1703 ईस्वी में अलवर शहर से 8 कि.मी. के अंतर पर डेहरा गाँव में एक दिव्य आत्मा का अपतरण हुआ, नाम रखा गया – रणजीत। संसाररूपी रण को सचमुच जीतने वाला वह होनहार बालक रणजीत हीरा था। उनके चित्त में विवेक जगता कि खाना-पीना, रहना-सोना, मिलना-जुलना, आखिर बूढ़े होना और मर जाना… बस, इसके लिए मनुष्य जीवन नहीं मिला। मनुष्य जीवन किसी ऊँची अनुभूति के लिए मिला है। अब सद्गुरु तो थे नहीं उनके, फिर भी वे सुना-सुनाया राम-राम रटते थे। इससे पाँच वर्ष की उम्र में उनकी ऐसी मति-गति हो गयी कि मन में भगवत्प्रेम और बुद्धि में भगवत्प्रकाश छाने लगा।
एक दिन जब वे रामनाम कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी-तपस्वी वेदव्यासनंदन शुकदेव जी ने उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया। इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। छः वर्ष की उम्र में उनकी पढ़ाई शुरु करवा दी गयी। मुल्ला-मौलवियों ने बहुत प्रयास किया लेकिन बालक रणजीत उन मुल्ला-मौलवियों और पढ़ाने वाले उस्तादों के सामने देखता रहे, कुछ पढ़े ही नहीं। उस्तादों ने खूब समझाया, बदले में उन्होंने उनको एक ही बात सुनायी-
आल जाल तू कहा पढ़ावे।
कृष्णनाम लिख क्यों न सिखावे।
जो सबको कर्षित-आकर्षित, आनंदित करता है, सबका अंतरात्मा होकर बैठा है उस परमात्मा का नाम आप मुझे क्यों नहीं पढ़ाते ?
जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।
तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।
जो भगवान की भक्ति पढ़ा सकते हो तो मुझे बुलाना, नहीं तो यह आल-जाल मेरे को मत पढ़ाओ। जोर मारने वाले थक गये।
आठ वर्ष की उम्र मं इनके पिता मुरलीधर अचानक लापता हो गये, फिर उनका पता न चल सका। माता कुंजी देवी पतिपरायणा थीं। उनके चित्त को बहुत क्षोभ हुआ। ये आठ वर्ष के बाल माँ को ढाढस बँधाते कि ‘मैया ! यह सब पति-पत्नी, लेना-देना – यह संसार का खिलवाड़ है, आत्मा अमर है।’ वे उस रामस्वरूप परमात्मा की भक्ति की बात करते।
पति एवं सास-ससुर के चले जाने के बाद कुंजी देवी के लिए डेहरा में रहना असहनीय हो गया। जिससे वे पति के चाचा से अनुमति लेकर बालक रणजीत के साथ दिल्ली अपने मायके चली गयीं। दिल्ली जाते समय वे रास्ते में ‘कोट कासिम’ में बालक रणजीत के पिता की बुआ के घर पर रुके।
बालक रणजीत को देखकर बुआ जी बड़ी प्रसन्न हुई और बालक के स्नेहपाश में ऐसी बँध गयीं की कुंजी देवी को समझाकर रणजीत को अपने घर रख लिया। थोड़े दिन वहाँ रहने के बाद बालक अपनी माँ के पास दिल्ली आ गया।
यहाँ भी मुल्ला-मौलवी और फारसी तथा संस्कृत के विद्वानों को रखा गया कि बालक कुछ पढ़ ले। परंतु बालक रणजीत ने तो ऐसी विश्रांति पढ़ी थी और भगवान के नाम में ऐसे रत रहते थे कि सारी पढ़ाइयाँ जहाँ से सीखी जाती हैं, उस परम पद में अनजाने में ध्यानस्थ हो जाते थे। एक दिन रणजीत ने कहाः
हमें आज से पढ़ना नाँहीं।
जिकर न होय फिकर के माँहीं।।
यह सुनकर मुल्ला-मौलवी हैरत में आ गये।
सुनि मुल्ला हैरत में आया।
इस लड़के पर रब की छाया।।
बहुत प्रयत्न करने के बाद आखिर मुल्ला-मौलवियों को कहना पड़ा कि “इस पर तो अल्लाह की, रब की छाया है। अल्लाह के सिवाय इसको कोई सार नहीं लगता। यह सारों के सार में आनंदति है, सारों के सार में सुखी है, सारों के सार में संतुष्ट है। यह तो भगवान की पढ़ाई के बिना की और सारी पढ़ाई झूठी है, झूठी माया में फँसाने वाली है।” – ऐसी बात कहता है। हमारे दिल को भी इस बालक की बात सुनकर इसके दीदार करके बड़ा आराम मिलता है।”
इस प्रकार 12 वर्ष की उम्र हुई। ज्ञान, ध्यान और प्रभुप्रेम की प्रसादी से उनकी निर्णयशक्ति और सूझबूझ तो ऐसी निखरी कि दिखने में तो 12 वर्ष का बालक लेकिन बड़े-बड़े विद्वान उनको देखकर नतमस्तक हो जाते थे !
रणजीत की आँखों से कभी तो भगवान की बात करते-करते आँसुओं की धारा बहे, कभी वे उनके प्रेम में, प्रेम समाधि में शांत हो जायें। इस प्रकार उनकी 16 से 19 वर्ष की उम्र भगवद् विरह, भगवच्चर्चा और एकांत मौन में बीती। अंदर में होता कि ‘जब तक गुरु नहीं तब तक पूर्ण गति नहीं है।’ तो सदगुरु के लिए तड़प पैदा हुई कि ‘ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे साकार रूप में सद्गुरु प्राप्त होंगे ?’
ऐसी बिरह अगिन तन लागी।
गई भूख अरु निद्रा भागी।।
सतगुरु कू ढूंढन ही लागे।
ढूंढे विरक्त तपसी नागे।।
अब भोजन रुचे नहीं और नींद आये नहीं। कभी साधु-संतों को देखें तो उनसे मिलने जायें। 19 वर्ष की उम्र हुई। ढूँढते-ढूँढते आखिर वह पावन दिन आया। मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के पास गंगा-यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीसा नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंगें उठीं कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है।
देखते-ही-देखते दिल खो गया।
जिसको खोजता था उसी का हो गया।।
वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। रणजीत ने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सद्गुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका पारमार्थिक नाम श्याम चरनदास रख दिया। गुरु और शिष्य के बीच दीक्षा-शिक्षा पाँच प्रहर चली। शुकदेव जी महाराज उनको विभिन्न उपासनाएँ, विभिन्न दृष्टियाँ बताते रहे। अंत में विरक्त शुकदेव जी महाराज ने कहाः “अब तुम दिल्ली में दादा जी के पास जाओ, वहीं अभ्यास करो।” संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, मेरे तेरे के वातावरण में यह एक दिन भी रहना नहीं चाहता था। अपनी भावनाओं को दबाकर सदगुरु की आज्ञा मान के वे दिल्ली के लिए चल तो दिये परंतु उनकी दशा बहुत दयनीय थी। वे गुरु के वियोग में हर क्षण रोते रहते।
एक रात ध्यान में दर्शन देकर विरक्त शिरोमणि शुकदेव जी ने कहा कि “हम तो अरण्यों में कभी कहीं, कभी कहीं विचरण करते हैं। शरीर से तो हम तुमको साथ में नहीं रख सकते लेकिन आत्मभाव से मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। जब तुम तीव्रता से याद करोगे तो मैं तुम्हें दर्शन देने को प्रकट हो जाऊँगा।”
कहा कि जब जब ध्यान करैहो।
ऐसे ही तुम दर्शन पैहो।।
अरु हम तुम कभू जुदे जु नाही।
तुम मों में मैं तुम्हरे मांही।।
शुकदेव जी महाराज की यह उदारताभरी आशीष पाकर रणजीत को थोड़ा संतोष हुआ। दिल्ली में एक जगह पसंद करके गुफा बना के वे धारणा-ध्यान करने लगे और पाँच-पाँच, सात-सात प्रहर ध्यानमग्न रहने लगे।
वे एक प्रहर लोगों के बीच सत्संग की सुवास फैलाते। दिल्ली की भिन्न-भिन्न जगहों में उन्होंने अपने भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों द्वारा लोक-जागृति की। इस प्रकार कुछ वर्ष बीते और इन महापुरुष के चित्त की शांति से त्रिकाल ज्ञान प्रकट होने लगा। वे बार-बार कहते थे कि “मैं तो बुरे-से-बुरा था पर मेरे सद्गुरु शुकदेव जी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।
किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।
गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।
वाणी उनकी ऐसी थी कि-
पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार।
मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार(गाली)।
मात सूँ हरि सौ गुना, जिन से सौ गुरुदेव।
प्यार करैं औगुन हरैं, चरनदास सुकदेव।।
पिता से माता सौ गुना अधिक बच्चे को प्यार करती है। मन से उसको चाहते हुए भी उसकी भलाई के लिए बाहर से डाँटती है, ऐसे ही माता से भी दस हजार गुना अधिक प्यार देने वाले सद्गुरु मन से तो स्नेह करते हैं और बाहर से डाँटते हैं। इसलिए हे साधक ! उनकी डाँट तेरा हित करेगी। कभी भी अपने सद्गुरु से कतराना नहीं, गुरु से दूर जाना नहीं। गुरु के प्रसाद की पावन अंतःकरण में ठहराये बिना रुकना नहीं।
हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार।
तौ भी नहीं बराबरी, बेदन कियो बिचार।।
भगवान की सेवा सौ वर्ष करे और जाग्रत सद्गुरु की सेवा केवल चार पल करे तो भी सद्गुरु की सेवा के फल की बराबरी नहीं हो सकती, ऐसा वेदों ने विचार करके कहा है।
इस प्रकार का उनका सारगर्भित उपदेश लोगों के हृदय में लोकेश्वर की प्रीति और लोकेश्वर को पाये हुए महापुरुष के ज्ञान की प्यास जगा देता था।
जैसे शुकदेव जी महाराज उस ब्रह्म-परमात्मा में एकाकार होकर निमग्न रहते थे, वैसी ही अवस्था को चरनदास जी ने पाया और चरनदास जी के कई भक्तों ने भी पाया।
गुरु की सेवा साधु जाने,
गुरु सेवा कहाँ मूढ पिछानै।
यह चरनदास महाराज की कृति है।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
तो चरनदास जी को भी गुरुकृपा का महाप्रसाद प्राप्त हुआ। मुझे भी गुरुकृपा का प्रसाद प्राप्त हुआ है वरना मेरी औकात नहीं थी कि अपने मन से इतनी ऊँचाइयों का अनुभव कर लूँ। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- “हे गुरुकृपा ! हे मातेश्वरी ! तू सदैव मेरे हृदय में निवास करना।’
गुरु सेवा परमातम दरशै,
त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।
सत्त्व रज, तम – इन तीन गुणों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन अवस्थाओं से परे चौथे परमार्थ-पद का दर्शन गुरुसेवा करा देती है। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है। उनकी शिष्या सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा कि
चरनदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 15-17 अंक 223
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