Monthly Archives: April 2009

उलझो मत, मुक्त बनो


एक होता है पाशवी जीवन, आँखों ने देखी रोशनी, सुंदर लगी, परिणाम का विचार किये बिना पतंगे उड़े और दीपक में जल मरे अथवा ट्रैफिक की लाइट में कुचले गये । इसको बोलते हैं जीव-जंतु का तुच्छ जीवन । ऐसे ही आँखों ने देखा कि हरी-हरी घास है, अब डंडा लगेगा – नहीं लगेगा इसका विचार किये बिना लगा दिया मुँह और पड़ा डंडा । देखा सुंदर या सुंदरी और लग गये पीछे । आँखों ने दिखाया आकर्षण, नाक ने सुगंध की तरफ, जीभ ने हलवाई की दुकान की तरफ अथवा चटपटी चाट की तरफ आकर्षित किया तो ऐन्द्रिक आकर्षण के पीछे फिसल जाना, इसको बोलते  हैं पाशवी जीवन, तुच्छ जीवन ।

इससे कुछ अलग होता है मानवीय जीवन । यह मेरी पत्नी है लेकिन ऋतुकाल के इतने दिन के बाद ही संसार-व्यवहार होगा, पूर्णिमा अमावस्या अथवा पर्व के दिनों में यह नहीं होगा – यह है मानवीय जीवन । लेकिन इतने में ही घूमकर अगर खत्म हुआ तो मनुष्य मरकर या तो पुण्यकर्म से ऊँचे लोक में जायेगा फिर गिरेगा अथवा पापकर्म हुआ तो नरक में जायेगा फिर जीव-जंतुओं की योनियों में आयेगा । मानवीय जीवन पाशवी जीवन से तो ठीक है लेकिन मनुष्यता को महकाये बिना का जीवन है । इसको बोलते हैं लाचार जीवन, पराधीन जीवन ।

पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ।

तीसरा आता है सात्त्विक जीवन । भगवान में इष्ट में प्रीति, रूचि, पर्व का फायदा उठाना । जैसे – भगवान नारायण दान से, यज्ञ से, धूप-दीप से, पूजा-पाठ से संतुष्ट होते हैं और जो पुण्य होता है, उससे भी ज्यादा पुण्य माघ, वैशाख और कार्तिक मासों में सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करने से होता है ताकि आप सर्दी पचा सको, गर्मी भी पचा सको और आपके जीवन में संकल्पबल बढ़े, बुद्धिबल बढ़े ।

सात्त्विक जीवन से भी ऊँचा होता है योग, समाधि और धर्म के अनुकूल जीवन जीकर समाधि से शक्तियाँ पाना, ऋद्धि-सिद्धियाँ पाना, लोक-लोकांतर की बात जानना लेकिन यह भी आखिरी नहीं है । ये सब माया के राज्य में दबे हुए हैं । योगी की समाधि लगेगी तभी वह सुखी होगा और समाधि टूटी तो फिर गड़बड़ी । भक्त की भक्ति हुई तो सुखी और भक्ति से फिसला तो दुःखी । मंदिर, मस्जिद, पूजास्थल में गये लेकिन फिर वही के वही । वही दुःख, चिंता, भय, राग-द्वेष ।

तो भोगी इसलिए रोता है कि रोज़ बढ़िया चीज़ नहीं मिलती, इस जॉब में यह बढ़िया नहीं होता… और भक्त इसलिए रोता है कि प्रेयर सब फलतीं नहीं लेकिन पूर्ण जीवन वाले महापुरुष कहते हैं कि पदोन्नति (प्रमोशन) और सुविधाएँ सदा नहीं रहतीं, असुविधाएँ सदा नहीं रहतीं, भोग भी सदा नहीं रहता, त्याग भी सदा नहीं रहता फिर भी इनको जानने वाला अंतर्यामी परमात्मा सदा रहता है ।

हम हैं अपने-आप हर परिस्थिति के बाप !

यह होता है पूर्ण आत्मा-परमात्मा को पहचाने हुए महापुरुषों का जीवन ! ऐसे लोग जो शराब और मांस से दूर सात्त्विक जीवन जीते हैं, ऐसे पुरुष आत्म-परमात्म पद में स्थिति करते हैं, जागते हैं । उनकी निगाहों से आध्यात्मिक तरंगे निकलती हैं, परमात्मा को छूकर आने वाली उनकी वाणी से सत्संग निकलता है और उनके अस्तित्व से माहौल में विलक्षणता छा जाती है…. वहाँ वाणी नहीं जाती है । ऐसे महापुरुष को देखकर साधक कहता हैः

गुरु जी ! तुम तसल्ली न दो, सिर्फ बैठे ही रहो ।

महफिल का रंग बदल जायेगा,

गिरता हुआ दिल भी सँभल जायेगा ।।

काम में, क्रोध में, लोभ में, पशुता में, मानवीयता में, देवत्व में – इनमें जो दिल गिर रहा है, वह ऐसे ब्रह्मज्ञानी गुरुओं को देखकर सँभलने लगता है । ऐसे सत्पुरुषों के दर्शन के बारे में संत कबीर जी ने कहा हैः

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

जिसका अंत न हो उसको बोलते हैं अनंत । जिस फल से, जिस पद से आप कभी च्युत न हों वह आत्मपद है । उसको पाने वाली बुद्धि बनाना यह सत्संग का काम है । योग-समाधि करके बैठे रहोगे तो ‘ईशावास्य उपनिषद्’ टोकती हैः

अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते । (मंत्रः 9)

जो कारणब्रह्म की उपासना में उलझे रहते हैं वे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं, प्रकृति के अंधकारमय कूप में गिरते हैं ।

उपनिषद कहती है कि जो कार्यब्रह्म अर्थात् शरीर व संसार की उपासना में उलझा है, भोगों में रम गया है वह तो अंधकार में प्रवेश करता ही है लेकिन जो अद्वैत आत्मसत्ता को जानने का लक्ष्य न रखकर केवल कारणब्रह्म अर्थात् निराकार की उपासना में, योग समाधि में ही लगा रहता है वह भी घोर अंधकार में प्रवेश करता है । क्योंकि वह योगाभ्यास उस उपासक को अधिक-से-अधिक स्वर्गलोक या ब्रह्मलोक की प्राप्ति करा देगा परंतु वहाँ के भोगों में रमकर वह जन्म-मरण के चक्र में उलझा ही रहेगा ।

एक भोग के कूप में गिर रहा है तो दूसरा योग के कूप में बैठा है, तीसरा पशुता की नाली में बह रहा है लेकिन ब्रह्मज्ञानी इन सबसे निराला है । वह कहता है – न पशुता की नाली में बहो, न भोग की दलदल में फँसो, न योग के एक कोने में बैठो । योग के समय योग, भोग के समय भोग, व्यवहार के समय व्यवहार करो । संत कबीर जी ने कहाः

ऊठत बैठत वही उटाने । कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।।

उठते-बैठते, खाते-पीते, लेते-देते जो सदा एकरस है वह है हमारा अपना-आप…. हर परिस्थिति का बाप… ऐसा  ब्रह्मज्ञान पा ले । काहे को बेटियों की चिंता करके सिकुड़ता है ? बेटे की चिंता करके, जॉब की चिंता करके जॉबर बनने की क्या कोशिश करता है ? जो बना है वह बिगड़ेगा । जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उस अपने असली स्वरूप को जरा-सा मान ले, जरा सा मान ले। तेरे बाप का जाता क्या है !

भागती फिरती थी दुनिया, जबकि तलब करते थे हम ।

अब जबकि ठुकरा दी, तो बेकरार आने को है ।।

आप अपने ईश्वरत्व में आ जाइये । प्रकृति की चीज़ों के ले आप जॉबर बनकर, नौकर बनकर क्या जिंदगी बर्बाद कर रहे हो ! नौकरी करो, जॉब करो लेकिन जिससे किया जाता है और जिसका फल अनंत होता है उस ज्ञानस्वभाव में आइये, उस ध्यानस्वभाव में आइये, उस प्रेमस्वभाव में आइये, उस कर्तव्यस्वभाव में आइये । और यह सब कर-कराके ‘क्या करें, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ….’ अरे…! चल, आगे चल ! जो हो गया सो हो गया, जो नहीं हुआ सो नहीं हुआ… आगे बढ ! यह तो संसार है, चलता रहेगा । अपने पैर में जूते पहन ले, सारी धरती बिना काँटों की हो जायेगी । तू काहे डरे, काहे मरे ! जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा यह नियम पक्का है । तू अपने-आपको ठीक करके ज्ञान की नाव में बैठ जा बस ! अपने आत्मा को जान, ज्ञान प्रकाश, सत्य-प्रकाश में जी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 196

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मानसिक स्वास्थ्य


मन एक व अणुस्वरूप है । मन का निवास स्थान हृदय व कार्यस्थान मस्तिष्क । इन्द्रियों तथा स्वयं को नियंत्रित करना, ऊह (प्लानिंग) व विचार करना ये मन के कार्य हैं । मन के बाद बुद्धि प्रवृत्त होती है । रज व तम मन के दोष हैं । सत्त्व अविकारी व प्रकाशक है, अतः यह दोष नहीं है । रज प्रधान दोष है । इसी की सहायता से तम प्रवृत्त होता है ।

नारजस्कं तमः प्रवर्तते ।

रज व तम काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिंता, उद्वेग, भय और हर्ष इन बारह विकारों को उत्पन्न करते हैं । ये विकार उग्र हो जाने पर मन क्षुब्ध हो जाता है । क्षुब्ध मन मस्तिष्क की क्रियाओं को उत्तेजित कर मानसिक रोग उत्पन्न करता है । मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, भक्ति, शील, शारीरिक चेष्टा व आचार (कर्तव्य का पालन) की विषमता को मानसिक रोग जानना चाहिए ।

विरुद्ध, दोष-प्रकोपक, दूषित व अपवित्र आहार तथा गुरु, देवता व ब्राह्मण के अपमान से बारह प्रकार के मनोविकार बढ़ते है और ज्ञान (शास्त्रज्ञान), विज्ञान (आत्मज्ञान), धैर्य, स्मृति व समाधि से सभी मनोविकार शांत होते हैं ।

मानसो ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः ।

(चरक संहिता, सूत्रस्थानम्- 1.58)

ज्ञान-विज्ञानादि द्वारा मन (सत्त्व) पर विजय प्राप्त कराने वाली इस चिकित्सा पद्धति को चरकाचार्य जी ने ‘सत्तवाजय चिकित्सा’ कहा है ।

आज का मानव शारीरिक अस्वास्थ्य से भी अधिक मानसिक अस्वास्थ्य से पीड़ित है । मानस रोगों में दी जाने वाली अंग्रेजी दवाइयाँ मन व बुद्धि को अवसादित (डिप्रेस) कर निष्क्रिय कर देती हैं । सत्त्वाजय चिकित्सा मन को निर्विकार व बलवान बनाती है, संयम, ध्यान-धारणा, आसन-प्राणायाम, भगवन्नाम-जप, शास्त्राध्ययन के द्वारा चित्त का निरोध करके सम्पूर्ण मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करती है ।

मन को स्वस्थ व बलवान बनाने के लिए

1 आहारशुद्धिः

आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः । सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः ।। (छान्दोग्य उपनिषद् 7.26.2)

शब्द-स्पर्शादि विषय इन्द्रियों का आहार हैं । आहार शुद्ध होने पर मन शुद्ध होता है । शुद्ध मन में निश्चल स्मृति (स्वानुभूति) होती है ।

2 प्राणायामः प्राणायाम से मन का मल नष्ट होता है । रज व तम दूर होकर मन स्थिर व शांत होता है ।

3 शुभ कर्मः मन को सतत शुभ कर्मों में रत रखने से उसकी विषय-विकारों की ओर हने वाली भागदौड़ रुक जाती है ।

4 मौन (अति भुखमरी नहीं) संवेदन, स्मृति, भावना, मनीषा, संकल्प व धारणा – ये मन की छः शक्तियाँ हैं । मौन व प्राणायाम से इन सुषुप्त शक्तियों का विकास होता है ।

5 उपवासः उपवास से मन विषय-वासनाओं से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है ।

6 मंत्रजपः भगवान के नाम का जप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवी गुणों को प्रकट करता है ।

7 प्रार्थनाः प्रार्थना से मानसिक तनाव दूर होकर मन हलका व प्रफुल्लित होता है । मन में विश्वास व निर्भयता आती है ।

8 सत्य भाषणः सदैव सत्य बोलने से मन में असीम शक्ति आती है ।

9 सद्विचारः कुविचार मन को अवनत व सद्विचार उन्नत बनाते हैं ।

10 प्रणवोच्चारणः दुष्कर्मों का त्याग कर किया गया ॐकार का दीर्घ उच्चारण मन को आत्म-परमात्म शांति में एकाकार कर देता है ।

इस शास्त्रनिर्दिष्ट उपायों से मन निर्मलता, समता व प्रसन्नतारूपी प्रसाद प्राप्त करता है ।

पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोबर), सुवर्ण तथा ब्राह्मी, यष्टिमधु, शंखपुष्पी, जटामांसी, वचा, ज्योतिष्मती आदि औषधियाँ मानस रोगों के निवारण में सहायक हैं ।

सत्त्वसार पुरुष के लक्षणः

सत्त्वसार पुरुष स्मरणशक्तियुक्त, बुद्धिमान, भक्तिसम्पन्न, कृतज्ञ, पवित्र, उत्साही, पराक्रमी, चतुर व धीर होते हैं । उनके मन में विषाद कभी नहीं होता । उनकी गतियाँ स्थिर व गंभीर होती हैं वे निरंतर कल्याण करने वाले विषयों में मन और बुद्धि को लगाये रहते हैं ।

आयुर्वेद का अवतरण

शरीर, इन्द्रियाँ, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं और उस आयु का ज्ञान देने वाला वेद है – आयुर्वेद ।

तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविदां मतः ।

वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम् ।। (चरक संहिता, सूत्रस्थानम्- 1.43)

आयुर्वेद आयु का पुण्यतम वेद होने के कारण विद्वानों द्वारा पूजित है । यह मनुष्यों के लिए इस लोक परलोक में हितकारी है । अपना हित चाहने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह आयुर्वेद के उपदेशों का अतिशय आदर के साथ पालन करे ।

आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है और वह अपौरूषेय है अर्थात्  इसका कोई कर्ता नहीं है ।

ब्रह्मा स्मृत्वाऽऽयुषो वेदम् । (अष्टांगहृदयम्, सूत्रस्थानम् – अध्याय 1)

ब्रह्मा जी के स्मरणमात्र से आयुर्वेद का आविर्भाव हुआ । उन्होंने सर्वप्रथम एक लाख श्लोकों वाली ‘ब्रह्म संहिता’ बनायी व दक्ष प्रजापति को इसका उपदेश दिया । दक्ष प्रजापति ने सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद सिखाया । अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को तथा इन्द्र ने आत्रेय आदि मुनियों को आयुर्वेद का ज्ञान कराया । उन सब मुनियों ने अग्निवेश, पराशर, जातुकर्ण आदि ऋषियों को ज्ञान कराया, जिन्होंने अपने-अपने नामों की पृथक-पृथक संहिताएँ बनायीं । उन संहिताओं का प्रति-संस्कार करके शेष भगवान के अंश चरकाचार्य जी ने चरक संहिता बनायी, जो आर्युवेद की प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ संहिता मानी जाती है । आयुर्वेद के आठ अंग हैं-

1 कायचिकित्सा – सम्पूर्ण शरीर की चिकित्सा ।

2 कौमार भृत्य तंत्र – बालरोग चिकित्सा ।

3 भूतविद्या – मंत्र, होम, हवनादि द्वारा चिकित्सा ।

4 शल्य तंत्र – शस्त्रकर्म चिकित्सा ।

5 शालाक्य तंत्र – नेत्र, कर्ण, नाक आदि की चिकित्सा ।

6 अगद तंत्र – विष की चिकित्सा ।

7 रसायन तंत्र – वृद्धावस्था को दूर करने वाली चिकित्सा ।

8 वाजीकरण तंत्र – शुक्रधातुवर्धक चिकित्सा ।

इन आठ अंगों में व्याधि-उत्पत्ति के कारण, व्याधि के लक्षण व व्याधि-निवृत्ति के उपायों का सूक्ष्म विवेचन समग्ररूप से किया गया है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 196

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दर्दनाक अंत


इतिहास साक्षी है कि धन और सत्ता के लिए मनुष्य ने मनुष्य का इतना खून बहाया है कि वह अगर इकट्ठा हो तो रक्त का दरिया उमड़ पड़े । धन, राज्य, अधिकार की लिप्सा में अनेक राजाओं ने जिस प्रकार दुनिया को तबाह किया उसे पढ़-सुनकर दिल दहल जाता है, किंतु ऐसे सभी आक्रमणकारियों या विजेताओं का अंत अत्यंत दर्दनाक, दुःख और पश्चाताप से पूर्ण था ।

दिग्विजयी सिकंदर अनेक देशों को जीत लेने के पश्चात् अपनी युवावस्था में ही मृत्यु शय्या पर आ पड़ा और अंतिम वेला में उसने अपने साथियों से कहाः “मेरी मृत्यु के पश्चात मेरे दोनों हाथ अर्थी से बाहर निकाल देना ताकि दुनिया के लोग यह जान सकें कि सिकंदर, जिसके अधिकार में अपार खजाने थे, वह भी आज खाली हाथ जा रहा है ।”

याद रख सिकंदर के, हौसले तो आली थे ।

जब गया था दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे ।।

महमूद गजनवी ने ग्यारहवीं शताब्दी में नगरकोट तथा सोमनाथ के मंदिर को लूटा । इस लूट में उसे अपार सम्पदा मिली । कहते हैं गजनवी ने अपनी मृत्युवेला में अपने सिपाहियों से कहाः “मेरी शय्या उन तिजोरियों के बीच में डाल दो, जिनमें लाल, हीरे, पन्ने आदि मणिरत्न मौजूद हैं ।”

जब उसे उन तिजोरियों के बीच में ले जाया गया तो वह छटपटाकर उठा, तिजोरियों को पकड़कर सीने से चिपटाते हुए फूट-फूटकर रो पड़ा और कराहते हुए बोलाः “हाय ! मैंने इन लाल, भूरे, नीले, पीले, सफेद पत्थरों को इकट्ठा करने में ही जीवन गँवा दिया । लूटपाट, खून-खराबा और धन की हवस में सारी जिंदगी बर्बाद कर दी ।”

वह रोता, हाथ मलता, पश्चाताप की आग में छटपटाता हुआ मरा ।

सन् 1398 में तैमूर लंग बानवे हजार सवार लेकर लूटमार करता हुआ जब दिल्ली पहुँचा तब एक लाख हिन्दुओं के सिर कटवाकर उसने वहाँ ईद की नमाज पढ़ी । वह दिल्ली की किसी सड़क पर अपने सिपाहियों के साथ जा रहा था । उसे रास्ते में एक अंधी बुढ़िया मिली । तैमूर ने बुढ़िया से उसका नाम पूछा । बुढ़िया ने यह जानकर कि मेरा नाम पूछने वाला खूँखार और बेरहम तैमूर है, कड़कते स्वर में अपना नाम दौलत बताया । नाम सुनते ही तैमूर हँसा और बोलाः “दौलत भी अंधी होती है !” बुढ़िया ने कहाः “हाँ ! दौलत भी अंधी होती है तभी तो वह लूटमार और खून-खराबे के जरिये लूले और लँगड़े के पास पहुँच जाती है ।”

तैमूर बुढ़िया के हृदय विदारक वाक्यों को सुनकर बहुत लज्जित हुआ, उसके चेहरे पर उदासी छा गयी । वह आगे बढ़ा, उसे लगा कि अंधी दौलत के पीछे मैं लँगड़ा ही नहीं अंधा भी हूँ ।

सिकंदर हो या करूँ, गजनवी हो या औरंगजेब, तुगलक हो या सिकंदर लोदी, चंगेज, मुसोलिनी, नेपोलियन, हिटलर या जापान के नागासाकी एवं हिरोशिमा पर बम गिराकर वहाँ की निरपराध जनता और सम्पत्ति को नष्ट करने वाले अमेरिकी शासक, सद्दाम हो या अन्य कोई भी मानवीय अधिकारों, सुख-सुविधाओं को नष्ट करने वाले अधिपति, इतिहास के पन्ने ऐसे अनेक अत्याचारियों द्वारा खून-खराबों एवं धन, राज्य, भोगों की लिप्सा के कुकृत्यों से रँगे पड़े हैं । किन्तु इन सब युद्धों और लड़ाइयों का परिणाम अत्यंत दुःखजनक ही सिद्ध होता है । अंततः धन-सत्ता का पिपासु विनाश के गर्त में चला जाता है और सम्पूर्ण वैभव यहीं छूट जाता है, फिर भी मनुष्य सावधान नहीं होता !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 196

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