सत्यस्वरूप जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उसको जानने की रुचि होना यह सत्संग है । सत्संग… हिंदी में ‘संग’ माने साथ, मिलन । पति-पत्नी संग जा रहे हैं, भाई-भाई संग जा रहे हैं… मिलाप को संग बोलते हैं परंतु संस्कृत में संग बोलते हैं आसक्ति को, प्रीति को । संसार में आसक्ति को नष्ट करने वाला और सारस्वरूप परमात्मा में प्रीति कराने वाला सुमिरन, चिंतन, सत्कर्म इसको ‘सत्संग’ बोलते हैं । भगवान की कथा सुनना तो सत्संग है लेकिन शबरी भीलन गुरु के द्वार पर झाड़ू लगा रही है वह भी सत्संग है और राम जी गुरुद्वार पर गाय चरा रहे हैं वह भी सत्संग है । रामायण में आता हैः
सो जानब सत्संग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ।। ( श्रीरामचरित. बा.कां. 2.3 )
लौकिक जगत में, आधिदैविक जगत में सत्संग जैसी प्रभावशाली, महिमावाली कोई बात ही नहीं है । हम असारवा ( अहमदाबाद ) में संस्कृत पाठशाला के एकांत स्थान में परीक्षा के दिनों में दोपहर को परीक्षा की तैयारी कर रहे थे और उसमें हितोपदेश का एक श्लोक आ गया कि तेनाधीतं… उसी ने सब अध्ययन कर लिया, श्रुतं तेन… उसी ने सब श्रवण कर लिया, तेन सर्वमनुष्ठितम् । उसी ने सब अनुष्ठान कर लिये । येनाशाः पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यामवलम्बितम् ।।
जिसने इच्छा वासना छोड़कर आशारहित का अवलम्बन लिया है ।
चले… भगायी गाड़ी, पहुँच गये । पत्नी को कहाः ″हम तो जा रहे हैं, तुमको मायके रहना है तो मायके रह, यहाँ रहना है तो यहाँ रह, हम तो यह चले…″
अब एक श्लोक ने क्या कर दिया ! शक्कर बेचने वाले आसुमल को साँईं आशाराम के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया । यह है सत्संग की महिमा !
एक श्लोक बस, उसने सब अध्ययन कर लिया… मैंने कहा, ‘अब परीक्षा देने की जरूरत क्या है ! इच्छा छोड़ो, चल पड़ो ।’
अब परीक्षार्थी भी ऐसे चल पड़े और परीक्षा में नहीं बैठे यह अर्थ नहीं लेना । मेरे को सत्संग में प्रीति थी, इधर-उधर में, आसक्ति में घसीटने वालों की बातों में मैं नहीं आता था ।
दुकान में जाते तो मेरा भाई व्यापारियों को बुला लाता कि ″भाई ! इसको समझाओ । छोटा भाई है साथ नहीं देता है ।″ साथ मतलब उनके साथ व्यापार धंधे में सिर खपा के मरो ।’ उसमें मेरे को रुचि नहीं थी । व्यापारी समझाते, बड़े-बड़े भाषण ठोकते थे । जब वे जाते तो हम जोर से ठहाका मार के हँसते, बोलतेः ″ढर्रऽऽऽ… ढर्रऽऽऽ…″
भाई पूछताः ″यह क्या करते हो ?″
मैं बोलता थाः ″जिनके जीवन में ईश्वर की प्रीति नहीं है, जिनको ईश्वर मिला नहीं है उनके भाषण में क्या दम है ! ढर्रऽऽऽ…″ तो भाई चिढ़ता था और मैं छोटा था तो रुआब मारता था । अब रुआब मारने के दिन गये । ऐसे ही ढर्र !… बाद में फिर वही जेठानंद दर्शन की कतार में लगा । बड़े भैया, बड़े भैया… अब वही छोटे हो गये । सत्संग में छोटे-से-छोटा परम बड़े के साथ मिल जाता है ।
Every man is God playing the fool.
सभी भगवत्स्वरूप हैं लेकिन तुच्छ आसक्ति में, तुच्छ प्रीति में जन्तवाः ( जंतु ) हो गये हैं और महान संग में महान हो जाते हैं ।
तो मुख में हो नाम ( भगवन्नाम ), हाथ में हो दान, इन्द्रियों में हो संयम, चित्त में हो सच्चरित्रता तो इससे आपके सत्संग में चार चाँद लग जाते हैं ।
सत्संग का बड़ा गजब का प्रभाव है । किसी लौकिक चीज में या किन्हीं वैदिक कर्मों में वह प्रभाव नहीं जो सत्संग में है । सत्पुरुषों का सान्निध्य अमोघ है ।
भगवान नवधा भक्ति बताते हुए कहते हैं-
प्रथम भक्ति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।…
संतों का संग करें और भगवान के बारे में कथा-प्रसंग सुनें ।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ।।
जगत को मुझमय देखें और संतों की महिमा मुझसे भी अधिक है ऐसा जानें ।
सत्संग साधारण-से-साधारण, तुच्छ-से-तुच्छ व्यक्ति को भी महान-से-महान बना देता है । अब एक तो भील जाति… काली-कलूट, फिर उसमें भी शबर जाति… कुरुपों में प्रसिद्ध, ऐसी शबरी और लग गयी मतंग गुरु के द्वार पर तो भगवान राम जी उसके जूठे बेर खा के सराहना कर रहे हैं कि ″माँ कौसल्या के मोहनभोग से जो आनंद आता था वही शबरी माँ ! आज तुम्हारे बेरों में आनंद है, शांति है ।″
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 6, 7 अंक 353
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ