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उचित और सुख को एक कर दें


संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ज्यों-ज्यों भगवद् ज्ञान और भगवद् सुख मिलता है त्यों-त्यों संसार से वैराग्य होता है और ज्यों-ज्यों संसार से वैराग्य होता है त्यों-त्यों भगवदरज्ञान और भगवदसुख में स्थिति होती है।

एक होता है उचित, दूसरा होता है सुख। उचित और सुख को एक कर दो तो जीवन परम सुख परमात्मा से सराबोर हो जायेगा और आप जीवन्मुक्त हो जायेंगे।

उचित और सुख को जब अलग कर देते हैं तो जीवन विक्षिप्त हो जाता है, दुःखी हो जाता है, अनुचित हो जाता है। जैसे संयम करना, ब्रह्मचर्य पालना उचित है लेकिन देखा किसी युवती को, उसके हाव-भाव को अथवा युवती ने देखा युवक को, उसके हाव-भाव को किः ‘बड़ा अच्छा लड़का है, सुदृढ़ है, मेरी तरफ देखता भी है….’ तो यह उचित नहीं है। अनुचित करने में सुख की लालच हो जाती है। जब सुख की लालच को महत्त्व देते हैं तो अनुचित करने लगते हैं और अनुचित का फल भी अनुचित होता है।

सत्य बोलना उचित है, धोखा करना अऩुचित है लेकिन देखते हैं किः ‘झूठ बोलने से लाभ हो रहा है…. धोखा करने से इतना मिल रहा है….’ तो उचित को छोड़ देते हैं और अनुचित करने लगते हैं। फिर अनुचित का परिणाम भी देर-सवेर अनुचित ही आयेगा।

नौकरी करते थे एक सज्जन। रिश्वत का पैसा उचित नहीं है-ऐसा सोचकर नहीं लिया। दूसरे ऑफिसरों की नजरों में वे मूर्ख साबित हो रहे थे। लेकिन उनका विचार उचित था तो निर्भीकता थी और मितव्ययी बनकर जीते थे।

फिर अनुचित करने वालों के सम्पर्क में आये और थोड़ा सा ले लिया…. अनुचित हो गया। अनुचित ढंग से आया वह दस साल रहा फिर ऐसे गया जैसे रूई के गोदाम में आग लगी हो। सब धन चला गया। कोर्ट खा गया, कुछ इधर उधर हो गया। अनुचित करने का फल उन्हें भोगना पड़ा।

अतः सुख और उचित-इन दोनों को अलग न किया जाये। जो उचित है वही सुखस्वरूप है, भले अभी वह दुःखरूप दिखता हो। जो उचित है वही सत्य है। सत्य ही उचित है, असत्य उचित नहीं है। जो सत्य है वह शाश्वत है। जो सत्य है वह चेतन है। जो सत्य है वह आनन्दस्वरूप है।

आप होशियार बनो। अपना ज्ञान बढ़ाओ। अपना ज्ञान….. नश्वर का ज्ञान नहीं। ‘मैं कौन हूँ ? जीव किसको बोलते हैं ? ईश्वर किसको बोलते हैं ? माया किसको बोलते हैं ?’ इसी प्रकार अपना ज्ञान बढ़ाओ, दूसरों का ज्ञान  बढ़ाओ।

सत्+चित्+आनंद = सच्चिदानंद परमेश्वर की शरण जायें। शरीर की शरण न जायें। अनुचित की शरण न जायें। उचित की शरण जायें।

जब उचित और सुख एक होता है तो आपके कदम ठीक जगह पर पड़ते हैं, ठीक निर्णय होते हैं, ठीक प्रयत्न होते हैं, ठीक परिणाम आते हैं। यदि दैवयोग से, प्रारब्ध से, वातावरण से, राजनीति से कहीं आपका शोषण अथवा अन्याय होता है फिर भी आप उचित ढंग से सह लेते हैं तो भीतर से आप बलवान रहेंगे।

अनुचित ढंग से राजनीति से, इधर से, उधर से कहीं पोषण भी होता हो, थोड़ा सुख भी मिलता हो लेकिन अंदर से आप खोखले हो जायेंगे। बिल्कुल पक्की बात है।

उचित और सुख का पार्थक्य कर देंगे तो उचित छोड़ देंगे और अनुचित करके सुखी होने की बेवकूफी करेंगे। अनुचित ढंग से खाकर मजा लिया फिर बीमार हुए। अनुचित ढंग से व्यवहार किया, उस समय मजा आया लेकिन बाद में भुगतना पड़ता है।

कहावत है न, दूध का दूध और पानी का पानी।

आज उचित का महत्त्व नहीं रहा…. धर्म का, शास्त्र का, नियम का, सदाचार का, दूसरे की भलाई का महत्त्व नहीं रहा। अपने को मजा आ जाये, अपनी भलाई हो जाये…… फिर अनुचित ढंग से हो जाये तो हो जाये।

ऐसा करने लगे हैं तो सभी दुःखी हैं। दुःख बढ़ गया है। सेठ भी दुःखी है तो नौकर भी दुःखी है। माई भी दुःखी है, भाई भी दुःखी है। पठित भी दुःखी है, अनपढ़ भई दुःखी है। अधिकारी भी दुःखी है, कर्मचारी भी दुःखी है।

अनुचित करके सुखी होने की गलती मिटाने को कटिबद्ध हो जायें। इसमें सहायता मिलती है भगवन्नाम से, शास्त्र-पठन से, अपने जीवन में कुछ व्रत-नियम के पालन से। अपने जीवन में कोई न कोई बढ़िया व्रत-नियम ले लें। व्रत –नियम को ध्यान के समय भी दुहरायें। इससे उस व्रत-नियम का पालन करने में मदद मिलती है।

जो उचित नहीं है वह भविष्य में सुखकारक नहीं है, भले अभी लगे। अतः उचित करेंगे। संयम उचित है, विकार अनुचित है। मौन उचित है, अति बोलना अनुचित है। नियम से खाना-पीना उचित है, अनियमित रूप से खाना-पीना अनुचित है। गृहस्थी है तो संयम से संसार-व्यवहार करना उचित है लेकिन अमावस्या, पूनम, एकादशी, जन्मदिवस अथवा महीने में एक से अधिक बार पति-पत्नी का व्यवहार अनुचित है। आज से अनुचित बंद। ऐसे ही प्रदोष काल में भोजन और मैथुन अनुचित है तो बंद।

जप करना, ध्यान करना, दान करना, पुण्य करना, सत्संग करना, स्वाध्याय करना, सेवा करना, नम्र बनना, आप अमानी रहना दूसरों को मान देना, अभय रहना, सत्त्वसंशुद्धि रखना, अहिंसक रहना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना यह उचित है। उचित का वरण…. इससे सुख की, सफलता की प्राप्ति होगी और मुक्ति की यात्रा अवश्य पूर्ण होगी।

रहते हैं मंदिर में, मस्जिद में, चर्च में, लेकिन अनुचित करेंगे तो चर्च क्या करें ? मस्जिद क्या करे ? मंदिर क्या करे ? रहते हैं मंदिर-मस्जिद में और उचित करते हैं तो मंदिर-मस्जिद का विशेष लाभ मिलेगा। जरा-जरा बात में झूठ बोलेंगे, आलसी बन जायेंगे, चोरी करेंगे तो फिर अनुचित करने पर उचित जगह का लाभ विशेष नहीं मिलता। इसलिए अनुचित न करें। अगर हो गया है तो व्यक्त करके दुबारा न करने का दृढ़ संकल्प कर लें। जो अनुचित करके भी सुखी होना चाहते हैं वे ज्यादा बीमार होते हैं, ज्यादा दुःखी होते हैं। इसलिए उचित और सुख को अलग न करें। जो उचित है, वही सुखकर है। अतः सदैव उचित का ही वरण करें और अनुचित का त्याग करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 4-6, अंक 101

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सदगुरु महिमा


सदगुरु अनेकानेक लोगों के लिए छाया के समान है। शिष्य वर्ग के लिए तो वे माता के समान ही हैं। उनके प्रति जो असूया प्रदर्शित करेगा, उसकी आत्मप्राप्ति नष्ट हुई समझनी चाहिए। अतः गुरु के जो अंकित या अनुग्रहप्राप्त शिष्य हैं, उन सभी को शिष्य गुरु के समान ही मानता है। असूया उसके चित्त को छूती तक नहीं है। वह सभी से बड़ा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है। इसके विपरीत, कोई गुरुबन्धु कनिष्ठ एवं गरीब हो, उसमें उत्तम गुण भी हों, तो भी उन्हें जान-बूझकर स्वीकार न करना तथा उसके प्रति खोटे आरोप लगाना ये कुशिष्य के लक्षण होते हैं।

दूसरे के उत्तम गुणों को भी मिथ्या दोष लगाकर निन्दित बताना तथा उसके ज्ञान को मिथ्या व खोटा बताना – इसे ही असूया कहते हैं। प्रत्यक्ष भेंट होने पर उसके गुणों का स्तुतिगान करना, नम्रता से चरण पकड़ना लेकिन तत्काल पीछे से उसके प्रति छल करना तथा निंदा करना, इन सबका नाम असूया है। सत्शिष्य का वर्तन इस विषय में पूर्णतया शुद्ध ही होता है। वह अपने में असूया दोष उत्पन्न ही नहीं होने देता। कोई उत्तम हो, मध्यम हो या बिल्कुल प्राकृत या साधारण हो उन सभी को वह वन्दन करता है। छल करने का उसे ज्ञान ही नहीं होता।

हे उद्धव ! इस प्रकार किसी भी प्राणी से छल न कर सकना ही सत्शिष्य का ‘अनसूया’ नामक गुण है। इस तरह 1. सम्मान की इच्छा न करना 2. निर्मत्सरता 3. दक्षता 4 निर्ममता 5. गुरु को ही पूर्णरूप से अपना आप्त मानना 6. अंतःकरण का निश्चलपना 7. परमार्थ विषय में अतिशय प्रेम (जिज्ञासता) 8. अनुसूया (झूठ, कपट रहित व्यवहार)। इन आठों सदगुणरूपी महामणियों की माला जिसके हृदय में निरन्तर निवास करती है, वह सदगुरु की सन्निधि में पहुँच जाता है। उस भेंट की अपूर्वता का वर्णन क्या किया जाये ?

इसके अतिरिक्त एक नौवाँ लक्षण और है। वह भी विलक्षण ही है। व्यर्थ की बातें छोड़कर वह शिष्य सत्य व पवि6 भाषण ही करता है। सदगुरु से वह बड़ी ही विनम्रता से और मृदु वाणी से प्रश्न करता है और वह भक्तिपूर्वक मानता है कि सदगुरु के वचन सत्यों के भी सत्य हैं। नाना प्रकार की युक्तियाँ लड़ाना, अनेक प्रकार के मत प्रतिपादित करके अकाण्डतांडव करना, पाखण्ड की सहायता से महावाद खड़े करके व्यर्थ गाल बजाते रहना, साधक-बाधक युक्तियों की सहायता से शब्दछल करना और अपनी ही युक्तियों का प्रदर्शन करते रहना… ये सब बातें शिष्य के मन में नहीं आतीं।

सदगुरु के सम्मुख वाहियात या अशिष्ट रूप से बोलना बड़ा ही पाप है, ऐसा जानकर वह व्यर्थ करता। शिष्य का बोलना कैसा होता है ? मानों परिपक्व हुई वाणी से निकलने वाला वह अमृत ही है। दूसरों की दुखती रगों को वह कभी नहीं छूता तथा जो बोलने से दूसरों का मन दुःखी हो अथवा जो बोलना अधर्मयुक्त प्रतीत होता हो, ऐसा बोल वह कभी नहीं बोलता। व्यर्थ शंका वह कभी नहीं करता। निन्दा के विषय में भी वह मूक ही रहता है। उससे कर्कश नहीं बोला जाता दूसरे का उपहास करना उसे नहीं आता। बोलते समय भी वह कुछ आशा रखकर नहीं बोलता। वह केवल निष्काम भाव से और वैराग्यपूर्वक ही बोलता है। उसे मन में गाँठ रखकर बोलना ही नहीं आता, शब्दछलपूर्वक कुत्सितपना करना भी उसे नहीं आता। अधिक बोलना भी उसे अच्छा नहीं लगता। वह मौन की महानता जानता है और बहुधा मौन रहता है। उसे वादविवाद अथवा वितण्डावाद नहीं रूचता। किसी से व्यर्थ भाषण करना भी उसे नहीं आता। उसे टेढ़ा बोलना नहीं आता। उसके भाषण में कभी कपट नहीं होता। वह तो निरन्तर सदगुरु का ही स्मरण करता है। अपने बोलने से वह किसी को उद्विग्न नहीं करता, व्यर्थ बोलने की खटपट नहीं करता। बोलने में वह कभी आवेश नहीं दिखाता। वह ऐसी वाणी ही बोलता है जिससे किसी को उद्वेग न हो। वह ऐसी मधुर हरिकथा ही कहता है जो सत्य होती है, सुनने में आह्लादक होती है तथा सबके लिए हितकारी होती है। सदगुरु की प्रार्थना करते हुए भी वह बहुत अधिक नहीं बोलता। आत्मसुख मिलने के साधन के विषय में भी वह एकाध शब्द के द्वारा ही प्रश्न करता है।

शिष्य के इस तरह ये नौ लक्षण हैं। ये नौ खण्डवाली पृथ्वी के भूषण हैं। नारायण ने कृपा करके इन्हें भक्तों को दिया है। इन नवरत्नों की सुन्दर माला जो सदगुरु के कंठ में डालेगा, वह तत्काल ही मोक्ष के माधुर्य को पायेगा। इन नौ रत्नों के तगमे जिस शिष्य के हृदय पर शोभित होंगे, वही सदगुरु का निश्चित विश्वासपात्र होगा। इन नौ रत्नों का अभिनव गुच्छ सदगुरु की भेंट के लिए जो भी लायेगा वह आत्म परमात्म राज्य के मुकुट पर महामणि बनकर चमकने लगेगा। अतः सभी कल्याण कामियों को चाहिए कि सत्य का, संयम का मौन का, सत्शास्त्र और श्रेष्ठ व्रतों का अवलंबन लेकर परममंगल कर लें। आत्म स्वराज्य के सुख को पा लें।

श्री एकनाथी भागवत से

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 101

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महापुरुषों के पास हजारों युक्तियाँ हैं


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

19-10-1982 की सत्संग कैसेट से

मनुष्य का कर्तव्य है कि उसे जिस चीज से लाभ होता है, उस लाभ को वह दूसरों तक पहुँचाये। जिस चीज से अपनी भलाई हुई, मानवता के नाते वैसी ही भलाई दूसरों की भी हो ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। फिर भले ही वह किसी भी जाति का हो, मनुष्य होने के नाते यह उसका कर्तव्य हो जाता है।

जापान में एक इन्स्टीट्यूट खुला। उसमें प्राकृतिक आहार-विहार एवं आसनों के द्वारा चिकित्सा होती थी और लोग तंदरुस्त हो जाते थे। अखबारों में, रेडियो में, टी.वी. में उस इन्स्टीट्यूट के समाचारों को प्रकाशित किया गया एवं कई बड़े-बड़े समारोह हुए। राष्ट्र स्तर पर उसका प्रचार हो गया।

इन्स्टीट्यूट के संचालक से पूछा गया किः “आपको इन्स्टीट्यूट खोलने की प्रेरणा कहाँ से मिली ?”

तब उस जापानी ने कहाः “मुझे ये विचार भारत के श्वासन से मिले। भारतीय योग के शवासन से तंदरुस्त होने की पद्धति मैंने पायी।”

भारत के केवल एक शवासन से जापानी ने तंदरुस्त होने की तकनीक पायी, संस्था चलायी और राष्ट्र-स्तर पर प्रसिद्ध हो गया। लोगों को घर बैठे संदेश मिला किः ‘ऐसे तंदरुस्त हो सकते हैं।’ उन लोगों को भारतीय संस्कृति की दिव्यता की जरा-सी युक्ति (तकनीक) मिल जाती है तो पूरे देश में फैला देते हैं और यहाँ… इतना सारा खजाना मिल रहा है फिर भी फायदा नहीं उठाते….. कैसी दुर्दशा है !

हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने योगदृष्टि से, अंतर्दृष्टि से जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण करके मानव जीवन की उन्नति के गहनतम रहस्य खोज लिये थे। केवल तन की तंदरुस्ती ही नहीं, बल्कि मन की प्रसन्नता एवं बुद्धि के विकास के अनेकों प्रयोग बताये थे। योगविद्या व ब्रह्मविद्या के सूक्ष्मतम रहस्यों का लाभ जाने-अनजाने में भी आम जनता तक पहुँच जाये, इसलिए प्रज्ञावान ऋषि-महर्षियों ने सनातन सत्य की अनुभूति के लिए जीवन-प्रणाली बनाई। विधि-निषेध का ज्ञान देने वाले शास्त्र और विभिन्न स्मृतियों की रचना का ताकि हम उत्तरोत्तर उन्नति के मार्ग पर चलकर अंत में आत्म-विश्रांति के पद पर पहुँच जायें। लेकिन आज के मानव का आलस्य कहो, नादानी कहो, स्वार्थपना कहो, खुदगर्जी कहो….. किसी महापुरुष के पास कितना खजाना है यह नहीं देखेंगे, उनकी वाणी से कितना लाभ होता है यह नहीं देखेंगे, उनकी वाणी से कितना लाभ होता है यह नहीं देखेंगे, उनके सान्निध्य से जीवन कितना उन्नत होता है यह नहीं देखेंगे, वरन् ‘विवेकानंद ऐसा करते थे…. स्वामी रामतीर्थ ऐसा करते थे…. और ये तो ऐसा करते हैं…. वैसा करते हैं…..’ ऐसा करके कुप्रचार में लग जाते हैं और महापुरुषों के पास जो आत्मखजाना है उसे लेने में ऐसे ही अभागे रह जाते हैं।

संत-महापुरुष आते हैं तो कई शिष्य साधक धीरे-धीरे सेवा करके कुछ आश्रमादि बनाते हैं। संत विद्यमान हैं तब तक तो सब ठीक लेकिन संत चले जाते हैं तो ट्रस्टी लोग उनके मालिक बनकर बैठ जाते हैं। फिर न किसी साधु-संत की सेवा न समाज की सेवा, बल्कि अपने अहंकार की सेवा में आश्रमों को लगा देते हैं। आश्रमों को खण्डहर जैसे बना देते हैं।

बाहर से रंग-रोगन तो बहुत करते हैं लेकिन जिस आश्रम में संत नहीं, वह आश्रम क्या, खण्डहर ही है। जैसे शरीर में प्राण, वैसे आश्रम में संत। इतने बड़े-बड़े सुंदर आश्रम बने हैं, फिर नया बनाने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन जो बने हैं वे ऐसे खुदगर्ज लोगों के हाथों में हैं जो केवल अपना अहंकार पुजवाना चाहते हैं। साधकों के लिए, सत्पुरुषों के लिए, संतों के लिए उन आश्रमों में जगह नहीं है।

आप हरिद्वार में साधना करने जाओ तो बड़े-बड़े आश्रम दिखेंगे लेकिन आप साधना नहीं कर पाओगे। आपको पर्णकुटीर बाँधनी पड़ेगी। नर्मदा किनारे भी बड़े-बड़े आश्रम हैं लेकिन आप वहाँ साधना करने जाओ तो नहीं कर सकते क्योंकि वहाँ ऐसे-ऐसे नाग बैठे हैं कि उनकी गुलामी से ही आपको ऊँचे नहीं आने देंगे।

भारत में कई ऐसे महापुरुष हैं जिनके पास अमाप सामर्थ्य है, अखूट आत्म-खजाना है, दिव्य आत्म-अमृत है लेकिन ऐसा कोई दुर्भाग्य है भारतवासियों का कि वे पूरा लाभ नहीं उठा पाते। सारा  विश्वव जिनके दिव्य अमृत की एक बूँद को पाकर ही परितृप्ति का एहसास कर सकता है उनके अमृत की एक बूँद पाना भी मुनासिब नहीं हो पा रहा।

खेत सूख रहा है और कुएँ में पानी लबालब भरा है ! मोटर लगी हुई है, नालियाँ भी बनी हुई हैं लेकिन मोटर चालू करके खेत में पानी पिलाने का किसी को सूझता नहीं नहीं है। समाज में अशांति, भय, विरोध, परेशानियों से जीवनरूपी खेत सूख रहा है और उसको हरा भरा बनाने में समर्थ तत्त्ववेत्ता, योगी, ज्ञानी, परोपकारी, प्रसन्नात्मा महापुरुषरूपी कुएँ लबालब भरे हुए हैं। फिर भी समाजरूपी खेत बेचारा सूखता जा रहा है। धनभागी हैं वो संत और समाज के बीच सेवा की धारा बनकर, समाजरूपी खेत को सींचकर सुपल्लवित करना चाहते हैं। जिनमें ईर्ष्या, अहंकार और दम्भ को छोड़कर सच्चाई, स्नेह, विनम्रता का सदगुण है, आप अमानी रहकर दूसरों को मान देने का सदगुण है वे धनभागी लोग समाज व संत के बीच धारा बनने में सफल हो जाते हैं।

ईश्वर को पाना कोई कठिन नहीं है। केवल अपनी बुद्धि को छोड़ना कठिन है, अपना स्वार्थपना छोड़ना कठिन है, अपने अहंकार की पूजा छोड़ना कठिन है।

स्वामी विवेकानन्द ने किसी से कहाः “मेरा शिष्य, मेरा शेर किसी की गुलामी करे ? किसी के यहाँ रहे ?”

उसने कहाः “स्वामी जी ! फिर मैं क्या करूँ ?”

विवेकानंदः “क्या करूँ, क्या ? त्यागपत्र दे दे, संन्यासी हो जा। भिक्षापात्र ले, भीख माँगकर आ….. ‘नारायण हरि कर…. अपने को बिखेर दे।”

शिष्य गया। भिक्षा लेकर आया तो विवेकानन्द ने कहाः “तुमको भिखारी बनाने के लिए यह भिक्षापात्र नहीं दिया है लेकिन जन्म मरण का भिखारीपना मिटाने के लिए मैंने यह भिक्षापात्र दिया है।”

संत-महापुरुषों की प्रत्येक चेष्टा में बड़ा राज होता है। हमारा मन जिसको अच्छा मानता है उसको करता है और जिसको अच्छा नहीं मानता उसको नहीं करता। लेकिन गुरु को जैसा अच्छा लगता है, महापुरुषों को जैसा अच्छा लगता है वैसा करो तो कल्याण ही कल्याण है।

महापुरुषों की इच्छानुसार चलने वाले तो कोई विरले ही होते हैं, बाकी तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों की भीड़ होती है कुछ तो ऐसे अभागे होते हैं कि संत-महापुरुषों के पास जाना तो दूर, उनके व्यवहार की कमियों को ढूँढकर उनके ही कुप्रचार में लग जाते हैं। ऐसे अभागे मनुष्य स्वयं तो अपना नुकसान करते ही हैं, औरों की श्रद्धा को ठेस पहुँचाने को बड़ा पाप भी अपने सिर पर ले लेते हैं।

भारतवासियो ! सावधान !! ऐसे लोगों के कुचक्रों एवं षडयन्त्रों से सावधान रहना। उनके चक्कर में कभी न आना। याद रखनाः तुम उन्हीं ऋषि-मुनियों की संतान हो जिन्होंने केवल तन की तंदरुस्ती के ही उपाय नहीं खोजे हैं वरन् मन की प्रसन्नता और बुद्धि को बुद्धिदाता में लगाने की युक्तियाँ भी खोजी हैं। मानव को उसके महेश्वर पद तक पहुँचाने की युक्तियाँ जिन्होंने बतायी है, तुम उन्ही ऋषि-मुनियों की  संतान हो। एक जापानी केवल शवासन से स्वस्थ रहने की तकनीक जानकर जापानियों को लाभान्वित कर सकता है तो तुम्हारे महापुरुषों के पास तो ऐसी हजारों तकनीकें है, हजारों युक्तियाँ हैं जिन्हें आजमाकर तुम सुखी, समृद्ध एवं सम्मानित जीवन जी सकते हो और परम सुखस्वरूप परमात्मा के आनंद को भी पा सकते हो। उठो…. जागो…. देर मत करो। अभी भी वक्त है चेतने का। अतः चेत जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 10-12, अंक 101

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