(गीतामर्मज्ञ पूज्य श्री गीताज्ञान की पावन गंगा बहाते हुए अपने प्यारे श्रोताओं को कितना सहज में ज्ञानामृत देते हैं उसका एक साक्ष्य आपके समक्ष प्रस्तुत है।)
श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोsनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
‘हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर।’ (गीताः 2.14)
तू भूख-प्यास, मान-अपमान, सुख-दुःख को सहन कर, नहीं सहेगा तो देह में मन लगा रहेगा और सह लेगा तो मन की देह से कुछ पृथकता हो सकेगी। मन परमात्मा में लगाना है तो देह की सुविधा-असुविधा की चिंता छोड़। जन्म-मरण के दुःखों से दूर होना है तो देह में से ममता हटा।
वे लोग सचमुच अभागे हैं जो सारा दिन शरीर को सजाते रहते हैं, आईने में देखते रहते हैं सुन्दरता विकसित करने के लिए सैलूनों में, ब्यूटी पार्लरों में जाया करते हैं। ऐसे देहाध्यासी लोगों को एक क्षण में हँसना, दूसरे क्षण में दुःख हो जाता है। एक क्षण में हँसना, दूसरे क्षण में रोना पड़ता है। ऐसा करते-करते वे पूरा समय गँवा देते हैं। बाद में तिर्यक-पशु-पक्षियों की योनि पाते हैं और भटकते रहते हैं, वे सुख-दुःख सहते हैं फिर भी उनके दुःखों का अंत नहीं आता है।
हे राम जी ! इस जीव ने कौन से दुःख नहीं सहे हैं। संसार में जो भी दुःख हैं वे सब मनुष्य ने सहन किये हैं। कभी तो वह बैल होकर बोझा उठाता है, कभी हाथी होकर जंगलों में भटकता है, कभी हिरण बनाता है तो किसी का शिकार हो जाता है, कभी शिकारी होकर भागता है तो कभी शिकार होकर भागता है।
यह जीव जन्म-से-जन्मांतर तक भागता आया है। चौरासी लाख योनियों से भागता-भागता इस मनुष्य देह में आया है। अब यदि मनुष्य देह में नहीं चेतेगा तो फिर न जाने कितने-कितने जन्मों में भागना पड़ेगा। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे अर्जुन ! तू तितिक्षा सह। सत्पुरुषों का संग कर।’
सत्पुरुषों के पास जाने में कोई कष्ट आता है तो तू सहन कर ले, तपस्या हो जायेगी। परमात्मा का ध्यान करने में संसार का कोई पदार्थ, कोई चीज चली जाय तो चिंता मत कर। एक दिन शरीर भी मिट्टी में मिल जायेगा। सच पूछो तो जो परमात्मा का ध्यान करते हैं, संसार की चीजें तो उनके पीछे-पीछे घूमती रहती हैं और जो परमात्मा को छोड़कर संसार के पीछे घूमते हैं उऩके पास संसार का सुख टिकता ही नहीं। मान लो, संसार की कोई चीज छूट जाय, संसार का कोई मित्र नाराज भी हो जाय, संसार का कोई पदार्थ चला भी जाय तो भगवदभक्ति के रास्ते में उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।
शीत उष्ण, सुख-दुःख आते हैं और जाते हैं। ये आगमापायी और अनित्य हैं। जिस देह को शीत-उष्ण लगता है, जिस देह को भूख-प्यास लगती है, वह देह भी शाश्वत नहीं है तो उस देह पर आने वाले सुख-दुःख सदा कैसे रहेंगे ? इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि अपना अधिक-से-अधिक समय मौन, एकांत, ध्यान में, संतों के सान्निध्य में अथवा निःस्वार्थ होकर समाज व संतों के बीच सेतु बनने के दैवीकार्य में गुजारें। लोगों से कम-से-कम परिचय करें, कम-से-कम बोलें ,कम-से-कम सोयें, शरीर को टिकाने के लिए ही खायें और बार-बार विचार करें किः “मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? आखिर मैं कहाँ जाऊँगा ? संसार की सब सुविधाएँ मिल जायें, आखिर क्या ?”
एक बात यदि आप याद रखोगे तो कल्याण हो जायेगा। प्रतिदिन अपने से पूछो…. कुछ भी काम करो, काम करने के पहले और काम करने के बाद अपने-आपसे पूछो किः आखिर यह सब कब तक ? बस, इतना ही याद रखोगे तो बहुत बढ़िया होगा। दिन में बार-बार पूछो किः ‘आखिर क्या ?’ आखिर यह सब कब तक ? आखिर इन सबका क्या ?’ बार-बार ऐसा सोचोगे तो विवेक जगेगा। विवेक जगने से वैराग्य आता है। जिसकी बुद्धि में वैराग्यरूपी फूल खिला है, उसके जीवन में षट्सम्पत्तिरूपी भँवरे आने लगते हैं।
जब तक विवेक नहीं है तब तक मन चंचल है। जरा-सा विवेक जागृत रखो तो मन शांत जायेगा। विवेक प्रगाढ़ होगा तो वैराग्य टिकेगा तो यश भी टिकेगा, वैराग्य टिकेगा तो मान भी टिकेगा, वैराग्य टिकेगा तो अर्थ भी टिकेगा और वैराग्य गया तो सब गया ! वैराग्य का बाप है विवेक। जगत की नश्वरता का विवेक करो।
क्या करिये क्या जोड़िये, थोड़े जीवन काज।
छोड़ी-छोड़ी सब जात हैं देह, गेह, धन, राज।।
कोई रोता बिलखता मरता है तो कोई एकाएक मरता है, कोई बीमार होकर मरता है तो कोई तंदुरुस्त ही मर जाता है, लेकिन सच्चा मरना तो उसी का है जो परमात्मा के ध्यान में मर जाय। धन्य तो उसी का जीना है जो परमात्मा में डूबकर परमात्ममय हो जाता। जिसका मन परमात्मा के ध्यान में डूबा है, जिसका मन परमात्मा की मस्ती में मरा है उसको काल का क्या मारेगा ? जो परमात्मा में मर रहा है उसको दुनिया क्या मारेगी ? वह तो परमात्मा में मरकर परमात्ममय हो गया है।
मूर्ख आदमी संसार में खपकर संसारी हो जाते हैं, जड़वादी जड़ चीजों के पीछे जड़ बन जाते हैं, भोगवादी भोगों में खपकर भोगी बन जाते हैं, लेकिन कोई-कोई गुरुमुख, कोई-कोई हरि का प्यारा है जो विवेक को सजाग रखकर अपने मन को परमात्मा में लगाता है, सत्पुरुषों की संगति में लगाता है, प्रणव के जाप में लगाता है।
बहिरंग जप करते-करते फिर मानसिक जप होता है तो मन के कल्मष दूर होते हैं, तन के पाप नाश होते हैं। शरीर के दोष और मन की चंचलता कम होती है। जप से तन और मन के दोष दूर हो जाते हैं तो फिर ध्यान लगना स्वाभाविक शुरु हो जाता है और आदमी अपने मूलस्वरूप में प्रगट होने लगता है।
आपका मूलस्वरूप है आत्मा। आपका मूलस्वरूप है चैतन्य सच्चिदानंद परमात्मा। आपका मूलस्वरूप है अजन्मा, आपका मूलस्वरूप है अविनाशी, आपका मूलस्वरूप है त्रिकालाबाधित। आप धीरे-धीरे अपने मूलस्वरूप की एक बार थोड़ी-सी भी झाँकी आ जाय फिर नागकन्याओं का सुख भी तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा, अप्सराओं का सुख भी तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकेगा, देवों, यक्षों और किन्नरों का सुख भी तुम्हें आकर्षित नहीं कर सकेगा तो संसार के तुच्छ सुख तुम्हें क्या बाँध सकेंगे ?
इसीलिए विवेक को सदैव जागृत रखें। मन को समझायें- ‘आखिर कब तक ? पुत्र की चिंता भी क्यों और कब तक करेगा ? अगले जन्म में तेरे कितने पुत्र-पुत्री परिवार हो गये, कितनी पत्नियाँ हो गयीं, तू किस-किसकी चिंता करेगा ?’
जिसने अनुराग का दान दिया उससे कण माँग लजाता नहीं….
जिसने तेरी आँखों के देखने की सत्ता दी, जिसने तेरे पैरों को पसारने का सामर्थ्य दिया, जिसने तेरे होठों को हिलने की सत्ता दी, जिसने तेरे मन के संकल्पों को स्फुरने की सत्ता दी, जिसने तेरी बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता दी, जिसने तुझे इतना-इतना दान दिया उसको भूलकर तू कहाँ भटकता है ?
इन्द्रियों के सुख क्षणिक हैं। कोई आँख के सुख में फँसा है ,कोई जीभ के सुख में फँसा है, कोई नाक के सुख में फँसा है, कोई कान के सुख में फँसा है और कोई त्वचा के सुख में फँसा है। जिस सुखस्वरूप परमात्मा की सत्ता से ये इन्द्रियसुख भासते हैं, उस सुखस्वरूप परमात्म-चेतना का अनुभव करो। तुम तुच्छ इन्द्रिय सुख के पीछे अपना जीवन बरबाद न करो।
जिसने अनुराग का दान दिया उससे कण माँग लजाता नहीं।
अपना भूल समाधि लगा, यह पिउ का वियोग सुहाता नहीं।
नभ देख पयोधर शाम ढले, क्यों मिट उसमें मिल जाता नहीं।
अब सीख ले मौन का मंत्र नया, ये पीउ का वियोग सुहाता नहीं।
चुगता है चकोर अंगार, फरियाद किसी को सुनाता नहीं।
अरे ! चकोर पक्षी उस पिया के प्रेम में अंगार चुग जाता है फिर भी किसी से शिकायत नहीं करता और ‘हे मन ! तू सुख-दुःख की शिकायत करता है ? प्रतिकूलता में कायरों जैसा भागता है ? जरा-सा अपमान हो जाता है तो तू कमजोर हो जाता है ? प्रभु को छोड़ देता है ? जरा सा मान मिलता है तो प्रभु को छोड़ देता है ?
आदमी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है, आदमी का आखिरी-में-आखिरी दुर्भाग्य यह है कि वह पहला ही कुठाराघात अपने साधन-भजन और विवेक पर करता है। संसार का कोई काम आ गया तो भजन छोड़ दिया, संध्या वंदन छोड़ दिया। आदमी पहली कैंची चलाता है – सत्संग पर, ध्यान भजन पर।
शास्त्र कहते हैं- शतंविहाय भोक्तव्यम्…. सौ काम छोड़कर भोजन कर लेना चाहिए।
……..सहस्त्रम् स्नानम् आचरेत्।
हजार काम छोड़कर स्नान कर लें। स्नान से सत्त्वगुण बढ़ता है। सत्त्वगुण से विवेक पुष्ट होता है। सत्त्वगुण बढ़ने से मनोबल बढ़ता है, संकल्प सत्य होने लगता है, सत्त्वगुण अत्यधिक होने से ऋद्धि-सिद्धि हाजिर हो जाती है।
सूर्योदय के पहले स्नान करने से बुद्धि पवित्र होती है, ध्यान-भजन में भी बरकत आती है और संसार के व्यवहार में, कमायी में भी बरकत आती है। पहले के जमाने में लोग चार बजे उठकर स्नानादि करके संध्या-वंदन करते थे। तब परिवार में एक व्यक्ति कमाता था फिर भी सुखी जीवन गुजारते थे और अभी पति और पत्नी दोनों कमाते हैं फिर भी बरकत नहीं होती और जरा-जरा बात में खिन्न हो जाते हैं।
लक्ष्यम् विहाय दातव्यम्…..
लाख काम छोड़कर भी दान करने का मौका आ जाय तो दान कर दें। धन का दान करें, धन न हो तो किसी को आश्वासन दें, प्यासे को पानी का प्याला ही दान करें लेकिन कुछ-न-कुछ दान करें क्योंकि शरीर नाशवान है। मौत कब आ जाय निश्चित नहीं है। इसलिए शरीर से कुछ देना सीखें, ताकि एक बार प्रभु के लिए शरीर भी देना पड़े तो दे सकें। शरीर देकर भी यदि परमात्मा मिलता है तो सौदा सस्ता है। नहीं तो शरीर को तो श्मशान में लकड़ियाँ जला देंगी। दान भी प्रभु को पाने की प्रक्रिया का एक अंग है।
…….कोटि त्यक्त्वा हरिभजेत्। करोड़ काम छोड़कर हरि का स्मरण करो, हरि का ध्यान करो।
आज आदमी का सोचने का तरीका इतना गलत हो गया है कि घर में कोई मेहमान आ जाय, संसार में कुछ काम आ जाय या ऑफिस के साहब को रिझाना पड़े तो ध्यान-भजन को छोड़ देता है। अरे ! आत्म-साहब को छोड़कर बाहर के साहबों को रिझाने जायेगा तो साहब राजी नहीं होंगे, तेरा शोषण होगा और तू आत्म-साहब के रास्ते चलेगा तो साहबों के भी साहब (आत्म-साहब) उस साहब का चित्त बदल देंगे। जो काम हजारों-लाखों खर्च करके नहीं होता वह तेरे ध्यान-भजन के प्रभाव से अपने-आप भी हो सकता है।
कबीरा यह जग आयके, बहुत से कीने मीत।
जिन दिल बाँधा एक से, वे सोये निश्चिंत।।
कोई मित्र से मिलने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं, कोई धन कमाने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं, कोई नोटिस को ठीक करने के लिए सत्संग छोड़ देते हैं। जब संसार में प्रतिकूलता आ जाती है या अधिक अऩुकूलता आ जाती है तो व्यक्ति पहला खून करता है, साधन-भजन का। पहली गोली मारता है ध्यान-भजन के समय को। जो ध्यान-भजन का समय काट देता है उसको काल भी उठा लेता है।
जो ध्यान भजन नहीं करता उसको भीतर का रस नहीं आता। जिसको भीतर का रस नहीं आता, वह बाहर के रसों में अपना कीमती समय गँवा देता है और बाहर से सजा-धजा तो दिखता है लेकिन भीतर से खोखला हो जाता है। आखिर भगवान की कृपा, संतों की कृपा से कुछ काम तो होता है लेकिन अपने कर्म इतने तीव्र होते हैं कि कुछ तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं-
शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानं आचरेत्।
लक्ष्यं विहाय दातव्यं कोटि त्यक्त्वा हरिभजेत्।।
‘सौ काम छोड़कर भोजन करो। हजार काम छोड़कर स्नान करो। लाख काम छोड़कर दान करो और करोड़ काम छोड़कर हरि का स्मरण करो, हरि का स्मरण करो, हरि का ध्यान करो।’ हरि के ध्यान से तुम स्वयं हरिमय हा जाओगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2001, पृष्ठ संख्या 7-9, अंक 106
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वैराग्य अग्नि प्रज्वलित करें….
(जैसे गाय दिन भर के चारे का कुछ साररूप अमृत अपने बछड़े को दूधरूप में पिलाती है ऐसे ही प्राचीन ग्रंथों-पुराणों और उपनिषदों का साररूप अमृत-रस संचित करके, पूज्य बापू जी अपने भक्तों को पिला रहे हैं। यह ज्ञानामृत ‘चित्त का इलाज’ कैसेट से संकलित है।)
पुराण में यह प्रसंग आता है, श्री कृष्ण उद्धव को यह प्रसंग सुनाते हैं-
भगवान श्रीहरि के अंशावतार नर-नारायण नामक ऋषि पवित्र स्थान बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे थे। उनके तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने अप्सराएँ भेजीं, लेकिन नर-नारायण ने चित्त से पार का निर्विकल्प सुख पाया था, वे क्रिया के सुख में कैसे गिर सकते थे ?
नर-नारायण ने उन अप्सराओं की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं ! कामदेव और रति के साथ आयी हुई वे अप्सराएँ अपने प्रयत्न में असफल रहीं। नर-नारायण अपने सहजस्वरूप से नीचे नहीं आये। निर्विकल्प से सविकल्प में, सविकल्प से भाव में और भाव से क्रिया में नहीं आये।
होता ऐसा है कि तत्त्व से, निर्विकल्प से सविकल्प में आया जाता है, सविकल्प से भाव में और भाव से क्रिया होती है। क्रिया में उलझ गये तो क्रिया को थामो, भाव में आओ। भाव को बदलो, समाधि में आओ। समाधि को बदलकर तत्त्व में चले आओ तो आप भी नर-नारायण स्वरूप हो जाओगे।
देवराज इन्द्र की भेजी हुई अप्सराओं से नर-नारायण विचलित न हुए, वरन् नारायण में अपने उरु से एक अत्यंत रूपवती अप्सरा ‘उर्वशी’ को उत्पन्न किया। जिसके आगे इन्द्र की अप्सराएँ भी फीकी पड़ गयीं। नारायण ने वह उर्वशी इन्द्र को भेंट दे दी।
स्वर्ग से आयी अप्सरा ने कहाः “देवेन्द्र ने हमें आपकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए भेजा था।
महाभाग ! आप देवाधिदेव ऩारायण हैं। हम चाहती हैं कि आपकी सेवा करें। आप हमें स्वीकार करने की कृपा करें।”
नारायणः “अभी नहीं। हमने इस जन्म में तय कर रखा है कि विवाह नहीं करेंगे। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर में मैं भूमण्डल पर प्रकट होऊँगा। उस समय तुम सभी अलग-अलग जन्म लेकर मेरी पत्नी बनोगी।”
वे ही नर और नारायण द्वापर में श्रीकृष्ण और बलराम के रूप में प्रगट हुए थे एवं वे ही अप्सराएँ श्रीकृष्ण की रानियाँ बनी थीं, ऐसी कथा है।
नारायण द्वारा प्रगट की गयी उर्वशी नृत्यकला में अद्वितीय थी। शोभा एवं रूप-लावण्य में भी सबसे बढ़-चढ़कर थी।
जब योग्यता बढ़ जाती है और अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता तो परिच्छिन्नता रहती है, अहंकार आ जाता है और जब अहंकार आ जाता है तब सारी योग्यताओं पर पानी फिर जाता है।
कोई कितना भी पुण्यात्मा हो, कितना भी धर्मात्मा हो, कितना भी बलवान हो, कितना भी विद्वान हो, कितना भी धनवान हो, कितना भी सत्तावान हो लेकिन जब अहंकार आ जाता है तब सारे गुण अवगुण में परिवर्तित हो जाते हैं।
उर्वशी नृत्य कर रही थी। नृत्य करते-करते उसे लगाः ‘मैं कितना सुन्दर नृत्य कर रही हूँ !’ उसमें मैं की परिच्छिन्नता आ गयी….
क्रिया सहज में होती है तो समाधि जैसा सुख होता है लेकिन क्रिया का मूल्यांकन करके जीव कर्ता बन जाता है तो सहज क्रिया के नीचे की स्थिति में आ जाता है। आप जब ऑफिस में, दुकान में, देश में, परदेश में, जहाँ भी काम करते हो और आनंद आता है तो समझो, आप अपने कर्ताभाव को भूले हुए हो। क्रिया तो हो रही है लेकिन अनजाने में आप भावना के जगत में पहुँचे हो, तब काम करने में आपको मजा आता है। आप जब आनंदित होते हो तो आपके द्वारा सुहावने निर्णय आते हैं। अतः जिस समय जो काम करें, फल की आकांक्षा के लिए नहीं। यदि व्यवहार करते समय हमारी नजर फल पर होती है तो व्यवहार का रस नहीं मिलता, लेकिन यदि हमारी नजर परमात्मा पर होती है तो व्यवहार का फल भी सुन्दर होता है और अंतःकरण भी शुद्ध होता है।
उर्वशी को गर्व हुआ कि मैं कितना सुन्दर नृत्य कर रही हूँ तो वह नृत्य की कला भूल गयी। तब ब्रह्मदेव ने शाप दियाः ‘जा, मृत्युलोक को प्राप्त हो।’
उर्वशी को अपनी गल्ती का पता चल गया कि मुझमें मद आ गया था। उर्वशी ने क्षमायाचना की। ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ और बोलेः
“जब तू ऐल (पुरुरवा) राजा को नग्न अवस्था में देखेगी तब शाप से मुक्त होगी और तुझे पुनः स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा।”
इन्द्र ने देखा कि बेचारी उर्वशी मृत्युलोक में जा रही है। वह जल्दी से शापनिवृत्त हो जाय इसलिए दो अश्विनी कुमारों को मेढ़े के रूप में साथ में दे दिया।
ऐल राजा महाप्रतापी था। बड़े-बड़े मुकुटधारी राजा उसके आगे नतमस्तक होते थे। वह गरीबों का सहायक और प्रजा का पालक था, साधु संतों का आदर करने वाला था, मित्रों का परम सुहृद था और शत्रुओं के लिए काल के समान था। विद्या एवं धन से सम्पन्न होते हुए भी निरभिमानी और दानी था।
ऐसे रूप, गुण, वैभव, सदाचार एवं शक्तिसम्पन्न राजा ऐल को उर्वशी ने अपने चंगुल में फँसा लिया। राजा पुरुरवा उसके मोह में पड़ गया। मोह में पड़ा तो इन्द्रियों के सुख में पड़ गया और इन्द्रियों का सुख बार-बार भोगने से आदमी आत्मसुख से, समाधि के सुख से, भाव के सुख से नीचे आ जाता है।
समाधि का सुख बार-बार लेने से इन्द्रियों के सुख से मनुष्य ऊपर उठ जाता है। जबकि बार-बार विकारों का सुख भोगने से मनुष्य समाधि के सुख से, आत्मसुख से नीचे आ जाता है।
इतना प्रतापी और यशस्वी राजा भी धीरे-धीरे उर्वशी के वश में हो गया। उर्वशी जैसा कहती वैसा ही राजा करता। जैसे, बंदर मदारी के इशारे पर नाचता है ऐसे ही वह राजा उसके इशारे पर नाचता। इस तरह वर्षों बीत गये।
एक रात्रि को इन्द्र की प्रेरणा से गंधर्व मेढ़ों को चुराकर ले गये। जब वे मेढ़ों को ले चले तो मेढ़े चिल्लाने लगे। उर्वशी उन मेढ़ों को पुत्र के समान मानती थी। उनके चिल्लाने की आवाज सुनकर वह क्रोधित हो उठी और बोलीः
“राजन् ! मेढ़ों को सुरक्षित रखने की तुमने प्रतिज्ञा की थी, किन्तु ! आज तुम्हारे विश्वास में आकर मैं बरबाद हो गयी। मेरे पुत्र के सामन आँखें मूँदे पड़े हो। तुम्हें धिक्कार है ! तुम कैसे राजा हो ? कैसे वीर हो ? चोरों से मेढ़ों को नहीं छुड़वा सकते ?”
जब स्त्री अपमान कर देती है तो पुरुष को ज्यादा जोश आ जाता है।
राजा हथियार लेकर मेढ़ों के पीछे भागा तो कपड़ों तक का ख्याल न रहा। कहाँ तो प्रतापी, यशस्वी राजा ऐल और कहाँ स्त्री का आज्ञा से मेढ़ों के बचाने के लिए भागा जा रहा है… कटिवस्त्र भी छूट गया, एकदम दिगम्बर हो गया। इतने में बिजली चमकी और बिजली के प्रकाश में उर्वशी ने राजा को नग्नावस्था में देख लिया। राजा का बचा हुआ तप-तेज उर्वशी के हिस्से चला गया और वह शाप से मुक्त हो गयी, उसका को तो काम बन गया।
मेढ़ों को लेकर अपने भवन में लौटने पर राजा को उर्वशी स्वर्ग में जाने के लिए तत्पर दिखाई दी। उर्वशी को देखकर राजा बोलाः “अरी सुन्दरी ! कमललोचनी ! ठहरो। मुझे सुखी करो। मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। तुम्हारे बिना मैं कैसे जीऊँगा ? तुम्हारे लिए तो मैंने अपना राज्य तक छोड़ दिया।”
इस प्रकार राजा ऐल विलाप करने लगे।
उर्वशीः “महाराज ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुम्हारी बुद्धि कुण्ठित हो गयी है। इस दुनिया में किसी का कोई सहारा नहीं होता। सच्चा सहारा तो परमात्मा ही है।”
स्त्री फटकारे, लानत दे फिर भी अन्दर वैराग्य नहीं होता, विवेक नहीं होता क्योंकि क्रिया के सुख से हम लोगों का इतना तादात्म्य हो जाता है कि अपमान भी उस वक्त मजाक लगता है।
उर्वशी ने राजा को समझाने का यत्न किया कि तुमने कई बार मेरे शरीर का आलिंगन किया, वर्षों तक किया। इससे तुम्हें क्या मिला ? जरा सोचो। देह नश्वर है और देह का सुख भी नश्वर है। क्रिया के नश्वर सुख में तुम अपने शाश्वत प्रभु को क्यों भूलते हो ?”
फिर भी राजा ऐल का मोह न गया। ऐल गिड़गिड़ाने लगा। आखिर उर्वशी का हृदय पिघला। उसने गन्धर्वों से अग्निपात्र लेकर दिया और कहाः “इस अग्निपात्र में हवन करोगे तो तुम स्वर्ग को प्राप्त होगे और हम फिर वहाँ भोग भोगेंगे।”
अग्निपात्र लेकर राजा अपने महल में चला गया। अग्निपात्र में उसने हवन किया। उसके प्रताप से वह स्वर्ग गया और उसने चिरकाल तक उर्वशी के साथ भोग भोगे।
उर्वशी के साथ भोगते-भोगते ऐल जब क्षीणकाय हुआ, पुण्य क्षीण हुए तब उसे वैराग्य आया कि अरे ! मुझे धिक्कार है। मैं कहाँ तो प्रतापी राजा, कहाँ तेजस्वी राजा और कहाँ मैंने अपना जीवन विषय-विकारों में बरबाद कर दिया ! इसमें उर्वशी का कसूर नहीं है, कसूर मेरा ही है। मैं अपने महा प्रताप को भूलकर शापित उर्वशी के चक्कर में पड़ा ! अरे काम ! तुझे धिक्कार है ! अरे ! क्रिया के सुख ! तुझे धिक्कार है ! मुझ जैसे प्रतापी राजा को तूने हरण कर लिया ! बड़े-बड़े ऋषियों को, तपस्वियों को भी तूने ही गिराया है ! अरे, काम ! तुझे धिक्कार है। जो तेरा ग्रास हो जाता है उसके पश्चाताप का कोई पार नहीं रहता है।
जीव जब परमात्मा की शरण में जाता है तो उसका हृदय शुद्ध होने लगता है। जब वह भोग-भोगता है तो उसका हृदय अशुद्ध होता है। भोगों की तुच्छता का ख्याल करके परमात्मा की स्मृति करता है तो चित्त शुद्ध होता है।
पानी को जब अग्नि का संयोग मिलता है तो वाष्पीभूत होने लगता है। एक पानी की बूँद को जब अग्नि का संयोग मिलता है तो उसमें 1300 गुनी ताकत आ जाती है। ऐसे ही चित्त को जब विवेक वैराग्य की अग्नि मिलती है तब चित्त बड़ा शक्तिशाली हो जाता है, सूक्ष्म हो जाता है और ऐसा चित्त परमात्म-यात्रा में सफल होने लगता है।
अतः भोगों की नश्वरता एवं क्षणभंगुरता का ख्याल करके विवेक जगायें, वैराग्य रूपी अग्नि से चित्त को सूक्ष्म करके परमात्म-पथ पर अग्रसर होते जायें। यही जीवन का साफल्य है।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा, जब सब विषय बिलास बिरागा।
(श्रीरामचरितमानस)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2001, पृष्ठ संख्या 16-18, अंक 106
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साधना के सोपान
(पूज्य श्री के तीन महीने के एकांत-मौन के बाद दक्षिण दिल्ली के पुष्पविहार में हुए सत्संग से उदधृत कुछ अमृत-पुष्प….)
चार जगर पर व्यावहारिक बात नहीं करनी चाहिए, केवल भगवत्स्मरण ही करना चाहिए। ये चार स्थान हैं- श्मशान, मंदिर, गुरु-निवास एवं रोगी के पास।
श्मशान में कभी गये तो ‘तुम्हार क्या हाल है ? आजकल धंधा कैसा चल रहा है ? सरकार का ऐसा है…..’ ना, ना। श्मशान में इधर उधर की बातें न करें वरन् अपने मन को समझायें- ‘आज इसका शरीर आया, देर सवेर शरीर यह शरीर भी ऐसे ही आयेगा…. इसको ‘मैं-मैं’ मत मान, जहाँ से मैं-मैं की शक्ति आती है वही मेरा है…. प्रभु ! तू ही तू… तू ही तू…. मैं तेरा, तू मेरा। अरे मन ! इधर-उधर की बातें मत कर… देख, यह शव जल रहा है, कभी यह शरीर भी जल जायेगा।’ इस प्रकार मन को सीख दें।
महिलाओं को श्मशान में नहीं जाना चाहिए और पुऱुशों को अगर श्मशान में जाने को न मिले तो आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ईश्वर की ओर’ पुस्तक बार-बार पढ़ें। उससे भी मन विवेक-वैराग्य से संपन्न होने लगेगा।
रोगी से मिलने जाओ तब भी संसार की बाते नहीं करनी चाहिए। रोगी से मिलते समय उसको ढाढ़स बँधाओ। उसको कहोः ‘रोग तुम्हारे शरीर को है….. शरीर तो कभी रोगी, कभी स्वस्थ होता है लेकिन तुम तो भगवान के सपूत, अमर आत्मा हो। एक दिन यह शऱीर नहीं रहेगा, फिर भी आप रहेंगे, आप तो ऐसे हैं….’ इस प्रकार रोगी में भगवदभाव की बातें भरें तो आपका रोगी से मिलना भी भगवान की भक्ति हो जायेगा। रोगी के अन्दर बैठा हुआ परमात्मा आप पर संतुष्ट होगा और आपके दिल में बैठा हुआ वह रब भी आप पर संतुष्ट होगा।
अगर आप मंदिर-गुरुद्वारे में जाते हो तो वहाँ पर भी सांसारिक चर्चा न करो, इधर-उधर की बातें छोड़ दो। वहाँ तो ऐसे रहो कि एक दूसरे को पहचानते ही नहीं और पहचानते भी हो तो रब के नाते। अन्यथा भगवान और गुरु का नाता तो ठंडा हो जाता है और पहचान बढ़ जाती है’ आप मेरे घर आइये… आप यह करिये…. आप वह करिये….., जरा ध्यान रखना उसका लड़का ठीक है, अपने ही हैं….’ मंदिर-गुरुद्वारे में जाकर भगवदभाव जगाना होता है, संसार को भूलना होता है। अगर वहाँ जाकर भी संसार की बातें करोगे तो मुक्ति कहाँ पाओगे ? दुःखों से विनिर्मुक्त कहाँ होगे ? इसलिए मुक्ति के रास्ते को गंदा मत करो, वरन् गंदे रास्तों को भी भगवदभक्ति से सँवार लो।
अगर गुरु के निवास पर जाते हो, गुरु के निकट जाते हो, तब भी सांसारिक बातों को महत्त्व न दो। गुरु को निर्दोष निगाहों से, प्रेमभरी निगाहों से, भगवदभाव की निगाहों से देखो और उन्हें संसार की छोटी-छोटी समस्या सुनाकर उनका दिव्य खजाना पाने से वंचित न रहो। उनके पास से तो वह चीज मिलती है जो करोड़ों जन्मों में करोड़ों माता-पिता से भी नहीं मिली। ऐसे माता-पिता-गुरु मिले हैं तो फिर संसार के छोटे-मोटे खिलौनों की बात नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार चार जगहों पर सांसारिक चर्चा से बचकर भगवत्चर्चा, भगवत्सुमिरन करें, मंदिर-गुरुद्वारे एवं संतद्वार पर जप-ध्यान करें तो आपके लिए मुक्ति का पथ प्रशस्त हो जायेगा…
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2001, पृष्ठ संख्या 15, अंक 106
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