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योगविद्या से भी ऊँची है आत्मविद्या


योगविद्या में मन का निरोध होता है, एकाग्रता से सामर्थ्य आता है – पूज्य बापू जी

परंतु ब्रह्मविद्या में मन बाधित हो जाता है और तत्त्व का बोध हो जाता है ।

योग में चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है और व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है । समाधि से सामर्थ्य आता है परंतु जीवत्व बाकी रह जाता है । ‘पातंजल योगदर्शन’ और कुंडलिनी योग’ के अनुसार अभ्यास करने पर मनोजय हो जाता है, समाधि हो जाती है, सामर्थ्य आ जाता है परंतु जब साधक समाधि से उठता है तो उसे जगत सच्चा लगता है ।

योगविद्या से मन का निरोध होता है जबकि आत्मविद्या से मन का बाध हो जाता है ।

मन के बाध और निरोध में क्या फर्क है ?

आपने रस्सी में साँप देखा और आपको भय लगा । किसी ने आपको आश्वासन दिया और वीरता की अच्छी बातें कहीं । आपने सोचा कि ‘यह साँप मेरा क्या बिगाड़ेगा ?’ और आप खाने-पीने में, सुख-सुविधा के साधनों में मस्त हो गये । इस प्रकार रस्सी में दिखने वाले साँप से आपका भय गायब हो गया । परंतु फिर जब रस्सी में दिखने वाले साँप की तरफ गये तो हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं…. अर्थात् आप कुछ समय के लिए साँप की सत्यता भूल गये, फिर आपने देखा तो वही रस्सी साँप होकर भासने लगी । यह है मन का निरोध होना ।

अगर टार्च लेकर आपने रस्सी को देख लिया तो फिर रस्सी दिखेगी तो साँप के आकार की, परंतु साँप आपको सच्चा नहीं लगेगा क्योंकि वह बाधित हो गया । यह है मन का बाध होना ।

ऐसे ही आत्मविद्या संसाररूपी सर्प को बाधित कर देती है और योगविद्या मन का निरोध कर देती है तो संसाररूपी सर्प नहीं दिखता । योगविद्या के साथ आत्मविद्या नहीं है तो योगविद्यावाले का पतन हो सकता है । इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः योगभ्रष्टोऽभिजायते । पतन से तात्पर्य संसारी व्यक्ति की तरह पतन से नहीं, संसारी की जो स्थिति है उससे तो योगविद्यावाले बहुत ऊँचे होते हैं परंतु आत्मविद्या की ऊचाई के आगे वे बच्चे हैं ।

जब तक आत्मविद्या को ठीक से नहीं समझते, तब तक धन की, विद्या की, सत्ता की कोई-न-कोई माँग बनी रहती है और तुच्छ चीजों का, प्रकृति के गुण-दोषों का आरोप अपने में करके हम लोग एक दायरा बना लेते हैं और उस दायरे से बाहर नहीं निकल पाते । ‘मैं पटेल’, ‘मैं सिंधी’, ‘मैं गुजराती’ – इसी दायरे में उलझकर रह जाते हैं । लोग भले कहें और हम भी ऊपर-ऊपर से ‘हाँ’ कहें परंतु भीतर से समझना चाहिए कि ‘हम गुजराती भी नहीं, पटेल भी नहीं, सिंधी भी नहीं, हम तो हम ही हैं । जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में एकरस साक्षी है, वह परम सत्ता और हम एक हैं ।’

जिस सत्ता से यह तन पैदा हुआ, यह मन उत्पन्न हुआ, बुद्धि व अहं उत्पन्न हुए और बदलते रहते हैं, जो इन सबको सत्ता-स्फूर्ति देता है, वह चैतन्य आत्मा हम हैं । उसी को तत्त्वरूप से जानना यह आत्मविद्या का लक्ष्य है ।

ऋद्धि-सिद्धि का सामर्थ्य, सफलता आदि सब प्रकृति के अंतर्गत होते हैं । जिन्होंने पानी को घी बना दिया ऐसे योगियों का नाम मैंने सुना है । बीमार को ठीक कर दिया…. मुर्दे को जिंदा कर दिया… ये सब ठीक हैं, परंतु हैं सब प्रकृति के अंतर्गत । तत्त्वज्ञान इससे बहुत ऊँची चीज है । तत्त्वज्ञान पाने के लिए चरित्रवान की जिज्ञासा और गुरु की कृपा हो जाय बस ! हो गया बेड़ा पार ! जनक की जिज्ञासा थी और आत्मज्ञानी अष्टावक्र की कृपा हुई, परीक्षित की जिज्ञासा थी और आत्मज्ञानी शुकदेव जी की कृपा हुई । यह सर्वोपरि पद है । आत्मज्ञान का धन अष्टसिद्धि, नवनिधि के धन से भी ऊँचा है । यह परम धन है । श्रीकृष्ण भी इसकी प्रशंसा करते हैं । रमण महर्षि ने, अष्टावक्र मुनि ने इसी परम पद को पाया । क्या तुम इसे नहीं पाओगे ? कब तक परेशानियों में पचते रहोगे भैया !

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।

‘उठो, जागो ! आत्मज्ञानी गुरु को खोजो और श्रेष्ठ उस आत्मज्ञान को पाओ ।’ (कठोपनिषदः 1.3.14)

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।

‘उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ । उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली-भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’ (गीताः 4.34)

योगविद्या में मन का निरोध होता है, एकाग्रता से सामर्थ्य आता है परंतु ब्रह्मविद्या में मन बाधित हो जाता है और आत्मतत्त्व का बोध हो जाता है ।

मन आत्मा में लय हो जाय यह एक बात है और मन बाधित हो जाय यह दूसरी बात है । जैसे विश्वासपात्र व्यक्ति ने सर्प से निश्चिंत कर दिया तो आप निश्चिंत हो गये, परंतु विश्वासपात्र व्यक्ति की जगह कोई दूसरा आकर कहने लगे कि ‘भाई ! उन्होंने भले कह दिया कि साँप नहीं काटेगा परंतु आप सँभलना….’ तो उसकी सत्यता मौजूद रहेगी । ऐसे ही योगविद्या में कितने भी ऊँचे चले जाओ तो भी योगी को थोड़े-बहुत पतन का भय बना रहता है, परंतु ज्ञानी को कोई भय नहीं क्योंकि ज्ञानी के लिए जगत बाधित हो जाता है । जैसे टॉर्च से रस्सी को रस्सी जानकर सर्प की सत्यता चली जाती है, ऐसे ही आत्मज्ञानी के लिए जगतरूपी सर्प बाधित हो जाता है । ऐसा ज्ञानवान जगत से निर्लेप हो जाता है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व के बंधन से मुक्त, जीवन्मुक्त अर्थात् जीते-जी मुक्त हो जाता है । इसके आगे बाकी मुक्तियाँ छोटी हो जाती है ।

जैसे सूर्य अपने स्थान पर रहकर जगत को अपने किरणरूपी हाथ से छू लेता है फिर भी निर्लिप्त रहता है । सूर्य जब पेड़ पौधों को छूता है और उसी की सत्ता से सब जीते है, फलते-फूलते हैं परंतु वे मिट जायें, नष्ट हो जायें तो भी सूर्यनारायण का बाल तक बाँका नहीं होता ।

ऐसे सूर्यनारायण में भी जिसकी सत्ता है उस सत्ता का कुछ नहीं बिगड़ता । वही सत्ता आँखों के द्वार देखती है, कानों के द्वारा सुनती है, जिह्वा के द्वारा बोलती है, मन के द्वारा सोचती है, बुद्धि के द्वारा निर्णय लेती है, उसी से सत्ता पाकर अहं ‘मैं-मैं’ करता है । वही सत्तास्वरूप ‘मैं’ हूँ, ऐसा बोध हो जाना यह आत्मविद्या का उद्देश्य है ।

जीव का यह स्वभाव है कि वह जिस शरीर में आता है उसी को मैं मानकर अपना आयुष्य गिनता है । वास्तव में देखा जाय तो उसने हजारों शरीरों में कई-कई बार जन्म लिये और जिस-जिस शरीर में जन्म लिया उसी को ‘मैं’ मान लिया परंतु वह वास्तव में ‘मैं’ नहीं है । अगर वह शरीर ‘मैं’ होता तो शरीर चला जाने के बाद ‘मैं’ भी चला जाता…. परन्तु ऐसा नहीं है ।

प्राकृतिक गुण-दोष और पदार्थ आने-जाने वाले हैं, आपका वास्तविक स्वरूप हीं आता-जाता नहीं है – ऐसा ज्ञान हो जाना आत्मविद्या का लक्ष्य है ।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

‘निश्चय रूप से इस संसार में ज्ञान के समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है ।’

यदि कोई इस आत्मविद्या के विचार में नित्य तल्लीन रहे तो उसकी कामनाएँ, आकर्षण आदि दूर हो जाते हैं । कामनाएँ दूर होते ही काम्य पदार्थ उसकी शरण खोजने आते हैं । फिर उसे यश की इच्छा नहीं होगी तब भी यश उसके पीछे पड़ेगा, उसे धन की इच्छा नहीं होगी तब भी धन उसकी गुलामी करेगा, भोग की इच्छा नहीं होगी तब भी भोग उसके इर्दगिर्द मँडरायेंगे । कोई कहे कि ‘महाराज ! हमें भी तो यश, धन, भोग की कोई इच्छा नहीं है फिर भी यश तो नहीं मिला ।’ अरे ! ‘इच्छा नहीं है कहकर भी यश तो चाहते हैं, गहराई में तो इच्छा है ! भीतर से इच्छा हटनी चाहिए । गहराई से इच्छा हटते ही इच्छित पदार्थ आपके इर्दगिर्द मँडराने लगते हैं – यह प्रकृति का नियम है ।

जिसके चित्त में कोई इच्छा नहीं होती, उसके चित्त में राग-द्वेष भी कैसे हो सकता है ? जिन्होंने अपने हृदय में ठीक से साक्षी होकर अपने स्वरूप को जान लिया, उनको सदैव-सर्वत्र अपना-आपा ही नज़र आता है । ऐसे महापुरुषों के चित्त में राग-द्वेष कहाँ ?

प्रारम्भ में राग-द्वेष से बचा जाता है, बाद में देश काल की माया से भी बचा जाता है । अमुक देश में, अमुक काल में प्रीति करना – यह भी माया है । यह माया भी आत्मविद्या की प्राप्ति के बाद छूट जाती है ।

योगविद्या में तो राग-द्वेष से बचने पर प्रवेश मिल जाता है और पहुँच भी हो जाती है परंतु आत्मविद्या तो राग-द्वेष से पार करके देश-काल से भी पार कर देती है और परब्रह्म-परमात्मस्वरूप में जगा देती है । ऐसी आत्मविद्या की महिमा है !

स्नातं तेन सर्व तीर्थं दातं तेन सर्व दानम् ।

कृतं तेन सर्व यज्ञं येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम् ।।

‘जिसने मन को एक क्षण भी ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविचार में लगाया, उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, सारे दान कर दिये तथा अश्वमेध आदि सारे यज्ञ कर डाले ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 3-5 अंक 200

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भगवद्भक्त वृत्रासुर


एक बार असुरों ने चढ़ाई कर दी और देवता हार गये । ब्रह्मा जी की सम्मति से देवताओं ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को पुरोहित बनाया । विश्वरूप को ‘नारायण कवच’ का ज्ञान था । उसके प्रभाव से बलवान होकर इन्द्र ने असुरों को पराजित किया किंतु विश्वरूप की माता असुर-कन्या थीं । इन्द्र को संदेह हुआ कि विश्वरूप प्रत्यक्ष तो हमारी सहायता करते हैं पर गुप्तरूप से असुरों को भी हविर्भाग पहुँचाते हैं । इस संदेह से इन्द्र ने विश्वरूप को मार डाला । पुत्र की मृत्यु से दुःखी त्वष्टा ने इन्द्र से बदला लेने के लिए उसका शत्रु उत्पन्न हो, ऐसा संकल्प करके अभिचार यज्ञ किया । उस यज्ञ से अत्यंत भयंकर वृत्र का जन्म हुआ । यह वृत्रासुर पूर्वजन्म में भगवान के ‘अनंत’ स्वरूप का परम भक्त चित्रकेतु नामक राजा था । पार्वती जी के शाप से उसे य असुर देह मिली थी । असुर होने पर भी पूर्वजन्म के अभ्यास से वृत्र की भगवद्भक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी ।

साठ हजार वर्ष कठोर तप करके वृत्रासुर ने अमित शक्ति प्राप्त की । वह तीनों लोकों को जीतकर उनके ऐश्वर्य का उपभोग करने लगा । वृत्र असुर था, उसका शरीर असुर जैसा था किंतु उसका हृदय निष्पाप था । उसनें वैराग्य था और भगवान की निर्मल-निष्काम प्रेमरूपा भक्ति थी । भोगों की नश्वरता वह जानता था । एक बार संयोगवश वह देवताओं से हार गया । तब असुरों के आचार्य शुक्र उसके पास आये । उस समय आचार्य को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वृत्र के मुख पर राज्यच्युत होने का तथा पराजय का कोई खेद नहीं है । उन्होंने इसका कारण पूछा । उस महान असुर ने कहाः “भगवन् ! सत्य और तप के प्रभाव से मैं जीवों के जन्म-मृत्यु तथा सुख-दुःख के रहस्य को जान गया हूँ । इससे मुझे किसी भी अवस्था में हर्ष या शोक नहीं होता । भगवान ने कृपा करके मुझे अपने तत्त्व का ज्ञान करा दिया है, इससे जीवों के आवागमन तथा भोगों के मिलने-न मिलने में मुझे विकार नहीं होता । मैंने घोर तप करके ऐश्वर्य पाया और फिर अपने कर्मों से ही उसका नाश कर दिया । मुझे उस ऐश्वर्य के जाने का तनिक भी शोक नहीं है । इन्द्र से युद्ध करते समय मैंने अपने स्वामी श्रीहरि के दर्शन किये थे । मैं आपसे और कोई इच्छा न करके यही प्रार्थना करता हूँ कि किस कर्म से, किस प्रकार भगवान की प्राप्ति हो, यह आप मुझे उपदेश करें ।”

शुक्राचार्य ने वृत्र की भगवद्भक्ति की प्रशंसा की । उसी समय सनकादि कुमार वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे । शुक्राचार्य तथा वृत्र ने उनका आदरपूर्वक पूजन किया । शुक्राचार्य के पूछने पर सनत्कुमार जी ने कहाः “जो भगवान सम्पूर्ण विश्व में स्थित हैं, जो सृष्टि, पालन तथा संहार के परम कारण हैं, वे श्री नारायण शास्त्रज्ञान, उग्र तप और यज्ञ के द्वारा नहीं मिलते । मनसहित सब इन्द्रियों को सांसारिक विषयों से हटाकर उनमें लगाने से ही वे प्राप्त होते हैं । जो निरंतर दृढ़तर प्रयास से निष्कामभावपूर्वक भगवान को प्रसन्न करने के लिए कर्तव्यकर्म करते हैं और शम-दम आदि साधनों के करके चित्तशुद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वे ही इस आवागमन चक्र से छूटते हैं । प्रबल प्रयत्न करने वाला पुरुष एक जन्म में भी हृदय को शुद्ध कर लेता है । बुद्धि के विषयासक्ति आदि दोष बार-बार के महान प्रयत्न से नष्ट हो जाते हैं । निर्मल हृदय पुरुष ज्ञान दृष्टि से सबको नारायणस्वरूप देखते हैं । इस समदृष्टि से वे ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं । जो इऩ्द्रियों को संयत करके सुख-दुःख में सम रहते हैं, जो निर्मल मन से परम पवित्र भगवद्भक्ति को जानना चाहते हैं, वे ब्रह्म साक्षात्कार करके दुर्लभ मोक्षस्वरूप अविनाशी परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं ।”

वृत्रासुर अब दृढ़निश्चय से सर्वत्र, सबमें भगवान का अनुभव करने लगा । इन्द्रादि देवताओं ने उसे मारने का बहुत प्रयत्न किया पर वे सफल न हुए । मारने वालों के तेज को वह हरण कर लेता था और अस्त्र-शस्त्र निगल जाता था । तब देवताओं ने भगवान की शरण ली और भगवान की बहुत सी ज्ञानमयी स्तुति की । भगवान ने प्रकट होकर कहाः “देवताओ ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । मेरे प्रसन्न होने पर जीव को कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता किंतु जिनकी बुद्धि अनन्यभाव से मुझमें लगी है, जो मेरे तत्त्व को जानते हैं, वे मुझे छोड़कर और कुछ नहीं चाहते ।”

दयामय भगवान देवताओं पर प्रसन्न थे, फिर भी वे भगवान को सर्वदा के लिए पाने की प्रार्थना नहीं कर रहे थे । अपार कृपासिंधु प्रभु ने देख लिया कि ये विषयाभिलाषी ही हैं । प्रभु को अपने परम भक्त वृत्र को असुर-शरीर से मुक्त करके अपने पास बुलाना था, अतः उन्होंने इन्द्र से कहाः “अच्छा, तुम महर्षि दधीचि के पास जाकर उनसे उनका शरीर माँग लो । उनकी हड्डियों से बने वज्र के द्वारा तुम असुरराज वृत्र को मार सकोगे ।”

इन्द्र के माँगने पर महर्षि दधीचि ने योग द्वारा शरीर छोड़ दिया । विश्वकर्मा ने उनकी हड्डियों से वज्र बनाया । वज्र लेकर ऐरावत पर सवार हो बड़ी भारी सेना के साथ इन्द्र ने वृत्र पर आक्रमण किया । इस प्रकार इन्द्र को अपने सामने देखकर वह महामना असुर तनिक भी घबराया या डरा नहीं । वह निर्भय, निश्चल हँसता हुआ युद्ध करने लगा । उसने ऐरावत पर एक गदा मारी तो ऐरावत रक्त वमन करता अट्ठाईस हाथ पीछे चला गया । अपने शत्रु को ऐसे संकट में पड़ा देख वृत्र उलटा आश्वासन और प्रोत्साहन देते हुए बोलाः “इन्द्र ! घबराओ मत ! अपने इस अमोघ वज्र से मुझे मारो । भगवान की सच्ची कृपा मुझ पर है । मैं अपने मन  को भगवान के चरणकमलों में लगाकर तुम्हारे वज्र द्वारा इस शरीर के बंधन से छूटकर योगियों के लिए भी दुष्प्राप्य परम धाम को प्राप्त कर लूँगा । इन्द्र ! जिनकी बुद्धि भगवान में लगी है, उन श्रीहरि के भक्तों को स्वर्ग, पृथ्वी या पाताल की संपत्ति भगवान कभी नहीं देते क्योंकि ये संपत्तियाँ राग-द्वेष, उद्वेग-आवेग, आधि-व्याधि, मद-मोह, अभिमान-क्षोभ, व्यसन-विवाद, परिश्रम-क्लेश आदि को ही देती हैं । अपने पर निर्भर अबोध शिशु को माता-पिता कभी अपने हाथों क्या विष दे सकते हैं ? मेरे स्वामी दयामय हैं, वे अपने प्रियजन को विषयरूप विष न देकर उसके अर्थ-धर्म-काम संबंधी प्रयत्न का ही नाश कर देते हैं । मुझ पर भगवान की कृपा है, इसी से तो मेरे ऐश्वर्य को उन्होंने छीन लिया और तुम्हें वज्र देकर भेजा कि तुम इस शरीर से मुझे छुड़ाकर उनके चरणों में पहुँचा दो । परंतु इन्द्र ! तुम्हारा दुर्भाग्य है । तुम पर प्रभु की कृपा नहीं है, इसी से अर्थ, धर्म, काम के प्रयत्न में तुम लगे हो । भगवान की कृपा का रहस्य तो उनके निष्किंचन भक्त ही जानते हैं ।”

असुरराज वृत्र भगवान की कृपा का अनुभव करके भावमग्न हो गया । वह भगवान को प्रत्यक्ष देखता हुआ-सा प्रार्थना करने लगाः “हरे ! मैं मरकर भी तुम्हारे चरणों के आश्रय में रहूँ, तुम्हारा ही दास बनूँ । मेरा मन तुम्हारे ही गुणों का सदा स्मरण करता रहे, मेरी वाणी तुम्हारे ही गुण-कीर्तन में लगी रहे, मेरा शरीर तुम्हारी सेवा करता रहे । मेरे समर्थ स्वामी ! मुझे स्वर्ग, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम राज्य, पाताल का स्वामित्व, योगसिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिए । मैं तो चाहता हूँ कि पक्षियों के जिन बच्चों के अभी पंख न निकले हों, वे जैसे भोजन लाने गयी हुई अपनी माता के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं, जैसे रस्सी से बँधे भूख से व्याकुल छोटे बछड़े अपनी माता गौ का स्तन पीने के लिए उतावले रहते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री दूर-देश गये अपने पति का दर्शन पाने को उत्कंठित रहती है, वैसे ही आपके दर्शन के लिए मेरे प्राण व्याकुल रहें । इस संसारचक्र में मैं अपने कर्मों से जहाँ भी जाऊँ, वहीं आपके भक्तों से मेरी मित्रता हो आपकी माया से जो यह देह-गेह, स्त्री-पुत्रादि में आसक्ति है, वह मेरे चित्त का स्पर्श न करे ।”

प्रार्थना करते-करते वृत्र ध्यानमग्न हो गया । कुछ देर में सावधान होने पर वह इन्द्र की ओर त्रिशूल उठाकर दौड़ा । इन्द्र ने वज्र से वृत्र की वह दाहिनी भुजा काट दी । वृत्र ने फिर परिघ (भाला) उठाकर बायें हाथ से इन्द्र की ठोढ़ी पर मारा । इस आघात से इन्द्र के हाथ से वज्र गिर पड़ा और वे लज्जित हो गये । इन्द्र को लज्जित देख असुर वृत्र ने हँसकर कहाः “शक्र ! यह खेद करने का समय नहीं है । वज्र हाथ से गिर गया तो क्या हुआ, उसे उठा लो और सावधानी से मुझ पर चलाओ । सभी जीव सर्वसमर्थ भगवान के वश में हैं । सबको सर्वत्र विजय नहीं मिलती । कठपुतली के समान सभी जीव भगवान के हाथ के यंत्र हैं । जो लोग नहीं जानते कि ईश्वर के अनुग्रह के बिना प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ, मन आदि कुछ नहीं कर सकते, वे लोग ही अज्ञानवश पराधीन देह को स्वाधीन मानते हैं । प्राणियों का उत्पत्ति विनाश काल की प्रेरणा से ही होता है । जैसे प्रारब्ध एवं काल की प्रेरणा से बिना चाहे दुःख, अपयश, दरिद्रता मिलती है, उसी प्रकार भाग्य से ही लक्ष्मी, आयु, यश और ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं । जब ऐसी बात है, तब यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण के लिए कोई क्यों हर्ष-विषाद करे । सुख-दुःख तो गुणों के कार्य हैं और सत्त्व, रज, तम – ये तीनों गुण प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं । जो अपने को तीनों गुणों का साक्षी जानता है, वह सुख-दुःख से लिप्त नहीं होता ।”

इन्द्र ने वृत्रासुर के निष्कपट दिव्य भाव की प्रशंसा कीः “दानवेन्द्र ! तुम तो सिद्धावस्था को प्राप्त हो गये हो । तुम सबको मोहित करने वाली भगवान की माया से पार हो चुके हो । आश्चर्य की बात है कि रजोगुणी स्वभाव होने पर भी तुमने अपने चित्त को दृढ़ता से सत्वमूर्ति भगवान वासुदेव में लगा रखा है । तुम्हारा स्वर्गादि के भोगों में अनासक्त होना ठीक ही है । आनंदसिंधु भगवान की भक्ति के अमृतसागर में जो विहार कर रहा है, उसे स्वर्गादि सुख जैसे नन्हें गड्ढों में भरे खारे गंदे जल से प्रयोजन भी क्या !”

इसके बाद वृत्र ने मुख फैलाकर ऐरावतसहित इन्द्र को ऐसे निगल लिया, जैसे कोई बड़ा अजगर हाथी को निगल ले । निगले जाने पर भी इन्द्र ‘नारायण कवच’ के प्रभाव से मरे नहीं । वज्र से असुर का पेट फाड़कर वे निकल आये और फिर उसी वज्र से उन्होंने उस दानव का सिर काट डाला । वृत्र के शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली, जो भगवान के स्वरूप में लीन हो गयी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 14-16 अंक 200

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हृदयरोग सुरक्षा व उपाय


पूरे विश्व में हृदयरोग से मृत्यु पाने वालों में भारतीयों की संख्या सर्वाधिक है । सर्वेक्षण के अनुसार भारत का हर पचीसवाँ व्यक्ति हृदयरोग से पीड़ित है । हृदय मन, चेतना व ओज का आश्रय-स्थान व मर्मस्थल है । यह अविरत कार्यरत रहता है । यह एक घंटे में शरीर के अंग-प्रत्यंगों में 300 लीटर रक्त प्रसारित करता है । हृदय को दो छोटी-छोटी धमनियों से रक्त मिलता है । उनमें अवरोध उत्पन्न होने से हृदय की मांसपेशियों को पर्याप्त रक्त नहीं मिल पाता और वे क्षतिग्रस्त हो जाती हैं । परिणामतः हृदय को आपन कार्य करने में कठिनाई होती है व हृदयदौर्बल्य, हृदयशूल, हृदयावरोध, हृदयाघात आदि गंभीर व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । तीव्रता से बढ़ने वाले इस रोग का मुख्य कारण सदोष आधुनिक जीवनशैली है ।

गरिष्ठ आहार, शारीरिक परिश्रम का अभाव, मानसिक तनाव, धूम्रपान, मादक द्रव्यों व औषधियों का सेवन, क्षमता से अधिक कार्य, कलह, क्रोध, र्ईर्ष्या – ये हृदयरोग के प्रमुख कारण हैं ।

हृदयरोग की सरल, अनुभूत चिकित्साः

लौकी हृदय के लिए हितकर, कफ पित्त शामक व वीर्यवर्धक है । एक कटोरी लौकी के रस में पुदीने व तुलसी के 7-8 पत्तों का रस, 2-4 काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर पीयें । इससे हृदय को बल मिलता है और पेट की गड़बड़ियाँ भी दूर हो जाती हैं ।

नींबू का रस, लहसुन का रस, अदरक का रस व सेवफल का सिरका समभाग मिलाकर धीमी आँच पर उबालें । एक चौथाई शेष रहने पर नीचे उतारकर ठंडा कर लें । तीन गुना शहद मिलाकर काँच की शीशी में भरकर रखें । प्रतिदिन सुबह खाली पेट 2 चम्मच लें । इससे रक्तवाहिनियों का अवरोध खुलने में मदद मिलेगी ।

अगर सेवफल का सिरका न मिले तो पान का रस, लहसुन का रस, अदरक का रस व शहद प्रत्येक 1-1 चम्मच मिलाकर लें । इससे भी रक्तवाहिनियाँ साफ हो जाती है । लहसुन गरम पड़ता हो तो रात को खट्टी छाछ में भिगोकर रखें ।

उड़द का आटा, मक्खन, अरण्डी का तेल व शुद्ध गूगल समभाग मिला के रगड़कर मिश्रण बना लें । सुबह स्नान के बाद हृदयस्थान पर इसका लेप करें । 2 घण्टे बाद गरम पानी से धो दें । इससे रक्तवाहिनियों में रक्त का संचारण सुचारु रूप से होने लगता है ।

एक ग्राम दालचीनी चूर्ण एक कटोरी दूध में उबालकर पियें । दालचीनी गरम पड़ती हो तो एक ग्राम यष्टिमधु चूर्ण मिला दें । इससे कोलेस्ट्रॉल की अतिरिक्त मात्रा घट जाती है ।

भोजन में लहसुन, किशमिश, पुदीना व हरा धनिया की चटनी लें । आँवले का चूर्ण, रस, चटनी, मुरब्बा आदि किसी भी रूप में नियमित सेवन करें ।

औषधि कल्पों में स्वर्णमालती, जवाहरमोहरा पिष्टि, साबरशृंग भस्म, अर्जुनछाल का चूर्ण, दशमूल क्वाथ आदि हृदयरोगों का निर्मूलन करने में सक्षम हैं ।

हृदय के लिए हितकर पदार्थ

देशी गाय का दूध व घी, आँवला, अनार, बिजौरा नींबू, नींबू, लहसुन, अदरक, सोंठ, आम, करौंदा, बेर, कोकम, खजूर, गन्ना, गेहूँ, केसर, नारियल जल व गंगाजल हृदय के लिए विशेष हितकर हैं ।

सुबह सूर्योदय से पूर्व उठकर खुली हवा में 2-3 कि.मी. घूमना, प्राणायाम, ध्यान-धारणा, सूर्यनमस्कार व आसन (वज्रासन, पवनमुक्तासन, शलभासन, मयूरासन, सर्वांगासन, शवासन) आदि करना खूब लाभदायक है । पीपल के वृक्ष का स्पर्श करने से व उसके नीचे बैठने से भी लाभ होता है । हाथ की छोटी उँगली में सोने की अँगूठी पहनने से हृदय को बल मिलता है । पेट हलका रहे, पेट में वायु न हो व कब्ज न रहे इसका ध्यान रखें । रात को सोने से पहले त्रिफला अथवा छोटी हरड़ का चूर्ण लिया करें । हफ्ते में एक दिन उपवास रखें । दिन में सोना, रात्रि जागरण, रात को देर से भोजन सर्वथा त्याग दें । मन को शांत, निश्चिंत व प्रसन्न रखें ।

जिन्होंने पूज्यश्री से मंत्रदीक्षा ली है उन्हें एक आशीर्वाद मंत्र मिलता है, जिससे उच्च रक्तचाप, निम्नरक्तचाप, हृदयरोग, पीलिया नहीं होता और जिन्हें मंत्र लेने से पहले ये व्याधियाँ हुई हों उन्हें लाभ होता है । इस मंत्र के जप के प्रभाव से शनिपीड़ा शांत होती है । हृदयरोग वालों को तुरंत पूज्य श्री से वह आशीर्वाद मंत्र लेना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि  प्रसाद, अगस्त 2009, पृष्ठ संख्या 29,32 अंक 200

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