कुरुवंश में एक अत्यंत प्रसिद्ध राजा जन्मेजय थे। उनकी सातवीं पीढ़ी के राजा का नाम बृहद्रवा था। बृहद्रवा की रानी का सुलोचना था। वे हस्तिनापुर पर राज्य करते थे। राजा बृहद्रवा ने सोमयाग करने का विचार किया। तदनुसार राजा बृहद्रवा ने एक शुभ मुहूर्त निश्चित किया। उस शुभ मुहूर्त में यज्ञ आरम्भ किया गया। चारों ओर वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूँजने लगीं, सभी नगरवासियों के हृदय में प्रसन्नता छा गयी। सोमयाग की पूर्णाहूति के बाद जब ब्राह्मण यज्ञकुंड में से भस्म निकालने लगे, तब उनके हाथ का स्पर्श होते ही भस्म के भीतर से बालक के रोने की आवाज आयी। ब्राह्मणों ने बालक को बाहर निकाला। बालक का स्वरूप अत्यंत दिव्य और परम तेजस्वी था उस बालक को देखकर सभी लोग आश्चर्य करने लगे कि अग्निकुंड की प्रज्वलित अग्नि में यह बालक कैसे जीवित रहा होगा ? एक ब्राह्मण ने राजा से कहाः “महाराज ! यज्ञकुंड से यह तेजःपुंज बालक प्रसादरूप में मिला है।” यज्ञकुंड के भीतर से निकले हुए अयोनिज जीवित बालक को ब्राह्मणों ने राजा बृहद्रवा को सौंप दिया। रानी सुलोचना ने राजा से पूछाः “यह बालक किसका है ?” राजा ने बालक को रानी की गोद में देते हुए कहाः “भगवान अग्निदेव ने हमें सोमयाग की प्रसादी के रूप में यह बालक दिया है। मीनकेत की तरह यह भी अपना पुत्र है।”
रानी सुलोचना बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और उसने बालक को अपने हृदय से लगा लिया। पुत्रस्नेह के कारण उसी समय रानी के स्तनों से दूध की धार बहने लगी। रानी ने बालक को स्तनपान कराया।
12 दिन बाद उत्सव मनाकर बालक का नामकरण किया गया। यज्ञकुंड में अग्नि की ज्वालाओं में बालक जीवित रहा, अग्निदेव की प्रसादी के रूप में उसका जन्म हुआ, इसलिए उसका नाम जालन्दर रखा गया। उस समय राजा ने प्रसन्नचित्त से ब्राह्मणों और याचकों को खूब दान दिया।
बालक जालन्दर चंद्रमा की कलाओं की भाँति बढ़ने लगा। राजा-रानी दोनों ही उस परम तेजस्वी बालक को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते थे और अपने भाग्य को सराहा करते थे। मीनकेत भी अपने छोटे भाई जालन्दर से बहुत प्रेम करता था। दोनों भाई प्रेमपूर्वक साथ-साथ विद्याभ्यास करते थे।
जालन्दर की वैराग्य वृत्ति दिन-प्रतिदिन अधिक बढ़ने लगी। राजसी सुख-वैभव उसे पसंद नहीं था।
राजा के मन में युवक जालन्दर का विवाह करने का विचार आया। राजा ने योग्य कन्या की तलाश करने के लिए अपने प्रधानमंत्री और राजगुरु को आज्ञा दी। आज्ञानुसार वे दोनों राजधानी हस्तिनापुर से बाहर गये।
जालन्दर धर्म-चर्चा करने के लिए प्रतिदिन राजगुरु के घर जाया करते थे, परंतु जब राजगुरु कन्या की तालाश में प्रधानमंत्री के साथ हस्तिनापुर से बाहर गये और कई दिनों तक नहीं लौटे, तब एक दिन जालन्दर ने अपनी माता रानी सुलोचना से पूछाः “मातुश्री ! राजगुरु और प्रधानमंत्री कहाँ गये हैं, आजकल वे दिखाई नहीं देते? ”
तब रानी सुलोचना ने कहाः “हे पुत्र ! तुम्हारे लिए राजा की आज्ञा से कन्या ढूँढने गये हैं ताकि तुम्हारा विवाह कराया जा सके।
जालन्दर ने पूछाः “माता ! कन्या किसे कहते हैं ?”
रानी ने कहाः “जिस लड़की का विवाह न हुआ हो, उसे कन्या कहा जाता है।”
जालन्दर ने फिर पूछाः “और विवाह किसे कहते हैं ?”
रानी ने कहाः “वर-वधू के धर्मानुसार एक सूत्र में बँधने की क्रिया को विवाह कहते हैं।”
जालन्दर ने पूछाः “वधू कैसी होती है ?”
रानी ने कहाः “वधू मेरे जैसी होती है। जैसी मैं हूँ, वैसी तेरे लिए भी दुल्हन आयेगी।” जालन्दर इन बातों से अनजान हैं रानी को यह जानकर आश्चर्य हुआ। माँ की बातें सोचते हुए जालन्दर वहाँ से उठकर तुरन्त ‘गुरु उद्यान’ में पहुँचे, वहाँ अपने मित्रों के साथ खेलते-खेलते जालन्दर ने उन्हें बताया कि मेरे माता-पिता मेरे लिए दुलहन ला रहे हैं। दुलहन किस लिए लाते हैं, मुझे पता नहीं है। अगर आप लोगों को पता हो तो मुझे बताइये।
साथियों को जालन्दर की बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें यह अनुमान भी नहीं था कि इतना बड़ा हो जाने पर भी जालन्दर को इन बातों का जरा भी ज्ञान नहीं है।
साथियों ने जालन्दर से कहाः “दुलहन आयेगी, विवाह होगा, शहनाइयाँ बजेंगी और उत्सव मनाया जायेगा।”
जालन्दर ने पूछाः “परंतु उससे मुझे क्या लाभ होगा ?”
साथियों ने कहाः “एक सुन्दर दुलहन मिल जायेगी।”
जालन्दर ने कहाः “दुलहन का मैं क्या करूँगा ?”
साथी बोलेः “उससे संतानें होंगी। आप उनके पिता बनेंगे। इस प्रकार वंश की वृद्धि होगी।”
उसी समय जालन्दर का विवेक जागृत हुआ और सोचने लगे कि ‘यह जगत कितना अधम है ? जिस विवाह के कारण इतने झंझटों में फँसना पड़ेगा, वह कार्य मैं कभी नहीं करूँगा।’
जालन्दर इस प्रकार विचार करते हुए अपने साथियों में से उठे और दूर बैठकर सोचने लगे। माता सुलोचना के शब्दों का स्मरण होने लगा। सोचते-सोचते जालन्दर की वैराग्य-वृत्ति और भी जोर पकड़ने लगी। उन्होंने गृहत्याग का निश्चय किया और वहाँ से उठकर सीधे वन की ओर चल पड़े।
कुछ नगरवासियों ने उन्हें नगर के बाहर जाते हुए देखा, परंतु राजकुमार है इस भय से वे कुछ बोल नहीं पाये। लेकिन जिसने भी राजकुमार को जाते हुए देखा वे सभी दौड़कर राजा के पास गये और बताया कि हमने राजकुमार जालन्दर को नगर के बाहर जाते हुए देखा है। यह सुनकर राजा चौंक गये। उन्होंने जालन्दर को ढूँढने के लिए अपने कई सेवक भेजे। राजा-रानी को बहुत चिन्ता होने लगी। दूर-दूर तक गये हुए सेवकों ने लौटकर राजा को यही बताया कि “राजकुमार नहीं मिले।”
जैसे, अमावस्या के दिन चंद्रदर्शन न होने से सब जगह अँधेरा छा जाता है, वैसे ही जालन्दर के न मिलने से राजा, रानी और प्रजाजनों के हृदय में निराशारूपी अँधेरा छा गया। राजा-रानी सोचे लगे कि अग्निदेव का प्रसादरूपी चैतन्य-रत्न हमारे हाथ से चला गया। दोनों विलाप करने लगे, राजा का एक सरदार बुद्धिशाली था। उसने राजा को एक समझाने का प्रयास करते हुए कहाः “राजन् ! जालन्दर तो अयोनिज अवतार हैं, वे ईश्वर के अंशावतार हैं। इसलिए काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। आप चिंता न करें। जब तक वे नहीं मिलते, तब तक हम उन्हें ढूँढने का प्रयास जारी रखेंगे, कभी-न-कभी तो मिल ही जायेंगे। आप धीरज रखिये….।’
आखिर दोनों को धैर्य धारण करना पड़ा। उधर जालन्दर उत्तर दिशा की ओर चलते-चलते गहन वन में जा पहुँचे। उस समय रात हो जाने के कारण वे जंगल में ही एक वृक्ष के नीचे सो गये। उसी रात को जंगल में दावानल फैल गया। वह अग्नि वन के वृक्षों को जलाती हुई उसी जगह पर आ पहुँची, जहाँ जालन्दर सो रहे थे।
जालन्दर को वहाँ सोते देखकर अग्निदेव को राजा बृहद्रवा के सोमयाग का स्मरण हुआ कि ‘यह जालन्दर तो मेरा ही पुत्र है। मैंने ही सोमयाग के समय यज्ञकुंड में गर्भ डाला था। उसी में से जालन्दर का जन्म हुआ था। यह वही मेरा पुत्र है, परंतु जालन्दर का इस अरण्य में आने का क्या कारण होगा ?’
इस प्रकार सोचते हुए अग्निदेव शांत हुए और अपने अग्निरूप को समेटकर देवरूप धारण करके जालन्दर के पास आकर उन्हें जगाया। जालन्दर ने उठते ही आश्चर्य चकित होकर पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’
अग्निदेव ने कहाः “मैं अग्निदेवता हूँ। मैं ही तुम्हारा माता-पिता हूँ।”
जालन्दर ने कहाः “मैं तो राजा बृहद्रवा का पुत्र हूँ। मेरी माता तो रानी सुलोचना है। आप मेरे माता-पिता किस प्रकार हुए ?
तब अग्निदेव ने जालन्दर क उनकी जन्म कथा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया।
अग्निदेव ने पूछाः “जालन्दर इस घोर अरण्य में तुम्हारा अकेले आने का क्या कारण है ? तुम क्या चाहते हो ?”
जालन्दर ने कहाः “मैं सांसारिक बंधनों में बंधना नहीं चाहता। मैं अपने जीवन को सार्थक करना चाहता हूँ, मैं चिरंजीवी होना चाहता हूँ। आप मेरे माता-पिता हैं, अतः आप ही मेरी सहायता करें। अगर यह मानव-देह प्राप्त होने पर भी जीवन सार्थक न हुआ तो मेरा जन्म लेना भी व्यर्थ हो जायेगा। कृप्या मेरे इस जीवन को सार्थक कर दीजिये।”
अपने पुत्र जालन्दर की बातें सुनकर पिता अग्निदेव प्रसन्न हुए। वे जालन्दर को गिरनार पर्वत पर भगवान दत्तात्रेय जी के पास ले गये। पिता-पुत्र दोनों ने साष्टाँग दण्डवत प्रणाम किया। अग्निदेव को देखकर दत्तात्रेय जी हर्षित हुए और उन्हें आलिंगन किया।
दत्तात्रेय जी ने दोनों को आशीर्वाद देकर आसन पर बिठाया और अग्निदेव से पूछाः “यह बालक कौन है ?”
अग्निदेव ने जालन्दर के जन्म का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया और नम्रतापूर्वक प्रार्थना की ‘भगवन् ! आप मेरे इस पुत्र को नाथ पंथ की दीक्षा देकर इसका जीवन सार्थक कीजिये।’
दत्तात्रेय जी ने अग्निदेवता की प्रार्थना स्वीकार की। अग्निदेव दत्तात्रेय जी के पास जालन्दर को छोड़कर वहाँ से चले गये। दत्तात्रेय जी ने जालन्दर को नाथ पंथ की दीक्षा देकर उसका नाम जालन्दरनाथ रखा। शास्त्राध्ययन के साथ-साथ अन्य सभी विद्याओं में भी जालन्दर को पारंगत किया। उसके बाद गुरु-शिष्य दोनों ने साथ रहकर 12 वर्ष तक तीर्थाटन किया। तीर्थयात्रा करते-करते दत्तात्रेय जी जालन्दरनाथ को बदरिकाश्रम ले गये। वहाँ उन्हें 12 वर्ष तक तपस्या करने की आज्ञा दी। तपस्या पूरी होने के बाद वे जालन्दरनाथ को शिवजी के पास ले गये। शिवजी सहित अन्य देवताओं ने श्री जालन्दरनाथ को आशीर्वाद दिये।
शिवजी ने अग्निदेवता को बुलाकर तीन दिन तक पिता-पुत्र को अपने पास रखा और जालन्दरनाथ द्वारा कनिकानाथ का प्रागट्य करवाया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 198
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