बच्चे ही भविष्य के स्रष्टा हैं । वे ही भावी नागरिक हैं । वे ही राष्ट्र के भाग्य-विधायक हैं । उन्हें शिक्षित करो, अनुशासित करो, उचित ढाँचे में डालो । प्रत्येक बच्चे के भीतर उत्साह व साहस है । उसे अपने को व्यक्त करने का सुअवसर प्रदान करो । उनके उत्साह, साहस को कुचलो नहीं बल्कि उचित दिशा दो । शिक्षण तथा अनुशासन की सफलता का रहस्य बच्चों की उचित शिक्षा पर निर्भर है ।
शिक्षा का उद्देश्य
छात्रों को वास्तविक जीवन से अवगत कराना ही शिक्षा का उद्देश्य है । मन का संयम, अहंकार-दमन, दिव्य गुणों का अर्जन तथा आत्मज्ञान ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है । छात्रों के शरीर तथा मन को स्वस्थ बनाना, उनमे आत्मविश्वास, नैतिकता, उत्साह एवं सच्चरित्रता की स्थापना करना – यही शिक्षा का लक्ष्य होनी चाहिए । बौद्धिक शिक्षण एवं आत्मविकास – ये दोनों साथ-साथ होने चाहिए ।
आध्यात्मिक शिक्षण के अनुसार ही सांसारिक एवं व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त होना चाहिए । मनुष्य की मानसिक तथा नैतिक उन्नति उसकी वैज्ञानिक तथा यांत्रिक उन्नति के कारण नहीं हुई है । सांसारिक सफलता द्वारा शिक्षा का माप-तौल न करो । शिक्षा में जो नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति का वास्तविक लक्ष्य है, उसका ह्रास कदापि न होना चाहिए ।
शिक्षा का लक्ष्य छात्रों के दैनिक जीवन में सादगी, सेवा तथा भक्ति के आदर्श का आरोपण करना है, जिससे वे सदाचारी एवं बलवान बनें और अपनी शिक्षा का उपयोग निर्धनों एवं विवशों के उपकार तथा देश एवं साधु-संतों की सेवा में करें । जीवन का वास्तविक मूल्यांकन न कर छात्र पदवी एवं सम्पत्ति पर ही आर्थिक ध्यान रखते हैं । मनुष्य को निर्भय, अहंकाररहित, निःस्वार्थ, निष्काम बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । आधुनिक छात्रों की शिक्षा कुछ अधिक पुस्तकीय हो गयी है । वे व्यावहारिक उपयोगी ज्ञान की अपेक्षा डिग्री-प्राप्ति के पीछे ही परेशान रहते हैं । छात्र अपने कॉलेज-जीवन में भी लक्ष्यरहित रहता है । उसका कोई निश्चित कार्यक्रम तथा लक्ष्य नहीं रहता । आत्मविकास तथा निज देश-जाति को वैभवशाली बनाने में हाथ-बँटाना ही शिक्षा का उचित अर्थ होना चाहिए ।
प्राच्य पद्धति लाने की आवश्यकता
ये ही आदर्श हैं जिनको उत्तरोत्तर अधिक उत्साह के साथ व्यावहारिक रूप में छात्र-छात्राओं के सम्मुख रखने की आवश्यकता है । शिक्षा विभाग में प्राच्य पद्धित लाने की आवश्यकता है । छात्रगण ऋषियों एवं संतों के प्रमुख संदेशवाहक बनें और उनकी ज्ञान-ज्योति से दुनिया के कोने-कोने को आलोकित कर दें ।
स्कूल तथा कॉलेजों में शुद्धता, सद्ज्ञान, सच्चरित्रता, निष्काम सेवा की भावना, भक्ति, वैराग्य आदि गुणों से विभूषित शिक्षक ही नियुक्त किये जायें । तभी शिक्षा में सुधार हो सकेगा । विज्ञान धर्मविरोधी नहीं है, उसका अंग है । विज्ञान का अतिक्रमण कर आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करो । वास्तविक विवादातीत है, उसका प्रकटीकरण एक प्रकार से जीवन में ही किया जा सकता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 19 अंक 316
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