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जालन्दरनाथ


कुरुवंश में एक अत्यंत प्रसिद्ध राजा जन्मेजय थे। उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा का नाम बृहद्रवा था। बृहद्रवा की रानी का सुलोचना था। वे हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। राजा बृहद्रवा ने सोमयाग करने का विचार किया। तदनुसार राजा बृहद्रवा ने एक शुभ मुहूर्त निश्चित किया। उस शुभ मुहूर्त में यज्ञ आरम्भ किया गया। चारों ओर वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूँजने लगीं, सभी नगरवासियों के हृदय में प्रसन्नता छा गयी। सोमयाग की पूर्णाहूति के बाद जब ब्राह्मण यज्ञकुंड में से भस्म निकालने लगे, तब उनके हाथ का स्पर्श होते ही भस्म के भीतर से बालक के रोने की आवाज आयी। ब्राह्मणों ने बालक को बाहर निकाला। बालक का स्वरूप अत्यंत दिव्य और परम तेजस्वी था उस बालक को देखकर सभी लोग आश्चर्य करने लगे कि अग्निकुंड की प्रज्वलित अग्नि में यह बालक कैसे जीवित रहा होगा ? एक ब्राह्मण ने राजा से कहाः “महाराज ! यज्ञकुंड से यह तेजःपुंज बालक प्रसादरूप में मिला है।” यज्ञकुंड के भीतर से निकले हुए अयोनिज जीवित बालक को ब्राह्मणों ने राजा बृहद्रवा को सौंप दिया। रानी सुलोचना ने राजा से पूछाः “यह बालक किसका है ?” राजा ने बालक को रानी की गोद में देते हुए कहाः “भगवान अग्निदेव ने हमें सोमयाग की प्रसादी के रूप में यह बालक दिया है। मीनकेत की तरह यह भी अपना पुत्र है।”

रानी सुलोचना बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने बालक को अपने हृदय से लगा लिया। पुत्रस्नेह के कारण उसी समय रानी के स्तनों से दूध की धार बहने लगी। रानी ने बालक को स्तनपान कराया।

12 दिन बाद उत्सव मनाकर बालक का नामकरण किया गया। यज्ञकुंड में अग्नि की ज्वालाओं में बालक जीवित रहा, अग्निदेव की प्रसादी के रूप में उसका जन्म हुआ, इसलिए उसका नाम जालन्दर रखा गया। उस समय राजा ने प्रसन्नचित्त से ब्राह्मणों और याचकों को खूब दान दिया।

बालक जालन्दर चंद्रमा की कलाओं की भाँति बढ़ने लगा। राजा-रानी दोनों ही उस परम तेजस्वी बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते थे और अपने भाग्य को सराहा करते थे। मीनकेत भी अपने छोटे भाई जालन्दर से बहुत प्रेम करता था। दोनों भाई प्रेमपूर्वक साथ-साथ विद्याभ्यास करते थे।

जालन्दर की वैराग्य वृत्ति दिन-प्रतिदिन अधिक बढ़ने लगी। राजसी सुख-वैभव उसे पसंद नहीं था।

राजा के मन में युवक जालन्दर का विवाह करने का विचार आया। राजा ने योग्य कन्या की तलाश करने के लिए अपने प्रधानमंत्री और राजगुरु को आज्ञा दी। आज्ञानुसार वे दोनों राजधानी हस्तिनापुर से बाहर गये।

जालन्दर धर्म-चर्चा करने के लिए प्रतिदिन राजगुरु के घर जाया करते थे, परंतु जब राजगुरु कन्या की तालाश में प्रधानमंत्री के साथ हस्तिनापुर से बाहर गये और कई दिनों तक नहीं लौटे, तब एक दिन जालन्दर ने अपनी माता रानी सुलोचना से पूछाः “मातुश्री ! राजगुरु और प्रधानमंत्री कहाँ गये हैं, आजकल वे दिखाई नहीं देते? ”

तब रानी सुलोचना ने कहाः “हे पुत्र ! तुम्हारे लिए राजा की आज्ञा से कन्या ढूँढने गये हैं ताकि तुम्हारा विवाह कराया जा सके।

जालन्दर ने पूछाः “माता ! कन्या किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “जिस लड़की का विवाह न हुआ हो, उसे कन्या कहा जाता है।”

जालन्दर ने फिर पूछाः “और विवाह किसे कहते हैं ?”

रानी ने कहाः “वर-वधू के धर्मानुसार एक सूत्र में बँधने की क्रिया को विवाह कहते हैं।”

जालन्दर ने पूछाः “वधू कैसी होती है ?”

रानी ने कहाः “वधू मेरे जैसी होती है। जैसी मैं हूँ, वैसी तेरे लिए भी दुल्हन आयेगी।” जालन्दर इन बातों से अनजान हैं रानी को यह जानकर आश्चर्य हुआ। माँ की बातें सोचते हुए जालन्दर वहाँ से उठकर तुरन्त ‘गुरु उद्यान’ में पहुँचे, वहाँ अपने मित्रों के साथ खेलते-खेलते जालन्दर ने उन्हें बताया कि मेरे माता-पिता मेरे लिए दुलहन ला रहे हैं। दुलहन किस लिए लाते हैं, मुझे पता नहीं है। अगर आप लोगों को पता हो तो मुझे बताइये।

साथियों को जालन्दर की बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अनुमान भी नहीं था कि इतना बड़ा हो जाने पर भी जालन्दर को इन बातों का जरा भी ज्ञान नहीं है।

साथियों ने जालन्दर से कहाः “दुलहन आयेगी, विवाह होगा, शहनाइयाँ बजेंगी और उत्सव मनाया जायेगा।”

जालन्दर ने पूछाः “परंतु उससे मुझे क्या लाभ होगा ?”

साथियों ने कहाः “एक सुन्दर दुलहन मिल जायेगी।”

जालन्दर ने कहाः “दुलहन का मैं क्या करूँगा ?”

साथी बोलेः “उससे संतानें होंगी। आप उनके पिता बनेंगे। इस प्रकार वंश की वृद्धि होगी।”

उसी समय जालन्दर का विवेक जागृत हुआ और सोचने लगे कि ‘यह जगत कितना अधम है ? जिस विवाह के कारण इतने झंझटों में फँसना पड़ेगा, वह कार्य मैं कभी नहीं करूँगा।’

जालन्दर इस प्रकार विचार करते हुए अपने साथियों में से उठे और दूर बैठकर सोचने लगे। माता सुलोचना के शब्दों का स्मरण होने लगा। सोचते-सोचते जालन्दर की वैराग्य-वृत्ति और भी जोर पकड़ने लगी। उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और वहाँ से उठकर सीधे वन की ओर चल पड़े।

कुछ नगरवासियों ने उन्हें नगर के बाहर जाते हुए देखा, परंतु राजकुमार है इस भय से वे कुछ बोल नहीं पाये। लेकिन जिसने भी राजकुमार को जाते हुए देखा वे सभी दौड़कर राजा के पास गये और बताया कि हमने राजकुमार जालन्दर को नगर के बाहर जाते हुए देखा है। यह सुनकर राजा चौंक गये। उन्होंने जालन्दर को ढूँढने के लिए अपने कई सेवक भेजे। राजा-रानी को बहुत चिन्ता होने लगी। दूर-दूर तक गये हुए सेवकों ने लौटकर राजा को यही बताया कि “राजकुमार नहीं मिले।”

जैसे, अमावस्या के दिन चंद्रदर्शन न होने से सब जगह अँधेरा छा जाता है, वैसे ही जालन्दर के न मिलने से राजा, रानी और प्रजाजनों के हृदय में निराशारूपी अँधेरा छा गया। राजा-रानी सोचे लगे कि अग्निदेव का प्रसादरूपी चैतन्य-रत्न हमारे हाथ से चला गया। दोनों विलाप करने लगे, राजा का एक सरदार बुद्धिशाली था। उसने राजा को एक समझाने का प्रयास करते हुए कहाः “राजन् ! जालन्दर तो अयोनिज अवतार हैं, वे ईश्वर के अंशावतार हैं। इसलिए काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। आप चिंता न करें। जब तक वे नहीं मिलते, तब तक हम उन्हें ढूँढने का प्रयास जारी रखेंगे, कभी-न-कभी तो मिल ही जायेंगे। आप धीरज रखिये….।’

आखिर दोनों को धैर्य धारण करना पड़ा। उधर जालन्दर उत्तर दिशा की ओर चलते-चलते गहन वन में जा पहुँचे। उस समय रात हो जाने के कारण वे जंगल में ही एक वृक्ष के नीचे सो गये। उसी रात को जंगल में दावानल फैल गया। वह अग्नि वन के वृक्षों को जलाती हुई उसी जगह पर आ पहुँची, जहाँ जालन्दर सो रहे थे।

जालन्दर को वहाँ सोते देखकर अग्निदेव को राजा बृहद्रवा के सोमयाग का स्मरण हुआ कि ‘यह जालन्दर तो मेरा ही पुत्र है। मैंने ही सोमयाग के समय यज्ञकुंड में गर्भ डाला था। उसी में से जालन्दर का जन्म हुआ था। यह वही मेरा पुत्र है, परंतु जालन्दर का इस अरण्य में आने का क्या कारण होगा ?’

इस प्रकार सोचते हुए अग्निदेव शांत हुए और अपने अग्निरूप को समेटकर देवरूप धारण करके जालन्दर के पास आकर उन्हें जगाया। जालन्दर ने उठते ही आश्चर्य चकित होकर पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’

अग्निदेव ने कहाः “मैं अग्निदेवता हूँ। मैं ही तुम्हारा माता-पिता हूँ।”

जालन्दर ने कहाः “मैं तो राजा बृहद्रवा का पुत्र हूँ। मेरी माता तो रानी सुलोचना है। आप मेरे माता-पिता किस प्रकार हुए ?

तब अग्निदेव ने जालन्दर क उनकी जन्म कथा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।

अग्निदेव ने पूछाः “जालन्दर इस घोर अरण्य में तुम्हारा अकेले आने का क्या कारण है ? तुम क्या चाहते हो ?”

जालन्दर ने कहाः “मैं सांसारिक बंधनों में बंधना नहीं चाहता। मैं अपने जीवन को सार्थक करना चाहता हूँ, मैं चिरंजीवी होना चाहता हूँ। आप मेरे माता-पिता हैं, अतः आप ही मेरी सहायता करें। अगर यह मानव-देह प्राप्त होने पर भी जीवन सार्थक न हुआ तो मेरा जन्म लेना भी व्यर्थ हो जायेगा। कृप्या मेरे इस जीवन को सार्थक कर दीजिये।”

अपने पुत्र जालन्दर की बातें सुनकर पिता अग्निदेव प्रसन्न हुए। वे जालन्दर को गिरनार पर्वत पर भगवान दत्तात्रेय जी के पास ले गये। पिता-पुत्र दोनों ने साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया। अग्निदेव को देखकर दत्तात्रेय जी हर्षित हुए और उन्हें आलिंगन किया।

दत्तात्रेय जी ने दोनों को आशीर्वाद देकर आसन पर बिठाया और अग्निदेव से पूछाः “यह बालक कौन है ?”

अग्निदेव ने जालन्दर के जन्म का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और नम्रतापूर्वक प्रार्थना की ‘भगवन् ! आप मेरे इस पुत्र को नाथ पंथ की दीक्षा देकर इसका जीवन सार्थक कीजिये।’

दत्तात्रेय जी ने अग्निदेवता की प्रार्थना स्वीकार की। अग्निदेव दत्तात्रेय जी के पास जालन्दर को छोड़कर वहाँ से चले गये। दत्तात्रेय जी ने जालन्दर को नाथ पंथ की दीक्षा देकर उसका नाम जालन्दरनाथ रखा। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ अन्य सभी विद्याओं में भी जालन्दर को पारंगत किया। उसके बाद गुरु-शिष्य दोनों ने साथ रहकर 12 वर्ष तक तीर्थाटन किया। तीर्थयात्रा करते-करते दत्तात्रेय जी जालन्दरनाथ को बदरिकाश्रम ले गये। वहाँ उन्हें 12 वर्ष तक तपस्या करने की आज्ञा दी। तपस्या पूरी होने के बाद वे जालन्दरनाथ को शिवजी के पास ले गये। शिवजी सहित अन्य देवताओं ने श्री जालन्दरनाथ को आशीर्वाद दिये।

शिवजी ने अग्निदेवता को बुलाकर तीन दिन तक पिता-पुत्र को अपने पास रखा और जालन्दरनाथ द्वारा कनिकानाथ का प्रागट्य करवाया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 198

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जगत क्या है ?


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में पाँच प्रकार से जगत की व्याख्या करते हुए भगवान श्रीराम कहते हैं- 1. जगत मिथ्या है। 2. जगत आत्मा में आभासरूप है। 3. जगत कल्पनामात्र है। 4. जगत अनादि अविद्या से भासता है। 5. जगत का स्वभाव परिणामी है।

जगत पहले नहीं था –  यह पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा, अब भी बदल रहा है। पहले जहाँ बीहड़ जंगल था या खाइयाँ थीं, वहाँ अब मकान बन गये हैं और जहाँ पहले मकान थे, वहाँ अब खाइयाँ हो गयी हैं। जहाँ कभी समुद्र था, वहाँ अभी इमारतें खड़ी हैं और जहाँ इमारतें थीं, वहाँ अभी समुद्र लहरा रहा है। सब सपना हो जाता है।

जगत आत्मा में आभासरूप है – अपनी आत्मा में भासता है। जैसा विचार करो वैसा ही जगत भासता है। कुत्ते को जगत अपने ढंग का दिखता है, हाथी को अपने ढंग का। बाजार में कोई भेड़ दिखे तो कसाई सोचेगा कि ’15 किलो माल (मांस) है’, चमार सोचेगा कि ‘3 या 4 फीट माल (चमड़ा) है’, और ग्वाला सोचेगा कि ‘1 किलो दूध देगी’। यदि कोई भक्त देखेगा तो सोचेगा कि ‘भगवान की सृष्टि का मूक प्राणी है’ और ज्ञानी देखेगा तो सोचेगा कि ‘इसका शरीर प्रकृति का है, परंतु इसके अंदर जो परमात्म-चेतना कार्य कर रही है, सबके अंदर भी वही चेतना है’। इस प्रकार जिसकी जैसी दृष्टि, वैसा ही उसे जगत भासता है।

तुम तो वही के वही हो, परंतु तुम्हारे प्रति जो शुभ भाव रखते हैं उन्हें तुम सज्जन लगोगे और निंदक को बेकार लगोगे। अतः जो जैसी सोच रखता है, उसे जगत वैसा ही होकर भासता है।

जगत कल्पनामात्र है – यदि कोई स्वर्ग में बैठा है और नरक की कल्पना करता है तो उसके लिए स्वर्ग भी नरकरूप हो जाता है, क्योंकि उसने नरक की कल्पना की है। अतः जिसकी जैसी मान्यता होती है, जगत वैसा ही भासता है।

जगत अनादि अविद्या से भासता है – जैसे, खरगोश के सींग और आकाश के फूल असत् होते हैं, वैसे ही जगत असत् है, परंतु असत् रूप अविद्या से सत्य होकर भासता है।

जगत का स्वभाव परिणामी है – जैसे दूध को बिना गरम किये रख दो फट जाता है अथवा जमने पर दही हो जाता है, वैसे ही पूरा जगत परिणामी है। जो बच्चा कुछ वर्ष पहले किलकारी कर रहा था, वही अब वृद्ध होकर, लकड़ी टेककर चल रहा है। वही सिपाही था जो चलते – चलते कई कीड़े मकोड़ों को पैरों तले रौंदता था, उसे पता भी नहीं चलता था। युद्धभूमि में घायल होने पर या मरने पर उसी के शरीर को गीध, कुत्ते, सियार नोचते हैं। ऐसा है जगत का परिणामी जीवन ! यही है संसार !

इस संसार को मिथ्या जानो, आभासमात्र जानो, अविद्यामय जानो, कल्पनामात्र जानो, परिणामी जानो। जो मूढ़ हैं, अल्पमति हैं, वे ही संसार को सत्य मानकर आसक्त होते हैं और फँस मरते हैं। वे संसारी होकर जन्मते-मरते रहते हैं। परंतु जो समझदार हैं, बुद्धिमान हैं, वे जगत के इन 5 लक्षणों को जानकर जगत से उपराम हो जाते हैं और अपने नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव में जग जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 9, अंक 118

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कबीरा निंदक न मिलो….


अज्ञान-अंधकार मिटाने के लिए जो अपने-आपको खर्च करते हुए प्रकाश देता है, संसार की आँधियाँ उस प्रकाश को बुझाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। टीका, टिप्पणी, निंदा, गलत चर्चाएँ और अन्यायी व्यवहार की आँधी चारों ओर से उस पर टूट पड़ते हैं। स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता आदि को भी ऐसे निंदकों का सामना करना पड़ा था। महात्मा गाँधी जी की सेवा में कुछ महिलाएँ थीं तो गाँधी जी को भी निंदकों ने अपना शिकार बनाया था।

असामाजिक तत्त्व अपने विभिन्न षड्यन्त्रों द्वारा संतों और महापुरुषों के भक्तों व सेवकों को भी गुमराह करने की कुचेष्टा करते हैं। समझदार साधक यह भक्त तो उनके षड्यंत्र-जाल में नहीं फँसते। महापुरुषों के दिव्य जीवन के प्रतिपल से परिचित उनके अनुयायी कभी भटकते नहीं, पथ से विचलित नहीं होते अपितु सश्रद्ध होकर उनके दैवी कार्यों में अत्यधिक सक्रीय व गतिशील होकर सहभागी हो  जाते हैं। परंतु जिन्होंने साधना के पथ पर अभी-अभी कदम रखे है, ऐसे नवपथिकों को गुमराह कर पथच्युत करने में दुष्टजन आंशिक रूप से अवश्य सफलता प्राप्त कर लेते हैं और इसके साथ ही आरम्भ हो जाता है – नैतिक पतन का दौर, जो संत-विरोधियों की शांति व पुण्यों को समूल नष्ट कर देता है, कालांतर में उनका सर्वनाश हो जाता है। कहा भी गया हैः

संत सतावे तीनों जावे, तेज बल और वंश।

ऐड़ा-ऐड़ा कई गया, रावण कौरव केरो कंस।।

अतः संतों के निंदकों से सावधान करते हुए संत कबीर जी कहते हैं-

कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिले हजार।

एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।

जिनका जीवन किसी संत या महापुरुष के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सान्निध्य में है, उनके जीवन में निश्चिंतता, निर्विकारिता, निर्भयता, प्रसन्नता, सरलता, समता व दयालुता के दैवी गुण साधारण मानवों की अपेक्षा अधिक होते हैं और वे ईश्वरीय शांति पाते हैं, सद्गति पाते हैं। जिनका जीवन महापुरुषों का, धर्म का सामीप्य व मार्गदर्शन पाने से कतराता है, वे प्रायः अशांत, उद्विग्न, खिन्न व दुःखी देखे जाते है व भटकते रहते हैं। इनमें से कई लोग आसुरी वृत्तियों से युक्त होकर संतों के निंदक बनकर अपना सर्वनाश कर लेते हैं। इसीलिए संत तुलसीदास जी ने लिखा है-

हरि गुरु निंदा सुनहिं जे काना, होहिं पाप गौ घात समाना।

हरि गुरु निंदक दादुर1 होई जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

  1. दादुर = मेंढक

नानक जी ने भी कहा हैः

संत का निंदक महा हतिआरा। संत का निंदकु परमेसुरि मारा।

संत के दोखी की पुजै न आसा। संत का दोखी उठि चलै निरासा।।

भारतवर्ष का इससे बढ़कर और क्या दुर्भाग्य हो सकता है कि यहाँ के निवासी अपनी ही संस्कृति के रक्षक व जीवनादर्श, ईश्वररत आत्मारामी संतों व महापुरुषों की निंदा में, उनके दैवी कार्यों में विरोध उत्पन्न करने के दुष्कर्मों में संलग्न होते जा रहे हैं। यदि यही स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब हम अपने ही हाथों से अपनी पावन परम्परा, रीति रिवाजों व आचारों को लूटते हुए देखते रह जायेंगे। क्योंकि संत संस्कृति के रक्षक, उच्चादर्शों के पोषक, रोग-शोक, अहंकार, अशांति के शामक होते हैं और जिस देश में ऐसे संतों का अभाव या अनादर होता है, इतिहास साक्षी है कि या तो वह राष्ट्र स्वयं ही मिट जाता है अथवा उसकी संस्कृति ही तहस-नहस होकर छिन्न-भिन्न हो जाती है और वहाँ के लोग बाहर से स्वाधीन होते हुए भी वास्तव में अशांति, अकाल मृत्यु, अकारण तलाक, विद्रोह और खिन्नता में खप जाते हैं।

हमारे ही देश के कुछ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में हमारे ही संतों और संस्कृति के खिलाफ अनर्गल बातें लिखी होती हैं। विदेशियों द्वारा दिये जाने वाले चंद पैसों की लालच में अपनी ही संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों के लिए क्या कहा जाय ?

वे हिन्दू धर्म के साथ साधु-संतों और देवी देवताओं के विषय में ऐसी बातें लिखते हैं कि हिंदुओं की ही श्रद्धा टूट जाये। क्योंकि विदेशी जानते हैं कि हिन्दुओं को अगर हिन्दुओं को गुलाम बनाना है तो पहले इनकी अपने ही धर्म से श्रद्धा तोड़नी पड़ेगी, क्योंकि धर्म इनका हौसला बुलंद करता है। इनकी श्रद्धा धर्म से हटने पर ही हम इन पर राज कर सकेंगे।

सदैव सज्जनों व संतों की निंदा, विरोध, छिद्रान्वेषण व भ्रामक कुप्रचार में संलग्न लेखक व पत्र-पत्रिकाएँ समझदारों की नजरों से तो गिरते ही हैं, साथ ही साथ लोगों को भ्रमित व पथभ्रष्ट करने के पाप के भागीदार भी बनते हैं। इस प्रकार के पाप का उन्हें अभी भय नहीं है, फिर भी भक्तों की बददुआएँ, समझदारों की लानत उन पर पड़ती है और देर-सवेर कुदरत का कोप उनपर होता ही है।

बड़े धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो द्वेषपूर्ण भ्रामक प्रचार की तुच्छता समझ लेते है और उन अखबारों व पत्रिकाओं की होली जला देते हैं। उनसे माफी मँगवा लेते हैं अथवा उनके लिए चूड़ियाँ ले जाते हैं और उनकी बेशर्मी का उन्हें एहसास कराते हैं। उन्हीं के कार्यालय के सामने उनके अखबारों को जलाते हैं और उनके ब्लैकमेलिंग करने के मनसूबे सफल नहीं होने देते।

कुछ दिन पहले चंडीगढ़ में योग वेदान्त सेवा समिति के भाइयों ने जमीन खरीदी। एक फुट भी सरकार से जमीन नहीं ली गयी है, सारी जमीन समिति के भाइयों ने खरीदी है। उन पर लांछन लगाकर अख़बार वाले कौनसा मनोरथ पूरा करना चाहते हैं ?

बीसों एकड़ तो क्या, अगर कोई 20 गज भी सरकार की जमीन ली है – ऐसा अख़बार वाले साबित कर दिखायें तो उन्हें लाखों रूपये इनाम दिये जायेंगे। बेबुनियादी बातें लिख देना, कहानी रच देना, बात कुछ की कुछ तोड़-मोड़ कर द्वेषपूर्ण लेख लिख देना इससे अख़बार वालो की कीमत बढ़ती नहीं, घटती है।

धनभागी हैं वे सत्शिष्य जो तितिक्षाओं को सहने के बाद भी अपने सदगुरु के ज्ञान और भारतीय संस्कृति के दिव्य प्रकाश को दूर-दूर तक फैलाकर मानव-मन पर व्याप्त अंधकार को नष्ट करते रहते हैं। ऐसे सत्शिष्यों को शास्त्रों में पृथ्वी पर के देव कहा जाता है। – सम्पादक

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 10-11, अंक 118

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