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परिप्रश्नेन…


साधकः भगवान सबके अंदर हैं फिर भी किसी के अंदर अच्छाई होती है, किसी के अंदर बुराई – ऐसा क्यों हो जाता है ?

पूज्य बापू जीः अरे, देखो बबलू ! विद्युत के विभिन्न उपकरणों में विद्युत एक ही होती है लेकिन गीजर पानी गरम करता है और कसाईखाने की मशीनें गायों को, बकरों को, जानवरों को काट डालती हैं । फ्रिज में पानी ठंडा होता है, माइक से आवाज दूर तक पहुँचती है । जैसा यंत्र बना है, यंत्र के प्रभाव से वैसी-वैसी अनेक क्रियाएँ, लीलाएँ होती हैं किंतु फिर भी सत्ता (बिजली) ज्यों की त्यों है । अगर क्रियाएँ, लीलाएँ अनेक न हों तो सृष्टि कैसे ? यह सृष्टि की विचित्रता है ।

जैसे सिनेमा में क्या होता है ? प्लास्टिक की पट्टियाँ और रोशनी होती है फिर भी उसमें रेलगाड़ी आयी, व्यक्ति कट गया…. दूसरी रेलगाड़ी आयी, लोग अच्छे से उतरे, तीसरी रेलगाड़ी आयी, उसमें से जानवर ही निकले । ऐसा क्यों होता है ? अरे, ऐसे ही तो चलता है सिनेमा ! सिनेमा दर्शक के लिए नये-नये रूप, रंग आदि-आदि दिखाकर उसका मनोरंजन करने के लिए है । ऐसे ही संसार में जो विचित्रता है वह भगवान को धन्यवाद देकर आनंद बढ़ाने के लिए है, तुम्हारा ज्ञान बढ़ाने के लिए समता बढ़ाने के लिए है ।

‘ऐसा क्यों होता है ? ऐसा क्यों होता है ?… अगर ऐसा नहीं होता तो तुम इधर (सत्संग में) भी नहीं होते । ऐसा हुआ तभी इधर आ गये । ऐसा क्यों न हो ? हमारा भगवान सर्वसमर्थ है । पौने आठ अरब से ज्यादा मनुष्य हैं लेकिन एक मनुष्य का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता – ऐसा क्यों होता है ? ऐसी उसकी कला-कारीगरी है, उसकी महानता है !

साधिकाः बापू जी ! मैं ऐसा क्या करूँ जिससे मेरी भक्ति खूब बढ़े, खूब प्रगाढ़ हो ? मैं ध्यान करूँ, जप करूँ, अनुष्ठान करूँ, क्या करुँ ?

पूज्य श्रीः अरे ‘क्या करूँ, क्या करूँ ?….’ छोड़ दे । तू केवल मर जा बस ! ‘मैं करूँ, करूँ करूँ….मैं कौन होती हूँ करने वाली ?….

करन करावनहार स्वामी । सकल घटा के अंतर्यामी ।।

हे माधव ! मैं तो हूँ ही नहीं ।’ ऐसा चिंतन कर । ‘मैं करूँ, करूँ…. ‘क्या ? तरंग क्या करेगी ? तरंग अपना तरंगपना छोड़ दे तो सागर है । ऐसे ही करूँ, करूँ, करूँ… छोड़ दे, ‘मैं प्रभु की, प्रभु मेरे… ॐ आनंद, ॐ शांति ।’ ‘करूँ, करूँ…. करके काहे मजूरी करना ? करने वाले को मर जाने दे तो आत्मा का अमर पद प्रकट हो जायेगा । ठीक है न ! इन प्रश्नोत्तरों से जो मुसीबतें हटती हैं वे मेहनत से नहीं हटतीं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 34 अंक 339

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मैंनेजमेंट की भूमिका


हरि ॐ डॉ जी,
सप्रेम सदगुरु स्मरण।

गुरुजी की लीला और आधी–दैविक परिवर्तन के विषय में आपके कुछ ईमेल्स और ऑडियो कुछ वर्षो पहले सुने थे। उसमे आपने समझाया था की गुरुजी शिष्य से जब जैसी सेवा लेना चाहते हैं, वैसी आज्ञा करते हैंं (चाहे भाला उठाने की हो या माला/सु–प्रचार करने की)। 

वर्तमान में गुरुजी के बिगड़ते हुए स्वास्थ्य एवं कुछ अन्य बातें (जैसी की गुरुजी की ब्लड लॉस एवं उनके अन्य मेडिकल कॉम्प्लिकेशन) सभी साधकों को दुखी एवं विचलित कर रही हैं। हम ये तो समझते हैं, की जिन सूक्ष्म परिवर्तन के लिए गुरुजी ने एकांतवास चुना है, उसके पूर्ण होने के पहले तो गुरुजी शायद ही बाहर आएंगे। परंतु हम साधकों को इस समय क्या करना चाहिए, ऐसा द्वंद्व सभी के मन में उभर रहा है। 

गुरुजी केवल शरीर में सीमित नहीं है, हम ऐसा जानते तो हैं। परंतु वर्तमान की परिस्थिति में गुरुजी के शरीर की बिगड़ती अवस्था को देख, सभी साधक खूब पीड़ित भी हैं।

केस संभाल रहे आश्रम वासियों पे कई साधक पहले से भी ज्यादा नाराज हैं। ऐसी विकट भासती हुई परिस्थिति में केवल आपसे ही सही मार्गदर्शन की अपेक्षा है।

———- उत्तर ———-

मैंने गुरुदेव के साधकों में आतंरिक संघर्ष पैदा करनेवालों की पोल खोलने में कोई कमी रखी नहीं है।

मेरे अलग अलग पत्रों से इस विषय में उपयोगी बातें इसके साथ भेजता हूँ। अगर इन बातों का व्यापक प्रचार किया होता, हर साधक तक इनको पहुंचाया गया होता तो विखंडनकारी तत्त्व साधकों को बहकाने में कभी सफल नहीं हो सकते।

आपको मालूम होना चाहिए कि आश्रम के संचालकों को कितनी स्वतन्त्रता दी जाती है। अन्य संस्था की तरह ब्रह्मज्ञानी गुरु के संचालक किसी भी महत्त्वपूर्ण निर्णय करने में स्वतंत्र नहीं होते। क्योंकि उनको गुरु के अधीन रहने से ही ब्रह्मज्ञान हो सकता है। ब्रह्मज्ञानी की दृष्टि में संस्था का विकास गौण होता है और शिष्यों का विकास मुख्य होता है। इसलिए उन संचालकों को ५०० रुपये की चीज लेने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती है चाहे वे करोड़ों का आश्रम क्यों न संभालते हो। तो अब वे जो कुछ कर रहे है वह अपनी मर्जी से नहीं करते होगे। आदेश से ही करते होगे क्योंकि अभी उनके मार्गदर्शक मौजूद है। हर गुरु को अपना सिद्धांत प्राणों से भी प्यारा होता है। जब गुरु अरजनदेव को यह कहा गया कि आपको कैद और २ लाख रुपये जुर्माना देने की सजा हुई है। उनमें से एक अर्जन देव के मित्र संत फकीर के द्वारा बादशाह को समझाने के बाद वे कोई एक ही सजा देने को तैयार है। तब उनके शिष्यों ने पूछा, “क्या उनको २ लाख रुपये जुर्माना देकर आपको कैद से हम छुडा दे?” तब अरजनदेव ने कहा, “वह राजा है इसलिए बलपूर्वक छीनना चाहे तो मेरी संपत्ति छीन सकता है लेकिन जुर्माने के रूप में तो मैं एक रूपया भी नहीं दूँगा क्योंकि वह धन गरीबों के लिए और अनाथों के लिए है।” अपने सिद्धांत के लिए उन्हों ने यातनाएं सहकर शरीर त्याग दिया। ऐसे ही सुकरात को मौत की सजा से छुडाने के लिए उनके अमीर शिष्यों ने जैलसे भाग जाने का पूरा प्लान तैयार किया जिसमें वहाँ का राजा भी सम्मत था। फिर भी सुकरात ने कहा कि मैं अगर इस राज्य के कानून का पालन नहीं करूँगा तो और लोग कैसे करेंगे। उन्हों ने जहर पीना पसंद किया पर अपना सिद्धांत नहीं छोड़ा। इसलिए इस केस में भी सब महत्वपूर्ण निर्णय संचालकों ने अनुमति या आदेश के बिना लिए हो ऐसा मुझे नहीं लगता। कोंग्रेस पार्टी का होने से यह वकील जानबूझकर अपना केस हार जाएगा ऐसा आप मानते हो तो बीजेपी वाले भी उस नेता के इशारे पर काम करते है जो एक संत को चुनाव भाषण में राक्षस कह सकता है। इस पक्ष के नेता भी गद्दारी का ही परिचय दे रहे है। कभी सुब्रह्मनियम स्वामी ने कहा था यह केस बोगस है। वह अब क्यों कुछ नहीं करता? लेकिन अब उनकी पार्टी सत्ता पर आ चुकी है। अब उनके अभिप्राय मुख्य नेता के अनुसार बदल गये होगे। यदि पहले हमने सुब्रमनियम स्वामी को अपना वकील बनाया होता तो अब वह अपने मुख्य नेता को नाराज करने के बदले केस हार जाना ही पसंद करता। जब कोई राजनैतिक षड्यंत्र का शिकार बनता है तब न्यायपालिका, पुलिस आदि सब विभाग मुख्य नेता के दबाव में काम करने को मजबूर होते है। १९७५ में जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी को हाई कोर्ट ने चुनाव में घोटाले के लिए जवाब देने को कहा तो उसने अपने बचाव के लिए राष्ट्र में इमरजेंसी जाहिर कर दी और बड़े बड़े विरोध पक्ष के सब नेताओं को जेल में डाल दिया। क्या वह सब कानून के अनुसार हुआ था? फिर १९७७ में चुनाव की घोषणा की तब उन नेताओं को जेल से मुक्त किया गया। क्या उनके पास अच्छे वकील नहीं थे इसलिए जेल में रहे? क्या उनके संचालकों की लापरवाही से उनको बेल नहीं मिली? हमने भी सिर्फ बेल के लिए राम जेठमलानी जैसे वकीलों को रखा फिर भी सफल न हुए क्योंकि यह एक राजनैतिक षड्यंत्र है। इसलिए इसमें सिर्फ अच्छे वकील के न होने से हम सफल नहीं हो रहे है यह धारणा गलत है। आप किसी भी वकील को रखोगे वह इन २ में से एक पार्टी को माननेवाला तो होगा ही। और दोनों पार्टियां हमारी शत्रु हो तो क्या करोगे? तो जिस प्रकार से संचालकों को आदेश मिला होगा वैसा ही वे करेंगे। इस विषय में अनेक वकीलों के अनेक मत हो सकते है। सब के मत के अनुसार तो चलना संभव नहीं है।

अनेक वकील अगर यह मानते है कि अपना केस इस प्रकार चल रहा है उसका कारण संचालको की बदनीयत और लापरवाही है, तो आपको अपने गुरु की बात माननी चाहिए कि अनेक वकीलों की बात माननी चाहिए? आपके गुरु ने कहा है कि मेरे किसी साधक का दोष नहीं है। आप के गुरु ने कहा उसे आप स्वीकार नहीं कर सकते तो आप उनके शिष्य ही नहीं हो। आप तो उन वकीलों के शिष्य हो जिनकी बात आप मानते हो। वे वकील यह नहीं जानते कि संचालक गुरु के शिष्य है जिनके आदेश के अनुसार उनको काम करना पड़ता है। और उनको यह भी मालूम होना चाहिए कि यह राजनैतिक षड्यंत्र है इसलिए इस प्रकार चलता है अन्यथा ऐसा केस पुलिस दर्ज ही नहीं करती। और इसमें यदि आरोप सिद्ध हो जाए और सजा भी सुना दी जाए तो उसका कारण भी संचालक नहीं होगे। उसका कारण नेता होगे जिनके इशारे पर न्यायाधीश को नाचना पड़ता है। गुरु अर्जन देव, सुकरात, जीसस, आदि कई निर्दोष महापुरुषों को ऐसी सजा सूना दी गई थी। उनके संचालको की लापरवाही या बदनीयत के कारण नहीं पर दुष्ट शासकों की बदनीयत के कारण।

अर्जुन, वाणी आदि को अधिकार देनेवाले गुरु चाहते तो उनको रोक सकते थे। गुरुदेव त्रिकालज्ञानी है। उनको जब लगेगा कि उनके संचालक केस को उलझा रहे है, और षड्यंत्र का शिकार बन चुके है तब वे उनको रोकेंगे। आपके सबूतों की उनको जरूरत नहीं है। षड्यंत्र में उनको शामिल किये बिना भी केस को उलझाना षड्यंत्रकारियो के लिए संभव है। गलतियां संचालकों ने की यह तब मान सकते है जब उनको स्वतन्त्रता दी गई हो। उनको हटाकर आप उस जगह पर आ जाओगे तो आप को भी स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। आपको भी आदेश के अनुसार ही काम करना पड़ेगाऔर उसके कारण जो गलतियाँ होगी उसका जिम्मेदार आप को भी माना जाएगा। अगर वे षड्यंत्र करनेवालों से मिले होते तो उनपर आरोप लगाकर उनको जेल में क्यों डाल देते? यह उनकी इमानदारी है कि वे कष्टों को सहकर भी अपनी सेवा से पीछे नहीं हटते। और उन संचालकों को हटा देने से बापूजी बाहर जायेंगे ऐसा सोचना भी बेवकूफी है। षड्यंत्र करनेवालों का षड्यंत्र इतना दुर्बल नहीं होता कि २ संचालकों को हटाने से विफल हो जाए। आप में ताकत है तो षड्यंत्र करनेवालों को रोक के दिखाओ। वहाँ तो कुछ नहीं कर पाते और संचालकों को दोष देने लगे। ऐसा सोचनेवाले साधकों में फूट डालनेवालों के शिकार हो चुके है। उनसे बचने के लिए ऋषि प्रसाद अंक २६० में श्री गुरुदेव ने सन्देश दिया था, “मेरे किसी साधक का दोष नहीं।” समझो संचालक भी षड्यंत्र में शामिल हो गये हो तो भी उनको षड्यंत्र में शामिल करनेवालों को आप क्यों कुछ सबक नहीं सिखाते? वहाँ आपकी दूम क्यों दब जाती है? आश्रम वाले बापूजी को बाहर आने देना नहीं चाहते यह बात सच हो तो भी बड़े दोषी तो बाहरवाले है जिन्होंने इस षड्यंत्र में अहं भूमिका निभाई और गुरु से गद्दारी करके अपने स्वार्थ के लिए जेल में डाल दिया। उनके आगे आपकी दुम क्यों दब जाती है? फिर भी आश्रम वाले कोई फ़रियाद नहीं करते कि बाहर वाले गद्दार है और उनसे गुरुभाई जैसा व्यवहार करते है। हालांकि एक ही गुरु के कुछ शिष्य गृहस्थी हो और कुछ ब्रह्मचारी या सन्यासी हो तो भी गृहस्थी को सन्यासी गुरुभाई नहीं मानते। सन्यासी का गुरुभाई सन्यासी होता है और गृहस्थी का गुरुभाई गृहस्थी होता है। फिर भी सिर्फ इस आश्रम में आश्रम वाले साधक गृहस्थी को भी गुरुभाई मानते है। फिर बाहर वाले क्यों आश्रम वालों से नफ़रत करते है? आश्रम वाले अगर प्रचार प्रसार नहीं करते तो बाहर वालों को पता भी नहीं चलता कि ऐसे समर्थ ब्रह्मज्ञानी गुरु धरती पर आये है और उनसे दीक्षा लेना चाहिए। आश्रम वाले अपना सर्वस्व गुरु को समर्पित करके उनकी आज्ञा में चलते है और गृहस्थी अपना एक अंश ही लगाते है गुरुसेवा में और गुरु के सामर्थ्य का उपयोग अपने संसार की समस्या मिटाने के लिए और अपनी वासना पूर्ति के लिए करते है। गुरु के आदेश के अनुसार जीते नहीं और अपनी इच्छा के अनुसार गुरुको चलाना चाहते है। जो महामूढ़ लोग ब्रह्मज्ञानी के विश्वसनीय शिष्यों को मूर्ख कहते है उन में अगर ज्यादा बुद्धि है तो वे क्यों गुरु को समर्पित होकर सेवा नहीं करते? यदि वे ब्रह्मज्ञानी गुरु मिलने के बाद भी संसार टट्टू ही बने रहते है तो उनसे बड़ा कोई और मूर्ख नहीं है ऐसा आदि शंकराचार्य ने कहा है। विवेक चूडामणि के प्रथम अध्याय के तीसरे से पांचवें श्लोको में वे कहते है,“सब वस्तुओं में ये तीन वस्तुएँ परं दुर्लभ है, जो केवल देवताओं के अनुग्रह से प्राप्त होते है।
– एक तो मनुष्य होना, 
– दूसरा मोक्ष की इच्छा होना और
– तीसरा ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का आश्रय प्राप्त होना।

पूर्व जन्म के पुण्य पुंज से परं दुर्लभ मनुष्य जन्म, और पुरुषत्व पाकर जो मनुष्य अपनी मुक्ति का उपाय नहीं करता, केवल पुत्र, कलत्र, संपत्ति आदि के संग्रह में भुला है वह मूधात्मा साक्षात् आत्मघातक है। इस से अधिक मूढ़ और कौन होगा जो दुर्लभ मनुष्य जन्म में पुरुषत्व पाकर अपना प्रयोजन संपादन करने में आलस्य करता है।” अब ऐसे महामूढ़ को यह कहने का अधिकार ही नहीं है कि किसी ब्रह्मज्ञानी गुरु के समर्पित शिष्य को मूर्ख कहे। फिर भी कहता है तो अपनी मूढता का ही वह प्रदर्शन करता है। ऐसों की बातों में सच्चे शिष्यों को नहीं आना चाहिए।      

संचालको के कार्य से बापूजी बाहर नहीं आ रहे है यह धारणा गलत है। यह बात अब तक आपकी समझ में आ गई होगी। गुरुदेव आपसे ज्यादा बुद्धिमान है तभी तो आप उनके शिष्य हुए। उन पर अन्याय क्यों हो रहा है यह वे आपसे ज्यादा अच्छी तरह जानते है। किस को क्या कार्य सौंपना चाहिए यह भी आपसे ज्यादा वे जानते है। उनके पास ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न दिव्य प्रज्ञा है, ऋतंभरा प्रज्ञा है उनको आपकी अक्ल की जरूरत है क्या? आप अपनी अक्ल से अपना अज्ञान मिटा दो तो काफी है। अपना अज्ञान तो मिटाया नहीं और ब्रह्मज्ञानी गुरु को अक्ल देने चले हो आप। वास्तव में आप की दशा दयनीय है। गाय के घी की सिर में मालिश किया करो और गुरुगीता का पाठ करो। सारस्वत्य मंत्र जप से भी लाभ होगा।

ब्रह्मज्ञानी गुरु की आपको जरूरत है इसलिए वे अपना दैवी कार्य छोड़कर आपके कहने में चलते रहे ऐसा आप चाहते हो तो आप शिष्य नहीं हो। अभी तक उनके सत्संग आपने सुने उनका पालन आपने कितना किया? यदि उनके उपदेश का सम्पूर्ण पालन किया होता तो आप भी ब्रह्मज्ञानी हो गये होते। क्या सभी महापुरुष संसारी टट्टुओं के पीछे ही सारा जीवन खपाते रहेंगे? उनका एक वचन तो आप मानने को तैयार नहीं हो। वे कहते है कि मेरे किसी साधक का दोष नहीं है। और आप कहते हो कि संचालकों को कैसे हटाये? गुरुदेव निर्दोष साबित होकर जल्दी बाहर आये ऐसी आपकी इच्छा है पर क्या गुरुदेव की भी ऐसी इच्छा है? आप अपनी इच्छा को उनकी इच्छा में मिला दो तो उनके शिष्य हो। अन्यथा आप अपनी अच्छा के अनुकूल उनको चलाकर उनके गुरु बनना चाहते हो। वृन्दावन के ग्वाल गोपियों को छोड़कर श्रीकृष्ण जब अपने दैवी कार्य के लिए चले गये तब उन्हों ने उनकी इच्छा में अपनी इच्छा को मिला दिया। कोई फ़रियाद नहीं की कि हमें कृष्ण की जरूरत है इसलिए वे फिर वृन्दावन आ जाए। इसे समर्पण कहते है। संसारी स्वार्थी टट्टुओं को ब्रह्मज्ञान पाने के लिए ब्रह्मज्ञानी गुरु की जरूरत नहीं है उनको अपनी इच्छाओं की पूर्ति केलिए ब्रह्मज्ञानी गुरु के सामर्थ्य की जरूरत है। ब्रह्मज्ञानी गुरु की जरूरत तो उनको समर्पित साधकों को होती है जो उनसे ब्रह्म ज्ञान पाना चाहते है जिस के लिए उन्हों ने अपनी समस्त वासनाओं को त्यागकर अपना सर्वस्व समर्पित किया है।

गुरु भक्ति का अर्थ है गुरु के सिद्धांत के अनुरूप अपने जीवन को ढालना। गुरु ये नहीं चाहते कि हम अपनी साधना और शक्ति को मूर्खो के साथ लड़ने में नष्ट कर दे। वे चाहते है कि हम अपनी शक्ति को सुप्रचार में लगाए। वे चाहते है कि हमारे जीवन में समता आये।

भूतकाल में किन शिष्यों ने निंदको से कैसा व्यवहार किया ये आप देखोगे तो उनमे दोनों प्रकार के साधक मिलेंगे। जैसे गुरु अर्जन देव और गुरु तेग बहादुर को विधर्मियों ने बहुत कष्ट दिये और उनके प्राण ले लिए फिर भी उनके संकेत के अनुसार उनके शिष्य शांत रहे। और गुरु हर गोविन्द, तथा गुरु गोविन्दसिंह के शिष्यों ने अपने गुरु के आदेश के अनुसार जीवनभर विधर्मियों से युद्धे किये और अपने प्राण न्योच्छावर कर दिये। अब उन दोनों में कौन सही थे और कौन गलत थे ये सोचने की और उनका अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। दोनों प्रकार के शिष्यों ने गुरु के संकेत के अनुसार कार्य किया ये मुख्य बात है। हम अगर गुरु के शिष्य है तो हमें भी अपने गुरु के संकेत और आदेश के अनुसार कार्य करना चाहिए। किस प्रकार की समस्या है और उसे कैसे हल करना ये बात शिष्यों की अपेक्षा गुरु ज्यादा जानते है। शिष्य अगर भावुकता के कारण आवेश में आकार गुरु के सिद्धांत से विपरीत कुछ कर दे तो उस से गुरु के कार्य में बाधा भी पहुँच सकती है।

आप किसी भी महा पुरुष को उनके सिद्धांत के विरुद्ध बाहर नहीं ला सकते। उनके शिष्यों को उनके आदेश में चलना ही पड़ता है। अप्रमाणिकता का आश्रय लेकर बाहर रहना चाहते तो वे पहले से ही रह सकते थे जैसे दुसरे अपराधी लोग रहते है। फिर उनमें और अपराधी में कोई फर्क नहीं रहता। उनका सिद्धांत वे कहते थे कि हम उन कुत्तों को टुकड़ा नहीं डालते इसलिए वे कुप्रचार करते है। अगर वे टुकड़ा डालकर रोकना चाहते तो कुप्रचार को रोक सकते थे। इतने लंबे समय के बाद भी सुप्रचार के विशेषांक को वे मुफ्त में बांटना नहीं चाहते, शुल्क लेकर देने को कहते है जब कि हालत ऐसी है कि लोग मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं है। तो ये उनके सिद्धांत की बात है। शिष्य को अपनी बुद्धिसे गुरु के सिद्धांत के विपरीत करने आचरण करके उनको सहाय करने का अधिकार नहीं है। और ऐसे वे बाहर आयेंगे भी नहीं। आंदोलन करना भी उनके आदेश के बिना शिष्यों के लिए संभव नहीं है। क्योंकि वे उनके शिष्य है, गुरु नहीं है। आश्रम वाले ज्यादा समर्पित है इसलिए उनके सन्देश को बाहर सुनाते है। फिर भी उनके सन्देश का पालन करना सबके लिए जरूरी नहीं है। अन्य धर्म के लोग उनके धर्म की निंदा करनेवालों को अपने धर्मगुरु के आदेश के बिना ही ठीक कर देते है। ऐसे धर्म प्रेमी लोग अपने धर्म में होते तो वे भी ऐसा करके दिखा देते। पर ऐसे लोग ही नहीं है फिर ऐसा आदेश कैसे देंगे?

हमारे गुरुदेव के शारीरिक क्षति और उनके परिवार के सदस्यों को होनेवाला कष्ट तो कुछ भी नहीं है, जितना गुरु अर्जन देव, गुरु तेग बहादुर, और गुरु गोविन्द सिंह को और उनके परिवार वालो को सहना पड़ा था। सिखों का इतिहास आपको पढ़ना चाहिए। फिर भी उन गुरुओं के शिष्यों ने गुरु के आदेश के अनुसार ही कार्य किया। गुरु अर्जन देव ने शान्ति का आदेश दिया तो उनके शिष्यों को लाचार बनकर उनके बलिदान को भी देखना पड़ा। फिर गुरु हर गोविन्द ने शिष्यों को युद्ध करने का आदेश दिया तो उनके हजारों शिष्यों ने मुगलों से युद्ध करने में अपने प्राण निछावर कर दिये। फिर गुरु तेग बहादुर ने शान्ति आ आदेश दिया तो उनकी शहीदी को लाचार बनकर देखना पड़ा। फिर गुरु गोविन्द सिंह ने युद्ध का आदेश दिया तो किया और उसमे उनके सारे वीर शिष्यों और चार पुत्रो को भी अपने प्राण निछावर करने पड़े। पर उन सब ने आखिर भारत से मुग़ल साम्राज्य को उखाड कर फेंक दिया। गुरु को आप क्या समझते हो? क्या उनके पास आप जितनी बुद्धि नहीं है? जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्तर पर जो है उनके पास उनसे कम बुद्धि नहीं हो सकती।

हर गुरु को अपना सिद्धांत प्राणों से भी प्यारा होता है। जब गुरु अरजनदेव को यह कहा गया कि आपको कैद और २ लाख रुपये जुर्माना देने की सजा हुई है। उनमें से एक अर्जन देव के मित्र संत फकीर के द्वारा बादशाह को समझाने के बाद वे कोई एक ही सजा देने को तैयार है। तब उनके शिष्यों ने पूछा, “क्या उनको २ लाख रुपये जुर्माना देकर आपको कैद से हम छुडा दे?” तब अरजनदेव ने कहा, “वह राजा है इसलिए बलपूर्वक छीनना चाहे तो मेरी संपत्ति छीन सकता है लेकिन जुर्माने के रूप में तो मैं एक रूपया भी नहीं दूँगा क्योंकि वह धन गरीबों के लिए और अनाथों के लिए है।” अपने सिद्धांत के लिए उन्हों ने यातनाएं सहकर शरीर त्याग दिया। ऐसे ही सुकरात को मौत की सजा से छुडाने के लिए उनके अमीर शिष्यों ने जैलसे भाग जाने का पूरा प्लान तैयार किया जिसमें वहाँ का राजा भी सम्मत था। फिर भी सुकरात ने कहा कि मैं अगर इस राज्य के कानून का पालन नहीं करूँगा तो और लोग कैसे करेंगे। उन्हों ने जहर पीना पसंद किया पर अपना सिद्धांत नहीं छोड़ा। इसलिए इस केस में भी सब महत्वपूर्ण निर्णय संचालकों ने अनुमति या आदेश के बिना लिए हो ऐसा मुझे नहीं लगता।

जब किसी विफलता के लिए कोई आश्रम के मेनेजमेंट को जिम्मेदार ठहराता है तब वह यह भूल जाता ही कि मेनेजमेंट को अधिकार देनेवाले गुरु को ही वह दोषी ठहराता है। और मेनेजमेंट भी गुरुके संकेत के अनुसार कार्य करने को बंधे हुए ब्रह्मज्ञानी शिष्यों का है। गुरु अपने किसी विषय के अल्पज्ञानी समर्पित शिष्यों पर किसी विशेषज्ञ संसारी से ज्यादा विश्वास करते है। इसलिए अर्जुन या नीता दीदी को दोष देना उचित नहीं है

आश्रम में सिर्फ अभी ही लोग गलत लीगल वर्क करते है ऐसी बात नहीं है। ऐसे अनेक गलत वर्क होते मैंने देखे है जिसके कारण आश्रम को लाखों नहीं करोड़ों का नुक्सान हुआ है पर उनको अधिकार देनेवाले पर जब नजर जाती है तो उन साधको को कुछ कहने का मेरा अधिकार नहीं है। उनको उखाड फेंकने का अधिकार तो मुझे गुरुदेव ने दिया नहीं है। संचालकों को यह अधिकार होता है कि वे किसी साधक को फेंक दे, और ऐसे कई अच्छे साधकों को उन्होंने फेंक दिये है यह मैंने देखा है। शिष्य को गुरुदेव के द्वारा नियुक्त किये गये लोगों का भी आदर करना चाहिए। और दुसरे लोग जो ज्यादा अच्छा कार्य कर सकते है वे गुरुसेवा के लिए अपना जीवन समर्पित क्यों नहीं करते? अपने परिवार के लिए ही जीनेवाले ऐसे लोगों को शंकराचार्य भगवान ने महामूढ़ कहा है। उन महामुढ़ लोगों की अपेक्षा तो गुरु को समर्पित होनेवाले अल्पज्ञ साधक भी महापुरुषों की दृष्टि में ज्यादा बुद्धिमान है इसीलिए वे उन पर अधिक विश्वास करते होगे।

आश्रम की सिस्टम से आप अभी खफा हो, मैं तो बरसों से खफा हूँ। पर ऐसी सिस्टम के लिए जिम्मेदार कौन है यह सोचने पर चुप रहना ही उचित समझता हूँ। क्यों कि गुरु के सिद्धांत के विरुद्ध शिष्यों को सोचने का भी अधिकार नहीं है। और आश्रम की सिस्टम गुरु के सिद्धांत पर चल रही थी, चल रही है और चलती रहेगी। उसे बदलने की कोशिश करनेवाले आप जैसे कई सुधारक लोग आये और चले गये। अगर आप खफा हो तो आपने पहले आश्रम में समर्पित होकर इस सिस्टम को बदलने का प्रयास क्यों नहीं किया? अगर आप कहो कि आपको इस बात का पता नहीं था। तो अब तो पता चल गया। क्या अब आप आश्रम में समर्पित होकर गुरु के दैवी कार्य को करने के लिए तैयार हो? अगर नहीं हो तो जो भी अन्य लोग उनकी योग्यता के अनुसार कर रहे है उनसे संतुष्ट रहो और अपनी संसार की गाडी खींचते रहो। यह बात उन सब अपने आपको बुद्धिमान समझनेवाले महामूढ़ों को लागू पड़ती है जो आश्रम के साधकों को बुद्धू समझते है। वे महामूढ़ खुद तो अपनी बुद्धि का उपयोग अपने परिवार के दायरे से बाहर धर्म की सेवा के लिए नहीं कर पाते और जो कर रहे है उनके दोष देखते है। हम उनको शंकराचार्य की तरह महामूढ़ नहीं कहेंगे।

श्री गुरुदेव के द्वारा नियुक्त किये गए संचालक को क्या करना चाहिए यह सिखाने का अधिकार गुरुदेव किसी शिष्य को देते नहीं है। जैसे सेनापति के आदेश में सब सैनिकों को चलना ही पड़ता है वैसे ही संचालकों के आदेश का पालन सब आश्रमवासियों को करना पड़ता है। अगर वे कोई गलती करे तो उसकी सुचना गुरुदेव को दे सकते हो पर उनको सजा नहीं दे सकते। अभी के संचालक तो कुछ पढ़े लिखे भी है। मैं जब आश्रम में आया तब एक ऐसे संचालक थे जो गालियाँ भी बोलते थे और कभी किसी साधक को मार भी देते थे। फिर भी हम सब साधक उनके व्यवहार को सहन कर लेते थे। सिर्फ इसलिए कि उनको श्री गुरुदेव ने नियुक्त किये थे। कभी कभी वे संचालक श्री गुरुदेव को भी गुस्से में आकर खरी खोटी सूना देते थे। पर दयालु गुरुदेव सह लेते थे। जब गुरुदेव ऐसे संचालक का सह लेते हो, तब दुसरे शिष्यों को भी सहना पड़ेगा। जब गुरुदेव उस संचालक को हटाते नहीं थे, हटाना चाहते नहीं थे तब हम कैसे हटा सकते है? गुरु के आश्रम में संचालक और साधक का सम्बन्ध किसी कंपनी के मेनेजर और कामदार जैसा नहीं होता। इस षड्यंत्र में अनेक नेताओं का हाथ है, अनेक विधर्मियों का हाथ है। इस षड्यंत्र में बाहर के अनेक साधकों का हाथ है, (फ़रियाद करनेवाली लड़की आर उसका बाप दोनों बाहर के साधक थे), फिर भी हम नहीं कहते के बाहर के साधकों ने यह षड्यंत्र किया है। हम कहते है कि षड्यंत्र करनेवालोंने षड्यंत्र किया। उनमें बाहर के साधक और असाधक थे और भीतर के लोग थे जो पहले कभी साधक या संचालक थे। षड्यंत्र करते समय वे न साधक थे न संचालक थे। इसलिए संचालकों या आश्रमवालों ने षड्यंत्र किया है यह बात झूठी है। सिर्फ आश्रमवालों ने यह सब किया है यह कहनेवाले गुरुदेव के शिष्यों में फूट डालना चाहते है। इसलिए उनसे बाहर के और भीतर के साधकों को सावधान रहना चाहिए और आपस में भिड़कर गुरुदेव के दैवी कार्यों में विघ्न नहीं डालना चाहिए। 

अपने गुरु के द्वारा नियुक्त संचालकों के आदेश में चलना, चाहे वे कैसे भी क्यों न हो,  यह गुरु के आदेश में चलने के समान हैहमारे गुरुदेव और दुसरे अनेक संतों ने भी ऐसा ही किया है। हमारे गुरुदेव ने उनके गुरुदेव के आश्रम में रहते समय वहां के संचालक वीरभान की कभी फ़रियाद नहीं की। वह मेरे गुरुदेव को आश्रम से भगाने के लिए अनेक षड्यंत्र रचता था। वह अनेक बार झूठी फरियादें करके मेरे गुरुदेव को दोषी सिद्ध करता था फिर भी उनके अनुशासन में रहकर मेरे गुरुदेव ने गुरुसेवा की और वीरभान को हटाने का प्रयास नहीं किया। क्योंकि वीरभान को उनके गुरुदेव ने नियुक्त किया था। आप भी अगर कभी किसी ब्रह्मज्ञानी गुरुके आश्रम में रहोगे तो आपको भी वैसा ही करना पड़ेगा। अगर सब आश्रमवासी शिष्य अपने अपने ढंग से गुरु के द्वारा नियुक्त किये गए संचालकों को सजा देते रहेंगे, तो आश्रम एक राजनीति का अखाड़ा बन जाएगा, आश्रम नहीं रहेगा

षड्यंत्र के लिए कौन जिम्मेदार है यह गुरुदेव ने शुरू में ही कहा था। किसी पार्टी के प्रमुख और उसके बेटे की और इशारा किया था। यह लिखनेवाला तथाकथित समर्पित साधक क्या गुरुदेव से भी ज्यादा बुद्धिमान है? इस षड्यंत्र में प्रमुख पार्टियां, मिशनरी, आदि का हाथ है। यह अनेक संत, महात्मा, बुद्धिजीवीयों ने कही है, जिनके लेख ऋषि प्रसाद में प्रकाशित हो चुके है। क्या यह तथाकथित समर्पित साधक उन सब संतों, महापुरुषों और बुद्धिजीवियों से ज्यादा बुद्धिमान है? इस लेख के साथ एक फ़ाइल भेजी है उसे देखकर यह स्पष्ट होता है कि इस षड्यंत्र के पीछे मिशनरियों का हाथ है।  फिर भी जो आश्रम वालों को ही दोषी ठहराने की कोशिश करते है वे गुरुदेव के शिष्यों में फूट डालना चाहते है। आश्रम के संचालकों को हटाने से क्या गुरुदेव बाहर आ जायेंगे या उनकी अनुपस्थिति में भी जो सेवा कार्य आश्रमों में हो रहे है वो बंद हो जायेंगे इस बात पर विचार करो। फिर भी किसीको आवाज उठानी हो तो अवश्य उठाओ पर जिन के आदेश से संचालकों को नियुक्त किये गए है उनके आदेश से ही आप उनको हटा सकते हो। अपनी मनमानी से नहीं हटा सकते। आश्रम के संचालकों को कब क्या करना चाहिए यह कहने का अधिकार उनको संचालक बनानेवाले गुरुदेव को है, दुसरे किसीको यह अधिकार नहीं है। किसी भी संस्था के संचालक संस्था के हित के विरुद्ध कार्य करे तो उनको सज़ा (punishment) देने का अधिकार उस संस्था के मालिक को है, आम लोगों को नहीं है। आम लोगों को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। फिर भी किसी के विरुद्ध कोई फ़रियाद हो तो संस्था के मालिक से फ़रियाद करनी चाहिए।

उपरोक्त बातें बाहर के साधक जानते है। आश्रम के साधकों ने गुरुदेव को बाहर लाने से प्रयास किये है और उन पर संदेह करनेवाले बाहरवालों को भी प्रयास करने का मौक़ा दिया गया था। बाहरवालों ने भी हो सके उतने प्रयास किये है। गुरुदेव ने ऐसा नहीं कहा है कि संचालकों को हटाओ और दीदी को आश्रम सौंप दो। गुरुदेव ने कहा है उनको बाहर निकालने को। अगर संचालको को हटाने से और दीदी को आश्रम सौंप देने से गुरुदेव बाहर आ सकते तो गुरुदेव ऐसा आदेश अवश्य देते। महापुरुषों के वचनों का गलत अर्थ घट्न करके उनके दैवी कार्यों में विक्षेप करना शिष्यों को शोभा नहीं देता। ऐसा करने के लिए जो बहकाते है वे गुरु भक्त है या गुरुद्रोही है इसका निर्णय आप स्वयं करो। 

गुरुदेव और शिष्यों के बीच आम लोगों को पड़ने का अधिकार नहीं है। मेनेजमेंट और गुरु के बिच आश्रम के साधकों को आना वर्जित है। उनको कोई फ़रियाद हो तो वे गुरुदेव को बता सकते है।  

बापूजी के बच्चे अगर बापूजी के आश्रम के समर्पित साधकों के विरुद्ध कोई कार्य करते है तो व बापूजी के बच्चे ही नहीं है। बापूजी के बच्चे किसी गुरुद्रोही के बहकावे में कैसे आ सकते है? कोई गुरुद्रोही आप लोगों का ब्रेन वश कैसे कर सकता है? गुरुदेव के द्वारा नियुक्त किये गए संचालकों और वक्ताओं को दुष्ट कहनेवाला गुरुद्रोही थोड़े ही कहेगा कि “मैं दुष्ट हूँ?” उसकी दुष्टता तो उसके पत्र का उत्तर पढने वाले लोग जान गए है। अब तो आप लोगों को पहचान हो गई है। ऐसे दुष्टों से सावधान रहो।

संगठित होकर गुरुदेव के आदेश में चलनेवाले साधकों को सहाय करो। आवाज उठाओ गुरुदेव के साधकों में फूट डालनेवाले विघ्नसंतोषी तत्त्वों के विरुद्ध। ऐसे गुमराह करनेवाले तत्त्वों से साधकों को बचाने के लिए और गुरुदेव के दैवी कार्यों को और आगे बढाने के लिए इस पत्र को ज्यादा से ज्यादा साधकों तक पहुँचाओ। गुरुदेव की संस्था से विरुद्ध कार्य करनेवालों को सहयोग करोगे तो आपका किया कराया सब चौपट हो जाएगा।

मेरा प्रश्न तो यह है कि जो उन संचालकों को गद्दार कहते है वे उस समय अपने परिवार की भक्ति छोड़कर गुरुदेव के पास क्यों नहीं आये? अगर वे आ जाते तो गुरुदेव उनको संचालक बनाते। और गद्दारी की समस्या आती ही नहीं। इस समय भी जो संचालको को गद्दार कहते है, वे गुरुदेव की शरण में अपना आजीवन समर्पित कर दे तो हो सकता है कि गुरुदेव उनको गुरुदेव संचालक बना दे और गद्दारी की समस्या का समाधान हो जाए। पर बाहरवाले लोग अपने परिवार की भक्ति तो छोड़ते नहीं, और जो गुरु सेवा में सब कुछ छोड़कर लगे है उनको दोष देने लगते है। यह उनकी बालिशता है। आप किसके भक्त हो यह मैं आपसे पूछता हूँ। आप गुरु के भक्त हो या अपने परिवार के भक्त हो? अगर आप गुरु के भक्त हो तो उनकी शरण लेकर उनके आदेश के अनुसार अपना जीवन क्यों नहीं बनाते? आप गुरु के भक्त हो या गुरुदेव के आश्रम में फूट डालनेवाले निगुरों के भक्त हो? आप गुरु के भक्त हो या किसी ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के शिष्यों और शिष्याओं को अपने शिष्य और शिष्याएं बनाकर अपना गुट बनानेवाले के भक्त हो? जब आप गुरु के भक्त नहीं हो तो दुसरे लोग किसके भक्त है यह पूछने का आपको अधिकार नहीं है। पहले खुद गुरु भक्त बनो फिर दूसरों को सुधारने का प्रयास करो तो आप बुद्धिमान हो।

षड्यंत्रकारी कौन है यह श्री गुरुदेव ने अनेक बार कहा है। शुरू में ही यह माँ-बेटे का खेल है ऐसा कहा था। बाद में इसाई मिशनरियों का संकेत दिया था। और इसके साथ भेजे गए पोस्टर से तो एक मूर्ख मनुष्य भी समझ सकता है कि षड्यंत्रकारी कौन है। उनके सामने आप क्यों कुछ नहीं करते? उनको छोड़कर आश्रम के संचालकों को हो आप षड्यंत्रकारी मानते हो तो आप गुरुदेव के वचनों का अनादर करते हो। तब प्रश्न यह उठता है कि क्या आप मूल षड्यंत्रकारियों के इशारे पर तो गुरुदेव की संस्था में फूट डालने का कार्य नहीं करते हो? अगर ऐसा न हो तो ऐसी दुष्प्रवृत्ति त्याग दो।”

– डॉ. प्रेमजी 

सज्जनों और दुर्जनों का स्वभाव


मृदघटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति ।

सुजनस्तु कनकघटवद्दुर्भद्याश्चाशु सन्धेयः ।।

‘दुर्जन मनुष्य मिट्टी के घड़े के समान सहज में टूट जाता है और फिर उसका जुड़ना कठिन होता है । सज्जन व्यक्ति सोने के घड़े के समान होता है जो टूट नहीं सकता और टूटे भी तो शीघ्र जुड़ सकता है ।’

नारिकेलासमाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ।।

‘सज्जन पुरुष नारियल के समान दिखते हैं अर्थात् ऊपर से कठोर और भीतर से कोमल व मीठे तथा दुर्जन व्यक्ति बेर-फल के समान बाहर से ही मनोहर होते हैं (अंदर से कठोर हृदय के होते हैं ) ।’

स्नेहेच्छेदेऽपि साधूनां गुणा नायान्ति विक्रियाम् ।

भङ्गेऽपि हि मृणालानामनुबध्नन्ति तन्तवः ।।

‘स्नेट टूट जाय तो भी सज्जनों के गुण नहीं पलटते हैं, जैसे कमल की डंडी के टूटने पर भी उसके तंतु जुड़े ही रहते हैं ।’

(हितोपदेश, मित्रलाभः 92,94,95)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 341

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