Monthly Archives: April 2009

मन को वश करने के उपाय


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः ।

‘मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है ।’ (मैत्रायण्युपनिषद् 4.4)

श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘जिसका मन वश में नहीं है उसके लिए योग करना अत्यंत कठिन है, यह मेरा मत है ।’ (गीताः 6.36)

मन को वश करने के, स्थिर करने के उपाय हैं, जैसे-

1 प्रेमपूर्वक भगवन्नाम का कीर्तन करनाः हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।’ – वाणी से यह बोलते गये और मन में ‘ॐॐ’ बोलते गये । ऐसा करने से मन एकाग्र होगा, रस आने लगेगा और वासनाएँ भी मिटने लगेंगी ।

मन-ही-मन भगवान के नाम का कीर्तन करो, वाणी से नहीं, कंठ से भी नहीं, केवल मन में कीर्तन करो तो भी मन एकाग्र होने लगेगा ।

2 श्वासोच्छवास की गिनती द्वारा जपः जीभ तालू में लगाकर श्वासोच्छवास की गिनती करें । होंठ बंद हो, जीभ ऊपर नहीं नीचे नहीं बीच में ही रहे और श्वास अंदर जाये तो ‘ॐ’ बाहर आय तो एक, श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’ बाहर आये तो दो… – इस प्रकार गिनती करने से थोड़े ही समय में मन लगेगा और भगवद् रस आने लगेगा, मन का छल, छिद्र, कपट, अशांति और फरियाद कम होने लगेगी । वासना क्षीण होने लगेगी । पूर्ण गुरु की कृपा हजम हो जाय, पूर्ण गुरु का ज्ञान अगर पा लें, पचा लें तो फिर तो ‘सदा दीवाली संत की, आठों पहर आनंद । अकलमता कोई ऊपजा, गिने इन्द्र को रंक ।।’

ऐसी आपकी ऊँची अवस्था हो जायेगी ।

3 चित्त को सम रखनाः शरीर मर जायेगा, यहीं पड़ा रह जायेगा, सुविधा-असुविधा सब सपना हो जायेगा । बचपन के मिले हुए सब सुख और दुःख सपना हो गये, जवानी की सुविधा-असुविधा सपना हो गयी और कल की सुविधा-असुविधा भी सपना हो गयी । तो सुविधा में आकर्षित न होना और असुविधा में विह्वल न होना, समचित होना – इससे भी मन शांत और सबल होगा । यह ईश्वरीय तत्त्व को जागृत करने की विधि है ।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।

‘हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ।’ (भगवद्गीताः 6.32)

4 प्राणायाम करनाः खुली हवा में, शुद्ध हवा में दस प्राणायाम रोज करें । इससे मन के दोष, शरीर के रोग मिटने लगते हैं । प्राणायाम में मन की मलिनता दूर करने की आंशिक योग्यताएँ हैं । भगवान श्रीकृष्ण सुबह ध्यानस्थ होते थे, संध्या-प्राणायाम औदि करते थे । भगवान श्री राम भी ध्यान और प्राणायाम आदि करते थे । इऩ्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है । प्राण तालबद्ध होने से मन की दुष्टता और चंचलता नियंत्रित होती है ।

दस-ग्यारह प्राणायाम करके फिर दोनों नथुनों से श्वास खींचे और योनि को सिकोड़ कर रखें, शौच जाने की जगह (गुदा) का संकोचन करें, इसे ‘मूलबंध’ बोलते हैं । वासनाओं का पुंज मूलाधार चक्र में छुपा रहता है । योनि संकोचन करें और श्वास को रोक दें, फिर भगवन्नाम जप करें, इससे वासनाएँ दग्ध होती जायेंगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 196

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दिव्य दृष्टि


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

भगवान श्रीरामचन्द्रजी अरण्य में विश्राम कर रहे थे और लखन भैया तीर-कमान लेकर चौकी कर रहे थे । निषादराज ने श्रीरामजी की यह स्थिति देखकर कैकेयी को कोसना शुरु कियाः “यह कैकेयी, इसे जरा भी ख्याल नहीं आया ! सुख के दिवस थे प्रभु जी के और धरती पर शयन कर रहे हैं ! राजाधिराज महाराज दशरथनंदन राजदरबार में बैठते । पूर्ण यौवन, पूर्ण सौंदर्य, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण प्रेम, पूर्ण प्रकाश, पूर्ण जीवन के धनी श्रीराम जी को धकेल दिया जंगल में, कैकेयी की कैसी कुमति हो गयी !”

लखन भैया के सामने कैकेयी को उसने कोसा । निषादराज ने सोचा कि ‘लक्ष्मणजी मेरी व्यथा को समझेंगे और वे भी कैकेयी को कोसेंगे’ लेकिन लखन लाला ऐन्द्रिक जीवन में बहने वाले पाशवी जीवन से ऊँचे थे । वे मानवीय जीवन के सुख-दुःखों के थपेड़ों से भी कुछ ऊँचे उठे हुए थे । उन्होंने कहाः “तुम कैकेयी मैया को क्यों कोसते हो ?

काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता ।

कोई किसी को सुख-दुःख देने वाला नहीं है ।”

जो बोलता है फलाने ने दुःख दिया, फलाने ने दुःख दिया, वह कुछ नहीं जानता है, अक्ल मारी हुई है उसकी । कुछ लोगों ने करोड़ों रूपये खर्च करके बापू का कुप्रचार कराया और यदि मैं बोलता कि ‘इन्होंने कुप्रचार करके मुझे दुःखी किया, हाय ! दुःखी किया’ तो मैं सचमुच ‘दुःख मेकर’ (दुःख बनाने वाला) हो जाता । वे कुप्रचार वाले कुप्रचार करते रहे और हम अपनी मस्ती में रहे तो मेरे पास तो सत्संगियों की भीड़ और बढ़ गयी । यह नियति होगी ।

निषादराज बोलता हैः “यह अच्छा नहीं हुआ ।” और लखन भैया कहते हैं कि “कोई किसी के सुख-दुःख का दाता नहीं होता है, सबका अपना-अपना प्रारब्ध होता है, अपना-अपना सोच-विचार होता है, इसी से लोग सुखी-दुःखी होते हैं । तुम कैकेयी अम्बा को मत कोसो ।”

निषादराज कहता है “क्या श्रीरामचन्द्रजी अपना कोई प्रारब्ध, अपने किसी पाप का फल भोग रहे हैं ? आपका क्या कहना है ?”

लक्ष्मण जी कहते हैं- “श्रीराम जी दुःख नहीं भोग रहे हैं, दुःखी तो आप हो रहे हैं । श्रीराम जी तो जानते हैं कि यह नियति है, यह लीला है । सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण ये सब खिलवाड़ हैं, मैं शाश्वत तत्त्व हूँ और रोम-रोम में रम रहा हूँ, अनंत ब्रह्माण्डों में रम रहा हूँ । यह तो नरलीला करने के लिए यहाँ राम रूप से प्रकट हुआ हूँ । श्रीराम जी प्रारब्ध का फल नहीं भोग रहे हैं । श्रीराम जी तो गुणातीत हैं, देशातीत हैं, कालातीत हैं और प्रारब्ध से भी अतीत हैं । महापुरुष प्रारब्ध का फल नहीं भोगते, वे प्रारब्ध को बाधित कर देते हैं । प्रारब्ध होता है शरीर का, मुझे क्या प्रारब्ध ! यश-अपयश शरीर का होता है, बीमारी-तन्दुरुस्ती शरीर को होती है, मेरा क्या ! हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति को जानने वाले उसके बाप ! ऐसा तो सब ज्ञानवान जानते हैं फिर श्रीरामचन्द्र जी तो ज्ञानियों में शिरोमणि हैं । वे कहाँ दुःख भोग रहे हैं ! दुःख तो निषादराज आप बना रहे हैं ।”

अब ध्यान देना, इस कथा से आप कौनसा नजरिया (दृष्टि) लेंगे ? कैकेयी कुटिल रही, स्वार्थी रही और अपने बेटे के पक्ष में वरदान लिया, यह अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित किया – ऐसा समझकर आप अगर अनुचित से बचना चाहते हैं तो इस पक्ष को स्वीकार करके अपने अंतःकरण को गलतियों से, कुटिलता से बचा लें तो अच्छी बात है । अगर, कैकेयी में प्रेम था और राम जी के दैवी कार्य में कैकेयी ने त्याग और बलिदान का परिचय दिया है, इतनी निंदा सुनने के बाद भी, लोग क्या-क्या बोलेंगे, यह समझने के बाद भी कैकेयी ने यह किया है ऐसा आप मानते हैं तो कैकेयी के इस त्याग, प्रेम को याद करके अंतःकरण में सद्भाव को स्वीकार करिये । कैकेयी को कोसकर आप अपना दिल मत बिगाड़िये अथवा कैकेयी ने श्रीराम जी को वनवास दिया, अच्छा किया और हम भी ऐसा ही आचरण करें – ऐसा सोचकर अपने दिल में कुटिलता को मत लाइये । जिससे आपका दिल, दिलबर के ज्ञान से, दिलबर के प्रेम से, दिलबर की समता से, परम मधुरता से भरे, वही नजरिया आपके लिए ठीक रहेगा, सही रहेगा, बढ़िया रहेगा ।

कोई भाभी, कोई देवरानी, कोई जेठानी, कोई सास या बहू अऩुचित करती है तो आप यह अनुचित है ऐसा समझकर अपने जीवन में उस अनुचित को न आने दें, तब तक तो ठीक है लेकिन ‘यह अनुचित करती है, यह निगुरी ऐसी है, वैसी है…’ – ऐसा करके आप उन पर दोषारोपण करके अपने दिल को बिगाड़ने की गलती करते हैं तो आप पशुता में चले जायेंगे । यदि सामने वाली सास-बहू, देवरानी-जेठानी सहनशक्तिवाली है तो उसका सद्गुण लेकर आप समता लाइये । किसी में कोई सद्गुण है तो वह स्वीकारिये और किसी में दुर्गुण है तो उससे अपने को बचाइये । ऐसा करके आप अपने अंतःकरण का विकास कीजिये । न किसी का दोष देखिये और न किसी को दोषी मानकर आरोप करिये और न किसी की आदत के गुलाम बनिये ।

किसी के दोष देखकर आप मन में खटाई लायेंगे तो आपका अंतःकरण खराब होगा लेकिन दोष दिखने पर आप उन दोषों से बचेंगे और उसको भी निर्दोष बनाने हेतु सद्भावना करेंगे तो आप अपने अंतःकरण का निर्माण कर रहे हैं । संसार तो गुण-दोषों से भरा है, अच्छाई-बुराई से भरा है । आप किसी की अच्छाई देखकर उत्साहित हो जाइये, आनंदित होइये और बुराई दिखने पर अपने को उन बुराइयों से बचाकर अपने अंतःकरण का निर्माण करिये और गहराई में देखिये कि यही अच्छाई-बुराई के ताने-बाने संसार को चलाते हैं, वास्तव में तत्त्वस्वरूप भगवान सच्चिदानंद हैं, मैं उन्हीं में शांत हो रहा हूँ । जहाँ-जहाँ मन जाय, उसे घुमा-फिराकर छल, छिद्र, कपट से रहित, गुण-दोष के आकर्षण से रहित अपने भगवत्स्वभाव में विश्रांति दिलाइये, विवेक जगाइये कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने को ऐसा पूछकर शांत होते जाइये ।

आप पुरुषार्थ करके अपनी मति को ऐसा बनाइये कि आपको लगे कि भगवान पूर्णरूप से मेरे ही हैं ।  के दस बेटे होते हैं, हर बेटे को माँ पूर्णरूप से अपनी लगती है, ऐसे ही भगवान हमको पूरे-के-पूरे अपने लगने चाहिए । ऐसा नहीं कि भगवान बापू जी के हैं, आपके नहीं हैं । जितने बापू जी के हैं उतने-के-उतने आपके हैं ।

‘ऋग्वेद’ कहता हैः मन्दा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वम् । तुम अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाओ और कर्म करो ।’ (10,101,2) और कर्म में ऐसी कुशलता लाओ कि कर्म तो हो लेकिन कर्म के फल की लोलुपता नहीं हो और कर्म में कर्तृत्व अभिमान भी नहीं हो । कर्म प्रारब्ध-प्रवाह से होता रहे और आप कर्म को कर्मयोग बनाकर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त करके भगवान में विश्राम पाओ, भगवान में प्रीति बढ़ाओ, ब्रह्मस्वभाव में जगो, ब्राह्मी स्थिति बनाओ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 196

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कल्याणकारी छः बातें


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से

परमात्मदेव का ज्ञान, परमात्मदेव की प्रीति, परमात्मदेव में विश्रांति मिले ऐसे कर्म, ऐसा चिंतन, ऐसा संग, ऐसे शास्त्रों का अध्ययन करना, ऐसा भाव बनाना पुरुषार्थ है और इसके विपरीत करना प्रमाद है । प्रमाद मौत की खाई में गिराता है । बार-बार जन्मो, बार-बार मरो, बार-बार माँ की कोख में फँसो… इस प्रकार न जाने कितने जन्म बीत गये, कितने माँ-बाप, कितने मित्र, कुटुम्बी छोड़के आये हो । तो अब यह जीवन विफल न हो इसलिए इन छः बातों का याद रखें-

1 अपना लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए ।

2 अपने जीवन में उत्साह बना रहे ।

3 भगवान में, अपने-आप में श्रद्धा बनी रहे ।

4 किस पर भरोसा करें, किस पर नहीं ? सावधान रहें ।

5 जीवन में धर्म होना चाहिए ।

6 अपनी अंतिम यात्रा कैसी हो ?

एक तो अपने लक्ष्य का निश्चय कर लें, अपना लक्ष्य ऊँचा बना लें । दो प्रकार के लक्ष्य होते हैं- एक होता है वास्तविक लक्ष्य, दूसरा होता है अवांतर लक्ष्य । परम सुख, परम ज्ञान, परम मुक्त अवस्था को पाना, आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पाना यह वास्तविक लक्ष्य है । खाना-पीना, कमाना और इनके सहायक कर्म यह अवांतर लक्ष्य है । किसी से पूछा जाय कि ‘आपके जीवन का उद्देश्य क्या है ?’ तो बोलेंगे- ‘मैं वकील बनूँ, मैं सेठ बनूँ….’ नहीं, यह जीवन का वास्तविक उद्देश्य नहीं है, जीवन का वास्तविक उद्देश्य है शाश्वत सुख पाना और उसके सहायक सब कर्म साधन हैं ।

कुछ लोग लक्ष्य बना लेते हैं, ‘मैं डॉक्टर बनूँगा ।’ डॉक्टर बन गया बस । यह क्या लक्ष्य है ! यह तो मजूरी है । यदि तुमने वकील बनने का लक्ष्य बना लिया तो यह तो अवांतर लक्ष्य है बेटे ! मुख्य लक्ष्य है अपने आत्मा-परमात्मा को पाकर सदा के लिए दुःखों, कष्टों, चिंताओं से मुक्त हो जाना । फिर भी शरीर रहेगा तब तक ये दुःख, कष्ट आयेंगे लेकिन आप तक नहीं पहुँचेंगे, आप  अपने पृथक परमेश्वर स्वभाव में, अमर पद में प्रतिष्ठित रहोगे । तो ऐसे लक्ष्य का निश्चय कर लो ।

दूसरी बात है मन में उत्साह बना रहे । उत्साह का मतलब है सफलता, उन्नति, लाभ और आदर के समय चित्त में काम करने का जैसा जोश, तत्परता, बल बना रहता है, ठीक ऐसा ही प्रतिकूल परिस्थिति में बना रहे । जिसका उत्साह टूटा, मानो उसका जीवन सफल हो गया । उत्साहहीन जीवन व्यर्थ है ।

उत्साहसमन्वितः…. कर्ता सात्त्विक उच्यते ।

‘उत्साह से युक्त कर्ता सात्त्विक कहा जाता है ।’ (भगवद्गीताः 18.26)

जो काम करें उत्साह से करें, तत्परता से करें, लापरवाही न बरतें । उत्साह से काम करने से योग्यता बढ़ती है, आनंद आता है । उत्साहहीन होकर काम करने से कार्य बोझ बन जाता है ।

उत्साह बिनु जो कार्य हो, पूरा कभी होता नहीं ।

उत्साह होता है जहाँ, होती सफलता है वहीं ।

उत्साह न छोड़ें और लापरवाही न करें, जीवन में धैर्य रखें ।

तीसरी बात है ईश्वर पर और अपने पर भरोसा रखें । ऊँचे लोगों पर भरोसा रखें । ऊँचे-में-ऊँचे हैं परमात्मा, जो परमात्मा के नाते जीवनयापन करते है ऐसे लोगों की बातो पर दृढ़ विश्वास रखें ।

चौथी बात है किस पर कितना विश्वास रखें, किस पर न रखें ? कर्म करने में, विचार करने में, संग करने में, विश्वास करने में सावधान रहें । किसकी बात पर विश्वास करें ? जो स्वार्थी हैं, द्वेषी हैं, निंदक हैं, कृतघ्न है, बेईमान हैं उनकी बातों पर विश्वास करें कि जो भगवान के रास्ते चल रहे हैं, भगवत्सुख में हैं, भगवद्ज्ञान में है, ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय’ जिनका जीवन है उनकी बातों प ? किसका संग करना चाहिए और किसके संग से बचना चाहिए ? जो बहिर्मुख हैं, झगड़ालू हैं, विषय विकारों में पड़ रहे हैं, निंदक हैं उनसे बचें । जो अपने सजातीय हैं अर्थात् भगवान के रास्ते हैं, प्रीति में हैं, ज्ञान में हैं उनका संग करें, उनकी बातों में श्रद्धा करें । श्रद्धावान के संग से श्रद्धा निखरती है, साधक के संग से साधना निखरती है और शराबी के संग से जुआरीपना आता है तो हमको क्या चाहिए उसी प्रकार का ऊँचा संग करें ।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में वसिष्ठजी महाराज कहते हैं कि अच्छा संग करना चाहिए, अपने अंतःकरण का शोधन हो ऐसा संग करना चाहिए, सत्शास्त्रों का आश्रय लेना चाहिए । संतजनों का संग करके संसार-सागर से तरने का उपाय करना चाहिए अर्थात् आसुरी वृत्तियों से बचना चाहिए । जो हमारा समय, शक्ति, बुद्धि, जीवन खराब कर दें ऐसे संग से, ऐसे भोगों से ऐसे चिंतन से, ऐसे साहित्य से बचकर श्रेष्ठ साहित्य, श्रेष्ठ संग, श्रेष्ठ चिंतन और श्रेष्ठ में श्रेष्ठ परमात्मा की बार-बार स्मृति करके उसमें गोता मारने का अभ्यास कर दो तो अंत में जीवन भगवान से मिलाने वाला हो जायेगा ।

पाँचवी बात है जीवन में धर्म का नियंत्रण हो । जीवन में धर्म का नियंत्रण होगा तो अनुचित कार्यों पर रोक लग जायेगी और उचित होने लगेगा, अऩुचित में समय-शक्ति बर्बाद नहीं होगी । आप अनुचित नहीं करते तो लोग आपको बदनाम करने की साजिशें रचकर आपकी निंदा करवाते हों फिर भी आपके अंतःकरण में खलबली नहीं मचेगी । आपके जीवन में धर्म है, आपके जीवन में परोपकार, है, आपकी बुद्धि भगवत्प्रसादजा है तो आपका कुप्रचार करने वाले थक जायें, फिर भी आपका बाल बाँका नहीं होगा । जीवन में धर्म का फल है कि हर परिस्थिति में हम सम रहें । जैसे धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन ने कितना कष्ट दिया लेकिन धर्मराज का बाल बाँका नहीं हुआ ।

छठी बात है अपनी अंतिम यात्रा कैसी हो ? आखिर में कैसे मरना है यह याद रहे, मरना तो पड़ेगा ही । चिंता लेकर मरना है, तड़पते हुए मरना है, अधूरा काम छोड़कर मरना है, कुछ पाते-पाते या छोड़ते-छोड़ते मरना है, भय लेकर मरना है अथवा वासना के जाल में छटपटाते हुए मरकर बाद में कई जन्मों में भटकना पड़े ऐसे मरना है ? नहीं ! निश्चिंत होकर, पूर्णकाम होकर, आप्तकाम होकर मरना है । कोई इच्छा, कोई वासना न रहे, हमारे जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाय बस ।

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान ।…..

तो वैसा अभ्यास और वैसी यात्रा रोज करते रहना चाहिए । इससे जीवन निर्भार रहेगा, निर्दुःख रहेगा । इस जीवन को अपने पूर्ण तत्त्व का अनुभव करने वाला जीवन बनाना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2009, पृष्ठ संख्या 2,3 अंक 196

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