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उत्तरायण यानी आत्मसूर्य की ओर – पूज्य बापू जी


(मकर सक्रान्तिः 14 जनवरी 2013)

जिस दिन भगवान सूर्यनारायण उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करते हैं, उस दिन उत्तरायण (मकर सक्रान्ति) पर्व मनाया जाता है। इस दिन से अंधकारमयी रात्रि कम होती जाती है और प्रकाशमय दिवस बढ़ता जाता है। प्रकृति का यह परिवर्तन हमें प्रेरणा देता है कि हम भी अपना जीवन आत्म-उन्नति व परमात्मप्राप्ति की ओर अग्रसर करें। अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर आत्मज्ञानरूपी प्रकाश प्राप्त करने का यत्न करें।

उत्तरायण का ऐतिहासिक महत्त्व

उत्तरायण का पर्व प्राकृतिक नियमों से जुड़ा पर्व है। सूर्य की बारह राशियाँ मानी गयी हैं। हर महीने सूर्य के राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इसमें मुख्य दो राशियाँ बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं – एक मकर और दूसरी कर्क। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश को ʹमकर सक्रान्तिʹ बोलते हैं। देवताओं का प्रभात उत्तरायण के दिन से माना जाता है।

दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी उत्तरायण से मानी जाती है और ʹथई पोंगलʹ इस उत्सव का नाम है। पंजाब मे ʹलोहड़ी उत्सवʹ तथा सिंधी जगत में ʹतिर-मूरीʹ के नाम से इस प्राकृतिक उत्सव को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस पर्व पर एक दूसरे को तिल-गुड़ देते हुए बोलते हैं ʹतिळ-गुळ घ्या, गोड-गोड बोलाʹ अर्थात् ʹतिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।ʹ आपके स्वभाव में मिठास भर दो, चिंतन में मिठास भर दो।

सम्यक् क्रान्ति का सन्देश

क्रान्ति तो बहुत लोग करते हैं लेकिन क्रान्ति से तो तोड़फोड़ होती है। सम्यक्र सक्रान्ति….एक दूसरे को समझें। एक दूसरे का सिर फोड़ने से समाज नहीं सुधरेगा लेकिन एक दूसरे के अंदर सम्यक्र क्रान्ति, सम्यक् विचार का उदय हो कि परस्परदेवो भव। सबकी भलाई में अपनी, सबके मंगल में अपना मंगल, सबकी उन्नति में अपनी उन्नति। सम्यक्र क्रान्ति कहती है कि आपको ठीक से सबकी भलाई वाली उन्नति करनी चाहिए।

उत्तरायण पर्व कैसे मनायें ?

इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन लगाना, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल सेवन तथा तिल दान – ये सभी पापशामक और पुण्यदायी प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ ऐसे दिन होते हैं, कुछ ऐसी घड़ियाँ होती हैं, कुछ ऐसे पर्व होते हैं जिन पर शुभ कर्मों की विशेषता मानी जाती है। कुछ समय होता है जिस समय विशिष्ट चीज का ज्यादा महत्त्व होता है। जैसे सूर्योदय से पहले पानी पीते हैं तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायी है और खूब भूख लगती है तब पानी पीते हैं तो वह विष हो जाता है। ऐसे ही पर्वों का अपने-आपमें महत्त्व है।

उत्तरायण के दिन से शुभ कर्म विशेष रूप से शुरु किये जाते हैं। आज के दिन दिया हुआ अर्घ्य, किया हुआ होम-हवन, जप-ध्यान और दान-पुण्य विशेष फलदायी माना जाता है। उत्तरायण पर्व पर दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन कोई रूपया-पैसा दान करता है, कोई तिल-गुड़ दान करता है। आज के दिन लोगों को सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। परंतु मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने को ही भगवान के चरणों में दान कर डालो।

सूर्य स्नान का महत्त्व

सूर्य की मीठी किरणों में स्नान करो और सिर को ढँक के ज्यादा गर्म न लगें ऐसी किरणों में लेट जाओ। लेटे-लेटे सूर्य-स्नान विशेष फायदा करता है, अगर और अधिक फायदा चाहिए तो पतला-सा काला कम्बल ओढ़कर भी सूर्य की किरणें ले  सकते हैं। सारे शरीर को सूर्य की किरणें मिलें जिससे आपके अंगों में अगर रंगों की कमी हो, वात-पित्त की अव्यवस्था हो तो ठीक हो जाय। सूर्य-स्नान करने से प्रकट और छुपे रोग भी मिटते हैं। अतः सूर्य स्नान करना चाहिए। सूर्य स्नान करने के लिए पहले एक गिलास गुनगुना पानी पी लो और सूर्य स्नान करने के बाद ठंडे पानी से नहा लो तो ज्यादा फायदा होगा। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बाहर से सूर्य-स्नान ठीक है लेकिन मन और मति को ठीक करने के लिए भगवान के नाम का जप जरूरी है।

सूर्योपासना का शुभ दिन

उत्तरायण के दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने अथवा तिल-चावलमिश्रित जल से अर्घ्य देने का भी विधान है। आदित्य देव की उपासना करते समय सूर्यगायत्री मंत्र का जप करके अगर ताँबे के लोटे से जल चढ़ाते हैं और चढ़ा हुआ जल धरती पर गिरा, वहाँ की मिट्टी लेकर तिलक लगाते हैं तथा लोटे में बचाकर रखा हुआ जल महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए पीते हैं तो आरोग्य की खूब रक्षा होती है।

उत्तरायण के दिन सूर्यनारायण का मानसिक रूप से ध्यान करके मन-ही-मन उनसे आयु-आरोग्य के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। इस दिन की प्रार्थना विशेष फलदायी होती है। सूर्य का ध्यान करने से बुद्धिशक्ति और ʹस्वʹ भावशक्ति का विकास होता है। मैं आपको यह सलाह देता हूँ कि सुबह-सुबह सूर्य का दर्शन कर लीजिये और आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें तो लाभ होगा।

उत्तरायण का परम संदेश

सात्त्विक भोजन, सात्त्विक संग और सात्त्विक विचार करके अपने जीवन को भीष्म पितामह की नाईं उस परब्रह्म परमात्मा के साथ तदाकार करने के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, इस बात को कभी न भूलें। उत्तरायण को भी पचा लें, जीवन को भी पचा लें और मौत को पचाकर अमर हो लें इसीलिए तुम्हारी जिंदगी है।

सूर्य आज करवट लेकर अंधकार का पक्ष छोड़कर प्रकाश की तरफ चलता है, दक्षिणायन छोड़कर उत्तरायण की ओर चलता है। ऐसे ʹतू-तेरा, मैं-मेराʹ की दक्षिणायन वृत्ति छोड़कर ʹतूʹ और ʹमैंʹ में जो छुपा है उस परमेश्वर के रास्ते चलने का आज फिर विशेष दृढ़ संकल्प करो, यह मेरा लालच है और प्रार्थना भी है। दक्षिणायन की तरफ सूर्य था तब था, फिर 6 महीने के बाद जायेगा। यह बाहर का सूर्य तो दक्षिण और उत्तर हो रहा है लेकिन तुम्हारा आत्मसूर्य तो महाराज ! इस सूर्य को भी सत्ता देता है। ऐसे सूर्यों के भी सूर्य – ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः परमुच्यते का आप अनुसंधान करें यही उत्तरायण के दिन का संदेशा है। इस संदेश को मान लें, जान लें तो कितना अच्छा होगा ! उत्तरायण पर्व की आप सबको खूब-खूब बधाइयाँ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 241

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भक्ति, कर्म और ज्ञान गंगा की अदभुत त्रिवेणीः प्रयाग कुम्भ


(प्रयाग कुम्भः 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक)

कुम्भ एवं उसका गरिमामय इतिहास भारतीय संस्कृति की विरासत का गौरवभरा, वैभवशाली प्रतीक है। कुम्भ पर्व के चार तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु भक्त आकर एक साथ पूरे देश की समन्वित संस्कृति, विश्वबंधुत्व की सदभावना और जनसामान्य की अपार आस्था का दर्शन कराते हैं। कुम्भ पर्व भारतीय संस्कृति की जीवंतता का प्रमाण है।

कुम्भ पर्व का इतिहास

इस संबंध में कथा आती है कि समुद्र-मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई। जिसमें अंत में अमृत-कलश लेकर भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। देव-असुर दोनों की अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। असुरों से अमृत की रक्षा के लिए इन्द्रपुत्र जयंत कलश को लेकर वहाँ से चल दिये। वह युद्ध 12 दिनों तक चला। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष हो जाते हैं। सूर्य, चन्द्र, गुरु एवं शनि ने अमृत-कलश की रक्षा में सहयोग दिया। इन बारह वर्षों में बारह जगहों पर कलश रखने से अमृत की कुछ बूँदें उन स्थानों पर छलकीं। उनमें से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं और चार स्थान पृथ्वी पर हैं – प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार। इन चार में से प्रत्येक स्थान में 12-12 वर्ष के अंतराल पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। प्रयाग और हरिद्वार में होने वाले प्रत्येक कुम्भ के बाद 6 वर्ष के अंतराल पर वहाँ अर्धकुम्भ का भी आयोजन होता है।

कुम्भ का वैज्ञानिक महत्त्व

सौर-मंडल के विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों में प्रवेश करने से बना खगोलीय संयोग इस पर्व का आधार है। जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में हों और बृहस्पति मेष अथवा वृषभ राशि में स्थित हों तब प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। इन दिनों यहाँ का वातावरण दिव्य, अदभुत तरंगों व स्पंदनों से भर जाता है, जो यहाँ के जल पर भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जिससे पतितपावनी गंगा की धारा और भी पावन हो जाती है, जिसमें स्नान करने से श्रद्धालुओं को विशेष शांति व प्रसन्नता की अनुभूति होती है।

भागीरथी गंगा के जल में कभी कीड़ें नहीं पड़ते हैं। यह माँ गंगा की अदभुत महिमा है, जो भारतीय संस्कृति की महानता का दर्शन कराती हैं। इसे औषधि माना गया है। वैज्ञानिकों ने भी प्रयोगों द्वारा इस बात को स्वीकारा है। उनके अनुसार गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा अत्यधिक होने और इसमें कुछ विशिष्ट जीवाणुओं के मौजूद होने से यह अत्यधिक विशिष्ट है। गंगाजल में हानिकारक जीवाणु नहीं पड़ते और मिलाये भी जाते हैं तो गंगाजल में उन्हें दूर करने की अदभुत क्षमता है जो कि अन्य नदियों के जल में नहीं पायी जाती है।

कुम्भ पर्व पर शाही स्नान

मकर सक्रांति से प्रारम्भ होने वाले प्रयाग कुम्भ में हर दिन गंगास्नान पवित्र माना जाता है फिर भी कुछ दिवसों पर विशेष स्नान होते हैं। इसके अलावा कुछ शाही स्नान होते हैं, जिसमें भारत के विभिन्न अखाड़ों के साधु संतों की विशाल शोभायात्राएँ निकलती हैं।

प्रयागराज की महिमा

ʹपद्म पुराणʹ महादेव जी कहते हैं- “नारद ! जहाँ गंगा, जमुना और सरस्वती इन तीनों नदियों का संगम है, वही तीर्थप्रवर प्रयाग है। यह सब देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इसके समान तीर्थ तीनों लोकों न कोई हुआ है, न होगा। विद्वन ! जो प्रातःकाल प्रयाग में स्नान करता है, वह महान पाप से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य प्रयाग में स्नान करता है, वह धनवान और दीर्घजीवी होता है। माघ मास में प्रयाग-स्नान करने से प्राप्त पुण्यफल की गणना नहीं हो सकती।

ʹअग्नि पुराणʹ में वसिष्ठजी कहते हैं- “प्रयाग में गंगा और यमुना के संगम पर किये हुए दान, श्राद्ध और जप आदि का फल अक्षय होता है। प्रयाग में साठ करोड़ दस हजार तीर्थों का निवास है।”

इस त्रिवेणी का आध्यात्मिक रहस्य बताते हुए जंगम तीर्थ ब्रह्मज्ञानी संत पूज्य बापू जी कहते हैं- “गंगाजी ज्ञान का प्रतीक हैं, यमुना जी भक्ति का और सरस्वती जी विद्या का – इस त्रिवेणी में भी गोता लगाना चाहिए। बाहर की त्रिवेणी में तो शरीर नहायेगा और अंदर की त्रिवेणी में जब सत्संगी नहायें, तब मिलेगा मोक्ष का द्वार !”

कुम्भ-परम्परा कायम क्यों ?

पाप-ताप के शमन हेतुः कुम्भ के अवसर पर ग्रहों के संयोग से उस स्थान की नदियों का जल और अधिक पावन हो जाता है, जिसमें स्नान मनुष्य के पाप-ताप के शमन करने में सहायक होता है।

वास्तविक उद्देश्य की यात्रा कराने हेतुः मानव को अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति में सहायभूत होने के उद्देश्य से हजारों वर्षों से संतों ने, ऋषियों ने इस परम्परा को कायम रखा है। कुम्भ में एक ओर जहाँ जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि सभी प्रकार के भक्त आते हैं, वहीं दूसरी ओर सिद्ध, साधु, तपस्वी, जती-जोगी आदि न जाने किन-किन गिरि-गुफाओं से कुम्भ में पहुँचते हैं। उनमें से कोई-कोई विरले जीवन्मुक्त महापुरुष भी होते हैं, जो इन कुम्भों में पहुँचकर तीर्थों को तीर्थत्व प्रदान करते हैं। परम सौभाग्य, पुण्याई तथा ईश्वर की विशेष अनुकम्पा उदय होती है तो कुम्भ के अवसर पर पूज्य बापू जी जैसे जीवन्मुक्त ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन व सत्संग का लाभ मिलता है और श्रद्धालु उनसे सब दुःखों से पार होने की युक्तियाँ पा लेते हैं।

स्वयं तीर्थों के पावन होने हेतुः

ʹअग्नि पुराणʹ में वसिष्ठ जी कहते हैं- “गंगा तीर्थ से निकली मिट्टी धारण करने वाला मानव सूर्य के समान पापों का नाशक होता है। जो मानव गंगा का दर्शन, स्पर्श और जलपान करता है, वह अपनी सैंकड़ों-हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर देता है।”

ऐसी गंगा माता से जब राजा भगीरथ ने स्वर्ग से धरती पर आने की प्रार्थना की तब गंगा जी ने कहाः “भगीरथ ! लोग ʹगंगे हरʹ कहकर मुझमें स्नान करेंगे और अपने पाप मुझमें डाल जायेंगे। फिर उस पाप को मैं कहाँ धोऊँगी ?”

भगीरथ परब्रह्म परमात्मा में कुछ देर शांत हो गये, बोलेः “हे माँ ! लोग ʹगंगे हरʹ कहकर तुझमें स्नान करेंगे और पाप डालेंगे, जिससे तुम दूषित तो होओगी किंतु जब आत्मतीर्थ में नहाये हुए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष तुममें स्नान करेंगे तो उनके अंगस्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट हो जायेंगे और तुम पवित्र हो जाओगी।” अतः जब ऐसे कुम्भों में ब्रह्मज्ञानी महापुरुष गंगास्नान करने आते हैं तो पतितपावनी गंगा स्वयं को पावन करने का सौभाग्य प्राप्त कर तृप्त होती हैं।

कुम्भ का आध्यात्मिकीकरण

कुम्भ का आधिभौतिक लाभ तो कुम्भ में आयी भक्तों की भीड़ को वहाँ के पवित्र, सात्त्विक वातावरण से मिल जाता है। आधिदैविक लाभ भी गंगा माँ के जल में श्रद्धा भक्ति से स्नान करने से मिल जाता है परंतु कुम्भ का आध्यात्मिक लाभ क्या है ? वह कैसे प्राप्त हो ? ऩ प्रश्नों के उत्तर तो किन्हीं आत्मवेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में बैठकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

आत्मवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ संत पूज्य बापू जी कुम्भ के आध्यात्मिकीकरण की यात्रा कराते हुए कहते हैं- ʹतन, मन व मति के दोषों की निवृत्ति के लिए तीर्थ और कुम्भ पर्व है। अमृत की प्राप्ति के लिए होने वाला देवासुर संग्राम हमारे भीतर भी हो रहा है। संत तुलसीदासजी कहते हैं- ʹवेद समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता है जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं। उस अमृत में भक्ति और सत्संग रूपी मधुरता बसी रहती है।ʹ

कुमति के विचार ही असुर हैं। विवेक ही मथनी है और प्राण-अपान ही वासुकि नागरूपी रस्सी हैं। संसार ही सागर है। दैवी और आसुरी वृत्तियों को विवेकरूपी मंदराचल का सहयोग लेकर मंथन करते-करते अपने चित्तरूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्था का नाम है ʹकुम्भ पर्वʹ। वे लोग सच में बड़भागी हैं जिन्हें अपने मूल अमृत-स्वभाव आत्मा की ओर ले जाने वाला वातावरण और सत्संग मिल पाता है। शरीर मरेगा कि तुम मरोगे ? बीमारी शरीर को होती है कि तुमको होती है ? दुःख मन में होता है कि तुममें होता है ? दुःख आता है चला जाता है, तुम चले जाते हो क्या ? बीमारी आती है चली जाती है, तुम चले जाते हो क्या ? इस प्रकार का आत्मज्ञान और उसको पाने की युक्तियाँ सबको सहज में मिल जाय, इसीलिए कुम्भ का पर्व है।

कुम्भ में संत महात्माओं का सत्संग सान्निध्य मिलता है। उसका हेतु है कि हमारा मन अपनी जन्म-जन्मांतरों की वासनाओं का अंत करके भगवत्सुख में, भगवदशांति में सराबोर होकर भगवत्प्रसाद पाने को तैयार हो और मतिदाता में  विश्रांति पाये।”

इस तरह मनुष्य के सर्वांगीण विकास की दूरदृष्टि रखने वाले भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा सदियों से कुम्भ-परम्परा की सुरक्षा की गयी है। जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि इस अवसर पर मनुष्य किन्हीं ब्रह्मज्ञानी संत की शरण में पहुँचकर जीवन के वास्तविक अमृत ʹआत्मानंदʹ की पावन गंगा में भी गोता लगा ले।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 13,14,15 अंक 241

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पौष्टिक व बल-बुद्धिवर्धक तिल


तिल बलप्रदायक, बुद्धि व वीर्यवर्धक, जठराग्नि-प्रदीपक, वातशामक व कफ-पित्त प्रकोपक हैं। काले, सफेद और लाल तिलों में काले तिल श्रेष्ठ हैं। 100 ग्राम तिलों में 1450 मि.ग्रा. इतनी प्रचंड मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है। जिससे ये अस्थि, संधि (जोड़ों), केश व दाँतों को मजबूत बनाते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार सभी तेलों में तिल का तेल श्रेष्ठ है, यह उत्तम वायुशामक है। अपनी स्निग्धता, तरलता और उष्णता के कारण शरीर के सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर यह दोषों को जड़ से उखाड़ने तथा शरीर के सभी अवयवों को दृढ़ व मुलायम रखने का कार्य करता है। टूटी हुई हड्डियों व स्नायुओं को जोड़ने में मदद करता है। कृश शरीर में मेद बढ़ाता है व स्थूल शरीर से मेट घटाता है।  तिल के तेल की मालिश करके सूर्यस्नान करने से त्वचा मुलायम व चमकदार होती है, त्वचा में ढीलापन, झुर्रियाँ तथा अकाल वार्धक्य नहीं आता।

तिल के औषधीय प्रयोग

रसायन-प्रयोग

अष्टांग संग्रहकार श्री वाग्भट्टाचार्यजी के अनुसार 15 से 25 ग्राम काले तिल सुबह चबा-चबाकर खाने व ऊपर से शीतल जल पीने से सम्पूर्ण शरीर-विशेषतः हड्डियाँ, दाँत, संधियाँ व बाल मजबूत बनते हैं

बलवर्धक प्रयोगः

सफेद तिल भिगोकर, पीसकर, छान के उसका दूध बना लें। 50 से 100 ग्राम इस दूध में 25 से 50 ग्राम पुराना गुड़ मिलाकर नियमित लेने व 12 सूर्य नमस्कार करने से शरीर बलवान होता है।

तिल सेंककर गुड़ व घी मिला के लड्डू बना लें। एक लड्डू सुबह चबाचबाकर खाने से मस्तिष्क व शरीर की दुर्बलता दूर होती है।

एक-एक चम्मच तिल व घी गर्म पानी के साथ रोज दो या तीन बार खाने से पुराने आँव, कब्ज व बवासीर में राहत मिलती है।

तिल-सेवन की मात्राः 10 से 25 ग्राम।

विशेष जानकारीः तिल की ऊपरी सतह पर पाया जाने वाला ʹऑक्जेलिक एसिडʹ कैल्शियम के अवशोषण में बाधा उत्पन्न करता है। इसलिए तिलों को पानी में भिगोकर, हाथों से मसल के ऊपरी आवरण उतार के उपयोग करना अधिक लाभदायी है।

सावधानियाँ- उष्ण प्रकृति के व्यक्ति, गर्भिणी स्त्रियाँ तिल का सेवन अल्प मात्रा में करें। अधिक मासिक-स्राव व पित्त-विकारों में तिल नहीं खायें।

तिल, तिल के पदार्थ तथा तेल का उपयोग रात को नहीं करना चाहिए।

तिल के तेल का अधिक सेवन नेत्रों के लिए हानिकारक है।

सरल घरेलु उपचार

अच्छी नींद लाने तथा खर्राटे बंद करने के लिएः रात को गाय का घी हलका-सा गरम करके 1 से 4 बूँदें दोनों नथुनों में डालें।

उच्च-रक्तचाप में- रात को गुनगुने पानी में 5 से 15 ग्राम मेथीदाना भिगा दें, सुबह छान के पानी पी लें। गाजर, सेब, केला, अमरूद, अनार, पालक आदि खायें तथा कच्ची दूधी (लौकी) का 15 से 25 मि.ली. रस पियें।

दमा में- आधा ग्राम दालचीनी का चूर्ण शहद या गुड़ के साथ दिन में 1 या 2 बार लें। लगातार तीन महीने तक लेने से लाभ होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 31, अंक 241

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