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दिव्य औषधिः पंचगव्य


गोमूत्र, गोबर का रस, गोदुग्ध, गोदधि व गोघृत का निश्चित अनुपास में मिश्रण ‘पंचगव्य’ कहलाता है । जैसे पृथ्वी, जल, तेज आदि पंचमहाभूत सृष्टि का आधार हैं, वैसे ही स्वस्थ, सुखी व सुसम्पन्न जीवन का आधार गौ प्रदत्त ये पाँच अनमोल द्रव्य हैं । पंचगव्य मनुष्य के शरीर को शुद्ध कर स्वस्थ, सात्त्विक व बलवान बनाता है । इसके सेवन से तन-मन-बुद्धि के विकार दूर होकर आयुष्य बल और तेज की वृद्धि होती है ।

गव्यं पवित्रं च रसायनं च पथ्यं च हृद्यं बलबुद्धिदंस्यात् ।

आयुं प्रदं रक्तविकारहारि त्रिदोष हृद्रोगविषापहं स्यात् ।।

अर्थात् पंचगव्य परम पवित्र रसायन है, पथ्यकर है । हृदय को आनंद देने वाला तथा आयु-बल-बुद्धि प्रदान करने वाला । यह त्रिदोषों का शमन करने वाला, रक्त के समस्त विकारों को दूर करने वाला, हृदयरोग एवं विष के प्रभाव को दूर करने वाला है ।

इसके द्वारा कायिक, वाचिक, मानसिक आदि पाप संताप दूर हो जाते हैं ।

पंचगव्यं प्राशनं महापातकनाशनम् । (महाभारत)

सभी प्रकार के प्रायश्चितों में, धार्मिक कृत्यों व यज्ञों में पंचगव्य-प्राशन का विधान है । वेदों, पुराणों एवं धर्मशास्त्रों में पंचगव्य की निर्माण-विधि एवं सेवन-विधि का वर्णन आता है । पंचगव्य शास्त्रोक्त रीति से अत्यंत शुचिता, पवित्रता व मंत्रोच्चारण के साथ बनाया जाता है ।

पंचगव्य निर्माण विधिः

धर्मशास्त्रों में प्रसिद्ध ग्रंथ ‘धर्मसिंधु‘ के अनुसार पंचगव्य के पाँचों द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 8 भाग, गोदुग्ध 1 भाग, गोदधि – 10 भाग, गोमूत्र – 8 भाग, गोबर का रस – 1 भाग और कुशोदक – 4 भाग ।

बोधायन स्मृति‘ में इन पाँच द्रव्यों का अनुपात इस प्रकार हैः-

गोघृत – 1 भाग, गोदधि 2 भाग, गोबर का रस – आधा भाग, गोमूत्र – 1 भाग, दूध – 3 भाग और कुशोदक – 1 भाग ।

80 वर्ष के एक अनुभवी वैद्य के अनुसार द्रव्यों का अनुपातः-

गोझरण – 20 भाग, गोघृत – ढाई भाग, गोदुग्ध – 10 भाग, गोबर का रस – डेढ़ भाग व गोदधि – 5 भाग ।

विशेष ध्यान देने योग्य बातें-

1. उपर्युक्त द्रव्य देशी नस्ल की स्वस्थ गाय के होने चाहिए ।

2. गोबर को ज्यों-का-त्यों मिश्रण में नहीं डालना चाहिए बल्कि उसकी जगह गोबर के रस का उपयोग करें ।

ताजे गोबर में सूती कपड़ा दबाकर रखें । कुछ समय बाद उसे निकालकर निचोड़ने से गोबर का रस अर्थात् गोमय रस प्राप्त होता है ।

3. कुश (डाभ) का पंचांग एक दिन तक गंगाजल में डुबोकर रखने से कुशोदक बन जाता है ।

गोमूत्र के अधिष्ठातृ देवता वरुण, गोबर के अग्नि, दूध के सोम, दही के वायु, घृत के सूर्य और कुशोदक के देवता विष्णु माने गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एकत्र करने तथा पंचगव्य का पान करने आदि के भिन्न-भिन्न मंत्र शास्त्रों में बताये गये हैं । इन सभी द्रव्यों को एक ही पात्र में डालते समय निम्नलिखित श्लोकों का तीन बार उच्चारण करें-

गोमूत्र

गोमूत्रं सर्वशुद्ध्यर्थं पवित्रं पापशोधनम् ।

आपदो हरते नित्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोमय

अग्रमग्रश्चरन्तीनां औषधीनां रसोद्भवम् ।

तासां वृषभपत्नीनां पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदुग्ध

पयं पुण्यतमं प्रोक्तं धेनुभ्यश्च समुद्भवम् ।

सर्वशुद्धिकरं दिव्यं पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

गोदधि

चन्द्रकुन्दसमं शीतं स्वच्छं वारिविवर्जितम् ।

किंचिदाम्लरसालं च क्षिपेत् पात्रे च सुन्दरम् ।।

गोघृत

इदं घृतं महद्दिव्यं पवित्रं पापशोधनम् ।

सर्वपुष्टिकरं चैव पात्रे तन्निक्षिपाम्यहम् ।।

कुशोदक

कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः ।

कुशाग्रे शंकरो देवस्तेन युक्तं करोम्यहम् ।।

सर्वप्रथम उपरोक्त द्रव्यों से संबंधित मंत्रों का उच्चारण करते हुए सभी को एकत्र करें । बाद में प्रणव (ॐ) के उच्चारण के साथ कुश से हिलाते हुए उनको मिश्रित करें ।

सेवन-विधिः पंचगव्य सुवर्ण अथवा चाँदी के पात्र में या पलाश-पत्र के दोने में लेकर निम्न मंत्र के तीन बार उच्चारण के पश्चात खाली पेट सेवन करना चाहिए ।

यत् त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके ।

प्राशनात् पंचगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम् ।।

अर्थात् त्वचा, मज्जा, मेधा, रक्त और हड्डियों तक जो पाप मुझमें प्रविष्ट हो गये हैं, वे सब मेरे इस पंचगव्य-प्राशन से वैसे ही नष्ट हो जायें, जैसे प्रज्जवलित अग्नि में सूखी लकड़ी डालने पर भस्म हो जाती है । (महाभारत)

पंचगव्य सेवन की मात्राः बच्चों के लिए 10 ग्राम और बड़ों के लिए 20 ग्राम । पंचगव्य सेवन के पश्चात कम-से-कम 3 घंटे तक कुछ भी न खायें ।

पंचगव्य के नियमित सेवन से मानसिक व्याधियाँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं । विषैली औषधियों के सेवन से तथा लम्बी बीमारी से शरीर में संचित हुए विष का प्रभाव भी निश्चितरूप से नष्ट हो जाता है । गोमाता से प्राप्त होने वाला, अल्प प्रयास और अल्प खर्च में मानव-जीवन को सुरक्षित  बनाने वाला यह अद्भुत रसायन है ।

पंचगव्य घृत

गौ-प्रदत्त उपरोक्त पाँचों द्रव्यों को समान मात्रा में मिलाकर तत्पश्चात अग्नि पर पकाकर ‘पंचगव्य घृत’ बनाया जाता है । इसका उपयोग विशेषतः मानसिक विकारों में किया जाता है । इसके नियमित सेवन से मनोदैन्य, मनोविभ्रम, मानसिक अवसाद (डिप्रैशन) आदि लक्षण तथा उन्माद, अपस्मार आदि मानसिक व्याधियाँ धीरे-धीरे दूर होने लगती हैं ।

बनाने की विधिः गोमूत्र, गोबर का रस, दूध, दही तथा घी समान मात्रा में लें । कढ़ाई में पहले घी गर्म करें । गर्म घी में क्रमशः गोबर का रस, दही, गोमूत्र व अंत में दूध डालें । कलछी से मिश्रण को हिलाते हुए धीमी आँच पर घी पकायें । घृत सिद्ध होने पर छानकर काँच अथवा चीनी मिट्टी के बर्तन में भरकर रखें ।

सिद्ध घृत का परीक्षणः घी सिद्ध होने पर घृत में उत्पन्न बुलबुलों का आकार छोटा होने लगता है । ऊपर का झाग शांत होने लगता है । कल्क (गाढा अवशेष) नीचे जमा हो जाता है व ऊपर स्वच्छ घी मात्र शेष रहता है ।

कढ़ाई में नीचे जमा कल्क अग्नि में डालते ही बिना आवाज किये जलने लगे तो घृत सिद्ध हो चुका है, ऐसा समझना चाहिए ।

मात्राः 10 से 15 ग्राम घी सुबह खाली पेट गुनगुने पानी से लें ।

इसके स्निग्ध व शीत गुणों से मस्तिष्क के उपद्रव शांत हो जाते हैं । स्नायु व नाड़ियों में बल आने लगता है । यह क्षय, श्वास (दमा), खाँसी, धातुक्षीणता, पाण्डु, जीर्णज्वर, कामला आदि व्याधियों में भी उपयुक्त है । पेट, वृषण (अण्डकोश) तथा हाथ-पैरों की सूजन में यह बहुत ही लाभदायी है । रोगी तथा निरोगी, सभी इसका सेवन कर स्वास्थ्य व दीर्घायुष्य की प्राप्ति कर सकते हैं ।

विधिवत् पंचगव्य घृत बनाना सबके लिए सम्भव न हो पाने के कारण ‘साँईं श्री लीलाशाह जी उपचार केन्द्र, सरत’ के साधकों ने यह शरीरशोधक, बलवर्धक, पापनाशक सिद्ध गोघृत बनाना शुरु किया है ।

घर पर इसे बनाते समय विधिवत् बनाने की सावधानी बरतें । दीर्घ, निरोग और प्रसन्न जीवन के लिए गोघृत वरदानस्वरूप है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 27,28 अंक 202

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चमत्कार का रहस्य


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

संत एकनाथ जी महाराज के पास एक बड़े अद्भुत दण्डी संन्यासी आया करते थे । एकनाथ जी उन्हें बहुत प्यार करते थे । वे संन्यासी यह मंत्र जानते थेः

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

और इसको ठीक से पचा चुके थे । वे पूर्ण का दर्शन करते थे सबमें । कोई भी मिल जाय तो मानसिक प्रणाम कर लेते थे । कभी बाहर से भी दण्डवत् कर लेते थे ।

एक बार वे दण्डी संन्यासी बाजार से गुजर रहे थे । रास्ते में कोई गधा मरा हुआ पड़ा था । ‘अरे, क्या हुआ ? कैसे मर गया ?’ – इस प्रकार की कानाफूसी करते हुए लोग इकट्ठे हो गये । दण्डी संन्यासी की नज़र भी मरे हुए गधे पर पड़ी । वे आ गये अपने संन्यासीपने में । ‘हे चेतन ! तू सर्वव्यापक है । हे परमात्मा ! तू  सब में बस रहा है ।’ – इस भाव में आकर संन्यासी ने उस गधे को दण्डवत प्रणाम किये । गधा जिंदा हो गया ! अब इस चमत्कार की बात चारों ओर फैल गयी तो लोग दण्डी संन्यासी के दर्शन हेतु पीछे लग गये । दण्डी संन्यासी एकनाथ जी के पास पहुँचे । उनके दिल में एकनाथ जी के लिए बड़ा आदर था । उन्होंने एकनाथ जी को प्रार्थना कीः “…..अब लोग मुझे तंग कर रहे हैं ।”

एकनाथ जी बोलेः “फिर आपने गधे को जिंदा क्यों किया ? करामात करके क्यों दिखायी ?”

संन्यासी ने कहाः “मैंने करामात दिखाने का सोचा भी नहीं था । मैंने तो सबमें एक और एक में सब – इस भाव से दण्डवत किया था । मैंने तो बस मंत्र दोहरा लिया कि ‘हे सर्वव्यापक चैतन्य परमात्मा ! तुझे प्रणाम है ।’ मुझे भी पता नहीं कि गधा कैसे जिंदा हो गया !”

जब पता होता है तो कुछ नहीं होता, जब तुम खो जाते हो तभी कुछ होता है । किसी मरे हुए गधे को जिंदा करना, किसी के मृत बेटे को जिंदा करना – यह सब किया नहीं जाता, हो जाता है । जब अनजाने में चैतन्य-तत्त्व के साथ एक हो जाते हैं तो वह कार्य फिर परमात्मा करते हैं । इसी प्रकार संन्यासी अपने चैतन्य के साथ एकाकार हो गये तो वह चमत्कार परमात्मा ने कर दिया, संन्यासी ने वह कार्य नहीं किया ।

लोग कहते हैं- ‘आसाराम बापू जी ने ऐसा-ऐसा चमत्कार कर दिया ।’ अरे, आसाराम बापू नहीं करते, जब हम इस वैदिक मंत्र के साथ एकाकार होकर उसके अर्थ में खो जाते हैं तो परमात्मा हमारा कार्य कर देते हैं और तुमको लगता है कि बापू जी ने किया । यदि कोई व्यक्ति या साधु-संत ऐसा कहे कि यह मैंने किया है तो समझना कि या तो वह देहलोलुप है या अज्ञानी है । सच्चे संत कभी कुछ नहीं करते ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘ज्ञानी की दृष्टि उस तत्त्व पर है इसलिए वे तत्त्व को सार और सत्य समझते हैं । तत्त्व की सत्ता से जो हो रहा है उसे वे खेल समझते हैं ।

हर मनुष्य अपनी-अपनी दृष्टि से जीता है । संन्यासी की दृष्टि ऐसी परिपक्व हो गयी थी कि गधे में चैतन्य आत्मा देखा तो वास्तव में उसके शरीर में चैतन्य आत्मा आ गया और वह जिंदा हो गया । तुम अपनी दृष्टि को ऐसी ज्ञानमयी होने दो तो फिर सारा जगत तुम्हारे लिए आत्ममय हो जायेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 26 अंक 202

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वास्तविक लाभ पाने का दिनः लाभपंचमी


(लाभपंचमीः 23 अक्तूबर 2009)

(पूज्य बापू जी का पावन सन्देश

कार्तिक शुक्ल पंचमी ‘लाभपंचमी’ कहलाती है । इसे ‘सौभाग्य पंचमी’ भी कहते हैं । जैन लोग इसे ‘ज्ञान पंचमी’ कहते हैं । व्यापारी लोग अपने धंधे का मुहूर्त आदि लाभपंचमी को ही करते हैं । लाभपंचमी के दिन धर्मसम्मत जो भी धंधा शुरु किया जाता है उसमें बहुत-बहुत बरकत आती है । यह सब तो ठीक है लेकिन संतों-महापुरुषों के मार्गदर्शन-अनुसार चलने का निश्चय करके भगवद्भक्ति के प्रभाव से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों विकारों के प्रभाव को खत्म करने का दिन है लाभपंचमी । महापुरुष कहते हैं-

दुनिया से ऐ मानव ! रिश्त-ए-उल्फत (प्रीति) को तोड़ दे ।

जिसका है तू सनातन सपूत, उसी से नाता जोड़ दे ।।

‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’ – इस  प्रकार थोड़ा भगवद्चिंतन, भगवत्प्रार्थना, भगवद्स्तुति करके संसारी आकर्षणों से, विकारों से अपने को बचाने का संकल्प करो ।

1. लाभपंचमी के पाँच अमृतमय वचनों को याद रखोः

‘पहली बातः भगवान हमारे हैं, हम भगवान के हैं’ – ऐसा मानने से भगवान में प्रीति पैदा होगी । ‘शरीर, घर, संबंधी जन्म के पहले नहीं थे और मरने के बाद नहीं रहेंगे लेकिन परमात्मा मेरे साथ सदैव हैं’ – ऐसा सोचने से आपको लाभपंचमी के पहले आचमन द्वारा अमृतपान का लाभ मिलेगा ।

दूसरी बातः हम भगवान की सृष्टि में रहते हैं, भगवान की बनायी हुई दुनिया में रहते हैं । तीर्थभूमि में रहने से पुण्य मानते हैं तो जहाँ हम-आप रह रहे हैं वहाँ की भूमि भी तो भगवान की है, सूरज, चाँद, हवाएँ, श्वास, धड़कन सब के सब भगवान के हैं, तो हम तो भगवान की दुनिया में, भगवान के घर में रहते हैं । मगन निवास, अमथा निवास, गोकुल निवास ये सब निवास ऊपर-ऊपर से हैं लेकिन सब-के-सब भगवान के निवास में ही रहते हैं । यह सबको पक्का समझ लेना चाहिए । ऐसा करने से आपके अंतःकरण में भगवद्धाम में रहने का पुण्यभाव जगेगा ।

तीसरी बातः आप जो कुछ भी भोजन करते हैं भगवान का सुमिरन करके, भगवान को मानसिक रूप से भोग लगा के करें । इससे आपका पेट तो भरेगा, हृदय भी भगवद्भाव से भर जायेगा ।

चौथी बातः माता-पिता की, गरीब की, पड़ोसी की, जिस किसी की सेवा करो तो ‘यह बेचारा है… मैं इसकी सेवा करता हूँ… मैं नहीं होता तो इसका क्या होता….’ ऐसा नहीं सोचो, भगवान के नाते सेवाकार्य कर लो और अपने को कर्ता मत मानो ।

पाँचवीं बातः अपने तन-मन को, बुद्धि को विशाल बनाते जाओ । घर से, मोहल्ले से, गाँव से, राज्य से, राष्ट्र से भी आगे विश्व में अपनी मति को फैलाते जाओ और ‘सबका मंगल, सबका भला हो, सबका कल्याण हो, सबको सुख-शांति मिले, सर्वे भवन्तु सुखिनः….’ इस प्रकार की भावना करके अपने दिल को बड़ा बनाते जाओ । परिवार के भले के लिए अपने भले का आग्रह छोड़ दो, समाज के भले के लिए परिवार के हित का आग्रह छोड़ दो, गाँव के लिए पड़ोस का, राज्य के लिए गाँव का, राष्ट्र के लिए राज्य का, विश्व के लिए राष्ट्र का मोह छोड़ दो और विश्वेश्वर के साथ एकाकार होकर बदलने वाले विश्व में सत्यबुद्धि तथा उसका आकर्षण और मोह छोड़ दो । तब ऐसी विशाल मति जगजीत प्रज्ञा की धनी बन जायेगी ।

मन के कहने में चलने से लाभ तो क्या होगा हानि अवश्य होगी क्योंकि मन इन्द्रिय-अनुगामी है, विषय-सुख की ओर मति को ले जाता है । लेकिन मति को मतीश्वर के ध्यान से, स्मरण से पुष्ट बनाओगे तो वह परिणाम का विचार करेगी, मन के गलत आकर्षण से सहमत नहीं होगी । इससे मन को विश्रांति मिलेगी, मन भी शुद्ध-सात्त्विक होगा और मति को परमात्मा में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा, परम मंगल हो जायेगा ।

लाभपंचमी के ये पाँच लाभ अपने जीवन में ला दो ।

2 लाभपंचमी की दूसरी पाँच बातें-

1. अपने जीवन में कर्म अच्छे करना ।

2. आहार शुद्ध करना ।

3. मन को थोड़ा नियंत्रित करना कि इतनी देर जप में, ध्यान मे बैठना है तो बैठना है, इतने मिनट मौन रहना है तो रहना है ।

4. शत्रु और मित्र के भय का प्रसंग आये तो सतत जागृत रहना । मित्र नाराज न हो जाय, शत्रु ऐसा तो नहीं कर देगा इस भय को तुरंत हटा दो ।

5. सत्य और असत्य के बीच के भेद को दृढ़ करो । शरीर मिथ्या है । शरीर सत् भी नहीं, असत् भी नहीं । असत् कभी नहीं होता और सत् कभी नहीं मिटता, मिथ्या हो-होके मिट जाता है । शरीर मिथ्या है, मैं आत्मा सत्य हूँ । सुख-दुःख, मान-अपमान, रोग-आरोग्य सब मिथ्या है लेकिन आत्मा-परमात्मा सत्य है । लाभपंचमी के दिन इसे समझकर सावधान हो जाना चाहिए ।

3. पाँच काम करने में कभी देर नहीं करनी चाहिएः

1. धर्म का कार्य करने में कभी देर मत करना ।

2. सत्पात्र मिल जाय तो दान-पुण्य करने में देर नहीं करना ।

3. सच्चे संत के सत्संग, सेवा आदि में देर मत करना ।

4. सत्शास्त्रों का पठन, मनन, चिंतन तथा उसके अनुरूप आचरण करने में देर मत करना ।

5. भय हो तो भय को मिटाने में देर मत करना । निर्भय नारायण का चिंतन करना भय जिस कारण से होता है उस कारण को हटाना । यदि शत्रु सामने आ गया है, मृत्यु का भय है अथवा शत्रु जानलेवा कुछ करता है तो उससे बचने में अथवा उस पर वार करने में भय न करना । यह ‘स्कंद पुराण’ में लिखा है । तो विकार, चिंता, पाप-विचार ये सब भी शत्रु हैं, इनको किनारे लगाने में देर नहीं करनी चाहिए ।

4. पाँच कर्मदोषों से बचना चाहिएः

1. नासमझीपूर्वक कर्म करने से बचें, ठीक से समझकर फिर काम करें ।

2. अभिमानपूर्वक कर्म करने से बचें ।

3 रागपूर्वक अपने को कही फँसायें नहीं, किसी से संबंध जोड़े नहीं ।

4. द्वेषपूर्ण बर्ताव करने से बचें ।

5. भयभीत होकर कार्य करने से बचें । इन पाँच दोषों से रहित तुम्हारे कर्म भी लाभपंचमी को पंचामृत हो जायेंगे ।

5. बुद्धि में पाँच बड़े भारी सद्गुण हैं, उनको समझकर उनसे लाभ उठाना चाहिए ।

1. अशुभ वृत्तियों का नाश करने की, शुभ की रक्षा करने की ताकत बुद्धि में है ।

2. चित्त को एकाग्र करने की शक्ति बुद्धि में है । श्वासोच्छवास की गिनती से, गुरुमूर्ति, ॐकार अथवा स्वस्तिक पर त्राटक करने से चित्त एकाग्र होता है और भगवान का रस भी आता है ।

3. उत्साहपूर्वक कोई भी कार्य किया जाता है तो सफलता जरूर मिलती है ।

4. अमुक कार्य करना है कि नहीं करना है, सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा, हितकर-अहितकर इसका बुद्धि ही निर्णय करेगी, इसलिए बुद्धि को स्वच्छ रखना ।

5. निश्चय करने की शक्ति भी बुद्धि में है । इसलिए बुद्धि को जितना पुष्ट बनायेंगे, उतना हर क्षेत्र में आप उन्नत हो जायेंगे ।

तो बुद्धिप्रदाता भगवान सूर्यनारायण को प्रतिदिन अर्घ्य देना और उन्हें प्रार्थना करना कि ‘मेरी बुद्धि में आपका निवास हो, आपका प्रकाश हो ।’ इस प्रकार करने से तुम्हारी बुद्धि में भगवद्सत्ता, भगवद्ज्ञान का प्रवेश हो जायेगा ।

6. लाभपंचमी को भगवान को पाने के पाँच उपाय भी समझ लेनाः

1. ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं । मुझे इसी जन्म में भगवत्प्राप्ति करनी है ।’ – यह भगवत्प्राप्ति का भाव जितनी मदद करता है, उतना तीव्र लाभ उपवास, व्रत, तीर्थ, यज्ञ से भी नहीं होता । और फिर भगवान के नाते सबकी सेवा करो ।

2. भगवान के श्रीविग्रह को देखकर प्रार्थना करते-करते गद्गद होने से हृदय में भगवदाकार वृत्ति बनती है ।

3. सुबह नींद से उठो तो एक हाथ तुम्हारा और एक प्रभु का मानकर बोलोः ‘मेरे प्रभु ! मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो….. मेरे हो न… हो न…?’ ऐसा करते हुए जरा एक-दूसरे का हाथ दबाओ और भगवान से वार्तालाप करो । पहले दिन नहीं तो दूसरे दिन, तीसरे दिन, पाँचवें, पंद्रहवें दिन अंतर्यामी परमात्मा तुम पर प्रसन्न हो जायेंगे और आवाज आयेगी कि ‘हाँ भाई ! तू मेरा है ।’ बस, तुम्हारा तो काम हो गया !

4. गोपियों की तरह भगवान का हृदय में आवाहन, चिंतन करो और शबरी की तरह ‘भगवान मुझे मिलेंगे’ ऐसी दृढ़ निष्ठा रखो ।

5. किसी के लिए अपने हृदय में द्वेष की गाँठ मत बाँधना, बाँधी हो तो लाभपंचमी के पाँच-पाँच अमृतमय उपदेश सुनकर वह गाँठ खोल देना ।

जिसके लिए द्वेष है वह तो मिठाई खाता होगा, हम द्वेषबुद्धि से उसको याद करके अपना हृदय क्यों जलायें ! जहर जिस बोतल में होता है उसका नहीं बिगाड़ता लेकिन द्वेष तो जिस हृदय में होता है उस हृदय का सत्यानाश करता है । स्वार्थरहित सबका भला चाहें और सबके प्रति भगवान के नाते प्रेमभाव रखें । जैसे माँ बच्चे को प्रेम करती है तो उसका मंगल चाहती है, हित चाहती है और मंगल करने का अभिमान नहीं लाती, ऐसा ही अपने हृदय को बनाने से तुम्हारा हृदय भगवान का प्रेमपात्र बन जायेगा ।

हृदय में दया रखनी चाहिए । अपने से छोटे लोग भूल करें तो दयालु होकर उनको समझायें, जिससे उनका पुण्य बढ़े, उनका ज्ञान बढ़े । जो दूसरों का पुण्य, ज्ञान बढ़ाते हुए हित करता है वह यशस्वी हो जाता है और उसका भी हित अपने-आप हो जाता है । लाभ-पंचमी के दिन इन बातों को पक्का कर लेना चाहिए ।

धन, सत्ता, पद-प्रतिष्ठा मिल जाना वास्तविक लाभ नहीं है । वास्तविक लाभ तो जीवनदाता से मिलाने वाले सद्गुरु के सत्संग से जीवन जीने की कुंजी पाकर, उसके अनुसार चलके लाभ-हानि, यश-अपयश, विजय-पराजय सबमें सम रहते हुए आत्मस्वरूप में विश्रांति पाने में है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2009, पृष्ठ संख्या 21-23 अंक 202

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