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Shastra Prasad

आयुर्वेद के क्षेत्र में संत श्री आशाराम जी बापू की योगदान


जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू होगा जो मानवमात्र के मंगल की सद्भावना से छलक रहे पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के हृदय से अछूता रहा हो । धर्म का रहस्य, योग का सामर्थ्य, संस्कारों का सिंचन, ऐहिक तथा पारमार्थिक सफलता, व्यसनों, तनावों से मुक्ति, उत्तम स्वास्थ्य… हर विषय़ में पूज्य बापू जी के सत्संग-मार्गदर्शन से कितने करोड़ लोगों के जीवन में कितने विलक्षण और अभूतपूर्व परिवर्तन हुए, सब गणितज्ञ और विज्ञानी मिलकर भी उनकी गणना और बखान नहीं कर सकते । आयुर्वेद विभाग, हिमाचल प्रदेश के उपनिदेशक डॉ. सुंदर शर्मा कहते हैं- “संत श्री आशाराम जी आश्रम से हमें मानव-सेवा कैसे हो इसकी प्रेरणा मिलती है ।” निरोगी तन और प्रसन्न मन वाले व्यक्तियों को कर्म, भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर दृढ़ता से चलने में बड़ी सुगमता होगी, इस बात को ध्यान में रखते हुए पूज्य बापू जी ने ब्रह्मज्ञान के सत्संग के साथ-साथ आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार भी व्यापकता से किया है । चरक संहिता (सूत्रस्थानः 1.15) में लिखा हैः धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों का मूल कारण आरोग्य ही है ।’ पूज्य श्री ने यह भी बताया कि उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करने के पीछे मनुष्य का उद्देश्य शरीर को भोग-प्राप्ति के साधनों में लगाना नहीं है अपितु जीवन की मूलभूत आवश्यकता अपने शाश्वत सच्चिदानंद स्वभाव की प्राप्ति में सक्षम बनना है । अनेक लोगों का अनुभव है कि पूज्य बापू जी से जुड़ने से पूर्व के जीवन में वे छोटी-छोटी बातों पर हताश-निराश हो जाते थे, जेब खाली करवाने वाले तथा बदले में साइड इफेक्ट्स की सौगात देने वाले एलोपैथिक इलाज की तरफ चले जाते थे । और आज वे ही लोग बिना किसी खर्च के आयुर्वेद के सिद्धान्त, जैसे प्राकृतिक जीवनचर्या व दिनचर्या, मंत्रोपचार आदि से तनावमुक्त तथा स्वस्थ रहते हैं । आयुर्वेद का वास्तविक प्रचार किसी भी सिद्धान्त का जनजीवन में गहरा उतर जाना यही उसका समाज में वास्तविक प्रचार-प्रसार है । पूज्य श्री ने आयुर्वेद की गूढ़ और अमूल्य खोजें सरल और सहज शैली में जन-साधारण तक इस तरह से पहुँचायीं कि उनको अपनाने के लिए लोगों को अतिरिक्त आयास नहीं करना पड़ा । वे लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन गयीं । जैविक घड़ी पर आधारित दिनचर्या, विरुद्ध आहार का त्याग, प्रातःकालीन भ्रमण, ऋतु-अनुसार आहार-विहार, सद्वृत्तों का पालन आदि अनेक सिद्धान्तों द्वारा पूज्य बापू जी ने व्यापक जनसमाज के तन को स्वस्थ और मन को तनावरहित, आनंद-उल्लास से परिपूर्ण कर दिया । ऋषि प्रसाद अगस्त 2022 के अंक में हमने पढ़ा था कि किस प्रकार से गुलामी की मानसिकता के कारण स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी सनातन संस्कृति एवं आयुर्वेद का महत्त्व हमारे देश में कम होता जा रहा था । ऐसे समय में अशांत और दुःखी समाज को दिव्यता की ओर अग्रसर करने हेतु पूज्य बापू जी ने एकांत-समाधि के आनंद को छोड़ा और समाज के बीच आकर ध्यान, जप आदि उपासना और सत्संग रूपी अमृत पिला के आंतरिक स्वास्थ्य-संबंधी महत्त्वपूर्ण पहलुओं के प्रचार-प्रसार द्वारा उसे उन्नत करने का महत्कार्य किया । बापू जी ने आयुर्वेद के मूल उपदेश को प्रतिपादित करते हुए बताया कि यह केवल शरीर को स्वस्थ रखने तक का ही ज्ञान नहीं है, यह तो जीवन जीने की कला सिखाने वाला एक समृद्ध विज्ञान है । आपश्री ने आयुर्वेद के सभी अंगों का प्रचार करते हुए उसके मूल सिद्धान्तों को लोगों के जीवन का अंग बना दिया । वैसे तो पूज्य बापू जी द्वारा आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार में दिये गये अभूतपूर्व योगदान का वर्णन करना असम्भव है फिर भी इस विषय पर हलका-सा प्रकाश डालने का प्रयास यहाँ किया जा रहा हैः स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा की आयुर्वेद के दो अंग हैं- पहला, ‘रोगानुत्पादनीय’ अर्थात् व्याधि हो ही नहीं इसलिए प्रयास किया जाय और दूसरा, ‘रोगनिर्वतनीय’ अर्थात् व्याधि उत्पन्न होने पर उसे दूर करने का प्रयास किया जाय । इनमें आयुर्वेद की दृष्टि से प्रथम अंग का महत्त्व अधिक है अर्थात् अपनी दिनचर्या, आचार-विचार ऐसे हों कि रोग हो ही नहीं । ‘स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की सुरक्षा करना’ यह आयुर्वेद का प्रथम प्रयोजन है । स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम्… (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 30.26) इसके लिए आयुर्वेद के रचयिता ऋषियों ने दिनचर्या, आहार-विहार, आचरण आदि संबंधी महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का ज्ञान समाज को दिया । इन सिद्धान्तों को बापू जी ने अपने सत्संगों में स्थान दिया और ऐसी युक्ति से इनका प्रतिपादन किया कि ब्राह्ममुहूर्त में उठना, प्रातः 3 से 5 बजे के बीच प्राणायाम करना, संध्या के समय ध्यान, जप करना, सूर्य को अर्घ्य देना, सुबह 9 से 11 और शाम को 5 से 7 के बीच भोजन करना, रात्रि को 9 से 10 बजे तक सो जाना जैसे नियम आज करोड़ों लोगों के जीवन का अंग बन गये हैं । आचार्य चरक जी ने आयुर्वेद में स्वास्थ्य के तीन उपस्तम्भ बताये हैं- त्रय उपस्तम्भा इति – आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति । (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 11.35) आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य – जब तक इन तीन उपस्तम्भों का युक्तिपूर्वक सेवन किया जाता है तब तक मनुष्य स्वस्थ रहता है । इन स्तम्भों को मजबूत बनाने का अनमोल ज्ञान आज के युग में पूज्य बापू जी द्वारा भली-भाँति दिया गया है । आप श्री ने अपने सत्संगों द्वारा सात्त्विक आहार के लाभ और राजसी-तामसी आहार की हानियों के विषय में समाज को जागरूक कर युक्ताहारविहारस्य – गीता के इस उपदेश को भी सुंदर ढंग से समझाया । लंघनं परमौषधम् – लंघन अर्थात् उपवास परम औषध है । पूज्य श्री ने इस सूत्र का लाभ दिलाने हेतु उपवास का वास्तविक अर्थ समझाया तथा इससे होने वाले स्वास्थ्य व आध्यात्मिक लाभों का शास्त्रीय ज्ञान लोगों के दिल-दिमाग में ऐसा तो उतार दिया कि आज लाखों-लाखों लोग नियमपूर्वक एकादशी व अन्य व्रतों का पालन करते हैं और अन्य लाभों के साथ स्वास्थ्य-लाभ भी सहज में ही पाते हैं । चरक संहिता के अनुसार उत्तम स्वास्थ्य हेतु एक आवश्यक घटक है । सैव युक्ता पुनर्युक्ते निदा देहं सुखायुषा ।… ‘यदि निद्रा का उचित समय पर सेवन किया जाय तो वह शरीर को सुख (आरोग्य) और आयु से युक्त करती है ।’ (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 21.38) इसीलिए कहा गया हैः ‘अर्धरोगहरी निद्रा’ । पूज्य बापू जी ने यह बताया कि रात्रि 9 से 3 बजे की नींद अनेक प्रकार के रोगों का निवारण करने वाली, पुष्टिदायी व रोगप्रतिकारक शक्ति को बढ़ाने वाली है । इस सिद्धान्त को आज असंख्य लोगों ने अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया है । पूज्य बापू जी कहते हैं कि ‘रात्रि को पूर्व या दक्षिण की ओर सिर करके ही सोना चाहिए । श्वास अंदर जाय तो ‘ॐ’, बाहर आये तो ‘1’… श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’, बाहर आये तो ‘2’… इस प्रकार भगवद्-स्वभाव के सुमिरन के साथ श्वासों की गिनती करते-करते सोने से रात की निद्रा कुछ ही सप्ताहों में योगनिद्रा बनने लगेगी, जो बहुत कम समय मे अधिक विश्रांति देती है ।’ आहारस्य परं धाम शुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षयो ह्यस्य बहून् रोगान्मरणं वा नियच्छति ।। (चरक संहिता, निदानस्थानः 6.9) आयुर्वेद के अनुसार वीर्य हमारे आहार का सार है और वीर्य का क्षय बहुत-से रोगों को आमंत्रण देता है । बापू जी ने वीर्यरक्षा को केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि वीर्यरक्षम द्वारा ओज-तेज व सुषुप्त शक्तियों के जागरण एवं निर्विकारी आत्मा के आनंद की प्राप्ति का उद्देश्य बताया । इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ‘युवाधन सुरक्षा’ अभियान चलाया गया तथा ‘वेलेंटाइन डे’ जैसी युवावर्ग को चरित्रभ्रष्ट करने वाली पाश्चात्य कुरीति के विकल्प के रूप में नैतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने वाले ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ जैसी अनुपम सौगात विश्वमानव को दी, जिसके कारण करोड़ों किशोर-किशोरियों की यौन-संक्रमित रोगों से, अपरिपक्व अवस्था में सम्भोग करने के कारण होने वाले अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से और किशोर गर्भावस्था (टीनेज प्रेग्नेंसी) जैसे सामाजिक दूषण से समाज की रक्षा हो सकी । आयुर्वेद के शास्त्रों में शारीरिक, मानसिक आदि सभी दोषों को प्रकुपित करने वाले कारण को प्रज्ञापराध (बुद्धि का अपराध) कहा है । प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम् । (चरक संहिता, शारीरस्थानः 1.102) अतः आचार्य चरक जी ने आचरण-संबंधी विभिन्न नियम बताये हैं । जिनका जीवन इस आचार-रसायन के अनुसार है वे दीर्घ आयु प्राप्त करने के साथ स्वस्थ एवं सुखी भी रहते हैं तथा शाश्वत सुख एवं आनंद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं । महर्षि चरक जी का औषधिरहित यह आचार-रसायन आज के विश्व को आयुर्वेद की अद्भुत एवं अनुपम देन है, जिसे पूज्य बापू जी ने जन-जन तक पहुँचाया । व्रत-त्यौहारों द्वारा स्वास्थ्य लाभ सनातन धर्म के ऋषि-मुनियों ने व्रत-त्यौहारों के माध्यम से ऐसी परम्पराएँ स्थापित कीं जिनके द्वारा स्वास्थ्य संबंधी बातों का ऋतु-अनुरूप ज्ञान समाज को मिल सके । लेकिन इन परम्पराओं के पीछे छिपे आयुर्वेदिक व आध्यात्मिक सिद्धान्तों से अनभिज्ञ होने के कारण लोग इनका लाभ लेना भूलते जा रहे थे । ऐसे समय में बापू जी ने विलुप्त होती जा रहीं इन परम्पराओं के सूक्ष्म रहस्यों को समाज के सामने रखा । इतना ही नहीं, पर्वों को वैदिक, प्राकृतिक ढंग से बड़े व्यापक तौर पर विधिवत् मनवाया, जिससे समाज पुनः इनके स्वास्थ्य-लाभ आदि पहलुओं से भी लाभान्वित होने लगा । इसी का उदाहरण है पूज्य श्री द्वारा प्रेरित ‘प्राकृतिक वैदिक होली’ प्रकल्प, जिसके द्वारा आपने समाज को अत्यंत हानिकारक रासायनिक रंगों से बचाकर स्वास्थ्य के लिए वरदानस्वरूप पलाश के रंगों से होली का सुंदर विकल्प दिया । ऐसे ही क्रिसमस के दिनों में शराब-कबाब आदि के सेवन से चरित्रभ्रष्ट हो रहे युवक-युवतियों को इस सामाजिक विकृति से बचाने के लिए तुलसी के स्वास्थ्यप्रद लाभों को बता के लोगों को तुलसी लगाने एवं उसका उपयोग करने के लिए प्रेरित किया और ‘तुलसी पूजन दिवस’ मनवाना शुरु किया । आँवला, तुलसी, गिलोय, बेल, नीम, पीपल आदि औषधीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वृक्षों का रोपण करवा के उनके स्वास्थ्य लाभ जन-जन तक पहुँचाये गये । रोगग्रस्त समाज को दिये चिकित्सा के अनेकानेक माध्यम मंत्र-चिकित्साः दैवव्यपाश्रयम्… अर्थात् जिस चिकित्सा में मंत्र, ईश्वर भजन आदि नियमों का पालन किया जाता है । (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 11.54) पूज्य बापू जी ने आयुर्वेद की भूली-बिसरी दैवी चिकित्सा को पुनर्जीवित कर करोड़ों लोगों को मंत्र-चिकित्सा का महत्त्व समझाया । शास्त्रों में वर्णित आरोग्यमंत्रों, बीजमंत्रों, सर्वरोगनाशक मंत्रों से असाध्य रोगों के भी उपचार का मार्ग आपके द्वारा प्रशस्त किया गया । आपने ऐसे-ऐसे मंत्रों का ज्ञान समाज को दिया जिनसे हृदय, यकृत, पेट आदि संबंधी जिन असाध्य व्याधियों के उपचार में औषधि शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) चिकित्सा भी घुटने टेक देती थीं, उनका इलाज सहज में ही करना सम्भव हो गया । आयुर्वेदिक औषधियों व आरोग्य केन्द्रों द्वारा चिकित्साः आज लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे जड़ी-बूटियों को कूट-पीस के घर पर औषधि तैयार कर सकें । ऐसे में बापू जी ने आयुर्वेदिक औषधियों को अत्यल्प दामों में उत्तम गुणवत्ता के साथ टेबलेट, सिरप, चूर्ण आदि के रूप में लोगों को सुलभ कराया । हरड़ रसायन, त्रिफला रसायन, च्यवनप्राश, ओजस्वी चाय, सौभाग्य शुंठी पाक, वज्र रसायन, सुवर्णप्राश, तुलसी गोली, गोमूत्र अर्क, गौ शुद्धि सुगंध (फिनायल) आदि आयुर्वेदिक पद्धति से बने ऐसे अनेक उत्पाद हैं जो आज समाज के लिए वरदान सिद्ध हो रहे हैं । प्रसूति के समय बिन जरूरी ऑपरेशन से बचाकर सामान्य प्रसव हेतु जन-जागरण का कार्य पूज्य श्री द्वारा किया गया । आप श्री ने वर्षों से शरद पूर्णिमा पर दमा की औषधि तथा करोड़ों-करोड़ों नेत्रबिंदुओं का निःशुल्क वितरण करवा के एवं निःशुल्क चिकित्सा शिविरों के आयोजन के द्वारा सारे विश्व को बताया कि आयुर्वेदिक चिकित्सा का उद्देश्य धन बटोरना नहीं है बल्कि यह तो लोकहित की भावना से समाजरूपी देवता की सेवा करने का एक माध्यम है । ‘सबका मंगल, सबका भला’ सिद्धान्त के पथ-प्रदर्शक पूज्य बापू जी ने देशभर में अनेकानेक स्थानों पर आरोग्य केन्द्रों की स्थापना की, चल-चिकित्सालय की बसें चलायीं, जिनमें निःस्वार्थ भाव से मरीजों की सेवा की जाती है । गौ आधारित चिकित्सा पूज्य बापू जी ने आयुर्वेद में वर्णित देशी गाय के दूध, घी, छाछ, मक्खन, मूत्र, गोमय (गोबर) आदि की महिमा बताकर गौ-आधारित चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त किया । ‘धारोष्णममृतोपमम्’ अर्थात् गाय के धारोष्ण दूध को अमृत के समान कहा गया है । यह बल, बुद्धि, वीर्य व नेत्रज्योतिवर्धक है । आपश्री ने देशभर में अऩेक गौशालाओं की स्थापना करवा के जन-जन को गोदुग्ध, गोघृत, पंचगव्य जैसे स्वास्थ्यप्रदायक पदार्थ सुलभ कराये, पंचगव्य घृत, बनवाया । इनके साथ-साथ गोमूत्र-गोमय से बने गौ-चंदन धूपबत्ती, फिनायल जैसे कीटाणु व रोगनाशक उत्पाद भी समाज तक पहुँचाये । विविध प्रचार-माध्यमों द्वारा आयुर्वेद का प्रचार आपश्री ने लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मज्ञान के सत्संग में भी आयुर्वेद का प्रसाद बाँटा । आपकी प्रेरणा से ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, आरोग्यनिधि भाग 1 व 2 एवं अन्य सत्साहित्य, ऋषि दर्शन, आश्रम के यूटयूब चैनलों तथा सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से आयुर्वेद की महिमा व स्वास्थ्य-विषयक अमूल्य ज्ञान वर्षों से देश-विदेश में पहुँचाया जा रहा है । आयुर्वेदिक चिकित्सा का वास्तविक उद्देश्य बताया आयुर्वेद के रचतियता ऋषियों के अनुसार केवल औषधि-सेवन ही चिकित्सा का मूल अंग नहीं है, इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं सद्वृत्त (संयम-सदाचार पालन के विभिन्न नियम) । आचार्य चरक के अऩुसार हितकारी आहार-विहार का सेवन करने वाला, विचारपूर्वक कर्म करने वाला, काम-क्रोध में आसक्त न रहने वाला, जप में तत्पर, शांत, धैर्य़शाली, दानी, सत्य-पालन में तत्पर, देव-गौ-गुरु के सत्कार में रत और महापुरुषों की सेवा करने वाला मनुष्य निरोग रहता है । अगर 20-21वीं सदी में किन्हीं स्वास्थ्य के इन सिद्धान्तों को वृहद्-रूप में एवं उनके वास्तविक अर्थ में समाज तक पहुँचाया है तो वे सिर्फ बापू जी ही हैं । पूज्य श्री ने सम्पूर्ण स्वास्थ्य की परिभाषा का प्रतिपादन करते हुए बताया कि हम पूर्ण निरोग तब होंगे जब हमारा शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि बुद्धिदाता परमात्मा में विश्रांति पाये । राम नाम की औषधि, खरी नियत से खाय । अंग रोग व्यापे नहीं, महारोग मिट जाय ।। अपने सत्संगों द्वारा बापू जी ने स्वास्थ्य के इन सूक्ष्म पहलुओं को जनजीवन का अभिन्न अंग बनाने का जो दैवी कार्य किया है वही आयुर्वेद का वास्तविक प्रचार-प्रसार है और इसके लिए सारा विश्व आपश्री का ऋणी रहेगा । स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 4-8 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आँवले का वृक्ष पवित्र-पूजनीय क्यों ? – पूज्य बापू जी



सृष्टि की शुरुआत में भगवान नारायण ने अपने मुँह से जैसे
मनुष्य थूकता है ऐसे एक बिन्दु उत्सर्जित किया (छोड़ा) तो वह चन्द्रमा
की नाईं चमचमाता बिंदु धरती पर गिरा और भगवान नारायण का
संकल्प कहो या वनस्पति जंगल का आदि कहो, वहाँ धरती का पहला
वृक्ष उत्पन्न हुआ । उस वृक्ष का दर्शन करके देवता लोग आनंदित होने
लगे । धरती पर पहली बार वृक्ष देखा तो सब आश्चर्यचकित हो गये कि
‘यह क्या है, कैसा है ? इतने फल लगे हैं !…’
आकाशवाणी हुईः ‘आश्चर्य न करो । यह आमलकी (आँवला) का
वृक्ष है । इसके सुमिरन से मनुष्य को गोदान का फल होगा । इसके
स्पर्श से दुगना फल होगा और इसका फल खाने से तिगुना फल होगा ।
इसके नीचे कोई व्रत-उपवास करके प्राणायाम, ध्यान, जप करेगा तो
कोटि गुना फल होगा । यह वृद्ध को जवान बनाने वाला तथा हृदय में
भगवान नारायण की भक्ति और देवत्व जागृत करने वाला होगा ।’
गोदान का फल मिलता है अर्थात् चित्त की वैसी ऊँची स्थिति होती
है । आँवला पोषक और पुण्यदायी है । आँवले के पेड़ को स्पर्श करने से
सात्त्विकता और प्रसन्नता की बढ़ोतरी होती है । आँवला सृष्टि का आदि
वृक्ष है । शास्त्रों में आँवले की वृक्ष की बड़ी भारी महिमा आयी है ।
कार्तिक मास में आँवले के वृक्ष की छाया में भोजन करने से एक
तक के अन्न-संसर्गजनित दोष (जूठा या अशुद्ध भोजन करने से लगने
वाले दोष) नष्ट हो जाते हैं । आँवले का उबटन लगाकर स्नान करने से
लक्ष्मीप्राप्ति होती है और विशेष प्रसन्नता मिलती है । जैसे दान से
अंतःकरण पावन होता है, शांति, आनंद फलित होते हैं, ऐसे ही आँवले के
वृक्ष का स्पर्श और उसके नीचे भोजन करना हितकर होता है ।

आँवले का रस शरीर पर मल के, सिर पर लगाकर थोड़ी देर बाद
स्नान करे तो दरिद्रता दूर हो जाती है और शरीर में जो गर्मी है, फोड़े-
फुंसी है, पित्त की तकलीफ है, आँखें जलती हैं – ये सब समस्याएँ ठीक
हो जाती हैं । आँवले के वृक्ष का पूजन, आँवले का सेवन बहुत हितकारी
है । आँवला व तुलसी मिश्रित जल से स्नान करें तो गंगाजल से स्नान
करने का पुण्य होता है ।
आँवले की महिमा उस समय ही थी ऐसा नहीं है, अब भी है ।
हमने तो सभी आश्रमों में आँवले के वृक्ष लगवा दिये है । पर्यावरण की
दृष्टि से भी यह बहुत उत्तम वृक्ष है ।
इस आँवले ने मानव जाति को जो दिया है वह गज़ब का है !
शास्त्रों के अनुसार आहार-द्रव्यों में छः रस होते हैं और उत्तम, संतुलित
स्वास्थ्य के लिए ये छहों रस आवश्यक बताये गये हैं । उनमें से 5 रस
अकेले आँवले से मिल जाते हैं । भोजन के बीच-बीच में कच्चे आँवले के
टुकड़े चबा के खायें तो पुष्टि मिलती है और पाचन तेज होता है ।
शरीर को जितना विटामिन ‘सी’ चाहिए उसकी पूर्ति केवल एक आँवला
खाने से हो जाती है । आँवला श्रेष्ठ रसायन है । यह दीर्घायुष्य, बल,
ओज व शक्ति देता है, आरोग्य बढ़ाता है, वर्ण निखारता है ।
मृत व्यक्ति की हड्डियाँ कोई गंगा में न डलवा सके तो स्कंद
पुराण के अनुसार आँवले के रस से धोकर किसी भी नदी में डाल देंगे तो
भी सद्गति होती है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 357
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वटवृक्ष का महत्त्व क्यों ?



पीपल-वृक्ष के समान वटवृक्ष भी हिन्दू धर्म का एक पूजनीय वृक्ष है
। वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है । हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने
इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं । यह मन में
स्थिरता लाने में मदद करता है और संकल्प को अडिग बना देता है ।
यह स्मरणशक्ति व एकाग्रता की वृद्धि करता है । वैज्ञानिक दृष्टि से
यह पृथ्वी में जल की मात्रा का स्थिरिकरण करने वाला वृक्ष है । यह
भूमिक्षरण को रोकने वाला वृक्ष है ।
शास्त्रों में महिमा
वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं
तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं । वटवृक्ष रोपने से अशेष
(अपार) पुण्य-संचय होता है । वैशाख आदि पुण्यमासों में इस वृक्ष की
जड़ में जल देने से पापों का नाश होता है एवं नाना प्रकार की सुख-
सम्पदा प्राप्त होती है ।
‘घर की पूर्व दिशा में’ वट (बरगद) का वृक्ष मंगलकारी माना गया
है ।’ (अग्नि पुराण)
‘वटवृक्ष लगाना मोक्षप्रद है ।’ (भविष्य पुराण)
महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की
वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति
सत्यवान को जीवनदान दिया था । इसीलिए वटसावित्रि व्रत (ज्येष्ठ
मास की पूर्णिमा या अमावस्या) के दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग
की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की 108
परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेटकर संकल्प करती हैं । साथ में

अपने पुत्रों की दीर्घ आयु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प किया
जाता है ।
वटवृक्ष मं देवताओं का वास बताया गया हैः
वटमूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनार्दनः ।
वटाग्रे तु शिवो देवः सावित्री वटसंश्रिता ।।
‘वट के मूल में ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन, अग्रभाग में शिव
प्रतिष्ठित रहते हैं तथा देवी सावित्री भी वटवृक्ष में स्थित रहती हैं ।’
वटवृक्ष पूजा-अर्चना, तप-साधना तथा मनोकामनाओं की पूर्ति के
लिए अत्यधिक उपयोगी माना गया है । कार्तिक मास में करवाचौथ के
अवसर पर भी महिलाएँ वटवृक्ष की पूजा-अर्चना मोवांछित फल पाने की
लालसा से करती हैं ।
वटवृक्षों में भी विशेष प्रभावशाली बड़ बादशाह की परिक्रमा क्यों ?
पूज्य बापू जी ने विभिन्न संत श्री आशाराम जी आश्रमों में वटवृक्षों
पर शक्तिपात किया है, जिनकी परिक्रमा करके अनगिनत लोगों की
मनोकामनाएँ पूर्ण हुई हैं और हो रही हैं । ये कल्पवृक्ष बड़ बादशाह
(बड़दादा) के नाम से जाने जाते हैं ।
स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए अत्यंत उपयोगी
वटवृक्ष मानव-जीवन के लिए अत्यंत कल्याण कारी है । यदि
व्यक्ति इसके पत्ते जड़, छाल एवं दूध आदि का सेवन करता है तो रोग
उससे कोसों दूर रहते हैं । आयुर्वेद के ग्रंथ ‘भावप्रकाश निघंटु’ में वटवृक्ष
को शीतलता-प्रदायक होने के साथ कई रोगों को दूर करने वाला बताया
गया है । यह वायु प्रदूषण को भी रोकता है । वायुमंडल में प्राणवायु
छोड़ता रहता है । इसकी छाँव तथा पत्तों में होकर आने वाली वायु शुद्ध

व शीतल हो जाती है और शरीर एवं मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करती है

मूल की तरफ लौटने का संदेश
वटवृक्ष की व्याख्या इस प्रकार की गयी हैः
वटानि वेष्टयति मूलेन वृक्षांतरमिति वटे ।
‘जो वृक्ष स्वयं को ही अपनी जड़ों से घेर ले उसे वट कहते हैं ।’
वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि
किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लोटना चाहिए और
अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए । इसी से हम मौलिक
रह सकते हैं । मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं ।
हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए । यही
सुखी जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 356
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