Tag Archives: Navratri

स्वास्थ्य को सुदृढ़ करने व स्वभाव पर विजय पाने का अवसर – पूज्य बापू जी


एक होती है शारदीय नवरात्रि और दूसरी चैत्री नवरात्रि । एक नवरात्रि रावण के मरने के पहले शुरु होती है, दशहरे को रावण मरता है और नवरात्रि पूरी हो जाती है । दूसरी नवरात्रि चैत्र मास में राम के प्राकट्य के पहले, रामनवमी के पहले शुरु होती है और रामजी के प्राकट्य दिवस पर समाप्त होती है । राम का आनन्द पाना है और रावण की क्रूरता से बचना है तो आत्मराम का प्राकट्य़ करो । काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार तथा शरीर को ‘मैं’ संसार को ‘मेरा’ मानना – यह रावण का रास्ता है । आत्मा को ‘मैं’ सारे ब्रह्माँड को आत्मिक दृष्टि से ‘मेरा’ मानना यह राम जी का रास्ता है । उपवास की महत्ता क्यों है ? नवरात्रि में व्रत-उपवास, ध्यान-जप और संयम-ब्रह्मचर्य… पति-पत्नि एक दूसरे से अलग रहें – यह बड़ा स्वास्थ्य-लाभ, बुद्धि-लाभ, पुण्य-लाभ देता है । परंतु इन दिनों में जो सम्भोग करते हैं उनको उसका दुष्फल हाथों हाथ मिलता है । नवरात्रि संयम का संदेश देने वाली है । यह हमारे ऋषियों की दूरदर्शिता का सुंदर आयोजन है, जिससे हम दीर्घ जीवन जी सकते हैं और दीर्घ सूझबूझ के धनी होकर ऐसे पद पर पहुँच सकते हैं जहाँ इऩ्द्र का पद भी नन्हा लगे । नवरात्रि के उपवास स्वास्थ्य के लिए वरदान हैं । अन्न से शरीर में पृथ्वी तत्त्व होता है और शरीर कई अनपचे और अनावश्यक तत्त्वों को लेकर बोझा ढो रहा होता है । मौका मिलने पर, ऋतु-परिवर्तन पर वे चीजें उभरती हैं और आपको रोग पकड़ता है । अतः इन दिनों में जो उपवास नहीं रखता और खा-खा-खा… करता है वह थका-थका, बीमार-बीमार रहेगा, उसे बुखार-वुखार आदि बहुत होता है । इस ढंग से उपवास देगा पूरा लाभ शरीर में 6 महीने तक के जो विजातीय द्रव्य जमा हैं अथवा जो डबलरोटी, बिस्कुट या मावा आदि खाये और उऩके छोटे-छोटे कण आँतों में फँसे हैं, जिनके कारण कभी डकारें, कभी पेट में गड़बड़, कभी कमर में गड़बड़, कभी ट्यूमर बनने का मसाला तैयार होता है, वह सारा मसाला उपवास से चट हो जायेगा । तो नवरात्रियों में उपवास का फायदा उठायें । नवरात्रि के उपवास करें तो पहले अन्न छोड़ दें और 2 दिन तक सब्जियों पर रहें, जिससे जठर पृथ्वी तत्त्व संबंधी रोग स्वाहा कर ले । फिर 2 दिन फल पर रहें । सब्जियाँ जल तत्त्व प्रधान होती हैं और फल अग्नि तत्त्व प्रधान होता है । फिर फल पर भी थोड़ा कम रहकर वायु प अथवा जल पर रहें तो और अच्छा लेकिन यह मोटे लोगों के लिए है । पतले दुबले लोग किशमिश, द्राक्ष आदि थोड़ा खाया करें और इऩ दिनों में गुनगुना पानी हलका-फुलका (थोड़ी मात्रा में) पियें । ठंडा पानी पियेंगे तो जठराग्नि मंद हो जायेगी । अगर मधुमेह (डायबिटीज़), कमजोरी, बुढापा नहीं है, उपवास कर सकते हो तो कर लेना । 9 दिन के नवरात्रि के उपवास नहीं रख सकते तो कम से कम सप्तमी, अष्टमी, नवमी का उपवास तो रखना चाहिए । विजय का डंका बजाओ 5 ज्ञानेन्द्रियाँ (जीभ, आँख, कान, नासिका व त्वचा) और 4 अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार) – ये तुम्हें उलझाते हैं । इन नवों को जीतकर तुम यदि नवरात्रि मना लेते हो तो नवरात्रि का विजयदशमी होता है… जैसे राम जी ने रावण को जीता, महिषासुर को माँ दुर्गा न जीता और विजय का डंका बजाया ऐसे ही तुम्हारे चित्त में छुपी हुई आसुरी सम्पदा को, धारणाओं को जीतकर जब तुम परमात्मा को पाओगे तो तुम्हारी भी विजय तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेगी । स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 11, 17 अंक 345 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

उपासना का महत्त्व


 

सनातन धर्म में निर्गुण निराकार परब्रह्म परमात्मा को पाने की योग्यता बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार की उपासनाएँ चलती हैं | उपासना माने उस परमात्म-तत्व के निकट आने का साधन |ऐसे उपासना करनेवाले लोगों में विष्णुजी के साकार रूप का ध्यान-भजन, पूजन-अर्जन करनेवाले लोगों को वैष्णव कहा जाता है और शक्ति की उपासना करनेवाले लोगों को शाक्त कहा जाता है | बंगाल में कलकत्ता की और शक्ति की उपासना करनेवाले शाक्त लोग अधिक संख्या में हैं |

‘श्रीमद देवी भगवत’ शक्ति के उपासकों का मुख्य ग्रन्थ है | उसमें जगदम्बा की महिमा है | शक्ति के उपस्क नवरात्रि में विशेष रूप से शक्ति की आराधना करते हैं | इन दिनों में पूजन-अर्जन, कीर्तन, व्रत-उपवास, मौन, जागरण आदि का विशेष महत्त्व होता है |

नवरात्रि को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है | उसमें पहले तीन दिन तमस को जीतने की आराधना के हैं | दुसरे तीन दिन रजस को और तीसरे दिन सत्त्व को जीतने की आराधना के हैं | आखरी दिन दशहरा है | वह सात्विक, रजस और तमस तीनों गुणों को यानि महिषासुर को मारकर जीव को माया की  जाल से छुड़ाकर शिव से मिलाने का दिन है |

जिस दिन महामाया ब्रह्मविद्या   आसुरी वृतियों को मारकर जीव के ब्रह्मभाव को प्रकट करती हैं, उसी दिन जीव की विजय होती है इसलिए उसका नाम ‘विजयादशमी’ है | हज़ारों-लाखों जन्मों से जीव त्रिगुणमयी माया के चक्कर में फँसा था, आसुरी वृतियों के फँदे में पड़ा था | जब महामाया जगदम्बा की अर्चना-उपासना-आराधना की तब वह जीव विजेता हो गया | माया के चक्कर से, अविद्या के फँदे से मुक्त हो गया, वह ब्रह्म हो गया |

विजेता होने के लिए बल चाहिए | बल बढ़ाने के लिए उपासना करनी चाहिए | उपासना में तप, संयम और एकाग्रता आदि जरूरी है |

जगत में शक्ति के बिना कोई काम सफल नही होता है | चाहे आपका सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, आपके विचार कितने भी सुंदर और उच्च हों लेकिन अगर आप शक्तिहीन हैं तो आपके विचारो का कोई मूल्य नही होगा | विचार अच्छा है, सिद्धांत अच्छा है, इसलिए सर्वमान्य हो जाता है ऐसा नही है | सिद्धांत या विचार चाहे कैसा भी हो, उसके पीछे शक्ति जितनी ज्यादा लगते हो उतना वः सर्वसामान्य होता है | चुनाव में भी देखो तो हार-जीत होती रहती है | ऐसा नही है कि यह आदमी अच्छा है इसलिए चुनाव में जीत गया और वह आदमी बुरा है इसलिए चुनाव में हार गया | आदमी अच्छा हो या बुरा, चुनाव में जीतने के लिए जिसने ज्यादा शक्ति लगायी वह जीत जायेगा | हकीकत में जिस किसी विषय में जो ज्यादा शक्ति लगाता है वह जीतता है | वकील लोगों को भी पता होगा, कई बार ऐसा होता है कि असील चाहे इमानदार हो चाहे बेईमान परन्तु जिस वकील के तर्क जोरदार-जानदार होते हैं वह मुकदमा जीत जाता है |

ऐसे ही जीवन में विचारो को, सिद्धांतो को प्रतिष्ठित करने के लिए शक्ति चाहिए, बल चाहिए, ढृढ़ निश्चय चाहिए |

साधको के लिए उपासना अत्यंत आवश्यक है | जीवन में कदम-कदम पर कैसी-कैसी मुश्किलें, कैसी-कैसी समस्याएँ आती हैं ! उनसे लड़ने के लिए, सामना करने के लिए भी  बल चाहिए | वह बल उपासना-आराधना से मिलता है |

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामजी ने मानो इसका प्रतिनिधित्व किया है  | सेतुबंध के समय शिव की उपासना करने  के लिए श्रीरामचन्द्रजी ने रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की थी, युद्ध के पहले नौ दिन चंडी की उपासना की थी, भगवान श्रीकृष्ण ने भी सूर्य की उपासना की थी |

इन अवतारों ने हमे बताया है की अगर आप मुक्ति पाना चाहते हो तो उपासना को अपने जीवन का एक अंग बना लो | बिना उपासना के विकास नही होता है |

अगर मनुष्य अपने मन को नियन्त्रण में रख सके और जिस समय जैसी घटना घटे उसे उचित समझकर अपने चित्त को सम रख सके तो इससे बल बढ़ता है | मन को नियंत्रित करने के लिए हि अलग-अलग दैवो की उपासना की जाती है | दूर शकी की उप कक शाक्त लो अपने चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | शैवपंथी शिव की और वैष्णव लोग विष्णु की उपासना करके चित्त को शांत और एकाग्र करते हैं | कई लोग भगवन सूर्य कई उपासना करके अपने जीवन को तेजस्वी बना लेते हैं तो कई ‘गणपति बापा मोरिया’ करके चित्त को प्रसन्नता और आनंद से भर देते हैं |

उपासना से चित्त शांत और प्रसन्न होता है, उसका बल बढ़ता है, और तभी आत्मज्ञान के वचन सुनने का और पचाने का अधिकारी बनता है | ऐसा अधिकारी चित्त ब्रह्म्वेता महापुरुषों के अनुभव को अपना अनुभव बना लेता है |

दुर्गासप्तशती का आविर्भाव


 

मोह सकल व्याधिंह क्र मुला |

तिन्ह से पुनि उपजहिं बहु सूला ||

‘सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है | उन व्याधियों से फिर और बहुत-से-शूल उत्पन्न होते हैं |’

जिव को जिन चीजों में मोह होता है, देर-सवेर वे चीजे ही जिव को रुलाती हैं | जिस कुटुम्ब में मोह होता है, जिन पुत्रों में मोह होता है, उनसे ही कभी-न-कभी धोखा मिलता है लेकिन अविद्या का प्रभाव इतना गहराहै की जहाँ से धोखा मिलता है वहन से थोडा ऊब तो जाता है परंतु उससे छुटकारा नही पा सकता और वहीं पर चिपका रहता है |

कलिंग देश के वैश्य रजा विराध के पौत्र और दुर्मिल के पुत्र समाधिवैश्य को भी धन-धान्य, कुटुम्ब में बहुत आसक्ति थी, बहुत मोह था | लेकिन उसी कुटुम्बियों ने, पत्नी और पुत्र ने धन की लालच में उसे घर से बाहर निकाल दिया | वह इधर-उधर भटकते-भटकते जंगलों-झाड़ियों से गुजरते हुए मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचा |

ऋषि का आश्रम देखकर उसके चित्त को थोड़ी-सी शांति मिली | अनुशासनबद्ध, संयमी और सादे रहन-सहनवाले, साधन-भजन करके आत्मशांति की प्राप्ति की ओर आगे बढ़े हुए, निश्चिंत जीवन जीनेवाले साधकों को देखकर समाधिवैश्य के मन में हुआ कि इस आश्रम में कुछ दिन तक रहूँगा तो मेरे चित्त कि तपन जरुर मिट जाएगी |

सुख, शांति ओर चैन इन्सान कि गहरी माँग है | अशांति कोई नही चाहता, दुःख कोई नही चाहता लेकिन मजे कि बात यह है कि जहाँ से तपन पैदा होती है वहन से इन्सान सुख कहता है ओर जहाँ से अशांति मिलती है वहन से शांति चाहता है | मोह की महिमा ही ऐसी है |

यह मोह जब तक ज्ञान के द्वारा निवृत नही होता है तब तक कंधे बदलता है, एक कंधे का बोझ दुसरे कंधे पर धृ देता है | एसा बोझ बदलते-बदलते जिन बदल जाता है | अरे ! मौत भी बदल जाती है | कभी पशु का जीवन तो कभी पक्षी का | कभी कैसी मौत आती है तो कभी कैसी | अगर जीवन ओर मौत के बदलने से पहले अपनी समझ बदल लें तो बेडा पार हो जाये| समाधिवैश्य का कोई सौभाग्य होगा, कुछ पुन्य होंगे, इश्वर की कृपा होगी, वह मेधा ऋषि के आश्रम में रहने लगा|

उसी आश्रम में राजा सुरथ भी आ पहुंचा| राजा सुरथ को भी राजगद्धी के अधिकारी बनने से रोकने के लिए कुटुम्बियों ने सताया था ओर धोखा दिया था| उसके कपटी व्यवहार से उद्ध्विघं हो कर शिकार के बहाने वह राज्य से भाग निकला था| उसे संदेह हो गया था की किसी न किसी षड्यंत्र में फँसाकर वे मुझे मार डालेंगे| अत: उसकी अपेक्षा राज्य का लालच छोड़ देना अच्छा है |

इस तरह समाधिवैश्य ओर राजा सुरथ दोनों ऋषि के आश्रम में रहने लगे | दोनों एक ही प्रकार के दुःख से पीड़ित थे | आश्रम में तो रहते थे लेकिन मोह नष्ट करने के लिए नही आये थे, इश्वर-प्राप्ति के लिए नहीं आये थे | अपने कुटुम्बियों ने, रिश्तेदारों ने धोखा दिया था, संसार से जो ताप मिला था उसकी तपन बुझाने आये थे | उनके मन में आसक्ति ओर भोगवासना तो थी ही | इसलिए सोच रहे थे की तपन मिट जाये फिर बाद में चले जायेंगे |

ऋषि आत्मज्ञानी थे | उनके शिष्य भी सेवाभावी थे | परंतु समाधिवैश्य और राजा सुरथ की तो हालत कुछ और थी | उन दोनों ने मिलकर मेधा रिही के चरणों में प्रार्थना की : “स्वामीजी ! हहम आश्रम में रह तो रहे हैं लेकिन हमारा मन व्ही संसारिक सुक चाहता है | हम समझते हैं क संसार स्वार्थ से भरा हुआ हा | कितने ही लोग मरकर सब कुछ इधर छोडकर चले गये हैं | धोखेबाज सगे-सबंधियों नी तो हमे जीते-जी  छुड़ा दिया है | फिर भी ऐसी इच्छा होती रहती है कि ‘ स्वामीजी आगया दें तो हम उधर जाये और आशीर्वाद  भी दें कि हमारी पत्नी और बच्चे हमे स्नेह करें……..धन-धान्य बढ़ता रहे और हम मजे से जियें | “

ऋषि उनके अंत:करण की ईमानदारी देखकर बहुत खुश हुए | उन्होंने कहा : ” इसीका नाम माया है |”

इसी मया की दो शक्तियाँ हैं : आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति | ‘चाहे सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखेंगे |’

तमाशा क्या देखते हैं ? जूते खा रहे हैं ……. धक्का-मुक्की सह रहे हैं……हुईसो……हुईसो ……चल रहा है……फिर भी ‘मुंडो तो मारवाड़ |’ कहेंगे बहुत मजा है इस जीवन में | लेकिन ऐसा मजा लेने में जीवन पूरा कर देनेवाला जीवन के अंत में देखता है कि संसार में कोई सार नही है | ऐसा करते-करते सब चले गये | दादा-परदादा चले गये और हम-तुम भी चले जायेंगे | हम इस संसार से चले जाये उसके पहले इस संसार कि अमरता को समझकर एकमात्र सारस्वरूप परमात्मा में जाग जायें तो कितना अच्छा !

समाधिवैश्य और सुरथ राजा ने कहा : “स्वामीजी ! यह सब हम समझते हैं फिर भी हमारे चित्त में इश्वर के प्रति प्रीटी नही होती और संसार से वैराग्य नही आता | इसका क्या कारण होगा ? संसार कि नश्वरता और आत्मा की शाश्वतता के बारे में सुनते हैं लेकिन नश्वर संसार का मोह नही छूटता और शाश्वत परमात्मा में मन नही लगता है | ऐसा क्यों ?”

मेधा ऋषि ने कहा : “इसीको सनातन धर्म के ऋषियों ने माया कहा है | वह जीवको संसार में घसीटती रहती है | ईश्वर सत्य है, परब्रह्म परमात्मा सत्य है, परंतु माया के कारण असत संसार, नाशवान जगत सच्चा लगता है | इस माया से बचना चाहिए | माया से बचने के लिए ब्रह्मविद्या का आश्रय लेना चाहिए | वही संसार-सागर से पार करानेवाली विद्या है | इस ब्रह्मविद्या की आराधना-उपासना से बुद्धि का विकास होगा और आसुरी भाव काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार मिटते जाएँगे | ज्यों-ज्यों विकार मिटते जाएँगे त्यों-त्यों दैवी स्वभाव प्रकट होने लगेगा और उस अंतर्यामी परमात्मा में प्रीति होने लगेगी | नश्वर का मोह छूटता जायेगा और उस परमदेव को जानने की योग्यता बढती जाएगी |”

फिर उन कृपालु ऋषिवर ने दोनों के पूछने पर उन्हें भगवती की पूजा-उपासना की विधि बतायी | ऋषिवर ने उस महामाया की आराधना करने के लिए जो उपदेश दिया, वही शाक्तों का उपास्य ग्रन्थ ‘दुर्गासप्तशती’ के रूप में प्रकट हुआ | तिन वर्ष तक आराधना करने पर भगवती साक्षात् प्रगट हुई और वर माँगने के लिए कहा |

राजा सुरथ के मन में संसार की वासना थी अत: उन्होंने संसारी भोग ही माँगे, किन्तु समाधिवैश्य के मन में किसी सांसारिक वस्तु की काना नही रह गयी थी | संसार की दुःखरूपता, अनित्यता और असत्यता उनकी समझ में आ चुकी थी अत: उन्होंने भगवती से प्रार्थना की कि :

“देवि ! अब ऐसा वर दो कि ‘यह मैं हूँ’ और ‘यह मेरा है’ इस प्रकार की अहंता-ममता और आसक्ति को जन्म देनेवाला अज्ञान नष्ट हो जाये और मुझे विशुद्ध ज्ञान की उपलब्धी हो |”

भगवती ने बड़ी प्रसन्नता से समाधिवैश्य को ज्ञान दान किया और वे स्वरूपस्थिति होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये |