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सुकन्या का सुकन्यापन


अज्ञातरूप से भी यदि संत का अपराध जाता है तो उससे दोष की उत्पत्ति होती है । राजा शर्याति अपनी कन्या सुकन्या को लेकर जंगल में गये हुए थे और वहाँ उनकी बेटी से अनजाने में एक संत का अपराध हो गया । एक बाँबी में च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे । कुतूहलवश सुकन्या ने उस बाँबी में देखा तो उसे कुछ चमकता दिखाई दिया और उसने जैसे ही बाँबी के भीतर कुश डाला तो च्यवन ऋषि की आँखों में जाकर चुभा और खून बहने लगा । उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मलमूत्र रुक गया । जब शर्याति को वास्तविकता का पता चला कि मेरी बेटी से अपराध हुआ है, भले ही वह अनजाने में हुआ है, उसने ऋषि से क्षमायाचना की ।

अपनी गलती मालूम होने पर उसको स्वीकार कर लेना – यह पुरुष का लक्षण है । यह मानव-धर्म है । अब शर्याति ने सुकन्या से कहा कि “इन्हीं महात्मा के साथ तेरा विवाह कर देते हैं ।” वह मान गयी ।

तो इसमें सुकन्यापन क्या है ? विवाह होता है वासना की निवृत्ति व संयम के लिए, धर्मनिष्ठा के लिए । आजकल कुएँ में भाँग पड़ गयी है । लोग समझते हैं कि विवाह केवल भोग के लिए होता है । वासना की उच्छृंखल प्रकृति को रोककर एक स्त्री को एक पुरुष में और एक पुरुष को एक स्त्री में बाँध देना – यह विवाह वासना को मिटाने का उपाय है कि वासना को बढ़ाने का उपाय है ? तो विवाह संस्कार तो वासना को मिटाने का उपाय है । लक्ष्य में भेद हो गया । भोग तो स्वाभाविक है । भोग की वासना तो विकृति है । धर्म-द्रष्टा राजा शर्याति की पुत्री की सुकन्यापन क्या है ? उसने कहा कि “हमको जीवनभर सेवा करनी है, कोई वासनापूर्ति थोड़े ही करनी है ! चलो, इन्हीं की सेवा सही ।” और पिता ने जो निर्णय किया, उसको सुकन्या ने मान लिया ।

इसका फल क्या हुआ ? तपस्या से सुख मिलता है । जो बड़े-से-बड़े दुःख की कल्पना करके उसको भोगने के लिए तैयार रहता है, उसके जीवन में कितना भी दुःख आवे, उसे वह हलका मालूम पड़ता है और सुखरूप लगता है । तो अच्छे से अच्छे के लिए प्रयत्न करो और बुरे-से-बुरे के लिए तैयार रहो – यह कर्म का नियम है ।

अब सुकन्या ने एक ओर तो पिता की आज्ञा का पालन किया और दूसरी ओर पति की सेवा करने लगी । उसके अंदर संयम आया, धर्म आया, तपस्या, सहिष्णुता व सुशीलता आयी । सारे सदगुण उसके अंदर आ गये । अश्विनी कुमारों ने देखा कि यह युवा कन्या और इस वृद्ध ऋषि की सेवा में है । वे प्रसन्न होकर प्रकट हो गये । देवता का अनुग्रह हुआ । उन्होंने च्यवन ऋषि को जवान बना दिया । यह धर्म का फल है ।

अश्विनी कुमारों ने एक बार सुकन्या के पातिव्रत की परीक्षा की । दोनों अश्विनीकुमार और च्यवन एक जैसे हो गये । लेकिन सुकन्या तो हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी, बोलीः “आप दो देवता हैं और एक मेरे पति हैं । मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप कृपा करके मेरे धर्म की रक्षा कीजिये । मेरे पति की पहचान बता दीजिये कि कौन है । मैं तो नहीं पहचानती हूँ ।”

दोनों देवता प्रसन्न होकर अलग हो गये और उसको च्यवन मिल गये । यह पातिव्रत धर्म की महिमा है । मानव-धर्म के अंदर यह सुकन्या का धर्म है । (स्वामी अखंडानंद जी के प्रवचन एवं श्रीमद्भागवत से संकलित )

सर्वसस्तस्तु दुर्गाणि..

श्रीमद्भागवत में आगे प्रसंग आता हैः कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम आये । सुकन्या ने चरणों की वंदना की । सुकन्या के पास एक तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ देखकर राजा अप्रसन्न हुए और आशीर्वाद नहीं दिया । सुकन्या ने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौंदर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तांत कह सुनाया । राजा शर्याति ने विस्मित होकर बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया ।

महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनी कुमारों को सोमपान कराया । इन्द्र से यह सहा न गया । उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिए वज्र उठाया । महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया । तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया ।

भारतीय संस्कृति कहती हैः सर्वस्तस्तु दुर्गाणि…. अर्थात् एक दूसरे को उन्नत करते हुए सभी संकीर्ण मान्यताओं रूपी दुर्ग को पार कर जायें । ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ भगवान अर्जुन को बताते हैं कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना करने के बाद प्राणिमात्र को बड़ा हितकारी संदेश दियाः

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।।

‘तुम लोग निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करो । ऐसा करते हुए तुम परम कल्याण (परमात्म-साक्षात्कार) को प्राप्त हो जाओगे ।’ (गीताः 3.11)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 335

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सूरज और चंदा क्या नहीं देख सकते ? – पूज्य बापू जी


गुरुजी ने बच्चों से पूछाः “सूरज और चंदा क्या नहीं देख सकते ? सूरज और चंदा का प्रकाश सब जगह घुस जाता है । तो ऐसी कौन-सी चीज है जो सूरज और चंदा नहीं देख सकते ?”

कुछ बच्चों ने कहाः “पाप को नहीं देख सकते ।”

गुरु जीः “देख सकते हैं ! क्योंकि बुद्धि का अधिष्ठान सूर्य-तत्त्व है । नेत्र का स्वामी सूर्य है और मन का अधिष्ठान चन्द्र है ।”

कुछ बच्चों ने कुछ उत्तर दिये किंतु उनके उत्तर से गुरु जी संतुष्ट नहीं हुए ।

एक गुरुमुख लड़का था, जिसने सारस्वत्य मंत्र लिया था और उसका रोज जप करता था । वह  बोलाः “हाँ गुरुजी ! सूरज और चंदा एक चीज नहीं देख सकते ।”

“कौन-सी ?”

“अंधकार को नहीं देख सकते ।”

“ऐ ! शाबाश है !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 335

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यह बुद्धिमत्ता है-पूज्य बापू जी


जिस विद्या से तुम्हारे चित्त में विश्रांति नहीं, जिस विद्या से तुम्हें भीतर का रस नहीं आ रहा है वह विद्या नहीं है, वह बुद्धि नहीं है, वे सूचनाएँ हैं । बुद्धि तो वह है जिससे तुम्हारा हृदय इतना सुंदर-सुकोमल हो जाय कि दूसरों के सुख में तुम्हें सुख महसूस होने लगे, दूसरों के सुख में तुम्हें सुख महसूस होने लगे, दूसरों के दुःख को देखकर तुम्हारे चित्त में संवेदना होने लगे । शरीर के लाभ में तुम्हारे चित्त में समता बनी रहे, शरीर की हानि में भी तुम्हारे चित्त में समता बनी रहे, यह बुद्धिमानी है । छोटी-मोटी चीजों में तुम उलझ न जाओ, छोटे मोटे दुःख में तुम घबरा न जाओ, छोटे-मोटे सुख में तुम फँस न जाओ यह बुद्धिमत्ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 335

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