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सूरज और चंदा क्या नहीं देख सकते ? – पूज्य बापू जी


गुरुजी ने बच्चों से पूछाः “सूरज और चंदा क्या नहीं देख सकते ? सूरज और चंदा का प्रकाश सब जगह घुस जाता है । तो ऐसी कौन-सी चीज है जो सूरज और चंदा नहीं देख सकते ?”

कुछ बच्चों ने कहाः “पाप को नहीं देख सकते ।”

गुरु जीः “देख सकते हैं ! क्योंकि बुद्धि का अधिष्ठान सूर्य-तत्त्व है । नेत्र का स्वामी सूर्य है और मन का अधिष्ठान चन्द्र है ।”

कुछ बच्चों ने कुछ उत्तर दिये किंतु उनके उत्तर से गुरु जी संतुष्ट नहीं हुए ।

एक गुरुमुख लड़का था, जिसने सारस्वत्य मंत्र लिया था और उसका रोज जप करता था । वह  बोलाः “हाँ गुरुजी ! सूरज और चंदा एक चीज नहीं देख सकते ।”

“कौन-सी ?”

“अंधकार को नहीं देख सकते ।”

“ऐ ! शाबाश है !”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 335

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कैसी हो शिक्षा ?


बच्चे ही भविष्य के स्रष्टा हैं । वे ही भावी नागरिक हैं । वे ही राष्ट्र के भाग्य-विधायक हैं । उन्हें शिक्षित करो, अनुशासित करो, उचित ढाँचे में डालो । प्रत्येक बच्चे के भीतर उत्साह व साहस है । उसे अपने को व्यक्त करने का सुअवसर प्रदान करो । उनके उत्साह, साहस को कुचलो नहीं बल्कि उचित दिशा दो । शिक्षण तथा अनुशासन की सफलता का रहस्य बच्चों की उचित शिक्षा पर निर्भर है ।

शिक्षा का उद्देश्य

छात्रों को वास्तविक जीवन से अवगत कराना ही शिक्षा का उद्देश्य है । मन का संयम, अहंकार-दमन, दिव्य गुणों का अर्जन तथा आत्मज्ञान ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है । छात्रों के शरीर तथा मन को स्वस्थ बनाना, उनमे आत्मविश्वास, नैतिकता, उत्साह एवं सच्चरित्रता की स्थापना करना – यही शिक्षा का लक्ष्य होनी चाहिए । बौद्धिक शिक्षण एवं आत्मविकास – ये दोनों साथ-साथ होने चाहिए ।

आध्यात्मिक शिक्षण के अनुसार ही सांसारिक एवं व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त होना चाहिए । मनुष्य की मानसिक तथा नैतिक उन्नति उसकी वैज्ञानिक तथा यांत्रिक उन्नति के कारण नहीं हुई है । सांसारिक सफलता द्वारा शिक्षा का माप-तौल न करो । शिक्षा में जो नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति का वास्तविक लक्ष्य है, उसका ह्रास कदापि न होना चाहिए ।

शिक्षा का लक्ष्य छात्रों के दैनिक जीवन में सादगी, सेवा तथा भक्ति के आदर्श का आरोपण करना है, जिससे वे सदाचारी एवं बलवान बनें और अपनी शिक्षा का उपयोग निर्धनों एवं विवशों के उपकार तथा देश एवं साधु-संतों की सेवा में करें । जीवन का वास्तविक मूल्यांकन न कर छात्र पदवी एवं सम्पत्ति पर ही आर्थिक ध्यान रखते हैं । मनुष्य को निर्भय, अहंकाररहित, निःस्वार्थ, निष्काम बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए । आधुनिक छात्रों की शिक्षा कुछ अधिक पुस्तकीय हो गयी है । वे व्यावहारिक उपयोगी ज्ञान की अपेक्षा डिग्री-प्राप्ति के पीछे ही परेशान रहते हैं । छात्र अपने कॉलेज-जीवन में भी लक्ष्यरहित रहता है । उसका कोई निश्चित कार्यक्रम तथा लक्ष्य नहीं रहता । आत्मविकास तथा निज देश-जाति को वैभवशाली बनाने में हाथ-बँटाना ही शिक्षा का उचित अर्थ होना चाहिए ।

प्राच्य पद्धति लाने की आवश्यकता

ये ही आदर्श हैं जिनको उत्तरोत्तर अधिक उत्साह के साथ व्यावहारिक रूप में छात्र-छात्राओं के सम्मुख रखने की आवश्यकता है । शिक्षा विभाग में प्राच्य पद्धित लाने की आवश्यकता है । छात्रगण ऋषियों एवं संतों के प्रमुख संदेशवाहक बनें और उनकी ज्ञान-ज्योति से दुनिया के कोने-कोने को आलोकित कर दें ।

स्कूल तथा कॉलेजों में शुद्धता, सद्ज्ञान, सच्चरित्रता, निष्काम सेवा की भावना, भक्ति, वैराग्य आदि गुणों से विभूषित शिक्षक ही नियुक्त किये जायें । तभी शिक्षा में सुधार हो सकेगा । विज्ञान धर्मविरोधी नहीं है, उसका अंग है । विज्ञान का अतिक्रमण कर आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करो । वास्तविक विवादातीत है, उसका प्रकटीकरण एक प्रकार से जीवन में ही किया जा सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 19 अंक 316

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असम्भव-से कार्य भी हो जाते हैं सम्भव, कैसे ?


सन् 1809 में फ्रांस में एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया लुई । एक दिन खेल-खेल में उसकी आँख में चोट लग गयी और एक आँख की रोशनी चली गयी । कुछ दिनों के बाद उसकी दूसरी आँख भी खराब हो गयी । उसका दाखिला दृष्टिहीनों के विद्यालय में करा दिया गया । वहाँ उसे कागज पर उभरे हुए कुछ अक्षरों की सहायता से पढ़ना सिखाया गया । लुई ब्रेल को इसमें अधिक समय लगा और काफी असुविधा हुई । अतः उसने निर्णय लिया कि वह एक ऐसी नयी लिपि का आविष्कार करेगा जिसके द्वारा कम परिश्रम और कम समय में हर दृष्टिहीन व्यक्ति अच्छी प्रकार से साक्षर हो सके ।

समय बीतता गया । वह कभी-कभी प्रयास करता लेकिन विफल हो जाता । वह सोचता कि ‘जीवन बहुत लम्बा है । आज नहीं तो कल मैं सफल हो जाऊँगा ।’ एक रात उसे स्वप्न दिखाई दिया कि उसकी मृत्यु हो गयी है और लोग उसे दफनाने के लिए ले जा रहे हैं । अचानक उसकी आँख खुल गयी । उसका चिंतन तुरंत सक्रिय हो गया । उसे इस बात का बहुत दुःख हुआ कि इतना समय व्यर्थ में ही चला गया । यदि इस अवधि में वह पूरी लगन से, गम्भीतापूर्वक प्रयास करता तो अब तक कोई नयी लिपि विकसित करने में सफल हो सकता था ।

उसने संकल्प किया कि ‘अब तक मैंने समय की नालियों में बहने वाले पानी की तरह व्यर्थ जाने दिया है लेकिन अब मैं एक-एक क्षण का सदुपयोग करूँगा ।’ और इसे मन ही मन दोहराकर उसने एक महीने की अवधि निश्चित की और तत्परतापूर्वक अपने कार्य में जुट गया ।

जो समय का सम्मान करता है, समय उसी को सम्मानित बना देता है । एक माह की अवधि में उसने ऐसी लिपि का विकास कर दिया जिसके द्वारा आज असंख्य नेत्रहीन लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । बाद में ब्रेल ने उस लिपि को और भी उन्नत किया । आज वह लिपि ‘ब्रेल लिपि’ के नाम से विश्वप्रसिद्ध है ।

एकाग्रता, लगन, समय का सदुपयोग और देहाध्यास भूलकर व्यापक जनहित के लिए सत्प्रयास – ये ऐसे सदगुण हैं जो ईश्वरीय सहायता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और जहाँ ईश्वरीय सहायता उपलब्ध हो जाती है वहाँ देश-काल-परिस्थिति की सुविधा असुविधा तथा शरीर, मन, बुद्धि की योग्यताओं की सीमाएँ लाँघकर असम्भव लगने वाले कार्य भी सम्भव हुए दिख पड़ते हैं । लुई ब्रेल को निष्काम सेवाभाव के साथ यदि किन्हीं वेदांतनिष्ठ सद्गुरु के द्वारा उस अनंत शक्ति-भण्डार परमात्मा के स्वरूप का कुछ पता भी मिल जाता तो शायद यह अंध लोगों के क्षेत्र में मात्र एक सामाजिक कार्यकर्ता न रहता अपितु संत  सूरदास जी की तरह अपना ज्ञान नेत्र खोलकर दूसरों के लिए भी आध्यामिक प्रकाशस्तम्भ बन सकता था ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18 अंक 314

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