Monthly Archives: August 2022

वटवृक्ष का महत्त्व क्यों ?



पीपल-वृक्ष के समान वटवृक्ष भी हिन्दू धर्म का एक पूजनीय वृक्ष है
। वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है । हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने
इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं । यह मन में
स्थिरता लाने में मदद करता है और संकल्प को अडिग बना देता है ।
यह स्मरणशक्ति व एकाग्रता की वृद्धि करता है । वैज्ञानिक दृष्टि से
यह पृथ्वी में जल की मात्रा का स्थिरिकरण करने वाला वृक्ष है । यह
भूमिक्षरण को रोकने वाला वृक्ष है ।
शास्त्रों में महिमा
वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं
तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं । वटवृक्ष रोपने से अशेष
(अपार) पुण्य-संचय होता है । वैशाख आदि पुण्यमासों में इस वृक्ष की
जड़ में जल देने से पापों का नाश होता है एवं नाना प्रकार की सुख-
सम्पदा प्राप्त होती है ।
‘घर की पूर्व दिशा में’ वट (बरगद) का वृक्ष मंगलकारी माना गया
है ।’ (अग्नि पुराण)
‘वटवृक्ष लगाना मोक्षप्रद है ।’ (भविष्य पुराण)
महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की
वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति
सत्यवान को जीवनदान दिया था । इसीलिए वटसावित्रि व्रत (ज्येष्ठ
मास की पूर्णिमा या अमावस्या) के दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग
की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की 108
परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेटकर संकल्प करती हैं । साथ में

अपने पुत्रों की दीर्घ आयु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प किया
जाता है ।
वटवृक्ष मं देवताओं का वास बताया गया हैः
वटमूले स्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जनार्दनः ।
वटाग्रे तु शिवो देवः सावित्री वटसंश्रिता ।।
‘वट के मूल में ब्रह्मा, मध्य में जनार्दन, अग्रभाग में शिव
प्रतिष्ठित रहते हैं तथा देवी सावित्री भी वटवृक्ष में स्थित रहती हैं ।’
वटवृक्ष पूजा-अर्चना, तप-साधना तथा मनोकामनाओं की पूर्ति के
लिए अत्यधिक उपयोगी माना गया है । कार्तिक मास में करवाचौथ के
अवसर पर भी महिलाएँ वटवृक्ष की पूजा-अर्चना मोवांछित फल पाने की
लालसा से करती हैं ।
वटवृक्षों में भी विशेष प्रभावशाली बड़ बादशाह की परिक्रमा क्यों ?
पूज्य बापू जी ने विभिन्न संत श्री आशाराम जी आश्रमों में वटवृक्षों
पर शक्तिपात किया है, जिनकी परिक्रमा करके अनगिनत लोगों की
मनोकामनाएँ पूर्ण हुई हैं और हो रही हैं । ये कल्पवृक्ष बड़ बादशाह
(बड़दादा) के नाम से जाने जाते हैं ।
स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए अत्यंत उपयोगी
वटवृक्ष मानव-जीवन के लिए अत्यंत कल्याण कारी है । यदि
व्यक्ति इसके पत्ते जड़, छाल एवं दूध आदि का सेवन करता है तो रोग
उससे कोसों दूर रहते हैं । आयुर्वेद के ग्रंथ ‘भावप्रकाश निघंटु’ में वटवृक्ष
को शीतलता-प्रदायक होने के साथ कई रोगों को दूर करने वाला बताया
गया है । यह वायु प्रदूषण को भी रोकता है । वायुमंडल में प्राणवायु
छोड़ता रहता है । इसकी छाँव तथा पत्तों में होकर आने वाली वायु शुद्ध

व शीतल हो जाती है और शरीर एवं मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करती है

मूल की तरफ लौटने का संदेश
वटवृक्ष की व्याख्या इस प्रकार की गयी हैः
वटानि वेष्टयति मूलेन वृक्षांतरमिति वटे ।
‘जो वृक्ष स्वयं को ही अपनी जड़ों से घेर ले उसे वट कहते हैं ।’
वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि
किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लोटना चाहिए और
अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए । इसी से हम मौलिक
रह सकते हैं । मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं ।
हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए । यही
सुखी जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

स्यमंतक मणि की चोरी की कथा का गूढ़ रहस्य – पूज्य बापू जी



भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का चन्द्रमा भूल से दिख जाय तो भागवत में
दिया गया ‘स्यमंतक मणि की चोरी का प्रसंग’ सुनने से कलंक का जोर
टूट जाता है । सत्राजित की भक्ति से तृप्त होकर भगवान सूर्य ने उसे
स्यमंतक मणि दी । वह ऐसी मणि थी जो रोज सोना देती थी । ऐसी
भी मणियाँ होती हैं जो रोज सोना पैदा करती हैं परंतु ब्रह्मर्षि तो ब्रह्म
दे देते हैं जहाँ सोने का कोई महत्त्व नहीं ।
वह मणि गले में धारण करके सत्राजित सूर्य की तरह प्रकाशमान
होकर द्वारिका में आया और ब्राह्मणों द्वारा उस मणि को अपने घर के
देवमंदिर में स्थापित करा दिया । एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश
कहाः “सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो ।” परंतु वह
इतना अर्थलोलुप, लोभी था कि उसने मना कर दिया । एक दिन
सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को गले में बाँधकर जंगल में गया ।
वहाँ शेर ने उसे मार दिया और मणि ले ली । फिर शेर को जाम्बवान
रीछ ने मारा और वह मणि अपनी गुफा में ले आया ।
इधर सत्राजित सोचता है कि ‘श्रीकृष्ण को मणि की जरूरत थी और
मैंने दी नहीं थी । भाई मणि गले में बाँधकर जंगल में गया था तो
श्रीकृष्ण ने उसे मरवा के मणि ले ली होगी ।’
श्रीकृष्ण को कलंक लग गया । श्रीकृष्ण तो सब कुछ जानते हैं,
राजाओं में राजा, योगियों में योगी, तपवानों में तपेश्वर हैं । कलंक
मिटाने के लिए वे वन में गये । वहाँ उऩ्होंने जाम्बवान रीछ को युद्ध
में हरा दिया । जाम्बवान रीछ ने फिर लड़की जाम्बवती श्रीकृष्ण को
अर्पण की । मणि मिल गयी, कन्यादान मिल गया । रीछ ने अपनी
लड़की का विवाह भगवान से करा दिया, इसके तो रोचक अर्थ हैं !

कथा का यथार्थ संदेश यह है कि हृदयगुहा में आत्मप्रकाशरूपी
मणि रहती है परंतु आसुरी वृत्तियों के अधीन वह आत्मप्रकाश वहाँ शोभा
नहीं देता । तो आसुरी वृत्तियों को जीतकर, आसुरी भावों को शरणागत
करके हृदय का प्रकाश प्रकट किया जाता है ।
जाम्बवान की लड़की जाम्बवती माने आसुरी वृत्ति श्रीकृष्ण को
अर्पित हुई तो श्रीकृष्णमय हो गयी, ईश्वर स्वरूप हो गयी । श्रीकृष्ण वह
मणि सत्राजित को देकर बोलेः “तुम्हारे भाई को मैंने नहीं मारा था ।
ऐसी-ऐसी घटना घटी ।…”
सत्राजित को हुआ कि ‘मैंने नाहक श्रीकृष्ण का नाम लिया,
निरपराधी को अपराधी ठहराना यह पाप है । अपने पाप का प्रायश्चित्त
क्या करूँ ?’ तो उसने अपनी कन्या सत्यभामा और वह मणि श्रीकृष्ण
को अर्पण कर दी । परंतु श्रीकृष्ण ने उसे मणि वापस लौटा दी ।
सत्यभामा के साथ भगवान का विवाह हुआ, माने जिसकी वृत्ति में
सत्यनिष्ठा है, झूठकपटवाली नहीं है, वह सत्यवृत्ति सत्स्वरूप ब्रह्म से
मिलती है यह अर्थ लेना है ।
सत्यभामा माने सत्यवृत्ति श्रीकृष्ण को अर्पित हो गयी, कृष्णमय हो
गयी । ऐसे ही ब्रह्माकार वृत्ति ब्रह्ममय हो जाती है । भागवत की कथा
का तात्त्विक अर्थ यह है । बाकी स्थूल बुद्धि की दुनिया में स्थूल
कहानियों का अवलम्बन लेकर सूक्ष्म तत्त्व समझाया जाता है ।
फिर शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि ले ली और अक्रूर को
दे दी । भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा का वध करके उसके वस्त्रों में
मणि खोजी परंतु उनको मणि मिली नहीं । अनुमान लगाया कि ‘ये
अक्रूर से मिले हैं तो अक्रूर के पास अमानत रखी होगी ।’ फिर श्रीकृष्ण
अक्रूर से मिले कि ‘तुम तो सत्यवादी हो, उदार आत्मा हो और जहाँ

मणि होती है वहाँ सुवर्ण होता है और वह व्यक्ति रोज यज्ञ, दान-पुण्य
खूब करता है । आप दान-पुण्य खूब करते हो और आपके होने से यहाँ
प्रकाश है, खुशहाली है । इससे मेरे को पक्का पता है कि आपके पास
मणि है । परंतु लोग ‘मैंने मणि चुरायी है’ – ऐसा कलंक लगाते हैं, हमारे
बड़े भाई बलराम जी भी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास
नहीं करते हैं । इसलिए उन लोगों को जरा बताने के लिए मुझे मणि दे
दो ।”
ऐसा करके मणि ले ली, दिखा दी कि ‘भाई ! देखो मणि हमने नहीं
चुरायी थी ।’ श्रीकृष्ण ने अपना कलंक दूर करके पुनः मणि अक्रूर जी
को लौटा दी ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा रसमय हृदय का मधुमय, नित्य नूतन उल्लास है



सेवा कोटि-कोटि दुःख को वरण करके भी अपने स्वामी को सुख
पहुँचाती है । व्यजन करने वाला (पंखा झलने वाला) स्वयं प्रस्वेद
(पसीना) से स्नान करके भी अपने इष्ट को व्यजन का शीतल मंद
सुगंधित वायु से तर करता है । यही सेवा ‘मैं’ के अंतर्देश में विराजमान
आत्मा को इष्ट के अंतर्देश में विराजमान परमात्मा से एक कर देती है

सेवा में इष्ट तो एक होता ही है , सेवक भी एक ही होता है । वह
सब सेवकों से एक हो के अऩेक रूप धारण करके अपने स्वामी की सेवा
कर रहा है । अनेक सेवकों को अपना स्वरूप देखता हुआ सेवा के सब
रूपों को भी अपनी ही रूप देखता है । अपने इष्ट के लिए सुगंध, रस,
रूप, स्पर्श और संगीत बनकर वह स्वयं ही उपस्थित होता है । सेवक
का अनन्य स्वामी होता है और स्वामी का अनन्य भोग्य सेवक । सभी
गोपियों को राधारानी अपना ही स्वरूप समझती हैं और सभी विषयों के
रूप में वे ही श्रीकृष्ण को सुखी करती हैं । भिन्न दृष्टि होने पर ईर्ष्या
का प्रवेश हो जाता है और सेवा में ईर्ष्या विष है और सरलता अमृत है ।
रसास्वादन व कटुता हैं विघ्न
सेवा में समाधि लगना विघ्न है । किसी देश-विशेष में या काल-
विशेष में विशेष रहनी के द्वारा सेवा करने की कल्पना वर्तमान सेवा को
शिथिल बना देती है । सेवा में अपने सेव्य से बड़ा ईश्वर भी नहीं होता
और सेवा से बड़ी ईश्वर-आराधना भी नहीं होती । स्वयं रसास्वादन करने
से भी स्वामी को सुख पहुँचाने में बाधा पड़ती है । किसी भी कारण से
किसी के प्रति चित्त में कटुता आने पर सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि
सेवा शरीर का धर्म नहीं है, रसमय हृदय का मधुमय, नित्य नूतन

उल्लास है । सेवा भाव है, क्रिया नहीं है । भाव मधुर रहने पर ही सेवा
मधुर होती है । इस बात से कोई संबंध नहीं कि वह कटुता किसके प्रति
है । किसी के प्रति भी हो, रहती तो हृदय में ही है । वह कटुता अंग-
प्रत्यंग को अपने रंग से रंग देती है, रोम-रोम को कषाययुक्त कर देती
है । अतः अविश्रांतरूप से नितांत शांत रहकर रोम-रोम से अपने अंतर
के रस का विस्तार करना ही सेवा है । अपना स्वामी सब है और हमारा
सब कुछ उनकी सेवा है ।
जो करो सुचारु रूप से करो और करने के बाद सोचो कि जो हुआ
है वह सब इन्द्रियों, मन और बुद्धि ने किया है, मैं सत्तामात्र, साक्षीमात्र
हूँ, बाकी सब सपना है ।
सेवा का फल त्याग होता है, सेवा का फल अंतरात्मा का संतोष है
। कुछ चाहिए, वाहवाही चाहिए तो सेवा क्या की, यह तो आपने
दुकानदारी की । – पूज्य बापू जी
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 17 अंक 356
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ