भक्ति, कर्म और ज्ञान गंगा की अदभुत त्रिवेणीः प्रयाग कुम्भ

भक्ति, कर्म और ज्ञान गंगा की अदभुत त्रिवेणीः प्रयाग कुम्भ


(प्रयाग कुम्भः 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक)

कुम्भ एवं उसका गरिमामय इतिहास भारतीय संस्कृति की विरासत का गौरवभरा, वैभवशाली प्रतीक है। कुम्भ पर्व के चार तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु भक्त आकर एक साथ पूरे देश की समन्वित संस्कृति, विश्वबंधुत्व की सदभावना और जनसामान्य की अपार आस्था का दर्शन कराते हैं। कुम्भ पर्व भारतीय संस्कृति की जीवंतता का प्रमाण है।

कुम्भ पर्व का इतिहास

इस संबंध में कथा आती है कि समुद्र-मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई। जिसमें अंत में अमृत-कलश लेकर भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। देव-असुर दोनों की अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। असुरों से अमृत की रक्षा के लिए इन्द्रपुत्र जयंत कलश को लेकर वहाँ से चल दिये। वह युद्ध 12 दिनों तक चला। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष हो जाते हैं। सूर्य, चन्द्र, गुरु एवं शनि ने अमृत-कलश की रक्षा में सहयोग दिया। इन बारह वर्षों में बारह जगहों पर कलश रखने से अमृत की कुछ बूँदें उन स्थानों पर छलकीं। उनमें से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं और चार स्थान पृथ्वी पर हैं – प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार। इन चार में से प्रत्येक स्थान में 12-12 वर्ष के अंतराल पर कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। प्रयाग और हरिद्वार में होने वाले प्रत्येक कुम्भ के बाद 6 वर्ष के अंतराल पर वहाँ अर्धकुम्भ का भी आयोजन होता है।

कुम्भ का वैज्ञानिक महत्त्व

सौर-मंडल के विशिष्ट ग्रहों के विशेष राशियों में प्रवेश करने से बना खगोलीय संयोग इस पर्व का आधार है। जब सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में हों और बृहस्पति मेष अथवा वृषभ राशि में स्थित हों तब प्रयाग में कुम्भ महापर्व का योग बनता है। इन दिनों यहाँ का वातावरण दिव्य, अदभुत तरंगों व स्पंदनों से भर जाता है, जो यहाँ के जल पर भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जिससे पतितपावनी गंगा की धारा और भी पावन हो जाती है, जिसमें स्नान करने से श्रद्धालुओं को विशेष शांति व प्रसन्नता की अनुभूति होती है।

भागीरथी गंगा के जल में कभी कीड़ें नहीं पड़ते हैं। यह माँ गंगा की अदभुत महिमा है, जो भारतीय संस्कृति की महानता का दर्शन कराती हैं। इसे औषधि माना गया है। वैज्ञानिकों ने भी प्रयोगों द्वारा इस बात को स्वीकारा है। उनके अनुसार गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा अत्यधिक होने और इसमें कुछ विशिष्ट जीवाणुओं के मौजूद होने से यह अत्यधिक विशिष्ट है। गंगाजल में हानिकारक जीवाणु नहीं पड़ते और मिलाये भी जाते हैं तो गंगाजल में उन्हें दूर करने की अदभुत क्षमता है जो कि अन्य नदियों के जल में नहीं पायी जाती है।

कुम्भ पर्व पर शाही स्नान

मकर सक्रांति से प्रारम्भ होने वाले प्रयाग कुम्भ में हर दिन गंगास्नान पवित्र माना जाता है फिर भी कुछ दिवसों पर विशेष स्नान होते हैं। इसके अलावा कुछ शाही स्नान होते हैं, जिसमें भारत के विभिन्न अखाड़ों के साधु संतों की विशाल शोभायात्राएँ निकलती हैं।

प्रयागराज की महिमा

ʹपद्म पुराणʹ महादेव जी कहते हैं- “नारद ! जहाँ गंगा, जमुना और सरस्वती इन तीनों नदियों का संगम है, वही तीर्थप्रवर प्रयाग है। यह सब देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इसके समान तीर्थ तीनों लोकों न कोई हुआ है, न होगा। विद्वन ! जो प्रातःकाल प्रयाग में स्नान करता है, वह महान पाप से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य प्रयाग में स्नान करता है, वह धनवान और दीर्घजीवी होता है। माघ मास में प्रयाग-स्नान करने से प्राप्त पुण्यफल की गणना नहीं हो सकती।

ʹअग्नि पुराणʹ में वसिष्ठजी कहते हैं- “प्रयाग में गंगा और यमुना के संगम पर किये हुए दान, श्राद्ध और जप आदि का फल अक्षय होता है। प्रयाग में साठ करोड़ दस हजार तीर्थों का निवास है।”

इस त्रिवेणी का आध्यात्मिक रहस्य बताते हुए जंगम तीर्थ ब्रह्मज्ञानी संत पूज्य बापू जी कहते हैं- “गंगाजी ज्ञान का प्रतीक हैं, यमुना जी भक्ति का और सरस्वती जी विद्या का – इस त्रिवेणी में भी गोता लगाना चाहिए। बाहर की त्रिवेणी में तो शरीर नहायेगा और अंदर की त्रिवेणी में जब सत्संगी नहायें, तब मिलेगा मोक्ष का द्वार !”

कुम्भ-परम्परा कायम क्यों ?

पाप-ताप के शमन हेतुः कुम्भ के अवसर पर ग्रहों के संयोग से उस स्थान की नदियों का जल और अधिक पावन हो जाता है, जिसमें स्नान मनुष्य के पाप-ताप के शमन करने में सहायक होता है।

वास्तविक उद्देश्य की यात्रा कराने हेतुः मानव को अपने परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति में सहायभूत होने के उद्देश्य से हजारों वर्षों से संतों ने, ऋषियों ने इस परम्परा को कायम रखा है। कुम्भ में एक ओर जहाँ जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि सभी प्रकार के भक्त आते हैं, वहीं दूसरी ओर सिद्ध, साधु, तपस्वी, जती-जोगी आदि न जाने किन-किन गिरि-गुफाओं से कुम्भ में पहुँचते हैं। उनमें से कोई-कोई विरले जीवन्मुक्त महापुरुष भी होते हैं, जो इन कुम्भों में पहुँचकर तीर्थों को तीर्थत्व प्रदान करते हैं। परम सौभाग्य, पुण्याई तथा ईश्वर की विशेष अनुकम्पा उदय होती है तो कुम्भ के अवसर पर पूज्य बापू जी जैसे जीवन्मुक्त ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के दर्शन व सत्संग का लाभ मिलता है और श्रद्धालु उनसे सब दुःखों से पार होने की युक्तियाँ पा लेते हैं।

स्वयं तीर्थों के पावन होने हेतुः

ʹअग्नि पुराणʹ में वसिष्ठ जी कहते हैं- “गंगा तीर्थ से निकली मिट्टी धारण करने वाला मानव सूर्य के समान पापों का नाशक होता है। जो मानव गंगा का दर्शन, स्पर्श और जलपान करता है, वह अपनी सैंकड़ों-हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर देता है।”

ऐसी गंगा माता से जब राजा भगीरथ ने स्वर्ग से धरती पर आने की प्रार्थना की तब गंगा जी ने कहाः “भगीरथ ! लोग ʹगंगे हरʹ कहकर मुझमें स्नान करेंगे और अपने पाप मुझमें डाल जायेंगे। फिर उस पाप को मैं कहाँ धोऊँगी ?”

भगीरथ परब्रह्म परमात्मा में कुछ देर शांत हो गये, बोलेः “हे माँ ! लोग ʹगंगे हरʹ कहकर तुझमें स्नान करेंगे और पाप डालेंगे, जिससे तुम दूषित तो होओगी किंतु जब आत्मतीर्थ में नहाये हुए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष तुममें स्नान करेंगे तो उनके अंगस्पर्श से तुम्हारे पाप नष्ट हो जायेंगे और तुम पवित्र हो जाओगी।” अतः जब ऐसे कुम्भों में ब्रह्मज्ञानी महापुरुष गंगास्नान करने आते हैं तो पतितपावनी गंगा स्वयं को पावन करने का सौभाग्य प्राप्त कर तृप्त होती हैं।

कुम्भ का आध्यात्मिकीकरण

कुम्भ का आधिभौतिक लाभ तो कुम्भ में आयी भक्तों की भीड़ को वहाँ के पवित्र, सात्त्विक वातावरण से मिल जाता है। आधिदैविक लाभ भी गंगा माँ के जल में श्रद्धा भक्ति से स्नान करने से मिल जाता है परंतु कुम्भ का आध्यात्मिक लाभ क्या है ? वह कैसे प्राप्त हो ? ऩ प्रश्नों के उत्तर तो किन्हीं आत्मवेत्ता महापुरुष के श्रीचरणों में बैठकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

आत्मवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ संत पूज्य बापू जी कुम्भ के आध्यात्मिकीकरण की यात्रा कराते हुए कहते हैं- ʹतन, मन व मति के दोषों की निवृत्ति के लिए तीर्थ और कुम्भ पर्व है। अमृत की प्राप्ति के लिए होने वाला देवासुर संग्राम हमारे भीतर भी हो रहा है। संत तुलसीदासजी कहते हैं- ʹवेद समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता है जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं। उस अमृत में भक्ति और सत्संग रूपी मधुरता बसी रहती है।ʹ

कुमति के विचार ही असुर हैं। विवेक ही मथनी है और प्राण-अपान ही वासुकि नागरूपी रस्सी हैं। संसार ही सागर है। दैवी और आसुरी वृत्तियों को विवेकरूपी मंदराचल का सहयोग लेकर मंथन करते-करते अपने चित्तरूपी सागर से चैतन्य का अमृत खोजने की व्यवस्था का नाम है ʹकुम्भ पर्वʹ। वे लोग सच में बड़भागी हैं जिन्हें अपने मूल अमृत-स्वभाव आत्मा की ओर ले जाने वाला वातावरण और सत्संग मिल पाता है। शरीर मरेगा कि तुम मरोगे ? बीमारी शरीर को होती है कि तुमको होती है ? दुःख मन में होता है कि तुममें होता है ? दुःख आता है चला जाता है, तुम चले जाते हो क्या ? बीमारी आती है चली जाती है, तुम चले जाते हो क्या ? इस प्रकार का आत्मज्ञान और उसको पाने की युक्तियाँ सबको सहज में मिल जाय, इसीलिए कुम्भ का पर्व है।

कुम्भ में संत महात्माओं का सत्संग सान्निध्य मिलता है। उसका हेतु है कि हमारा मन अपनी जन्म-जन्मांतरों की वासनाओं का अंत करके भगवत्सुख में, भगवदशांति में सराबोर होकर भगवत्प्रसाद पाने को तैयार हो और मतिदाता में  विश्रांति पाये।”

इस तरह मनुष्य के सर्वांगीण विकास की दूरदृष्टि रखने वाले भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा सदियों से कुम्भ-परम्परा की सुरक्षा की गयी है। जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि इस अवसर पर मनुष्य किन्हीं ब्रह्मज्ञानी संत की शरण में पहुँचकर जीवन के वास्तविक अमृत ʹआत्मानंदʹ की पावन गंगा में भी गोता लगा ले।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 13,14,15 अंक 241

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