Monthly Archives: November 2020

साधक सेवा करें, निंदकों से न डरें – पूज्य बापू जी


कबिरा निंदक न मिलो पापी मिलो हजार ।

एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार ।।

जो निर्दोषों पर झूठे आरोप लगाते हैं, अनर्गल प्रलाप करते हैं, फैलाते हैं उनको पता ही नहीं कि वे अपना भविष्य कितना अंधकारमय कर रहे हैं ! भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र बाबू के विषय में कुछ निंदकों ने अपनी दुष्ट मानसिकता से आरोप लगाये । उनकी घिनौनी मानसिकता पर अंकुश लगाने के लिए सज्जन लोगों ने राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू को कहाः “आप उनके विषय में प्रतिक्रिया दें या चुप करा दें ।”

बुद्धिमान राजेन्द्र बाबू ने यह बात सुनी-अनसुनी कर दी । ऐसा 2-3 बार होने पर सज्जन मानसिकतावालों ने राजेन्द्र बाबू को कहाः “आप इनको सबक सिखाने में समर्थ हैं फिर भी इतनी उदासीनता क्यों बरतते हैं ? हमें समझ में नहीं आता कृपया समझाइये ।”

प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने कहाः “हलकी मानसिकता वालों का स्वभाव है अनर्गल बकवास । कुत्ते अकारण ही भौंकते रहते हैं और हाथी उनको चुप कराने जाय तो अनर्गल बकने, भौंकने वालों का महत्त्व बढ़ जाता है । हाथी अपने चाल से चलता जाय ।”

अनर्गल आरोप लगाने वाले अपनी दुष्ट मानसिकता बढ़ा के अपना भविष्य अंधकारमय कर रहे हैं । वे न शास्त्र की बात मानते हैं न संतों की वाणी हैं लेकिन कर्म का सिद्धांत है । उनको पता ही नहीं कि भ्रामक प्रचार करके वे समाज का और अपना कितना अहित कर रहे हैं !

कई बुद्धिमान साधक, संयमी-सदाचारी बहू-बेटियाँ, समर्पित सेवाभावी साधक, संचालक राजेन्द्र बाबू की सूझबूझ का फायदा लेकर अपने सेवाकार्य, सत्कर्म में लगे रहते हैं ।

हाथी चलत है अपनी चाल में ।

कुत्ता भौंके वा को भौंकन दे ।।

संत मीराबाई को विक्रम राणा ने कहाः “भाभी जी ! तुम्हारी बहुत बदनामी हो रही है ।”

तो मीराबाई ने कहाः “राणा जी !

म्हांने या बदनामी लागे मीठी ।

कोई निंदो कोई बिंदो, मैं चलूँगी चाल अनूठी ।

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, दुर्जन जलो जा अँगीठी ।

राणा जी !

म्हांने या बदनामी लागे मीठी ।….”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 17 अंक 335

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इस पर कभी आपने सोचा है ?


स्वामी अखंडानंद जी मधुसूदन सरस्वती जी का एक प्रसंग बताते हैं कि ‘अद्वैतसिद्धि’ लिख लेने के बाद मधुसूदन सरस्वती जी एकांत में बैठे शास्त्रचिंतन कर रहे थे उस समय एक अवधूत उनकी कुटिया में घुस गये और आसन पर ऊँचे बैठ गये । मधुसूदन जी देखने लगे, ‘यह कौन है जो हमारी कुटिया में आकर हमसे ऊँचे बैठ गया ?’

अभी नीचे-ऊँचे कौन बैठते हैं ? यह ब्रह्म नीचे-ऊँचे बैठता है ?

मधुसूदन जी ने पूछाः “महाराज ! आप कौन हैं ?”

अवधूत बोलेः “मधुसूदन ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने के लिए आया हूँ । तुम यह बताओ कि जब तुम कभी किसी बड़े पंडित को हरा देते हो शास्त्रार्थ में, तब तुम्हें ‘मुझे बड़ा सुख मिला’ – यह प्रसन्नता होती है कि नहीं ? और जब कोई तगड़े पंडित से काम पड़ता है और मालूम पड़ता है कि देखो, आगे युक्ति फुरती है कि नहीं फुरती, तो युक्ति का स्फुरण न होने से तुम्हारी तबीयत घबरा जाती है कि नहीं ? तुम अपने में व्याकुलता का अनुभव करते हो कि नहीं ? शरीर की व्याकुलता जाने दो, मन की व्याकुलता जाने दो, आभास से तुम्हारी एकता होती है कि नहीं ? प्रश्न देह से एकता का नहीं है, इन्द्रिय से एकता का भी नहीं है, मन से एकता का भी नहीं है, आभास चेतना से एकता का प्रश्न है ।”

तुम्हारे मन में बुरा काम होने पर ग्लानि, हारने का अवसर आने पर घबराहट, जीत होने पर प्रसन्नता, यह होता है कि नहीं ?

यह सुख-दुःख जो है, यह ‘यह सुख है’, ‘यह दुःख है’ इस ढंग से सुख और दुःख की वृत्ति नहीं होती । ‘मैं सुखी’, मैं दःखी’ ऐसी ही वृत्ति होती है । ‘यह हमारे मन में दुःख बहा जा रहा है’ – ऐसे सुख-दुःख की प्रतीति नहीं होती । ‘मैं सुखी’, ‘मैं दुःखी’ करके आभास बैठता है । तुम उसके साक्षी हो । सुखी-दुःखी बना हुआ आभास तुम्हारा दृश्य है, तुम उससे पृथक हो । इसी को तो बोलते हैं कि शोक की निवृत्ति जो होती है वह भी आभास में ही होती है । अपार हर्ष और शोक की निवृत्ति भी आभास में ही होती है । ब्रह्म में शोक कभी होता ही नहीं तो उसमें निवृत्ति कहाँ से ?

मधुसूदन जी ने कहाः “महाराज ! आप बात तो सच्ची कहते हैं । होता है सुख, होता है दुःख ।”

अवधूत बोलेः “फिर थोड़ा और विचार करो । और विचार करने की गुंजाइश है अभी ।” और अवधूत वहाँ से अदृश्य हो गये उनसे बातचीत करके ।

या तो आप देह को मानते हैं या ब्रह्म को मानते हैं और बीच-बीच में यह पापीपने और पुण्यात्मापने से सुखीपने-दुःखीपने का अभिमान होता रहता है, इस पर कभी आपने सोचा है ? उसी का अर्थ आध्यात्मिक विचार है । आध्यात्मिक विचार माने शरीर के भीतर मन की मनोवृत्तियाँ जो हैं, वे किस प्रक्रिया से काम करती हैं, किस ढंग से काम करती हैं इस बात को समझना । आँख बंद कर लेने से काम नहीं चलता है, आँख को खोलकर प्रत्येक वस्तु को देखना पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 335

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परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है


वन में एक विशाल और सुंदर शिव-मंदिर था । उस निर्जन मंदिर में बहुत से जंगली कबूतर बसेरा लेते थे । उन कबूतरों की बीट धीरे-धीरे इतनी वहाँ भर गयी कि उस बीट से मंदिर में स्थापित शिवलिंग ढककर छिप गया । घूमते हुए एक महात्मा उधर से निकले । उतना विशाल और सुंदर मंदिर किंतु मूर्ति उसमें दिखती नहीं थी । महात्मा के मन में आया कि ‘इसमें शिवलिंग स्थापित करवा दूँ ।’ जब वे इसका उद्योग करने लगे तो किसी वनवासी ने बतायाः “मंदिर में शिवलिंग तो पहले से स्थापित है । वह कबूतरों की बीट से ढक गया है । बीट हटाकर स्वच्छ करवा दीजिये ।”

महात्मा ने मंदिर स्वच्छ कराया । बीट हटाते ही बड़ा सुंदर शिवलिंग प्रकट हो गया । इसी प्रकार तुम्हारे अंतःकरण में जो अविद्या-कल्पित मल है, उसके कारण वहाँ पहले से ही विद्यमान ‘स्व’ (अपने आत्मशिव) का दर्शन नहीं होता है । उस परमात्मा की प्रतिष्ठा नहीं करनी है । कहीं से उसे लाना नहीं है । केवल अंतःकरण में जो कूड़ा-मल भरा है, उसे स्वच्छ करना है ।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय हो तो फिर ज्यादा परिश्रम की आवश्यकता भी नहीं होती । सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 6 अंक 335

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