Monthly Archives: March 2017

सेवा ही भक्ति – २


नारायण नारायण नारायण !!

छट्ठे अध्याय का पहला श्लोक में है

 ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करता है, संध्या वंदन आदि नित्य कर्म है, दानपुण्य, सेवा-पूजा आदि नित्य कर्म है, और किसी निमित्त से जो कर्म मिल जाते है उसको नैमितिक कर्म बोलते है। नित्य कर्म और नैमितिक कर्म जो करता है लेकिन फल की आकांक्षा नहीं रखता। जैसे नित्य रात को नींद करते है तो सुबह संध्या करने में फल की इच्छा न रखे। रात को सोये तो सुबह स्नान कर लिया इसमें फल की इच्छा क्या रखें? तो रात की नींद का तमस दूर करना है तो सुबह का स्नान चाहिए। ऐसे ही मन का तमस दूर करना है तो संध्या-  प्राणायाम चाहिए। रात्रि में श्वासोश्वास में जो जीवाणु मरे, सुबह के संध्या-प्राणायाम से वो पातक नष्ट हो गये।  ह्रदय स्वच्छ हो गया, शुद्ध हो गया तन और मन। सुबह से दोपहर तक जो कुछ खाने पीने में, हेल चाल में जो कुछ वातावरण में जीवजंतु को हानि हो गई अंजाने में, फिर दोपहर की संध्या करके स्वच्छ हो गए। फिर शाम की संध्या करके स्वच्छ हो गए। संध्या करके स्वच्छ हो गए फिर ध्यान और जप करके थोड़े ऊपर उठे। ये है नित्य कर्म।

पंचयज्ञ है नित्य कर्म।  गौ को, ब्राह्मण को ,जीवजंतु को, अतिथि को कुछ न कुछ देना करना ये पाँच यज्ञ नित्य कर्म। दूसरे होते है नैमितिक कर्म। पर्वीय कर्म…उत्तरायण पर्व आया फिर रीजन का पर्व आया, शिवरात्रि का पर्व आया, गुढीपडवा आया उन पर्व के निमित्य जो कर्म करे। तो नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करे।

तीसरे होते है ईश्वरप्रीति अर्थे कर्म। नित्य नैमितिक कर्म से तन मन स्वस्थ रहेगा | आप स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे। कुछ और भी शुभ कर्म स्वर्ग की इच्छा करेंगे तो स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे नहीं तो यहाँ स्वर्गीय जीवन जियेंगे। पैसे से अगर स्वर्गीय जीवन मिल जाता तो धनाढ्य लोग टेंशन में नहीं होते। टेंशन नरक है। डर और टेंशन नरक है।

क्योंकि नित्य कर्म नैमितिक कर्म छूट गए। इसलिए तन की और मन की सात्विकता कम हो गयी। तनाव और टेंशन दुःख-बीमारी का शिकार हो गए। चौथो तो काम्य कर्म | धंधा रोजी-रोटी की कामना से जो कुछ किया वो होते है काम्य कर्म | काम्य कर्म का कुछ अंश निष्काम कर्म।  ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करे।  ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करने को कृष्ण ने कहा ”’अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च ” वो सन्यासी है, वो योगी है जो आसक्ति, फल की आकांशा रहित सत्कर्म कर लेता है।

सेवा चाहे और सेवा के बदले में नाम चाहे तो सेवा के कर्म में आसक्ति होगी। यश चाहे, पद चाहे एक दूसरे का टाटिया खींचना चाहे और आप बड़ा बनना चाहे तो वे आदमी आध्यात्मिक जगत में विफल होते है और व्यवहारिक जगत में लम्बा समय सुखी नहीं रहते।  बिलकुल पक्की सच्ची बात है। सुख के लिए फिर उनको दुराचार करना पड़ेगा। शराब, कबाब, हस्तमैथुन ये सब इसीका फल है के कर्म में निष्कामता नहीं। काम्य कर्म, नित्य कर्म और नैमितिक कर्म। नित्य और नैमितिक सत्कर्म कर्म तो छूट गए काम्य कर्म में हम सब लोग लगे हुए है। कामनाएं बढती जाती है और हलकि कामनाएं घुसती जाती है। जीवन में चारो तरफ दुःख ही दुःख। कामनाओं को निकालने के लिए निष्कामता चाहिए। कांटे से कांटा निकलेगा। तो निष्काम कर्म करनेवाले को ही योग में वास्तविक प्रवेश मिलेगा। टिकेगा मन। दूसरे तीसरे श्लोक में भगवान कहते है |

पहला श्लोक है छट्ठे अध्याय का ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

अग्नि का त्याग कर दिया,क्रिया का त्याग कर दिया और सन्यासी हो गया उसका सन्यास और योग फला नहीं अभी। लेकिन कर्म तो कर रहा है काम्य कर्म, नित्य, नैमितिक कर्म तो करता है उसमे फल की इच्छा का सवाल ही नहीं होता।  स्नान करना उसमे फल की इच्छा क्या है? श्वास ले रहे छोड़ रहे उसमे फल की इच्छा क्या करोगे ?भोजन कर रहे हो भूख मिटे उसमें फल की इच्छा क्या करोगे ? तो फल की इच्छा रहित नित्य, नैमितिक कर्म तो करे लेकिन काम्य कर्म, जो जीवन खाने पीने रहने के लिए जो कामना वाले कर्म है उसमें से भी समय बचाकर निष्काम कर्म करें।

ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करें। बोले मैंने स्नान कर लिया निष्काम भाव से तो बड़ा काम कर लिया तूने।  मैंने रोटी खा ली निष्काम भाव से…..तो ये तो हँसी का विषय है। मैंने पानी पी लिया निष्काम भाव से। ऐसे ही संध्या-प्राणायाम, कमाई का कुछ हिस्सा, ये जो सत्कर्म है निष्काम भाव से किया ये तो भाई कर्त्तव्य है !! नित्य कर्त्तव्य ! नैमितिक कर्त्तव्य ! तो निष्काम कर्म , नित्य कर्म , नैमितिक कर्म ,काम्यकर्म, कामना वाले कर्म और फिर ऊँचा दर्जा आता है-निष्काम कर्म !

हाथी बाबा से किसी ने पूछा की भजन करे तो क्या फायदा होगा ? तो रोने लग गए। बोले ‘महाराज मैं कोई बुरा तो नहीं किया ? ‘ बोले  ‘मेरा कौनसा दुर्भाग्य की जरा जरा बात में क्या लाभ होगा ऐसे बनिये, स्वार्थी टट्टू का दर्शन हुआ सुबह सुबह !! जरा जरा बात में क्या लाभ होगा? क्या लाभ होगा? मेरा मन ख़राब होगा तेरे जैसे व्यक्ति के बीच में मैं रहूँगा तो। ‘ सब काम केवल बाह्य  लाभ देख कर नहीं किये जाते। कोई लाभ की जरूरत ही नहीं है।  मेरा स्वाभाव है सत्कर्म करना। नित्य कर्म, नैमितिक कर्म तो करता है | काम्य कर्म तो करता है | लेकिन वो कुछ ऐसा भी समय निकाले की कोई बाह्य लाभ की जरूरत ही नहीं।

द्रौपदी ने पूछा की “आप तो संध्या करते, ध्यान करते, घंटो भर बैठे युधिष्ठिर जी !! और हम लोग इतने दुखी है और वो दुष्ट राज्य का मौज लेता है तो क्या भगवान से या अपने आत्मा से आप ये संकल्प नहीं कर सकते की हम इतने दुखी क्यों है ?” युधिष्ठिर ने कहा की मैं दुःख मिटने के लिए भजन नहीं कर रहा हूँ। लेकिन भजन करने से सुख मिल रहा है। आनंद मिल रहा है और मेरा कर्त्तव्य है, मेरा स्वाभाव है इसलिए मैं भजन कर रहा हूँ। गुरु ने वहाँ झाडू लगवाएं, बुआरी करवाई। निष्कामता होते होते योग्यता आई तब गुरु ने दिया तो पचा नहीं तो नहीं पचता।

राजा की सवारी जा रही थी, बड़ा यशोगान हो रहा था। बचपन में ही बाप छोड़ कर रवाना हो गया |  ऐसा बालक अपनी विधवा माँ को बोलता है की ‘ माँ ! राजा साहब देखो ! हाथी पे जा रहे…. रथ पे जा रहे…मुझे इस राजा से मिलना है।’ माँ ने कहा ‘बेटा राजा से मिलना है तो एक ही उपाय है। राजा का नया महल बन रहा है। वहाँ जाकर काम कर। हफ्ते हफ्ते में पगार देते है।  तू लेना कुछ मत। अपने आप राजा मिल जायेगा तुझे।’

लड़के ने काम शुरू किया | हफ्ते हफ्ते की जो खर्ची मिलती थी उसने एक बार भी नहीं ली | बोले नहीं लेना है।  पैसा नहीं लेता …पैसा नहीं लेता … काम कर रहा है।  दिल लगाके कर रहा है।  इसकी खबर ऊँचे अधिकारी को पहुंची। फिर और ऊँचे को पहुंची।  यहाँ तक वजीर तक पहुंची और वजीर उस लड़के को देखने आया और वजीर ने जाकर राजा को कहा कि एक लड़का है। जवान है, अभी जवानी उभर रही है और काम खूब करता है। वो पैसा नहीं ले रहा है। बोले ये कैसे? बोले क्या पता?

जाँच करो !! वजीर ने जाँच किया कि “भाई! क्यों नहीं पैसा ले रहा?

बोले “नहीं ! राजा साहब का महल है।  इतनी तो सेवा हम को मिल जाये। ”

“तो तेरे को पैसे की जरूरत नहीं है ?”

बोले “जरूरत नहीं है ऐसी बात नहीं है |” मेरी माँ विधवा है। पिता मर गए। खेत में तो बहुत थोड़ा सा आता है। लेकिन गुजारा हो जाता है।  सेवा कर रहा हूँ ”

राजा तक खबर गयी।  राजा ने देखा कि ‘नपातुला है, बचपन में पिता छोड़कर मर गए। विधवा माता है। २-१ एकड़ का खेत है उससे गुजारा कैसे? और काम कर रहा है दिल लगा के और कुछ  नहीं लेता है। उसको जरा बुलाओ। राजा ने अपने महल में बुलाया। और कुछ नहीं लेता है तो उसको भोजन-वोजन कराया और बड़ा मान दिया।

और राजा उस पर बड़ा खुश हो गया। ‘अच्छा ! तूने इतने दिन तक मेहनताना नहीं लिया। तो अब क्या करो दस-पाँच हजार रूपया तुमको दे देते है ‘वैसे तो दोसौ -पांचसौ होता था अब दस-पाँच हजार रुपये आ रहे है। बोले ‘ नहीं ! नहीं ! दस-पाँच हजार क्या करना है ? मेरी तो ये भावना थी की मैं राजा साहब से मिलूँ तो माता ने कहा कुछ मत लेना।  सेवा करना।  सेवा से तुम्हारा जो भी संकल्प हो फलेगा।  तो मुझे आप मिल गए बस और  कुछ नहीं चाहिए।

राजा कहता है कि ‘ मैं तो तुझे मिल गया लेकिन मुझे तेरे जैसा निष्कामी पुत्र मुझे मिल गया अब तू मेरा बेटा है। ‘  कुछ दिन आता जाता रहा तो रानी साहिबा ने भी उसके स्वभाव को परख लिया, राजा ने उसकी निष्कामता को परख लिया कह दिया तू मेरा बेटा है।

कथा तो बड़ी रसपद्र है लेकिन राजा ने उसको बेटा बनाके राजतिलक कर दिया।  जब शोभायात्रा निकली तो पिता और पुत्र…नूतन राजा और पास में भूतपूर्व राजा बैठे | नगर में यात्रा निकली तो वो माँ राजा की सवारी देखने को निकली। राजा को बताया नूतन राजा ने की वो मेरी माता है। बोले “वो तेरी माता नहीं मेरी भी माता है।  जय हो तेरे जैसे निष्कामी योगी को जन्म दिया। तू तो रथ से उतर कर प्रणाम करने जाता है , लेकिन मैं भी उस माता को प्रणाम करने चलता हूँ। उसके आगे तू भी बेटा  है मैं भी बेटा हूँ।”

महाराज निष्कामता में इतनी शक्ति है लेकिन अंधे लोग जानते नहीं। जिसके पास धन है, बुद्धि है, स्वास्थ है, योग्यता है अगर वो सत्कर्म नहीं करता है ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म नहीं करता है तो वो स्वार्थी है। विषय लम्पट्टू है, वो दण्ड का पात्र है, अशांति का पात्र है, विनाश का पात्र है ऐसा शास्त्र कहते है।

ये हमारा कर्तव्य हो जाता है सेवा कार्य करना। अपनी भलाई के लिए हमारा कर्त्तव्य हो जाता है। और जिनको सेवा मिलाती है वे लोग टालते रहते है या छटकबारी करते दूसरे के कंधे बन्दुक रखते है उनकी खोपड़ी में ही बन्दुक जैसी अशांति हो जाती है। अपना कार्य तो तत्परता से हम करें लेकिन दूसरे के कार्य में भी हाथ बटायें।

एक फौजी आता था। छः -आठ साल पहले की बात है । एम.ए. पढ़ा था। गुजर जाति का था, सरदार था। तो बड़ी श्रद्धा उसकी आँखों में….मैं कभी घूमने गया तो हाथ जोड़ के पीछे चलता था सरदार। मैंने कहा  “तुम कहाँ से आते हो? क्या बात है ?”

बोले “स्वामीजी ! मैं इतवार – बुधवार को आपकी कथा होती है | एक बार आ गया था। फिर मेरे को अच्छा लगा, मैं आता रहा। स्वामीजी अब तो मेरी बदली हो रही है। लेकिन मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ। कि मैं यहाँ आया और मेरी शराब छूट गयी।  मेरे हिस्से का शराब दूसरों को दे देता था। नहीं तो मैं शराब के लिए लड़ मरता था। मेरा माँस खाना छूट गया, आपने तो छुड़वाया नहीं। केवल इस रेंज में आया तो छूट गया। और स्वामीजी ! पहले मैं अपना काम टालम – टोल करता था अभी मैं अपने ऑफिस का , ये हनुमान कैंप में जो ऑफिस है ,ये अपना आश्रम के सामने वो नदी के उस किनारे जो है।  नदी के एक किनारे अपना आश्रम और दूसरे किनारे फौजियों के डेरे है। स्वामीजी! मैं वहाँ काम करता हूँ।  फ़ौज में हूँ।  पहले तो मैं अपना काम भी असिस्टेंट को या दूसरे को दे देता था। लेकिन अभी मैं अपना भी कर लेता हूँ बॉस का भी कर लेता हूँ। और कोई साथी होता है उनका काम भी कर लेता हूँ, काम करने में भी मजा आ रहा है महाराज ! ध्यान का थोड़ा सा मजा आया तो अब पता चलता है कि सेवा में कितना मजा है महाराज ! मैं तो ढूंढ लेता हूँ सेवा ”

ये मेरे से नहीं होगा, ये जवाबदारी हम नहीं लेंगे , ये टेंशन हम नहीं लेंगे , लेकिन मेरा शेयर ८०,००० संभाल संभाल कर मर जाऊं…तो मर जा उस छोटे खड्डे में तू…

निष्काम कर्म के बिना जीवन निखरेगा नहीं। ईश्वर प्रीति अर्थ कर्म किये बिना जीवन का विकास होगा ही नहीं। कुछ लोग करते हैं थोड़ा काम तो फिर अधिकार के लिए झपट झपट के मर रहे है। पद और प्रतिष्ठा के लिए मर रहे है। अपनी योग्यता को उसी में मार रहे है।

आचार्य विनोबा भावे के यहाँ कोई समिति वाले ने आखरी राम राम किये कि “महाराज ! की अब हम आश्रम में से जायेंगे। हमको यहाँ का वातावरण सूट नहीं होता।”

बोले “क्यों?”

बोले “नए संचालक आ गए। उनके कहने के अनुसार थोड़ा थोड़ा बात भी उनके कहने के अनुसार करनी पड़ती है। हम करेंगे ये सेवा ( भूदान यज्ञ की ) लेकिन स्वतंत्र होकर करेंगे।”

विनोबा ने कहा “स्वतंत्र स्व के तंत्र को जाना है? स्व तो आत्मा है उसको तो जाना नहीं है बेटा ! तो मतलब तेरे मन में जैसे आयेगा ऐसी सेवा करेगा। ”

तो बोले “हाँ ”

“तो मन तो अपना नौकर है। मतलब गुरुभाई की या गुरु के सिद्धांत की बात नहीं मानूंगा। जैसा मेरा नौकर कहेगा ऐसा ही करूँँगा यही हुआ तेरा ?”

जैसा मेरा नौकर कहेगा ऐसा करूँँगा। शास्त्र कहे, गुरु कहे, गुरुभाई कहे वो नहीं करूँँगा जैसा मेरा मन कहे ऐसा करूँँगा यही तेरी बात हुई।

उस युवक की थोड़ी बहुत सेवा थी तुरंत लाइट हुई और चरणों पे गिरा कि… नहीं ये द्वार छोड़ कर कही नहीं जाऊँगा। करूँँगा सेवा ।

मेरे गुरुदेव किताबों की गठरी बाँधकर गाँव गाँव जाते।  नैनीताल के पहाड़ से हनुमान गढ़ी के पास में एक पहाड़ है सीतला मंदिर आश्रम का । उस पहाड़ से उतरते नीचे गाँव फिर दूसरे पहाड़ पे चढ़ते दूसरा छोटा सा गाँव। सिर पर गठरी बाँध कर किताबों  की अस्सी साल की उम्र है साईं लीलाशाह जी महाराज। अस्सी साल की उम्र में सिर पर गठरी किताबों की बाँधके पहाड़ उतरते। गावों में किताबें बाटते। यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तक, नारी धर्म जैसी पुस्तक स्त्रियों को , छोकरों को योगासन और  योगयात्रा जैसी  पुस्तके….योगयात्रा उस समय नहीं थी लेकिन उसी प्रकार की पुस्तकें दे आते और प्रसाद भी दे आते। फल फ्रूट ले जाये तो वेट बढ़ जायेगा इस लिए काजू और किशमिश  खरीद लेते थे। और वो सबको इकठ्ठा करके दो दो दाने देके, जो भी यथायोग्य देके, थोड़ा सत्संग सुनकर एक एक किताब दे कर ये कहते की “आज शुक्रवार है तो अगले शुक्रवार को इस गाँव में आऊंगा। और ये जो किताब दी है वो पढ़ लेना अच्छा लगे वो याद करना और लिख लेना और पूरी किताब दो-तीन-चार बार जरूर पढ़ना। और हो सकता है की में कुछ पूछूं भी इसीलिए तैयार रहना। और अगले शुक्रवार को आऊंगा। ये किताबें वापस ले जाऊँगा दूसरी किताबें दे जाऊँगा ”

जिस महापुरुष के संकल्प मात्र से पेड़ चल पड़ा है , जिस महापुरुष को बीस-बाईस साल की उम्र में परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है। वो महापुरुष अस्सी साल की उम्र में सर पे गठरी बाँध के किताब को गाँव गाँव पहुँचाते है, क्या उनके पास कोई फालतू समय था? अगर वो ऐसा नहीं करते, गाँव गाँव नहीं घूमते और घूमते-घामते गोधरा नहीं आते तो मेरे को उनका दर्शन भी नहीं होता। और मेरे वैराग्य को पुष्टि भी नहीं मिलती। मैंने एक बार दूर से दर्शन किया उनके दर्शन मात्र से मेरा सोया हुआ वैराग्य जगा और फिर सब कुछ छोड़कर उनके चरणों तक पहुँचने की हिम्मत भी आ गयी। ये उन महापुरुषों के निष्काम कर्म योग का फल हम लाखों लोगों को मिल रहा है। उन्होंने तो ये नहीं कहा की ‘ जय लीलाशाह, जय जय लीलाशाह बोलना। नहीं….लेकिन उनकी जय किये बिना रहा नहीं जायेगा। मूर्ख लोग समझते है की जरा सा काम करे तो ‘ओहो! हम पद अधिकारी बन जाये ‘ हमारा नाम अख़बारों में आ जाये। हमें सब मिल जाये।

“ऐरन की चोरी करे सुई का करे दान। झाकता रहे आकाश में कब आवे विमान।” ऐसे निष्काम कर्म करने वाले को लोग राजनेता बोलते। जय राम जी की।

किसी को आज के ज़माने में बड़ी गाली देनी हो तो  बोल दो आ तो राजकारणी छे । बस पति गयो। अरे आ तो राजकारणी छे, बस पति गयो। जय श्री कृष्णा।

अर्थात निष्काम की जगह पर कामना आ गयी तो उनके नाम पर भी बट्टा लग गया।  राजनिती कोई बुरी नहीं वो नीतियों की राजा है लेकिन वो निष्कामता की जगह कामना आ गयी तो क्रोध भी आएगा ,द्वेष भी आएगा, इर्षा भी आएगा,कपट भी आएगा, बईमानी भी आएगी ,अंदर न जाने क्या क्या होता है। दुर्गुणों को निकालने के लिए सदगुण चाहिए और सद्गुण ईश्वर की प्रीति अर्थ कर्म करने से ही आयेंगे दूसरा कोई उपाय नहीं है।

मूर्ख लोग काम टालते हैं।  वो उसपे टालेगा , वो उसपे टालेगा। और जब यश और सफलता होगी तो छाती फुलाके आगे आएगा। और विफलता होगी तो ‘मैं तो कहता था कि’ ….’मैं तो कहता था कि ऐसा नहीं करना चाहिए’। अभी ऐसा किया उसने किया , पहले उसने ऐसा किया..अथवा तो काम बिगड़ गया तो बोले ईश्वर की मर्ज़ी। अच्छा काम करता है तो बोले हमने किया.. हमने किया और जो बिगड़ा है वो बोले ईश्वर की मर्ज़ी। इसका मतलब ईश्वर बिगाड़ने के काम सब ईश्वर कर रहा है और बढ़िया काम तू ही कर रहा है। ऐसी मति अंध हो जाती है स्वार्थ से। और सेवा से मति हो जाती है शुद्ध।

बढ़िया काम होता है तो बोले ईश्वर की कृपा थी। महापुरुषों का प्रसाद था। शास्त्रों का प्रसाद था। मेरे कार्य के पीछे ईश्वर का हाथ था गाँधी कहते थे | गुरूजी कहा करते थे जुदा जुदा जगह पर काम करने वाली  कोई महान शक्ति है।  लोग बोलते है लीला ने किया, लीला ने किया, लीला नहीं करता है। नाम तो लीला शाहजी है।  लेकिन अपने आप को वो ‘लीला नहीं ! कुछ नहीं ! क्या? जुदा जुदा जगह पर काम करने वाली  कोई महान शक्ति है। हम लोग तो निमित्त मात्र है ‘| और कही गलती हो गयी तो भाई ! क्या करूँ? हम तो पढ़े लिखे नहीं है ? हमारी गलती हो तो आप क्षमा कर देना। कितनी नम्रता है उन महापुरुषों की।

 

निष्कामता आएगी तो नम्रता भी आएगी और नम्रता आएगी तो जैसे सागर में बिन-बुलाये नदियां चली जाती है ऐसे यश,धन,ऐश्वर्य,प्रसन्नता ,ख़ुशी ये सब सदगुण आपने आप आ जायेंगे। गंगा-यमुना जैसे सागर में बिना बुलाए भागती जाती है ऐसे ही सदगुण बिना बुलाए आ जायेंगे। नम्रता और निष्कामता से।  और जहाँ नम्रता और निष्कामता में अहंकार फाँका आया तो फटकार और विफलता बिन बुलाए आएगी।

जीवन जीने का ढंग , हम main.. basic बात भूल जाते है इसीलिए विश्व भर में अशांति.. दुःख..।  और फिर दूसरों को दबोच के दुनिया की चीज़े इक्कठी करते मूर्ख लोग सुखी होना चाहते। उनसे भी सुख नहीं तो बिचारे वाइन पी कर सुखी होना चाहते। उससे भी सुख नहीं लेडी बदल के सुखी होना चाहते।उससे भी सुख नहीं हवा बदलके सुखी होना चाहते। उससे भी सुख नहीं हवा बदल, लेडी बदल, लेडे बदल जब तक तू समझ नहीं बदलेगा तो बदल बदल के चौरासी लाख जन्म बदलता रहेगा।चौरासी लाख जन्म बदलता रहेगा।  चौरासी लाख शरीर बदलता रहेगा। कभी न छूटे पिंड दुखों से जिसे निष्कामता का ज्ञान नहीं , जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं। ज्यों ज्यों चित्त  निष्काम कर्म करेगा त्यों त्यों उसकी क्षमताएँ बढ़ेंगी। कामना से आपकी क्षमता और योग्यताएं कुंठित हो जाती हैं।

और जो जो निःस्वार्थ…. एक आदमी डंडा लेके पानी कूट रहा है।  अरे क्या करता है ? बोले में निष्काम कर्म करता हूँ। कुछ भी मिलने वाला नहीं फिर भी कूट रहा हूँ। अरे मूर्ख! ये निष्काम नहीं ये निष्प्रयोजन प्रवृत्ति है। निष्प्रयोजन प्रवृत्ति न करे। निष्काम प्रवृत्ति करे।

दूसरे का दुःख मिटाना तो ठीक है लेकिन दूसरे के दुःख मिटाने पर भी इतनी दृष्टि जोरदार न रखे जितनी रखे कि उसको सुख मिले..। जब सुख मिलेगा तो दुःख के सिर पर पैर रख देगा वो तो । और सुख तुम कहाँ से लाओगे तुम्हारे पास फैक्ट्री है क्या? सुख तुम लाओगे महाराज जितने जितने तुम निष्कामी होंगे उतना उतना आपका अंतःकरण सुखी होगा और दूसरे को सुखी करने के विचार भी उसी में उठेंगे।

भक्ति योग है, ज्ञान योग है ऐसे कर्म योग है। ये तीनो योग स्वतंत्र है मुक्ति देने में। निष्काम कर्म योग से कई लोग सफल हो गए, सिद्ध हो गये । कई भक्ति योग से सिद्ध हो गए कई ज्ञान योग से सिद्ध हो गए। और किसीने भक्ति और ज्ञान को साथ में रखा, तो किसीने निष्कामता और ज्ञान को साथ में रखा। अपन तो तीनो को साथ में ले चलते है भाई ! थोड़ा थोड़ा सब हो कोई बात नहीं। रोटी भी चाहिए, सब्जी भी चाहिए, छाछ का कटोरा है तो घाटा क्या पड़ता है ?चलो! वो भी रखो थोड़ा साथ में।

समिति के भाइयों के मन में विचार उठा कि ‘सेवा करने के लिए जैसे दो दिये ….दिया अकेला होता है तो दिए के नीचे अँधेरा होता है और दो दिए रख दो आमने सामने तो एक दूसरे का अंधकार मिटा देता है। प्रकाश ही प्रकाश होता है। इसीलिए अपने अपने अकेले ढंग से आदमी बैठता या करता है तो कुछ गलती हो सकती है।  जब समिति बना तो एक दूसरे से भी विचार विमर्श करेगा तो गलतियाँ, अँधेरा हटता जायेगा। और फिर वो समितियां तो बनीं…जिन्होंने बनायीं धन्यवाद ….लेकिन ये समिति सब मिलकर अगर विचार-विमर्श करे तो और योग्यताएं और क्षमताएं, गुण बढ़ेंगे। और कमियाँ निकलेंगी।  और जितना जितना अपनी कमियाँ निकलेंगी उतना उतना समाज की कमियाँ निकालने में हम लोग सफल हो जायेंगे।

इसीलिए सम्मति माँगी थी यहाँ की समिति ने कि अखिल भारतीय समितियों की मीटिंग करा दे। तो तीसरी तारीख बापू थोड़ा समय दे। मैंने कहा ‘अच्छी बात है।  हम तीसरी तारीख को होंगे..देंगे समय।”तो आपका दर्शन हो गया। हमारे लायक कोई सेवा हो तो बिना संकोच बताइयेगा। हमारे जिम्मे कोई काम आ सकता हो तो संकोच न करें, बताइए । तन से, मन से, धन से, वचन से जैसे भी हो हम हाज़िर हैं। ‘ नारायण हरि।  नारायण हरि ।  नारायण हरि।

वो दे तो प्रसन्न काहे का?  मुआ प्रसन्न हो चाहे न हो हमारे को क्या हुआ? उसकी प्रसन्नता तो कुछ न कुछ दे। फूल दे या फूल की पखड़ी दे नहीं तो कम से कम शुभ कामना और मीठी मुस्कान तो दे। मौजी प्रसन्न हो तो कुछ न कुछ देगा दाता प्रसन्न हो तो कुछ न कुछ दिए बिना रहेगा भी तो नहीं।

नारायण हरि | नारायण हरि|  नारायण हरि|

जो जवाबदारियों से भागते रहते वो अपनी योग्यता कुंठित कर देते। और जो निष्काम कर्मयोग की जगह पर एक दूसरे का टाटिया खींचते हैं वो अपने आप को खींच के गटर में ले जाते हैं | ये जो आपके यहाँ ऐसा है ऐसा मेरे कहने का तात्पर्य नहीं। सब जगह ऐसा दिख रहा है मुझे। जहाँ देखो छोटे मोटे घर में, छोटे मोटे समाज में , छोटे मोटे संगठन में ,छोटे मोटे कहीं भी .. वो चाहे दूध की डेरियाँ हो चाहे नगर पंचायत हो चाहे ग्रामपंचायत हो।  ये समिति वाले भी गाँव से समाज से ही आये है। बोले ‘बापू! फलाना आदमी ऐसा है देखो! समिति में रहके भी उसने ऐसा कर दिया। मैंने कहा समिति में रहके ऐसा कर दिया तो समिति ने आदमी तो नहीं बनाया , मैन्युफैक्चरिंग तो नहीं किया। वो आया था तो तुम्हारे गाँव से और सचमुच में समिति में रहकर नहीं किया, समिति में घुसके ऐसा किया। ऋषिप्रसाद की एक बुक ले गया। कैसे भी चुराके। और सदस्य बना बना के पैसे अपनी जेब में रख लिए।  आप सदस्य बिचारे चिल्लाते रहे ‘ऋषिप्रसाद की वो है। ‘

लेकिन वो दान के और हराम  के पैसे ने उसको ऐसा परेशान किया कि वो पकड़ा भी गया, आया भी, माफ़ी-वाफी भी माँगी और बाद में दूंगा। वो जब दे तब दे लेकिन जिनके पास से आश्रम के नाम से बिचारे के विश्वास का घात  हो जायेगा। भाई ! उनको भेजो।

दिल्ली में एक ठग ऐसे कुछ किताबें लेकर घर घर पहुंच गया किताब

“लीजिए पढ़िए किताब हम लोग समिति में है। आयोजन करा रहे है आप पढ़िए। ”

“भाई ! कितने पैसे किताब के ?”

“किताब के नहीं…. आपको जो डोनेशन देना हो दे दीजिये। ”

अब किताब तो लिखा हुआ है दो रूपया-तीन रूपया क्या करे? और डोनेशन क्या ३ रूपया थोड़े देता है? कोई पचास देगा, कोई सौ देगा, कोई पांचसौ देगा। ऐसेही  किसी ठग ने उघराना शुरू कर दिया। उस ठग को हमने भी नहीं पकड़ा, समिति वालों ने भी नहीं पकड़ा,लेकिन उस ठग को  किसी अंजान व्यक्ति ने पकड़ा और फिर  सीबीआई वालों को पकड़ा दिया। वो ठग तो वाकर गया कि ऐसा काम हो जाता है की अपने ह्रदय में निष्कामता है तो कोई बेईमानी करता है तो बेईमान ऐसे ही पकड़ा जाता है, कि फिर बोर्ड लगाने पड़ते है कि आश्रम के नाम पर, समिति के नाम पर अथवा कभी कभी कैसेट में बोलना पड़ता है ऐसा कोई ठग न घुस जाए तो इसकी भी सावधानी रखना। ऐसा कोई एडजस्टमेंट वाला भी कोई न घुस जाये उसकी भी सावधानी रखना। जय राम जी की।
कि साब एडजस्टमेंट कर दिया …

पंचेड़ में एक ऐसा घुस गया था पंचेड़ समिति में ।  अभी मैं उसका अभी तक नाम नहीं लिया ना लूंगा ।  मेरे ह्रदय में हुआ कि फलाना पंचेड़ आश्रम में है तो आश्रम की समिति के आदमियों में खजांची है तो उसका देखना पड़ता है ध्यान करके। मेरे ह्रदय बोलता था कि आदमी तो बाहर से तो बड़ा दिखता है, अच्छा दिखता है लेकिन मेरा ह्रदय अंदर पुकारता है कुछ। तो पंचेड़ जाऊँगा तो बुला लूँगा। क्या करूँगा? इधर बुलाए आये न आये। बिचारा बिजी होगा। पंचेड़ गया तो समितियों के आदमियों से वो मैंने कहा ‘ खजांची कौन है? ‘ ‘बापू मैं हूँ ‘ मैंने कहा ‘मेरे पीछे पीछे आ। ‘

मैं घूमने गया पीछे पीछे आया । मैं क्या ‘अपनी समिति में पैसे… आपकी समिति में कुछ गड़बड़ होते है।  बोले ‘बापू! ऐसा तो नहीं है यहाँ तो बहुत खबरदारी से काम करते हैं।  ऐसा तो कोई नहीं है। मैं क्या ‘कोई नहीं है ये तो तुम कहते हो लेकिन मेरा ह्रदय बोलता है कि पैसे गड़बड़ होते है दान के।’ बोले ‘अच्छा बापू ! ध्यान रखेंगे ! बाकी…’

उसने नाम दान भी ले रखा था दिखाने के लिए। जय राम जी की।  और समिति में खजांची बन गया था। मैंने कहा ‘ तुम जाओ! सोचो ! अगर ऐसा कोई है तो मेरे को बताना। ये दान का पैसा है उस कमबख्त को तो पता नहीं चलेगा लेकिन उसकी सात पीढ़ियां बेहिमाल हो जाएगी। इसीलिए तुम ध्यान रखो कल मुझे बताना। चौबीस घंटे की तुमको महुलत देता हूँ। तभी उसको लाइट नहीं हुई। फिर आया।जय रामजी की |  फिर मैं वो पंचेड़ आश्रम की कच्ची सड़क में घूमने निकला।  पीछे पीछे आया। मैं क्या ‘ऐसा कोई है ?’ ‘नहीं बापू! इसमें तो फलाना है फलाना है।  और मैं आपका दास भी हूँ। ‘ वो बोलता जा रहा मैं सुनता चला जा रहा हूँ।

फिर मैंने मुड़के उसको कहा ‘तुम्हारे ध्यान में नहीं आये तो नहीं आये लेकिन दान का पैसा जो खाएगा साला ! बर्बाद हो जायेगा। ‘

उसकी नजर मेरे आँखों पर पड़ी।  थोड़ा आवाज में कड़काई थी। वो लम्बा पड़ गया। ‘बापू! मैं जरूर ध्यान रखूंगा। अच्छा अब मैं जाऊं’ हाँ मैं कहा ‘जाओ !’

रात भर उसको नींद नहीं आई ।दूसरे दिन फूट फूट के रोया और चिट्ठी लिखी कि समिति में जो दस हजार इतने रुपये है मेरे लेने निकलते है। वो आप कृपा करके स्वीकार कर ले समिति और जो कुछ भी है मैं आपके शरण में हूँ। जो कुछ लम्बी चौड़ी चिट्ठी लिखी।  मैं कहा अच्छा जाओ! नाम तो उसका मैंने जाहिर नहीं किया पर जितना लिया उसका पैसा उसका और ढंग से गया।  उसके पहले दूसरा आदमी था उसमें ।  उसने भी कुछ इधर उधर किया तो उसको तो इतना खर्चा हुआ कि मगज का ताना पड़ा और बांछे माछे घूम गए, ऐसे चलता है । ऐसे दूसरी जगह भी एक दो हैं। मैं नाम लेकर किसी को बदनाम नहीं करना चाहता हूँ।

ये धर्मादे का पैसा ऐसा खतरनाक है महाराज! तौबा करो …आरती कराई… हम तो किसी से नहीं लाये … लेकिन यहाँ वहां से … | इसमें यहाँ वहां से हुआ तो सब नाश हो जायेगा |

उस धर्मादे के पैसे में गड़बड़ होती है तभी बुद्धि में गड़बड़ हो जाती है। मुफत का खाना सत्यानाश जाना। तो आपकी समितियों को ये ध्यान रखना होगा। वो पहेले समय था कि कम समितियों थीं तो कभी-कभी किसीका देखते थे , अभी देखने का भी टाइम नहीं मिलता ।  सच्ची बात है। और ये एक एक का बैठके ध्यान लगाए ये अब मेरे बस का नहीं। इसीलिए भी ये जो तुम्हारा आयोजन हुआ अच्छा है ताकि मेरी बात सब तक पहुँच जाएगी और सब सावधान रहना। खजांची बनकर लाख- दो लाख – पांच लाख चुराएगा लेकिन ये भी मुश्किल है की पांच लाख समिति का  खजांजी  बनकर चुरा ले। देर सबेर तो बात आ ही जाती है महाराज! उसका पोल खुल ही जाता है। और कोई नहीं खोले तो उसका अंतरात्मा तो उसको डंखता है की किसीको पता न चलें। चेहरे पर गड़बड़ हो जाती है। लेकिन तुम्हारे जीवन में पांच लाख क्या होता है? पच्चीस लाख क्या होता है ? तुम तो सत्कर्म करके सत्य स्वरुप ईश्वर के सुख सामर्थ्य को पाओ ऐसा तुम्हारे को मिल रहा है।

दूसरी बात भी ये कहनी थी की जहाँ जहाँ समिति के भाई है वहाँ वहाँ जो सफ़ेद पोशाख वाले है, गरीबों को, आदिवासियों को तो देते है,सेवा करते है वो ठीक है लेकिन कुछ ऐसे जो आदिवासियों से भी आदिवासी है।  ऐसे लोग भी है।  कपडे तो अच्छे है लेकिन आदिवासियों से भी ज्यादा उनकी स्थिति दयाजनक है। पच्चीस रूपया दिन में कमाएंगे और छः आदमी होते घर में, पांच आदमी होते, बूढ़ी माँ होती है, छोरे को पच्चीस रुपये मिलते है। तो ऐसे लोगों को भी अगर तुम्हारे नजर में हो तो लिस्ट बनाकर, छोटा मोटा राशन कार्ड बनाकर या और कुछ बनाकर उनको भी थोड़ी बहुत मदद दे सको तो देना। और तुम देवो थोड़ा यहाँ से अहमदाबाद  समिति से। अहमदाबाद समिति नहीं तो फिर अपना गुरु समिति से, थोड़ा मिल-जुलकर सेवा कर लेंगे।

नारायण हरि  नारायण हरि

अहमदाबाद समिति की भी कोई लिमिट है तो थोड़ा वह समिति ये समिति।  सत्कर्म होते रहे।

लेके तो हमारा बाप नहीं गया रोटी तो उसके बाप को देनी है फिर संग्रह आदि अच्छा नहीं ये मोक्ष पथ में आड़ है।

कैसे भला तू भाग सके। सिरपर पे लदा जो भार है।

और समितियों के ये भी एक सेवा का अवसर मिल सकता है कि महीने में एक दिन ऐसा रखें कि जहाँ रहते है उस इलाके कि अस्पताल है तो मरीजों का दर्शन करने चले जाएँ। दो दो फल,पांच पांच फल , चार – चार फल और कोई निर्भीकता जैसे ‘जीवन रसायन’ पुस्तक दे उनको। ये कार्य भी समितियां कर सकती है। जो दर्दी हैं बीमार लोग हैं उनसे भी महीने में एक बार, दो महीने में एक बार, तीन महीने में एक बार, १५ दिन में….. जैसे आप लोगों की सुविधा।  घूमना भी हो गया थोड़ा और मरीजों को देख कर कहो कि शरीर की ये हालत! अपना वैराग्य भी बढ़ेगा।

और कभी कभी समिति अपने अपने शमशान के इलाके में जाके बैठोगे की ‘ले भाई ! आखरी एड्रेस है। देखो! पहले से आगे ये होना है।’ ये भी एक रख दो आप।

हम तो भाई हमारे पिताजी को जब छोड़ने गए थे ग्यारह साल ,दस-ग्यारह साल की उम्र थी। और पिताजी की भभुक भभुक चिता जलती देखी और हमारा सोया हुआ वैराग्य जागा। फिर उसी शमशान में हम कई बार गए लेकिन हम मरेंगे तो हमको तो यहाँ नहीं लाएंगे। गाड़ देंगे इस उम्र में तो।गाड़ देते है। बारह पन्ध्रह साल के उम्र के बच्चों को गाड़ देते है। वो पास में ही शमशान था केलिकोमित। फिर वहाँ जाके बैठते थे बच्चे गड़े हुए शमशान में। ‘देख ! ये है ! कल भी मर सकते है और परसो भी ऐसे सो सकते। इसीलिए चेत जाओ भैया ! तो आप भी समिति, समिति नहीं तो समिति के कोई कोई मेंबर शमशान में जाएँ। कलजुग में शमशान को वरदान है की वहाँ ज्ञान और वैराग्य मुफत में मिलेगा। ज्ञान,वैराग्य नहीं है तो भक्ति बिचारि रोती रहती है।  ज्ञान वैराग्य मूर्छित है तो भक्ति बेचारी रोती रहेगी।

किस के लिए वस्तु मिली है ?? वस्तु का सदुपयोग करने की जिम्मेदारी आई अपने पास। समय का सदुपयोग करने की जिम्मेदारी आई हमारे पास। तो हम उस जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाएं। महात्मा गांधी जेल में थे।  जेलर के साथ किसी गम्भीर विषय में बात कर रहे थे। जाड़ों के दिन थे। स्नान के लिए गरम पानी रखा था। उनसे बातचीत का सिलसिला एकाएक बंद करके वो सिगड़ी में जो कोलसा था वो निकालकर वो अर्धजला कोलसा बुझाकर फिर जेलर से बातचीत में लगे।  जेलर समझ गया की गांधीजी आधा कोलसा बचाने के लिए बात का सिलसिला बंद करके गए। वो बोल ‘मिस्टर मोहनलाल में एक बैग भेज देता हूँ कोलसे की। कोलसे बहुत पड़े जेल में।

बोले ‘ पड़े है तो क्या है तेरे बाप के थोड़े है ? है सरकार के और सरकार तो पब्लिक के खून में से तो उसके तिजोरी में आता है।  उपयोग तो करुं जरूरत पड़ने पर बिगाड़ने का मेरा अधिकार नहीं है इसीलिए मैंने बुझाया। तू क्या दे देगा ? ‘

तो समिति वालों को ये भी ध्यान रखना चाहिए की बिगड़ न हो हमारी समितियों में।

बक्शीश लाख की हिसाब पाई का, कौड़ी का।  सदुपयोग होता हो तो एक लाख नहीं दस लाख खर्च करो, पचास लाख खर्च करो, पचास करोड़ खर्च करो,आते जायेंगे कमी नहीं रहेंगी।

लेकिन जब चोरी या बिगाड़ होगा तो फिर अपनी सेवा ही बिगड़ी समझो। और भी महाराज ! आपको क्या क्या बताऊँ ? ऐसे भी लोग थे चौदा सौ रुपये समिति में से खाली हड़प किया।  पूरा का पूरा तेजुमल का खानदान दुखी हो गया।  वो तो मर गए लेकिन वो चौदा सौ रूपया अभी भी बदला ले रहे है। डिसा की बात है। ये कलयुग नहीं करजुग है।  देर सबेर तो परिणाम तो आता है। तो समिति की भाई बहने ये भी ध्यान रखेंगे और दो सिद्धांत सामने रखे एक सिद्धांत लीलाशाह बापू गठरी लेकर गाँव गाँव प्रचार करते।  सेवा का कितना महत्व है।  हनुमान जी कितनी सेवा करते। सेवा नहीं मिली तो चुटकी बजाने की सेवा खोज ली। ‘राम काज बिन कहाँ विश्रामा ‘

दूसरी बात की समिति में स्नेह और सच्चाई बनी रहें। कभी गलती किसी की होगी, कभी उपाध्यक्ष की होगी, कभी खजांजी की होगी ,कभी मेंबर की होगी एक दूसरे को ठीक करने के लिए एक दूसरे पर हावी होने के बजाय, एक दूसरे के आगे नम्रता से पेश आये। तो संघर्ष की जगह पर स्नेह पैदा हो जायेगा। विरोध की जगह पर शक्ति का संचय हो जायेगा। ‘अजी ये ऐसा है, अजी वो ऐसा है। रामतीर्थ कहते की सेवा करते उन मूर्खो को पता भी नहीं की सेवक को कितना बड़ा दिल रखना चाहिए।

‘अजी फलाना ऐसा है ये आदमी ठीक नहीं ! ये आदमी ठीक नहीं ! गाय ठीक नहीं क्योंकि सवारी के काम नहीं आती और घोडा ठीक नहीं क्योंकि दूध नहीं देता क्या रखें? और हाथी ! अरे ! हाथी खाता खूब है चौकी नहीं करता कमबख्त ! और कुत्ता ! बोले चौकी तो करता है पर सवारी के काम नहीं आता क्या करे उसको ?

तू तो बेकार हो गया। तेरे लिए सब चीज़ बेकार हो गयी मूर्ख !  अरे ! बड़ा काम है तो बड़ा दिल रखना पड़ेगा।  जिसमें जो क्षमता है, योग्यता है उसका उपयोग करते करते उसकी योग्यता बढे ऐसा करके गाड़ी चलाना होगा।

चीजे लेकर कतार कर दी और बच्चों को बाँट दी। दूसरे महीने में लाहोर कॉलेज में पगार हुआ सौ रूपया, धर दिया।  तीसरे महीने में भी यही किया। घर में बच्चों का हाथ टाइट हो गया। पत्नी वही अपना ठीकड़ा लगाके पेन रखां। ठीकड़ा लगा हुआ है।  और प्रोफेसर सोच कर हैरान हो गए की ये प्रोफेसर के बेटे है की किसी भिखमंगे के बेटे है ? जाके रामतीर्थ को डांटा की ‘आप कैसे हो मिस्टर ? एम पढ़े हो। अपने बच्चों की हालत तो तुम किसके लिए कमाते हो ?बच्चों के लिए कमाते हो।  रामतीर्थ ने कहाँ, तीर्थराम  नाम था,

“हाँ ! बच्चों के लिए कमाता हूँ।”

“तो फिर बच्चों को दो न तुम।”

” हाँ ! बच्चों को दे रहा हूँ”

“क्या ख़ाक बच्चों को दे रहे हो ? सौ रूपया पगार है।  पेन ले लेते हो, कॉपियां ले लेते हो ,पेन्सिलें ले लेते हो, चने ले लेते हो ,सिंग ले लेते हो, सामग्री ले लेते हो और लम्बी क़तर कर देते हो भिखमंगों की और उनको दे देते हो ”

बोले “वो भी तो मेरे ही बच्चे है ”

“तो तुम्हारे घर बैठे है उनका क्या?

बोले” उनको भी कतार में लगा दो उनको भी दे दूंगा।  क्या है ? ” हां बडो !

“लाओ उनको  लाइन में! ”

“ये क्या कह रहे हो ?”

बोले ” क्या? ये दो ही बेटे मेरे है? जिसका में हूँ उसके वो है।  वो अनन्त संभालेगा जब में उसीके उनको संभल रहा हूँ तो इन्ही के उनको वो नहीं संभालेगा ? ”

दूसरे प्रोफेसर जो चतुर थे कमा कमा कर बेटों को दिए की बेटे तो कोई मास्टर बना, कोई क्लर्क बना, तो कोई महाराज ! छोटा-मोटा धंधेवाला बना।  कोई कोई विरला प्रोफेसर बन लेकिन रामतीर्थ के दोनों बेटे एक चीफ जस्टिस बन और एक चीफ इंजीनियर बना।  ले ! ऐसा मैंने सुना है।

जितना आप बहुजन हिताय बहुजन सुखाय करते उतना आपका आपके बेटे बेटियों का, परिवार का सब अच्छा होने लगता है। उत्तम राजा उत्तम सेवक अपने विषय में अपने लिए नहीं सोचता है, मिली हुई सामग्री , मिली हुई योग्यता , बहुजन हिताय के लिए सोचता है तो उसके लिए उसके परिवार के लिए अनन्त अपने आप कर लेता है।

‘सु करूँ? म्हारी डिक्री मटे अटला राखूं म्हारे डिक्रे मटे तो अटला करूँँ ‘ ऐसा कर कर के मर गए कई डिक्रे डिक्री करके और वही डिक्रे या डिक्री बुढ़ापे में थूकते भी नहीं।

‘पूछवाई नथिया औता छी अकनि नथी लेवा औता काका नी’ एक काका नहीं सब लोग आप काका बनेंगे।

‘जिन नासु सठासु गांधी किन गया ‘ जिन के लिए सारी जिंदगी निचोड़ निचोड़ दिया वो मोह में स्वार्थ में एक आदमी मर गया। बोले “क्या दान पूण्य किया?” चित्रगुप्त ने पूछा।  बोले मैंने तो सब दान कर दिया। मेरी दो फैक्ट्री थी। दोनों बेटे को दे दी। और जो बैंक बैलेंस था उसमें आधा हिस्सा लड़कियों को दे दिया और आधा हिस्सा पोतों के नाम कर दिया।  और ज्वेलरी थी वो मिसेस के नाम पे है वो थोड़ा करके आये। मैं सब दान करके आया।

बोले ‘डाल दो इसको नरक में ! अरे अपने धातु से, अपने पेशाब के बूँद से जो पैदा हुए उनको दे देके वो तुमने, वो तो तुम्हारा काम का विकार, वही कामना कामना में दिया। जिससे तुम्हारा कोई ब्लड रिलेशन नहीं है और ईश्वर के नाते उनको कितना दिया वो दान में माना जायेगा। ये दान थोड़े है ये तो मोह है। कपट करके कमाया और मोह करके दे दिया। तो दोनों तरफ से बंधे हो। डाल दो इसको नरक में। धकेले लेई जाओ बाँध के।’

नारायण हरि  नारायण हरि

एक आदमी को गाड़ियाँ थी दो तीन। ट्रांसपोर्ट का काम करता था। किसीने कहाँ की ‘भाई ! गाड़ी चाहिए ‘ बोले  ‘ गाड़ी तो साब ! आठ दिन के लिए हम नहीं दे सकते। बुक है आठ दिन का माल।’ बोले ‘दूसरी कोई ट्रांसपोर्ट बताओ।’ ‘हमारे गाँव में तो एक ही ट्रांसपोर्ट है हमारे यहाँ।  आप तो जानते है दूसरी कहाँ से ?”

बोले ‘दूसरी किसी की गाड़ी मिल जाएँ।’

‘देखूँगा ! मैं जाँच करूँँगा लेकिन आज कल सिजन चल रही है गाड़ी पर। मिलना मुश्किल है ‘

‘क्यों? क्या चली है ?’

‘अरे वो सत्संग होने वाला है और उसी लिए हम ‘

‘किसका सत्संग?’

‘बापूजी का’

‘अरे यार पहले क्यों नहीं कहता।  ले आ ! ऐ छोकरा ! वो माल बाद में भेज ये गाड़ी दे दो ‘

बोले ‘पिताजी! ये पन्द्र सौ की कमाई की ‘

बोले ‘पंधरा सौ साले! कहाँ रहेंगे? ये कमाई ऐसी करेगी तू भी खायेगा तेरा बेटा भी खायेगा फिर भी नहीं खुटेगी,ये पुण्य कमाई हो रही है। गाड़ी भेज सत्संग में। ‘

‘गाड़ी भेज सत्संग में। तेरा करेगी। बाबाजी आ रहे है।  संत का दर्शन करने लोग जायेंगे।  उनकी सामग्री लाएगी करेगी।  गाड़ी रख दो सत्संग में।  चार दिन सत्संग चलेगा पांच दिन गाड़ी रख दो। ट्रांसपोर्ट की ऐसी तैसी ‘

वो मोची ! बम्बई का सेठ जूता सिलाता है। मोची पूछता है ‘सेठजी ! कैसे आये इस गाँव में ? आप कहाँ के हो ? ‘

बोले ‘में बम्बई से आया हूँ। बम्बई के पास में फलानि जगह पे मेरा है सब कुछ।  इस गाँव में आया हूँ बाबाजी का सत्संग सुनने।’ मोची के आँखों से टप टप आंसू गिरते है।  बोले ‘क्यों भाई? ‘ बोले ‘सेठजी! मैंने भी विचारा था में भी जाऊँगा कथा सुनने लेकिन मैं अभागा नहीं जा सकता हूँ। मैं तो उपवास कर सकता हूँ।  मेरी पत्नी उपवास कर सकती है। मेरे बेटे पानी पी कर सो सकते है। लेकिन जो बूढी दादी माँ है और मेरे जो पिताजी है वे भूख नहीं निकाल सकेंगे।  अगर में कथा में जाता हूँ तो एक दिन मुझे ये फुटपाथ की दुकान बंद रखनी पड़ेगी। इसलिए में कथा सुनाने नहीं जा सकता हूँ सेठ! मैं अभागा हूँ। ‘

मोची की आँखों से पानी की बूंदे गिरी। चप्पल सी लिया सेठ की।  सेठ ने दस की नोट मोची के आगे रही ‘भाई ! ले ले ! ‘ मोची कहता है ‘भाई ! क्या कर रहे हो ? बोले दस रूपया रख ले। छुट्टा वापस नहीं चाहिए। ‘ बोले ‘दस रुपये तो क्या में आपके दस पैसे भी नहीं लूँगा। आप संत के दर्शन करने आये।  सत्संग सुनाने आये। कम से कम इतनी सेवा तो मेरे को दे दो। सेठ बोलता है के तेरे मोची के पचास पैसे रखकर मैं क्या अमीर होऊंगा। मेरे पास तो चालीस चालीस हजार रुपये पगार लेने वाले सीए नौकरी करते। पानी भरते मेरे यहाँ।  मैं फाइनेंस का भी करता हूँ। मोजी जेठ मार्केट में मेरी दो दुकाने है भाई ! अस्सी अस्सी लाख जैसी दुकाने है अभी डेड करोड़ भी मिलाता है। मेरे पास कितना पैसा है मेरे को ये भी गिनने में देर लगेगी और तेरे पचास पैसे में क्यों लूँगा? ले रख ले दस रूपया।’ मोची बोलता है की ‘सेठ ! दस पैसा भी नहीं लूँगा। ‘

अब सेठ और मोची का तो युद्ध हो गया। मोची कहता है की नहीं लूँगा और सेठ कहता है की मैं नहीं लूंगा।  तेरा मोची का पचास पैसा ! आखिर महाराज! दोनों का मधुर युद्ध चला।  त्याग में युद्ध चला। मोची ने हाथ जोड़े के पैर पकडे के सेठ और तो कुछ नहीं काम से काम इतनी सेवा तो मुझे करने दो। आप बम्बई छोड़कर संत के दर्शन करने आये। ‘

बोले ‘अरे ! मैं तो खुली हवा,शुद्ध पानी , शुद्ध गाँव में दूध मिलेगा और कभी बापूजी फ्री होंगे तो थोड़ा दर्शन और बातचीत का अवसर मिल जायेगा।  इसी लिए में बम्बई से आया हूँ। तेरे पास से चप्पल सिलाने थोड़े आया हूँ भाई ! वो तो जहाँ ठहरा हूँ गेस्ट हाउस से इधर आने में पैदल आना पड़ा तो चप्पल टूट गयी। तू ले ले दस रूपया , पांच रूपया ले ले चल ! दो रूपया ले ले। ‘ बोले ‘ सेठजी ! दो पैसा भी नहीं लूंगा। अरे भाई चप्पल सिया है तेरा अपना ले ले ना ! ‘

बोले ‘ नहीं सेठजी ! देता है न भगवान तो। आज खाने भर को है। इधर के लिए तो ज़िन्दगी भर करते उधर के लिए थोड़ा सा तो मेरे को करने दो सेठजी !’

आखिर मोची की जीत हुई और सेठ ने हार  मान ली।

गुरु गोविन्द सिंह के पास ऐसा कोई प्रोजेक्ट आया के लोग दबे जा रहे है और कुछ सैन्य -वैन्य पैसा चाहिए। गुरूजी ने कहाँ ‘किसी को भी, जो भी कुछ चाहिए फल फूल प्रसाद नहीं लाओ। रोकड़ रकम ले आओ। सैन्य के लिए चाहिए। किसीने सौ दिए , किसीने पांच सौ , किसीने हजार , किसीने पांच हजार।  एक माई चवन्नी ले आई। गोविन्द सिंह ने उसकी  चवन्नी  लेकर आँखों पर रखी। चुम्बन किया। ह्रदय से लगाया। उस चवन्नी को एक हाथ से दूसरे हाथ,एक हाथ से दूसरे हाथ किया।  और जो दान दक्षिणा रखी उनको बोला ‘सम्भाल लेना।’

चेलों ने पूछा ‘ये चवन्नी  में क्या जादू है गुरूजी ? आँखों पे चढ़ा रहे हो। चुम्बन कर रहे हो क्या बात है ? ‘

बोले ‘ ये माई कथा में बैठी थी बुढ़िया और इसका इकलौता बेटा वो भी अलग हो गया। और पति तो चल गए। तो इसके पास हसिया था। हसियां से घास काटती थी। घास बेचती थी उसी से गुजारा करती थी। लेकिन इसने देखा की गुरु को कुछ देना है तो अपना हसिया बेचके पूरी की पूरी प्रॉपर्टी दे रही है। हंड्रेड पर्सेंट दे रही है प्रॉपर्टी। कल क्या खायेगी उसकी फ़िक्र नहीं कर रही। तो ये चवन्नी क्या है ये तो खजाना है भाई ! हंड्रेड पर्सेंट डोनेट कर रही है। उसके आगे जयपुर के बिल्डिंग का बीस लाख क्या होता? हंड्रेड पर्सेंट नहीं है।  १० पर्सेंट भी नहीं है। ५ पर्सेंट भी नहीं है। तो हमने दस्तावेज को चुंबन थोड़े किया रख दिया उस पर।

नारायण हरी ।  नारायण हरी ।नारायण हरी ।नारायण हरी ।

फिर मैं अपना विचार बता दूँ समिति का।  मेरे मन में भी ऐसा कई दिनों से आ रहा है की समिति के लोग भी बुड्ढे होंगे और एक दिन मरेंगे भी जरूर। तो घर में मरे,गृहस्थी  में फिर भटके , इस से तो एक ऐसा आश्रम बनाए की समिति के कार्यकर्ता है ,रिटायरमेंट लाइफ कभी थोड़ी थोड़ी गुजरे ऐसा एक विशाल जगह में आश्रम बनाए।  स्विमिंग पूल हो, आयुर्वेदिक हॉस्पिटल हो ,कुछ कीर्तन का हो ,कोई प्यरामेड हो ,कुछ दो पांच करोड़ की संस्था बना ले। सारे समिति वाले और बन्दे  जो है रिटायर लाइफ , हम भी तो रिटायर लाइफ गुजारने की तैयारी कर रहे है, तो ये भी तो गुजारेंगे। संसार में बहुत हो गया प्रचार प्रसार तो ऐसा विचार भी आ रहा है। तो देखे ! कहाँ अन्न जल भूमि कौनसी ? जो हरि इच्छा होगी विचार चल रहा है अभी तो। बनना चाहेंगे तो किसी चीज़ की कमी नहीं रहेंगी। मेन पावर ये वो कमी भी नहीं रहेंगी लेकिन आया, मीटिंग में तो विचार रखना है तो मैंने अपना रख दिया। आपने भी रख दिया मैंने भी रख दिया। नारायण हरि नारायण हरि

 

साधु जाने गुरु सेवा का मूल विचार ।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

गुरु सेवा सौ विघ्न विनाशे ।  दुर्मति भाजे पातक नाशे।

गुरु सेवा सौ विघ्न विनाशे ।  दुर्मति भाजे पातक नाशे।

गुरु सेवा चौरासी छूटे।  धावक मन का डोरा टूटे।

गुरु सेवा चौरासी छूटे।  धावक मन का डोरा टूटे।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

 

गुरु सेवा यम कंदन लागे। ममता मरे भक्ति में जागे।

गुरु सेवा यम कंदन लागे। ममता मरे भक्ति में जागे।

गुरु सेवा सो प्रेम प्रकाशे। उन्मत्त होइ मिटे जग आशे।

गुरु सेवा सो प्रेम प्रकाशे। उन्मत्त होइ मिटे जग आशे।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

 

गुरु सेवा परमात्मा दर्शे। त्रिगुण तजि चौथा पद स्पर्शे।

गुरु सेवा परमात्मा दर्शे। त्रिगुण तजि चौथा पद स्पर्शे।

श्री शुकदेव बताये भेला। चरण दास करे गुरु की सेवा

श्री शुकदेव बताये भेला। चरण दास करे गुरु की सेवा

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

ॐ ……… कीर्तन

जगने दो तुम्हारे सृषुप्त शक्ति को। जगने दो तुम्हारे प्राण कल को। चित्ती को। चेतना को।

ये केवल मजा लेना नहीं है। परम मजे के द्वार खोलने की भी एक कला है।  एक प्रयोग है।

हर रोज ख़ुशी…….हर रोज ख़ुशी  ……. हर हाल ख़ुशी

 

सेवा ही भक्ति – १


अपनी सेवा वही है के अपने को परस्थितियों का गुलाम ना बनाये। परिस्थितियों के दास्ताँ से मुक्त करे। वही स्वतंत्र व्यक्ति है और जो स्वतंत्र है वही सेवा कर सकता है |

पद और कुर्सी मिलने से सेवा होगी और बिना कुर्सी के सेवा नहीं होगी ये नासमजी है। जो अपनी सेवा कर सकता है वो विश्व की सेवा कर सकता है। चाहे उसके पास रुपया पैसा नहीं हो, फिर भी वो सेवा कर सकता है। किसी को रोटी खिलाना, वस्त्र देना इतना ही सेवा नहीं है | किसी को दो मीठे शब्द बोलना, उसके दुःख को  हरना यह बड़ी सेवा है। निगुरे को गुरु के द्वार पर पहुंचाना ये बड़ी सेवा है। असाधक को साधक बनाना ये भी सेवा है । अनजान को जानकारी देना ये भी सेवा है ।  भुखे को अन्न देना यह सेवा है ।  प्यासे को पानी देना ये  सेवा है। अभक्त को भक्त बनाना ये सेवा है। उलझे हुए की उलझने मिटाना ये  सेवा है और जो देता है वो पाता है। जो दूसरोंको कुछ न कुछ देता है, और नहीं तो दो मीठे शब्द ही सही, और नहीं तो दो भगवान की बात ही सही। और सेवा में जो बदला चाहता है वह सेवा के धन को कीचड़ में डाल देता है। सेवा करे और बदला  कुछ मिले, हमारा यश हो, हमें पद मिले,  हमें मान मिले,  तो वो सेवक व्यक्तित्व बनाना चाहता है और व्यक्तित्व हमेशा सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा। व्यक्तित्व सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा तो सत्य स्वरुप से सेवा नहीं करने देगा। जो सच्चाई से सेवा नहीं करने देगा तो सच्चाई से मुक्ति भी नहीं पाने देगा।

सच्चाई तो ये है के सेवा के बदले कुछ न चाहना। जब कुछ न चाहेंगे तो  जिसका सब कुछ है वो संतुष्ट होगा | अपना अंतरात्मा तृप्त होगा, खुश होगा।  जब अंतरात्मा खुश होगा, तृप्त होगा तो  कुछ न चाहने वालो को तो सब कुछ मिलता है।

जो किसी को प्रेम करता है वो किसी को  द्वेष करेगा।  जो कुछ चाहता है वो कुछ गँवाता है । लेकिन  जो कुछ नहीं चाहता वह कुछ नहीं गँवाता ।  और जो किसी को प्रेम नहीं करता वो सबको प्रेम करता है और जो सबको प्रेम करता वो किसी व्यक्तित्व में, परिस्थितित्व में बंधता नहीं है और वो निर्बंध हो जाता है।

जो निर्बंध हो जाता है  दूसरों को भी निर्बंध बनाने का सामर्थ्य उसका निखरता है।  जो निर्दुःख हो जाता है वो दूसरोंके दुःख दूर करनेमें सक्षम हो जाता है। जो निरहंकार हो जाता है वो सच्ची सेवा में सफल हो जाता है। औरों को निरहंकार होने के रास्ते पे ले जाता है।

तो सच्ची सेवा का उदय उसी दिन से होता है की सेवक प्रण करले के मुझे इस मिटने वाले नश्वर शरीर को, कब छूट जाये कोई पता नहीं | इस नश्वर शरीर, इस नश्वर तन से, अगर हो सके  ,शारीरिक क्षमता हो तो, तन से सेवा करुँ।  और भाव सबके लिए अच्छा रखूंगा ये मन से सेवा करुँ।  और लक्ष्य सबका ईश्वरीय सुख बनाऊंगा ये बुद्धि से सेवा करने का निर्णय कर ले और बदले में मेरे को कुछ नहीं चाहिए। बदले में  कुछ नहीं चाहिए क्योंकि शरीर प्रकृति का है, मन प्रकृति का है, बुद्धि प्रकृति की है और जहाँ सेवा कर रहे है वो संसार प्रकृति का है। संसार के लोग प्रकृति के है। संसार की  परस्थिति प्रकृति की है।  तो प्रकृति की चीजे प्रकृति में अर्पण कर देने से आप प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हो जाते है । जब प्रकृति के दबाव से और प्रकृतिके आकर्षण से  मुक्त हुए तो आप परमात्मा में टिक गए।

वो आपका स्वतः स्वाभाव था आप उसमें टिक गए। उसके आनंद में आप आ गए। ये एक दिन की बात नहीं है धीरे धीरे होगा लेकिन हर रोज ये मन को बतायें के हमको तो सेवा करनी है।  सेवा लेने वाला गुलाम रहता है और सेवा करने वाला स्वामी हो जाता है | सेवक न आय तो  स्वामी लाचार होता है के ‘अरे आज फलाना नहीं आया’ | लेकिन जो सेवा करता है स्वामी आये चाहे न आये सेवक तो अपना… उनकी पराधीनता महसूस नहीं करता। नौकरानी की याद में सेठानी दुःखी होती है | लेकिन सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती | नौकरानी तो रुपये की याद में दुखी हो सकती है, सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती। सेवा लेने वाला भले सेवक को याद करे लेकिन सेवा करने वाले की गाडी तो ऐसे ही चल जाती है।

तो ईश्वर के नाते सेवा करे और उस सेवा में और सुगन्धि लाये की ईश्वर के नाते सेवा करे और जिसकी भी सेवा करते है वो सब ईश्वर की भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ  है।  आप जिस किसी व्यक्ति को नीचा दिखाना चाहते हो तो समझो की उसके अन्दर बैठे हुए ईश्वर को आप नीचा दिखाना चाहते हो। जिस किसी व्यक्ति की इर्षा करते हो तो समझो की व्यापक ईश्वर सब में बैठा है | तो ईश्वर की उस अंग की, उस खंड की आप इर्षा करते हो। तो हमारे चित्त में अपना अहंकार पोसने की और दूसरों को नीचे दिखाने की, और  सेवा का प्रदर्शन करने की जो आदत है या कमजोरी है उसको निकालने से  हमारी सेवा सेव्य को प्रगट कर देगी।

निष्काम कर्म योग अपना स्वतंत्र योग है। जैसे तत्त्व ज्ञान, ज्ञान योग, सांख्य योग मुक्ति देने में स्वतंत्र है। ऐसे ही भक्ति ध्यान योग भी मुक्ति देने में स्वतंत्र माना गया है | ठीक ऐसा ही दर्जा है निष्काम कर्मयोग का । निष्काम कर्म योग भी स्वतंत्र है । मुक्ति देने में स्वतंत्र है। अपने स्वार्थ को पोसने का, अहंकार को पोसने का , दूषित वासनाओ को पोसने का , जो भी कोने खाचरे में वासनाये  या बेवकूफियां भाव है उसको उखाड़ के फेक दे।

बड़े बड़े जोगियों को समाधी करने से जो सुख मिलता है वो सुख सतियों को अपने घर में ही मिला।  बड़ा बड़ा सामर्थ्य जिन योगियों के जीवन में सुना जाता है उससे भी बढ़ा चढ़ा सामर्थ्य सतियों के जीवन में सुना गया है।  सतियों ने क्या किया ? सतियों ने अपनी इच्छा छोड़ दी, पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दी | पति की इच्छा में,  पति के संतोष में,  पति की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी को रख  लिया। पति की…..बस मेरी अपनी इच्छा नहीं।  पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाने से उनकी अपनी इच्छा हटती गयी | अपनी इच्छा  हटती गयी और उनकी सेवा चमकती गयी और  वे सतियाँ  ऐसी-ऐसी महान हो गयी  की सूर्य की गति को थाम लिया।

शाण्डिली थी – शाण्डिली का रूप, लावण्य, सौंदर्य देख कर ग़ालब ऋषि और गरुड़ जी मोहित हो गए के ऐसी तेजस्विनी, ऐसी सुंदरी इस धरती पर’ और तपस्या कर रही है।  नहीं नहीं तू तो भगवान विष्णु की भार्या होने के योग्य है।  विष्णु भगवान से तेरा विवाह करेंगे।  शाण्डिली ने कहा ‘ नहीं नहीं मुझे तो ब्रम्हचर्य व्रत पालना है।  शाण्डिली तपस्या में लग गयी, ध्यान भजन में लग गयी।  अपने शुद्ध बुद्ध स्वरुप की तरफ यात्रा करने लग गयी।  गरुड़ और ग़ालब को हुआ की इतनी तेजस्वी सुंदरी ! मानो अप्सराओ को भी मात कर दे…ऐसी  धरती की युवती…कहीं तपस्या-वपस्या में जोगन बन जाएगी तो फिर बात मानेगी नहीं | इसको उठा ले जाये और जबरन भगवान विष्णु के पास पंहुचा दे और वहां शादी करा दे। एक प्रभात को ग़ालब और गरुड़ आये शाण्डिली को उठा के ले जाने के लिए …और शाण्डिली की दृष्टि पड़ी की इनकी अपने लिए तो नहीं लेकिन अपनी मनमानी इच्छा पूरी करने के लिए इनकी नियत बुरी हुई है।  जब मेरे में इच्छा नहीं तो मैं किसी की इच्छा से क्यों दबु ? मुझे तो ब्रह्मचर्य व्रत पालना है और ये मुझे जबरन गृहस्थ में घसीटते है | विष्णु की पत्नी ! मुझे पत्नी नहीं होना है | मुझे तो अपने स्व स्वभाव को पाना है | पत्नी शब्द प्रकृति है,  प्रकृति में जन्मना-मरना नहीं है | मुझे तो प्रकृति के आधार को जानना पहचानना है और ये क्या कर रहे है मुझे निराधार बनाने के लिए।  शाण्डिली ने.…गरुड़ तो बलवान था और ग़ालब भी कम नहीं थे | लेकिन शाण्डिली की निस्वार्थ सेवा, निस्वार्थ परमात्मा में विश्रांति की यात्रा ने उसको ऐसा तो भर दिया था की शाण्डिली ने देखते देखते उनपर पानी का छीटा मारा ‘ग़ालब तुम गल  जाओ और ग़ालब को सहयोग देने वाले गरुड़ तुम भी गल जाओ’ | उन दोनों के शरीर महसूस हुआ की उनकी शक्ति क्षीण हो गयी | मानो वो गल ही रहे है भीतर भीतर से | बड़ा प्रायश्चित किया, क्षमा-याचना  की, तब कहीं उस भारत की कन्या ने उनको माफ़ किया और जैसे थे वैसे बना दिया और अपनी शक्ति बचाकर भागे। जिसमें निस्वार्थता होती है और ब्रह्मचर्य  का संयम होता है उसके आगे प्रकृति के नियम भी बदलने को राजी हो जाते है।

जो रुग्न मन का अनुसन्धान करके मनोवैज्ञानिक बोलते है की काम आये तो कोई बात नहीं रोको मत, सम्भोग से समाधी की ओर जाओ …तो उन बिचारे वैज्ञानिको की जो किताब है और  आचार्य  और विद्वानियों ने पढ़े तो वैज्ञानिकों का अविष्कार, अन्वेषण था की रुग्न मनो का अध्ययन करके…. तीन प्रकार के रुग्ण मन होते है और दो प्रकार के स्वस्थ मन होते है । क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये रुग्न मन होते है और आम आदमी के रुग्न मन होते ही  है।  निरुद्ध और एकाग्र ये स्वस्थ मन होते है।  स्वस्थ मन था अर्जुन का , अप्सराये गिडगिडायी उर्वंशी, लेकिन अर्जुन ने कमर नहीं तोड़ी अपनी। स्वस्थ मन था युधिष्ठिर का , कई परिस्थितियाँ आई लेकिन युधिष्ठिर  अडिग रहे ।  स्वस्थ मन था जनक का कई विक्षेप के अवसर आये, भोग  वासना में गिरने का अवसर आया लेकिन जनक भोग  में रहते हुए भी योग में रहे, ये स्वस्थ मन है।

तो स्वस्थ मन का अध्यन करके, अनुसन्धान करके वैज्ञानिक अगर अविष्कार करते , घोषणा करते तो वो ये नहीं कह सकते की काम न रोको, क्रोध न रोको , आवेग है उनको गुजरने दो, आने दो | ऐसा नहीं कहते, अपितु ये कहते की  काम को रोको, क्रोध को रोको, युक्ति से रोको।  लेकिन उनको अगर और कोई सतगुरु मिल जाये तो वो सज्जन भी कहेंगे की काम को रोकना पर्याप्त नहीं है | काम की जगह पर राम को प्रकट करो | क्रोध की  जगह पर क्षमा और सहानुभूति  को प्रगटाओ | यही तुम्हारे में विशेष क्षमताएँ हैं ।

झूठ न बोलो ये तो ठीक है, सत्य बोलो ये भी ठीक है, लेकिन स्नेह भरा बोलो। चोरी न करो ये तो ठीक है लेकिन जहाँ चोरी करने की आदत है वहाँ दान करों।  उदार बनो .. दो…. आपके पास शारीरिक बल हो,  मानसिक बल हो, बौद्धिक बल हो, जितना हो चाहे मुट्ठी भर हो , जितना भी हो उसे आप ईश्वर की विराट सृष्टि में , ईश्वर के लिए, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करो।  सदुपयोग मतलब सेवा करो।  आपके पास जितना, थोड़े से थोड़ा भी है उसको ईमानदारी से सेवा के लिए लगाओ | तो आप पाओगे के ज्यों-ज्यों आप अपनी योग्यताएं सेवा में लगा रहे है और बदले में कुछ नहीं चाहते त्यों त्यों आपकी योग्यताएं जादुई ढंग से बढ़ती  जाएगी। देखे बढ़ती है की नहीं ऐसा अध्येर्य मत करो।  बढ़े न बढ़े हमें कोई जरूरत नहीं।  हमारे पास जो योग्यता है देनेवाले की है और देनेवाले की  सृष्टि सवारने के लिए है । देनेवाले की सृष्टि की सेवा करने के लिए है। न सेवा का बदला चाहो और न सेवा का प्रचार चाहो, न सेवा का दिखावा चाहो। आपके हृदय की शांति और समझ सूझबूझ बढती जाएगी |

और आदर्श सेवक हनुमान हो गए | इसी ढंग से अपने को देखने की इच्छा करो।  सेवक और मान चाहे, सेवा के बदले में मान चाहे, सेवा को बेच रहा है फेक रहा है।  शरीर का अहंकार पोसने के लिए सेवा को नष्ट कर रहा है।  सेवक और मान की इच्छा? सेवा करोगे लोग मान देंगे लेकिन आपको उस मान से कोई फायदा नहीं होता अपितु अहंकार जगने का अवसर आता है। सेवा के बदले में मान न चाहो।  सेवा के बदले में भोग न चाहो।  सेवा के बदले में दूसरों को दबाने की क्षमता न चाहो।  सेवा करते जाओ जो तुम्हारा हरीफ़ है उसका ह्रदय भी जीतो। हरीफ़ जिस कारण से दुखी है वो कारण हटाते जाओ।  तुम्हारा दुश्मन जिन कारणों से दुखी है वे कारण आप हटाते जाओ।  दुश्मन की भी सेवा करो। फिर देखो उस दुश्मन पर आपकी कैसे विजय होती है।  दुश्मन को मार देना ये दुश्मन पर विजय नहीं है।  दुश्मन का  गला दबा देना या नीचे गिरा देना यह दुश्मन की विजय नहीं है इसमें दुश्मनी तो बनी रहेगी।  दुश्मन को अगर जीतना है तो दुश्मन जिन कारणों से दुःखी है वे कारण हटाना शुरू करो।  ये ऐसी सेवा है महाराज!

गजब कर देगी !

आपको स्वामी पद पे बिठा देगी।आप विश्वजीत हो जायेंगे। दुर्योधन युधिष्ठिर को दुश्मन मानते थे लेकिन दुर्योधन कहते थे की युधिष्ठिर…नहीं…युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलेंगे। अगर फ़स जाते दुर्योधन, कोई निर्णय नहीं कर पाते तो युधिष्ठिर से निर्णय करवाते। दुर्योधन युधिष्ठिर का भगत था भीतर से। जय राम जी की।  ऐसा कहलो की दुर्योधन युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से।  शाकुनि युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से।

रावण रामजी का विरोधी था, लेकिन रामजी यथा योग्य रावण की खिदमत करते है।  उसको स्वधाम पहुंचाना यह भी रामजी के चित्त में द्वेष नहीं है, खिदमत का भाव है। नहीं तो हार्ट अटैक कर देते और उपाय से बुरी तरह मारते … नहीं …मौका दिया अवसर दिया।  तो अगर जरूरत पड़ती है किसीको कुछ करने की तो भी अंदर में द्वेष रखकर नहीं जैसे रामजी उसकी खिदमत की भावना से युद्ध करके उसे स्वधाम भेज देते है।

तो सेवक को जो विघ्न बाधा आये और जो तत्त्व विघ्न बाधा डालते है।  तो उन तत्वों की बुराई नहीं लेकिन उन तत्वों का जिस में भला हो, ऐसी कोशिश करे।  उनकी वासना और उनका अहंकार घटे ऐसी कोशिश करे।  खिदमत भाव से उन तत्वों को , उन विरोधो को हटाये तो वो सेवक….वो सेवक सेव्य पद को पा लेगा।  गुरु लोग शिष्य को डाटते है , गुरु लोग शिष्य को निकाल देते है।  गुरु लोग शिष्य को भर सभा में उठ-बैठ कराते है ऐसा आपने देखा है, हमनें भी देखा है।  हमनें हमारे गुरु देव के चरणो  में देखा है और आपने मेरे संपर्क में देखा है।  लेकिन मेरे ह्रदय  में उनको खुले आम उठ-बैठ कराना या डाटना  द्वेष बुद्धि नहीं है अपितु उनमें जो दुर्गुण है, जो उनको ऊपर उठाने से रोकते है….. खुले आम उनको वाहवाही मिलती है  तो फिर अकेले में उनको कहते है तो उनके अहंकार में परिवर्तन नहीं होता | इसलिए  खुले में उनको उठ-बैठ करा देते हैं ताकि उनका खुले आम अहंकार विदा हो जाये।

मेरे गुरुदेव अपने एकदम निकट वर्ती सेवक को खुले आम  उठ-बैठ कराते, डांटते ।  एक बार सेवक ने पूछा की ‘स्वामीजी! आप कृपालु तो है ये तो अनुभव करते है हम …लेकिन जब आप नाराज़ होते है तो छक्के छुड़ा देते है स्वामीजी |  आप अगर डाटे और कुछ  हमारी गलती बताये तो एकांत में कह दे। दिन भर आपकी सेवा करते है , जब सभा भरती है सत्संग होता है और आपके हाथ में माइक आता है तभी आप हमको बोलते हो।  बिना माइक के कह दिया करो गुरुदेव ! सहा नहीं जाता ! कहाँ तो इतने लोग हमको पूजते है, जानते है और इतने लोगो के बीच आप हमको माइक…गुरुदेव ने फिर करुणा की डाट बरसाते हुए कहाँ  ‘ बेवक़ूफ़ ! गधा ! पता नहीं है तेरे को वीर्यभान का बच्चा!  वाहवाही लोगों के बीच होती है।  फुगा लोगों के बीच भरता है तो फिर हवा लोगों के बीच क्यों नहीं निकलेगी? यही तरीका है बेटे तेरे को पता नहीं है।’

वो जो वीरभान लड़का था वो सब्जी बेचने की लारी चलाता था और खूब सुलफे पिता था। वो तो खुद बोलता था की ‘ मैं  छटांग छटांग अफीम उड़ा देता था।  चरस गांजा जो भी बोलते है।  मैं ऐसा था और देखो धीरे धीरे स्वामी जी के पास आया हूँ और स्वामीजी का अंगद सेवक हो गया हूँ…देखो ! संत कितने दयालु है’ वो ऐसी प्रशंसा भी करता था। और कभी कभी ऐसा जुनून  चढ़ जाता था की उठाके बिस्तर बोरी की ‘ नहीं नहीं रहना है … दस साल में क्या मिला  है तुम्हारे पास? हम जाते है।  तो स्वामीजी बोलते थे की ‘ ले जाओ साले को उठाके , एक मिनट मत रखो , निकालो आश्रम से इसको ‘वो आश्रम से निकल के बोरी बिस्तर बांधकर रवाना होता तो बोलते थे की ‘अकेला जायेगा फिर लौट के आएगा हरामी! जाओ! ये पैसे लो इसे बस स्टैंड पे जाके बस में धक्का मारके घुसेड़ के फिर आना । और साइड में उसको बोलते की सचमुच जाता है न तो धीरे धीरे समझा के ले आना।  अगर सचमुच चला जाये तो फिर चरस अफीम पियेगा…लारी चलाएगा…. बर्बाद हो जायेगा। अगर अहंकार मिटाने के लिए अपन ये करते है तो देखो… ध्यान रखना अगर सचमुच जाये तो समझा  के ले आना। अब देखो ! बाहर से कितने कठोर ! और अंदर से कितने करुणामय! ऐसे स्वामी की विजय हुई और ऐसा सेवक सफल जीवन बिता गया। अब जैसे साधुओ की पूजा होती है ऐसे ही  सब्जी चलाने वाले, गांजा चरस फूकनेवाले व्यक्ति की पूजा आदिपुर में होती है।  जो लोग लीलाशाह का दर्शन करते वो लीलाशाह के हनुमान का भी दर्शन करते, माथा टेकते हैं । ये स्वामियों ने स्वामी बना दिया महाराज!  नारायण हरी।  नारायण हरी। नारायण हरी।

श्री कृष्ण कहते है  अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |   संन्यासी योगी निरग्निर्न चाक्रियः||

जो आसक्ति रहित होकर, करने योग्य कर्म करता है ,फल की आकांशा नहीं।  सेवा करता है लेकिन वाहवाही की आकांक्षा नहीं।  सेवा करता है लेकिन दिखावे की इच्छा नहीं। सेवा करता है लेकिन बदले में सेवा चाहता नहीं।  सेवा करता है बदले में मान चाहता नहीं।  सेवा करता है लेकिन दूसरों को हिन् दिखाकर आप श्रेष्ठ होने की बेवकूफी नहीं करता है |  ऐसा जो सेवक है उसे तुम संन्यासी समझो। उसे तुम अर्जुन योगी समझो।  अनाश्रितः कर्म फलं ‘ कर्म के फल की आशा न रखे। कार्यं कर्म करोति यः’ करने योग्य। ….  ऐसा नहीं की सेवा का मतलब है कोई चाहते है की भाई हमें पिक्चर में जाना है और आप जरा लिफ्ट  दीजिये। तो उसको पिक्चर में न जाये उसका भला हो तो कोई लिफ्ट देता है  उसको रोकना ये भी सेवा है। जय राम जी की। मेरे को जरा फलानि पार्टी में जाना है….और पैसे नहीं है तो आप जरा थोड़ा …. आप तो जाने माने हो ….स्वामीजी के शिष्य हो …. जरा थोड़ा मेरे को २०० रुपये दो न …. फलानि पार्टी अटेंड करनी है …. तो आप तो नहीं लेकिन कोई दूसरा देता हो तो बोलना ‘भाई ये पार्टी अटेंड कर रहा है वो भी चिकन की ! इसमें उनका अहित है ! कृपा करके आप उनको न दे तो अच्छा है।’ ये भी एक सेवा है। उसको पतन करने में आप विघ्न डाले ये भी सेवा है  …. और ईश्वर के रस्ते में जाने में वह  न भी मांगे फिर भी आप सहयोग करे ये भी एक सेवा है।

सामने वाले की उन्नति किसमे होगी ये  ख्याल करके जो कुछ चेष्टा करना है और बदले न चाहना इसका नाम सेवा है । भले उस वक़्त वो आदमी आपको शत्रु मानेगा लेकिन देर सबेर आपका जो शुद्ध भाव है वो आपका ही हो जायेगा। मेरे अपने आप के कितने हो गए।  क्या मैंने जादू मारा या क्या मेरे पास कोई कुर्सी है या मेरे पास कोई बाहर का प्रलोभन है।  नहीं…. मेरे पास वह  है की मेरे पास जो आता है उसका कैसे मंगल हो ये भाव मेरे मन में उठते रहते है। लाइन में आते है दर्शन के बहाने तभी भी मैं देखता हूँ किसी को साखरबुट्टी की जरूरत है, किसी को पुस्तक की जरूरत है, किसी को खाली मुस्कान की जरूरत है और किसीको डाट की जरूरत है , जिसकी जो जरूरत है भगवान उसका करता है मेरा इसमें क्या होता है?

‘देने वाला दे रहा है दिन और रैन। लोग मुझे दानी कहे उसलिए नीचे नैन’ ऐसा एक दाता ने कहा है वो बात भी हमें याद रहती है। तो देनेवाला परमात्मा ही दे रहा है दिन रैन दे रहा है। मति को शक्ति वही दे रहा है। मन को प्रसन्नता वही परमात्मा दे रहा है। शरीर को सामर्थ्य उसी की सृष्टि से आ रहा है।  इसमें अपना क्या है? बस अपना कर्ज चुकाओ बस!….ऋण मुक्त हो जाओ… ऋण मुक्त हो गए तो जन्म  मरण मुक्त हो गया। विवेकानंद बोलते थे की तुम सेवा करते तो ये न सोचो की ये तो दीन-

हीन है | मैं न होता तो इन बेचारों का क्या होता? नहीं नहीं यह तो ईश्वर की कृपा है और सेवा लेने वाले की ….सेवा लेने वाले की भी कृपा है की हमें अवसर दे रहा है ऐसा मानो।  ईश्वर ने हमें क्षमताये दी उसकी कृपा है और ईश्वर ने हमें सेवा करने की क्षमताये दी वो ईश्वर की कृपा है।  और कोई हमारी सचमुच में सेवा ले रहा है सत मार्ग में तो उसको भी धन्यवाद है। नहीं तो गाड़ी में लोग नहीं बैठे तो गाडी किस काम की ? सड़क पर लोग नहीं चले तो सड़क किस काम का? ऐसे ही हमारी वस्तुओ का और योग्यताओ का लोगों के लिए उपयोग न होवे तो वस्तु और योग्यताएं किस काम की ? अपनी वासनाएं बढ़ाने  के लिए वस्तु और वासनाएं का उपयोग होता है तो हम बर्बाद हो गए।  अपना अहंकार बढ़ाने में वस्तु और योग्यताओ का उपयोग होता है तो बर्बाद हो गए।  हमें तो आत्मिक आबादी चाहिए।

तो हिटलर, सिकंदर जैसे तैसे आदमी  नहीं थे अच्छे थे लेकिन सेवा के बदले वस्तु और योग्यताओ को, अहंकार बढ़ाने में थोडी सी गलती की उन्होंने।  और इससे बड़ी गलती कोई होती नहीं है।  रावण और कंस क्यों विफल गए ? और क्यों अभी तक फटकार पाते है? की उनमें योग्यताएं बहुत सारी थी, वस्तुए बहुत सारी थी लेकिन वो अहंकार विसर्जन करने में, सेवा में नहीं लगाकर, अहंकार को पुष्ट करने में और वासनाओ को भड़काने में लगायी।  इसीलिए वे विफल है।

 

रामजी के पास और कृष्ण जी के पास जो वस्तु और योग्यताएं थी वो सेवा में लगा  दी रामजी और कृष्ण जी अभी तक भारत के हर दिल पर राज्य कर रहे है।  धरती पर कई राजा आये कई चले गए | लेकिन दो राजाओ का नाम अभी भी भारत वासियों के हृदय पर  है | वह राज्य राजा रामचन्द्र और राजा कृष्णचन्द्र उनका राज्य है क्योंकि वो भलाई ही अपनी योग्यता और वस्तु का सदुपयोग करने की कला थी उनमें।  ऐसे ही जनक राजा का और महात्माओ का भारत वासियों पे राज्य है।  गांधीनगर की कुर्सियों पर चाहे किसीका राज्य हो, भोपाल की कुर्सी पर, दिल्ली की कुर्सी पर चाहे किसी का भी राज्य हो लेकिन भारत वासियों के हृदय पर अभी भी निष्काम कर्म प्रेमी संतों का ही राज्य हो रहा है।  बस यह प्रत्यक्ष प्रमाण को देख कर आप  लोग भी अपने जीवन में जो सेवा करते है वो भाग्यशाली तो है लेकिन असावधान न रहे सावधान रहे की सेवा का बदला अगर लिया तो सेवा सेवा ही नहीं रही। सेवा से अगर दूसरा हमारी सेवा चाहे तो ये दुकानदारी हो गयी।  और सेवक के अंतकरण में इर्षा नहीं होती।

सिंधी संत हो गए। स्वामी साब उनका नाम था। उन्होंने  श्लोक बनाये उस ग्रन्थ का नाम है ‘ स्वामी जा श्लोक ‘ स्वामी के श्लोक….ग्रन्थ का नाम है।  उन्होंने लिखा है

‘सेवा सच्ची उस ग्रन्थ में सेवा सच्ची माँ जिन लधो। लधो लाल आण मुलोम से स्वामी सच्ची सिख सा सदा सेवा कण।  लता मुका मोचड़ा सदा सिर  सहन, रता रंग रहन अठे पहर अजीब रे। ‘

सच्ची सेवा से जिन्होंने पाया वो लाल … अनमोल लाल पाया।  आत्मा लाल पाया।  आत्म सुख पाया, आत्मसंतोष पाया।  वे तो सदा सच्चाई से सेवा करते है।  सेवा के बदले में कभी किसी के गुरु की या मातापिता की लात सह लेते है। तो कभी कोई खट्टी बात भी सह लेते है फिर भी हसते हसते सेवा करते रहते है जिन्होंने सेवा का मूल्य जाना है। जो सेवा के द्वारा कुछ चाहता है वो तो सेवा के नाम को कलंकित करता है और जो सेवक होकर सुख चाहता है वो भी सेवा के महत्त्व को।

गुरु देव दया कर दो मुझ पर….सिर पर छाया घोर अँधेरा, हो, सिर पर छाया

 

सेवक चेही  सुख लहीं। नहीं नहीं  सुख की अभिलाषा सेवक नहीं करता।  मान की अभिलाषा सेवक नहीं करता।  जब सुख और मान की अभिलाषा को हटा ने के लिए सेवा करता है तो सुख और मान पर उसका अधिकार हो जाता है।  तो अंदर से ही सुख और अंदर से ही सम्मानित जीवन उसका प्रकट होने लगता है।  नारायण हरी।  नारायण हरी।  नारायण हरी।  कुछ लोग सेवा से मुकरने की आदत रखते है। ‘अच्छा ये तू कर ले, अरविन्द हा तू करी ले ,फलाना भाई तू वे कर ले ,अला अतिनै करू तू तया आल्या जाओ तू करू ,करू आ करो , आ करो ‘ ऐसे सेवक विफल हो जाते सेवा में।

दो भाई थे। एक बड़ा एक छोटा। दोनों को बराबर संपत्ति मिली।  कुछ वर्षों बाद बड़े भाई ने मुक़दमा कर दिया छोटे भाई पर। न्यायलय में खटला गया।  न्यायाधीश ने केस चलाया और चेम्बूर में बुलाया बड़े भाई को, छोटे भाई को । बोले बड़े तुम कंगाल कैसे रह गए और तुम छोटे इतने अमीर कैसे हो गए ? जब तुम बोलते हो की हमने भले लिखा पढ़ी नहीं की लेकिन आधी आधी संपत्ति मिली थी। तो बराबर की संपत्ति मिलाने पर एक कंगाल और एक अमीर कैसे हो गया ? तो छोटे ने कहा ‘ मेरे बड़े भाई क्या करते थे की जाओ जाओ ये कर लो ! अरे, तेरे को बोला ये कर तूने नहीं किया अभी तक? अरे, ये कर ले , वो कर ले , जाओ जाओ, ये करो, जाओ जाओ तो इनका सब कुछ चला गया और मैं मित्रो से , साथियों से, नौकरों से ,मुनिमों से मिलकर कहता था की ‘आओ ! अपन ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ आओ। । मैंने आओ आओ सूत्र रखा और इसने जाओ जाओ इसीलिए उसका सब कुछ चला गया और मेरे पास सब कुछ आ गया।’

तो अच्छा उद्योगपति होना हो, अच्छा सेवक होना हो, अच्छा सेठ होना हो ,अच्छा संत होना हो , अच्छा नेता होना हो तो ‘जाओ! ये कर दो नहीं …आओ ये करें। आओ ये करें। आओ आओ जाओ नहीं। हरलु ख़रीदे तू आम ख़रीदे अपडायवु  ख़रीदे।  भले आपके पास समय नहीं , आपका डिपार्टमेंट नहीं फिर भी चलो अपन ये कर ले। अपन ये कर ले जिससे करवाते उसको विश्वास में लेके फिर शुरू करो।  तो उसको अपना लगे काम। जिससे काम करवाते उसको आपका  काम अपना लगे।  ऐसा नहीं की उसको ऐसा लगे की ये तो इनका सोपा हुआ काम है ,ये इनका सोपा हुआ बोज़ा है…. नहीं | जो सेवक दूसरों से सेवा लेकर सेवा कार्य को बढ़ाना चाहता है वो उनसे ऐसा पेश आये ऐसी बातचीत करे की ‘ देखो ! अपना ये कर्तव्य है।  अपन  लोगो को ये काम ऐसा करना चाहिए ऐसा मेरा विचार है , आपका क्या विचार है ? अच्छा विचार होगा तो मानेगा क्या? तो अपन कैसे करे?’

उसी को हो दूल्हा का बाप बनाओ।  एनज वर्णो बाप बनाओ।  तमारा सेवा ना निर्णयों ऐना मोदेतीच गढ़ाओ। आणि पचि हाळी मली ने सेवानु कार्य चालू करेन तमे खासकए जाओ पाछू बीजे शुरू कराओ। जय श्री कृष्ण।  एमने के तमे खास्कि न खास्कि ज्ञान यश मळे ते अरे हा गळ आ गळया। हने सेवा करवा नु आते बीजा लोकों कर ते सेवा में भली वारनि ने तमार ह्रदय साचा सक्नु भली वर्णी ने।

 

जो बेईमानी से सेवा का यश लेना चाहते उन बेईमानो को सच्चा सुख मिलता भी नहीं है।  काम तो कोई करे और यश का अवसर आये तो खुद हार पहनाने को खड़े हो गए।  क्योंकी हार बदले में गले में पड़े …. अरे हार तो हार ही है भाई! जय राम जी की। अगर ईमानदारी से सच्चाई से सेवा करते तो अहंकार को हरा दे। अगर बेईमानी से तुम फुलहार चाहते हो तो खुद को ही हरा रहे हो।

सत्यम शिवम सुन्दरम। और जो सत्य है वही शिवकल्याणकारी है और वही सुन्दर है तो हृदय को सुन्दर बनाने के लिए सच्चाई से सेवा करे। सच्चाई से ईश्वर के हो और सच्चाई से गुरु के हो। सच्चाई से समाज के हो। समाज का, गुरु का, ईश्वर का विश्वास संपादन कर लेता है सेवक। गुरु कहेगा की मेरा सेवक है ये ऐसा भद्दा काम नहीं कर सकता है।  ये मेरा सेवक है। गुरु को संतोष होना चाहिए की ये मेरा सेवक है। ईश्वर को संतोष होना चाहिए की ये मेरा जीव है इतना घटिया काम नहीं कर सकता है। समाज को विश्वास होना चाहिए की ‘फलानो भाई …ना ना वो न हु अबिदु झूठु छे ‘ सेवक पर आरोप भी आएंगे।  सेवक यशस्वी होगा, उन्नत होगा उसको  देखकर लोग ईर्षा भी करेंगे, दाह भी आयेंगें, आरोप भी करेंगे और विघ्न भी आएंगे। लेकिन ये विघ्न,  ये आरोप , ये दाह सेवक की क्षमताएं विकसित करने के लिए आते है ऐसा सेवक को सदैव याद रखना चाहिए। और फिर सेवक को सुबह उठकर अपना आत्मबल बढ़ाना चाहिए।  लम्बे श्वास ले प्राणशक्ति को बढ़ाये, भावशक्ति को बढ़ाये, क्रियाशक्ति को बढ़ाये ऎसा ध्यान सीख लेना चाहिए। ऐसा ध्यान करना चाहिए। तो और सेवा में चार चाँद लग जायेंगे। हरी ॐ।

 

हरी ॐ।  बुद्धि से तत्त्वनिष्ठ हो।  मुक्त अवस्था को इस जन्म में ही पाओ। आत्मबल जगाओ। सेवा को सुन्दर बनाने का संकल्प बढ़ाओ। सच्चा सेवक दुःख मिटाने की चिंता नहीं करता,वो तो सुख बाटने  में लग जाता है तो दुःख अपने आप भाग जाता है लोगोंका। सुख बाटने की कोशिश करने वाला सेवक सुखी होता जाता है। दुःख मिटाना ही सेवा नहीं सुख बाटना सच्ची सेवा है। जब सुख बांटे तो दुःख रहेगा कहाँ? और सुख बांटोगे तो सुख खुटेगा क्यों? जिनके जीवन में सेवा का सदगुण नहीं।  जिनके पास संपत्ति है , जिनके पास शक्ति है, जिनके पास योग्यता होते हुए भी सेवा नहीं करते वे आलसी है। वे प्रमादी है।  वे सुख के आसक्त है। वे अहंकार भोगी है। वे अहम पोषक है। जिनके पास शक्ति , संपत्ति,योग्यता, मति ,गति है अगर वे लोग उसका सदुपयोग सेवा में नहीं करते तो वे चीज़े उनको संसार के जन्म मरण में बांधती रहती है। सेवा चाहता वे दुःखी? ….ना ना सेवा चाहने वाला दुखी नहीं होता है सेवा लेनेवाला दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है सेवा करना चाहता है वो सुखी होता है लेकिन जो सेवा का लाभ लेना ही चाहता है या बदला चाहता है वो दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है, सत्कर्म चाहता है दूसरों की सेवा करना चाहता है वो सुखी रहता है।   चाहे बाहर से उसके पास साधन कम हो फिर भी अंतकरण से वो सुखी रहता है राजा रहता है।

 

हमेशा के लिए रहना नहीं इस धारे पानी में।  कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की जिंदगानी में।

तन से सेवा करो जगत की मन से प्रभु के हो जाओ। शुद्ध बुद्धि से तत्वनिष्ठ हो जाओ मुक्त अवस्था को तुम पाओ।

निस्वार्थ सेवा हो सदा मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ  से।

 

द्वेष को, कपट को ,अहंकार को त्यागकर संघटित होकर सेवा करो ऐसा स्वामी विवेकानंद बोला करते थे। समाज को आध्यात्मिकता  की आवश्यकता है।  समाज को स्नेह की आवश्यकता है।  समाज को स्वास्थ की आवश्यकता है। समाज को अच्छे संस्कार पोषने की आवश्यकता है और समाज को अच्छे में अच्छे पिया के प्रेम बाटने वाले सेवकों की आवश्यकता है।  और यही उम्मीद आशाराम अपने साधकों से करेगा। हरी ओम ओ ओम ओम।  राम….

 

ऐसी शक्ति देना ओ मेरे ओलिया के मैं दुनिया में दिल बहार करता रहूँ। जो  कोई मुझसे मिले में निहाल करता रहूँ।  ऐसी शक्ति मुझे देना मेरे ओलिया ! राम…..

हे आनंददाता तेरी जय हो

हे सुखदाता तेरी जय हो

हे प्रेमदाता तेरी जय हो

हे परमेश्वर तेरी जय हो

मारा वालूड़ा तेरी जय हो

मारा गुरुदेव तुम्हरो जय हो

मारा लीलाशाह बापा थारो जय हो

मारा सदगुरु ना सदगुरु तुम्हरो जय हो

हरी ओम ओ ओ ओम

“भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीना जा नाथ तू  मेहर कर रहण सब

भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीन जा नाथ प्रभु मेहर कर रहन तू ‘ ये मेरे गुरुदेव गया करते थे।

“लीले के लालन हण रख जाई सांण तू।  भारत जो भलो कर शादते आबाद रख। अनाथीन जा नाथ प्रभु मेहर कर रहन तू।

सब जा सतार साईं वाली सारे जग जा लीले के लालन हण रख जई सांण तू। भारत जो भलो कर… डा डा डा डा डा डा डा कैसा है?” ऐसा बोलते थे और सदा मस्त रहते थे।

मस्ती बाटने  वाले उस दाता तुम्हारी जय हो। मेरे सदगुरु देव तुम्हारी जय हो। हरी हरी ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।

 

पुस्तको की गठरी उठाके जाते थे नैनीताल के गावों में। एक पहाड़ से उतर के दूसरे पहाड़ पर। गाव बसा है वहां जा रहे। गाव के लोगों को इकट्ठा करते।  उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है वो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा के गठरी बाँध कर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था…पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था।  तो सामने नीचे तलेठी में भी गाव था और दूसरी पहाड़ियों पे भी गाव।  कभी किसी गाव में जाते।  सौ दोसौ के खपड़े के गाव थे। कभी किसी  गांववालों को इकट्ठा करते।  प्रसाद  देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो नारी धरम जैसी पुस्तके। और युवान हा तो यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की ओर ‘ जैसी पुस्तके। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तके। भक्तों की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। आते और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ।  आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तब तक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंगे तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे याद रहे वो लिख लेना, हो सकता है की मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक  तुम्हारे से मैं ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा। ऐसा करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गावों गावों जाकर पुस्तक बाटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज  गाव गाव  ऋषीप्रसाद रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है सेवा का । उन्ही की ही तो प्रेरणा है  की हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धनभागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है। वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ? हरी हरी ओम ओ ओ ओम

 

यह तन काचा कुम्भ है, यह तन काचा कुम्भ है

फुटत न लागे बाट, फुटत न लागे बाट।

फटका लागे फूटी पड़े, फटका लागे फूटी पड़े

गर्व करे वे गवार, गर्व करे वे गवार।।

पानी  केरा बुलबुला, पानी  केरा बुलबुला

यह मानव की जात, यह मानव की जात।

देखत ही छुप जात है, देखत ही छुप जात है

ज्यों तारा प्रभात, ज्यों तारा प्रभात ।। 

तो क्या करोगे ? हरी हरी ओम ओ ओ ओ ओ ओम ओम ओम। राम

 

कभी रोग का चिंतन न करो।  कभी शत्रु का चिंतन न करो।  कभी द्वेष के विचार को न आने दो। शत्रु की गहराई में छिपा मित्र ऐसा चिंतन करके शत्रु से यथा योग्य सावधानी से जीना पड़ता है युक्ति से, लेकिन उसका बुरा न चाहो। फिर देखो शत्रु तुम्हारे देर सबेर या तो तुम्हारे मित्र हो जायेंगे या प्रकृति उनको घुमा घुमा कर देगी। दे धमाधम करके देगी। ये ईश्वर का दैवी विधान है। हरी ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम

गीतगोविन्द के कर्ता जयदेव जी ने कथा की और दक्षिणा मिली।  दक्षिणा लेके गए रास्ते में डाकू ने छीन लिया और गीत गोविन्द के कर्ता जयदेव को कुँए में फेक दिया उंगलिया काट कर। जयदेव वहां भी गीत गोविन्द के गा रहा है। राजा घूमने निकला और राजा ने आवाज सुना की ये जयदेव जी प्रभु है खुद।  कुँए के नजदीक आये और आदमियों द्वारा निकला जयदेव जी को और ऐसी स्थिति किसने की ऐसा पूछा।  बहुत पूछने पर भी जयदेव ने नहीं बताया तो राजा की बड़ी श्रद्धा हो गयी। राजा अपने राजमहल के सात्विक खंड में जयदेव को रखता और सेवा श्रूषुसा करके जयदेव को स्वस्थ कर दिया। जयदेव की अध्यक्षता में राजा ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में सत्संग हो, भजन हो, कीर्तन हो, होम हवन हो, ध्यान हो आदि और पूर्णहुती जयदेव के  हाथ से हो और साधु संतों को दक्षिणा भी जयदेव की प्रेरणा से बटेगी। जब साधु आंतों को दक्षिणा बाटनेका दिन आया तो वो जो चार डाकू थे चोर थे वे भी साधुओं का वेश लेकर आये दक्षिणा लेने की लाइन में। नजिक आकर देखते की अरे ये तो जयदेव जिसको हमने पैसे छींन कर कुएँ में फेका था उँगलियाँ काट के । जयदेव की नजर उनपर पड़ी और उनकी नजर जयदेव पर पड़ी। गीतगोविन्द के कर्ता जयदेव बड़े प्रसिद्ध पुरुष हो गए। अब उनको कहीं सुकड़न न हो दुखी न हो ऐसा समझ कर जयदेव ने अपनी ओर से ही बुलाके के ‘राजन ! ये मेरे चार मित्र है। उन डकैतों ने समझा की ये अब ये हमारी पोल खोलेगा। लेकिन जयदेव ने पोल नहीं खोला और मित्र के भाव से ही सारा व्यवहार किया। उनको दान दक्षिणा खूब दिलाई। राजा ने देखा की जयदेव के मित्र है और साधु है तो हो सकता है की आपको दक्षिणा दीया था और आपको लूट लिया तो इन साधु बाबाओ को ना कोई लूट ले इसलिए मैं एक सिपाहियों की  टुकड़ी भेज देता हूँ।  ये लोग जहाँ से आये उनको पहुंचा दे। सिपाहियों की टुकड़ी लेकर सिपाहिओं का अगवा  उन लूटेरों को साधु वेश में आये थे साधु समझकर कर पहुँचाने  गए थे तो रास्ते में पूछा की जयदेव तुम्हारा इतना सत्कार क्यों करता है ? तो उन बदमाशो ने कहाँ की जयदेव की हम पोलपट्टी जानते है। जयदेव हमारे गावों का है और उसने बड़ी चोरी की थी तो राजा ने उसको मार काट के कुएँ में फेकने का आदेश दिया था लेकिन हमने उसको बचाया इसलिए हमारा कही पोल न खोले जयदेव ऐसा सोचते इसलिए हमारा अगदा-स्वागता करते। ऐसा झुठ बोला। जयदेव ने तो सज्जनता की लेकिन दुर्ज्जन का स्वभाव् है तो फिर …….साप का स्वाभाव है की विष बनाना, दुर्जन ने तो दुर्ज्जनता बनायीं। जयदेव को तो पता नहीं लेकिन जो सबके दिल का पता रखता है उस दिलबर से सहा नहीं गया। सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया। जहाँ वो बोलकर वाक्य पूरा करते है, जयदेव की ग्लानि करते, निंदा करते, वहां चलते चलते वो धरती वहां से फटी और चारों के चारों बदमाश जो साधु का वेश बनाके जयदेव से ईर्षा करते थे वे चारों बदमाश  वहां हि रीवा रीवा के मर गए। टुकड़ी वापस आई और राजा तक बात पहुंची, राजा ने जयदेव के पैर पकड़े की ‘महाराज! हकीकत क्या है ? ‘ महाराज ने कहाँ की मैंने समझा की इन्होने लूटा है तो इनको जरूरत होगी चलो लगये फिर आये तो उनको सुकड़न न हो इनका मंगल हो भला हो  इसीलिए इनका सत्कार भी किया और दक्षिणा भी दिलाई ताकि ये सुधर जाये।  लेकिन महाराज उस ढंग से नहीं सुधरे तो प्रकृति ने दंड के ढंग से उनको सुधारने का ही तो काम किया है ईश्वर ने। तो सेवक में इतनी शक्ति होती है की सेवक अपनी सेवा में विफल होता है।  ईमानदारी से सेवा करता है और विफल होता है तो स्वामी परमात्मा फिर उसको साहाय्य करता है।  जहाँ दंड की जरूरत है वहां दंड भेज देता है और जहाँ पुरस्कार की जरूरत है वहां पुरस्कार भेज देता है। सृष्टि कर्ता के ह्रदय में सबका मंगल छुपा है। ऐसे ही सेवक के ह्रदय में सबका मंगल छिपेगा , मंगल छुपा रहेगा सबक तो सृष्टि कर्ता के साथ अपने स्वाभाव का ताल मेल करके बहुत सुखी और उंचाईओं का अनुभव कर सकता है। तो अभी क्या करेंगे? हरी ही ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।

 

राम राम

निस्वार्थ सेवा हो सदा। मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ से।

हमेशा के लिए रहना नहीं इस दारे पानी में।  कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की ज़िंदगानी में।

 

शक्ति , संपत्ति और योग्यता होने पर भी जो सेवा नहीं करते वे आलसी प्रमादी है।  सुख आसक्त है और भाग्य हीन है। जो मनुष्य जन्म पाके सेवा का भाग्य नहीं पाते वे भाग्यहीन है।  किसी के दुःख मिटाने के बदले उसको सुखी करने का पौरुष करने वाला सेवक ज्यादा सफल होता है। और जो सुख देने की भावना से सेवा करता है तो दुःख तो मिटा ही देगा। दुःख मिटाना पर्याप्त नहीं उसे सुखी करना उसे प्रसन्न करना और सच्चे सुख की राह पे लगा देना ये बहुत बहुत ऊँची सेवा है। सेवा चाहो मत सेव करो उत्साह से। सेवा का फल चाहना सेवा धर्म को भ्रष्ट करना है। सेवा के फल को तुच्छ करना है। हमें तो कुछ नहीं चाहिए। जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सब कुछ जिसका है वो खुद मिल जाता है।

बलि देता ही जाता है कुछ नहीं चाहता है तो सब कुछ जिसका है वही वामन होके आता है। उससे भी कुछ नहीं चाहता है तो वामन उनका द्वारपाल हो जाता है। भगवान वामन बलि राजा का द्वारपाल हो जाता है। जिसका द्वारपाल भगवान है उसको कमी ही क्या रहेगी? शत्रु उनका क्या बिगाड़ेंगे? ऐसे ही तुम्हारे इन्द्रियों के द्वारपाल श्री हरी को कर दो। हे मेरे परमात्मा ! तुम ही रक्षक रहिये। तुम ही प्रेरक और पोषक रहिये। हे मेरे नाथ ! मेरे गुरु, मेरे हरी, मेरे इष्टदेव! प्रभु तेरी जय हो !      हरी ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।  राम राम।  खूब आनंद ! मधुर आनंद !आत्मिक आनंद परमेश्वरिय आनंद का भाव करो। मस्ती…. माधुर्य….विश्रांति मैं सदा स्वस्थ हूँ।

क्यों बीमारी देखत ही छुप जात है मुझ तक कभी आती ही नहीं मैं वो चैतन्य आत्मा हूँ।  मैं सदा सुखी हूँ क्यूंकि दुःख मेरे तक कभी पहुंचता ही नहीं है। कभी कभी मन को छूता है मुझको कभी नहीं छूता। में अमर हूँ।  मौत शरीर तक आती है मुझ तक मौत की दाल नहीं गलती। मैं ईश्वर का ईश्वर मेरे ! मैं गुरु का गुरु मेरे। ईश्वर और गुरु सद्चिदानन्द स्वरुप है तो मैं भी उन्ही का चिंतन, अनुसरण और उनकी प्रसन्नता से मैं भी वही हुए जा रहा हूँ। खूब आनंद , मधुर आनंद, सद्चिदानन्दमय आनंद। वाह मौला! तेरी जय हो! प्रभु तेरी जय हो।

 

मधुरं मधुरे भ्योपि मंगले भ्योपि मंगलम।

पावनं पावने भ्योपि हरे नामैव केवलम।

 

हरी हरी ओम ओ ओ ओ ओ ओ ओम।  राम राम

 

मधुर शांति अथवा तो मधुर शांति में शांत होते जाओ नहीं तो श्वासोश्वास को गिनाते जाओ अथवा तो मन के विचारों को देखते जाओ नहीं तो जो सत्संग सुना है उसी को अपना बनाते जाओ।

 

होली कैसे मनाये


 

होली भारतीय संस्कृति की पहचान का एक पुनीत पर्व हैभेदभाव मिटाकरपारस्परिक प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक अवसर है |अपने दुर्गुणों तथा कुसंस्कारोंकी आहुति देने का एक यज्ञ है तथा परस्पर छुपे हुए प्रभुत्व कोआनंद कोसहजता कोनिरहंकारिता और सरल सहजता के सुख को उभारने का उत्सव है |

 

यह रंगोत्सव हमारेपूर्वजों की दूरदर्शिता है जो अनेक विषमताओं के बीच भी समाज में एकत्व कासंचार करता है | होली के रंग-बिरंगे रंगों की बौछार जहाँ मन में एक सुखदअनुभूति प्रक कराती है वहीं यदि सावधानी, संयम तथा विवेक न रख जाये तो ये ही रंग दुखद भी जाते हैं | अतः इस पर्व पर कु सावधानियाँ रखना भी अत्यंत आवश्यक है |

प्राचीन समय में लोगपलाश के फूलों से बने रंग अथवा अबीर-गुलालकुमकुम– हल्दी से होली खेलते थे |किन्तु वर्त्तमान समय में रासायनिक तत्त्वों से बने रंगोंका उपयोगकिया जाता है | ये रंग त्वचा पे चक्तो के रूप में जम जाते हैं | अतः ऐसे रंगों से बचना चाहिये | यदि किसि नेआप पर ऐसारंग लगा दिया हो तो तुरन्त ही बेसनटादू,ल्दी व तेल के मिश्र सेबना उब्टन रंगो हुए अंगों पर लगाकर रंग को धो डालना चाहिये |यदि उब्टन करने से पूर्व उस स्थान को निंबु से रगड़कर सा कर लियाजाए तो रंग छुटने में और अधिकसुगमता आ जाती है |

रंग खेलने से पहले अपने शरीर को नारियल अथवा सरसों के तेल से अच्छी प्रकार लेना चाहिए | ताकि तेलयुक्त त्वचा पर रंग का दुष्प्रभाव न पड़े और साबुन लगाने मात्र से ही शरीर पर से रंग छुट जाये | रंग आंखों में या मुँह में न जाये इसकी विशेष सावधानी रखनी चाहिए | इससे आँखों तथा फेफड़ों को नुक्सान हो सकता है |

जो लोग कीचड़ व पशुओं के मलमूत्र से होली खेलते हैं वे स्वयं तो अपवित्र बनते ही हैं दूसरों को भी अपवित्र करने का पाप करते हैं | अतः ऐसे दुष्ट कार्य करने वालों से दूर हीरहें अच्छा |

र्त्तमान समय में होली के दिन शराब अथवा भंग पीने कीकुप्रथा है | नशे से चूर व्यक्ति विवेकहीन होकर घटिया से घटिया कुकृत्य कर बैठते हैं | अतः नशीले पदार्थ से तथा नशा करने वाले व्यक्तियो से सावधान रहना चाहिये |जकल सर्वत्र उन्न्मुक्तताकादौर चल पड़ा है | पाश्चात्य जगत के अंधानुकरण में भारतीयसमाज अपने भले बुरे का विवेक भी खोता चला जा रहा है | जो साधक है, संस्कृति काआदर करने वाले हैश्वर व गुरु में श्रद्धा रखते है ऐसे लोगो में शिष्टता व सयमविशेषरूप से होना चाहिये | पुरु सिर्फ पुरुषोंसे थास्त्रियाँ सिर्फ स्त्रियों के संग ही होली मनायें | स्त्रियाँ यदि अपने घर में ही होली मनायें तो अच्छा है ताकि दुष्ट प्रवृत्तिके लोगो कि कुदृष्टि से बच सकें|

होली मात्र लकड़ी के ढ़ेर जलाने त्योहारनहीँ है |यह तो चित्त की दुर्बलता को दूर करनेकामन की मलिन वासना को जलाने कापवित्र दिन है | अपने दुर्गुणोंव्यस्नो व बुराईं को जलानेका पर्व है होली ……. Continue reading होली कैसे मनाये