Tag Archives: Bhakton Ke Anubhav

Bhakton Ke Anubhav

कितना ख्याल रखते हैं अंतर्यामी गुरुदेव !


एक साधिका बहन ने अपने जीवन में घटित एक प्रेरणादायी प्रसंग बतायाः

लगभग सन् 1980 की बात है। पूज्य बापू जी गंगा-किनारे एकांतवास हेतु अहमदाबाद से हरिद्वार जाने वाले थे। उससे एक दिन पहले पूज्य श्री ने मुझसे कहाः “बेटी ! अपनी माँ की अच्छी तरह से सेवा करना।” मुझे आश्चर्य हुआ कि ‘बापू जी ऐसा क्यों बोल रहे हैं !’

मैंने कहाः “बापू जी ! मैं तो अच्छे से सेवा करती हूँ। उनको जो चाहिए वह समय से देती हूँ।”

“फिर भी, मैं बोल रहा हूँ न, अच्छे से सेवा करना।”

“जी।”

दूसरे दिन सुबह पूज्य श्री हरिद्वार चले गये।

लगभग 10 दिन बाद की बात है। एक दिन मैं सुबह 4 बजे जप कर रही थी तो बार-बार मेरे हाथ से माला गिर जाती थी। मुझे आभास हुआ कि आज कुछ घटना घटने वाली है।

माँ सो रही थी, जाकर देखा तो पेट फूला था। माँ बोलीः ‘मेरा दम घुट रहा है, पेट में तकलीफ हो रही है।” डॉक्टर को बुलाया, ऑक्सीजन लगायी, दवाएँ दीं पर 8-9 दिन बाद मेरी माँ चल बसी। तब मुझे बापू जी के हरिद्वार जाने से पहले कहे हुए वचनों का रहस्य समझ में आया।

मैं माँ के देहावसान के कारण बहुत शोकमग्न होकर रोती रही। जब मैं माँ के शव पर डालने के लिए चादर लेने अपने कमरे में गयी तो मुझे आवाज सुनाई दीः “तू किसलिए रो रही है ? माँ के लिए रो रही है कि माँ की दी हुई सुख-सुविधाओं के लिए रो रही है ?”

मैं आवाज पहचान गयी कि ‘यह विवेक-वैराग्यप्रद वाणी तो मेरे पूज्य गुरुदेव की है और पूज्य श्री के श्रीचित्र से आ रही है !’

मैंने बापू जी के श्रीचित्र की ओर देखा तो मुझे ऐसा लगा मानो तस्वीर नहीं साक्षात् बापू जी बात कर रहे हैं। कुछ देर के लिए मैं शांत हो गयी और विचार करने लगी कि ‘बात तो सही है ! मैं अपनी माँ से मिलने वाली सुख-सुविधाओं के लिए रो रही हूँ। ‘मेरी माँ नहीं रही, अब मेरा ख्याल कौन रखेगा ?….’ इस प्रकार सोच कर रो रही हूँ।’

मेरा शोक थोड़ा शांत हुआ।

उसी दिन की बात है। उधर हरिद्वार में पूज्य श्री बिरला घाट पर बैठे थे। पूज्य श्री ने वहाँ बैठे भक्तों से मेरे बारे में पूछा तो एक महिला ने खड़े होकर कहाः “जी बापू जी ! मैं उसे जानती हूँ। मैंने उसका घर भी देखा है।”

पूज्य श्री ने उन बहन को सत्संग की एक पुस्तक दी और कहाः “वह बहुत रो रही है, तुम जाओ और यह पुस्तक उसे दो।” बापू जी ने यह भी समझाने के लिए कहा कि “किसी की मौत हो जाय तो शोक न मनाकर उसकी सद्गति के लिए उसे मन ही मन कहना चाहिए कि हे चैतन्यस्वरूप आत्मा ! शरीर को त्यागने के बाद भी  आपका अस्तित्व है। मरणधर्मा शरीर में होते हुए भी आप अमर थे। शरीर के मरने पर भी आप नहीं मरे। देह नश्वर है, आप शाश्वत हो। अब पार्थिव शरीर की प्रीति से मुक्त होकर अपने अपार्थिव आत्मा को जानने का प्रयत्न करो।”

वह महिला मेरे घर आयी, सारी बात बतायी और कहाः “यह पुस्तक बापू जी ने आपको देने के लिए कहा था। साथ में ऐसा-ऐसा चिंतन करने के लिए भी कहा है।”

मैं तो आश्चर्य के सागर में डूब गयी कि ‘बापू जी को उसी दिन कैसे पता चला कि मेरी माँ का शरीर शाँत हो गया है !’

उस समय मोबाइल आदि नहीं थे, फोन की सुविधा भी सुलभ नहीं थी। चिट्ठियाँ लिखते थे लोग। और बापू जी तक मैंने या किसी ने कोई खबर भी नहीं भेजी थी।

भाव और प्रेम के कारण मेरी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे, हृदय भर आया कि ‘बाहर से इतने दूर होते हुए भी कितने पास हैं, कितने अंतर्यामी हैं मेरे गुरुदेव ! हम भक्तों का कितना ख्याल रखते हैं गुरुवर !’

मैंने अपने जीवन में इसका प्रत्यक्ष एवं कई बार अनुभव किया है कि जब शिष्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने गुरुदेव को पुकारता है तो उसके निखालिस हृदय से निकली प्रार्थना गुरुदेव अवश्य सुनते हैं और सत्प्रेरणा देकर या अन्य किसी भी माध्यम से उसकी मदद करते हैं।

और एक दिन में ही हड्डी जुड़ गयी !

एक दिन मेरा पैर फिसल गया, जिससे मेरे एक पैर के पंजे की हड्डी टूट गयी थी। मैंने खूब उपचार किये पर दर्द कम न हुआ। दर्द के कारण मैं चल-फिर नहीं पा रही थी इसलिए सत्संग-दर्शन के लिए भी आश्रम नहीं जा सकी। एक दिन गुरुदेव को किसी ने बताया कि मेरे पैर की हड्डी टूट गयी है।

पूज्य श्री बोलेः “उसको बोलना कि जहाँ हड्डी टूटी है वहाँ पर स्वमूत्र से मालिश करे, सब ठीक हो जायेगा।”

श्रद्धापूर्वक गुरुदेव की आज्ञा मानी तो तीन दिन से दवा लेने के बावजूद भी जो दर्द ठीक नहीं हो रहा था वह केवल दो बार मालिश करने से एक दिन में ही गायब हो गया ! बिना पट्टा-पट्टी बाँधे हड्डी भी ठीक हो गयी ! दूसरे दिन तो मैं चलकर सत्संग के लिए आश्रम पहुँच गयी।

गुरुदेव हमें कुछ उपचार या लौकिक उपाय बताते हैं तो वह तो केवल निमित्तमात्र होता है, मुख्य तो गुरुदेव के हृदय से निकला शिष्य की भलाई का संकल्प होता है। शिष्य की गुरुवचनों में अडिग श्रद्धा हो तो बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों से भी वह सहज में ही पार हो जाता है।

बापू जी ने मेरे पिता जी को दिया था नया जीवन

अहमदाबाद की मेनका चंदनानी जी, जिनको सन 1974 से पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में प्रत्यक्ष सत्संग-श्रवण का सौभाग्य मिला, वे पूज्य श्री के सत्संग-सान्निध्य की महिमा से ओतप्रोत एक अनुभव बताती हैं-

मेरे पिता जी एक मिल में मैनेजर थे। वे धार्मिक तो थे पर संतों पर विश्वास नहीं करते थे। सत्संग में खुद भी नहीं जाते थे और हमको भी नहीं जाने देते थे।

1981 में उनको गले का कैंसर हो गया। डॉक्टरों ने बोलाः “इन्हें टाटा हॉस्पिटल (मुंबई) ले जाओ।” मेरे चाचा जी की बापू जी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वे पिता जी से बोलेः “आपको कहाँ ले चलें, अस्पताल या बापू जी के पास ?”

पिता जी बोलेः “चलो, एक बार बापू जी के पास ले चलो।” यह सुनकर हमको आश्चर्य हुआ कि ‘संतों में श्रद्धा न रखने वाले पिता जी ऐसा बोले !’

चाचा जी पिता जी को पूज्य श्री के पास ले गये और प्रार्थना की तो बापू जी ने उनकी सारी जाँच रिपोर्ट लेकर अपने पास रख लीं और बोलेः “तुझे डॉक्टर के पास जाना है या यहाँ पर ठीक होना है ?”

पिता जी ने कहाः “साँईं जी ! आपसे ही ठीक होना है।”

पूज्य श्री बोलेः “ठीक है, फिर इधर आते रहना, सत्संग सुनते रहना और चिंता छोड़ देना, सब ठीक हो जायेगा।” सबको आश्चर्य हुआ कि ‘केवल सत्संग-श्रवण से व्यक्ति कैसे ठीक होगा !’

पिता जी नियमित रूप से आश्रम में आकर सत्संग सुनने लगे। सत्संग सुनने मात्र से उनकी चिंता दूर हो गयी। बापू जी उनको सांत्वना देते, धैर्य बँधाते, आत्मबल भरते, प्रसाद देते। सत्संग में आने से धीरे-धीरे कैंसर का वह फोड़ा 2-3 माह में ठीक होता गया।

बापू जी रोज मेरे पिता जी को प्रसाद देते थे। एक बार एक ऐसा सेवफल दिया जिस पर थोड़ा-सा काला दाग था। पूज्य श्री वह देते हुए बोलेः “इस सेवफल पर जितना दाग है उतना ही तेरा रोग रह गया है। अब इतना डॉक्टर से ठीक करा ले।”

तब तक पिता जी का श्रद्धा-विश्वास पक्का हो गया था, बोलेः “बापू जी ! अभी मुझे किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना, अब आप ही मेरे डॉक्टर हैं। मुझे आप से ही ठीक होना है।”

“लेकिन मैं बोलता हूँ, तू अभी डॉक्टर के पास जा और थोड़ी-सी पट्टी करा ले।” आज्ञा मानकर पिता जी ने केवल एक बार ड्रेसिंग (मरहम-पट्टी) करवायी और कुछ ही दिनों में घाव पूरी तरह ठीक हो गया।

एक दिन पूज्य श्री ने वे ही जाँच रिपोर्टें पिता जी को वापस कीं और बोलेः “ये ले जा और उसी डॉक्टर को दिखा।” डॉक्टर को रिपोर्टें दिखायीं तो वह दंग रह गया कि ‘उस समय रिपोर्टों में कैंसर था पर अभी कहाँ गायब हो गया !’

फिर तो मेरे पिता जी को पूज्य श्री के सत्संग का गहरा रंग लग गया था। इस तरह बापू जी ने मेरे पिता जी को नया जीवन दिया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 14-16 अंक 296

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

23 वर्ष की उम्र में बना डिप्टी मेयर !


मैंने 2010 में पूज्य बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली थी, उसके बाद आश्रम में शिविर भी भरा। दीक्षा लेने से मेरे जीवन में काफी सुधार आया। आध्यात्मिकता व सदगुणों का विकास हुआ। पूज्य बापू जी से मिले मंत्र का जप करने से मनोबल, प्राणबल बढ़ा तथा निर्णयशक्ति भी अच्छी हुई। संयम और शांति का धन बढ़ा।

अगस्त 2013 में मैं डिप्टी मेयर के चुनाव में खड़ा हुआ और 23 वर्ष की उम्र में ही नगर निगम, हिसार का डिप्टी मेयर बन गया।

दीक्षा से पहले मेरा मन इधर-उधर की कल्पनाओं में भटकता रहता था पर अब जीवन में संतोष है। पहले खुद के जीवन में अशांति रहती थी लेकिन अब दीक्षाप्राप्ति के बाद दूसरों को शांति, सांत्वना देने की सेवा करके अपना जीवन भी शांतिमय अनुभव कर रहा हूँ।

मेरी ये सभी उपलब्धियाँ पूज्य बापू जी के बताये मार्ग पर चलने तथा माता पिता व गौसेवा से प्राप्त हुई हैं। मेरे जीवन निर्माण में पूज्य बापू जी की कृपा का मुख्य हाथ है। मैं परम पूज्य गुरुदेव का सदैव ऋणी रहूँगा। – श्री भीम महाजन

डिप्टी मेयर, नगर निगम, हिसार (हरि.) सचल दूरभाष 9215611112

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 33 अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पूज्य बापू जी के प्रेरक जीवन-प्रसंग


ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की थोड़ी समय की भी निष्ठापूर्वक की गयी सेवा गजब का रंग लाती है। उससे लौकिक-अलौकिक लाभ तो होते ही हैं, साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। प्रस्तुत है इसी के कुछ ज्वलंत उदाहरण पूज्य बापू जी के हृदयस्पर्शी जीवन प्रसंगों में-

डीसा (गुज.) के रहने वाले स्वर्गीय भाणजीभाई प्रजापति अपने जीवन का एक प्रसंग बताते हुए कहते थे कि “पूज्य बापू जी ने जिस आश्रम में रहकर 7 साल तक घोर तपस्या की थी, मैं उस आश्रम के सामने ही मूँगफली की लारी  लगाता था।

एक बार बापू जी वहाँ पर आये और बोलेः “मेरी यह चिट्ठी डाकघर के डिब्बे में डाल आओ।”

मैं खुशी से वह चिट्ठी डाल आया। सेवा का ऐसा  सुअवसर मुझे 2-3 बार मिला था। एक मेरी ग्राहकी बिल्कुल नहीं हुई थी पर जैसे ही मैं चिट्ठी डालकर आया तो मेरी इतनी ग्राहकी हुई कि पेटी पैसों से भर गयी पर मूँगफली खत्म ही नहीं हो रही थी। तभी से मैं आश्रम में बार-बार आने लगा और बापू जी के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गयी।

‘तेरी 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी’

एक दिन मैंने बापू जी से कहाः “महाराज जी ! मेरे को बड़े साँईं जी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी बापू) के पास जाना है।”

बापू जी बोलेः “क्यों जाना है ?”

“जी, दर्शन करना है और कुछ घर की परेशानी बतानी है।”

“ठीक है, तू मेरे साथ चलना, जो भी समस्या होगी हल हो जायेगी। तू परेशानी तो बोल।”

मेरी सारी समस्याएँ बापू जी ने सुनीं और थोड़ी देर आँखें बंद कर लीं, फिर बोलेः “देख, मैं जैसा बोलूँगा तू वैसा करेगा तो तेरी इस जन्म की ही नहीं, 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी।”

मैंने कहाः “जी महाराज जी ! करूँगा।”

“तू मेरे गुरुदेव को सिर्फ इतना बोलना कि साँईं जी ! मुझे आत्मा के दर्शन कब होंगे ?”

दर्शन की कतार में मेरी बारी आयी तो मैंने पूज्य लीलाशाह जी बापू से वैसा ही कहा तो उनकी आँखें करुणा से भर आयीं और वे मुझे ऊपर से नीचे तक देखने लगे।

मैं बहुत चंचल था, फिर से बोलाः “साँईं जी ! कब होंगे दर्शन ?”

“होंगे पुट (बेटा) ! होंगे।”

साँईं जी ने मुझ पर शक्तिपात किया तब से मुझे अपने-आप इतनी हँसी आने लगी कि बंद ही नहीं होती थी। तब घरवाले मुझे पागल समझते थे। कोई भी बात बोलें तो मैं बहुत हँसता था। फिर कुछ दिनों में मेरी स्थिति सामान्य हो गयी और मेरी सारी समस्याएँ हल हो गयीं।

गुरुकृपा से हुए हनुमान जी के दर्शन

मैं बापू जी के पास आता-जाता रहता था तो एक दिन बापू जी बोलेः “अरे भाणा ! तू हनुमान जी के दर्शन करेगा ?”

मैंने भी बोल दियाः “हाँ महाराज ! करूँगा। आप करायेंगे ”

“हाँ-हाँ, तू मेरे साथ चल।”

मुझे एकांत में बनास नदी के किनारे ले गये और वहाँ रहने के लिए कहा। वहाँ एक पीपल के पेड़ के नीचे मैंने अपनी झोंपड़ी बनायी। बापू जी ने हनुमान जी का मंत्र दिया और बोलेः “तू अनुष्ठान चालू कर।”

भोजन में कभी दूध तो कभी मूँग लेता। सातवें दिन बापू जी बोलेः “देख, आज हनुमान जी आयेंगे, सावधान रहना, डरना नहीं और जप नहीं छोड़ना।”

रात भर  जपता रहा। सुबह 4 बजे मेरी कुटिया में प्रकाश-प्रकाश दिखा तो मैं डर गया।

बाद में बापू जी ने सब बताया तो बापू जी ने मेरे ऊपर गंगाजल छिड़का और बोलेः “अनुष्ठान एक दिन और बढ़ा, हनुमान जी को आना ही पड़ेगा। कैसे नहीं आयेंगे !”

दूसरे दिन सुबह 4 बजे हनुमान जी आये तो कुटिया में इतना प्रकाश फैल गया कि मुझसे देखा नहीं जा रहा था। उसी प्रकाश में पीपल के पेड़ से एक तेजस्वी कपि उतरते हुए दिखे और आवाज सुनाई दीः “बेटा ! यह मंत्र बंद कर दे, कलियुग चल रहा है, तू मेरा तेज सह नहीं पायेगा।”

मैंने हनुमान जी को प्रणाम किया और खुशी-खुशी बाहर आया कि ‘बापू जी को बताऊँ !”

आश्रम पहुँचा और मैंने जैसे ही आश्रम का दरवाजा खोला तो देखा कि चबूतरे पर बापू जी और हनुमान जी आमने-सामने बैठे हैं ! मुझे देख के हनुमान जी दीवार को चीरते हुए बाहर चले गये।”

चार अक्षरों में पूरा ज्ञान

साधनाकाल में पूज्य बापू जी जब डीसा में रहते थे, उस समय पहली बार जब पूज्य श्री मधुकरी (भिक्षा) करने गये थे तो एक सिंधी माई ने भिक्षा देने से मना कर दिया था। यह प्रसंग तो सभी ने सुना ही होगा। उस घर से चलकर बापू जी जब दूसरे घर गये तो वहाँ जिन्होंने भिक्षा दी थी उनका नाम है मिश्री बहन। वे उस दिन को याद करते हुए कहती हैं कि “उस दिन मैंने खीर पूड़ी बनायी थी। बापू जी जब हमारे घर आये तो मैंने उन्हें वही भिक्षा के रूप में अर्पण की थी।

बापू जी ने पूछाः “क्या नाम है बेटी ?”

मैने नाम बताया, फिर बोलेः “साँईं लीलाशाह जी बापू के आश्रम में सत्संग होता है, तू जाती है वहाँ ?”

“नहीं महाराज !”

“जाया कर।”

बापू जी ने सत्संग का समय भी बताया कि सुबह-सुबह होता है। उनकी पावन व हितकारी वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दूसरे दिन तो जो काम मुझे 8 बजे करना था वह सारा 6 बजे ही निपटाकर मैं सत्संग शुरु होने के 15 मिनट पहले ही पहुँच गयी।

वहाँ जा के देखा तो क्या माहौल था ! सब लोग एकदम शांत बैठे थे। बापूजी ने शिवजी की तरह ध्यानस्थ थे और लोग उन्हें देख-देख के ध्यान कर रहे थे।

फिर सत्संग हुआ, किसी ने श्री योगवासिष्ठ महारामायण पढ़ा, बापू जी ने उस पर व्याख्या की। बापू जी वेदांत के ऊपर ही सत्संग करते थे। ऐसा रोज होता था। फिर तो मुझे भक्ति, साधना का ऐसा रंग लगा कि वर्णन करने को शब्द नहीं हैं। श्री योगवासिष्ठ के श्रवण का चस्का लगा कि अगर मैं योगवासिष्ठ नहीं सुनूँ तो नींद ही न आये। वर्षभर में कभी बापू जी एक महीने के लिए हिमालय चले जाते थे। जब भी बापू हिमालय जाते तो मुझे बड़ा रोना आता था कि ‘अब मुझे योगवासिष्ठ कौन सुनायेगा ? मैं तो एकदम अनपढ़ हूँ।’

एक बार बापू जी लौटे तो मैंने बोलाः “बापू जी ! आप तो चले जाते हैं और मुझे योगवासिष्ठ सुनने को नहीं मिलता और दूसरा कोई सुनाने वाला है नहीं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे पढ़ना आ जाये।”

बापू जी प्रसन्न होकर बोलेः “क्या बात है ! तू पढ़ेगी ?”

“जी, बापू जी !”

पूज्य श्री बोलेः “स्लेट और चाक ले के आ।”

मैं लेकर गयी तो बापू जी ने 4 अक्षर लिख के दिये और बोलेः “जब तू ये बिना देखे लिखना सीख जायेगी तो तुझे पढ़ना आ जायेगा।

मैं अभ्यास करती रही। ब्रह्मवाक्य सत्य सिद्ध हुए। जब मैं उऩ अक्षरों को बिना देखे लिखना सीख गयी तो मुझे पढ़ना आ गया। आज मैं योगवासिष्ठ पढ़ती हूँ और हिन्दी व गुजराती – दोनों भाषाएँ पढ़ लेती हूँ।”

आश्चर्य की बात तो यह है कि जब उन बहन जी से पूछा गया कि “वे 4 अक्षर वर्णमाला के कौन-से अक्षर थे ?” तो उन्होंने बताया कि “वे अक्षर – अ आ इ ई…. (पूरी वर्णमाला) में से कुछ थे ही नहीं, वे अलग ही अक्षर थे। मैं जब से पढ़ना सीखी तब से वे अक्षर भूल गयी।”

जैसे शिवजी द्वारा प्राप्त 14 सूत्रों से पाणिनी मुनि ने संस्कृत का व्याकरण रचा था, ठीक वैसे ही बापू जी ने 4 अक्षरों से पूरी वर्णमाला सिखा दी और एक अनपढ़ को श्री योगवासिष्ठ महारामायण जैसे वेदांत के गूढ़ ग्रंथ का जानकार बना दिया।

बापू जी ने ऐसा ध्यान सिखाया…

मिश्री बहन आगे बताती है कि “मैं रोज बापू जी का सत्संग सुनती और बस, मुझे केवल ध्यान करने की इच्छा होती थी। एक दिन मैं ध्यान करने बैठी तो मेरे ध्यान में समस्त देवी-देवता तथा इन्द्रदेव आये बोलेः “चलिए हमारे स्वर्ग में, हम आपको लेने आये हैं।” मैंने कहाः “मुझे तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु पूज्य बापू जी मिल गये हैं, मेरे तो वे ही सब कुछ हैं। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हें मुबारक हो, हमको नहीं चाहिए।” इतना सुनकर इन्द्रदेव आशीर्वाद देकर चले गये।”

वे बहन जी कहती हैं कि “पूज्य बापू जी ने मुझे आज्ञा दी थी कि “हर गुरुवार को यहाँ (डीसा में) बहनों-बहनों को बुलाकर सत्संग करना।” एक दिन मैं पूज्य श्री के दर्शन करने अहमदाबाद गयी तो मैंने बापू जी से प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आपकी आज्ञा है कि ‘तू हर गुरुवार को सत्संग करेगी।’ पर यहाँ कोई आता ही नहीं है।”

बापू जीः “अगर कोई नहीं आता है तो मेरी तस्वीर रख के सत्संग कर।”

उन्होंने गुरु आज्ञा मानी तो आज वे अनपढ़ बहन अन्य बहनों को योगवासिष्ठ की व्याख्या सुना रही हूँ। यह गरुकृपा का ही चमत्कार है। धन्य हैं गुरुदेव, जिन्होंने 4 अक्षरों में भाषा का पूरा ज्ञान कराया, साथ में परमात्माप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर किया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 294

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ