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वाह यार ! तेरी लीला…. – पूज्य बापू जी


मैं 17 दिसम्बर (2012) की रात्रि को हरिद्वार आश्रम में जल्दी सो गया था तो दो बजे आँख खुली। जोरों की बरसात हो गयी थी। मैं कुटिया के चारों तरफ घूमने निकला। एक मकड़ी ने ऐसा जाला बुना था कि मैंने कहाः ʹदेख लो, कैसा कलाकार बैठा है ! कैसा कौशल भरा हुआ है !ʹ मकड़ी की खोपड़ी में यह कौशल कहाँ से आया ? कैसी रचना ! बड़े-बड़े वास्तुकार उसके आगे झक मारते रह जायें। मकड़ी अपने शरीर से तंतु निकाले, ताना बुने – यूँ घुमाये, यूँ घुमाये… कैसा सुंदर ! और फिर बीचों बीच में वह खुद स्थित हो गयी। जब मैंने धीरे से उसको स्पर्श किया तो थोड़ा वह सावधान हो गयी। फिर दूसरी बार जरा हल्की सी उँगली लगायी तो वह और थोड़ा सिकुड़ी। फिर दो तीन बार जरा ज्यादा उँगली लगायी तो उसने देखा कि अब छोड़ो, यहाँ से भागो। मुआ जाला जाय तो जाय, अपनी जान तो बचाओ ! वहाँ जिस तंतु से वह जुड़ी थी, उसके द्वारा ऊपर चढ़ गयी। और मेरी भी टार्च तेज थी, मैंने देखा कि वह पत्ते के बीच घुस के सुरक्षित बैठ गयी है। मैंने कहाः “अच्छा, आ जाओ प्रभु ! अपनी जगह में आ जाओ।” अपन चलते बने।

यह गीता का, उपनिषदों का, वेदों का ज्ञान है तो मकड़ी और जाले में भी भगवान का आनंद आता है। भगवान-ही-भगवान दिखते हैं सब जगह।

जिधर देखता हूँ खुदा ही खुदा है।

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।।

जब अव्वल व आखिर खुदा-ही-खुदा है।

तो अब भी वही, कौन इसके सिवा है।।

है आगाजो1-अंजाम2 जेवर3 का जर4 में।

मियां5 में न हरगिज6 वह गैरअज तिला7 है।।

जिसे तुम समझते हो दुनिया ऐ गाफिल8

यह कुल हक9 ही हक, नै जुदा नै मिला है।।

1 आरम्भ, आदि 2 अंत, 3 भूषण, 4 स्वर्ण

5 बीच में, 6 कदापि, 7 स्वर्ण से भिन्न

8 अज्ञानी, 9 सत्यस्वरूप परमात्मा

क्या आनंदमय ब्रह्म बरस रहा है ! क्या पत्ते-पत्ते में उसका कला कौशल है। क्या मकड़ी के जाले बनाने में उसकी कला कुशलता है ! वह देख-देख के आनंद लें। सबसे सुहृदता करके अपने आत्मस्वभाव को जगाओ। जो भगवान का स्वभाव है, उसका अंश तुम्हारे में छुपा है। उसे छोड़कर तामसी-राजसी अंश में क्यों उलझते हो ? झगड़ा-लड़ाई, निंदा – ये राजसी-तामसी दुर्गुर्ण हैं, प्रकृति के हैं। परमात्मा का तो अपना स्वभाव है।

ब्रह्मदेवताओं को यह सारा जगत ब्रह्ममय दिखेगा – वासुदेवः सर्वमिति…. ʹसब वासुदेव हैʹ और जिज्ञासुओं को यह माया का विलास दिखेगा और जो रागी-द्वेषी हैं उनके लिए यह संसार काटता, डँसता, राग-द्वेष की आग में तपाता हुआ, नेत्रों के आकर्षण से ठुस्स करता हुआ, वाहवाही के आकर्षण से फुस्स करता हुआ नरकालय हो जाता है। यह संसार नरकालय भी हो जाता है और भगवान की लीलास्थली भी हो जाता है और वासुदेवः सर्वम् भी हैं। सब भगवान ही भगवान हैं… ऐसा कोई कण नहीं और ऐसा कोई क्षण नहीं जिसमें भगवत्सत्ता न हो।

हर रोज खुशी, हर दम खुशी, हर हाल खुशी।

जब आशिक मस्त प्रभु का हुआ,

तो फिर क्या दिलगिरी बाबा।।

यूँ भी वाह, वाह ! यूँ भी वाह, वाह ! आनंद हुआ, वाह ! वाह !! हे हरि ! हे हरि !! ૐ….ૐ….

सूरज को ढूँढने पर भी अँधेरा नहीं मिलेगा, ऐसे ही जिसको पराभक्ति मिल गयी उस प्यारे की, उसको ढूँढने पर भी दुःख नहीं मिलेगा।

मुझे फाल्सी मलेरिया हो गया था। हीमोग्लोबिन 7gm% हो गया और अंग्रेजी दवाओं के रिएक्शन ने भी आर-पार की लड़ाई दिखा दी। चिड़िया ʹचेंʹ करे तो मानो एक तलवार लग गयी, ऐसी पीड़ा कि न बैठ सकें, न खड़े रहने में अच्छा लगे न लेटने में, बस क्या बेचैनी-बेचैनी….! शरीर की तो दुर्दशा थी ! तब मैं कहता, ʹयह किसको हो रहा है ?ʹ तो बड़ी हँसी आती। तो दुःख पीड़ा, आपत्ति भगवान के आगे कोई मायना नहीं रखतीं। पीड़ा तो ऐसी थी कि भगवान…. प्रसूति की पीड़ा कुछ भी नहीं है। माइग्रेन से भी ज्यादा होती है, ʹट्राइजेमिनल न्यूराल्जियाʹ (Trigeminal neuralgia) बोलते हैं। आधुनिक चिकित्सक बताते हैं कि इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं होती। लेकिन ऐसी बड़ी पीड़ा में भी जरा सा  याद करता कि ʹकिसको हो रही है ?ʹ तो भीतर से आवाज आती, ʹऐ महाराज ! शरीर को हो रही है, हम तो उससे न्यारे हैं।ʹ कितना गीता का दिव्य ज्ञान ! कितना दिव्य ज्ञान ! कितना मनुष्य की महानता का खजाना खोल रखा है शास्त्रों ने !

अच्युत की सम्पूर्ण आराधना कैसे हो ?

ʹविष्णु पुराणʹ (1,17,90) में आता हैः समत्वमाराधनमच्युतस्य। ʹसमता ही अच्युत की वास्तविक आराधना है।ʹ कोई भी परिस्थिति आये-जाये, वाह-वाह !

संसारी के लिए संसार दुःख का विलास है। कभी बेटी का दुःख, कभी प्रसूति का दुःख, कभी पति का दुःख, कभी किसी को पत्नी का दुःख, कभी कर (टैक्स) का दुःख… संसार से सुख लेने के लिए जो संसार को चाहता है उसके लिए संसार दुःखविलास है। जिज्ञासु के लिए, विरक्त के लिए माया का विलास है और जिनको परमात्मा अपनी पराभक्ति दे दे उनके लिए ब्रह्म का विलास है। उनके सत्संग में बैठना भी ब्रह्मविलास है। सभी आनंदित हो जाते हैं। ब्रह्मविलास !…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 240

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तीन दिव्य गुण, तीन महा अवगुण – पूज्य बापू जी


भगवान, आत्मदेव में तीन बातें ऐसी हैं कि और कहीं नहीं मिलेंगी। एक तो वह मरेगा नहीं। ब्रह्मलोक का नाश हो जायेगा, ब्रह्मा जी मर जायेंगे, इन्द्र मर जायेंगे परंतु भगवान मरेंगे नहीं। दूसरी बात क्या है, बिछुड़ेगा नहीं। हमारे से अलग होकर बिछुड़ के दिखावे ! हम नहीं जान रहे हैं तभी भी बिछुड़ा नहीं है। हम नहीं मान रहे हैं तभी भी बिछुड़ा नहीं है। महाराज आप मरोगे नहीं, बिछुड़ोगे नहीं। तीसरी बात, बेवफा नहीं बनेगा। भगवान मरेगा नहीं, बिछुड़ेगा नहीं, बेवफा नहीं बनेगा जबकि शरीर व संसार मरेगा, बिछुड़ेगा और बेवफा बनेगा।

यह केवल लिख दो न अपनी दीवारों पर – ʹभगवान मरेंगे नहीं, बिछुड़ेंगे नहीं और बेवफा नहीं होंगे। शरीर और संबंध मरेंगे, बिछुड़ेंगे और बेवफा होंगे।ʹ

बेटा बाप से बेवफा हो जाता है, पत्नी पति से, पति पत्नी से बेवफा हो जाता है। मित्र मित्र से बेवफा होता है। अरे, अपना शरीर तो बेवफा होता ही रहता है, कितना भी खिलाओ, पिलाओ, धुलाओ, सुलाओ फिर भी कभी कुछ – कभी कुछ। अंत में देखो तो ऐसा लाचार कि सुनने की इच्छा है लेकिन सुनाई कम पड़ता है…. बेवफाई हुई ! देखने की इच्छा है किंतु दिखाई कम पड़ता है या नहीं पड़ता है। जीने की इच्छा है और यह हरामी बिछुड़ता है, बेवफाई करेगा। कितना भी खिलाओ, पिलाओ, धुलाओ, सुलाओ फिर भी मोहताज हो गये, उठाकर ले चलो – ʹराम बोलो भाई राम….ʹ ऐ बेवफा !

शरीर तो है बेवफा, बिछुड़ जायेगा। रिश्तेदार बेवफाई करेंगे। दमड़ी-दमड़ी जोड़कर मकान बनाया लेकिन मरेंगे न, तो रिश्तेदार हमारी हड्डियाँ घर में नहीं आऩे देंगे। बोलेंगे- “अपशकुन है। पेड़ पर बाँधो, गंगा में फेंको।” तो इनके पीछे झख काहे को मार रहे हो ? इनके लिए थोड़ा-बहुत समय दो, बाकी तो जो मरे नहीं, बिछुड़े नहीं, बेवफा नहीं हो उस अंतरात्मा-परमात्मा की ओर लग जाओ। उस पिया को पा लो, उस प्रभु को पा लो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 26 अंक 240

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शीतऋतु में स्वास्थ्य-संवर्धन


शीतकाल में तक्रपान-अमृत समान

शीतकालेग्निमान्द्ये च कफवातामयेषु च।

अरुचौ स्रोतसां रोधे तक्रं स्यादमृतोपमम्।।

ʹशीतकाल में और अग्निमांद्य, कफ-वातजन्य रोग, अरुचि व नाड़ियों के अवरोध में तक्र (छाछ) का सेवन अमृत की तरह गुणकारी है।ʹ

गाय के तक्र में विद्यमान आठ गुण

क्षुधावर्धक, नेत्ररोगनाशक, बलकारक, रक्त-मांसवर्धक, कफ-वातशामक, आम (कच्चा आहार रस) नाशक।

तक्र निर्माणः गाय के दही में समभाग जल मिला के मथनी से खूब मथकर तक्र बनायें।

तक्र के प्रयोगः

हींग, जीरा व सेंधा नमक मिलाया हुआ तक्र वायुनाशक, दस्त, संग्रहणी व बवासीर में लाभदायी है।

सोंठ व काली मिर्च मिलाया हुआ तक्र कफशामक तथा मिश्रीयुक्त तक्र पित्तशामक है।

पेशाब की रूकावट में तक्र में पुराना गुड़ मिलाकर पीना हितकर है।

राई, मिर्च व सेंधा नमक से छौंक लगाया हुआ तक्र जुकाम व खाँसी में गुणकारी है।

सर्दियों में भोजन के साथ ताजे मीठे दही का सेवन भी रूचि, बल, मांस व रक्त वर्धक तथा मंगलकारक है।

सर्दियों में खास गोमूत्र-पान

शरीर की पुष्टि के साथ शुद्धि भी आवश्यक है। गोमूत्र शरीर के सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म स्रोतों में स्थित विकृत दोष व मल को मल-मूत्रादि के द्वारा बाहर निकाल देता है। इसमें स्थित कार्बोलिक एसिड कीटाणुओं व हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है। इससे रोगों का समूल उच्चाटन करने में सहायता मिलती है। गोमूत्र में निहित स्वर्णक्षार रसायन का कार्य करते हैं। अतः गोमूत्र के द्वारा शरीर की शुद्धि व पुष्टि दोनों कार्य पूर्ण होते हैं।

सेवन विधिः

प्रातः 25 से 40 मि.ली. (बच्चों को 10-15 मि.ली.) गोमूत्र कपड़े से सात बार छानकर पियें। इसके बाद 2-3 घंटे तक कुछ न लें। ताम्रवर्णी गाय अथवा बछड़ी के मूत्र सर्वोत्तम माना गया है।

विशेषः सुबह गोमूत्र में 10-15 मि.ली. गिलोय का रस (अथवा 2-3 ग्राम चूर्ण) मिलाकर पीना उत्कृष्ट रसायन है।

ताजा गोमूत्र न मिलने पर गोझरण अर्क का प्रयोग करें। 10-20 मि.ली. (बच्चों को 5-10 मि.ली.) गोझरण अर्क पानी में मिलाकर लें।

(गोझरण अर्क सभी संत श्री आशारामजी बापू आश्रमों व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है।)

रोग व पापनाशक पंचगव्य

पंचगव्य शरीर के साथ मन व बुद्धि को भी शुद्ध, सबल व पवित्र बनाता है। शरीर में संचित हुए रोगकारक तत्त्वों का उच्चाटन कर सम्भावित गम्भीर रोगों से रक्षा करने की क्षमता इसमें निहित है। इसमें शरीर के लिए आवश्यक जीवनसत्त्व (विटामिन्स), खनिज तत्त्व, प्रोटीन्स, वसा व ऊर्जा प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। गर्भिणी माताएँ, बालक, युवक व वृद्ध सभी के लिए यह उत्तम स्वास्थ्य, पुष्टि व शक्ति का सरल स्रोत है।

निर्माण व सेवन-विधिः 1 भाग गोघृत, 1 भाग गोदुग्ध, 1 भाग गोबर का रस, 2 भाग गाय का दही व 5 भाग छना हुआ गोमूत्र, सब मिलाकर 25-30 मि.ली. प्रातः खाली पेट धीरे-धीरे पियें। बाद में 2-3 घंटे तक कुछ न लें। तीन बार इस मंत्र का उच्चारण करने के बाद पंचगव्य पान करें-

यत् त्वगस्थितगतं पापं देहे तिष्ठति मामके।

प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम्।।

अर्थात् त्वचा, मज्जा, मेधा, रक्त और हड्डियों तक जो पाप (दोष, रोग) मुझमें प्रविष्ट हो गये हैं, वे सब मेरे इस पंचगव्य-प्राशन से वैसे ही नष्ट हो जायें, जैसे प्रज्वलित अग्नि में सूखी लकड़ी डालने पर भस्म हो जाती है।

महाभारत

अक्सीर व अनुभूत प्रयोग

जीभ सफेद व भूख मंद हो तोः आधा चम्मच तुलसी के पत्तों का रस शहद के साथ दिन में 2 बार लेने से लाभ होता है।

हाथ पैरों में जलनः गिलोय सत्त्व मिश्री के साथ लेने पर फायदा होता है।

पेशाब में जलनः कपड़े को गीला करके नाभि पर रखें तो पेशाब में और पेशाब की जगह होने वाली जलन शीघ्र ही कम हो जायेगी।

हिचकीः आँवले का रस पिप्पली या शहद के साथ लेने से हिचकी में फायदा होता है।

ताजगी के लिएः नहाने के पानी में अगर थोड़ा नींबू का रस डालें तो त्वचा मुलायम हो जाती है। इस प्रयोग से दिनभर ताजगी भी महसूस होगी।

दूध बन्द करने के लिएः बच्चों को दूध पिलाने वाली माताएँ बच्चा खाना खाने लगे तब दूध बंद करने के लिए दवाइयाँ खाती हैं पर अगर वे चिकनी दूब (दुर्वा) का रस 4-5 चम्मच दिन में 3 बार लें तो कुछ दिनों में दूध अपने-आप बंद हो जायेगा।

रोमकूप खोलने के लिएः कई बार चेहरा स्वच्छ-सुंदर बनाने हेतु भाप ली जाती है। यदि पानी में तुलसी के पत्तों का रस अथवा नींबू का रस डालकर भाप लें तो चेहरे के रोमकूप खुल जायेंगे और चेहरा स्वच्छ व सुंदर हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 240

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