और फॉलिक एसिड से युक्त यह रंग आँवला, परवल, टिंडा, बेर आदि में होता है।

9.गहरा हराः इस रंग की सब्जियाँ जैसे – पालक, भिंडी, बथुआ, करेला, मटर, फलियाँ आदि में विटामिन ‘के’, फॉलिक एसिड और लौह तत्त्व भरपूर होता है, जो शरीर को पोषण देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 31,32 अंक 306

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वर्षा ऋतु में स्वास्थ्यप्रदायक अनमोल कुंजियाँ


पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से संकलित

वर्षा ऋतुः 21 जून 2018 से 22 अगस्त 2018 तक

1.वर्षा ऋतु में मंदाग्नि, वायुप्रकोप, पित्त का संचय आदि दोषों की अधिकता होती है। इस ऋतु में भोजन आवश्यकता से थोड़ा कम करोगे तो आम (कच्चा रस) तथा वायु नहीं बनेंगे या कम बनेंगे, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। भूल से भी थोड़ा ज्यादा खाया तो ये दोष कुपित होकर बीमारी का रूप ले सकते हैं।

2.काजू, बादाम, मावा, मिठाइयाँ भूलकर भी न खायें, इनसे बुखार और दूसरी बीमारियाँ होती हैं।

3.अशुद्ध पानी पियेंगे तो पेचिश व और कई बीमारियाँ हो जाती हैं। अगर दस्त हो गये हों तो खिचड़ी में देशी गाय का घी डाल के खा लो तो दस्त बंद हो जाते हैं। पतले दस्त ज्यादा समय तक न रहें इसका ध्यान रखें।

4.बरसाती मौसम के उत्तरकाल में पित्त प्रकुपित होता है इसलिए खट्टी व तीखी चीजों का सेवन वर्जित है।

5.जिन्होंने बेपरवाही से बरसात में हवाएँ खायी हैं और शरीर भिगाया है, उनको बुढ़ापे में वायुजन्य तकलीफों के दुःखों से टकराना पड़ता है।

6.इस ऋतु में खुले बदन घूमना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

7.बारिश के पानी में सिर भिगाने से अभी नहीं तो 20 वर्षों के बाद भी सिरदर्द की पीड़ा अथवा घुटनों का दर्द या वायु संबंधी रोग हो सकते हैं।

8.जो जवानी में ही धूप में सिर ढकने की सावधानी रखते हैं उनको बुढ़ापे में आँखों की तकलीफें जल्दी नहीं होतीं तथा कान, नाक आदि निरोग रहते हैं।

9.बदहजमी के कारण अम्लपित्त (Hyper acidity) की समस्या होती है और बदहजमी से जो वायु ऊपर चढ़ती है उससे भी छाती में पीड़ा होती है। वायु और पित्त का प्रकोप होता है तो अनजान लोग उसे हृदयाघात (Heart Attack) मान लेते हैं, डर जाते हैं। इसमें डरें नहीं, 50 ग्राम जीरा सेंक लो व 50 ग्राम सौंफ सेंक लो तथा 20-25 ग्राम काला नमक लो और तीनों को कूटकर चूर्ण बना के घर में रख दो। ऐसा कुछ हो अथवा पेट भारी हो तो गुनगुने पानी से 5-7 ग्राम फाँक लो।

10.अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो – दायें नथुने से श्वास लो, बायें से छोड़ो फिर बायें से लो और दायें से छोड़ो। ऐसा 10 बार करो। दोनों नथुनों से श्वास समान रूप से चलने लगेगा। फिर दायें नथुने से श्वास लिया और 1 से सवा मिनट या सुखपूर्वक जितना रोक सकें अंदर रोका, फिर बायें से छोड़ दिया। कितना भी अजीर्ण, अम्लपित्त, मंदाग्नि, वायु हो, उनकी कमर टूट जायेगी। 5 से ज्यादा प्राणायाम नहीं करना। अगर गर्मी हो जाय तो फिर नहीं करना या कम करना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 30 अंक 306

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