Monthly Archives: September 2009

आदर तथा अनादर….


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

दुर्लभो मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः ।

तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ।।

‘मनुष्य देह मिलना दुर्लभ है । वह मिल जाय फिर भी वह क्षणभंगुर है । ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है ।’

यह शरीर, जो पहले नहीं था और मरने के बाद नहीं रहेगा, उसी के मान-सम्मान में अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर जीवन व्यर्थ में खो देना बुद्धिमानी नहीं है । जहाँ जरा सा आदर मिला वहाँ चक्कर काटते हैं । उद्घाटन समारोहों में फीता काटते फिरते हैं कि मान मिलेगा, अख़बार में नाम आयेगा । अरे ! उन फीता काटने वालों को ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के पास जाना चाहिए और फीता काटने का शौक कम करना चाहिए । मस्का पालिश करने वाले दस-बीस-पचास आदमी तुम्हारा जयघोष कर देंगे, लाख आदमी जयघोष कर देंगे तो क्या हो जायेगा ? अधिक वाहवाही के गुलाम हो जाओगे तो अनर्थ कर लोगे, चापलूसों के चक्कर में आकर अन्य कर बैठोगे ।

नहीं-नहीं, आदर करवा के अपने शरीर में अहं मत लाओ और अनादर के भय से अपनी साधना और ईश्वरप्राप्ति का मार्ग मत छोड़ो । ये सब धोखा देने वाले हैं, इनसे सावधान हो जाओ ! आदर हो गया, अनादर हो गया, स्तुति हो गयी, निंदा हो गयी….  कोई बात नहीं, हम तो करोड़ काम छोड़कर प्रभु को पायेंगे । बस, फिर तो प्रभु तुम्हारे हृदय में प्रकट होने का इंतजार करेंगे । पहले तो तुम्हारा शोक और चिंता मिटेगी, फरियाद मिटेगी फिर धीरे-धीरे अंदर प्रकाश होगा, कई रहस्य प्रकट होने लगेंगे ।

लोग ईश्वरप्राप्ति के लिए वेश बदल लेते हैं लेकिन मान मिलता है तो फिर मान के ऐसे आदी हो जाते हैं कि देखते रहते हैं कि कहीं हमारे मान में कमी तो नहीं हुई !… तो मान के गुलाम हुए तो काहे की समझदारी रही ?

मान पुड़ी है जहर की, खाये तो मर जाय ।

चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख  पाय ।।

आदर तथा अनादर, वचन बुरे क्यों भले ।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले ।।

मान चाहने वाला भगवान का भक्त नहीं रहता, वह तो मान का भक्त हो जाता है । लोग मान दें साधु के नाते, भगवान के नाते लेकिन आप अमानी रहो, आप मान-अपमान के भोगी नहीं बनो । क्या करना है मान पाके, सहज में जीवन जियो ।

‘ईश्वर मान-मरतबा, इज्जत-आबरू बनाये रखे…. मेरी इज्जत बनी रहे….’ अरे, पानी की बूँद से तो तेरी यात्रा शुरु हुई थी बुद्धू ! और मुठ्ठी भर राख में तू समाप्त हो जायेगा । साधु संन्यासी है तो गाड़ देंगे, जीवाणु बन जायेंगे, जंतु बन जायेंगे, जला देंगे तो राख बन जायेगी । क्यों अभिमान करना ? न साधुताई का अभिमान, न सेठपने का अभिमान, न नेतापने का अभिमान, न धनी होने का अभिमान करो, अगर अभिमान करना ही है तो एक ही अभिमान करो जो तारने वाला हैः ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं । मैं भगवान की जाति का हूँ । हम हैं अपने-आप हर परिस्थिति के बाप !’ यह अभिमान तारने वाला है । शरीर का नाम, इज्जत-आबरू ये सब फँसाने वाले हैं ।

मत कर रे भाया गरव गुमान गुलाबी रंग उड़ी जावेलो ।

उड़ी जावेलो रे, फीको पड़ी जावेलो रे, काले मर जावेलो…

धन रे दौलत धारा माल खजाना रे…

छोड़ी जावेलो रे पलमां उड़ी जावेलो ।।

पाछो नहीं आवेलो… मत कर रे गरव….

‘यह धन मेरा, मैं धनवान ।’ धन को पता ही नहीं कि मैं इसका हूँ । ‘यह मकान मेरा, मैं मकानवाला’, ‘यह खेत मेरा, मैं खेतवाला’, ‘यह पैसा मेरा, मैं पैसेवाला’, ‘ये गहने गाँठे मेरे, मैं गहने गाँठोंवाली’ लेकिन माई ! देवि ! ये इतने बेवफा हैं कि तेरे को पहचानते ही नहीं हैं । इनको कोई उठाकर ले जाय तो बोलेंगे भी नहीं कि ‘मौसी हम जा रहे हैं । बाय-बाय ! टाटा !….’ कुछ नहीं करेंगे । ये बड़े बेवफा हैं । इनकी चिंता या चिंतन करके फँस मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है । तुम्हारा जन्म तो महान परमात्मा का ज्ञान पाकर महान बनने के लिए हुआ है । उस लक्ष्य को अगर पाना है, महान बनना है, अपने स्वरूप को जानना है तो

आदर तथा अनादर, वचन बुरे क्यों भले ।

निंदा स्तुति जगत की, धर जूते के तले ।।

खुशामदखोर स्तुति करके तुमसे गलत न करवा लें अथवा कोई अखबारें पैसा दबाकर तुम्हारी निंदा लिख दें तो डरो मत । अंग्रेजों के पिट्ठू गाँधी जी की कितनी निंदा करते थे, फिर भी गाँधी जी डटे रहे । देशवासी गाँधी जी की सराहना करते थे, फिर भी वे अभिमान में कभी चूर नहीं हुए । स्तुति करने वाले की अपनी सज्जनता है, भगवान की लीला है, निंदा करने वाले का अपना नजरिया है !  न निंदा में सिकुड़ो न स्तुति  फूलो, भगवान को सामने रखो, अपने लक्ष्य को सामने रखो ।

जिनको काम बनवाना होगा वे तो स्तुति कर लेंगे, खुशामद कर लेंगे, आप उनके प्रलोभन में न आइये, सावधान रहिये, अपना कर्तव्य करते जाइये । इससे आप स्तुति के योग्य रह जायेंगे । स्तुति में फिसले तो स्तुति नहीं टिकेगी ।

निंदा से भिड़े तो निंदा बनी रहेगी, निंदनीय काम किये तो निंदा बनी रहेगी लेकिन सत्य के आपके हृदय में जगमग-जगमग प्रकाशित होगा । फिर आपकी कोई निंदा करे तो आपको परवाह नहीं, उसकी मति कुदरत मार देगी । कई लोग पैसे देकर अखबारों में क्या-का-क्या लिखवाते हैं, अपने पैसे नष्ट करते हैं और अपनी आबरू भी गँवाते हैं । मेरे सत्संग में तो लोगों की संख्या बढ़ रही है । भीड़ कम भी हो जाय तो मेरे को क्या लेना है उससे !

तो आप निंदनीय कार्य नहीं करते फिर भी कोई निंदा करता है और आप अपनी महिमा में मस्त रहते हैं तो निंदा करने वाले को भगवान सद्बुद्धि देंगे । अगर सद्बुद्धि ली तो ठीक है, नहीं तो फिर प्रकृति की खूब मार पड़ती है, प्रकृति घुमा-घुमाकर प्रहार करती है ।

एक आदमी था । वह जरा बोलाः ‘यह ऐसा क्या है ?’ फिर थोड़ा और जोरों से निंदा करने लगा । फिर प्रकृति ने ऐसा घुमा-घुमाकर दिया कि दुर्घटना में लँगड़ा हो गया । फिर उसे कुछ स्वप्न आया, अब तो वह समिति में सेवा करता है बेचारा । तो आप अपनी तरफ से किसी का  अहित नहीं सोचो, किसी की निंदा न करो । आप भगवान के लिए सत्कर्म में लगे रहो तो बाकी सब भगवान देख लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 201

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उन्नति चाहो तो विनम्र बनो


अनेक विद्यालयों के सूचना-पट्ट पर ये शास्त्रवचन लिखे होते हैं –

विद्या ददाति विनयम् । विद्या विनयेन शोभते ।

अर्थात् विद्या विनय प्रदान करती है और वह विनय से ही शोभित होती है ।

वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति जीवनरूपी पाठशाला का एक विद्यार्थी ही है और वह सतत इस पाठशाला में कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को इस शास्त्रवचन का आदर करना चाहिए और वह वास्तविक विद्या प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए जो विनय प्रदान करे और जीवन में अर्जित ज्ञान को सुशोभित करे ।

अहंकारी व्यक्ति कितना भी विद्यावान हो, वह शोभा नहीं पाता । इसलिए वेद भी हमें आज्ञा करते हैं- पर्णाल्लघीयसी भव । ‘हे मानव पत्ते से भी हलका बन अर्थात् नम्र बन ।’ (अथर्ववेदः 10.1.29)

हमारा सबका अनुभव है कि जो नम्र बनता है, वह सभी का प्यारा हो जाता है क्योंकि नम्रता एक ऐसा सद्गुण है जो अन्य अनेक सद्गुणों और सम्पदाओं को शींच लाता है ।

शास्त्र कहते हैं-

सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्रः प्राणिहिते रतः ।

निम्नं यथापः प्रवणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ।।

‘हे मनुष्य ! तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन क्योंकि जैसे नीचे भूमि की ओर लुढ़कता हुआ जल अपने-आप ही पात्र में आ जाता है, वैसे ही सत्पात्र, विनम्र मनुष्य के पास सम्पत्तियाँ स्वयं आ जाती हैं ।’ (विष्णु पुराणः 1.11.15)

जीवन में कोई ऊँची विद्या न हो तो भी पेट पालने की विद्या तो हर व्यक्ति के पास होती ही है । फिर ‘विद्या ददाति विनयम् ।’ सूक्ति के अनुसार विश्व के सभी लोग विनयी होने चाहिए । परंतु देखा यह जाता है कि विनय का सद्गुण बहुत ही विरलों के पास होता है । फिर क्या यह शास्त्रवचन गलत है ? नहीं । शास्त्रकार यहाँ विद्या शब्द के द्वारा आत्मविद्या की ओर संकेत करना चाहते हैं, जो हमारे तुच्छ अहं को दूर करने में सक्षम है । इसलिए हमें उसे पाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए । भगवान श्रीकृष्ण ‘गीता’ में अर्जुन को आत्मविद्या का उपदेश दे रहे हैं और इन्हीं उपदेशों में विनम्र बनने का उपदेश भी आता है-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।

‘उस ज्ञान को तू  तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भली भाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।’ (गीताः 4.34)

भारतवर्ष के सम्राट राजा भर्तृहरि ने जब आत्मविद्या को पूर्णरूप से आत्मसात किया और आत्मानंद में निमग्न हुए, तब उन्होंने लिखाः

जब स्वच्छ सत्संग कीन्हों, तभी कछु कछु चीह्नयो

जब स्वच्छ सत्संग किया, तभी कुछ-कुछ जाना । क्या जाना ?

मूढ़ जान्यो आपको, हर्यो भरम ताप को ।।

मुझ बेवकूफ को पता ही नहीं था कि मैं बड़ा बेवकूफ था । अब भ्रम और ताप को मैंने मिटा दिया है ।

आत्मविद्या कितनी निरहंकारिता, कितनी विनम्रता प्रदान करती है !

वैसे तो सेल्समैनों में, वेटरों में बड़ी विनम्रता दिखती है परंतु वह ऊपर-ऊपर की है, अंदर से हृदय स्वार्थभाव से सना रहता है । वह विनम्रता भी अच्छी है परंतु सरल, निष्कपट, वास्तविक विनम्रता तो सीधे-अनसीधे अध्यात्म-विद्या का ही प्रसाद है ।

एक बार गाँधी जी एक स्थान पर वक्तव्य देने गये । वे अपने सादे वेश में थे । लोगों ने उन्हें सब्जी काटने व पानी लाने की आज्ञा दी । उन्होंने मुस्कराते हुए इन कार्यों को सम्पन्न किया ।

किसी की विनम्रता का प्रकटरूप देखना हो तो उसे पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के दर्शन करने चाहिए । वे अपने सत्संग-कार्यक्रम के अंतिम सत्र में हाथ जोड़कर कहा करते हैं- “सत्संग में जो अच्छा-अच्छा आपको सुनने को मिला वह तो मेरे गुरुदेव, शास्त्रों का, महापुरुषों का प्रसाद था और कहीं कुछ खारा-खट्टा आ गया हो तो उसे मेरी ओर से आया मानकर क्षमा करना ।” आत्मविद्या के सागर पूज्यश्री की यह परम विनम्रता देखकर सत्संगियों की आँखों से अश्रुधाराएँ बरसने लगती हैं ।

समुद्र में अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं परंतु वह शांत रहता है, उसमें बाढ़ नहीं आती । आप भी गंभीर और नम्र बनो । विद्या, धन, वैभव, उच्च पदवी, मान और सम्मान पाकर फूल मत जाओ, अपनी मर्यादा से बाहर मत हो जाओ । जो वृक्ष फलों से लद जाता है वह झुक जाता है, ऐसे ही जो व्यक्ति सच्ची विद्या को पा लेता है वह विनम्र हो जाता है । जो गागर नल के नीचे झुकने को तैयार हो जाती है वही जल से पूर्ण हो जाती है । जो व्यक्ति विनम्रभाव से आत्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग में बैठता है वही ज्ञानसम्पन्न हो जाता है । विनम्रता से विद्या मिलती है और विद्या से पुनः विनम्रता पोषित होती है, यह नियम है । जो विनम्र है उसे न किसी से भय होता है और न पतन की चिंता । जो विनम्र है उसका सर्वत्र आदर होता है । जो अभिमानी होता है उसका सर्वत्र तिरस्कार होता है । जिसके पेट में अभिमान की हवा भरी हुई है, उसको फुटबाल की तरह ठोकरें खानी ही पड़ती हैं । विनम्र व्यक्ति लोगों से आदर-सत्कार पाता है ।

नम्रता मानव-जीवन का भूषण है । नम्रता से मनुष्य के गुण सुवासित और सुशोभित हो उठते हैं । नम्रता विद्वान की विद्वता में, धनवान के धन में, बलवान के बल मे और सुरूप के रूप में और चार चाँद लगा देती है । सच्चा बड़प्पन और सभ्यता भी नम्रता में ही है । हम किसी को छोटा न समझें ।

यजुर्वेद (18.75) में आता हैः

उत्तानहस्ता नमसोपसद्य ।

जब दूसरों से मिलें तो दोनों हाथ उठाकर नमस्ते करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 201

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परमात्मस्वरूप सद्गुरु


अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट

(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

शिष्य यदि मनमुख रहा और मन के कहने में ही चलता रहा तो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता । उसको गुरुमुख होना ही पड़ेगा लेकिन गुरु भी ऐसे वैसे नहीं होने चाहिए । गुरु भी समर्थ होने चाहिए, जो उसको साधना में श्रेष्ठ मार्ग से आगे बढ़ा सकें । शिष्य की प्रकृति यदि ज्ञानमार्ग की है और गुरु उसको कुण्डलिनी योग ही कराते हैं या शिष्य की प्रकृति कुण्डलिनी योग की है और गुरु उसको  ज्ञानयोग में ही घसीटते रहें तो इससे शिष्य का उत्थान नहीं हो पायेगा । इसीलिए कहा है कि गुरु श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ हों और शिष्य में संसार की विषय वासना भोगने की कामना न हो, ईश्वरप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो काम तुरंत बन जाता है ।

जो लोगों की निंदा-प्रशंसा-विरोध की परवाह नहीं करता, वही साधक-शिष्य इस रास्ते पर चल सकता है । अन्य लोग तो रास्ते में ही रुक जाते हैं । बिना अपने अहं को मिटाये तुम आत्मानंद का रसपान नहीं कर सकते । संसार के क्षणिक तुच्छ रस कुछ बनने पर मिल जाते होंगे, यह संभव है परंतु आत्मानंद का रस तो मिटने से ही मिलता है । संसार के रिश्ते और संबंध सदैव रहने वाले नहीं है । ये सब शरीर के ही संबंध है किंतु क्या हम शरीर हैं ? यदि हम शरीर नहीं तो और क्या हैं ? क्या हम मन या बुद्धि हैं ? न हम शरीर हैं, न मन हैं और न बुद्धि हैं तो फिर हम कौन हैं, क्या हैं ? – ये सब साधक की साधना के मौलिक प्रश्न हैं । इनको यदि हल करना है और अपने-आपको जानकर सुख-दुःख, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, संशय, द्वन्द्व, कामादिक विकारों से परे आत्मिक आनंद का अधिकारी बनना है तो इन सांसारिक संबंधों में अधिक नहीं उलझऩा । जीवन के लिए जितना लौकिक व्यवहार आवश्यक है, उतना व्यवहार करते हुए अपनी साधना को निर्विघ्न अपनी-अपनी जगह पर आगे बढ़ाते जाना बहुत जरूरी है । दस शब्द बोलने हैं तो छः में निपटाओ ।

जब साधक दृढ़ निश्चय के साथ अपने साधना पथ पर चल पड़ता है तो विघ्न भी अपने स्थान से चल पड़ते हैं साधक को भुलावा देने के लिए, उसे साधना-पथ से डिगाने के लिए । यहीं पर साधक को सचेत रहने की आवश्यकता है । इस समय ऐसे लोगों से बचें, ऐसे वातावरण से बचें तथा आकर्षणों से बचें जो कि प्रत्यक्ष या परोक्ष पतन की ओर ले जा सकते हैं क्योंकि अभी साधना का बीज अंकुर ही बना है, अभी छोटा पौधा ही बन पाया है, अभी पेड़ नहीं बना है । सदगुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा का धागा बड़ा महीन और नाजुक होता है । उसे सम्हालो, कहीं वह टूट न जाय ।

श्रद्धा सदैव एक जैसी नहीं रहती । वह कटती-पिटती-टूटती रहती है । श्रद्धा को सम्हालो, वह बहुत मूल्यवान है । वही तुम्हें नर से नारायण बनाने वाली है । उसी के सहारे तुममें परमात्मा का आनंद प्रकटने वाला है । जरा चूके कि फिसलते चले जाओगे क्योंकि फिसलने वाले बहुत हैं । पानी ढलान में बहना जानता है लेकिन उसको ऊपर चढ़ाने में बल की जरूरत होती है । साधक को ऊपर चढ़ना है । इसलिए साधक को बहुत सँभल-सँभलकर चलना होगा । जैसे – गर्भिणी स्त्री सँभल-सँभलकर कदम रखती है । स्त्री के उदर से तो नश्वर शरीर का जन्म होगा परंतु साधक को तो अपने हृदय में शाश्वत परमात्मा का अनुभव पाना है ।

कई बार साधक की कसौटियाँ होंगी । गुरु उसे ठोक-बजाकर, तपा-तपाकर आगे बढ़ायेंगे । प्रभु से मिलन यह कोई जैसी-तैसी बात तो है नहीं । यह वह बात है कि जिसके आगे कोई बात नहीं है । यह वह प्राप्ति है, जिसके आगे और कुछ करना-कोई कर्तव्य शेष ही नहीं बचता । यह वह पद है जिसके आगे कोई पद नहीं है ।

साधक को गीली मिट्टी जैसे बनना पड़ेगा । कुम्हार जैसे मिट्टी को रौंदता, कूटता, पीटता थपेड़े मारता हुआ घड़ा बनाता है, उसे आग में तपाकर पक्का करता है, वैसे ही गुरु साथ भी करेंगे । यदि वह (साधक) मिट्टी नहीं बना, गुरु आज्ञा में नहीं चला, उसने मनमानी की, प्रतिकार किया, यदि वह उनकी चोटों से घबरा गया, यदि वह हिम्मत हार गया तो…..! फिर वही संसार का नश्वर जीवन, वही जन्म-मृत्यु का चक्कर, वही सदियों पुराना सुख-दुःख का रोग, जिसको छोड़कर वह अमर पद की ओर बढ़ रहा था, उसे अपना लेने के लिए, उसे ग्रस लेने के लिए तैयार खड़ा है । तुम्हारे सामने दोनों विकल्प हैं या तो साधना के मार्ग पर डटकर चलते रहो और अपने आनंदमय आत्मपद को प्राप्त कर लो अथवा उसी नश्वर सुख की भ्रांतिवाले और दुःखों से भरे विषयी संसार में फिर से फँस जाओ । अब चुनाव तुमको करना है । संसार का मजा भी बिना सजा के नहीं मिलता । जड़ चीजों का सुख भी परिश्रम माँगता है । जो भी मजा चाहते हो उसकी सजा या तो पहले भुगत लो या बाद में । साधक को कठिनाइयाँ पहले भुगतनी पड़ती हैं परंतु वे कठिनाइयाँ उसे महाआनंद की ओर ले जाती हैं । आज तक हमने संसार में जो भी मजा लिया या सुख लिया वह तो हर्ष था सुख नहीं । हर्ष तो मन का विकार है । हर्ष आता है और चला जाता है । हर्ष परम सुख नहीं है । परम सुख आता-जाता नहीं, वह तो शाश्वत है ।

बुद्धिमान साधक का लक्ष्य होना चाहिए परम सुख पाना । हमने विवेकपूर्वक परम सुख का मार्ग पकड़ा है, जो हमें नश्वर से शाश्वत की ओर ले जायेगा । यही सच्चा पथ है । बाकी सारे पथ माया में चले जाते हैं किंतु यह पथ माया से पार ले जाता है, जहाँ मान-अपमान, रोग, मोह, सुख-दुःख आदि की पहुँच नहीं है । इसी पथ पर हमें दृढ़तापूर्वक चलना है, चलते ही रहना है, बिना रुके, जब तक कि लक्ष्य की सिद्धि न हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2009, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 201

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