Monthly Archives: November 2012

श्रीरंगजी के प्रेरक उपदेश


(श्रीरंग अवधूत जयंती विशेष)

एक बार श्रीरंग अवधूत जी से एक भक्त ने प्रश्न कियाः “महाराज ! हमें श्रेय़ के दर्शन क्यों नहीं होते और अश्रेय के तो बार-बार होते हैं ?”

श्रीरंगजी बोलेः “वेदशास्त्र और सदगुरु-संतों का सेवन किये बिना ही श्रेय़ के दर्शन ?”

“हम तो बहुत वर्षों से वेदशास्त्रों की बातें, कथाएँ आदि सुनते आ रहे हैं परंतु हमें कोई लाभ नहीं हो रहा है। अब तो हम थक गये हैं।”

श्रीरंगजीः “भाई ! भगवदभाव अनुभवगम्य वस्तु है। उसका अनुसरण करते हुए पुरुषार्थ करो तो ही उसका भाव मिलता है। सारी पृथ्वी को खोद डालो, उसमें से गुलाब, मोगरे की सुगंध मिलेगी ही नहीं। फिर आप कहोगे कि पृथ्वी में अमाप पुरुषार्थ कर के देख लिया परंतु उसमें तो गुलाब, मोगरे की सुगंध है ही नहीं। मूल बात को समझने वाला यदि कोई व्यक्ति दो गमले लाये और उसमें मिट्टी भरकर मोगरा व गुलाब के पौधे लगाये। उसमें से सुगंधित पुष्प सामने देखोगे तो तुम्हें विश्वास होगा कि सभी प्रकार के तत्त्व पृथ्वी में ही हैं। उन्हें प्रकट करने के लिए पहले उनका रूपक बनाना पड़ता है। जैसे इन मोगरा गुलाब की सुवास को पृथ्वी से प्रकट करने के लिए उनके पौधे अथवा बीज हों तो तत्त्व द्वारा प्रकट होते हैं, ऐसे ही वेदशास्त्रों और संतों का सेवन अर्थात् वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करो और संतों का सान्निध्य लाभ लो, सेवा करो व उनके उपदेश के अनुसार आचार-व्यवहार करो। इसके द्वारा अपने भीतर के अशुभ संस्कारों को निर्मूल करो। गुरुगम्य जीवन बनाओ। फिर श्रेय के दर्शन की बात करना।”

एक बार श्रीरंग जी ने अपने शिष्य को आज्ञा कीः “सिद्धपुर में नदी के किनारे ऐसी जगह घास की कुटिया बनाओ जहाँ किसी भी दिशा से लोग गाड़ियाँ लेकर नहीं आ सकें। मुझे पता है कि जीवन का सारा समय तो लोक-संग्रह में दे मालिक होना चाहिए। अंतिम लक्ष्य तो निर्गुण ही होना चाहिए।”

श्रीरंग जी के मुख से ऐसी बात सुनते ही सारे भक्तों की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहनें लगीं। तब महाराज जी ने उन्हें शांत करते हुए बोलेः “मैं कहीं आता जाता नही हूँ। पामरता त्यागो, वीरता का अनुभव करो। मानव-जीवन के क्षण बहुत महँगे हैं, फिर भी उनका मूल्य समझ में नहीं आता। कितनी सारी वनस्पतियों का तत्त्वसार शहद है। इससे वह हर प्रकार की मिठासों में प्रधान है और उत्पत्ति की दृष्टि से भी बहुत कीमती है। तो महामूल्यवान शरीर की कीमत कितनी ? यदि मानव देह इतनी ज्यादा कीमती है तो उसे ऐसे वैसे नष्ट क्यों कर दें ?”

भक्त ने पूछाः “स्वामी जी ऐसे मूल्यवान मानव-जीवन का श्रृंगार क्या है ?”

“ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत, सत्य और मीठी वाणी, मित-भाषण, मिताहार, सत्य दर्शन, सत्य श्रवण, सत्य विचार और निष्काम कर्म – ये सारे मानव जीवन के व्रत हैं किंत भगवत्प्रेम ही मानव जीवन का श्रृंगार है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 28, अंक 239

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सत्संग के दो वचनों का कमाल – पूज्य बापू जी


जो अपने आपको विषय विकारों में, चिंताओं में, दुःखों में धकेलता है, वह अंधकूप में गिरता है और जो अपने आपको भगवत्प्रकाश में, भगवद्ज्ञान में, भगवत्शांति में, भगवन्माधुर्य में, भगवत्प्रेम में पहुँचाता है, वह वास्तव में मनुष्य जीवन का फल पाता है। मनुष्य जीवन में दो चीजें नितांत आवश्यक हैं – बुद्धि और श्रद्धा। बिना श्रद्धा के बुद्धि शुष्क, उद्दंड हो जायेगी, बम बनायेगी, लोगों का शोषण करके बड़ा बनने के रास्ते जायेगी।

बिंदुसार का पुत्र था सम्राट अशोक। उसको राज्य मिला तो राज्य का विस्तार, विस्तार, और विस्तार करते-करते उसने कलिंग देश, जिसको आज कालाहांडी (ओडिशा) बोलते हैं, उस पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई करते-करते महीना-दो-महीना, एक वर्ष-दो वर्ष करते चार वर्ष बीत गये। दोनों पक्षों के लाखों-लाखों सैनिक मरे पर कोई नतीजा नहीं आ रहा था। अशोक चिंतित था, इतने में सेनापति दौड़ा-दौड़ा आया, बोलाः “महाराज की जय हो ! खुशखबर है, कलिंग देश का सम्राट युद्ध में मारा गया। अब हमारी जीत हुई है।”

जीत क्या हुई है, सदा के लिए हार हो गई। क्या यह खुशखबर है कि कोई मारा गया और हमें सम्पदा मिलेगी ! यह बुद्धिमानों का बुद्धिवाद है। जिनको जीवन का मूल्य पता नहीं वे वासनावान, अहंकारी इसे खुशखबरी मानते हैं। लोगों की हत्या करके, लोगों से कर (टैक्स) लेकर देश परदेश में खूब धन जमा करने का अवसर मिलेगा-यह खुशखबरी है ? दूसरों के बच्चे बिना दूध के, बिना आहार के, बिना पढ़ाई के बिना वस्त्रों के नंगे-भूखे घूम रहे हैं और आप बेईमानी करके, देश को शोषित करके देश-परदेश में पैसा जमा कर रहे हैं-यह बुद्धिमत्ता है ?

अन्धं तमः प्रविशन्ति…

(ईशावास्योपनिषद्-12)

उपनिषद कहती है वे अंधकार में फँस जाते हैं।

इस कथा के साथ सम्राट अशोक को सबके मंगल में लगाने वाली एक कन्या का इतिहास जुड़ा है। सेनापति बोलाः “परंतु चिंता की बात है कि अभी तक दुर्ग का द्वार खोलने में हम सफल नहीं हो पाये।”

अशोकः “कोई बात नहीं, कल सुबह हम स्वयं सेना की आगेवानी करेंगे और दुर्ग का द्वार खुलवा देंगे।”

सुबह अशोक और उसकी सेना दुर्ग के द्वार के पास पहुँची। सम्राट ने अपनी सेना को सम्बोधित कियाः “मगध के बहादुरो ! तुम्हारे अथक प्रयास से कलिंग देश का राजा मारा गया है। अब दुर्ग का द्वार खोलना है। आज मेरी आगेवानी में दुर्ग का द्वार खोला जायेगा।

अन्धं तमः प्रविशन्ति…

बाहर की सम्पदावाले का द्वार खोलना यह अंधकूप में गिरना है किंतु अपने हृदय का द्वार खोलकर हृदयेश्वर का ज्ञान पाना यह प्रकाशपुंज प्रकटाना है। जीवन में ज्ञान का, सजगता का, विवेक का प्रकाश हो और श्रद्धा हो। बिना विवेक की श्रद्धावाले को कोई भी फँसा देता है। ऐसे श्रद्धालुओं का शोषण होता रहता है। यह विवेक तुम्हें जगाता है। विवेक के बिना श्रद्धा अंधी होती है, कहीं-न-कहीं अनुचित स्थान पर फँसी रहती है और श्रद्धा के बिना विवेक उद्दंड होता है। मनमाना सफलता का मापदंड लेकर चल पड़ता है। उसी रास्ते था अशोक।

दुर्ग का द्वार खोलने के लिए सैनिकों को उत्साहित किया, रणभेरी, विजय का बिगुल बजवाया। अपने बल से द्वार खोलें उसके पहले अचानक द्वार खुल गया। अंदर से पद्मा नाम की राजकन्या घोड़े पर सवार होकर अपनी कई महिला सैनिकों के साथ गर्जना करती हुई निकली।

पद्मा बोलीः “सम्राट अशोक ! दुर्ग में प्रवेश करने का दुस्साहस न करो। जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं, तब तक तुम दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकते। मेरे  पिता के हत्यारे ! अपने लाखों-लाखों सैनिकों को कुर्बान करके अहं पोसने वाले और हमारे लाखों सैनिकों की जान लेकर अपनी वासना की तृप्ति में लगे हुए अंधकूप में जाने वाले सम्राट ! सावधान !!”

धन कमा के, सत्ता कमा के, चीजें कमा के बड़ा बनने की जो अंध-परम्परा है, उसको कलिंग देश की एक कन्या ने ललकार दिया । सत्संगी कन्या ने कहाः “तुम्हारे पिता बिंदुसार का राज्य भी तुम नहीं ले जाओगे तो दूसरों का राज्य छीनकर क्या करोगे ? कई राजाओं को तुमने मौत के घाट उतारा। लाखों आदमी मारे गये। कितने सैनिकों के मासूम बच्चे रोते होंगे, कितने सैनिकों की माताएँ रोती होंगी, कितने सैनिकों की पत्नियाँ रोती होंगी…. तुमने कइयों को अनाथ बना दिया। यह राज्यसत्ता है कि अंधसत्ता है ? राजा तो प्रजा का पालक, मानवता का पालक होना चाहिए। राजा ही मानवता का विनाशी हो गया !”

अभी 700 करोड़ लोग हैं। हम मर-मर के सात बार मरें इतने बम तो तैयार है लेकिन फिर भी रात-दिन बम बनाये जा रहे हैं। दूसरों को मारकर, लूट-खसोटकर बड़ा बनना यह अंधकूप में गिरना है।

सासु ! बहू को तुम मत दबोचो। बहू ! तुम सासु को मत नीचा दिखाओ। जेठानी, देवरानी की निंदा करके अंधकूप में मत गिरो बेटी ! देवरानी ! जेठानी में दोष देखकर अंधकूप में मत गिरो। पड़ोसी-पड़ोसी एक दूसरे को नीचा दिखाकर अपना मन, जीवन अंधकूप में मत गिराओ। नित्य प्रकाश में रहो। वेद कहता है।

असतो मा सदगमय।

हम असत्य से बचकर सत्य की तरफ जायें। तो सत् क्या है, असत् क्या है-यह अंधकार में नहीं दिखेगा। इसीलिए वेद भगवान की प्रार्थना हैः तमसो मा ज्योतिर्गमय।

अंधकार से निकलकर हम प्रकाश में जियें।

“सम्राट ! तुम अंधकूप में स्वयं परेशान हो और अपनी प्रजा को भी परेशान कर रहे हो। प्रजा से कर नोचकर लोगों को मरवा रहे हो। तुम्हें शांति नहीं है। तुम अपने दिल पर हाथ रखो, क्या तुम्हारे जीवन में बरकत है ? है प्रसन्नता ? है शांति ? नाच-गान, ऐश आराम और मारकाट, लूट-खसोट, अधिकार-लोलुपता के अलावा तुम्हारी जिंदगी में कोई और चीज है ? तुम्हें द्वार में प्रवेश करने के पहले हमसे युद्ध करना होगा। तुमने मेरे पिता की हत्या की है, हमारे देशवासियों की हत्या की है। मैं तुमको नहीं छोड़ूँगी ! जब तक मैं जिंदा हूँ, तुम इस द्वार के अंदर नहीं जा सकते।”

अशोक बोलाः “तुम तो स्त्री जाति हो, स्त्री के ऊपर हथियार उठाना अधर्म है।”

“आज तक तुमने क्या धर्म किया है ? निर्दोष प्रजा को अपना अहं पोसने के लिए मरवाया। तुम क्या ले जाओगे साथ में ? राज्य में संतोष नहीं है। इनको मारा, उनको मारा…. अपनी लोभ-वासना को तो मारा नहीं, अपने अहंकार को, अपनी पाप की इच्छा को तो मारा नहीं, दूसरों को मारकर तुमने क्या किया ? तुम धर्म की बात करते हो ? तुमने क्या धर्म किया है ?”

सम्राट अशोक निरूत्तर हो गया। पद्मा का सारगर्भित सत्संग सुनकर अशोक ने सोचा कि “आज से मैं यह हिंसा का रास्ता, शोषण का रास्ता, अहं पोसने का रास्ता, विषय विकारों का रास्ता त्यागता हूँ और सत्संग की शरण जाऊँगा।”

अशोक ने हाथ में पकड़ी हुई तलवार फैंक दी और सिर नीचे करते हुए कहता हैः “कलिंगनरेश की कन्या ! मैं तुम्हारे पिता का हत्यारा हूँ और तुम्हारे कलिंग देश के लाखों लोगों का हत्यारा हूँ। मैं गुनहगार हूँ। यह सिर झुकाकर रखता हूँ तुम्हारे सामने, तुम अपनी चमचमाती तलवार से बदला ले सकती हो।”

तब भारत की कन्या कहती हैः “सम्राट ! निहत्थे पर वार करना हमारे धर्म में नहीं है। आप तलवार उठाइये और युद्ध करिये।”

अशोकः “नहीं, अब युद्ध नहीं होगा। तुमने मेरी आँखें खोल दीं। यह वासना है, अहंकार है कि मेरा राज्य और….. और बढ़े।”

पद्माः “तो हमने तुमको हृदयपूर्वक माफ किया, तुम्हारा मंगल हो।”

क्या एक प्रकाश में जीने वाली कन्या, सत्संग मे जीने वाली कन्या अशोक का हृदय बदलने में सफल नहीं हुई ?

अशोकः “अभी भी मुझे अशांति है। मुझे शांति कैसे मिली ?”

पद्माः “सम्राट ! युद्ध करने से, सत्ता बढ़ाने से शांति नहीं मिलती। निरपराध लोगों की हत्या करके अहं पोसने से भी कदापि शांति नहीं मिलती।”

“ठीक कहती हो राजकन्या !”

“अब अपने आत्मा की अशांति को, भीतर की लानत को मिटाना हो तो जाओ, जो सैनिक कराह रहे हैं उन्हें देखो।”

उधर रणभूमि में गये तो क्या देखते हैं कि हजारों-हजारों लाखें पड़ी हैं। हजारों-हजारों अधमरे होकर कराह-कराह रहे हैं…. किसी की भुजा कटी है तो किसी का पैर कटा है तो किसी को पेट में बाण लगे हैं। किसी की आँखें गयी हैं तो किसी का कुछ…. उस दृश्य को निहारता है अशोक। हृदय पानी-पानी हो गया कि ʹहे अज्ञान ! हे नासमझी !! तुझे धिक्कार है ! कितने लोगों की जानें, कितने लोगों का धन लेकर तू बड़ा बनना चाहता है !ʹ

साधु लोग घायलों की मरहमपट्टी कर रहे हैं, किसी को पानी पिला रहे हैं। ʹओ….हो ! मेरे एक अज्ञान के कारण कि मैं सम्राट अशोक हूँ और बड़ा बनूँ…… बड़ा बनने वाला शरीर तो मर जायेगा और मैंने इतने लोगों की जानें लीं ! ओ बाप रे ! मुझे शांति कौन देगा ?ʹ

अशोकः “हे साधु ! मेरे कर्मों ने मुझे अशांत किया है, मुझे शांति कैसे मिलेगी ?”

जो साधु-संत सेवा कर रहे ते वे बोलेः “अरे, शांति मिलेगी। निर्णय करो कि दूसरों को सताकर मैं सुखी होने की गलती  नहीं करूँगा।

अपने दुःख में रोने वाले….

काम आना सीख ले।।

किसी की जान लेना मत सीखो, किसी के काम आना सीखो। जो दूसरों के दुःख नहीं हरता, उसका दुःख मिटता नहीं और जो दूसरों को दुःखी करके सुखी होता है, उसका दुःख बढ़ जाता है। तुम्हारी वही दशा है।”

अशोकः “तो मैं क्या करूँ ?”

“सत्यं शरणं गच्छामि। आत्मा सत्य है, परमात्मा सत्य है, उसकी शरण आओ। शरीर मिथ्या है, अहंकार मिथ्या है, वासना मिथ्या है। बच्चे की बचपन की वासना अलग होती है। युवक को जवानी की वासना अलग होती है और अलग-अलग युवकों की अलग-अलग वासना होती है। वासना सत्य नहीं है। वासना के पहले जो वासना को जानता है, वासना पूर्ति के बाद जो वासना की पोल जानता है वह परमात्मा सत्य है। तुम परमात्मा की शरण क्यों नहीं जाते हो ? तुमसे वह दूर नहीं, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है। दूर देशों पर हावी होकर, कत्लेआम करवाकर मैं बड़ा राजा हूँ…. लंकापति रावण की लंका नहीं बची तो सम्राट अशोक तुम्हारा यह नगर बचेगा क्या ? तुम्हारा शरीर बचेगा क्या ?”

“नहीं, अब मैं क्या करूँ ?”

“क्या करूँ ? अब सत्य की शरण चलो। किसी को दुःख न दो। किसी को बुरा न मानो, किसी का बुरा न चाहो, किसी का बुरा कर करो, सबकी भलाई सोचो। सम्राट अशोक ! तुम ऐतिहासिक पुरुष हो जाओगे।”

“जो आज्ञा महाराज !”

दूसरों को सताकर बड़ा बनने वाला अशोक पहले अहंकार की शरण था, सत्संग के दो वचन सुनकर कि ʹदूसरों में भी अपना आत्मा-परमात्मा हैʹ, सत्य की शरण गया। सम्राट अशोक ने प्रण कर लिया कि ʹअब मैं हथियार नहीं उठाऊँगा।ʹ फिर राज्य तो किया पर हथियार नहीं उठाया। आज भी सम्राट अशोक का अशोकचिह्न भारत सरकार के रूपयों पर है।

सत्संग ने क्या कमाल कर दिया ! कितना हत्यारा व्यक्ति और पद्मा के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले, साधु के मुँह से सत्संग के दो वचन मिले तो लाखों लोगों की जान लेने वाला मानवीय संवेदनाविहीन अशोक लाखों के आँसू पोंछने वाला सम्राट अशोक हो गया, क्रूर सम्राट में से सज्जन सम्राट हो गया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 7,8,9,10 अंक 239

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सर्वोन्नति का राजमार्गः गोपालन


गोपाष्टमीः 21 नवम्बर

वर्ष में जिस दिन गायों की पूजा-अर्चना आदि की जाती है वह दिन भारत में ʹगोपाष्टमीʹ के नाम से मनाया जाता है। जहाँ गायें पाली-पोसी जाती हैं, उस स्थान को गोवर्धन कहा जाता है।

गोपाष्टमी का इतिहास

गोपाष्टमी महोत्सव गोवर्धन पर्वत से जुड़ा उत्सव है। गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक गाय व सभी गोप-गोपियों की रक्षा के लिए अपनी एक अंगुली पर धारण किया था। गोवर्धन पर्वत को धारण करते समय गोप-गोपिकाओं ने अपनी-अपनी लाठियों का भी टेका दे रखा था, जिसका उन्हें अहंकार हो गया कि हम लोग ही गोवर्धन को धारण किये हुए हैं। उनके अहं को दूर करने के लिए भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी तिरछी की तो पर्वत नीचे आने लगा। तब सभी ने एक साथ शरणागति की पुकार लगायी और भगवान ने पर्वत को फिर से थाम लिया।

उधर देवराज इन्द्र को भी अहंकार था कि मेरे प्रलयकारी मेघों की प्रचंड बौछारों को मानव श्रीकृष्ण झेल नहीं पायेंगे परंतु जब लगातार सात दिन तक प्रलयकारी वर्षा के बाद भी श्रीकृष्ण अडिग रहे, तब आठवें दिन इन्द्र की आँखें खुलीं और उनका अहंकार दूर हुआ। तब वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये और क्षमा माँगकर उनकी स्तुति की। कामधेनु ने भगवान का अभिषेक किया और उसी दिन से भगवान का एक नाम ʹगोविंदʹ पड़ा। वह कार्तिक शुक्ल अष्टमी का दिन था। उस दिन से गोपाष्टमी का उत्सव मनाया जाने लगा, जो अब तक चला आ रहा है।

इस प्रकार गोपाष्टमी यह संदेश देती है कि ब्रह्मांड के सब काम चिन्मय भगवत्सत्ता से ही सहज में हो रहे हैं परंतु मनुष्य अहंकारवश सोचता है कि हमारे बल से ही यह चलता है – वह चलता है। इस भ्रम को दूर करने के लिए परमात्मा दुःख, परेशानी भेजते हैं ताकि मनुष्य सावधान होकर इस अहंकार से छूट जाये। जब वह अपने अहंकार को छोड़ परमात्मा की शरण जाता है तो सारी मुसीबतें दूर होकर उसे परमानंद की प्राप्ति सहज में हो जाती है।

गोपाष्टमी का महत्त्व

इस दिन प्रातःकाल गायों को स्नान कराके गंध-पुष्पादि से उनका पूजन किया जाता है। गायों को गोग्रास देकर उनकी परिक्रमा करें तथा थोड़ी दूर तक उनके साथ जाने से सब प्रकार के अभीष्ट की सिद्धि होती है। गोपाष्टमी के दिन सायंकाल गायें चरकर जब वापस आयें तो उस समय भी उनका आतिथ्य, अभिवादन और पंचोपचार-पूजन करके उन्हें कुछ खिलायें और उनकी चरणरज को मस्तक पर धारण करें, इससे सौभाग्य की वृद्धि होती है।

भारतवर्ष में गोपाष्टमी का उत्सव बड़े उल्लास से मनाया जाता है। विशेषकर गौशालाओं तथा पिंजरापोलों के लिए यह बड़े महत्त्व का उत्सव है। इस दिन गौशालाओं में एक मेला जैसा लग जाता है। गौ-कीर्तन-यात्राएँ निकाली जाती हैं। यह घर-घर व गाँव-गाँव में मनाया जाने वाला उत्सव है। इस दिन गाँव-गाँव में भंडारे किये जाते हैं।

विश्व के लिए वरदानरूपः गोपालन

देशी गाय का दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए वरदानरूप हैं। दूध स्मरणशक्तिवर्धक, स्फूर्तिवर्धक, विटामिन्स और रोगप्रतिकारक शक्ति से भरपूर है। घी ओज-तेज प्रदान करता है। इसी गोमूत्र कफ व वायु के रोग, पेट व यकृत (लिवर) आदि के रोग, जोड़ों के दर्द, गठिया, चर्मरोग आदि सभी रोगों के लिए एक उत्तम औषधि है। गाय के गोबर में कृमिनाशक शक्ति है। जिस घर में गोबर का लेपन होता है वहाँ हानिकारक जीवाणु प्रवेश नहीं कर सकते। पंचामृत व पंचगव्य का प्रयोग करके असाध्य रोगों से बचा जा सकता है। ये हमारे पाप-ताप भी दूर करते हैं। गाय से बहुमूल्य गोरोचन की प्राप्ति होती है।

देशी गाय के दर्शन एवं स्पर्श से पवित्रता आती है, पापों का नाश होता है। गोधूलि (गाय की चरणरज) का तिलक करने से भाग्य की रेखायें बदल जाती हैं। ʹस्कंद पुराणʹ में गौ-माता में सर्व तीर्थों और सभी देवताओं का निवास बताया गया है।

गायों को घास देने वाले का कल्याण होता है। स्वकल्याण चाहने वाले गृहस्थों को गौ-सेवा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि गौ-सेवा में लगे हुए पुरुष को धन-सम्पत्ति, आरोग्य, संतान तथा मनुष्य-जीवन को सुखकर बनाने वाले सम्पूर्ण साधन सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

विशेषः ये सभी लाभ देशी गाय से ही प्राप्त होते हैं, जर्सी व होल्सटीन से नहीं।

किसानों के लिए संदेश

खेती और गाय का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। खेती से गाय पुष्ट होती है और गाय के गोबर व गोमूत्र से खेती पुष्ट होती है। विदेशी खाद से आरम्भ में कुछ वर्ष तो खेती अच्छी होती है पर कुछ वर्षों बाद जमीन उपजाऊ नहीं रहती। विदेशों में तो खाद से जमीन खराब हो गयी है और वे लोग मुंबई से जहाजों में गोबर लादकर ले जा रहे हैं, जिससे गोबर से जमीन ठीक हो जाय। गोबर-खाद किसानों को सस्ते में व आसानी से उपलब्ध होती है।

गोझरण एक सुरक्षित, फसलों को नुकसान न पहुँचाने वाला कीटनाशक है। गाँव में गोबर गैस प्लांट लगाकर वहाँ ईँधन, बिजली, बिजली पर चलने वाले यंत्रों आदि का फायदा लिया जाता है।

वैज्ञानिकों ने कहा है ʹएक समय ऐसा आने वाला है जब न बिजली मिलेगी, न पेट्रोल-डीज़ल !ʹ अब भी तेल मँहगा हो रहा है और हम ट्रैक्टरों में तेल खर्च रहे हैं। खेती की पुष्टि जितनी गाय बैलों से होती है, उतनी ट्रैक्टरों से नहीं होती। जब ट्रैक्टर चलता है तो जीव जंतुओं की बड़ी हत्या होती है। ट्रैक्टर से पाला, घास, बुड़ेसी, गँठिया आदि की जड़ें उखड़ जाती हैं। अतः समृद्ध खेती के लिए किसानों को बैल व गायों का पालन करना चाहिए। उनकी रक्षा करनी चाहिए, हत्यारों के हाथ में उन्हें बेचना नहीं चाहिए।

स्वास्थ्य लाभ

व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए लाखों-लाखों रूपये खर्च करता है, कहाँ-कहाँ जाता है फिर भी बीमारियों से छुटकारा नहीं पाता। कई बार तो कंगालियत ही हाथ लगती है और स्वस्थ भी नहीं हो पाता।

इसका उपाय बताते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “गाय घर पर होती है न, तो उसके गोबर, उसके गोझरण का लाभ तो मिलता ही है, साथ ही गाय के रोमकूपों से जो तरंगे निकलती हैं, वे स्वास्थ्यप्रद होती हैं। कोई बीमार आदमी हो, डॉक्टर बोले, ʹयह नहीं बचेगाʹ तो बीमार आदमी गाय को अपने हाथ से कुछ खिलाये और गाय की पीठ पर हाथ घुमाये तो गाय की प्रसन्नता की तरंगें हाथों की अंगुलियों से अंदर आयेंगी और वह आदमी तंदरूस्त हो जायेगा, दो चार महीने लगते हैं लेकिन असाध्य रोग भी गाय की प्रसन्नता से मिट जाते हैं।”

गायें दूध न देती हों तो भी वे परम उपयोगी हैं। दूध न देने वाली गायें अपने गोझरण व गोबर से ही अपने आहार की व्यवस्था कर लेती हैं। उनका पालन पोषण करने से हमें आध्यात्मिक, आर्थिक व स्वास्थ्यलाभ होता ही है।

गोपाष्टमी के दिन गौ-सेवा, गौ-चर्चा, गौ-रक्षा से संबंधित गौ-हत्या निवारण आदि विषयों पर चर्चासत्रों का आयोजन करना चाहिए। भगवान एवं महापुरुषों के गौप्रेम से संबंधित प्रेरक प्रसंगों का वाचन-मनन करना चाहिए।

जीवमात्र के परम हितैषी गौपालक पूज्य संत श्री आशारामजी बापू गायों का विशेष ख्याल रखते हैं। तभी तो उऩके मार्गदर्शन में भारतभर में कई गौशालाएँ चलती हैं और वहाँ अधिकतर ऐसी गायें हैं जो दूध न देने के कारण अनुपयोगी मानकर कत्लखाने ले जायी जा रही थीं। यहाँ उनका पालन-पोषण व्यवस्थित ढंग से किया जाता है। पूज्य बापू जी विश्व गौ-संरक्षक और संवर्धक भी हैं। उनके द्वारा वर्षभर गायों के लिए कुछ-न-कुछ सेवाकार्य चलते ही रहते हैं तथा गौ सेवा प्रेरणा के उपदेश उनके प्रवचनों का अभिन्न अंग हैं। गायों को पर्याप्त मात्रा में चारा व पोषक पदार्थ मिलें इसका वे विशेष ध्यान रखते हैं। बापू जी के निर्देशानुसार गोपाष्टमी व अन्य पर्वों पर गाँवों में घर-घर जाकर गायों को उनका प्रिय आहार खिलाया जाता है। इतना ही नहीं, बापू जी समय-समय पर विभिन्न गौशालाओं में जाकर अपने हाथों से गायों को खिलाते हैं, उन्हें सहलाते हैं, उनसे स्नेह करते हैं। गौ-पालकों को मार्गदर्शन देते हैं, उनका उत्साह बढ़ाते हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार से सहयोग देते हैं। महाराजश्री द्वारा चलाया गया यह गौ-रक्षा एवं गौ-संवर्धन अभियान एक दिन देश के अर्थतंत्र, सामाजिक स्वास्थ्य समृद्धि तथा व्यक्तिगत उत्थान की सुदृढ़ रीढ़ अवश्य बनेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 239

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